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Home » शिएनथुक : द ओकलैंड : रीतामणि वैश्य

शिएनथुक : द ओकलैंड : रीतामणि वैश्य

अरुणाचल प्रदेश समृद्ध और विविधता से भरपूर है. संपर्क भाषा के रूप में हिंदी से जुड़ाव के बावजूद अपरिचय अभी भी बना हुआ है. लेखिका रीतामणि वैश्य ने वहाँ के एक गाँव ‘शिएनथुक’ की मिट्टी से इस कथानक का सृजन किया है. स्थानीय बदलाव और द्वंद्व को समझने के साथ-साथ वहाँ की संस्कृति से भी हमारा परिचय बढ़ता है. ख़ास बात यह है कि शिएनथुक के लोग भी इसके प्रकाशन को लेकर उत्सुक हैं. प्रतिबिंब ही नहीं प्रतिनिधित्व भी दिखे; किसी पत्रिका के लिए भरोसे से पैदा हुई यह एक सुंदर बात है. देखते हैं, मुझ नातवाँ से यह ज़िम्मेदारी कहाँ तक उठती है? कहानी प्रस्तुत है. आपकी प्रतिक्रियाओं को इसके पात्र भी पढ़ रहे होंगे. यह और सुंदर बात है.

by arun dev
October 22, 2024
in कथा
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शिएनथुक : द ओकलैंड : रीतामणि वैश्य
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शिएनथुक
द ओकलैंड                                                                           

रीतामणि वैश्य

‘बाबा, बाबा मुझे आसू काचुपू1 बनने का बड़ा मन करता है.’

शाम के समय भुकारी2 के पास बैठकर खाछाम फाक3 का मजा ले रहे पेमा खांडु लमरुङ से उसके आठ-दस साल का बेटा दर्जी खांडु लमरुङ बोला.

‘शाबाश मेरा बेटा. यही तो शेरदुकपेन4 की निशानी है. पर अब तुम हिनपुडु5 हो. जब तुम बड़े हो जाओगे, तब तुम्हारी ख़्वाहिश जरूर पूरी होगी. पर मेरे जाने के बाद.’

‘तब तो मुझे कभी भी आसू काचुपू नहीं बनना है.’ प्यार से बाप के गले लगकर दर्जी खांडु बोला.

‘ऐसा कैसे हो सकता है? हर किसी को अपने हिस्से का काम करना पड़ता है. जुङ6 का सदस्य बनना शेरदुकपेन का सामाजिक दायित्व है. जब हिनपुडु की उम्र पार कर कोई शेरदुकपेन अपने परिवार का मुखिया बनता है, तब वह अपने आप जुङ का सदस्य बन जाता है. जुङ में ही आसू काचुपू चुना जाता है. इसी परंपरा से हमारा गाँव शिएनथुक सदियों से चलता आ रहा है और आगे भी ऐसे ही चलता रहेगा.’

‘आप कभी आसू काचुपू बने हैं बाबा?’

‘हाँ. तब मैंने गाँव का खूब काम किया.’

‘आप बखो होखान7 भी बने थे?’

‘नहीं. मैं बखो होखान नहीं रहा.’

‘बखो होखान क्या काम करता है?’

‘बखो होखान जुङ की सूचना, निर्णय आदि को घर-घर पहुँचाता है.’

‘आपको बखो होखान क्यों नहीं बन पाये?’

‘उम्र के हिसाब से बखो होखान का चयन होता है. हमारे शेरदुकपेन समुदाय के कुल पाँच कबीले हैं. हर कबीले से एक को एक साल के लिए आसू काचुपू चुना जाता है. इन आसू काचुपुओं में से सबसे उम्रदराज को बखो होखान की ज़िम्मेदारी दी जाती है. उस समय मैं सबसे छोटा आसू काचूपू था तो मैं बखो होखान नहीं चुना गया.’

‘बाबा, आज स्कूल में शहर से आये मेरे नये दोस्त ने मुझे चिढ़ाया.’

‘तुम्हारे दोस्त ने तुम्हें क्या कहकर चिढ़ाया?’

‘यही कि मैं एक नहीं दो इंसान हूँ. मेरे अंदर और एक इंसान छुपा है.’

‘अच्छा? उसने ऐसा क्यों कहा?’

‘वह कह रहा था कि मेरे दो नाम हैं- दर्जी और खांडु. दर्जी मैं हूँ और खांडु मेरे अंदर छुपा है.’

‘तुम कल अपने दोस्त से कह देना कि शेरदुकपेन के पहले और कुलनाम के बीच और एक नाम आता है.’

‘बाबा, लगता है बखो होखान की आवाज है.’ दूर से आने वाली आवाज को सुनने की कोशिश करते हुए दर्जी खांडु बोला.

‘चलो, बाहर जाकर सुनते हैं.’

नीरव निस्तब्ध शिएनथुक में शाम के समय गाँव के बीच से गुजरने वाले झरने की एकताल कलकल ध्वनि को छोड़कर कोई दूसरी आवाज सुनाई नहीं देती है. बखो होखान की  तेज आवाज निस्तब्धता भंग करती हुई हवा में तैरने लगी- ‘सुनो,सुनो,सुनो. ध्यान से सुनो. साफ रहो, सावधानी से रहो,होशियार रहो. साफ रहो, सावधानी से रहो, होशियार रहो. सुनो, सुनो, सुनो.’

पेमा खांडु बेटे दर्जी खांडु के साथ बरामदे पर खड़ा होकर बखो होखान की घोषणा सुनने लगा. आवाज धीरे-धीरे धीमी पड़ गयी. कुछ समय बाद पेमा खांडु की माँ फेमा देमू लमरुङ ने पेमा खांडु के पास खड़ी होकर पूछा-

‘क्या बखो होखान चला गया?’

‘हाँ, अभी इधर से निकल गया.’

‘इतनी जल्दी?’

‘कोई नयी बात न हो तो उसे इतना ही समय लगता है.’

‘हाँ, उसे गाँव-गाँव, गली-गली जाना होता है. बेचारा एक ही जगह कितना समय ठहरेगा! आज कुछ नयी खबर नहीं आयी?’

‘नहीं. आज वही बोल गया-सुनो,सुनो,सुनो. ध्यान से सुनो. साफ रहो, सावधानी से रहो, होशियार रहो. . . . .’

बखो होखान की घोषणा के लिए पूरा गाँव इंतजार करता रहता है. अगली शाम भी गाँव वालों के इंतजार की घड़ी समाप्त करते हुए बखो होखान ने घोषणा की- ‘सुनो, सुनो,सुनो. ध्यान से सुनो. कल सुबह दस बजे लागाङ8  के सामने जुङ बुलायी गयी है. सभी आबसुओं9 , जुङमे बरसोओं10  और जुनओं11 को वहाँ समय पर उपस्थित रहने के लिए कहा जाता है. सुनो, सुनो, सुनो.’

अगली सुबह यथा समय जुङ के लगभग सारे सदस्य लागाङ के सामने हाजिर हो गये. आसू कचूपुओं ने आबसुओं के लिए लागाङ के सामने लंबी दरी बिछा दी. दरी की दायी ओर के सिरे के पहले स्थान पर थुकबो12  बैठ गया. उसके बैठते ही उसकी बाईं और दायीं ओर बिछाई गयी दरियों पर आयु के हिसाब से वरिष्ठ से कनिष्ठ सभासद पंक्तियों में बैठे.

‘एक बहुत गंभीर विषय की चर्चा करने के लिए हम आज इस जुङ में मिले हैं. हम पवित्र लागाङ के सामने ही हमेशा जुङ बुलाते आ रहे हैं, ताकि कोई भी झूठ न बोल पाये. हम सत्य को आधार मानकर शेरदुकपेन समाज और जंगल के मंगल के लिए जुङ में निर्णय लेते आ रहे हैं. आज भी ऐसा ही हो.’ कहकर थुकबो चुप हो गया.

थुकबो के चिंतित चेहरे की ओर देखकर एक आबसू खड़ा हो गया और बोला – ‘बात क्या है?’

‘यह जंगल हमारा बसेरा है. हमारे पूर्वज हमें इस जंगल के साथ मजबूती से बांध गये  हैं. प्रकृति हमारी माँ है और हम पेड़, ,झरने, हवा, पानी, आसमान की उपज हैं.   इन सबकी रक्षा करना हमारा परम धर्म है. पर शिएनथुक के सामने जो ओक का पेड़ है, सरकार सड़क बनाने के लिए उसे काटना चाहती है.’ कहते हुए थुकबो की आवाज कुछ भारी हो गयी.

‘ये कैसी बात है? उस ओक में हमारे आराध्य बसे हैं. भगवान के बसेरे को कोई भला कैसे नष्ट कर सकता  है?’ एक दूसरे आबसू ने कहा.

‘वह तो बहुत पुराना पेड़ है. शायद इसकी उम्र तीन सौ से कम नहीं होगी. हमारे धर्मगुरुओं ने जिन छ: ओक पेड़ों में भगवान के रहने की बात की थी, यह उनमें से एक है. हम  सदियों से इनकी बड़ी श्रद्धा से पूजा करते आ रहे हैं. ऐसे महान ओक को काटने के विषय पर हम चर्चा ही क्यों करें?’ इस बार एक जुङ में बरसो ने अपनी राय रखी.

‘बात हमारे वश की होती, तो इस विषय को लेकर जुङ बुलाने का सवाल नहीं आता. बात सरकार की है.’ फिर सबसे वरिष्ठ सरकारी गाँव बूढ़ा की ओर इशारा कर थुकबो बोला-‘आप ही विषय रखिए.’

‘सरकार शिएनथुक का विकास चाहती है. आप सब जानते हैं कि कलकटङ से शिएनथुक होकर रूपा की तरफ जाने वाली एक बड़ी सड़क बन रही है. बाहर से सरकारी लोग आकर इस सड़क के लिए शिएनथुक में जगह नाप गये हैं. इस सड़क के बीचों-बीच हमारे गाँव के सामने का ओक पेड़ आया है. अब सरकार ने इसे काटने का आदेश दिया है.’ संक्षेप में गाँव बूढ़े ने कहा.

‘यह संभव नहीं होगा.’ एक जुङमें बरसो ने कहा.

‘सरकार लोगों की उन्नति की बात करती है,हम लोगों के साथ-साथ इस धरती को बचाने की बात करते हैं,. इसमें कोई संदेह नहीं है कि दूसरी जगहों की अपेक्षा हम अच्छी तरह से अपने गाँव की रखवाली कर रहे हैं. इस गाँव का कानून,रीति-रिवाज सब जुङ तय करती आयी है. सरकार का आदेश मानने के लिए हम मजबूर नहीं हैं.’  एक जुनअ ने कुछ उत्तेजित होकर कहा.

‘शिएनथुक, शेरदुकपेन और ओक की भलाई के लिए हम हमेशा काम करते आये हैं. हमें ओक के बलिदान से मिली सड़क नहीं चाहिए. हम पहाड़ी लोग हैं, पैदल काम चला लेंगे. सड़क बने न बने, उससे हमारा कोई वास्ता नहीं है. हमें इस निर्णय पर अटल रहना चाहिए कि हम उस ओक के पेड़ को नहीं काटने देंगे.’ एक दूसरे जुनअ ने अपना वक्तव्य रखा.

सबका मत सुनने के बाद थुकबो ने निर्णय दिया- ‘आज की जुङ यह निर्णय करती है कि शिएनथुक के लोग शिएनथुक के सामने के ओक पेड़ को काटने नहीं देंगे.’

शाम को गाँव में बखो होखान की घोषणा सुनायी पड़ी – ‘सुनो,सुनो,सुनो. ध्यान से सुनो. सरकार ने गाँव के सामने का ओक का पेड़ काटने का जो आदेश दिया है, आज की जुङ में इसे न मानने का निर्णय हुआ है. सुनो,सुनो,सुनो.’

इस घोषणा से शिएनथुक के शेरदुकपेन लोगों की जान में जान आयी.

 

2

पी. डब्लू. डी. का इंजीनियर लल्लू सिंह गुवाहाटी से होकर कार में जब शिएनथुक पहुँचा, तो वह हैरान होकर रह गया. कलकटङ से पहुँचने से पहले ही रिमझिम बारिश शुरू हो गयी थी. परत दर परत ऊँची पहाड़ियों की पंक्तियों में दूर दिगंत तक ओक के पेड़ फैले थे. नीचे की गहराई में भी ओक और ऊपर की चढ़ाई पर भी ओक ही ओक दिखाई दे रहे थे. उसने ड्राईवर से कहा-

‘क्या नाम है तुम्हारा?’

‘तासी सेरिङ थङसी.’

‘यहीं से हो.

‘हाँ.

‘तासी, कितने खुशकिस्मत हो तुम सब कि शेरगाँव जैसी जगह में रह रहे हो!  मैंने दुनिया देखी है, देश-विदेश के गाँव-शहर मैं घूमाँ हूँ. मैंने जिंदगी में कभी भी इतने पेड़, इतनी हरियाली एकसाथ नहीं देखे हैं. शेरगाँव वाकई में लाजवाब है.’

‘साहब, हम शेरगाँव को अपनी भाषा में शिएनथुक बोलते हैं. आपने जो देखा, वह तो शिएनथुक का एक नजारा है. हर मौसम में शिएनथुक अपना रूप बदलता है. वसंत में शिएनथुक ओक फूलों से लद जाता है. उस समय  ओक के पत्ते कान की बाली के आकार में जब शिएनथुक का शृंगार करते हैं,तब लगता है कि शिएनथुक मानो एक चंचला युवती हो. अप्रैल महीने के समय ये पत्ते फूल जैसे दिखते हैं. अब इस जुलाई के महीने में चारों तरफ हरियाली ही हरियाली है. यहाँ शरद की सुंदरता तो देखते ही बनती है. पूरे सितम्बर महीने से नवंबर महीने तक ओक के पत्ते सुनहले रंग में बदल जाते हैं, मानो शरद में शिएनथुक एक बड़ी सुनहरी चादर ओढ़ लेता हो. पतझड़ में इसके सारे पत्ते झड़ जाते हैं, मानो इस समय शिएनथुक नंगा हो जाता है. इस समय कोई शिएनथुक को पहचान भी नहीं पायेगा. तब ऐसा लगता है कि कहाँ गया वह परिचित शिएनथुक? साहब, भारत में शिएनथुक ही एक ऐसी जगह है, जहाँ चारों ऋतुओं में प्रकृति में आये बदलाव को साफ देखा जा सकता है. प्रकृति को देखकर आप यहाँ ऋतु को पहचान सकते हैं.’

‘देख रहा हूँ.’

‘साहब, अगर प्रकृति को जीना है, महसूस करना है, ब्रह्मांड से संपर्क बनाना है तो हर किसी को शिएनथुक आना चाहिए.’

‘हमारे वहाँ तो हमेशा मानो पतझड़ का मौसम चलता है, पर कभी ठंडी नहीं आती. नंगा शहर,धूल से लथपथ घर-दुकान-सड़क. हमें सर्दी के मौसम में भी गरम कपड़े पहनने के लिए तरसना पड़ता है. तापमान को देखने से लगता है कि शहर में हमेशा गर्मी का मौसम ही रहता है. यहाँ तो गर्मी के मौसम में भी इतनी ठंडक है !’

‘मैंने आपसे कहा न कि इस गाँव का मूल नाम शिएनथुक है. शिएन का मतलब है ठंडा और थुक का मतलब गाँव है. ठंडे के कारण ही इस गाँव का नाम शिएनथुक है. शिएनथुक यानी ठंडा गाँव. बाद में अंग्रेजों के मुँह में पड़कर इस गाँव का नाम शेरगाँव हुआ.’

‘मुझे लगा था कि घना जंगल है तो शेर तो निकलता होगा. इसीलिए शायद गाँव नाम शेरगाँव पड़ा होगा.’

‘यहाँ शेर तो नहीं है, पर तरह-तरह के जंगली जानवर मिलते हैं.’

‘आश्चर्य!’

‘यहाँ की हर एक बात आपको आश्चर्य में डाल देगी.’

‘सही है. खड़ी पहाड़ियों पर चढ़कर टमाटर,बीन्स,बंद गोभी की खेती करते किसानों को देखकर ही मेरा दिल दहल जाता है. अगर कहीं लुढ़क गए तो हड्डी-पसली एक सी हो जाएँगी.’

‘ऐसा नहीं होता है. सब कुछ आदत की बात है. हम इसी तरह खेती करते आ रहे हैं.’

‘यह अद्भुत कला है.’

‘आपको कहाँ छोड़ दूँ?’

‘ओकले रिज़ॉर्ट में.’

गाड़ी रास्ते से दायीं ओर जाकर एक झरने का स्फटिक सरीखे पानी चीरती हुई एक रिज़ॉर्ट के सामने रुक गयी. लल्लू सिंह थक चुका था तो वह सीधे अपने कमरे में दाखिल हुआ. शाम को लल्लू सिंह से मिलने पी. डब्लू. डी. का असिस्टेंट इंजीनियर प्रणव शर्मा आया. रिज़ॉर्ट से होकर गुजरने वाले झरने के तट के बार में दोनों बैठ गये.

‘कहो मिस्टर प्रणव शर्मा, स्टेटस क्या है?’ लल्लू सिंह ने पूछा.

‘सर, हम तो कब से तैयार हैं.’

‘तो?’

भरे थ्लो13 में फेंताङ फाक14 का स्वाद चखते हुए लल्लू सिंह ने प्रश्नबोधक दृष्टि से प्रणव शर्मा को देखा.

‘गाँव के सामने सड़क के बीचों-बीच आने वाले ओक को गाँव वाले कटवाने के लिए राजी नहीं हैं.’

‘मैंने तभी कुछ ले-देकर बात को रफा-दफा करने के लिए कहा था!’

‘यहाँ की बात दूसरी जगहों की तरह नहीं है.’

‘क्यों?’

‘शेरगाँव में जुङ यानी ग्राम सभा का कानून चलता है. ग्राम सभा में उस ओक के पेड़ को न कटवाने का निर्णय लिया गया है.’

‘यहाँ कितने सरकारी गाँव बूढ़ा हैं?’

‘कुल पाँच हैं. सरकारी गाँव बूढ़ा भी ग्राम सभा के सदस्य होते हैं. इस निर्णय में उनका भी बराबर का साथ रहा है.’

‘सरकारी गाँव बूढ़ा सरकार के खिलाफ कैसे जा सकते हैं?’

‘यह शेरगाँव है सर. यहाँ ऐसा ही होता है.’

‘अगर हम दो-एक गाँव बूढ़ा को अपनी ओर कर लें?’

‘संभव नहीं है.’

‘उनके खिलाफ सरकार को शिकायत कर उन्हें बदल दे?’

‘कोई फायदा नहीं होगा. जो नये गाँव बूढ़ा बनेंगे, वे भी यही करेंगे.’

‘उनमें फूट डालें तो? नौजवानों को बूढ़ों से अलग करने का विचार कैसा है?’

‘आप सपने में भी उसकी कल्पना न करें.’

‘कुछ तो करना होगा.’

‘सर, यहाँ कुछ भी करने से पहले शेरगाँव के बारे में थोड़ा-बहुत जानना जरूरी है. यह गाँव अरुणाचल के पश्चिम कामेङ जिले की शेरदुकपेन आदिवासियों की भूमि है. शेरदुकपेन स्वयं को प्रकृति के पुत्र मानते हैं. सन् 2001 की जनगणना के अनुसार अरुणाचल की अस्सी प्रतिशत भूमि जंगल से भरी थी. इनका मानना है कि अब यहाँ की साठ से सत्तर प्रतिशत भूमि में जंगल रहा होगा. ये चाहते हैं कि जंगल इससे कम न हो, कम से कम शेरगाँव के जंगल न कटें.’

‘इनकी संख्या कितनी होगी?’

‘शेरदुकपेन लोगों की कुल आबादी लगभग चार हजार है. शेरगाँव में तीन सौ के आसपास शेरदुकपेन परिवार हैं, जिनकी आबादी पंद्रह सौ से सत्रह सौ है. कुछ लोग जिगाँव और रूपा में रहते हैं. ये शान्तिप्रिय लोग हैं, किसी से भी भिड़ना ये पसंद नहीं करते. गाँव का क्षेत्र लगभग एक हजार वर्ग किलोमीटर है. आबादी के हिसाब से यह क्षेत्र बहुत बड़ा है. लोग दूर-दूर तक फैले हुए हैं, पर वे एक-दूसरे के दिल से जुड़ हुए हैं. उनमें फूट डालने की नीति काम नहीं करेगी.’

‘इनका धर्म एक ही है?’

‘हाँ. वे सभी बौद्ध धर्म में दीक्षित हैं. पर वे प्राचीन परंपरागत धर्म पद्धति के रीति-रिवाजों का पालन भी करते हैं. मूलतः वे प्रकृतिपूजक हैं.   वे तीन पहाड़ों- शेरफु, नाङफु और आमुजमु को अपना संरक्षक मानते हैं और खिकसबा15 के त्यौहार में पारंपरिक पद्धति से इनकी पूजा करते हैं.’

‘वह तो ठीक है. पर अब क्या? मुझसे ऐसे बैठा नहीं जायेगा. सड़क को अधूरा छोड़ कर वापस जाया भी नहीं जायेगा.’

‘आप एकबार थुकबो से मिल सकते हैं.’

‘यह थुकबो कौन हैं?’

‘गाँव का मुखिया.’

‘मतलब वरिष्ठ गाँव बूढ़ा?’

‘जी नहीं. यहाँ ग्राम सभा के सबसे वरिष्ठ व्यक्ति को थुकबो यानी गाँव के प्रमुख का दर्जा दिया जाता है. सरकारी गाँव बूढ़ा का स्थान थुकबो के बाद आता है. थुकबो के लिए गाँव बूढ़ा होना जरूरी नहीं है, पर थुकबो भी गाँव बूढ़ा बन सकता है.’

‘थुकबो का नाम क्या है? कहाँ रहता है?’

‘थुकबो का नाम चेरिङ दर्जी थङदक है. यहाँ से दो किलोमीटर की दूरी पर विवेकानंद स्कूल के सामने उसका घर है.’

प्रणव शर्मा चला गया. लल्लू सिंह ने बार के शीशे की छत से खुले स्वच्छ आसमान की ओर नजर दौड़ायी. उसने सोचा-समुद्र तट से हजारों फिट ऊपर होने के कारण यहाँ बादल नहीं है. लल्लू सिंह ने नीचे की पहाड़ियों के मोड़ पर बादल को फँसते हुए छोड़ा था. कुछ तारे झिलमिला रहे थे. चाँद भी स्निग्ध प्रकाश से शेरगाँव को तृप्त कर रहा था. लल्लू सिंह को लगा कि वह आसमान के पास आ गया है, हाथों से ही वह चाँद तारों को छू सकता है. उसने ऊपर की ओर दोनों हाथ बढ़ाये. इतने में एक सुंदर-सी लड़की उसके पास आ गयी- ‘Yes sir, do you need something?’

लल्लू समझ गया कि रात के साथ-साथ नशा भी बढ़ रहा है. ‘No thanks’ कहते हुए वह डगमगाते पैरों से अपने कमरे की तरफ बढ़ा.

 

3

सुबह लल्लू सिंह थुकबो चेरिङ दर्जी थङदक के घर गया. सूरज के उगने की इस भूमि पर सूरज के साथ ही शेरदुकपेन की दिनचर्या शुरू होती है. लल्लू सिंह ने देखा कि लगभग सौ साल का एक बूढ़ा बरामदे में टहल रहा है. उसने अंदाजा लगाया कि यही थुकबो होगा और पास जाकर कहा- ‘नमस्ते. मैं लल्लू सिंह हूँ. लोक निर्माण विभाग का इंजीनियर.’

चेरिङ दर्जी ने लल्लू सिंह से ‘नमस्ते’ किया और उसे अंदर ले जाकर बिठाया. उसने दूसरी कुर्सी पर बैठते हुए कहा-‘आप चाय लेंगे?’

‘जी, लाल चाय पी जा सकती है.’

‘दर्जी इडरन, दो कप लाल चाय भेज दो.’ थुकबो ने अंदर की तरफ देखकर ऊँची आवाज से कहा.

‘आपको पता तो है कि मैं यहाँ किस सिलसिले में आया हूँ!’ लल्लू सिंह ने शुरू किया.

‘पता है. आपको यहाँ आने की जरूरत नहीं थी.’

‘आप थुकबो हैं.’

‘मेरे साथ भी जुङ का नियम लागू होता है. जुङ में अंतिम निर्णय मुझे देना होता है.’

‘चौड़ी सड़क बनेगी तो सैलानियों के लिए यहाँ आना आसान होगा.’

‘तो आप यहाँ तक आने की सड़क का काम कीजिए. आए दिन भूस्खलन से सड़क बंद हो जाती है.’

‘गाँव के विकास के लिए यहाँ सड़क बननी चाहिए.’

‘विकास के नाम पर पेड़, पौधे, पहाड़-पर्वत का विनाश करना अच्छी बात नहीं है.’

‘कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है.’

‘यह कहने की बात है. पढ़-लिखकर लोगों के मन में इतना घमंड हो गया है कि वे  प्रकृति से टकराने की जुर्रत करने लगे हैं. लोग अपनी परंपरा,रीति-रिवाज सब पीछे छोड़ केवल भाग रहे हैं,तेजी से भाग रहे हैं; उन्हें पता नहीं कि आगे का रास्ता बंद है. गाँव से लड़का शहर गया तो गाँव नहीं लौटता, शहर से विदेश गया तो विदेश में ही रह जाता है.’

‘आपके समाज के पढ़े-लिखे लड़के बाहर नहीं रह जाते?’

‘आपको हैरानी होगी कि भारत के शिक्षित गाँवों में शिएनथुक का स्थान बहुत ऊपर है. पर शिएनथुक की सारी जरूरतें शिएनथुक के लोग पूरा करते हैं. कुछ लोगों को नौकरी  या व्यापार के लिए यहाँ से दूर रहना पड़ता है, पर वे भी इसी भूमि को सीने से लगाए रखते हैं. हमारे यहाँ से बने डॉक्टर, इंजीनियर,प्रोफेसर सबकी जड़ें इसी गाँव में हैं. इसी गाँव का शेरदुकपेन फूंचू नोरबो थुंगन पुलिस कमिश्नर है. यहाँ उसने अपनी पुश्तैनी जमीन पर एक बागान लगाया है, जहाँ वह ऑर्गेनिक खेती करता है. वह आपको कमिश्नर कम और किसान ज्यादा लगेगा. चाहे तो आप उससे मिल सकते हैं. इन दिनों भी वह यहीं है.’

‘क्या वे ओकले रिज़ॉर्ट के मालिक हैं?’

‘हाँ.’

इसी बीच एक महिला चाय लेकर आयी. चेरिङ दर्जी ने कहा-‘यह मेरी बहू दर्जी इडरन थङदक है.’

महिला को नमस्कार करते हुए लल्लू सिंह ने कहा- ‘एक जरूरी काम से मुझे सुबह ही आना पड़ा.’

प्रति नमस्कार देते हुए दर्जी इडरन ने कहा-‘आपके लिए पेड़ विकास के रास्ते की बाधा है, हमारे लिए पेड़ जीवन का आधार है.’

लल्लू सिंह वहाँ से सीधे रिज़ॉर्ट पहुँचा. उसने देखा कि एक पचपन-छप्पन की उम्र का इंसान रिज़ॉर्ट के बागान में आत्ममुग्ध होकर कुछ कर रहा है.

‘पुलिस कमिश्नर मिस्टर फूंचू नोरबो थुंगन?’ पीछे से लल्लू सिंह ने आवाज दी.

‘जी?’ टूटती तन्मयता के साथ चेरिङ दर्जी ने पीछे मुड़कर देखा.

‘मैं लल्लू सिंह हूँ.’

‘शिएनथुक में आपको कौन नहीं जानता?’ खुरपी से एक पौधे की खर-पतवार की निराई करते हुए फूंचू नोरबो ने कहा.

‘आप खेती के लिए समय कैसे निकालते हैं?’

‘पहले मैं इस धरती की संतान हूँ, बाद में पुलिस कमिश्नर. धरती के लिए काम करना मेरी पहली प्राथमिकता है. हमारे यहाँ के जीवन में कुछ विशेष जटिलताएँ नहीं होतीं. अब देखिए न शिएनथुक में एक भी पुलिस चौकी नहीं है. कभी-कभार छुटपुट घटनाएँ हो जाती हैं, तो जुङ उसे संभालती है.’

‘हम तो ऐसी जिंदगी और समाज की कल्पना भी नहीं कर सकते.’

‘प्रकृति की गोद में खुद को छोड़ दीजिए, तब देखियेगा आप सबके लिए भी यह संभव होगा.’

कुछ कदम आगे बढ़ते हुए फूंचू नोरबो ने फिर से कहा- ‘ये देखिए सेब हैं और इसके साथ ये हैं स्ट्रॉबेरी के फल. आप चाहें तो दो-एक खा सकते हैं. ये रहीं ब्लैकबेरी, रस बेरी की झाड़ियाँ. यह है रोडोडेंड्रन का पेड़. जब यह खिलता है, शेरगाँव को लाल सुर्ख रंग में रंग देता है. शिएनथुक में रोडोडेंड्रन काटना मना है. जुङ ने इसके काटने पर पचास हजार रुपये का जुर्माना तय किया है.’

लल्लू सिंह हाँ में हाँ मिलाते हुए फूंचू नोरबो के पीछे-पीछे चलता रहा.

‘यह गोशाला है. यहाँ गाय,बैल मिलाकर कुल साठ हैं.’

‘ओहो, एक पंथ दो काज. सेहत और कमाई एक साथ.’

‘जी नहीं. हम गाय का दूध नहीं पीते, न बेचते हैं. गाय का दूध बछड़ों के लिए होता है. इनका गोबर और पेशाब खेती के लिए अनमोल हैं. गोबर खाद और पेशाब कीटनाशक का काम करते हैं.’

लल्लू सिंह बोला- ‘आप गाय का दूध तक नहीं पीते. पर जानवरों का शिकार करते हैं. इस संबंध में आपका क्या कहना है?’

‘हाँ, हम अब भी शिकार करते हैं. यह हमारे जीवन की जरूरत है. पुराने जमाने से हमारे समाज में यह परंपरा चलती आ रही है. शिकार से पहले हम जंगल के देवता से प्रार्थना करते हैं- हे भगवान, हमारे बच्चों की भूख मिटाने के लिए हम शिकार के लिए आये  हैं. आपसे प्रार्थना है कि जो जानवर आपके लिए अब बेकार हो गया हो, जो काना,अंधा, लंगड़ा या बूढ़ा हो गया हो, ऐसे किसी जानवर को हमारी झोली में डाल दीजिए.’

‘और फिर आप शिकार खा जाते हैं?’

‘नहीं. प्रकृति को छोड़कर हम कुछ भी नहीं करते. शिकार मिलने के बाद उसे भुना जाता है और उसके सर, नाक,जीभ, पैर आदि शरीर के विविध अंगों से थोड़ा-थोड़ा मांस लेकर एक पत्ते में लपेटते हैं और फिर जंगल के देवता को प्रसाद के रूप में अर्पित करते हैं. देवता के ग्रहण करने के बाद ही हम खाते हैं. हम झूम खेती के समय,मछली पकड़ने के समय भी ऐसा करते हैं.’

‘क्या परंपरा के नाम पर जानवरों का शिकार करते रहने से जानवर खत्म नहीं हो जायेंगे? यह जंगल बचाने का कौन-सा तरीका हुआ?’

‘यही तो आप और हम में अंतर है. यहाँ शिकार करने के बाद भी जानवरों की कमी नहीं है और आपके वहाँ शिकार न करने पर भी जानवर छू मंतर हो रहे हैं. पेड़ न काटने के लिए सख्त-से-सख्त कानून बनाने के बाद भी शहरों से पेड़ गायब हो गये. जंगल हमारा व्यापार नहीं है, वह हमारा जीवन है.’

लल्लू सिंह झेंप गया. अगर उसे पता होता कि उसे इतना कड़ा जवाब मिलेगा, वह इतना तीखा सवाल कतई न करता.

‘ये देखिए ट्राउट मछलियाँ. अभी एक-एक मछली डेढ़ किलो की हुई होगी. ये बहते पानी में बसती हैं. इसीलिए टैंक के साथ झरने के पानी का संयोग कर दिया है.’ आगे बढ़ते हुए फूंचू नोरबो ने कहा.

‘दरअसल में मैं आपसे. . .’

‘हमारे पूर्वजों ने प्रकृति को संरक्षित करने के संस्कार से हमें बड़ा किया है. प्रकृति की सुरक्षा की भावना शियनथुक के हर शेरदुकपेन के रग में खून बनकर बहती है. ओक पेड़ के कारण शिएनथुक सिर्फ अरुणाचल में ही नहीं, भारत में भी विशेष बना हुआ है.’

‘क्या आपलोग कभी भी पेड़ नहीं काटते?’

‘हम केवल लकड़ी के लिए ओक का इस्तेमाल करते हैं. इससे धुआँ बहुत कम निकलता है. इसकी आग घनी होती है,काठ धीरे-धीरे जलता है. शिएनथुक में पेड़ इतने हैं कि हम रातों रात करोड़पति हो सकते हैं. पर अगर हम भी वैसा करते तो शिएनथुक भी रूपा, तवांग, बमडिला की तरह नंगा हो जाता.’

‘पर लाखों ओक पेड़ों में से एक कट जायेगा तो आपके गाँव का क्या बिगड़ जायेगा?’

‘You know, Shienthuk is not just a village for us. It is the motherland of Sherdukpen,Oak and such other trees. The Oak is the lifeline of Shienthuk.’ लल्लू सिंह के सामने खड़ा होकर फूंचू नोरबो ने कुछ रूठे स्वर से कहा.

‘I can understand your emotions. पर पेड़ आप काटे तो ठीक है, सरकार काटे तो खटिया खड़ी करने का तर्क क्या है?’

‘No, you can’t understand us. If that were the case you would never have asked such a silly question. हम भी पेड़ काटते हैं. हम अपनी जरूरतें इन्हीं पेड़ों से पूरी करते हैं. चीड़ से बने काठ के फर्नीचर आपको यहाँ-वहाँ दिखाई देंगे. चीड़ दूसरे पेड़ों को बढ़ने नहीं देता,न उसका कुछ विशेष उपयोग होता है.’

‘पर. . .’

‘शिएनथुक के छ: ओक पेड़ों में भगवान के बसने का विश्वास है. मान्यता है कि जो भी इन्हें काटेगा, उनके साथ कुछ अनहोनी अवश्य होगी. जिस पेड़ के काटने की बात आप कर रहे हैं, वह उनमें से एक है.’

‘यह कोरा अंधविश्वास है.’

‘और हमारे लिए यह अगाध विश्वास है.

‘लगता है ओक को लेकर आप सब कुछ अधिक भावुक हैं.’

‘क्यों नहीं? ओक पेड़ मनुष्य,जीव-जानवर,परिस्थितिकी सब के लिए उपादेय है. इसके पत्तों में प्रोटीन का भंडार होता है. इसीलिए बैलों को ओक के पत्ते खिलाकर ही किसान हल जुतवाते हैं. पिस्ता बादाम जैसे ओक का फल जानवरों के लिए उत्कृष्ट आहार है. इसे खाने के लिए अक्टूबर-नवंबर में हिमालय पर्वतमाला के जंगली सूअर, काला भालू, शेरो,हिरण, साही आदि घुमक्कड़ जानवरों से शिएनथुक की यह विशाल घाटी भर जाती है.’

‘मैं ओक के बारे में खास जानता नहीं था.’ लल्लू सिंह ऊबने लगा था.

‘ओक का पत्ता अच्छी खाद होती है. यहाँ के लागाङ के पीछे एक शेरबूथोङ16 है. लोग पतझड़ के मौसम में इस शेरबोथुङ से ओक के पत्ते ले जाकर खेती में उपयोग करते हैं. शेरबूथोङ  में विशेष रूप से ओक का संरक्षण होता है. ओक के झड़ते पत्ते भूमि को उपजाऊ बनाते हैं. इसी कारण शिएनथुक की भूमि खेती के लिए अति उत्कृष्ट बनी हुई है. यहाँ जरूरत पड़ने पर कभी जो पेड़ काटे जाते हैं, उसमें मशीन का इस्तेमाल नहीं किया जाता. किसी ने मशीन लगायी,उस पर एक लाख रुपये का जुर्माना लगता है.’

‘रोचक है.’

‘हमारा मानना है कि सब कुछ भगवान की देन है. तो इन्हें ध्वंस करने का अधिकार किसी इंसान का नहीं है.’

‘तो क्या सरकारी आदेश न मानने का अधिकार शेरदुकपेन को है?’

फूंचू नोरबो अचानक से रुक गया. इस बार लल्लू सिंह की बात निशाने पर बैठ गयी थी.

‘आप जुङ में जाकर सबसे बात कीजिए.’

‘यह संभव नहीं है.’

‘आप पुलिस कमिश्नर हैं. आप सब कुछ कर सकते हैं.’

‘बस मैं जुङ में नहीं जा सकता. हमारे समाज में बड़ों की बड़ी इज्जत होती है. अभी मेरे बाबा जीवित हैं. मेरे परिवार की ओर से वे जुङ के सदस्य हैं.’

‘मुझे आपसे आग्रह है कि इस गाँठ को सुलझाने में आप मदद कीजिए. मैं नहीं चाहता कि इस बात से शेरगाँव में कुछ आफत आए.’

‘मुझे आज सियाङ के लिए रवाना होना है. फिर अगले शनिवार को ही लौटूँगा. उसके बाद मैं देखता हूँ कि क्या कर सकता हूँ.’ थोड़ा समय चुप रहने के बाद फूंचू नोरबो ने कहा.

‘लेकिन आप अधिक समय न लगाएँ. मेरी पूरी टीम यों ही बैठी हुई है. आप तो जानते ही हैं सरकार का समय और पैसा बर्बाद करना कानूनन जुर्म है.’

‘मुझे दस दिन चाहिए.’

लल्लू सिंह से मिलने के बाद से फूंचू नोरबो परेशान रहने लगा. एक तो गाँव की परंपरा और विश्वास का प्रश्न है और दूसरी ओर सरकार के काम में बाधा डालने का अपराध. सियाङ में उसका दिल नहीं लगा. बार-बार वह गाँव के किसी-न-किसी को फोन करता रहा. पहले तो उसका अच्छा खासा विरोध हुआ, पर बार-बार बातें करने से धीरे-धीरे विषय की गंभीरता को गाँव वाले समझने लगे. शनिवार की शाम फूंचू नोरबो शिएनथुक पहुँचा और अपने बार में प्रमुख शेरदुकपेनों को बुलाया. सबसे बातचीत करने के बाद अगली सुबह वह थुकबो से मिलने गया.

फूंचू नोरबो ने चेरिङ दर्जी से कहा- ‘जी. मैं भी सरकारी आदमी हूँ, सरकार की ताकत को मैं अच्छी तरह जानता हूँ. हमें सरकार के खिलाफ नहीं जाना चाहिए. है. मुट्ठी भर शेरदुकपेन इतनी बड़ी सरकार के सामने नहीं टिक पायेगा. लल्लू सिंह यों ही मानने वाला नहीं है. हमें कोई बीच का रास्ता निकालना होगा.’

‘ठीक है. कल जुङ बुलाता हूँ. वहीं इस तनाव को खत्म करने पर चर्चा होगी.’

शाम को बुखो हखान की घोषणा सुनाई पड़ी- ‘सुनो,सुनो, सुनो. ध्यान से सुनो. कल सुबह दस बजे जुङ बुलायी गयी है. वहाँ सबको समय पर हाजिर होना है. सुनो,सुनो,सुनो.’

पूरे दिन की चर्चा के बाद थुकबो ने कहा- ‘जब घी सीधी उंगली से नहीं निकलता है, तो उंगली टेढ़ी करनी पड़ती है. हमें ऐसा कुछ करना है कि साँप भी मरे और लाठी भी न टूटे. गीदड़ को घड़े में खाना परोसना होगा.’

शाम को बखो हाखोन ने तेज आवाज में घोषणा की- ‘सुनो,सुनो,सुनो. ध्यान से सुनो. आज जुङ में यह निर्णय लिया गया कि कोई भी लल्लू सिंह को सड़क बनाने में बाधा नहीं देगा. लूनर कैलेंडर के शुभ दिनों में लल्लू सिंह पेड़ नहीं काटेगा, किसी भी पेड़ काटने के लिए वह मशीन का इस्तेमाल नहीं कर सकेगा. गाँव का कोई भी लल्लू सिंह के किसी भी काम में मदद  नहीं करेगा. सुनो, सुनो, सुनो.’

 

4

जुङ के निर्णय के बाद शेरदुकपेन के दिलों में एक अजीब-सी सिहरन होने लगी. लूनर कैलेंडर में एक अच्छा दिन देखकर गाँव वालों ने घर-घर लुङता टांगने का निर्णय लिया.   फेमा देमू पताकाओं को फहराने की व्यवस्था में जुटी. इतने में उसका पोता दर्जी खांडु पास खड़ा होकर बोला- ‘दादी,क्या कर रही हो?’

‘मैं लुङता बना रही हूँ.’

‘लुङता क्या है दादी?’

‘लुङता प्रार्थना की पताका है.’

इतने में पेमा खांडु वहाँ पहुँचकर बोला-‘दादी और पोते के बीच क्या बात हो रही है? ‘यह लुङते के बारे में पूछ रहा है.’ फेमा देमू बोली.

‘अच्छा! बोलो तुम्हें और क्या जानना है? मैं भी कुछ जोड़ दूँ.’

‘लुङता क्यों टांगा जाता है?’

‘भाग्य बढ़ाने के लिए लुङता टांगा जाता है. माना जाता है कि इस लुङता को टांगने से दुर्भाग्य भाग्य में बदल जाता है और इंसान को सुरक्षा और सफलता मिलती है. लुङता का अर्थ है हवाई घोड़ा. यह दिव्य घोड़ा हमारी ऊर्जा और जीवनी शक्ति को ऊपर उठाता है, हमारा संदेश देवी-देवताओं तक पहुँचाता है. यह घोड़ा हमारे भाग्य और जीवनी शक्ति का वाहक है. यह जितना तेज़ चलता है, इंसान के लिए उतना ही अच्छा होता है.’

‘इसे इतना ऊपर क्यों टांगा जाता है?’

‘सबसे ऊँची जगह पर इसे टांगा जाता है ताकि सर भी ऊँचा रहे और देवी-देवताओं के पास प्रार्थना जल्दी पहुँचे.’

‘यह रंग-बिरंगी क्यों है?’

‘यह पाँच पतले आयताकार या चौकोर सूती कपड़ों में पाँच रंगों से बनता है. ये रंग हैं–पीला, हरा, लाल, सफेद और नीला. ये रंग पाँच प्राकृतिक तत्वों-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और अंतरिक्ष का प्रतिनिधित्व करते हैं.

‘यहाँ तो जानवर के भी चित्र हैं!’

‘लुङता के चारों कोनों में चार जानवर हैं- बाघ,शेर,गरुड़ और ड्रैगन. केंद्र में रत्न के साथ  मनोकामना पूर्ण करने वाला हवाई घोड़ा है.

‘इन जानवरों के होने का क्या मतलब हुआ?’

‘बाघ शारीरिक स्वास्थ्य, सिंह आत्मा के स्वास्थ्य, गरुड़ जीवनी-शक्ति, ड्रैगन शक्ति और घोड़ा भाग्य के सूचक हैं.’

‘लुङता पर क्या लिखा होता है?’

‘लुङते पर ग्येलेचेंचेमू मंत्र लिखा होता है. इसकी एक कथा है. सुनोगे?’ इस बार फेमा देमू ने पूछा.

‘हाँ. सुनाइये.’

‘बहुत समय पहले की बात है. एक बार स्वर्गलोक में देवराज इंद्र किसी से लड़ाई हार गये. वे भागते हुए भगवान बुद्ध के पास गये और बोले-हे भगवान बुद्ध. मैं बुरी तरह से युद्ध हार गया हूँ. मेरी सेना तितर-बितर हो गयी है. देवलोक में सब दु:खी हैं. हमें इस विपत्ति से मुक्ति चाहिए. अब मैं क्या करूँ आप ही बताइए.’

‘तब भगवान बुद्ध ने इंद्रदेव से क्या कहा?’

‘तब भगवान बुद्ध ने इंद्रदेव को ग्येलेचेंचेमू मंत्र दिया और कहा- आप यह ग्येलेचेंचेमू का मंत्र ले जाइए. इसके जप करने से आपको सारी समस्याओं का समाधान मिल जायेगा. अगर कोई इस मंत्र का जप नहीं कर सकता, तो इसे कपड़े पर लिखकर घर में कहीं टांग दें. तब भी टांगने वाले को शुभ फल मिलेगा. इस मंत्र के प्रभाव से सब का कल्याण होगा, कोई दु:खी नहीं रहेगा.’

‘फिर?’

‘फिर क्या? मंत्र लेकर इंद्रदेव चले गये. हमारे भी कपड़े लत्ते गंदे हो गये और हम भी घर लौट आये.’

‘बस कहानी खत्म हो गयी?’

‘कहानी खत्म हो गयी, पर ग्येलेचेंचेमू मंत्र का लहराना खत्म नहीं हुआ. पहले हमारे पूर्वज कोरा कपड़ा टांगते थे. बाद में हमारे धर्मगुरुओं ने कोरे कपड़े की जगह लुङते में ग्येलेचेंचेमू मंत्र लिखने का उपदेश दिया. तब से हम कपड़ों पर ग्येलेचेंचेमू मंत्र लिखते आये हैं.’

‘पर यह पढ़ा क्यों नहीं जाता? यह भाषा अलग है क्या?’ कपड़े पर लिखे पाठ को पढ़ने की कोशिश करते हुए दर्जी खांडु ने पूछा.

‘ग्येलेचेंचेमू मंत्र की भाषा पालि है. लुङते पर मंत्र तिब्बती लिपि में लिखा जाता है और इसका अनुवाद भी तिब्बती भाषा में किया जाता है. तुम्हें इसे पढ़ने और समझने के लिए पालि और तिब्बती दोनों भाषाएँ सीखनी होंगी. पटकों पर लिखे पाठ और प्रतीक शांति, समृद्धि, ज्ञान और करुणा की प्रार्थना हैं.’ इस बार पेमा खांडु ने बेटे की जिज्ञासा शांत की.

पेमा खांडु ने आँगन के सामने के टीले पर एक लंबे बाँस पर लुङता टांग दिया. दोपहर होते-होते शिएनथुक के घर-घर लुङते टाँगे गये. सबने मन से यही प्रार्थना की- ‘हे ईश्वर, गाँव का मंगल करना.’

दो दिन बाद लल्लू सिंह प्रणव शर्मा के गुवाहाटी से लाये बांग्लादेशी मूल के मजदूरों के सहारे अपना मकसद पूरा करने में लग गया. लल्लू सिंह खुश था कि आखिर गाँववालों को उसने काबू कर ही लिया. मशीन का इस्तेमाल नहीं करना है, कोई बात नहीं. दाओ और कुल्हाड़ी से काम चला लेगा. लूनार कैलेंडर के शुभ दिनों में ओक को नहीं काट सकते, कोई बात नहीं. अशुभ दिन में ही यह शुभ काम सम्पन्न करेगा. गाँव का कोई भी उसके साथ काम नहीं करेगा, कोई बात नहीं. बाहरी मजदूर लगाकर काम निकाल लेगा. पी. डब्लू. डी. में लल्लू सिंह का विशेष नाम है. जो काम किसी से संभव नहीं होता, उसे उसने कर दिखाया है. वह अपनी गरिमा के साथ शेरगाँव से लौटना चाहता है. लल्लू सिंह ने ओक को नीचे से ऊपर तक देखा ओर सोचा- जल्दी ही गर्व से तना यह सर भूमि पर गिर जायेगा और उसका सीना  फूल-सा गया.

मजदूरों ने एक साथ ‘जोर से मारो’ कहकर ओक के तने के एक ही जगह पर कुल्हाड़ियों से प्रहार किया. और एक क्षण के भीतर ही सबकी कुल्हाड़ियाँ हाथों से अलग हो गयीं. दो-एक मजदूर भी कुल्हाड़ियों के साथ दूर उछल कर गिर पड़े.

‘ए, खाना नहीं खाया क्या ठीक से? शर्मा तुम कहाँ से किन लोगों को उठा लाये?’ भड़कते हुए लल्लू सिंह बोला.

मजदूर फिर से आक्रमण में लग गये. इस बार भी एक ही परिणाम हुआ. बांग्लादेशी मजदूरों की यही खासियत है कि वे जी जान लगाकर काम करना जानते हैं. इसी से वे असम, त्रिपुरा जैसे राज्यों में जम गये हैं और लगातार उनकी संख्या अस्वाभाविक रूप से बढ़ती जा रही है. ये मजदूर दिन भर की कोशिश के बाद ओक की कुछ छाल ही निकाल पाये. संध्या होते-होते मजदूरों ने हाथ खड़े कर दिये. शाम को बखो होखान की घोषणा हुई- ‘सुनो,सुनो,सुनो. ध्यान से सुनो. आज शिएनथुक के ओक के पेड़ को काटने के लिए आये  मजदूर उल्टे पाव लौट गये. हमारे भगवान ने हमारे ओक की रक्षा की. सुनो,सुनो,सुनो.’

तीन दिन बाद प्रणव शर्मा ने मजदूरों की एक दूसरी टोली का बंदोबस्त किया. पर ओक ज्यों का त्यों खड़ा रहा. शाम को बखो होखान ने पिछली शाम की घोषणा दुहरायी.

इस तरह कई दिन बीत गये. लल्लू सिंह का धीरज भी जवाब दे गया. वह एक दिन ओक की तरफ देखकर बड़बड़ाया-अरे पेड़, तेरे ऐसे खड़ा रहकर मेरी खिल्ली उड़ाने से क्या होगा? मैं तेरे गाँव के लोगों की भलाई के लिए यहाँ काम कर रहा हूँ. धिक्कार है ऐसे जीवन पर जो खुद को जीवित रखने के लिए गाँव की उन्नति की आड़ में आए.

लल्लू सिंह ने ओक को वहीं छोड़ सड़क बनाने का आदेश दिया,जिससे उस जगह सड़क कुछ सँकड़ी हो गयी. उसने जानबूझकर ओक के बिल्कुल बगल से रोलर चलवाये. कुछ दिनों बाद सड़क बन गयी. शेरगाँव छोड़ते हुए लालू सिंह आखिरी बार उस ओक को देखने गया. तब उसने पाया कि ओक के पत्ते मुरझाने लगे हैं. उसके नीचे सड़क के कुत्ते रुआंसी आँखों से लेटे हुए हैं. कुत्तों को दयनीय दृष्टि से देखकर एक विजयी हँसी के साथ वह शेरगाँव से विदा हुआ.

कुछ दिनों बाद उस ओक के सारे पत्ते झड़ गये. शिएनथुक के हर घर में मृत्यु जैसी पीड़ा छा गयी. इसी बीच लल्लू सिंह की मृत्यु की खबर भी आयी. रात खाना खाने के बाद पेमा खांडु फेमा देमू के साथ भुकारी के सामने बैठ बातें कर रहा था. उसने कहा- ‘माँ, हमें बड़ा दुःख हो रहा है. आखिर ओक का पेड़ मर गया. हम उसकी रक्षा नहीं कर पाये.’

‘सुना है लल्लू सिंह भी मर गया. उसे शाप लगा होगा.’

‘डॉक्टर का कहना है कि लल्लू सिंह को दिल का दौरा पड़ा था. पर उसने ओक को मारने के लिए जो साजिश की उसका फल भी हो सकता है.’

‘सबको अपने किए का फल मिलता है.’

‘पता नहीं दुनिया में कैसे-कैसे लोग होते हैं! एक लल्लू सिंह था कि हमारे ओक को मारकर ही यहाँ से गया और ये हमारे शिएनथुक के कुत्ते हैं,जो आज भी ओक के नीचे लेटकर आँसू बहाते हैं.’

‘इसीलिए कहा जाता है-यारयार थामचे मीमेन. गुरगुर थामचे बामेन.’17

‘सही है.’

‘वह इंसान कैसे कहा जा सकता है, जिसने हमारे आराध्य का बसेरा उजाड़ डाला!’

‘नहीं माँ. हमारे आराध्य का बसेरा कौन उजाड़ सकता है? महान ओक ने हमारे लिए अपने प्राण त्याग दिये.’

फेमा देमू सिसकने लगी. पेमा खांडु की आँखें भी भर आयीं. रात गहरी होती जा रही थी. पेमा खांडु ने फेमा देमू को अपने कमरे में सुलाने के लिए भेज दिया और खुद आँगन के सामने के टीले पर टाँगे लुङते के नीचे खड़ा होकर प्रार्थना करने लगा- ‘हे भगवान. शिएनथुक के ओक पेड़ों की रक्षा करना.’

हवा तेज चलने लगी. ग्येलेचेंचेमू मंत्र के साथ पेमा खांडु की प्रार्थना हवाई घोड़े पर सवार होकर शिएनथुक के घर-घर पहुँच गयी.

शिएनथुक, अरुणाचल प्रदेश
15 जुलाई,2024


शब्दार्थ:

1 आसू काचुपू– शिएनथुक के सामूहिक कामों को अंजाम देने के लिए ग्राम सभा की ओर से नियुक्त पुरुष.
2 भुकारी– चिमनी की तरह लकड़ी का चूल्हा, जिसका धुआँ नल से बाहर निकाला जाता है.
3 खाछाम फाक– शेरदुकपेन में फाक का अर्थ मदिरा होता है. शेरदुकपेन मकई, चावल, बाजरा आदि अनाजों से तरह-तरह की मदिरा बनाते हैं. खाछाम फाक बाजरे से बनी मदिरा  है.
4 शेरदुकपेन– शेरगाँव, जिगाँव और रूपा में बसने वाला अरुणाचल का एक आदिवासी समुदाय
5 हिनपुडु– नौ से अठारह साल के उम्र का शेरदुकपेन युवा. हिनपुडु जुङ का सदस्य नहीं हो सकता.
6 जुङ– ग्राम सभा
7 बखो होखान– आसू काचुपूओं से सबसे वरिष्ठ को बखो होखान कहते हैं, जो गाँव में ग्राम सभा की सूचना की घोषणा करता है.
8 लागाङ– बौद्ध मंदिर
9 आबसू- परिवार का वह मुखिया, जिसकी उम्र साठ के ऊपर की होती है.
10 जुङमे बरसो– पैंतालीस से साठ साल के परिवार का मुखिया
11 जुनअ-उन्नीस से पैंतालीस साल के परिवार का मुखिया
12 थुकबो-गाँव सभा का मुखिया. गाँव के सबसे वरिष्ठ व्यक्ति को थुकबो की ज़िम्मेदारी मिलती है.
13 थ्लो- काठ से बनी छोटी कटोरी
14 फेंताङ फाक- मकई से बनी मदिरा
15 खिकसबा– शेरदुकपेन का लोकोत्सव, जो नवंबर-दिसंबर महीने में मनाया जाता है.
16 शेरबूथोङ– शेरबू का अर्थ है पत्ता, थोङ का अर्थ है जगह. ओक के पत्ते संग्रहीत करने की जगह को शेरबूथोङ कहा जाता है. यह एक संरक्षित वनांचल है,जहाँ केवल ओक के पेड़ होते हैं.
17 यारयार थामचे मीमेन, गुरगुर थामचे बामेन- यह एक शेरदुकपेन लोकोक्ति है. इसका अर्थ है- हर दो पैरों से चलने वाला इंसान नहीं होता, हर चार पैरों से चलने वाला जानवर नहीं होता.

 

पूर्वोत्तर की रीतामणि वैश्य असमीया और हिन्दी, दोनों भाषाओं में लेखन कार्य करती हैं. मृगतृष्णा ( हिन्दी कहानी संकलन) लोहित किनारे (असम की महिला कथाकारों की श्रेष्ठ कहानियों का हिन्दी अनुवाद), रुक्मिणी हरण नाट, असम की जनजातियों का लोकपक्ष एवं कहानियाँ (असम की ग्यारह जनजातियों का विवेचन एवं सोलह जनजातीय कहानियों का हिन्दी अनुवाद), हिन्दी साहित्यालोचना (असमीया), भारतीय भक्ति आन्दोलनत असमर अवदान (असमीया), हिन्दी गल्पर मौ-कोँह (हिन्दी की कालजयी कहानियों का असमीया अनुवाद), सीमांतर संबेदन (असमीया में अनूदित काव्य संकलन), प्रॉब्लेम्स एज दीपिक्टेद इन द नोवेल्स ऑफ नागार्जुन (अँग्रेजी) आदि उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं. उन्हें असम की महिला कथाकारों की श्रेष्ठ कहानियों के  अनुवाद ‘लोहित किनारे’ के लिए सन् 2015 में केंद्रीय हिन्दी निदेशालय द्वारा हिंदीतर भाषी हिन्दी लेखक पुरस्कार से तथा सन् 2022 में नागरी लिपि परिषद का श्रीमती रानीदेवी बघेल स्मृति नागरी सेवी सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है. सम्प्रति गौहाटी विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग की सह आचार्य हैं.
ritamonibaishya841@gmail. com

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Comments 7

  1. हीरालाल नागर says:
    8 months ago

    रीता मणि वैश्य की कहानी पड़ते हुए यह ज़रूर महसूस हुआ कि अरूणांचल प्रदेश में भी जनजाति के लोग एक अपने समुदायों में रहते हैं और शिक्षा -दीक्षा के बावजूद अपने सरदार की आज्ञा का पालन करते हैं। इसलिए वहां ओक के वृक्ष बने हुए हैं। खेती होती है। बौद्ध धर्म के पालन में उन्हें परेशानी नहीं होती।
    कहानीकार का मकसद तो कहानी में पूरा हो जाता है, मगर पाठक ठीक से यह नहीं जान पाता कि उनके चेहरे-मोहरे कैसे हैं और उनकी वेशभूषा कैसी है। बहरहाल, कहानी ठीक लगती है कि इसमें प्रकृति को बचाने के लिए लोगों का प्रतिरोध खास तरीके से दर्ज़ होता है। इसके लिए सरकारी नुमाइंदे शेर सिंह को मरना पड़ता है
    हीरालाल नागर

    Reply
  2. Sawai Singh Shekhawat says:
    8 months ago

    रीता मणि वैश्य की यह कहानी सुदूर अरुणांचल प्रदेश के आद्य जीवन क्रम और उसकी जीवन संस्कृति से परिचय कराती हुई हमें उन जीवन मूल्यों से भी रूबरू कराती है जो अभी कुछ पीढ़ियों पूर्व तक हमारी समूची ग्रामीण भारतीय संस्कृति की पहचान थे।कहानी का ट्रीटमेंट जिस नैसर्गिक ढंग से किया गया है वह बहुत आत्मीय है।

    Reply
  3. नंदिता बर्मन says:
    8 months ago

    सर्वप्रथम अत्यंत सुंदर कहानी के लिए मैम को हार्दिक अभिनंदन । एक बात फिर से दोहराना चाहूँगी कि मैम की कहानियों से हमेशा कुछ नया सीखने को मिलती हैं ।

    कहानी की बात की जाए तो कहानी अत्यंत सुंदर एवं सरल शब्दों में लिखी गयी है, साथ ही हमें अरुणाचली शब्दों से परिचित होने का अवसर प्राप्त हुआ। इस कहानी को पढ़कर मैं शेरदुकपेन समुदाय से बहुत प्रभावित हुई । प्रकृति को लेकर उनमें जो सजगता दिखाई देती हैं उसने मेरे अंर्तमन को झकझोर दिया । इस जनजाति को प्रकृति से इतना प्रेम है कि एक पेड़ को बचाने के लिए सब खड़े हो गए, पेड़ को भगवान का दर्जा तक दे दिया गया । साथ ही ये लोग गाय के दूध तक नहीं पीते, गाय के बछरे के पीने के लिए छोड़ देते हैं। इस कहानी को पढ़ते समय और एक बात मेरे मस्तिष्क में आ रही थी – हाल ही में मैंने बिश्नोई समाज के विषय में पढ़ा, वे लोग भी प्रकृति को लेकर इतने भावुक हैं कि एक पेड़ के लिए उस समाज के लगभग ३०० महिलाएँ अपनी जान दे दीं । अब बात यह उठती है कि केवल एक दो समुदाय प्रकृति के हित में सोचे तो प्रकृति को बचाया नहीं जा सकता, हर व्यक्ति को प्रकृति लेकर सजग होना आवश्यक है। उदाहरण के लिए हमारे पास शेरदुकपेन समुदाय और बिश्नोई समाज हैं ही ।

    Reply
  4. देवराज says:
    8 months ago

    बहुत सुंदर और आकर्षक कहानी। मुझे पिता-पुत्र और पुलिस कमिश्नर-इंजीनियर के संवादों के साथ ही गाँव पंचायत की कार्यवाही से आदिवासियत को समझने में सहायता मिली। अंतिम दृश्य अत्यंत मार्मिक है। ओक का पेड़ राज्य-सत्ता द्वारा थोपे जाने वाले अव्यावहारिक विकास की शिलाओं के नीचे दब कर कुचले जा रहे आदिवासियों का समूह-प्रतीक बन गया है। आपको बहुत शुभकामनाएँ।

    Reply
  5. Chander Kant Parashar says:
    8 months ago

    एक आंचलिक मार्मिक कथ्य क्षेत्रीय शब्दावली से अलंकृत हो इस कहानी रूप में हम पाठकों के बीच एक प्रभावी प्रभाव को निश्चित रूप से छोड़ता है, हाँ! भाषा/बोली विशेष के 17शब्दों का शब्दार्थ अवश्य ही बीच-बीच में देखना पड़ता है ।
    आपको बहुत बधाई 😊🙏

    Reply
  6. Uma Devi says:
    8 months ago

    कहानी अत्यंत सुंदर तरीके से शियेनथुक की आंचलिक वैशिष्ट्य को लिए चलती है। शेरदुकपेन समाज विकास के तथाकथित मानदंडों को अस्वीकार करते हुए कैसे अपनी परंपरा, संस्कृति और लोकविश्वासों को बचाने की जद्दोजहद में है, अनुकरणीय है। माटी से उठकर,माटी से जुड़े रहने की ललक आजकल क्षीण होती जा रही है। पाठक वर्ग के समक्ष प्रकृति के प्रति संवेदनशील समाज की बात को सुंदर ढंग से रखने हेतु लेखिका रीता जी को शुभकामनाएं।

    Reply
  7. दिनेश चन्द्र जोशी says:
    8 months ago

    सुदूर अरुणांचल के आदिवासी समाज की जीवन पद्यति ,प्रकृति पर्यावरण के प्रति अनुराग, सामूहिक निर्णय लेने को बनाई गयी पंचायत का सजीव चित्रण तथा वहां की भाषाई मौलिकता के कारण कहानी चित्ताकर्षक लगती है।कथा के मंतव्य को प्रकट करने हेतु दर्शायी गयी लोक विश्वास की विजय हालांकि अवैज्ञानिक प्रतीत होती है,पर समाज की रीति रिवाज परंपरा का सहज चित्रण अनूठा है।

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समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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