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Home » तुम्हें याद है सिर्फ ख़ून का स्वाद: कुमार अम्‍बुज

तुम्हें याद है सिर्फ ख़ून का स्वाद: कुमार अम्‍बुज

अंग्रेजी के महानतम कवि-नाटककार शेक्सपीयर की कालजयी कृति ‘मैकबेथ’ में हमेशा से विश्व सिनेमा की रुचि रही है. पिछले वर्ष अमरीकी निर्देशक जोएल कोएन की फ़िल्म ‘द ट्रैजेडी ऑफ़ मैकबेथ’ प्रदर्शित हुई जिसने ध्यान खींचा और उसे कई सम्मान भी प्राप्त हुए. कवि-लेखक कुमार अम्बुज का ‘विश्व सिनेमा से कुमार अम्बुज’ इसी फ़िल्म पर आधारित है. यह श्रृंखला अपूर्व इस अर्थ में है कि यह सिनेमा के समानांतर चलने वाला कवि-गद्य है, यह देखने की संवेदनशील दृष्टि देता है और समकालीन विद्रूपताओं से जुड़ता चलता है. अगर आप इस स्तम्भ को नहीं पढ़ रहें हैं तो आपसे कुछ सार्थक पठन छूट रहा है. प्रस्तुत है.

by arun dev
February 18, 2022
in फ़िल्म
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तुम्हें याद है सिर्फ ख़ून का स्वाद: कुमार अम्‍बुज
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तुम आँसुओं का स्वाद भूल चुके हो
तुम्हें याद है सिर्फ ख़ून का स्वाद

कुमार अम्‍बुज

 

(एक)

आसमान में कोहरा छाया है. ज़मीन पर बर्फ़ बिछी है, उस पर वक्र लकीरें हैं. ये भविष्य की अनिश्चित स्याह रेखाएँ हैं. या किसी के चलने से पीछे छूटे हुए निशान जिन्हें बर्फ़ फिर से ढाँप लेना चाहती है. हर चीज़ एक दिन बर्फ़ के नीचे दब जाती है. फिर से उभर आने के लिए.

यहाँ संदेह ही शासक है.
जो निष्कपट है, कपटपूर्ण है. जो कपटपूर्ण है, निष्कपट है. जब प्रेतात्‍माओं से अपना भविष्य जानोगे तो वे तुम्हें सिर्फ़ हत्यारा बना देंगी. तुम्हारे सामने जो प्रेतात्‍मा है, वह एक नहीं है. वे तीन हैं. कौन हैं ये प्रेतात्‍माएँ: लिप्‍सा, द्वेष, ईर्ष्या. या वासना, अहम्‍मन्‍यता, घृणा. या कभी सत्‍ता, धर्म, पूँजी. ये ही वे तीन चुड़ैलें हैं जो हर काल में अलग रूप धारण करती हैं. तीन दिखती हैं लेकिन एक हैं. एक दिखती है लेकिन यह त्रयी है. कभी विद्रूप. कभी मोहक. ये वे पिशाचनियाँ हैं जो प्रारब्‍ध बाँचने के बहाने बहकाती हैं. तुम्‍हें ऐसा स्‍वर्णिम भविष्य दिखाती हैं जिसे पाने के लिए पहले तुम व्यग्र हो उठते हो, फिर उसे साकार करने के लिए नृशंस.

सिंहासन की लालसा में रक्‍त विन्‍यस्‍त है.
डायनों की भविष्यवाणियाँ अभिशाप की तरह ही फल सकती हैं. बिना रक्तपात किए तुम अंतिम ऊँचाई तक नहीं पहुँच सकते. हत्या भी वही पुष्पित होगी जो विश्वास में लेकर की जाये. भरोसा तोड़कर की जाये. तुम्हारी प्रतिज्ञा कुछ और होगी. आश्वासन कुछ और होंगे. लेकिन तुम्हारे काम एकदम विपरीत होंगे. सर्वोच्च आसन तक जाने के लिए तुम्हें ख़ून की लकीर पर चलना पड़ेगा. वही तुम्हारा राजपथ होगा.

फिर अनिद्रा जीवन का पर्याय होगी. नींद मर जाएगी. अनिद्रा जीवित रहेगी. अपात्र के सम्राट बनने का यही मूल्य है. कम से कम एक विराट हत्या. फिर ऐश्वर्य का हर साज़ो-सामान उपलब्ध होगा. लेकिन तुम यह नहीं सोच पाए कि उसके बाद स्वप्न में ख़ून के फव्वारे दिखेंगे. कभी लगेगा कि तुम किसी का गला रेत रहे हो. कभी पसीने से सराबोर हो जाओगे, सोचोगे कोई तुम्हारा गला घोंट रहा है. इसलिए अब अनिद्रा ही बचाव है. यही मरण है. चुड़ैलों ने कोई भविष्य नहीं पढ़ा था, उन्होंने तुम्हारी प्रकृति का पाठ कर दिया था. तुम्हारे भीतर के अंकुरित हिंसक बीजों को पहचान लिया था. उनसे कौन-सी फ़सल लहलहा सकती है, इतनी ही भविष्यवाणी सामने रख दी थी. अब अपने कृत्यों का दोष किसी और को मत दो.

 

(दो)

मैकबेथ, धोखा और षड्यंत्र, ये तुम्हारे दो सफलतम योद्धा हैं. क्योंकि तुम खुद योद्धा नहीं हो. अवसर की तलाश में छिपी चमकती आँख हो. तुम जानते हो कि चौबीसों घंटे कोई सावधान नहीं रह सकता. उसे किसी पर तो यक़ीन करना होगा. तुम्हारी वीरता घात लगाने में है. बस, मामूली दिक्‍़क़त है कि तुम्हारे भीतर कभी-कभार मानवीय झिझक के अवशेष दिखते हैं. वे ही बाधक हैं. तुम्हें दुष्टता की कुछ और रुग्णता चाहिए. कुछ अधिक क्रूरता, कुछ और कपट. उसके बिना कोई उपलब्धि नहीं होगी.

लेकिन तुम्हारे लिए एक आसानी है. तुम्हारी जीवन-संगिनी तुमसे अधिक कठोर है. तुमसे अधिक महत्वाकांक्षी. अब तुम्हें साध्य के लिए साधन की पवित्रता नहीं, एक कृतघ्न प्रतिबद्धता चाहिए. एक निसंग निष्ठुरता. रास्ते में पड़ने वाली हर व्याधि को नष्ट करने की पाश्विकता चाहिए. एक कुटिल प्रेरणा जो तुम्हारी लालसा को ज्वाला बना दे. इस क़दर कि वह सितारों से जाकर टकरा सके. यह तुम्हारे लिए संभव होगा क्योंकि वह प्रेरणा तुम्हारी जीवनसाथी है. एक भीषणता तुम्हारी अंकशायिनी है. महत्वाकांक्षा के अग्निकुंड में वह हर पल समिधा डालती रहेगी.

इसके लिए वह अपने लैंगिक नैसर्गिक गुणों का बलिदान कर देगी. ममता, वात्सल्य, दया, प्रेम, करुणा. जो भी अर्जित हैं, उनका परित्याग कर देगी. उसकी पुकार सुनो- ‘अनसेक्‍स मी’. एक संभव सम्राज्ञी को छाती में दूध नहीं, कठोरता चाहिए. कामनाओं की आँखों में जागते रहने की जो कालिमा है, वही उसका शृंगार होगा. वही तुम्हारा भी हासिल होगा. लेकिन आश्वस्त रहो, यह सिंहासन मिलने के बाद होगा.

जाओ, निर्दयता की कठोरतम उपासना पूरी हुई. अब तुम्हारे पास वह हृदय तैयार है जो नरसंहार के बाद पश्चाताप नहीं करता. जो प्रवंचना से, ‘कन्‍फैशन’ से मुक्त है. किसी के मरने की लंबी प्रतीक्षा नहीं की जा सकती. जबकि उसे मारा जा सकता है. जबकि उसके मरने के बाद ही तुम्हें कुछ प्राप्ति हो सकता है. किसी उत्‍तराधिकार की क्षीण संभावना, जर्जर आशा में यों ही हाथ पर हाथ रखकर नहीं बैठा जा सकता. ख़ज़ाना सामने है. हत्‍या एक छोटा-सा नैतिक अवरोध है, वह राजप्रमुख होने की ख़ुशनुमा संभावना की आँधी में तिनके की तरह उड़ जाता है. बस, निष्‍ठा से ही तो दग़ा करना है.

यदि तुम्हारा सूर्योदय होना है तो फिर उसका सूर्योदय नहीं होना चाहिए.

 

‘The Tragedy of Macbeth’ फ़िल्म से एक दृश्य

(तीन)

एक चीज़ मिलने पर एक और चीज़ की इच्छा बलवती होती है. आगे बढ़ो. छलना है तो छलिया होना पड़ेगा. मोहित करना है तो मोहिनी. वाणी मधुर, हृदय वज्र कठोर. ऊपर से पुष्‍प, भीतर सर्प. विश्वास उसने किया है तो उसे विश्वास करने की सज़ा भुगतना होगा. विष के प्‍याले में अमृत मत मिलाओ, अमृ‍त के प्‍याले में विष मिलाओ. लक्ष्‍यवेध में किंकर्त्‍तव्‍यविमूढ़ता दरअसल मूढ़ता है. जो करना है शीघ्र करो. ज्यादा विचार करोगे तो उचित-अनुचित के चंगुल में फँस जाओगे. देर करने से क़दम डगमगा सकते हैं. डगमगाते क़दमों से सिंहासन तक नहीं पहुँचा जा सकता.

हत्‍या न करने, विश्वासघात न करने के हज़ारों तर्क हैं लेकिन वे तुम्हें भीरु बना देंगे. तुममें तो हत्‍या करने का कलेजा है. यह राजा बनने की अर्हता है. भावी सम्राट के हाथ नहीं काँपना चाहिए. अन्यथा साध्य असाध्‍य हो जाएगा. सिंहासन के लिए हत्‍या अपने आप में अकाट्य, समुचित कारण है. स्वयंसिद्ध है. अब यह गद्दी तुम्‍हारी होगी- यही एक तर्क पर्याप्त है. राज्‍याधिपति होने के लिए हत्या करना तो वीरता है. अलंकरण है. राजधर्म है.

लेकिन ऐसा होता है कि चक्रवर्ती होने के आपराधिक रास्ते पर पाँव रखते ही, एकबारगी वीरता विकलांग होने लगती है. मतिभ्रम जकड़ लेता है. तुम्हारे सामने ख़ंजर है लेकिन तुम उसे थाम नहीं पा रहे हो. वह तुम्हारी पकड़ से बाहर चला जा रहा है. लेकिन तुम इससे पार पा लोगे. तुम नशे में भी चमकते सिंहासन को नहीं भूले हो. यही तुम्हारी शक्ति है. तुम याद कर सकते हो कि चमचमाते फाल केवल पूजा करने के लिए नहीं हैं. उनकी तृषा रक्‍त से ही बुझती आई है. तुम इस उलझन को पार कर लोगे. तुम्हारे सामने बड़ा लक्ष्य है. यह थरथराहट, यह उधेड़बुन, यह संभ्रम क्षणिक है.

तुम्हें मारना है. और शोक भी मनाना है. जैसे किसी और ने मारा है. जैसे तुम तो रक्षक थे. अब कलंक किसी और के माथे पर रख दो. तिलक तुम्हारे माथे पर होगा. क्‍या हुआ जो यह टीका ख़ून के रंग का है. तुम चिंता न करो. तुम शक्तिशाली हो गए हो. तुम्हें कोई अपयश नहीं. तुम देखना, ये लोलुप सभासद कहेंगे कि यह तिलक तो रोली का है. यह भयग्रस्त प्रजा जय-जयकार करेगी कि यह तो सिंदूरी है, पवित्र है. बस, तुम्हारे हृदय की झाईं तुम्हारे चेहरे पर नहीं दिखना चाहिए. यही राजत्व है.

आकांक्षा और कार्यसंपादन में एक संगति होनी चाहिए. गले को सफा़ई से चाक करना सर्वोत्तम कला है. इसे तुमने कर दिखाया है. जो एक क्षण में जीवन का सत्व हर ले. तत्परता इतनी कि जिसे इंद्रियाँ भी न समझ सकें, अवाक हो जाएँ. वही कृत्‍य तुमने संधान कि‍या है. अब सबसे पहले तुम्हें यक़ीन करना होगा कि तुम निरपराध हो. इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है. दोष उसका है जो भूल गया था कि राजपाट करते हुए किसी पर भरोसा करना मृत्यु है. राजनीति में सतत संदेह ही जीवन है. जो जिस दिन निष्कंटक विश्वास करेगा, वही उसकी अंतिम रात्रि होगी. इसमें तुम्‍हें कोई पातक नहीं लग सकता. यह राजनीति का कलियुग है. यह कलियुग की राजनीति है. यह कलिकाल है. यह मुकुट में निवास करता है

 

(चार)

मैकबेथ, अब गहरी साँस लो. देखो, कोहरे को चीरकर रक्तिम सूर्य झाँक रहा है. यह तुम्हारी सुबह है. अब सब तरफ़ पूर्व द‍िशा है. इसमें बीती रात की कालिमा मिली है लेकिन यह लालिमा है. एक नयी शुरुआत. इस प्रभात में किसी और को तुम्हारा सच नहीं दिख सकता. दिख जाये तो बयान नहीं किया जा सकता. सत्‍य तो केवल अंधकार ही बता सकता है. वही एकमात्र साक्षी है. केवल उसने ही देखा है कि तुमने कैसे वार किया. कैसे घाव किया. लेकिन अंधकार गवाही नहीं देता. वह बस, अपना अँधेरा कुछ और गाढ़ा कर देता है. प्रकाश अँधेरे को ख़त्‍म कर देता है. लेकिन तुमने दर्शाया है कि अँधेरा प्रकाश को ख़त्‍म कर सकता है. और सत्‍तावान हो सकता है. अब तुम छत्रप हो, तुम इसे प्रकाश की तरह देखने की कोशिश कर सकते हो.

लेकिन यह वह प्रकाश है जिसमें एक व्याधि हटने पर दूसरी व्याधि नज़र आने लगती है. एक हत्या के बाद एक और हत्या की ज़रूरत पड़ती है. जो पहले आकांक्षा में की गई थी, अब विवशता में करना पड़ेगी. एक रक्‍तपात में दूसरे रक्‍तपात के बीज हैं. अब तुम जहाँ जाओगे वहाँ हत्‍या करोगे. यही तुम्हारी नियति है. तुम सिर्फ़ राजा नहीं हो, उसकी रक्षा करनेवाले तक्षक भी हो. तुम्हें मारना भी है. बचना भी है. आशंकित राजाओं के ये दो ही प्राथमिक दायित्व रह जाते हैं.

तुम ठीक तरह जान गए थे कि जो राह दस-बीस बरस लंबी हो सकती थी, एक हत्‍या उसे सिर्फ़ एक रात की दूरी में बदल देती है. आज हत्या करो. कल देश के नृपति हो सकते हो. जितनी बड़ी हत्‍या, उतना बड़ा प्रतिफल. राजतंत्र में राजा की हत्‍या करना होगी. पिता की. भाई की. गुरु की. तानाशाही में तानाशाह की. लोकतंत्र में लोक की. हत्या तुम करोगे लेकिन डरकर कोई और भागेगा. कि कहीं उसकी हत्‍या न हो जाए. लेकिन जो भागेगा, आक्षेप उस पर आएगा. यही न्‍याय परंपरा है. यही संस्कृति. यही इतिहास. यही वर्तमान है. यही भविष्य.

अगले दृश्य में शाम हो रही है और चंद्रमा को बादल ढँक रहे हैं. इनमें कुछ श्‍यामवर्णी मेघ भी शामिल हैं. यह आकाश एक-सा नहीं रहता. नक्षत्र, तारे और आकाशगंगाएँ धरती से अपना परिप्रेक्ष्य बदलते रहते हैं. धरती घूमती रहती है. यहाँ जो सही दिखता है, धोखा है. जो धोखा है, वही सही है.

 

‘The Tragedy of Macbeth’ फ़िल्म से एक दृश्य

(पाँच)

तुम्हारी सबसे बड़ी कमज़ोरी है जो तुम भूल नहीं पा रहे हो कि तुमने किसी को नींद में मारा है. सोते हुए. यह भूलोगे नहीं तो तुम्हें नींद कैसे आएगी. अनिद्रा से बचने के लिए विस्मृति जरूरी है. बार-बार हाथ मत धोओ. रगड़कर धोने से भी कुछ नहीं होगा. हाथ धोने से हाथ धुलते हैं. ख़ून नहीं धुलता. ख़ून हाथ में नहीं लगता. वह समूचे अस्तित्व पर लग जाता है. वज़ूद पर लगा खून नहीं धुलता. वह अलग से, ऊपर से नहीं द‍िखता. वह तुम्हारी शिराओं में शामिल होकर बह रहा है. तुम्हारे हृदय में स्पंदित है. तमाम समुद्रों के पानी से धोओगे तब भी यह रक्‍त नहीं धुलेगा. शिराओं का प्रक्षालन बाहरी जल से नहीं हो सकता. तुम्‍हें इस रक्‍त को धारण करके ही विभूषित रहना होगा.

दूसरी कमज़ोरी यह है कि तुम अब बच्‍चों की तरह डरते हो. हर पदचाप पर. चिड़ियों की चहचहाहट पर. टिटहरी की आवाज़ पर. चमगादड़ के पंखों या किसी अदेखे पक्षी के डैनों की फड़फड़ाहट पर तुम्हारे प्राण गले में आ जाते हैं. कोई हँसता है तो तुम्हें लगता है तुम पर हँस रहा है. कोई सलाह देता है तो तुम्हें लगता कि वह षड्यंत्रकारी है. तुम्हें हर आवाज़ भयभीत कर रही है. तुम्‍हारी चिंताओं का स्‍वामी वृश्चिक हो गया है. इसका निदान है कि तुम्‍हें इस भय के साथ ही जीवन जीना होगा. यह भय वधिकों में, राजाओं में, विश्‍व विजेताओं में हमेशा के लिए बस जाता है. यह भय अनश्‍वर है. यह हत्‍या के विषाणु से जन्‍मा है. यह असाध्‍य है. यह तुम्हारी मृत्‍यु तक रहेगा. इसके साथ रहना सीखो. हलाकू सम्राटों को यह सीखना होता है.

तुम शराब भी चैन से नहीं पी रहे हो. ये उस हत्‍यारी घबराहट के दौरे हैं जिसे तुम कब का पार कर चुके हो लेकिन तुम इतने व्‍यग्र इसलिए बने हुए हो कि तुमने दो हत्‍याएँ एक साथ कर दी हैं. मनुष्‍य की. और विश्‍वास की. यह दोहरा हत्‍याकांड है. अब झूठ, अभिनय, आशंका, ये तुम्हारे व्यक्तित्व का हिस्सा रहेंगे. मुकुट से, वस्‍त्राडंबर से, वाचालता से तुम इन्‍हें ढाँपने की कोशिश करते रहो. तुम्हारा हाथ बार-बार मुकुट पर जा रहा है. तुम्‍हें ऐसा लगता रहेगा कि इसमें मनुष्य की चर्बी है. लेकिन तुम्हारी ताज़पोशी हो चुकी है. अब तुम्‍हें ख़ुद हत्‍या करने की कोई ज़रूरत नहीं. तुम्‍हारे पास सभासद हैं. सेना है. बंदीगृह हैं. क़ानून है. न्‍याय है. राजदण्‍ड है. करोड़ों हाथ हैं जो तुम्‍हारी जगह अपने हाथ रक्‍तरंजित करने तैयार हैं. तुम्‍हें केवल आदेश देना है या इशारा भी काफी होगा. हत्‍या साधन है, सत्‍ता साध्‍य है. बस, तुम्‍हारे विकार असाध्‍य हैं.

मगर सावधान रहो. तुम अब नरेश हो. अकेले में मत रहो. अन्‍यथा तुम्‍हारे पाप, तुम्‍हारे कृत्‍य तुम्‍हें अवसादग्रस्‍त कर देंगे. तब इस राज्‍य का क्‍या होगा. राजा को हमेशा सुरक्षा में रहना चाहिए. जिस सुरक्षा में रहो उस पर भी निगहबानी होनी चाहिए. निगहबानी के ऊपर भी पर्यवेक्षण हो. बहुवचनीय भय के लिए बहुस्तरीय सुरक्षा ज़रूरी है मगर विश्वास किसी पर न हो. तुम यहाँ यों ही नहीं आ गए हो. तुम किसी को मारकर यहाँ तक आए हो. तुम्‍हें सबसे ज्‍़यादा ख़तरा है. एकांतिक मत हो जाना, वरना पागल हो जाओगे. लोग कहेंगे कि सम्राट पागल हो गया है. इससे अधिक भयावह क्‍या होगा. कई बार सच्चाई अफ़वाह से भी अधिक तेज़ रफ़्तार से फैलती है. जो तुमने किया है उसे स्‍वप्‍न में भी याद मत करो. उसे याद करना विक्षिप्त होना है. अब तुम छत्रपति हो. तुम्‍हें अपने कृतघ्न व्यतीत को विस्मृत करना होगा. तब ही तुम्‍हारे स्‍वर्ग के कपाट खुलेंगे. तुम्‍हारे लिए हत्‍याओं की विस्‍मृति ही खुल जा सिमसिम है.

तुम्‍हें हत्‍या करके गर्वीला होना चाहिए. प्रसन्न रहना चाहिए. हत्‍या करना भर साहस नहीं है. उसके बोध से मुक्‍त रहना साहस है. अभी तो तुम्‍हारे सामने बड़े कार्यभार हैं. तुम्‍हें उन सबको रास्‍ते से हटाना है जो आज्ञाकारी नहीं हो रहे हैं. जो तुम्‍हारे प्रतियोगी हो सकते हैं. जो तुम्‍हें तुम्‍हारा हत्‍यारा होना याद दिला सकते हैं. जो बौद्धिक हैं. दार्शनिक हैं. सच कह सकते हैं. जो भयभीत नहीं हैं. जो औचित्‍य की बात करते हैं. जो नतमस्‍तक नहीं हैं. तुम्‍हारे सलाहकार भी यही कह रहे हैं. ये अभी इतनी हत्‍याएँ बाक़ी हैं. तत्‍काल सूची में हैं. तुम भूलो मत कि सिंहासन रत्‍नजड़ि‍त नहीं, रक्‍तजड़‍ित होता है. दूसरों का रक्‍त ही, सिंहासनों में रत्‍नों की तरह चमकता है.

‘The Tragedy of Macbeth’ फ़िल्म से एक दृश्य

(छह)

मैकबेथ, तुम्‍हारी त्रासदी समझी जा सकती है. तुम्हारी चिंता उचित है कि तुम केवल राजा के रूप में याद नहीं किए जाओगे. हत्‍यारे सम्राट, हत्‍यारे प्रधान, हत्‍यारे नायक जैसे किसी प्रत्‍यय और उपसर्ग के साथ याद किए जाओगे. लेकिन बुराई को यदि स्थायी रूप से शक्तिशाली होना है तो उसे और अधिक बुरा होना होगा. और अधिक संगठित. बुराई की परतों को एक के ऊपर एक रखकर चट्टान बनाना होगा. एक ऐसी शिला जो ख़ून पी सकती है.

सभासदो, आपका इस राज्‍याभिषेक समारोह में स्‍वागत है.
लेकिन कोई सवाल न करें. सम्राट की तबीयत बिगड़ती है. देखिए, आपके सवालों की वजह से ही यह जलसा अचानक, अधबीच में समाप्‍त करना पड़ रहा है. आप घर जाइए. सम्राट को भी विश्राम करने दीजिए. शुभ रात्रि. पत्‍थर की तरह माथे पर फेंकी गई शुभ रात्रि. कृपया, तुरंत अपने घर जाएँ. राजा मनोविकार में घिर गए हैं. उन्हें अपने सरीसृपों से उबरने का समय दें. यह रात्रि अशुभ है. रक्‍त से भरी है. पत्‍थर चलायमान होंगे. पेड़ बोलेंगे. पक्षियों के पंख झर जाएंगे. अशुभ की व्याख्या असंभव है. अब इस राज्‍य में जो कुछ भी होगा वही अशुभ को नये सिरे से परिभाषित करेगा.

राजन, तुम जब चलते हो तो तुम्‍हारे पीछे ख़ून आलूदा पैरों के निशान दिखते हैं. लेकिन तुम्हें स्थितप्रज्ञ होना होगा. कहना होगा कि ये पिछले सम्राटों के ख़ूनी चिह्न हैं. तुम्हें हत्‍या के पहले और हत्‍या के बाद, एक-सा रहना होगा. स्थिर और समशीतोष्ण. तुम वेताल नहीं हो, सम्राट हो. तुम शव को कंधे पर ढोकर नहीं चल सकते. तुम्‍हारी ग्‍लानि और तुम्‍हारा अपराधबोध अक्षम्‍य है. तुम पिशाचिनियों के अनुयायी हो. जब भी तुम्‍हें रास्‍ता नहीं सूझेगा, वे तुम्‍हारा मार्ग प्रशस्‍त करेंगी. तुम्‍हें हर रोज़ अधिक दुस्‍साहसिक होना होगा. तुमने यही रास्‍ता चुना है. यह असमाप्य रास्ता है. यह राह तुम्‍हारे लिए शापग्रस्‍त होगी या वरदान संपन्‍न, यह तो तुम्‍हारे द्वारा की जानेवाली आगामी हत्‍याएँ तय करेंगी. फिलहाल तुम्हारे खिलाफ़ सबसे बड़ी मुसीबत यह है कि माँएँ अपने बच्‍चों को जैसे लोरी गा-गाकर कह रही हैं कि अब देशभक्‍त वही हो सकता है जो शपथ लेकर झूठ बोलता हो.

‘The Tragedy of Macbeth’ फ़िल्म से एक दृश्य

(सात)

मैकबेथ, अब यह राज्‍य नवधनाढ्यों और नवअनाथों का रह जाएगा. इसका पतन होगा क्‍योंकि तुम निरंकुश राजा होने से कुछ भी कम पर समझौता नहीं कर सकते. साधारणजन के लिए यह मातृभूमि श्मशान होगी. यहाँ दुख, मातम, चीख़ें और मृत्‍यु ही डेरा डालेंगी. अब यहाँ लोग समाचार नहीं पूछेंगे बल्कि पूछेंगे दुख के समाचार क्‍या हैं. तुम कहोगे, दुख को पी जाओ लेकिन पिया हुआ दुख तो विष हो जाता है.

तुमने अपने निर्मम संदेह में विश्‍वस्‍तों, अनुचरों, सिपहसलारों के बच्चों को भी मार डाला है. वे तुमसे बदला लेंगे. लेकिन उनका यक्षप्रश्‍न है कि तुमसे पूरा बदला कैसे लिया जा सकता है. तुम्‍हारे तो बच्‍चे ही नहीं हैं. लेकिन वे बदला लेंगे. आधा-अधूरा ही सही. उनके लिए वही न्‍याय है. उनका दुख सान पर चढ़ रहा है. दुख उनके रुधिर को किसी थक्‍के में नहीं बदलने देगा. वे दुख को क्रोध में बदल रहे हैं. अब तुम्‍हें और तुम्‍हारी सहधर्मिणी प्रेरणा को रात की नींद में और नींद की रात में चलना होगा. जो घाव तुमने तलवार से मारे, वे अब तुम्‍हारे ही भीतर व्रण बन चुके हैं. हर चीज़ में से तुम्‍हें ख़ून की गंध आएगी. हर रंग रक्तिम दिखेगा. हर कौर में ख़ून का स्‍वाद आएगा. तुम्‍हारे हलक़ से उतरते हुए हर घूँट में रक्‍त की परछाईं दिखेगी. संसार के सारे इत्र, पृथ्‍वी के तमाम फूलों का मकरंद इस गंध को मद्धिम नहीं कर सकेगा. यह ख़ून की गंध है. षटरस पदार्थ इसके स्‍वाद को दबा नहीं पाएंगे. तुम्हारे इंद्रधनुष के सात रंगों में अब एक ही रंग होगा- शोणित.

पहले भी इंगित किया था कि यह निर्मम और अव्‍याख्‍येय अपराध की ग्लानि है. इस ग्‍लानि की कोई चिकित्‍सा नहीं. तुम्‍हारे समय में भी नहीं थी. आज भी नहीं है. भविष्‍य में नहीं होगी. इसे भुगतना पड़ता है. एकांत में, नीरवता में, रात्रि की निस्‍तब्‍धता में. चीत्‍कार करते हुए. घायल पशु की तरह, जैसे उसका गला रेता जा रहा हो. यह दुस्‍वप्‍न नहीं है. यह तुम्‍हारा जीवन है जो दुस्‍वप्‍न में बदल चुका है. अवांछित कृत्‍य अवांछित मुसीबतें लेकर आते हैं. अब तुम्‍हारे बयान सिर्फ़ तुम्‍हारी बिछावन और तकिया ही सुन सकते हैं. तुम एक ठूँठ पर लगे हुए पत्‍ते रह गए हो. जर्जर. पीले. तुम उसी पत्‍ते की तरह झरोगे. लेकिन यह वसंत नहीं होगा.

तुम्‍हारी त्रासदी यह है कि तुम आँसुओं का स्‍वाद भूल गए हो. तुम्हें सिर्फ़ ख़ून का स्‍वाद याद है. अब तुम्हारी प्राणप्रिया प्रेरणा भी नहीं रही. तुम आनेवाले कल को जैसा चाहते थे वह वैसा आता हुआ दिख नहीं रहा है क्‍योंकि बीते हुए कल में जो तुम करते रहे वह तो अकरणीय था. अब तुम देख रहे हो कि तुम्‍हारा जीवन क्‍या था- अपनी थकान में लथपथ एक छाया. कुकृत्यों की काली कौंध. कोलाहल और क्रोधोन्‍माद से भरी हुई. हुंकार से और फुंकार से लबरेज. अर्थहीन. हासिल कुछ भी नहीं. सब व्यर्थ. एक मूर्ख के द्वारा कही गई कथा.

झूठ समाप्‍त हो चुके हैं. प्रचार अप्रभावी हो गया है. अफ़वाहें दम तोड़ रही हैं. अब और हत्‍याएँ मुमकिन नहीं रहीं. युद्ध ही तुम्हारा अंतिम हथियार है. आत्‍मसमर्पण तुम कर नहीं सकते. इसलिए राज्‍य को युद्ध में झोंक दोगे. जन का संहार होने दोगे. जाओ, अपनी दुंदुभि को रणभेरी की तरह बजाओ.

मगर तुमसे तो पेड़ तक नाराज़ हैं. हज़ारों गुस्सैल वृक्षों के पत्ते उड़ते हुए आएंगे और तुम पर गिरेंगे. तुम्हें ढँक लेंगे. यही तुम्हारी क़ब्र होगी. अब तुम बैठो और अपनी मृत्‍यु की, अपनी हत्‍या की प्रतीक्षा करो. तलवार के वार से तुम्‍हारा ताज़ गिर चुका है. लेकिन तुम बाज़ नहीं आओगे. मुकुट का मोह नहीं छोड़ सकोगे. गिरे हुए ताज़ को उठाने की कोशिश करोगे और अपने उस सिर को गवाँ दोगे, जिसके लिए तुम उसे उठा रहे थे.

अब कोहरा आएगा. वह सब कुछ ढँक लेगा. लेकिन जल्दी ही समय की धूप इस कोहरे को छाँट देगी और तब वह शाश्वत कथा दिखेगी जो संपन्न होकर भी संपन्न नहीं हुई. वह अभी जारी है.

____

The Tragedy of Macbeth 2021/Director – Joel Coen

कुमार अंबुज
(जन्म : 13 अप्रैल, 1957, ग्राम मँगवार, गुना, मध्य प्रदेश)
कविता-संग्रह-‘किवाड़’, ‘क्रूरता’, ‘अनन्तिम’, ‘अतिक्रमण’, ‘अमीरी रेखा’ और कहानी-संग्रह- ‘इच्छाएँ’ और वैचारिक लेखों की दो पुस्तिकाएँ-‘मनुष्य का अवकाश’ तथा ‘क्षीण सम्भावना की कौंध’ आदि प्रकाशित.

कविताओं के लिए मध्य प्रदेश साहित्य अकादेमी का माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार, भारतभूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार, श्रीकान्त वर्मा पुरस्कार, गिरिजाकुमार माथुर सम्मान, केदार सम्मान और वागीश्वरी पुरस्कार आदि प्राप्त.
kumarambujbpl@gmail.com

Tags: 20222022 फ़िल्मकुमार अम्बुजविश्व सिनेमा से कुमार अम्बुज
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Comments 31

  1. अरुण कमल says:
    4 years ago

    अद्भुत ।कुमार अंबुज हमारे समय के श्रेष्ठ कवि-चिंतक हैं ।

    Reply
  2. मनोज झा says:
    4 years ago

    बहुत ही सारगर्भित आलेख है। गद्य की बानगी भी कमाल की है।

    Reply
  3. अजित says:
    4 years ago

    बहुत बढ़िया। मैकबेथ के बहाने अत्यंत पठनीय भाषा लिखा गया वर्तमान और भविष्य की भयावहता का सटीक अंकन।

    Reply
  4. Suresh Kumar tank says:
    4 years ago

    लोक तन्त्र मे लोक की हत्या,,,, केवल और केवल झूठ की सत्ता,,,, संदेह की राजनीति,,,,, और हत्यारा राजनेता,,,,,, ताज उठाने की बेताज़ कोशिश,,,,, समय की बलवत्ता,,,,, अंतिम सत्य,,,,, अद्वितीय आलोचनात्मक लेख,,,,, सही कलयुग का प्रलेख,,,, सार्थक शब्द_चित्रण,,,,,, यथार्थ की अनुभूति,,,,, हम सबकी स्वीकृति के साथ

    Reply
  5. सुरेंद्र मनन says:
    4 years ago

    दृश्यों के निहितार्थ को परत दर परत खोलते हुए जिस तरह काव्यमय भाषा में आप उसे व्यक्त करते हैं, वह विस्मित करता है

    Reply
  6. Rahul Jha says:
    4 years ago

    कवि-लेखक कुमार अंबुजजी के गद्य में पद्य की यह बीहड़ यात्रा बहुत विरल है…
    उन्हें पढ़ना… उनसे गुजरना
    हमेशा समृद्ध करता है…
    विश्व-सिनेमा पर उनका लेखन अचंभित करता है… कि इस तरह…कविता के साथ ख़रामा-ख़रामा चलते हुए… सिनेमा का आस्वाद लिया जा सकता है…
    बहुत सुंदर… और शानदार पेशकश…!
    अभिनंदन है… आपका…!!!

    Reply
  7. अमरेन्द्र कुमार शर्मा says:
    4 years ago

    कुमार अंबुज का यह लेख एक शानदार पद्य लेख है । यह रोचक पद्य लेख सिनेमा के अंतर्वस्तु पर नहीं बल्कि सिनेमा के एक पात्र के मन को टटोलने , मन को खोलने वाला है ।

    चाहें तो इस पद्य लेख को कविता की तरह भी पढ़ सकते हैं —

    इस पद्य लेख के कई अंश सिनेमा और लेख से बाहर हमारे अपने समय में दस्तक देते हुए लगते हैं ।

    इस पद्य लेख से कुछ चुने हुए अंश को , जिसमें कहीं न कहीं हमारे समय का भी चित्र है, कविता के प्रारूप में यहाँ दे रहा हूँ —-

    ‘राजनीति में सतत संदेह ही जीवन है.
    जो जिस दिन निष्कंटक विश्वास करेगा, वही उसकी अंतिम रात्रि होगी. इसमें तुम्‍हें कोई पातक नहीं लग सकता. यह राजनीति का कलियुग है.
    यह कलियुग की राजनीति है.
    यह कलिकाल है.
    यह मुकुट में निवास करता है ।’

    —–

    ‘आज हत्या करो.
    कल देश के नृपति हो सकते हो.
    जितनी बड़ी हत्‍या, उतना बड़ा प्रतिफल.
    राजतंत्र में राजा की हत्‍या करना होगी. पिता की. भाई की. गुरु की.
    तानाशाही में तानाशाह की.
    लोकतंत्र में लोक की.
    हत्या तुम करोगे लेकिन डरकर कोई और भागेगा.
    कि कहीं उसकी हत्‍या न हो जाए.
    लेकिन जो भागेगा, आक्षेप उस पर आएगा.
    यही न्‍याय परंपरा है.
    यही संस्कृति.
    यही इतिहास. यही वर्तमान है. यही भविष्य.’

    —

    ‘हत्‍या साधन है, सत्‍ता साध्‍य है. बस, तुम्‍हारे विकार असाध्‍य हैं.’ ——- इस प्रस्तुति के लिए भाई अरुण देव जी का आभार ।

    Reply
    • कुमार अम्बुज says:
      4 years ago

      आपने इस तरह भी देखा। सोचा।
      आभार।

      Reply
  8. अजमल व्यास says:
    4 years ago

    अभी पढा कुमार अम्बुज का आलेख। मैकबेथ हमेशा से मेरा प्रिय नाटक रहा है। जब जब पढ़ता हूं, कुछ नया हासिल होता है। इस आलेख के ज़रिए मैकबेथ को समझने में आसानी हुई। अब ओरिजनल एक बार फिर पढ़ूंगा । सिनेमा पर हमारे यहां पहले तो साहित्यकारों की कोई रुचि नहीं है और जो है भी , जो थोड़ा बहुत लिखते हैं ,उसका स्तर बहुत अच्छा नहीं है । कुमार अंबुज इस कमी को पूरा कर रहे हैं। उनके आलेख हमें सिनेमा के बारे में सोचने का नया नजरिया देते हैं लेकिन कुल मिलाकर उनके आलेख बुद्धिजीवियों के लिए ही है। कोई सामान्य आदमी इसे पढ़कर किसी फिल्म के बारे में कोई धारणा नहीं बना सकता ।अच्छा लिखते हैं कुमार अंबुज लेकिन कोशिश यही होनी चाहिए कि उनके आलेख सभी की समझ के दायरे में हो। मेरी बहुत सारी शुभकामनाएं और मैं उनसे बहुत उम्मीद करता हूं की वह कमोबेश हिंदी सिनेमा के दर्शकों को सिनेमा देखने की कला सिखा रहे हैं ।बहुत बधाई उन्हें।

    Reply
  9. प्रकाश मनु says:
    4 years ago

    अद्भुत! ऐसी गद्यभाषा कुमार अंबुज ही लिख सकते हैं। मैकबेथ के जरिए उन्होंने मौजूद राजनीति के चेहरे की क्रूरता और भयावहता को पढ़ने की कोशिश की है, जिसकी जिह्वा हर वक्त रक्त पीने के लिए लपलपाती रहती है, फिर वह रक्त चाहे किसी का भी हो!!

    विष्णु खरे के बाद विश्व सिनेमा पर इतनी गंभीरता और संजीदगी से लिखने वाले कुमार अंबुज ही हैं।.उनसे बहुत उम्मीदें हैं।

    स्नेह,
    प्रकाश मनु

    Reply
  10. M P Haridev says:
    4 years ago

    मैक्बेथ सिर्फ़ नाटक नहीं है । मनोवृत्ति की सच्चाई है । मनुष्य राजा का पद हासिल करने के बाद क्रूरता की सारी सीढ़ियाँ चढ़कर अपनी प्रजा को रौंद सकता है । क्रूर होकर पछतावा होता होगा । उसे अपने से भी डर लगता होगा । इसलिये वह अनिद्रा में रहना चाहता है । क्रूर को मरने का भय है । सारे क्रूर शासक डरपोक होते हैं । कुमार अंबुज की शब्दावली में शब्दों का लाजवाब खेल है । मुझे छात्र बनकर उनकी कक्षा में बैठकर मैक्बेथ नाटक को समझने के लिये जद्दोजहद करनी होगी । मुझ कमज़ोर छात्र को बिना फ़ीस के एक्सट्रा ट्यूशन की छूट दी जानी चाहिये ।

    Reply
  11. श्रीविलास सिंह says:
    4 years ago

    अद्भुत गद्य भाषा में लिखा गया आंतरिक संघर्ष का अद्भुत आख्यान। यह अंतर्द्वंद्व सिर्फ़ मैकबेथ का नहीं, किसी काल विशेष का नहीं, हर हत्यारे समय का, हर कृतघ्न हत्यारे का है जिसने राजा की, विश्वास की, लोक की हत्या की है। प्रस्तुत करने का हार्दिक आभार।

    Reply
  12. सुधा अरोड़ा says:
    4 years ago

    सिंहासन रत्‍नजड़ि‍त नहीं, रक्‍तजड़‍ित होता है. दूसरों का रक्‍त ही, सिंहासनों में रत्‍नों की तरह चमकता है.

    किसी कृति की ऐसी काव्यात्मक समीक्षा अचंभित करती है ।

    Reply
  13. Madan Keshari says:
    4 years ago

    आलेख मैकबेथ में अंतर्निहित रूपक का नए सिरे से व्याख्या करता है, और उसे एक नया अर्थ-विस्तार देता है। मगर सबसे अधिक खींचती है कुमार अम्बुज की भाषाई संरचना। उनकी भाषा गद्य का अतिक्रमण करते, कविता में प्रवेश करती है, और उसे पढ़ते हुए केवल मस्तिष्क ही नहीं, मन भी झंकृत होता है। ‘मैकबेथ’ मेरे स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में सम्मिलित था और ब्रैडले ने आख्यान में निहित संश्लिष्ट मानवीय चेतना की गहन समीक्षा की है, मगर प्रस्तुत आलेख ‘मैकबेथ’ पर एक नितांत नई दृष्टि है, और उसके माध्यम से हमारे समय की नृशंसता पर टिप्पणी।

    Reply
  14. Yadvendra says:
    4 years ago

    मैकबेथ के बहाने ऐसा गद्य कि रूह झनझना जाए…सत्ता लोलुपता के इस अद्वितीयआख्यान में नैतिक अनैतिक के भंवर एक दर्पण की तरह हमारे समाज का चेहरा दिखाते चलते हैं।अभी अभी पढ़ कर खत्म किया…पर कैसे कहूं कि खत्म किया,यह झंझा भला आसानी से चैन लेने देगी?

    पर पानी में डूबते उतराते हुए उम्मीद के भरोसेमंद रूपक सांस लेने के लिए गुंजाइश छोड़ते हैं:
    “तुमसे तो पेड़ तक नाराज़ हैं. हज़ारों गुस्सैल वृक्षों के पत्ते उड़ते हुए आएंगे और तुम पर गिरेंगे. तुम्हें ढँक लेंगे. यही तुम्हारी क़ब्र होगी. अब तुम बैठो और अपनी मृत्‍यु की, अपनी हत्‍या की प्रतीक्षा करो.”

    कुमार अंबुज हमारे समय के अनिवार्य वाचक हैं।

    यादवेन्द्र

    Reply
  15. पुरु says:
    4 years ago

    कितना सहज और गूढ़ नाटक की ट्रेजडी जीवन की भी ट्रैजडी है ।

    Reply
  16. धीरेंद्र अस्थाना says:
    4 years ago

    किसी फिल्म की ऐसी विरल, चकित कर देने वाली, काव्यात्मक समीक्षा करने की क्षमता देख अवाक रह जाना पड़ता है। कुमार अंबुज सिनमाई समीक्षा की नयी भाषा गढ़ रहे हैं। इस गद्य काव्य पर हमें गर्व है।

    Reply
  17. शिव किशोर तिवारी says:
    4 years ago

    सुंदर, परंतु पारम्परिक। मैकबेथ और लेडी मैकबेथ को मात्र unsympathetic चरित्रों के रूप में चित्रित किया गया है। नवीनता तब होती जब चित्रण इतना एकायामी न होता।

    Reply
  18. Hammad Farooqui says:
    4 years ago

    मैकबेथ पर हिंदी में , कम ही लिखा गया है। बहुत पहले पूर्वाग्रह या कलावार्ता में बरनम वन शीर्षक से पढ़ा था। जो बौद्धिक, और औपचारिक सा था। विशाल भारद्वाज का मकबूल एक अच्छा सिनेमाई रूपांतर था। यूं तो अलकाजी, रत्न थियम के मैकबेथ पर नोट्स भी उल्लेखनीय हैं,लेकिन अधूरे लगते हैं। कुमार अंबुज का लेख मैकबेथ की त्रासदी, आशंका,भय, बेवफाई को बहुत अंतरंगता से हिंदी समाज को संबोधित करता है। इस किस्म का दूसरा लेख कुदसिया ज़ैदी का उर्दू में याद आता है।

    Reply
  19. अनिल करमेले says:
    4 years ago

    मैकबेथ के बहाने अद्भुत गद्य जो अवाक ही नहीं करता, सन्नाटे में ले जाता है. यह हमारे समय का रूपक है और मैकबेथ के मुखौटे के पीछे हम अधिपति को देखते हैं. नवधनाढ्यों और नवअनाथों के राज्य में रक्त जड़ित मुकुट चमकता है.
    आपकी काव्यमय भाषा और उसमें विन्यस्त बेचैनी इसे मन में गहरे ले जाती है.

    मैं इसे बुदबुदाकर पढ़ता हूं और बार बार ठहर जाता हूं.

    Reply
  20. ममता कालिया says:
    4 years ago

    उफ़ सोलहवीं शताब्दी में लिखे नाटक की पटकथा इक्कीसवीं सदी में कैसे अद्यतन हुई जा रही है।उसकी प्रचंड निष्ठुरता का प्रखर बयान, पढ़ना अर्थात थर्रा उठना।कुमार अंबुज अद्भुत गद्य

    Reply
  21. कुमार अम्बुज says:
    4 years ago

    सब साथियों, मित्रों को धन्यवाद।
    इन सभी टिप्पणियों ने मुझे प्रेरित किया।
    आभारी हूँ।

    Reply
  22. सुभाष राय says:
    4 years ago

    कुमार अम्बुज का आलेख पढ़कर

    प्रिय भाई, बहुत बधाई। शेक्सपीयर महान रचनाकार थे‌। मैकबेथ अद्भुत रचना है लेकिन आप ने इस आलेख में मैकबेथ को जिस तरह हिंदी पाठकों तक पहुंचाया है, वह चेतना की भीतरी परतों तक धंसता चला जाता है। मैकबेथ बिलकुल हमारे सामने खड़ा नजर आता है। अपना मुकुट और अपनी तलवार सम्भालता हुआ, रक्तस्नात हत्यारे की तरह। यह मैकबेथ कालातीत होकर प्रस्तुत होता है। हर संदेह, हर आशंका, हर सवाल पर वार करता हुआ, हर विरोधी की हत्या करता हुआ। दमन, दोहन और दलन के डरावने दृश्य रचता हुआ। वह हमेशा अपनी ही तलवार का शिकार होता आया है लेकिन अपने हर नये अवतार में वह अपनी अजेयता का विश्वास लेकर जन्मता है। नाटक जारी है। लोग छले जा रहे, मारे जा रहे, जेलों में ठूसे जा रहे लेकि‌न एक दिन नाटक खत्म होगा। मैकबेथ अंतत: मारा जायेगा। मारा ही जायेगा।
    बहुत सुंदर लिखा आप ने। बहुत बधाई।

    Reply
  23. Mrigendra Singh says:
    4 years ago

    एक दार्शनिक कवि का गंभीर लेखन, ना सिर्फ फ़िल्म को देखने के लिए उत्कंठा जागृत करता है बल्कि अंतर्द्रष्टि भी प्रदान करता है. उत्कृष्ट भाषा में लिखे इस आलेख को पढ़ते हुए हम मैकबेथ के चरित्र से परिचित होते हुए अपने समय के यथार्थ से रूबरू होते हैं और ऐसा लगता है जैसे मैकबेथ आज भी उसी रूप में मौजूद है. यही हमारे वर्तमान की त्रासदी है.
    कुमार अम्बुज दादा की कलात्मक लेखनी को प्रणाम.
    अंत में अरुण देव जी से सहमत होते हुए -आप इस स्तम्भ को नहीं पढ़ रहें हैं तो आपसे कुछ सार्थक पठन छूट रहा है.

    Reply
  24. Anonymous says:
    4 years ago

    निस्संदेह अच्छा गद्य पढ़ने को मिला । बहुत-बहुत धन्यवाद ।

    Reply
  25. Anonymous says:
    3 years ago

    लाॹबाब…

    Reply
  26. Sanjay+kumar says:
    3 years ago

    आदरणीय कुमार अम्बुज की कविताओं के विस्तृत संसार से प्रायः हिंदी साहित्य के रसिक अच्छी तरह वाकिफ हैं।जय प्रकाश चौकसे अपने कॉलम “पर्दे के पीछे”में उन्हें बहुधा कोट करते थे।
    साहित्य ,समाज और विश्व सिनेमा पर उनका विशद अध्ययन विस्मित करने वाला है।
    मैकबेथ शेक्सपियर के चार दुखांत नलकों में सर्वाधिक विचलित कर देने वाला आ अभाव है।उद्दाम महत्त्वाकांक्षा(Vaulting Ambition) की अंतिम परिणति होती है जब हाथ में डाल लिए आते लोग उसे “Birnam Tree”के चलने की भूत की भविष्यवाणी पर यकीन दिल देती है।
    उसी मैकबेथ के मन के दावानल को गुत्थी दर गुत्थी तफसील से बयान करते हुए अम्बुज जी मैकबेथ की मनोदशा में परकाया प्रवेश करते प्रतीत होते हैं।
    मैकबेथ नाटक के आखिर की पंक्तियां सदैव गूंजती है-
    It is tale told by and idiot,
    Full of sound and fury,
    But signifying nothing.
    तमाम दुष्कर्म के बाद हाथ में रेत के कुछ कणों के सिवाय कुछ भी नहीं।
    एक मनोरोगी,उत्कट सत्ता पिपासु की यह दारुन अवस्था पूरी मानवता के लिए एक जरूरी सबक है।थोड़ा हम फिसले कि मैकबेथ का एक अंश हमारी चेतना का अपहरण कर लेगा।

    अम्बुज जी के इस अन्तरपाठ से मुझे (English honourse)के दिनों(1982-84)में पढ़ा मस्बेध फिर से कौंध गया।

    अशेष बधाई कुमार अम्बुज सर।

    Reply
  27. शशि भूषण says:
    3 years ago

    यह लेख ऐसा है कि इसका प्रचार होना चाहिए। इतना प्रचार प्रसार होना चाहिए कि पढ़े लिखे लोग कहीं समूह में बैठे हों तो कोई इसे पढ़कर सुनाए। फिर किसी को जल्दी हो तो वह चला जाए लेकिन बारी बारी से सुनाना सुनना जारी रहे।
    कुमार अंबुज जी के समालोचन वेबसाईट वाले जिस लेख की बात मैं कर रहा हूं अगर आपको पढ़ने का मौका मिले तो उसे आप ऐसे पढ़िएगा कि आप ही सुन भी सकें। दो पंक्तियों के बीच दृश्य की कल्पना कर सकें।
    भाषा की आभा, अभिप्राय, जिजीविषा, गूंज और गहराई सुनने के लिए इससे अच्छी पंक्तियां किसी लेख में क्या मिलेंगी? मैंने तो कुछ महीने पहले देवीप्रसाद मिश्र जी की कविता जिधर कुछ नहीं में ही ऐसी धारिता की पंक्तियां पढ़ी थीं।
    तो क्या कुमार अंबुज जी ने फ़िल्म पर कविता ही लिख दी है? क्या कह सकते हैं ? कविता भी ऐसी पंक्तियों के लिए तरस जाए। मैं यही कहूंगा।

    Reply
  28. Kailash Banwasi says:
    3 years ago

    अद्भुत, अपूर्व! यह ऐसा अनूठा,अनुपम गद्य है जो दुर्लभ है।सही कहा शशिभूषण ने,इसे उन पंक्तियों के बीच छिपे अभिप्राय, गूंज और निहितार्थ को कल और आज के संदर्भ में बार बार पढ़ने की जरूरत है।

    Reply
  29. Dr Om Nishchal says:
    2 years ago

    मैकबेथ के चरित्र के आलोक में आज की क्रूरताओं को बांचने की कोशिश।
    शताब्दियों बाद भी कोई चरित्र कोई मिथक इतना समकालीन हो सकता है, यह अपने पाठ से अंबुज जी ने प्रतिबिंबित किया है। धारदार गद्य के इस स्थापत्य के लिए उनकी सराहना करता हूं।

    अचानक वह स्मृति से उछल कर जैसे हमारे सम्मुख आ गया है और उसकी सत्तागत वासनाओं का खूनी खेल देख रहे हैं।

    Reply
  30. जया जादवानी says:
    2 years ago

    अद्भुत गद्य. किसी फ़िल्म पर ऐसे भी बात की जा सकती है कि वह हर युग का सच बयान कर दे. उस युग का भी, इस युग का भी. गद्य क्या है एक लंबी कविता है, पत्तों की तरह जिसके न जाने कितने शेड्स हैं. गद्य की बहुत थोड़ी सी बानगी देखें –
    बहुवचनीय भय के लिए बहुस्तरीय ज़रूरी है.
    तुम मत भूलो कि सिंहासन रत्न जड़ित नहीं रक्त जड़ित होता है. दूसरों का रक्त ही सिंहासनों में रत्नों की तरह चमकता है.
    तुम कहोगे दुःख पी जाओ पर पिया हुआ दुःख तो विष हो जाता है.
    और भी न जाने कितनी पंक्तियाँ !
    इसे बार बार पढ़ा जाना चाहिए.
    फ़िल्मों पर बात करने के साथ साथ अगर अम्बुज जी यह भी बताते चलें कि वे फ़िल्में कहाँ देखी जा सकती हैं तो देखने में आसानी होगी. जैसे – यही फ़िल्म.
    मैं दो बार पढ़ चुकी हूँ और अभी तक इसके नशे में हूँ.

    Reply

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