तुर्कों का इस्लामीकरण और बौद्धवृत्त का विघटन चंद्रभूषण |
एक जातीय पहचान के रूप में तुर्कों का मामला बहुत भ्रम पैदा करने वाला है. भारत में आम जनता के स्तर पर ‘तुर्क’ का मतलब ‘मुसलमान’ समझा जाता रहा है. कुछ उसी तरह, जैसे हाल के वर्षों में मध्यकालीन भारत की सभी इस्लामी सत्ताओं को ‘मुगल शासन’ कहा जाने लगा है. और तो और, अभी हाल में एक तिब्बती मित्र से बातचीत के दौरान किसी ऐतिहासिक संदर्भ में तुर्कों का जिक्र उठा तो वे भी इसे मुसलमानों से जुड़ी बात मान बैठे.
मेरे लिए यह आश्चर्य की बात थी, क्योंकि तिब्बतियों के लिए तुर्कों का दर्जा हमेशा से एक पड़ोसी जाति का रहा है. कश्मीर के उत्तर में स्थित चीन के शिनच्यांग प्रांत के निवासी उइगुर तुर्कों के मानवाधिकार का प्रश्न दलाई लामा आज भी पूरी शिद्दत से उठाते हैं. एकेडमिक्स की बात करें तो भारत में बौद्ध धर्म के विलोप पर लिखते हुए तिब्बती इतिहासकार ‘तागजिग’ और ‘गरलोग’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते रहे हैं, जो मध्य एशिया के अलग-अलग तुर्क कबीलों ‘ताजिक’ और ‘कारलुक’ के तिब्बती उच्चारण भर हैं. मुझे लगा, मेरे ये मित्र तिब्बती से ज्यादा भारतीय हैं.
इस्लाम से बाहर तुर्कों की कोई धार्मिक पहचान न देख पाने की एक वजह यह है कि गैर-मुस्लिम तुर्क अभी न के बराबर मिलते हैं. कुछ ईसाइयों के अरब नाम अभी लोगों को परिचित लगने लगे हैं. खलील जिब्रान और नसीम तालिब जैसे गैर-मुस्लिम अरब लेखकों को पढ़ने वाले करोड़ों में हैं, लेकिन तुर्क तो दुनिया भर में शत-प्रतिशत मुसलमान ही मिलते हैं. पीछे जाएँ तो आठवीं सदी की शुरुआत में अरबों का भारत पर हमला सिंध और एक हद तक पंजाब तक ही सीमित रहा, जबकि दसवीं और बारहवीं सदियों के अंत में हुए गजनवी और गोरी के हमलों से भारतीय सभ्यता में निर्णायक बदलाव हुए. इनमें गोरी खुद तुर्क नहीं था, लेकिन उसके पीछे, उसके नाम पर जिन गुलामों ने भारत पर राज किया, लगभग छह सौ साल यहाँ चले इस्लामी शासन की नींव रखी, वे तुर्क ही थे.
ऐसे में लोगों के लिए यह मानना मुश्किल होता है कि तुर्कों की किसी समय कोई गैर-मुस्लिम पहचान भी रही होगी. उनमें कुछ बहुत मजबूत आस्था वाले बौद्ध और ईसाई भी रहे होंगे. और तो और, एक समय ऐसा था जब भारत में बौद्ध धर्म का अस्तित्व अनजाने में ही सही, तुर्कों के बीच अपने प्रभाव पर निर्भर करता था और जैसे ही वे मुसलमान हुए और बौद्ध धर्म की तरफ अपनी पीठ फेरी, भारत में इस धर्म की उलटी गिनती शुरू हो गई.
यह बात खास तौर पर इस तथ्य से टकराती है, कि तुर्क सरदार बख्तियार खिलजी ने 1197 से 1203 ईस्वी के बीच मगध और बंगाल के सभी महत्वपूर्ण बौद्ध महाविहारों को ध्वस्त करके वहाँ मौजूद ज्यादातर भिक्षुओं का संहार कर दिया था. इस बात को यहाँ खारिज नहीं किया जाएगा. सिर्फ इसे तुर्कों में आए बदलावों से जोड़कर देखने का प्रयास किया जाएगा.
कहाँ से आए तुर्क
तुर्क एक सुदूर उत्तरी जाति है. हिमालय के उत्तर में, कराकोरम पर्वत से आगे पामीर की गांठ में कई सारे पहाड़ मिलते हैं. इनके उत्तरी छोर के आगे एक चौड़ा गलियारा सा है, जो चीन का कांसू (अंग्रेजी लिखाई में गांसू) प्रांत है. उसके भी उत्तर में तिरछी सी अल्टाई पर्वत श्रृंखला के पश्चिमी-उत्तरी छोर पर इस जाति का आदिम ठिकाना रहा है. ऐसी कहावत है कि तुर्क और मंगोल एक ही पहाड़ के इधर-उधर रहते आ रहे थे. लेकिन अल्टाई पर्वत श्रृंखला का फैलाव ऐसा है कि इन दोनों लड़ाकू जातियों में पुराना संपर्क नाम मात्र को ही था. दरअसल, ईसा की तेरहवीं सदी की शुरुआत में चंगेज खां के उदय से पहले मंगोल जाति को एक असंगठित शिकारी जाति ही समझा जाता था.
लेकिन तुर्कों का मामला अलग था. दुनिया में घोड़ों को सबसे पहले पालतू बनाने के प्रमाण उनसे जुड़ते हैं. अल्टाई पर्वत की वादियों से उनका निकास यूरेशिया के विशाल घास के मैदानों में था. इसके चलते चीन की पश्चिमी-उत्तरी सीमा से उठकर यूरोप में हंगरी-पोलैंड तक उनकी गति संभव हो जाती थी. चीनी उन्हें बर्बर मानते थे और बीच-बीच में रौंद भी दिया करते थे. उनके सरकारी दस्तावेजों में इस बात को सिरे से खारिज किया गया है कितुर्क कबीलों के पास कोई लिपि भी थी. लेकिन बीती सदी में रूसी खोजियों ने अल्टाई से निकलने वाली येनिसेई नदी की घाटी में समाधि लेख और दूसरे रूपों में प्राचीन तुर्कों की कई लिखावटें जमा की हैं, जिन्हें ‘येनिसेई इन्स्क्रिप्शंस’ के नाम से जाना जाता है. मामूली बदलाव के साथ इस लिपि के नमूने ताजिकिस्तान से लेकर तुर्की और हंगरी तक पाए गए हैं.
ईसा की तीसरी सदी से शुरू करके नवीं सदी की शुरुआत तक चली इन येनिसेई लिखावटों में तुर्कों की दैवी उत्पत्ति की बात कही गई है और उनकी विजय गाथा गाई गई है. एक पुराने राजा के समाधि लेख में बताया गया है कि किस तरह चीनियों ने उनका राज छीन लिया और फिर उनके सरदार बिल्गा खगान ने किस तरह उन्हें उनका राज वापस दिलाया. और हां, ‘तुर्क’ का शाब्दिक अर्थ इन लिखावटों में ‘श्रेष्ठ’ उभरकर आता है- वही, जो ‘आर्य’ का निकलता है!
प्राचीन भारत के करीब तुर्कों की पहली धमक 550 ई. के आसपास सुनाई पड़ती है. अफगानिस्तान के उत्तरी-पूर्वी छोर पर. महान गुप्त शासन ने अभी के अफगानिस्तान और ईरान के कुछ हिस्से समेत एक बहुत बड़े भूगोल में लंबे समय तक सामाजिक-राजनीतिक स्थिरता बनाए रखी. लेकिन हूणों के हमले में उनका राज ढहने के साथ ही हिंदूकुश पर्वतमाला के दूसरी तरफ तुर्कों का उभार देखा गया और कई भीतरी बदलावों के साथ उनकी छाप अगले 1200 वर्षों तक दक्षिणी एशिया, पश्चिमी एशिया और मध्य एशिया के अलावा मध्य और पूर्वी यूरोप में भी बनी रही.
इस्लाम से नज़दीकी
अरब दायरे में नया-नया उभरा इस्लाम पहले तुर्कों को एक बर्बर शक्ति की तरह देखता था. फिर वे इसके दायरे में आने लगे और एक दिन ऐसा भी आया जब वे इस धर्म के सबसे बड़े अलमबरदार बन गए. अरबों की तरह किसी एक झंडे के नीचे पूरी तरह से संगठित शक्ति तो तुर्क किसी दौर में नहीं बन पाए लेकिन इस्लाम धर्म अपनाने के क्रम में उनकी आपसी लड़ाइयां कम होती गईं. यह प्रक्रिया टेढ़ी-मेढ़ी थी और आगे हम इसका एक जायजा भी लेंगे.
छोटी, घुमंतू, कबीलाई तुर्क रियासतों के उभरने, फिर बड़ी इस्लामी तुर्क सत्ताओं का खाका सामने आने के बीच ढाई सौ साल ऐसे गुजरे जब पुराने फारस को खुद में समेट चुका अरब साम्राज्य, खासकर अब्बासी खिलाफत के सूबेदार एक तरफ तुर्कों को अपने यहाँ नौकरी पर रख रहे थे, दूसरी तरफ चीन से मिलकर संगठित तुर्कों से निपटने का जुगाड़ भी भिड़ाते थे. इस अवधि में तुर्कों को लेकर अरबों की आम राय बहुत खराब थी. तंबुओं में रहने वाले, हर मौसम में गंदे ऊन से ढके रहने वाले, नहाने से जान छुड़ाने वाले, घायल घोड़ों को मारकर खा जाने वाले लोग! इनमें आखिरी बात तो बहुत बाद में भारत पहुंचे अरब यात्री इब्नबतूता ने अपने भारत वर्णन में लिख रखी है.
11वीं सदी के मध्य में, जब तुर्क शासक महमूद गजनवी अपने नाम का डंका हर तरफ बजाकर कब्र में जा चुका था, सूफी दार्शनिक अल ग़ज़ाली अपने प्रख्यात ग्रंथ ‘इह्या उलूम अल दीन’ (द बुक ऑफ नॉलेज) में लिख रहे थे-
‘बुजुर्गों का, खासकर कबीले के मुखिया का सम्मान तो तुर्क भी करते हैं. इस समझ को ‘इल्म’ तो नहीं माना जा सकता.’
लहजा कुछ इस तरह का, जैसे मनुष्यों से निचले स्तर की बुद्धि वाले किसी अन्य प्राणी के बारे में बात कर रहे हों!
तालास का युद्ध
भारत से बौद्ध धर्म की विदाई में काफी बड़ी भूमिका सन 751 ई. में भारतभूमि से काफी दूर हुए एक युद्ध की रही है. मौजूदा किर्गीजिस्तान में स्थित तालास नाम की जगह पर यह युद्ध बगदाद में नई-नई उभरी अब्बासी खिलाफत और तांगवंश द्वारा शासित चीन की फौजों के बीच हुआ था. कश्मीर के प्रतापी राजा ललितादित्य मुक्तापीड की फौज चीनियों के साथ थी जबकि तिब्बत की पलटनें अरबी फौज से मिलकर चीन से अपना पुराना हिसाब चुकता कर रही थीं. मध्य एशिया के उत्तरी इलाके में मौजूद कारलुक तुर्क कबीले दोनों ही तरफ से लड़ रहे थे. संगठित धर्म के रूप में इस लड़ाई में अरबों ने बतौर मुसलमान हिस्सा लिया था, जबकि तांग सत्ता की दृढ़ बौद्ध पहचान थी.
होने को इस लड़ाई में तिब्बती भी बौद्ध ही थे, लेकिन आचार्य शांतरक्षित तब वहाँ धर्म पहुंचाने में जुटे थे. तिब्बतियों की गति बुधिज्म में जितनी भी रही हो, इस लड़ाई में वे चीनियों के खिलाफ उतरे हुए थे. कश्मीरी सैनिकों के धर्म को लेकर कोई जानकारी नहीं है. बस इतना पता है कि कन्नौज नरेश हर्ष वर्धन की तरह ललितादित्य मुक्तापीड के राज्य में भी बौद्ध और हिंदू, दोनों धर्म समान रूप से प्रतिष्ठित थे. कारलुक तुर्कों का धर्म तब आम तौर पर ओझाई वाला या आकाशपूजक (शमनिज्म या तेंग्रिज्म) था, हालांकि नेस्तोरियन ईसाई चर्च भी उनके इलाकों में कहीं-कहीं थे.
जो बात दस्तावेजों में मौजूद है वह सिर्फ यह कि चीन के पक्ष में लड़ रहे कारलुक तुर्क लड़ाई के बीच में ही पाला बदलकर अरबों की तरफ से लड़ने लगे और चीनी बुरी तरह लड़ाई हार गए. दूसरी बात यह कि मध्य एशिया में फैले तुर्कों के इस्लाम ग्रहण करने की शुरुआत यहीं से हो गई. लड़ाई के ऐन बीच में कारलुक तुर्कों के इस हृदय परिवर्तन की वजह क्या थी, फिलहाल मौजूद ब्यौरों से यह स्पष्ट नहीं है. ऐसा उन्होंने चीनियों की जातिगत श्रेष्ठता ग्रंथि और मुसलमान अरबों के सहज समता भाव से प्रभावित होकर ही किया होगा, यह मानने की कोई ठोस वजह नहीं है. लेकिन इसके बाद तुर्कों के तेज इस्लामीकरण को देखते हुए अरब इतिहासकार इसकी यही व्याख्या करते हैं.
पश्चिमी इतिहासकारों की राय हाल तक यह रही है कि चीनियों के मध्य एशिया से पीछे हटने और अपने सीमित दायरे में संतुष्ट रहने की शुरुआत भी इसी बिंदु से हो गई. लेकिन तथ्य इस बात को खारिज करते हैं. इसके चार साल बाद, सन 755 में अब्बासी खिलाफत ने तांगवंशी दरबार में एक बड़ी भेंट भेजी. अरबों ने पश्चिमी चीन में उठी एक बड़ी बगावत को कुचलने में चीन की केंद्रीय सत्ता को मदद पहुंचाई और अब्बासी खिलाफत ने सन 775 के आसपास चीनियों से मिलकर तालास युद्ध के अपने दोनों सहयोगियों- तुर्कों और तिब्बतियों को दंडित किया.
लेकिन तालास युद्ध में अपनी दुर्दशा के बाद चीन की तांगवंशी सत्ता पश्चिम में बड़ी सैन्य गतिविधियों से कतराने लगी और अपनी सारी ताकत उसने आंतरिक विद्रोहों से निपटने में लगा दी. इसका नतीजा यह हुआ कि पिछले पांच सौ वर्षों में गांधार से लेकर खोतान और कूचा तक जो छोटी-छोटी बौद्ध सत्ताएं चीन के संरक्षण में रेशम मार्ग और बौद्ध धर्म को मिलाकर एक विशाल बौद्धवृत्त का निर्माण कर रही थीं, अगले ढाई सौ वर्षों में तुर्कों के इस्लामीकरण के क्रम में उनका सांस्कृतिक प्रतिरोध और साथ में भारत के बौद्ध ढांचे का भरोसेमंद सपोर्ट सिस्टम भी ध्वस्त हो गया.
यहाँ प्रतिवाद के तौर पर एक बात कही जा सकती है कि उत्तरी भारत में पाल वंश (750-1161 ई.) की शक्तिशाली बौद्ध सत्ता का उदय भी तालास युद्ध के बाद ही हुआ. यानी बौद्ध धर्म पर इसका विध्वंसक प्रभाव एकतरफा नहीं माना जा सकता. यह बात सही है, लेकिन इससे शुरुआती प्रस्थापना गलत नहीं साबित होती.
चीनियों के मध्य एशिया से हटने का सबसे बड़ा फायदा कुछ समय के लिए तिब्बती साम्राज्य को मिला, जिसने अपना विस्तार पश्चिम में लद्दाख-गिलगिट से आगे बढ़कर किर्गीजिस्तान तक कर लिया. पालवंश को उसका खुला समर्थन प्राप्त था, हालांकि भारत में उसे सीधा लाभ वह सिर्फ असम में पहुंचा सकता था. दोनों के आपसी सहयोग से वज्रयान और बौद्ध तंत्र को काफी ताकत मिली. लेकिन बौद्ध संस्थाओं का कमजोर पड़ना फिर भी जारी रहा और सन 850 ई. के आते-आते जब तिब्बती साम्राज्य ही नष्ट हो गया तो पालवंश अपने में ही गुमसुम होता चला गया.
बौद्धवृत्त
एक मुश्किल लेकिन सुरक्षित जल-थल मार्ग कनिष्क (127-150 ई.) के समय से ही एशिया के एक बहुत बड़े दायरे में बौद्ध धर्म की निरंतरता सुनिश्चित करता था. भारत से बौद्ध भिक्षुओं के चीन पहुंचने का रास्ता गांधार होते हुए कूचा वाला उत्तरी या खोतान वाला दक्षिणी रेशम मार्ग पकड़ने का ही हुआ करता था. ईसा की पहली सदी में कश्यप मातंग और चौथी सदी में बोधिधर्म इसी रास्ते चीन पहुंचे थे. सातवीं सदी में ह्वेनसांग का आना-जाना भी ऐसे ही रहा.
लेकिन चौथी-पांचवीं सदी में फाह्यान भारत आए स्थल मार्ग से, पर लौटे जलमार्ग से. चीन के पूर्वी हिस्सों से, या कोरिया-जापान से आने वाले बौद्ध तीर्थयात्री आने में समुद्री राह पकड़ते थे और जहाज से मलक्का होते ताम्रलिप्ति बंदरगाह से बमुश्किल महीने भर का पैदल रास्ता पार करके मगध पहुंच जाते थे. इस मार्ग के अंतिम चर्चित तीर्थयात्री कोरियाई भिक्षु हाएचो (704-787 ई.) थे, जिनका चीनी नाम ‘हुई चाओ’ और संस्कृत में प्रज्ञाविक्रम है.
चीन में उन्होंने भारतीय बौद्ध साधक शुभंकरसिंह से, फिर भिक्षु वज्रबोधि से धर्म की शिक्षा ली और मात्र 19 साल की उम्र में बुद्ध-देश की भाषा-संस्कृति से सीधा परिचय पाने के लिए सन 723 ई. में समुद्री मार्ग से भारत की यात्रा पर निकल पड़े. यहाँ वज्रासन (बोधगया) का दर्शन करके वे बनारस, कुशीनगर और लुंबिनी गए, फिर कश्मीर और वहाँ से गांधार (अफगानिस्तान) होते काराशहर (शिनच्यांग) के रास्ते 729 ई. में चीन की राजधानी चांगान (श्यान) लौटे.
चीनी भाषा में लिखा गया उनका ग्रंथ ‘भारत के पांच राज्यों की तीर्थयात्रा का संस्मरण’ 1909 में तुनह्वांग गुफा श्रृंखला की ही एक गुफा में सुरक्षित मिला, हालांकि यह जगह तुनह्वांग से 25 मील दूर है. उनका ग्रंथ अभी फ्रांस में है और सिक्कों तथा शिलालेखों से लगातार मिलान के बाद इसके अनुवाद को लेकर लगभग सौ साल चले विवाद अभी 2010 में जाकर शांत हुए हैं. इस ग्रंथ की विशिष्टता सन 726 ई. के अफगानिस्तान में उडीशाही या तुर्कशाही को लेकर मौजूद ब्यौरे हैं. हाएचो बताते हैं-
‘गांधार यहाँ की शीतकालीन और कपिसा ग्रीष्मकालीन राजधानी है. यहाँ के राजा-रानी तूकू (तुर्क) हैं और त्रिरत्नों का बहुत सम्मान करते हैं. उनकी तथा यहाँ के लोगों की आस्था हीनयान में है.’
हुई चाओ के इस वर्णन से पहले धारणा यह बनी हुई थी कि छठीं सदी में हुए हूणों के हमले में गांधार और पुरुषपुर जैसे बौद्ध केंद्र तहस-नहस हो गए थे, फिर सन 705 ई. में मध्य एशिया में अरबी इस्लाम के दखल और 711 ई. में सिंध और पंजाब पर उसके कब्जे के बाद बौद्ध धर्म यहाँ आखिरी सांसें गिनने लगा था. लेकिन हुई चाओ के मुताबिक, सन 726 में बुधिज्म को यहाँ तुर्कशाही की ढाल मिल गई थी. सिक्के बताते हैं कि अगले नब्बे साल वहाँ यही व्यवस्था चलती रही. इसके पूरब-उत्तर में स्थित खोतान राज्य में शकों का मजबूत बौद्ध शासन दसवीं सदी के अंत तक कायम रहा. लेकिन ये दोनों राज्य (सिद्धांत रूप में ललितादित्य का कश्मीर भी) उस समय तांगवंशी चीन के संरक्षण में थे और तालास युद्ध के बाद उसके रक्षात्मक होते ही बड़े हमलों के सामने ये कमजोर दिखने लगे थे.
खलज और खिलजी
सिक्कों का शास्त्र बताता है कि उत्तर भारत में हर्ष का दौर बीतने के साथ ही अफगानिस्तान में पहले तुर्कशाही और फिर हिंदूशाही का दौर देखा गया, जिसका अंत वहाँ गजनवी शासन के उभार के क्रम में हुआ. तुर्कशाही के सिक्के सन 660 ई. से शुरू करके सन 822 ई. तक की ढलाई वाले मिलते हैं, जबकि हिंदूशाही की छाप वाले सिक्कों का समय यहाँ से शुरू होकर सन 950 ई. के कुछ बाद तक का है. तुर्कशाही के शासकों के नाम तिगिन शाह, बढ़ा तिगिन, शाही तिगिन, खिंगल और लगतूर्मान जैसे हैं, जबकि हिंदूशाही के शासकों में कल्लर, कमलू, भीम, जयपाल, आनंदपाल, तरलोचनपाल जैसे नाम आते हैं.
तुर्कशाही और हिंदूशाही का जिक्र अलबरूनी ने किया है. दोनों के सिक्के अंग्रेजी राज में खोजे गए. लेकिन तुर्कशाही शासकों के बौद्ध होने की पुष्टि हाएचो के ग्रंथ से ही हो पाई. काबुल और गांधार में उनका बौद्ध शासन समाप्त होने और तुर्कशाही के हिंदूशाही बनने का किस्सा जाना-पहचाना सा है. 822 ई. में मंत्री ने राजा की हत्या कर दी और खुद राजा बन बैठा. यह मौर्यशासित पाटलिपुत्र के शुंगशासन में जाने या सिंध में अरब हमले से पहले जाट राजा सहिरस की सत्ता चच के हाथ में जाने जैसा है. तुर्कशाही के बौद्ध होने को ध्यान में रखें तो हूबहू वैसा ही.
बहरहाल, अभी दो बातें तय हैं. तुर्कशाही के शासक बौद्ध थे और तुर्क शब्द तो उनके नाम के साथ ही जुड़ा हुआ था. उडीशाही (या ओडीशाही) नाम उड्डियान क्षेत्र (दक्षिण-पश्चिम अफगानिस्तान) से इनकी पहचान जुड़ी होने का कारण मिला हुआ था. अभी भारतीय राज्य ओडिशा या उड़ीसा का मौजूदा नाम भी किसी ‘उड्डियान’ योगी या साधक से उसका रिश्ता ही बताता है, लेकिन यह विषयांतर होगा.
‘तुर्क’ पर लौटें तो तुर्कों में तुर्कशाही शासकों की पहचान खलज तुर्क की थी. सन 815 ई. में इनकी काबुल शाखा इस्लाम कबूल करने और सन 822 ई. में सभी तुर्कशाही शाखाओं के सत्ता खो देने के बाद खलज कुल से जुड़े सभी लोगों की पहचान ‘खलजी’ या ‘खिलजी’ की ही रह गई.
ये खिलजी जब तक मध्य एशिया से अरबों के गुलाम बनकर या स्वतंत्र रूप में आए तुर्क सरदारों के पीछे चलते रहे, कोई समस्या नहीं थी. लेकिन जैसे ही उनकी सत्ता की दावेदारी बढ़ी, श्रेष्ठता बोध से ग्रस्त तुर्कों ने उन्हें तुर्क मानने से ही मना कर दिया. वे बाकी तुर्कों से कहीं ज्यादा पहले अफगानिस्तान पहुंच गए थे. उनका कबीला शायद शकों और हूणों के साथ इधर आ गया था और उनकी खिलजी भाषा भी तुर्की और फारसी जुबानों के घालमेल से बनी थी.
भारत पर दो खिलजियों का बहुत तीखा असर लगातार दो सदी-संधियों पर देखा गया. 1197 ई. से 1206 ई. के बीच मगध और बंगाल के बौद्ध केंद्रों पर बख्तियार खिलजी के हमलों ने न केवल बौद्ध धर्म को भारत से समूल नष्ट कर दिया, बल्कि तुर्कों की मुख्यधारा से अलग हटकर बंगाल पर मात्र चार साल चले उसके शासन ने आगे के लिए पूर्वी और पश्चिमी भारत के बीच हमेशा बनी रह जाने वाली एक फांक भी पैदा कर दी. इसके एक सदी बाद दिल्ली सल्तनत के तीसरे प्रतापी शासक के रूप में अलाउद्दीन खिलजी ने 1296 ई. से 1316 ई. के बीच न केवल पूरे दक्षिण एशिया को एक सत्तासूत्र में बांध दिया, बल्कि उसकी पहलकदमियों से समाज में कैसी हलचलें पैदा हुईं, इसका थोड़ा अंदाजा उस दौर के महाकवि अमीर खुसरो और फिर मलिक मोहम्मद जायसी के काव्य से मिलता है.
बख्तियार ने बौद्धों को क्यों मारा
एक बड़ा सवाल बख्तियार खिलजी के बौद्धों के प्रति चरम विध्वंसात्मक रवैये का रह जाता है. क्या अपने विनाशकर्म में उसने बौद्धों और गैर-बौद्धों के बीच भेदभाव बरता? यह मानने के लिए एक कारण तो जाहिर है कि हिंदू इस हमले के बाद भी बचे रह गए जबकि तेरहवीं सदी बीतते न बीतते भारत में बौद्ध शायद कोई चोरी-छिपे ही बचा रह गया हो. ज्यादातर तुर्क, खासकर खिलजी बौद्ध धर्म के बारे में कुछ न कुछ जानते थे, इसमें कोई संदेह नहीं.
बौद्ध धर्म के अनुयायियों से तुर्कों की गहरी घृणा काराखानी तुर्क शायर महमूद अल-काशगरी के एक हजार साल से भी ज्यादा पुराने इस शेर में जाहिर होती है, जो सन 1006 में खोतान पर काराखानी तुर्कों के कब्जे के बाद लिखा गया था-
‘कालगिनलायू अक्तिमीज
कांद्लार ऊजा चिक्तिमीज
फुरखान आविन यिक्तिमीज
बुरखान ऊजा सिचतिमीज.’
(हम बाढ़ की तरह उनपर उतरे
उनके शहरों में घुस गए
उनकी मूरतें और मंदिर तोड़ डाले
बुद्ध के सिर पर मल-त्याग कर दिया).
यह बर्बर, असभ्य भाषा काराखानी सत्ता के राजकवि के इतिहास संचित काव्य की है!
और काराखानी तुर्क कौन थे? यह तुर्कों की पहली संगठित सत्ता थी, जिसका दायरा सोवियत संघ में शामिल रहे पांचों मध्य एशियाई गणराज्यों कजाखस्तान, उज्बेकिस्तान, किर्गीजिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और ताजिकिस्तान के अलावा चीन के शिनच्यांग प्रांत और थोड़ा इस तरफ वाले रूस में भी फैला हुआ था. काराखान कहलाने वाले इसके शासक या तो बौद्ध या आकाशपूजक थे. ‘काराखान’ का शाब्दिक अर्थ ‘काला खान’ या ‘मरजीवड़ा खान’ जैसा कुछ रहा है. इस वंश के साथ कुछ बालि-सुग्रीव जैसी घटना हो गई. बड़े भाई की मृत्यु के बाद छोटे भाई ने उसकी पत्नी से शादी कर ली और सत्ता भी संभाल ली. लेकिन पुराने शासक के बेटे के मन में गांठ बैठ गई थी.
वह पहले चुपके से मुसलमान हुआ, राजा ने डांटा तो मुकर गया, लेकिन सन 934 ई. में उसको मारकर सत्ता संभाल ली. इसके साथ ही मध्य एशिया के सारे शक्ति समीकरण बदलने लगे. तुर्कों की मानसिकता तब घुमंतू कबीलों जैसी ही थी और उनमें राजा-प्रजा के बीच ज्यादा फासला नहीं हुआ करता था. शहजादा अपनी रियासत के सैनिकों के बीच लोकप्रिय था. वह शाह बना तो उसके पीछे सारे काराखानी तुर्क मुसलमान हो गए. खोतान से उनकी लड़ाई पहले से चली आ रही थी लेकिन वे खोतान को मिलने वाले चीनी संरक्षण से खौफ खाते थे. सन 1006 में एक संगठित धर्म वाले जोश के साथ उन्होंने खोतान रियासत पर हमला किया तो चीनी नहीं आए और खेल खत्म हो गया.
काराखानियों के खिलाफ चीनियों का हमला हुआ सवा सौ साल बाद सन 1134 में. उस समय चीन में अपना राज खोकर भागा हुआ काराखितान वंश का एक राजा येलू दाशी मध्य एशिया में घुसा और अगले सात साल में उसने खोज-खोज कर काराखानी तुर्कों की छोटी-छोटी जागीरें तक नष्ट कर दीं. समझौते के लिए गिड़गिड़ाते सरदारों को मिलने का वक्त तक नहीं दिया. (यहाँ ‘कारा’ शब्द दोनों जगह आने से यह अंदाजा मिलता है कि मध्य एशिया वालों को या इस तरफ आ जाने वाले अपने लोगों को भी चीनी अपने रंग के मुकाबले काला समझते थे!)
इस समय तक ‘तुर्क’ और ‘मुसलमान’ लगभग समानार्थी हो चुके थे और बौद्ध धर्म को मानने वाले काराखितान या काराखिताई वंश के हाथों मिली इस पराजय की हनक उनमें काफी समय तक रही. (राहुल सांकृत्यायन एक जगह बताते हैं कि सर्दियों में ताजे-ताजे बिकने वाले नानखटाई बिस्कुटों को यह नाम इसी खिताई वंश से हासिल हुआ है!)
ध्यान रहे, काराखितान का सात साल लंबा यह हमला भारत पर मोहम्मद गोरी के हमले के ठीक पहले नहीं हुआ था. न ही उसके तिरस्कृत सरदार बख्तियार खिलजी का कोई खास भावनात्मक रिश्ता काराखानी तुर्कों से खोजा जा सका है, जिसकी बिना पर मगध और बंगाल में बौद्धों के संहार और उनकी संस्थाओं के विध्वंस का कोई संबंध इससे जोड़ा जा सके. बस इतना कि बारहवीं सदी के भारत में बौद्ध धर्म कई वजहों से लुप्तप्राय हो चला था, जिसमें कुछ भूमिका तुर्कों के इस्लाम में जाने के साथ रेशम मार्ग के नाकारा हो जाने की भी थी. यह भी कि तुर्क सरदार बौद्धों और गैर-बौद्धों में फर्क कर सकते थे और उनमें शायद कुछेक में बौद्धों के प्रति अलग-सी खुन्नस भी रही हो.
चंद्रभूषण (जन्म: 18 मई 1964) शुरुआती पढ़ाई आजमगढ़ में, ऊंची पढ़ाई इलाहाबाद विश्वविद्यालय में. विशेष रुचि- सभ्यता-संस्कृति और विज्ञान-पर्यावरण. सहज आकर्षण- खेल और गणित. 12 साल पूर्णकालिक कार्यकर्ता रहकर प्रोफेशनल पत्रकारिता. अंतिम ठिकाना नवभारत टाइम्स. ‘तुम्हारा नाम क्या है तिब्बत’ (यात्रा-राजनय-इतिहास) और ‘पच्छूं का घर’ (संस्मरणात्मक उपन्यास) से पहले दो कविता संग्रह ‘इतनी रात गए’ और ‘आता रहूँगा तुम्हारे पास’ प्रकाशित. इक्कीसवीं सदी में विज्ञान का ढांचा निर्धारित करने वाली खोजों पर केंद्रित किताब ‘नई सदी में विज्ञान : भविष्य की खिड़कियां’ प्रेस में. पर्यावरण चिंताओं को संबोधित किताब ‘कैसे जाएगा धरती का बुखार’ प्रकाशनाधीन. भारत से बौद्ध धर्म की विदाई से जुड़ी ऐतिहासिक जटिलताओं को लेकर एक मोटी किताब पर चल रहा काम अभी-अभी पूरा हुआ है. |
बहुत मत्त्वपूर्ण और ज़रूरी लेख । बधाई !
भारतीय इतिहास के एक बेहद महत्वपूर्ण बिन्दु पर यह आलेख गंभीरता से विचार करता है और ज्ञात तथ्यों की सीमाओं को भी चिह्नित करता है।
जिस समय भारत में तुर्क, अरब और बहुत हद तक यवन भी मुस्लिम का पर्याय मान लिया जा रहा है यह आलेख भ्रम दूर करता है।
भारत में तुर्कों के मुस्लिम होने से पूर्व की कोई स्मृति न होना इस प्रकार पर्याय का कारण माना जा सकता है परंतु क्या यह भी हो सकता है कि भारत के लिए तुर्क स्मृति अरब- चीनी स्मृति की तरह हमेशा लुटेरों की रही हो, जिसे उनके मुस्लिम होने के बाद में गैर-तुर्क मुस्लिम के साथ भी चस्पा कर दिया गया हो। जिसे एक विशेष विचारधारा – मुस्लिम चरित्र कहकर संबोधित करती है।
साथ ही यह भारतीय स्मृति से अरबों के मुस्लिम होने से पूर्व की छवियां कहाँ गायब हो गईं – क्या मात्र दक्षिण भारत तक सीमित रह गईं?
गहन शोध से निःसृत बहुत महत्वपूर्ण आलेख।
Hindi bhasha men pahli baar itna achha lekh Turkon ke baar men dekhne ko mila, saadhuvad!
अच्छा सूचनापरक लेख है🍀 चंद्रभूषण जी से पूछना है कि कहीं पढ़ा था कि एक शोध के अनुसार नालंदा का विध्वंस बख़्तियार खलजी के आक्रमण से ज़्यादा ब्राह्मणों के हमले में हुआ था 🍀 इस लेख में भी इसका ज़िक्र है कि हिंदू उस हमले में बच गए थे 🍀 तुर्क 10वीं शताब्दी से पहले ही बौद्ध कबीले से इस्लाम अपना चुके थे 🍀 तो बख़्तियार खलजी की बौद्घों से नफ़रत की इतनी तीव्रता समझ नहीं आती🍀 अंकुर जी कुछ प्रकाश डालें तो कुछ समझ में आए शायद🍀
इतिहास का जुगराफिया से कितना गहरा संबंध है फिर एक बार इस लेख से याद आया। उज़्बेकिस्तान में अभी भी बौद्ध धर्म के अवशेष मिलते हैं, और रेशम मार्ग पर संस्कृत भी बोली जाती थी यह भी हैरानी की बात लगती है। लेकिन व्यापार भाषा, खाद्यान्न, व्यंजन और संस्कारों के भी प्रवास आप्रवास का मार्ग होता है इसका एहसास आंखें खोल देता है। पुराने देवों की जगह नए देव लेते हैं। सिलसिला चलता रहता है। इस लेख को तुर्कों के बारे में एक टीज़र ही समझ रही हूं। आपकी किताब दिलचस्प होगी।
बौद्ध धर्म की जगह मध्य एशिया में इस्लाम ने ली, यह क्या सिर्फ तलवार के ज़ोर पर हुआ या कोई समता का नया संदेश भी वह लेकर आई थी जानना दिलचस्प होगा। आखिर समता तो बौद्ध धर्म का भी एक आधार था।
अच्छा, विचारोत्तेजक लेख है।
बेहतरीन लेख।
इतिहास के कई गुम्फित विषयों की परत खोलने में यह सहायक है।
धन्यवाद
बहुत बधाई! चन्द्रभूषण जी का शोध और लेखन बहुमूल्य है, उनकी पुस्तक की प्रतीक्षा है।
गंभीर और दिलचस्प आलेख।
एक अन्य पाठक की तरह मेरे मन में भी यह सवाल कौंधा कि अहिंसा पर जोर देने वाले बौद्धमत को छोड़कर तुर्क एक युयुत्सु धर्ममत की ओर क्यों चले गये। तुर्क यदि बौद्धमत में सतत रहते तो विश्व इतिहास को हिंसा की बजाय सहिष्णुता और अहिंसा के मूल्य रूपायित कर रहे होते और तब इतिहास इतना रक्त रंजित न होता।