उदयन वाजपेयी से मनोज मोहन की बातचीत |
1)
हिन्दी चिन्तन की जो वर्तमान दिशा है उसमें साहित्य के बहाने संस्कृति की चिन्ता होती है. कलाएँ भी यदा-कदा उपस्थित हो रहती हैं. आपको इधर पढ़ते हुए लगता है कि आपके चिन्तन में साहित्य, कला और संस्कृति के बीच एक वैचारिक आवाजाही निरन्तर जारी है. वह एक-दूसरे से पृथक नहीं है?
संस्कृति में साहित्य की स्थिति लगभग केन्द्रीय हुआ करती थी. कलाओं और दर्शन की भी. पर संस्कृति की निर्मिति इनके अलावा भी दूसरे अवयवों से होती थी और यह बात हमारे समय में विशेष तौर पर सही है. वे सांस्कृतिक और मानवीय मूल्य जो समाज को बाँधे रखते हैं, साहित्य और कलाओं के अन्तस में ही उत्पन्न हुआ करते हैं. आपको यह जानकर शायद खुशी हो कि भारत की एकता का आधार यहाँ की लोककलाएँ हैं. अगर आप केरल जाकर वहाँ की लोककलाओं का अनुभव करें, तो आप पायेंगे कि वे कलाएँ आपको अजनबी नहीं लग रही हैं. उन्हें देखकर आपको गहरा अपनापन ही महसूस होगा. यह इसलिए है क्योंकि हमारे देश में जिस तरह भाषा की लकीरें हैं (जो पूरे देश को बाँधे हुए हैं) वैसी ही लोककलाएँ की भी हैं.
आज की हमारी संस्कृति जितनी साहित्य और कलाओं से निर्धारित होती है, उससे कहीं अधिक वह फैशन, बाज़ारू सिनेमा, अख़बार, खेल-कूद आदि से निर्धारित होने लगी है. अगर आप ध्यान दें तो फैशन, बाज़ारू सिनेमा, अख़बार, खेल-कूद आदि इस समय बाज़ार के ही अंग हैं. अब हमारे अधिकांश बड़े खिलाड़ी और लोकप्रिय खेल-कूद, खेल की भावना और आवेग से कहीं अधिक बाज़ार के मूल्यों का वहन करने लगे हैं. यही बात बाज़ारू सिनेमा के साथ भी सच है. सबसे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि अब हमारे अधिकांश अख़बार भी बाज़ार और उसे शक्तिसम्पन्न करने वाली राजनैतिक शक्तियों के उपनिवेश हो गये हैं. फैशन उद्योग का भी ऐसा प्रभाव, जैसा अब है, पहले कभी नहीं था.
इस स्थिति में केवल साहित्य और कलाएँ ही हैं जिन पर मानवीय मूल्यों को जीवन्त बनाये रखने का दायित्व आ जाता है. आज हम इस व्यापक सन्दर्भ को दिमाग में रखे बग़ैर साहित्य पर विचार कर ही नहीं सकते. दुनिया के ऐसे तमाम लेखक आपको मिल जायेंगे जो अपना यह दायित्व पूरी निष्ठा से निभा रहे हैं. उनकी ही तरह मुझे भी यह महसूस होता है कि आज लेखक का दायित्व केवल अपनी सर्जनात्मक कृतियाँ रच कर पूरा नहीं हो जाता. हालाँकि यहाँ यह कहना आवश्यक है कि हर लेखक का बुनियादी दायित्व सर्जनात्मक कृतियाँ की रचना ही होता है और अगर वह इतना भी कर पा रहा है, समाज को उसका कृतज्ञ रहना चाहिए. लेकिन अगर वह यह समझता है कि उसे इसके अलावा संस्कृति के आलोचक की भूमिका भी निभानी चाहिए, जैसी कि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने या निर्मल वर्मा ने निभायी है, तो उसके इस क़दम की भी सराहना की जा सकती है. खासकर तब जब वह यह आलोचना उसी गहरायी से करने का प्रयास करे जिस गहरायी से उसने अपनी कृतियों की रचना की थी. ऐसे लेखकों में यह एहसास रहता है कि बिना समृद्ध सांस्कृतिक परिवेश के कोई भी किताब उन सूक्ष्मतम भावों को पाठकों के मन में जागृत नहीं कर पायेगी जिसके लिए उसे लिखा गया था. बिना समृद्ध संस्कृति के भी किसी कविता के अर्थ निकल ही आते हैं पर उन अर्थों की अनुगूँजें नहीं निकल पातीं. तब वे अर्थ एकांगी ही बने रहते हैं.
२)
क्या चित्रकार स्वामीनाथन के कला-चिन्तन को गाँधी की चिन्तन परम्परा में रख कर देखा जा सकता है?
मैं स्वामीनाथन की कलाचर्या को गाँधी के चिन्तन से इस रूप में जोड़ कर देखता हूँ. जिस तरह गाँधी ने सन् 1909 में ‘हिन्द स्वराज’ लिखकर पहली बार यूरोपीय समाज का निर्मम विश्लेषण किया था, उसी तरह स्वामीनाथन ने भी यूरोपीय कला आन्दोलनों से बिना दहशत खाये, अपनी कलाकृतियों को रचा था. यह बात कुछ खोलकर रखने की है. आप जानते ही होंगे कि 19वीं शताब्दी के अन्त तक यूरोप ने यह अधिकार अपना मान रखा था कि दुनिया की किसी भी संस्कृति का विवेचन कर उस पर निर्णय केवल वह ले सकता है. यही नहीं उसके बौद्धिकों ने यह भी प्रचारित कर रखा था कि यूरोप मानवीय प्रगति के उस पायदान पर जा पहुँचा है, जहाँ विश्व की बाक़ी संस्कृतियों को पहुँचना है.
दूसरे शब्दों में यूरोप के बौद्धिकों ने यूरोप को अन्य संस्कृतियों का आदर्श बनाकर प्रस्तुत किया था. महात्मा गाँधी ने अपने गहरे विवेक से यह समझ लिया था कि यह दावा यूरोप का अन्य देशों को गुलाम बनाये रखने का ही एक ढंग है. शायद इसलिए भी उन्होंने लन्दन से दक्षिण अफ्रीका जाते समय पानी के जहाज की डेक पर बैठकर यूरोपीय सभ्यता को विवेचन का विषय बनाकर एशिया में पहली बार सभ्यतागत विवेचना की दिशा को उलट दिया. ‘हिन्द स्वराज’ में एक औपनिवेशिक सत्ता के अधीन रहते एक नागरिक ने उपनिवेशवादी समाज का परीक्षण कर यह बताया कि यह समाज ऐसा बिल्कुल भी नहीं है जिसे दुनिया की अन्य संस्कृतियाँ आदर्श के रूप में ले सकें. यहाँ मैं यह फिर कह दूँ कि ऐसा करने वाले गाँधी जी पहले एशियाई बौद्धिक थे.
‘हिन्द स्वराज’ में उन्होंने उन तमाम यूरोपीय संस्थाओं की तीखी आलोचना प्रस्तुत की जिनके आधार पर यूरोप अन्य संस्कृतियों के बीच इतराता फिरता था. इन संस्थाओं में से संसदीय लोकतन्त्र भी एक था. गाँधी जी आधुनिक राष्ट्र-राज्य और उससे जुड़े संसदीय लोकतन्त्र के दोष देख भी सके थे और उसे ‘हिन्द स्वराज’ और अन्यत्र दिखा भी सके थे. जगदीश स्वामीनाथन ने भी इसी तरह यूरोप के तमाम कला आन्दोलनों को प्रश्नांकित किया और उनसे प्रभावित हुए बगैर चित्रकला रचना के ऐसे मार्ग खोजे जिनमें भारतीय सभ्यता के कलात्मक उपक्रमों की अनुगूँजें थीं. मसलन, उन्होंने अपने चित्रों में स्पेस का संयोजन या तो भारतीय लघुचित्रों से संवाद के रास्ते किया या आदिवासी चित्रों से प्रतिकृत होते हुए उन स्पेसों को उद्घाटित किया. ऐसा करने वाले वे पहले आधुनिक भारतीय चित्रकार थे.
स्वामीनाथन जब भोपाल के भारत भवन की कला दीर्घाओं की परिकल्पना कर रहे थे, उन्होंने उनका आधार समकालीनता की एक बिल्कुल नयी परिभाषा को बनाया था. वे समझते थे कि आदिवासी और लोक कलाएँ उतनी ही समकालीन हैं जितनी शहरों में अधिकांशतः पश्चिम के प्रभाव में रची गयी कलाएँ. इनमें से आदिवासी या लोक कलाओं को कमतर कला मानने का कोई वास्तविक सैद्धान्तिक या व्यवहारिक आधार नहीं है. विकसित टेक्नोलॉजी ज़रूरी नहीं कि विकसित संस्कृति को सम्भव कर सके. आदिवासी या लोक समाज टेक्नोलॉजी की दृष्टि से भले ही कमज़ोर नज़र आयें पर उनकी कला विश्व की किसी भी दूसरी कलाकृति से कमतर नहीं है.
स्वामीनाथन का यह विचार बिल्कुल नया था, क्योंकि उनके पहले तक हम भारतीय अपनी लोक तथा आदिवासी कलाओं को अपेक्षाकृत कमतर बल्कि ग़ैर कला मानते रहे थे. स्वामीनाथन का यह क़दम भी उन्हें गाँधी की तरफ़ ले जाता है. आज जिन आदिवासी चित्रकारों को दुनियाभर में जाना जाता है, उन्हें नागर कला के समकक्ष रखने का लगभग पूरा श्रेय जगदीश स्वामीनाथन को ही है. यह स्वामी की ही समझ थी जिसने जनगढ़ सिंह श्याम जैसे संगीत की परम्परा से आये कलाकार को चित्रकला में कुछ बिल्कुल नया और अनोखा करने की प्रेरणा दी थी. साथ ही स्वामीनाथन ने ही पहली बार विपन्न पहाड़ी कोरबा लोगों को काग़ज़-कलम देकर उन्हें चित्र बनाने को प्रेरित किया था जिसके फलस्वरूप उन कोरबा लोगों ने कुछ ऐसा बनाया था जिसे आज दुनिया की तमाम कला दीर्घाओं में ‘जादुई लिपि’ के नाम से जाना जाता है. पहाड़ी कोरबा-चित्रों को देखकर स्वामी ने उन्हें वैश्विक पटल पर रख उनकी जो विवेचना की, उसमें उन्होंने उन चित्रों को ‘जादुई लिपि’ का नाम दिया था.
हमारे अधिकांश महान आधुनिक चित्रकार यूरोप के कला आन्दोलनों से बहुत गहरे तक न सिर्फ़ प्रभावित हुए थे बल्कि उन्होंने अनजाने ही उनकी छाया में अपनी चित्रकला को आकार दिया था. मैं यह बिल्कुल नहीं कह रहा हूँ कि इससे उनकी चित्रकला कमतर हो जाती है. मैं सिर्फ़ यह रेखांकित कर रहा हूँ कि अपनी सृजनशीलता के लिए जो मार्ग जगदीश स्वामीनाथन ने लिया वह वही मार्ग था जो व्यापक सभ्यता के सन्दर्भ में गाँधी जी ने लिया था. उस सभा में मैंने यह भी कहा था कि स्वामी ने अपनी चित्रकला को यूरोपीय एकरैखिक परिप्रेक्ष्य से भी अलग रखा था. एकरैखिक परिप्रेक्ष्य या लीनियर पर्सपेक्टिव 15वीं शताब्दी से लेकर 19वीं शताब्दी तक यूरोपीय चित्रकला में स्पेस को संयोजित करने का मुख्य ढंग रहा है.
भारत में चित्रकला शिक्षा पर अंग्रेज़ों के प्रभाव के कारण यह एकरैखिक परिप्रेक्ष्य भारतीय चित्रकारों पर भी हावी हुआ था. केरल के राजा रवि वर्मा के चित्र इसका सटीक उदाहरण हैं. इन चित्रों में राजा रवि वर्मा ने भारतीय उपमहाद्वीप के देवी-देवताओं और महाकाव्यात्मक चरित्रों को लीनियर पर्सपेक्टिव में बाँधकर चित्रित किया था. इस शैली का दोष यह है कि इसमें चित्रित सभी आकार- वे मानवीय हों या न हों- बँधकर रह जाते हैं. जबकि भारतीय लघुचित्र कला शैली कुछ ऐसी है जिसमें लीनियर पर्सपेक्टिव का अभाव होने के कारण सारे चित्रित आकार चित्र के अवकाश में बँधकर नहीं रह जाते. स्वामीनाथन की चित्रकला ने लीनियर पर्सपेक्टिव को प्रतिरोध दिया और इस तरह उस चित्रकला को पारम्परिक भारतीय चित्रशैली से जुड़ने में आसानी भी हुई और यह चित्रकला भारतीय सभ्यता और सचाई से संवाद करने की बेहतर स्थिति में आ गयी.
३)
जगदीश स्वामीनाथन के समकालीन चित्रकारों में रज़ा-हुसेन-रामकुमार में, रज़ा साहब अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में भारत लौटे, उसी समय के आसपास हुसेन का देश में रहना मुश्किल हुआ. रामकुमार अपने शुरुआती दौर में कुछ पोट्रेट ज़रूर बनाये, बाद में उन्होंने अमूर्त चित्र ही बनाते रहे. भारत के इन महान चित्रकारों पर आप थोड़ी रोशनी डालें.
सैय्यद हैदर रज़ा शायद भारत के सबसे विलक्षण ‘कलरिस्ट’ चित्रकार हैं. उनके चित्रों में रंगों का संवाद, जिसे पारम्परिक चित्रशास्त्र में वर्णिकाभंग कहा जाता है, अनोखा है. आप उनके चित्रों को देखते हुए, उनके कैनवस के रंगों के आपसी संवाद को मानो सुन सकते हों. रज़ा ऐसे चित्रकारों में हैं, जिनके चित्रों को आपको अपने लिए अपने ढंग से समझना होता है, तभी जाकर उनसे आप जुड़ पाते हैं. रामकुमार की बात उनसे अलग है.
यहाँ रामकुमार की पूरी चित्र-यात्रा में जाने का अवकाश नहीं है, पर इतना कहना शायद पर्याप्त हो कि उनके चित्रों में यथार्थ प्रतिबिम्बित होने के स्थान पर अपवर्तित होता है. यानि वहाँ यथार्थ का रि-प्रजेन्टेशन न होकर रिफ्रेक्शन है. शुरू के वर्षों में वे इतालवी/फ्राँसीसी चित्रकार मोदिग्लियानी से प्रभावित होकर अपेक्षाकृत लम्बोतरे आकार बनाया करते थे. लेकिन बाद के वर्षों में, जहाँ उन्होंने बनारस, दिल्ली के मुगल स्थापत्य और कुछ विदेशी भू-दृश्य बनाये, उन्हें अपना विशिष्ट मुहावरा हासिल हो गया. भारत के सभी चित्रकारों में सबसे अधिक ऊर्जावान और विविध दिशाओं में सक्रिय चित्रकार मक़बूल फ़िदा हुसैन थे. उन्होंने अपने चित्रों की मोटी लकीरें भारतीय शिल्प विधा से ली थी और वे यूरोप के पिकासो से किसी हद तक प्रभावित थे. पर यह प्रभाव पिकासो के चित्रों के आकारों का उतना नहीं था जितना पिकासो की सृजन ऊर्जा का था. पिकासो और हुसेन दोनों ही बेइन्तहाँ ऊर्जस्वित चित्रकार रहे हैं.
४)
पिछले 10 सालों में जहाँ भी ख़निज है उस क्षेत्र को कॉरपोरेट समूह के लिए क़ब्ज़ा कर लिया गया है.
‘आपका यह कहना सच है कि पिछले अनेक वर्षों में देश के तमाम खनिज भण्डारों पर केवल कुछ कार्पोरेट समूहों का कब्ज़ा हो गया है. दुःख की बात यह है कि इस कब्ज़ा दिलाने के काम में हमारे देश के सरकारों की भूमिका भी कम नहीं रही. यह भी सोचने की ज़रूरत है कि जहाँ-जहाँ भी बड़े खनिज भण्डार मिले हैं, उन-उन इलाकों में आदिवासी समुदाय का वास रहा है. हमारे भू-गर्भ शास्त्रियों और नृतत्वशास्त्रियों को यह पता करने का प्रयास करना चाहिए कि इस संयोग का क्या कारण है कि अधिकांश खनिज भण्डारों पर या उनके आस-पास आदिवासी समुदायों का बसेरा होता है.
मैं समझता हूँ यह एक बेहद महत्त्व का विषय है. चूँकि खनिज भण्डारों के इलाकों में ही आदिवासियों का बसेरा हुआ करता है, जब-जब भी खनिज भण्डारों पर कब्ज़ा किया जाता है, उन इलाकों में बसे आदिवासियों को वहाँ से विस्थापित कर दिया जाता है. यह सब देखते हुए, मुझे अक्सर यह महसूस होता है कि क्या हमारा देश केवल यहाँ के अमीरों और मध्यवर्गीयों के लिए ही आज़ाद हुआ था? क्या हमारी स्वतन्त्रता में आदिवासियों की स्वतन्त्रता शामिल नहीं है? हमारे सामने यह बड़ा प्रश्न है कि हम अपने देश की स्वतन्त्रता में किस तरह आदिवासी समाजों की स्वतन्त्रता को शामिल करें. मैं इसके नक्सली जवाब को नहीं मानता. मैं नहीं समझता कि हिंसा से यह प्रश्न सुलझ सकता है. हिंसा के प्रत्युत्तर में बड़ी हिंसा होकर रहती है, इनसे यह प्रश्न और अधिक उलझ जाता है.
५)
लोग लगातार लिख रहे हैं लेकिन आज के लिखे में पहले जैसी गहराई नहीं है. कहानियाँ और कविताएँ अख़बारों में दर्ज सूचनाओं के विस्तार जैसा है. साहित्य में भी फैक्ट चेकिंग मशीन की बात की जाए तो आज आठवें-नवें दशक की बहुत सी कविताएँ और कहानियाँ बेमतलब की साबित हो जाती हैं… सारा का सारा बाज़ार का हिस्सा हो गया है…
यह कहना पूरी तरह ठीक नहीं है कि आज के सारे लेखन में गहरायी का अभाव है. हम आखि़र यह मानकर क्यों चलते हैं कि आज केवल कुछ युवा लेखक ही लिख रहे हैं. हर समय में और हर देश में एकसाथ लेखकों की तमाम पीढ़ियाँ सक्रिय रहती हैं. इन सारे लोगों के समवेत प्रयास से ही ‘साहित्य का समकाल’ आकार लेता है. आखि़र आज विनोद कुमार शुक्ल, अशोक वाजपेयी, वागीश शुक्ल, मदन सोनी जैसे लेखक भी तो लिख ही रहे हैं. कुछ युवा लेखक भी ऐसा कुछ लिख रहे हैं जिसे गहरा ही कहा जायेगा. लेकिन अगर आपकी बात को अधिकांश लेखकों के सन्दर्भ में देखा जाये तो मुझे दुःख है कि मुझे उससे कुछ हद तक सहमत होना पड़ेगा. इसका दोष किसी पर मढ़ने की जगह हमें उसके कारणों को समझने का प्रयास करना चाहिए, आखि़र जो लिखने वाले लोग हिन्दी में है, वे सब हमारे अपने ही हैं.
अगर हिन्दी लेखन की ऐसी स्थिति है तो इसका एक बड़ा कारण हमारे शिक्षा संस्थानों में साहित्य शिक्षण की दुर्दशा भी है. यह उन्हीं का प्रताप है कि हिन्दी के अधिकांश पाठक हिन्दी की कविताओं और कहानियों को उस गहरायी से पढ़ने में सक्षम नहीं हो पाते, जिस गहरायी तक पहुँचने की आकांक्षा में ही किसी भी साहित्यिक कृति को पढ़ने की शुरुआत की जाती है. अधिकांशतः एक कविता या कहानी को एक वस्तु की तरह ग्रहण किया जाता है, मानो उसके सहारे पाठक अपने अन्तस में उतरकर एक व्यापक संसार के दर्शन करने में अपने को अक्षम पा रहा हो, मानो उसे यह अहसास ही न हो कि हर कृति समुद्र के बर्फीले पहाड़ की चोटी भर होती है. लेकिन जब उसे ध्यान से पढ़ा जाता है तब पाठक को उसकी ऐसी गहराइयों का बोध होता है जो उसे ऊपर से नज़र नहीं आ रही थी, यही कुछ किसी भी चित्रकृति या सिनेमा या नृत्य प्रस्तुति के साथ भी सही है.
हम ऐसी पठन-संस्कृति की रचना करने में विफल रहे हैं जहाँ साहित्यिक कृतियों के सहारे अपने को जानने-पहचानने का प्रयत्न किया जा सके. फिर पता नहीं क्यों पाठकों में धीरज की कमी होती जा रही है. बिना धीरज के आप किसी भी कविता, कहानी या उपन्यास का आनन्द कैसे लेंगे? किसी भी साहित्यिक कृति में पढ़ना अपने आप सुदीर्घ अनुष्ठान हुआ करता है. हर कृति में उसे पढ़ने के नियम-कायदे अन्तर्भूत होते है., उन्हें माने बगैर उसे पढ़ना मुश्किल है. सूज़न सोंटाग ने कभी कहा था कि हमें यानी पाठकों को साहित्यिक कृतियों को उनकी व्याख्या के लिए नहीं पढ़ना चाहिए, इससे पहले हमें उन्हें पढ़ने का कामशास्त्र मालूम होना चाहिए. किसी भी कृति को पढ़ना एकसाथ ऐन्द्रिक और आध्यात्मिक कर्म होता है. इसे सम्पन्न किये बगैर साहित्यिक कृति अपने रहस्य अपने पाठक के समक्ष नहीं खोलती.
६)
क्या बाज़ार और कॉरपोरेट के इस चौतरफ़ा दबाव में आदिवासियों की संस्कृति, कलाएँ और जीवन-शैली अक्षुण्ण रह पाएंगी?
इसका एक ही उत्तर हो सकता है : नहीं. पर जिस तरह कोई मनुष्य (खासकर तब जब उसमें जीते जी किन्हीं गहन मानव मूल्यों का वहन किया हो) मरकर भी नहीं मरता, हमारे व्यवहार में, विचार में और हमारी मूल्य सम्पदा में, कल्पना में वह लम्बे समय तक बना रहता है, उसी तरह आदिवासियों की संस्कृति, कलाएँ और जीवन-शैलियाँ टूटती आधुनिकता के छोर पर बिखरते समाजों में एक ऐसे आदर्श के रूप में जीवित बनी रहेंगी, जिसे मनुष्य पाकर भी नहीं पा सका.
आप लक्ष्य करेंगे कि जिस स्तर का सहकार और आपसी प्रतिस्पर्धा का अभाव आदिवासी समाजों को सृजनशील और सुखी बनाता रहा है, वह आज के मनुष्य के लिए केवल सपना रह गया है.
७)
आजकल वि-औपनिवेशीकरण की बड़ी चर्चा है. सरकार से लेकर शिक्षण- संस्थाओं में इसी का बोलबाला है. लेकिन ऐसा लगता है कि इसमें पश्चिमी प्रभावों से मुक्ति पाने के बजाय एक तरह की अतीतगामिता की धारा ज़्यादा प्रबल है.
आज यह सोचना कि हम औपनिवेशीकरण के पहले के भारतीय समाज को पूरी तरह पुनर्जीवित कर सकते हैं, ग़लत है. इस तरह सोचने में कई दोष हैं. पहला तो यह कि हम ऐसा सोचते समय यह मानकर चलते हैं मानो औपनिवेशीकरण से पहले भारत में कोई एक परम्परा थी, और यह भी कि यह एक परम्परा बिना अन्य कला या ज्ञान की परम्पराओं से अन्तःक्रिया किये बगै़र वैसी बन गयी थी जैसी वह थी.
दुनिया में ऐसी एक भी परम्परा नहीं जो निरन्तर अन्य परम्पराओं से संवाद-रत हुए बगै़र अपना कैसा भी स्वरूप पा सकी हो. लेकिन तब भी हर परम्परा में कुछ ऐसे विचार या भाव निश्चय ही ऐसे हुआ करते हैं जिनसे उस परम्परा की गन्ध बाहर आती है. वि-उपनिवेशीकरण का आधार केवल इस सभ्यता के अन्तस में प्रवाहित हमारा सामूहिक विवेक हो सकता है. न तो अतीत का अन्धानुकरण और न ही उसका अन्ध-तिरस्कार.
इसमें शक नहीं भारत के अतीत में ऐसे कई तत्त्व रहे हैं जो आज भी आत्मसजग नागरिकता उत्पन्न करने में सहायक हो सकते हैं. उन्हें किस प्रकार आज वि-उपनिवेशीकरण की व्यापक परियोजना में इस्तेमाल किया जाएगा, यह बड़ा प्रश्न है. मसलन भक्ति काल के बाद हिन्दुओं और मुसलमानों ने भारत में शान्त सहकार बनाए रखने के लिए जो आधार तैयार किये थे, उन्हें अंग्रेज़ों ने खण्डित किया, आज उन आधारों को दोबारा समझकर इस्तेमाल करने की ज़रूरत है. औपनिवेशिक सत्ता ने हमारी अपनी उत्कृष्ट कला-दृष्टियों को लांछित कर उन्हें दरकिनार कर रखा है, हमें उन्हें भी गहरायी से समझकर सक्रिय करना होगा. वि-उपनिवेशीकरण परियोजना सिर्फ़ राजसत्ता को विकेन्द्रीकृत करके ही पूरी नहीं होगी, उसे हमारे जीवन के हर पहलू में सक्रिय करने की आवश्यकता है.
८)
समास के पच्चीसवें अंक में आपने ही कहा कि हमारे साहित्य और कलाओं में ऐसी समीक्षाओं की कमी है जो पाठकों/दर्शकों/श्रोताओं को साहित्यिक या कला-कृति के लावण्य (आकर्षण) को उद्घाटित कर सकें, इस कमी की वजह क्या है?
समास के जिस सम्पादकीय का हवाला दे रहे हैं, उसी सम्पादकीय में मैंने इस कमी के कारणों को भी कुछ हद तक टटोलने का प्रयास किया था.
लेकिन मैं समझता हूँ कि हिन्दी के तमाम आत्मसजग लेखकों को इन प्रश्नों पर विचार करना चाहिए. आखिर ऐसा क्यों है कि हिन्दी साहित्य की श्रेष्ठ कृतियाँ कम-से-कम पिछले पचास-साठ वर्षों में व्यापक हिन्दी समाज में संचारित नहीं हो सकी हैं? इसके लिए हर बार साहित्यिक कृतियों को दोष देना उचित नहीं है.
इसका कारण हमें साहित्यिक कृतियों और व्यापक हिन्दी समाज दोनों में खोजना होगा. एक प्रयास ‘समास-25’ के सम्पादकीय में मैंने किया है, अन्य लेखकों को भी इसकी कोशिश करनी चाहिए.
९)
एक लेखक/कलाकार और उसका पड़ोस आपके द्वारा किये गये बातचीत में उभर कर आता है, उससे साहित्य की संवेदनशीलता थोड़ा विस्तार पाती हैं. आप अब तक की गयी बातचीत के उन क्षणों के बारे में बतायें, जब अचम्भित रह गये हों…
समास पत्रिका के हर अंक में, जैसा कि आपको पता ही है, हम किसी लेखक या रंग-निदेशक या फ़िल्मकार या दार्शनिक आदि से लम्बी बातचीत करते हैं. इस बातचीत की शुरुआत ही इन महानुभावों के कृतित्त्व की विलक्षणता के स्वीकार से होती है. हम ऐसे किसी लेखक या कलाकार या चिन्तक से लम्बी बातचीत नहीं करते जिसके कृतित्त्व ने हमें निरन्तर अचम्भे में न डाला हो. हमने उन्हीं महानुभावों से ही अपनी बातें प्रकाशित की है जिनमें हमें इस सभ्यता की विशेष समझ या सृजन-कर्म का वैशिष्ट्य दिखायी देता है.
मसलन जब मुझे आशीष नन्दी ने राष्ट्र (नेशन) की धारणा के उत्स की बात बतायी थी, मैं चमत्कृत रह गया था. उसी तरह जब तिब्बती दार्शनिक और साधक रिनपोछे जी ने विस्तार से मरने की प्रक्रिया का बौद्ध दृष्टिकोण से वर्णन किया था, मैं उसे सुनकर ठगा-सा रह गया था. इसी तरह जब मैंने उर्दू उपन्यासकार और मेरे परम मित्र ख़ालिद जावेद से उनके बचपन के बारे में सवाल पूछे तो उनके जवाबों में जिस तरह उनका बचपन सामने आया उसे सुनकर मैं यह सोचने लगा कि हम अपने करीबी लोगों के कई ऐसे दुःखों के बारे में अनभिज्ञ बने रहते हैं जो उन्हें निरन्तर सालते हैं.
१०)
आप एक महत्त्वपूर्ण पत्रिका के सम्पादक हैं और पिछले कुछ सालों से ‘समास’ सबसे गम्भीर पत्रिका के रूप में स्थापित है, साल में कम-से-कम दो अंक तो पाठकों को मिले…
समास पत्रिका सिर्फ़ अपने सम्पादक के बलबूते पर वैसी गम्भीर और पठनीय नहीं हो पाती, जैसी वह अब है. इसके पीछे इतिहासकार धरमपाल, रंगकर्मी कावालम नारायण पणिक्कर, दार्शनिक नवज्योति सिंह, कवि कमलेश, समाजशास्त्री सुरेश शर्मा और आशीष नन्दी, कला-इतिहासकार बी.एन. गोस्वामी, उपन्यासकार शमसुर्रहमान फ़ारूक़ी, भालचन्द निमाड़े, ख़ालिद जावेद आदि कई लेखकों चिन्तकों का हाथ है जिन्होंने हमारे साथ घण्टों बैठकर अपने जीवन और चिन्तन को हमारे पाठकों के सामने खोल कर रखा है.
कई युवा और वरिष्ठ भारतीय भाषाओं के कवि जैसे शंख घोष, कमलेश, कुमार शहानी, अन्ना आख्मातोवा, अरुण कोल्हटकर, प्रवासिनी महाकुद, ल्योनीद गुबानोव, शिरीष ढोबले, ध्रुव शुक्ल, निलिम कुमार, मरीने पेत्रोशियन, स्टीवन ग्रीको, आस्तीक वाजपेयी, अम्बर पाण्डेय आदि ने भी समास को समृद्ध किया है. आनन्द हर्षुल, होशंग गुल्शीरी, वीनेश अन्ताणी, विनोद कुमार शुक्ल, रोबर्टो कलासो जैसे कई उपन्यासकार, कहानीकार, निबन्धकार और नाटककारों ने भी इस पत्रिका को निरन्तर सहयोग देकर इसे पठनीय और गहन बनाया है. हमारे साथ भारतीय और कुछ विदेशी भाषाओं से अनुवाद करने वाले बेहतरीन अनुवादक भी काम करते हैं और अपनी सृजनशीलता से समास में कई नये आयाम जोड़ते हैं. यह पत्रिका लेखकों, कलाकारों और चिन्तकों के सहकार और सम्पादकीय विभाग की कृतज्ञता से प्रकाशित हो पाती हैं.
११)
आज के नयी प्रतिभाओं को आपकी सलाह क्या है…
मैं किसी को क्या सलाह दूँगा. खासकर तब जब मैं खुद सालों से लिखने की कला को समझने और उस हद तक साधने में लगा हुआ हूँ, जिस हद तक उसे साधा जा सकता हो. कई लेखकों की तरह मैं भी हर नयी कृति लिखते समय नये वाक्य विन्यासों, उपमाओं, अलंकारों, भाषा के प्रवाह और ठहराव आदि अनेक भाषिक आयामों पर एक तरह का सर्जनात्मक शोध करता रहता हूँ. अगर सरल शब्दों में कहें तो मैं भी अनेक लेखकों की तरह अलग-अलग तरह से वाक्य बनाने के रास्ते खोजता रहता हूँ. यह खोज कम-से-कम मेरे लिए इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी रास्ते मैं भाषा में अपनी मुक्ति का मार्ग अगर पा न भी सकूँ तो उसे दूर से ही मानो कोहरे में ढँका हुआ देख तो सकता ही हूँ.
मैंने यह अन्यत्र कहा ही है कि मैं कितना ही सोच-विचार या शोध क्यों न करता रहूँ, मैं तब तक एक वाक्य भी नहीं लिखता जब तक वह अपने आप मेरे मन में न आया हो. यहाँ ‘अपने आप आना’ मुख्य बात है. हर वाक्य को मेरे अन्तस के मांस-मज्जा और रक्त से लिथड़कर बाहर आना होता है, जब तक ऐसा नहीं होता मैं भिखारी की तरह कोरे पन्ने का कटोरा उठाये किसी गली में उसका इन्तज़ार करता रहता हूँ. यह भी ऐसा कुछ नहीं है जो दुनिया के अनेक लेखक न करते हों. आपको विलक्षण फ्राँसीसी लेखक फर्नाण्डो सेलीन का लिखने का ढंग जाकर विचित्र लगेगा. वे अपने लिखे तमाम वाक्यों को कपड़े सुखाने वाले तारों पर काग़ज़ पर लिखकर टाँग देते थे और वे उन्हें आते जाते हुए सम्पादित करते रहते थे.
उदयन वाजपेयी प्रकाशित पुस्तकें : ‘कुछ वाक्य’, ‘पागल गणितज्ञ की कविताएँ’, ‘केवल कुछ वाक्य’ (कविता-संग्रह); ‘सुदेशना’, ‘दूर देश की गन्ध’, ‘सातवाँ बटन’, ‘घुड़सवार’ (कहानी-संग्रह); ‘चरखे पर बढ़त’, ‘जनगढ़ क़लम’, ‘पतझर के पाँव की मेंहदी’ (निबन्ध और यात्रा वृत्तान्त); ‘अभेद आकाश’ ( फ़िल्मकार मणि कौल); ‘मति, स्मृति और प्रज्ञा’ (इतिहासकार धर्मपाल), ‘उपन्यास का सफ़रनामा’ (शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी), ‘विचरण(दार्शनिक नवज्योत सिंह), ‘कवि का मार्ग’ (कवि कमलेश), ‘भव्यता का रंग-कर्म’ (रंग-निर्देशक रतन थियाम), ‘प्रवास और प्रवास’ (उपन्यासकार कृष्ण बलदेव वैद); का.ना. पणिक्कर पर ‘थियेटर ऑफ़ रस’ और रतन थियाम पर ‘थियेटर ऑफ ग्रेंजर’; वी आँविजि़ब्ल (फ्रांसीसी में कविताओं के अनुवाद की पुस्तक); ‘मटमैली स्मृति में प्रशान्त समुद्र’ (जापानी कवि शुन्तारो तानीकावा के हिन्दी में अनुवाद); कविताओं, कहानियों और निबन्धों के अनुवाद तमिल, बांग्ला, ओड़िया, मलयालम, मराठी, अंग्रेज़ी, फ्राँसीसी, स्वीडिश, पोलिश, इतालवी, बुल्गारियन आदि भाषाओं में ‘समास’ का सम्पादन. कुमार शहानी की फ़िल्म ‘चार अध्याय’ और ‘विरह भर्यो घर-आँगन कोने में’ का लेखन. कावालम नारायण पणिक्कर की रंगमंडली ‘सोपानम्’ के लिए ‘उत्तररामचरितम्’, ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ की हिन्दी में पुनर्रचना, पणिक्कर के साथ कालिदास के तीनों नाटकों के आधार पर ‘संगमणियम्’ नाटक का लेखन. 2000 में लेविनी (स्वीट्ज़रलैंड) में और 2002 से पेरिस (फ्रांस) में ‘राइटर इन रेसिडेंस’, 2011 में नान्त (फ्रांस) में अध्येता के रूप आमंत्रित. मई 2003 में फ्रांस के राष्ट्रीय पुस्तकालय में भारतीय कवि की हैसियत से व्याख्यान वाराणसी, भुवनेश्वर, पटना, मुम्बई, दिल्ली, पेरिस, मॉस्को, जिनिवा, काठमांडू आदि स्थानों पर कला, साहित्य, सिनेमा, लोकतंत्र आदि विषयों पर व्याख्यान. ‘रज़ा फ़ाउंडेशन’, ‘कृष्ण बलदेव वैद पुरस्कार’ और ‘स्पंदन कृति सम्मान’ से सम्मानित. गाँधी चिकित्सा महाविद्यालय, भोपाल में अध्यापन |
मनोज मोहन वरिष्ठ पत्रकार व लेखक. वर्तमान में सीएसडीएस की पत्रिका प्रतिमान: समय समाज संस्कृति के सहायक संपादक. |
उदयन वाजपेयी को सुनना बतियाना हमेशा अपने को पहले से समृद्ध करना होता है । फिर समास तो दस्तावेज की शक्ल में हर अंक के साथ एक सुखद प्रसंग भी होता है ।।
समास पच्चीसवीं पायदान पर है रज़ान्यास और उदयन जी की देखरेख में एक विशिष्ट पत्रिका बन चुका है, ताज्जुब है कि इतना वृहद अंक होने के बाद भी एक गलती नहीं दिखने में आती. यह उसकी विशिष्टता भी है और अद्वितीयता भी….शुभकामनाओंसहित….
समालोचन के इस अंक ने हर वाक्य में मेरी रुचि को बढ़ाया और चौंकाया भी । हिन्द स्वराज का संदर्भ आज तक प्रासंगिक है । भारत भवन भोपाल के विकास में जगदीश स्वामीनाथन की महती भूमिका है । उन्होंने आदिवासियों में छिपी योग्यताओं का पल्लवन किया । एक जगह पर कुछ ऐसा लिखा भी है कि हमारे मुल्क की आज़ादी ने कहीं न कहीं ग़ुलाम बनाने का प्रयास किया ।
इस अंक में आदिवासियों की विस्तृत भूमि पर भारतीय खनिजों के शोषण के हल के लिये नक्सलियों की हिंसा को अस्वीकार किया गया है । भारत के साहित्यकारों ने संस्कृति, कला, नृत्वकला के संरक्षण और संवर्धन का कार्य किया है । कुछ लेखकों के नाम लिखें हैं । मुझे भाल चंद निमाड़े और कोल्टकर साहब का नाम याद है । सैयद हैदर रज़ा का उल्लेख न हो ऐसा नामुमकिन है । ऐसे ही मोहम्मद फ़िदा हुसैन सर का । निर्मल वर्मा और इनके अग्रज राम कुमार वर्मा का नाम भी है ।
राजा रवि वर्मा के चित्रों के लिये कलात्मकता की अभिव्यक्ति न कर सकना समझ नहीं आया । मैंने एक दफ़ा उदयन वाजपेयी का कलकत्ता में नृत्य पर उनके अंग्रेज़ी भाषा में दिये व्याख्यान का देखा था । मनमोहक था ।
I had wrongly written full form of M in M F Hussain name. It is Maqbool Fida Hussain.
उदयन वाजपेयी से मनोज मोहन की यह बातचीत बहुत ही सार्थक और मानीखेज है।