कविता के अनुवाद की समस्या
श्रीकांत वर्मा
कविता का अनुवाद करना कविता की पुनर्रचना करना है. दरअसल कविता का अनुवाद जैसी कोई चीज़ होती ही नहीं. अनुवाद करता हुआ कवि-अनुवादक न केवल मूल कवि के, बल्कि खुद अपने अनुभवों को भी दुहराता है. इसका यह अर्थ नहीं कि अनुवादक अपने संसार की पुनर्रचना करता है.
अनुवाद की प्रक्रिया में कवि का संसार अनुवादक के संसार में खो जाता है. अनुवादक एक नये संसार की रचना करता है, जिसमें दोनों संसारों की गंध और पहचान होती है. वह इस अभिनव संसार की रचना के लिए अभिशप्त है, क्योंकि उसे कवि के अनुभवों को एक ऐसी भाषा में उतारना होता है, जिसमें उन्हीं अनुभवों और अर्थों के भिन्न सन्दर्भ होते हैं.
उदाहरण के लिए पॉस्तेरनाक की कविता में प्रयुक्त ‘स्प्रिंग’ शब्द का हिन्दी अनुवाद होगा ‘वसन्त’. लेकिन ‘वसन्त’ कहते ही पॉस्तेरनाक का संसार भारतीय सन्दर्भों से जाकर जुड़ जाता है और एक नये ही संसार की रचना हो जाती है, जो पूरी तरह न तो अनुवादक का संसार है, न कवि का.
ठीक इसी तरह टी. एस. इलियट की कविता में प्रयुक्त ‘फॉग’ का हिन्दी अनुवाद होगा ‘कुहरा’. लेकिन हिन्दी पाठक को ‘कुहरा’ एक भिन्न लोक का बोध करायेगा, उसमें कुछ और ही प्रत्याशाएँ जगायेगा जो कि ‘फॉग’ में न थीं. रूसी वसन्त’ का अनुभव केवल रूसी भाषा में ही किया जा सकता है और लन्दन की किसी सड़क पर कुहरे के पीछे छिपे संसार को बंगाली, फारसी या चीनी के जरिये उद्घाटित नहीं किया जा सकता.
अनुवाद की दुनिया छल की दुनिया है. जितना बड़ा छल होगा उतना ही सफल अनुवाद होगा. उम्दा अनुवाद वही है जो मूल रचना की भ्रांति खड़ा करता है. इस तरह के अनुवाद में कविता नष्ट नहीं होती. अनुवाद की प्रक्रिया में मौलिकता अर्थात् कविता का जो अंश नष्ट होता है उसकी क्षतिपूर्ति अनुवादक अपनी उस कविता से कर देता है जिसे कि वह अनुवाद के बहाने रचता है. इस परिणति में कविता और भी विविध होकर उभरती है.
अनुवाद और सार्वभौमिक सौन्दर्य की वाहक निजी संवेदना
उम्दा अनुवाद और घटिया अनुवाद का अन्तर स्पष्ट है. उम्दा अनुवाद में दो संस्कृतियाँ एक-दूसरे में खो जाती हैं, जबकि घटिया अनुवाद में दो संस्कृतियाँ टकराकर चकनाचूर हो जाती हैं. घटिया अनुवाद एक भयानक दुर्घटना है. घटिया अनुवाद के जरिये किसी चीज़ की पुनर्रचना नहीं होती, संहार होता है. घटिया अनुवादक मूल रूप से घटिया कवि और घटिया आलोचक होता है. कविता की उसकी समझ किताबी होती है. उसकी ग्रहण शक्ति निश्चित होती है और उसके कानों को एक विशेष प्रकार की ध्वनि ही प्रिय होती है. वह सबसे पहले कविता का मतलब ढूँढने का प्रयत्न करता है. उसके बाद अपनी समझ के मुताबिक वह अपने परिचित मुहावरों में कविता के अर्थ की व्याख्या करता है. यह सब करता हुआ वह पुश्किन को बौने में, मायकोव्स्की को पिशाच में और शेक्सपियर को किराती में परिणत कर देता है.
अधिकार छायावादी कवियों ने, जो कि किसी न किसी रूप में अब भी सक्रिय हैं, अनुवाद की प्रक्रिया को इतना सपाट बना दिया है कि कविता का अनुवाद केवल एक बौद्धिक कसरत होकर रह गया, जबकि इसके विपरीत नयी कविता के कवि धर्मवीर भारती ने पश्चिमी, ख़ास कर लैटिन अमरीकी, कवियों की कविताओं की पुनर्रचना करते हुए भी उनकी निजी संवेदना और गौरव को नष्ट नहीं होने दिया. शायद इसका कारण यह है कि आधुनिक कवि अपनी भाषा और विदेशी संवेदना के फ़ासले को ज्यादा अच्छी तरह पहचानता है. केवल निजी संवेदना ही सार्वभौमिक सौन्दर्य बन सकती है, इस तथ्य को समझते हुए वह अनुवाद को काव्य-रचना की प्रक्रिया मानता है, बौद्धिक व्यायाम नहीं.
अनुवाद कला नहीं, प्रतिभा है
सबसे पहले यह समझ लेना चाहिए कि ‘अनुवाद की कला’ जैसी कोई चीज़ नहीं जैसे कि ‘कविता की कला’ जैसी कोई चीज़ नहीं हो सकती. जिस संसार में प्रत्येक शब्द ने अपना अर्थ खो दिया हो, ‘कला’ एक मुहावरा मात्र हो कर रह गयी है— सीने की कला, पिरोने की कला, यहाँ तक कि इम्तिहान पास करने की कला. अनुवाद कोई कौशल नहीं, जो कि प्रतिभाहीन, रचनाशून्य, किन्तु महत्वाकांक्षी व्यक्तियों को सिखाया जा सके. समस्या यह नहीं कि अनुवाद कैसे किया जाए? समस्या यह है कि अनुवादक कौन है? क्या वह एक कलमघिस्सू लेखक है जो कि रचना की समस्त यन्त्रणा से मुक्त है या वह कोई अभिशप्त कवि है, जो रचता है और खपता है.
सबसे भयानक अनुवाद पेशेवर अनुवादक का होता है. पेशेवर अनुवादक मनपसन्द रचनाओं के अनुवाद नहीं करता, क्योंकि न तो उसकी कोई पसन्द होती है और न उसकी परिस्थितियों में पसन्द की कोई गुंजाइश ही होती है. इस या उस कविता से उसे कोई फर्क नहीं पड़ता. पसन्द का सवाल तो उस कवि के सामने उठता है जो अनुवाद के लिए चुनी हुई कविता में अपनी तस्वीर देखता है.
किसी कवि की समूची संवेदना के साथ अपना तादात्म्य कर पाना लगभग असम्भव है. हर कवि का अनुभवलोक अपूर्व होता है. केवल एक नक़लची ही यह दावा कर सकता है कि उसने एक दूसरे कवि की, जिसने कि अपनी कविता के अपूर्व क्षणों को अकेले जिया था, समूची संवेदना को जिया है. यह केवल एक संयोग मात्र है कि कोई अनुवादक किसी अजनबी कवि की किसी ख़ास कविता में अपने अनुभव की अनुगूँज पाता है.
मार्थियल और जैक्सन मैथ्यूज द्वारा सम्पादित बादलेयर की कविताओं के द्विमाषा संस्करणों में ३० से अधिक अनुवादकों के अनुवाद सम्मिलित हैं. सम्पादक चाहते तो केवल एक ही अनुवादक के अनुवादों से भी ग्रन्थ तैयार कर सकते थे. मगर उन्होंने विभिन्न कवियों के विभिन्न उद्योगों को शामिल करना ज्यादा पसन्द किया. अपनी भूमिका में उन्होंने लिखा,
“कोई भी व्यक्ति किसी महान कवि के समस्त कविताओं का अनुवाद नहीं कर सकता. अगर अनुवादक मूल कवि से भी बढ़िया कवि है, तब भी उसका विश्व उक्त कवि का विश्व नहीं हो सकता. उसकी संवेदनाएँ अपनी सीमाओं के भीतर ही कारगर होंगी.”
कविता का चुनाव, अपनी संवेदना का चुनाव है. अनुवादक अपनी संवेदना की ज़मीन पर खड़ा होकर एक ऐसे अनुभव का नामकरण करता है, जिसे कवि पहले ही शब्द और नाम में अनुभव कर चुका होता है. अनुवाद को मूल कृति के साथ रखकर पाठ करना फ़िज़ूल है. कोई भी अनुवाद मूल कृति के साथ न्याय नहीं कर सकता. पर इसका यह अर्थ नहीं कि वह मूल कृति के साथ अन्याय करता है.
प्रत्येक अनुवाद कविता का नया संस्करण है. हर बार कविता अनुवाद की प्रक्रिया से गुज़रती है और हर बार उसमें कुछ रासायनिक परिवर्तन हो जाते हैं. इन परिवर्तनों का अर्थ मूल कृति में तोड़-फोड़ नहीं. केवल वही अनुवाद झूठा है, जो कविता के स्वभाव में परिवर्तन करता है. हाल में अमरीका में हिन्दी कविता का एक ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है जिसका संपादन एक हिन्दी लेखक ने किया है.
कविताओं के अनुवाद अमरीकी कवियों ने किये हैं. इस ग्रन्थ में अनेक कविताएँ हैं जो मूल रूप में बिल्कुल निर्जीव थीं, लेकिन अनुवादकों ने उनमें अद्भुत प्राण-प्रतिष्ठा कर दी. अब क्या किया जाए क्या इसके लिए अनुवादकों को धन्यवाद दिया जाए या उनकी निंदा की जाए ? इन छह कविता-प्रेमियों की विफलता उन सभी अनुवादकों की विफलता है जो स्वयं को मायावी लगनेवाले संसार के इर्दगिर्द स्वयं अपने संसार की पुनर्रचना करना चाहते हैं. उन्होंने इस मायावी संसार को नहीं जाना है. लेकिन इस अपरिचित संसार का आकर्षण इतना तीखा होता है कि जैसे ही उन्हें उसकी एक झलक मिलती है, वे उसे अपनी परिस्थितियों से जोड़ लेते हैं. कविता के पीछे छिपी हुई सम्पदा का संग्रह करने के लोभ में वे कविता को ही नष्ट कर देते हैं.
दिलचस्प बात यह है कि इस संग्रह में अधिकतर कवि छद्म पश्चिमी कवि लगते हैं, जिनके पास अधकचरी संवेदना है. सच्चाई यह है कि अनुवादकों को धोखा हुआ. उन्होंने इन भारतीय कवियों की कविताओं में वे ध्वनियाँ सुनीं जिन्हें सुनने के लिए वे न जाने कब से आतुर थे. जैसे ही उन्होंने ये ध्वनियाँ, जो कि उनके लिए तिलिस्म की आवाज़ की तरह थीं, सुनी, इन कविताओं को उन्होंने अपने देश की परिस्थितियों से जोड़कर ऐसी कविताओं में परिणत कर दिया जिनका कोई सरोकार मूल कृतियों से नहीं. उन्होंने इन कविताओं में मनोनुकूल अर्थ ढूँढ निकाला.
किसी महान कवि को अन्य भाषा में दुहराना संभव नहीं
संवेदना का अनुवाद नहीं किया जा सकता उसकी केवल खोज की जा सकती है. मगर यह खोज सच्ची होनी चाहिए. अपने सपनों को दूसरे की कविता पर, जो कि कुछ और ही प्रेरणाओं से पैदा हुई थी, लादना गलत है. संस्कृतियों का संघर्ष जैसे-जैसे तीव्र होता जाएगा, वैसे-वैसे विदेशी कविता का अपनी जवान में अनुवाद मुश्किल होता जायेगा. सेंट जॉन पर्स का अंग्रेजी में अनुवाद करना टी. एस. इलियट के लिए अपेक्षाकृत आसान था. सेंट जॉन पर्स को केवल इंग्लिश चैनल पार करना था. यद्यपि शेक्सपियर का अनुवाद असम्भव-सा है, मगर तब भी पॉस्तेरनाक द्वारा रूसी में उसका अनुवाद सराहनीय प्रयत्न था. शेक्सपियर के लिए केवल ‘वीसा’ जुटाना पड़ा. मगर किसी ऐसी भाषा में, जिसका ग्रीक अतीत न रहा हो, होमर से बातचीत नहीं की जा सकती. किसी भारतीय भाषा के जरिय होमर से परिचय तो प्राप्त किया जा सकता है, मगर होमर को अपनाया नहीं जा सकता. महान कवि केवल अपनी भाषा का कवि होता है. उसकी महानता की माप-जोख के लिए उसे मूल में पढ़ना होगा; किसी अन्य भाषा में उसे दोहराया नहीं जा सकता.
यह स्वीकार करते हुए भी कि अनुवाद के जरिये एक और ही कविता को जन्म देना है, अनुवादक को यह स्मरण रखना चाहिए कि उसे कविता के स्वभाव में परिवर्तन करने का कोई अधिकार नहीं- इस तरह का परिवर्तन या कविता को अपनी इच्छा के मुताबिक आंचलिक बनाने की कोशिश कविता को नष्ट करने की कोशिश है. कविता की पुनर्रचना करते हुए अनुवादक को कवि को संवेदना के दायरे में ही काम करना होता है, अन्यथा संसार के समस्त अच्छे कवि संसार के समस्त घटिया अनुवादकों के हाथों मारे जाने को अभिशप्त होंगे.
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साभार : धर्मयुग: १४ जनवरी, १९६८
श्रीकान्त वर्मा 1976 में म.प्र. से राज्यसभा के सदस्य रहे. 1985 में कांग्रेस पार्टी के प्रमुख महासचिव और प्रवक्ता. प्रकाशित प्रमुख कृतियाँ : ‘भटका मेघ’, ‘माया दर्पण’, ‘दिनारम्भ’, ‘जलसाघर’, ‘मगध’, ‘गरुड़ किसने देखा है’, ‘प्रतिनिधि कविताएँ’ (कविता-संग्रह); ‘झाड़’, ‘संवाद’ (कहानी-संग्रह); ‘दूसरी बार’ (उपन्यास); ‘जिरह’ (आलोचना); ‘अपोलो का रथ’ (यात्रावृत्त); ‘फ़ैसले का दिन’ (आन्द्रेई वोज्नेसेंस्की की कविताएँ) (अनुवाद); ‘बीसवीं शताब्दी के अँधेरे में’ (साक्षात्कार और वार्तालाप); ‘श्रीकान्त वर्मा रचनावली’. ‘तुलसी सम्मान’, ‘शिखर सम्मान’, ‘कुमार आशान’, ‘यूनाइटेड नेशंस इंडियन काउंसिल ऑफ़ यूथ अवार्ड’, ‘नंददुलारे वाजपेयी पुरस्कार’, ‘इंदिरा प्रियदर्शिनी सम्मान’, ‘साहित्य अकादेमी पुरस्कार’ आदि से सम्मानित. |
![]() वरिष्ठ पत्रकार व लेखक.वर्तमान में सीएसडीएस की पत्रिका ‘प्रतिमान: समय समाज संस्कृति के सहायक संपादक. सीएसडीएस की आर्काइव परियोजना में शामिल |
यह आपने इधर का सबसे अहम योगदान दिया है। यही आप की दृष्टि समालोचन को गहनता से डिगने नहीं देगी।
अनुवाद की छटा देखनी हो तो भीष्म साहनी ने लिओ तोल्स्तोय की एक लंबी कहानी इवान इल्यीच की मृत्यु का जो अनुवाद किया है वह जबरदस्त है।
लेकिन यह भी सही है कि जेम्स ज्वायस की रचनाओं का अनुवाद करना एक टेढ़ी खीर है। इसका कारण है कि ज्वायस आधुनिकतावादी धारा के शीर्षतम रचनाकार हैं। इतना गहराई में जाकर शब्दों का चयन करते हैं, रूपक और प्रतीकों का चयन करते हैं कि बस देखते बनता है।शिव किशोर तिवारी को नमन कि उन्होंने इसे भी संभव किया है।
बुनियादी बातें है जिनसे असहमति सम्भव नहीं है। ट्रांसक्रियेशन की अवधारणा यह है कि अनुवाद्य का ‘कोर मेसेज’ अनुवाद की भाषा की स्वाभाविक संस्कृति में व्यक्त हो जाय।
समस्या यह है कि आधुनिकतावाद के युग से आरंभ करके आज तक ‘कोर मेसेज’ के ‘कांसेप्ट’ पर ही संदेह की छाया पड़ गई है। यानी कोर मेसेज होता भी है यही संदिग्ध हो गया है। इसलिए मेरा विचार बना है कि अनुवादक अनुवाद्य का निर्वचन करता है। इसीलिए बड़े नामी अनुवादकों द्वारा सम्पन्न एक ही कविता के अनुवादों में भिन्नता मिलती है।
मूल के प्रति निष्ठा आवश्यक शर्त है। पुनर्रचना के नाम पर कुछ भी नहीं चलेगा। यह सबसे पुराना सिद्धांत है और अब भी बहुत हद तक सत्य है।
अनुवाद करते हुए मैं निष्ठा और निर्वचन के बीच संतुलन रखने का प्रयास करता हूं।
गद्य का अनुवाद अपेक्षाकृत सरल है, जबकि कविता का अनुवाद अत्यंत जटिल। कविता में अर्थ केवल शब्दों तक सीमित नहीं होता, बल्कि पंक्तियों के बीच, अथवा शब्दों के अवकाश में भी व्याप्त होता है। कविता का अनुवाद करते समय हमेशा यह भय रहता है कि कहीं वह अनुवाद के बजाय पुनर्रचना न बन जाए, जो अपने अर्थ की गहनता में मूल कविता से भिन्न हो। इस संदर्भ में यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण आलेख है जिसे ‘समालोचन’ ने खोजा और प्रस्तुत किया है। हाल के दिनों में ‘समालोचन’ ने ऐसी साहित्यिक धरोहरों को प्रकाश में लाने का कार्य किया है, जो न केवल विमर्श को नई दिशा प्रदान कर रही हैं, बल्कि चिंतन के नए आयाम भी खोल रही हैं।
अनुवाद व पुनर्रचना के बीच जो झिल्ली है वह ‘ सेमी परमीएबल ‘ होनी चाहिए। यह वनस्पतिशास्त्र का टर्म है। इसी तरह से ‘ ‘कैटेलैटिक ‘ भी एक अर्थपूर्ण शब्द होता है जो रसायनशास्त्र से आया है। अनुवाद की शुद्धता किसी भी कृतिकार की भावना अर्थवत्ता और उसके’ ओब्जैक्टिव कोरिलेटिव’ संदर्भों में निहित उस रूपांतरण से है जो आग में ताप पानी में तरलता नमी व शीतलता हवा में गंध व स्पर्श तथा प्रकाश में परिमार्जन विस्तार व आकाश की सुक्ष्मता व व्यापकता लिए होता है। अनुवाद निस्सन्देह पुनर्रचना नहीं है। यह शरीर और उसकी आत्मा के बीच संवाद का एक नैसर्गिक किन्तु जीवंत रूप है। शब्द में अर्थ की तरह गुंफित। यह द्विपक्षीय व बहुआयामीय होता है।
मानव स्वभाव की यह सहज आवश्यकता भी है। सारी प्रकृति किसी ना किसी रूप में अनुवाद की ही जादुई दुनिया या हलचल है। भाव आत्मा भापा शरीर। इसमें स्वाभाविक संवाद व संतुलन अभीष्ट है।
अनुवाद की प्रक्रिया में मौलिकता अर्थात् कविता का जो अंश नष्ट होता है उसकी क्षतिपूर्ति अनुवादक अपनी उस कविता से कर देता है जिसे कि वह अनुवाद के बहाने रचता है.” कविता के अनुवाद के संदर्भें में यह बेहद महत्वपूर्ण बात है। कविता का शब्दश: अनुवाद तो कोई भी कर सकता है लेकिन अनुवाद के बाद भी कोई कविता अपने मूलभाव और संरचना में कविता ही बनी रहे, ऐसा अनुवाद कोई कवि ही कर सकता है. हर कवि नहीं, बल्कि ऐसा कवि ही संभव कर सकता है जिसे मूल भाषा की संस्कृति का भी ज्ञान हो। श्रीकांत जी ने लाख टके की बात कही है कि “उम्दा अनुवाद में दो संस्कृतियाँ एक-दूसरे में खो जाती हैं, जबकि घटिया अनुवाद में दो संस्कृतियाँ टकराकर चकनाचूर हो जाती हैं.”
श्रीकांत जी का यह गद्य भी कितना दिलकश है। इसे उपलब्ध कराने के लिए धन्यवाद.
श्रीकांत जी की इस टिप्पणी में कई चमकदार निष्पत्तियां मिलती हैं। मसलन,
• कविता का अनुवाद करना कविता की पुनर्रचना करना है।
• अनुवाद की दुनिया छल की दुनिया है। जितना बड़ा छल होगा उतना ही सफल अनुवाद होगा। उम्दा अनुवाद वही होता है जो मूल रचना की भ्रांति खड़ा करता है।
• …केवल वही अनुवाद झूठा है जो कविता के स्वभाव में परिवर्तन करता है।
लेकिन, मुझे लगता है कि उनके इस सूत्रीकरण में खनक के बजाय चमक ज़्यादा है। इसमें कई गिरहें साफ़ नज़र आती हैं।
उदाहरण के लिए, अगर कविता का अनुवाद उसकी पुनर्रचना करना है तथा हर अनुवाद के बाद कविता में रासायनिक परिवर्तन होते हैं तो फिर यह कहने का कोई ख़ास औचित्य नहीं बचता कि ‘अनुवादक को… कविता के स्वभाव में परिवर्तन करने का कोई अधिकार नहीं है।’ दरअसल, यह एक असंभव-सी और अव्यावहारिक बात है।
इसलिए, मेरा मानना है कि इस टिप्पणी में बहुत-सी बारीकियों के साथ कुछ स्वीपिंग क़िस्म के वक्तव्य भी चले आएं हैं।
“कविता का अनुवाद करना कविता की पुनर्रचना करना है.”“दरअसल कविता का अनुवाद जैसीकोई चीज़ होती ही नहीं.”दोनों बातें परस्पर विरोधी लगी ।
“अनुवाद की दुनिया छल की दुनिया है.”यह अनुवाद की विधा को , उसकी उपयोगिता को नकारता है ।
“कविता का अनुवाद केवल एक बौद्धिक कसरत होकर रह गया” नवनीत के पूर्व संपादक नारायण दत्त ने अनुवाद को मानसिक व्यायाम कहा था और वास्तव में यह है भी ।
“अनुवाद कोई कौशल नहीं, जो कि प्रतिभाहीन, रचनाशून्य, किन्तु महत्वाकांक्षी व्यक्तियों को सिखाया जा सके.”पर नारायण दत्त ने यह भी कहा कि रुचि रखने वाले प्रतिभाशाली व्यक्ति ही इस कौशल का सफल प्रयोग कर सकता है ।
“अनुवाद के जरिये एक और ही कविता को जन्म देना है, “ ”अनुवादक को यह स्मरण रखना चाहिएकि उसे कविता के स्वभाव में परिवर्तन करने का कोई अधिकार नहीं-“ये दोनों बातें भी एक दूसरे को काटती है ।
वास्तव में अनुवाद एक कविता का दूसरी भाषा और संस्कृति में रूपांतरण है , मूल कविता के भाव , भाषा और और सौन्दर्य को यथा संभव बनाये रखते हुए । अनुवाद करते हुए इस कौशल में परिपक्वता आती है ।आज अनुवाद का क्षेत्र बहुत विस्तृत हो चुका है ।
श्रीकांत वर्मा की भाषा ज़बरदस्त है. गर्चे यह लेख पूर्व-पीठिका-सा है अनुवाद पर गहन विचार के लिए. बेन्यामिन का “The task of the translator” इस से बीस ठहरता है लेकिन शायद मूल में भी इतना सरस न हो.
हिन्दी आलोचना की सच्ची संस्कृति ऐसे ही लेखों में बसती है.
समालोचन को एक साप्ताहिक स्तंभ शुरू करना चाहिए, जहाँ हिन्दी की परंपरा में अब अल्प-स्मृत लेखों को पुनः आनलाइन छापना चाहिए. स्कैनिंग की तकनीक मददगार हो सकती है.