पत्रकार की खोजी यात्राएँ
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यात्राएं सिर्फ नदियों, पहाड़ों, झरनों, जंगलों, समुद्री तटों की ही नहीं होतीं. यात्राएं प्राकृतिक सौंदर्य को देखने तक भी सीमित नहीं हैं. यात्राएं धार्मिक स्थलों, मंदिरों, मस्जिदों, किलों और मकबरों को देखने तक ही महफ़ूज़ नहीं हैं. यात्राएं पक्षियों और वन्य जीवों को देखने का भी नाम नहीं है. यात्राएं सूर्योदय और सूर्यास्त को देखने तक भी सीमित नहीं हैं. यात्राएं बाहर से भीतर और भीतर से बाहर-अवचेतन से चेतन और चेतन से अवचेतन तक का रास्ता भी तय करती हैं. बकैल अज्ञेय, भ्रमण या देशाटन केवल दृश्य परिवर्तन या मनोरंजन न होकर सांस्कृतिक दृष्टि के विकास में भी योगदान देती है और यही उसकी सफलता है.
आमतौर पर जब हम यात्रा के लिए तैयार होते हैं तो यही कहते हैं कि यहां सबकुछ एकरस है, कुछ भी नया दिखाई नहीं देता. रोज उसी तरह सूरज उगता है, उसी तरह डूब जाता है, पक्षी भी वही हैं और रास्ते भी. आप दृश्य परिवर्तन चाहते हैं. इन सबको अलग रूप में देखना चाहते हैं. इसीलिए आप किसी यात्रा पर निकल पड़ते हैं. लेकिन कुछ यात्राएं ऐसी भी होती हैं, जो आपको मानसिक रूप से समृद्ध करती हैं, इतिहास और तथ्यों का एक ऐसा खाका आपके सामने पेश करती हैं, जिनके बारे में आपने कभी सोचा तक नहीं. ये यात्राएं दरअसल अपने समय, समाज और इतिहास से आपको रूबरू कराती हैं.
वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश की हाल ही में प्रकाशित पुस्तक ‘मेम का गांव, गोडसे की गली’ ऐसे ही यात्रा वृतांत (या संस्मरण) का संग्रह है. उर्मिलेश पिछले चार दशक से राजनीतिक पत्रकारिता में सक्रिय हैं. उनकी गंभीरता और प्रतिबद्धता पर कभी कोई सवाल नहीं उठा है. कश्मीर पर वह अनेक पुस्तकें लिख चुके हैं. क्रिस्टोनिया मेरी जान और गाजीपुर में क्रिस्टोफर कॉडवेल उनकी चर्चित पुस्तकें हैं. वरिष्ठ पत्रकार, कहानीकार, व्यंग्यकार विष्णु नागर उनके बारे में कहते हैं,
“उर्मिलेश उन थोड़े से पत्रकारों में हैं, जिन्होंने हिन्दी पत्रकारों का सम्मान इस कठिन और चुनौतीपूर्ण समय में बचाकर रखा है. वह पत्रकार होने के साथ-साथ निःसंदेह एक अच्छे गद्यकार-संस्मरणकार भी हैं.”
‘मेम का गांव, गोडसे की गली’ पढ़ते समय यही बात ज़ेहन में थी कि उर्मिलेश अपने पत्रकार और गद्यकार-संस्मरणकार के बीच किस तरह संतुलन बैठा पाते हैं. पुस्तक में दस अध्याय हैं. इनमें केरल, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड, आंध्र प्रदेश (अब तेलंगाना) और उत्तर प्रदेश जैसे राज्य शामिल हैं. पत्रकार होने के नाते उर्मिलेश की नज़र हमेशा न्यूज़ पर रहती है. यही वजह है कि वह सावरकर और गोडसे की गलियों में पहुंचे. पुणे के एक मशहूर इलाके शनिवार पेठ में, सावरकर भवन पहुंचे. बाहर की दीवार पर ही उन्हें विनायक दामोदर सावरकर और नाथूराम गोडसे के नाम दर्ज मिले. यहां उन्होंने सावरकर खानदान की बहू, नाथूराम गोडसे की भतीजी (गोपाल गोडसे की बेटी) हिमानी सावरकर से मुलाकात की. हिमानी से उन्हें जानकारी मिली कि उसके काका नाधूराम चार भाई थे. गोपाल गोडसे के अलावा दो और भाई थे-दत्तात्रेय गोडसे और गोविन्द गोडसे. हिमानी ने ही उन्हें बताया कि उनके परिवार की देशभक्ति पर कोई सवाल नहीं उठा सकता. एक अन्य सवाल के जवाब में हिमानी ने कहा, उस घटना (गांधी की हत्या) के समय मैं एक साल की थी. पर मैं आज उसे ‘क्राइम’ नहीं मानती. कका नथू राम जी ने पैसे लेकर यह सब नहीं किया. देश के लिए किया और देश से बड़ा कोई नहीं होता. उनका कृत्य सही था या गलत-यह इतिहास तय करेगा.
उर्मिलेश जी ने फिर सवाल किया-
‘लेकिन हमारे देश का न्याय विधान यह तय कर चुका है, वह एक जघन्य अपराध था. उसका देश और समाज के हित या सरोकारों से कोई रिश्ता नहीं था. वह सिर्फ एक ‘क्राइम’ था-बहुत बड़ा क्राइम. इसलिए नथूराम सहित दो को सजा-ए-मौत हुई. आपके पिता सहित शेष दो दोषियों को उम्र क़ैद. इतिहास में यह दर्ज हो चुका है. भारत क्या, पूरी दुनिया ने उसे एक षड्यंत्र और नृशंस अपराध के रूप में देखा. आप इसे कैसे नज़रंदाज़ कर सकती हैं ?’
हिमानी ने कहा, वह कोर्ट ने तय किया, इतिहास तय करेगा-क्या सही था, क्या ग़लत. शायद पचास साल और लगें. हिमानी सावरकर द्वारा दिया गया यह जवाब क्या सच होने जा रहा है? क्या इतिहास कुछ तय कर रहा है? यह अकारण नहीं है कि देश में पिछले कुछ सालों में विनायक दामोदर सावरकर और नथूराम गोडसे हाशिये से सतह पर आ गए हैं. दोनों को ही हिन्दुत्ववादी संगठन अपने नायकों की तरह पेश कर रहे हैं. नथूराम गोडसे को देशभक्त बताने वाले कुछ तत्वों को आज निर्वाचित होकर भारतीय संसद में आने का मौका मिल रहा है. सवारकर और गोडसे की इन तंग गलियों में घूमते हुए संभव है कि आप वैचारिक तंग गलियों से बाहर आ जाएँ.
किसी शायर ने कहा है-सारी सज़ा कुबूल मगर ये सज़ा न दो, मुझको बना बनाया कोई रास्ता न दो. उर्मिलेश (भटकते हुए) हिमाचल प्रदेश पहुंच गए. यहां भी उन्होंने उन जगहों पर जाना सही नहीं समझा जो पर्यटन के लिहाज से बहुत लोकप्रिय हैं. वह पहुंचे हिमाचल के पालमपुर से लगभग पंद्रह किलोमीटर दूर बसे एक गांव अंद्रेटा. गांव कैसे बसा और किसने बसाया, इसकी भी दिलचस्प कथा है जो मेम दा पिंड में विस्तार से है. मेम यानी नोरा रिचर्ड्स एक आयरिश महिला थीं, उनके पति फिलिप रिचर्ड्स अर्नेस्ट की पत्नी थीं. नोरा अपने पति के साथ सबसे पहले 1911 में लाहौर आई थीं. कला, साहित्य और रंगमंच में उनकी गहरी दिलचस्पी थी. 1920 में उनके पति की असामयिक मृत्यु हो गई. नोरा पहले इंग्लैंड लौटीं और उसके बाद वह कई जगहों पर घूमते हुए अंद्रेटा पहुंची. वह अंद्रेटा से इस कदर जुड़ीं कि यहीं की होकर रह गईं. नोरा ने यहां सरदार सोभा सिंह और प्रोफेसर जय दयाल को यहां आकर बसने के लिए प्रेरित किया. एक समय था जब नोरा से मिलने के लिए फिल्म और रंगमंच की मशहूर हस्तियां-पृथ्वीराज कपूर, बलराज साहनी और अन्य बहुत सारे कलाकार आया करते थे. नोरा ने इस गांव को रंगमंच और कला का गांव बना दिया. फूल पौधों से भरे बगीचे में नोरा का रंगकर्म ताउम्र जारी रहा. इस अध्याय में पाठकों को और भी बहुत सी दिलचस्प जानकारियां मिलेंगी. संभव है अगली बार जब घूमने जाएं तो कांगड़ा, चंबा और डलहौजी न जाकर चंद्रैटा जैसा कलाप्रिय गांव जाएं.
कर्नाटक का जब भी जिक्र आता है, तो हम याद करते हैं कि बेंग्लूरु आई टी सिटी है. हम बेंग्लुरु के पर्यटन स्थलों को याद कर लेते. इससे अधिक कुछ नहीं. हम नहीं जानते कि बेंग्लुरु को आईटी सिटी बनाने का श्रेय किसे है, हम नहीं जानते कि बेंगलोर को बेंग्लुरू क्यों कहा जाने लगा, शायद हम यह भी नहीं जानते कि कर्नाटक में भूमि सुधार कानून लाकर किसने वहां ठोस काम किया. ‘बेंग्लूरु में बढ़ता जोश और सिमटता होश’ अध्याय में उर्मिलेश ने इन सब सवालों के जवाब खोजे हैं. वह बताते हैं कि बेंग्लोर को बेंग्लूरु बनाने की कोशिश 2006 से शुरू हुईं. कन्नड़ के मशहूर लेखक यू आर अनंतमूर्ति ने भी नाम-बदलाव के पक्ष में माहौल बनाया. इस पर सभी राजनीतिक दलों की सहमति थी. लेकिन ये नाम-बदलाव इलाहाबाद या मुगलसराय के दीनदयाल नगर बनने जैसा बदलाव नहीं था. उर्मिलेश का यही अध्याय बताता है कि भूमि सुधार को लेकर तत्कालीन मुख्यमंत्री देवराज अर्स ने ठोस और बेहतर काम किया. उन्होंने भूमि सुधार कार्यक्रमों को अमली जामा पहनाया. इससे राज्य में समानता का स्तर बेहतर हुआ. ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों की क्रय शक्ति बढ़ी. अर्स के कार्यकाल में ही दलित समूहों द्वारा मैला ढोने की अमानवीय प्रथा खत्म हुई. और बेंग्लूरु को आईटी कैपिटल बनाने का श्रेय भी देवराज अर्स को जाता है. लेकिन बेंग्लूरु में कांग्रेस के एक अधिवेशन को कवर करते हुए उर्मिलेश के ज़ेहन में ये सवाल भी बार-बार उठता रहा कि कांग्रेस ने इतने दिग्गज नेता की अनदेखी क्यों की?
समाज को साथ लिए बिना कोई भी यात्रा पूरी नहीं होती. उर्मिलेश अपनी पुस्तक में इतिहास के साथ-साथ समाज को भी साथ लेकर चलते दिखाई देते हैं और यही बात ‘मेम का गांव, गोडसे की गली’ को समृद्ध बनाती है. केरल के कोच्चि की यात्रा करते समय उर्मिलेश न अरुंधती राय को भूलते हैं, न उनकी मां मेरी राय को. वह अरुंधती राय के चर्चित उपन्यास ‘गॉड ऑफ स्माल थिंग्स’ की भी चर्चा करते हैं और ईएमएस नंबूदिरापद की भी. इस यात्रा वृतांत से ही जानकारी मिलती है कि कोच्चि भारत में यहूदियों का पहला रिहायशी इलाका है. वह कोचीन में स्थित सेंट फ्रांसिस चर्च भी जाते हैं. यह चर्च पुर्तगालियों ने 1510 में बनवाया था. कोच्चि का समाज, यहां का खानपान, यहां की आदतें, यहां की ईमानदारी, प्रतिबद्धता सब कुछ इस संस्मरण में दिखाई पड़ेगा. लेकिन उर्मिलेश पत्रकार होने को भूल नहीं पाते. उनके भीतर का पत्रकाल कभी सोता नहीं है. लिहाजा वह ईएमएस नंबूदरीपाद का इंटरव्यू भी करते हैं. इस इंटरव्यू में उन्होंने राजनीति में संकीर्णता और सांप्रदायिकता के बढ़ते वर्चस्व पर भी कई सवाल पूछे. उस समय (1997 और 2006 के बीच की यात्राओं के दौरान) ईएमएस ने कहा था, उत्तर में हिन्दी भाषी क्षेत्रों में बड़े राजनीतिक बदलाव और वामपंथी राजनीति के मजबूत होने के लिए जरूरी है कि यहां के समाज यानी लोगों के सामाजिक-सांस्कृतिक सोच के स्तर में कुछ उल्लेखनीय बदलाव हों. चेतना का कुछ उन्नयन हो. उनका इशारा सामाजिक सुधार और सांस्कृतिक जनजागरण की तरफ था. तब उर्मिलेश उनकी बात से सहमत नहीं थे, लेकिन आज वह उनसे पूरी तरह सहमत हैं.
गोविन्द पानसारे के साथ बिताई गई शाम उर्मिलेश न केवल उनका इंटरव्यू करते हैं, बल्कि तमाम ऐतिहासिक संदर्भ और तथ्य भी पेश करते हैं. ‘मेम का गांव, गोडसे की गली’ पुस्तक के अध्यायों में अनेक कथाएं-उप कथाएं हैं, जो सामान्य पर्यटकों को नहीं मिलेंगी.
‘कितने बदनसीब रहे जफ़र और किंग थीबा’ अध्याय में उर्मिलेश थीबा पैलेस पहुंचते हैं. पता चलता है कि थीबा पैलेस में रहने वाले आखिरी आधिकारिक राजा थे-थीबा मिन (सन् 1859-1916). ब्रिटिश हुक्मरानों ने पहले उन्हें छल बल से पराजित किया और फिर बर्मा से निर्वासित कर रत्नगिरी जैसे छोटे और अनजान इलाके में लाकर रखा. किलेनुमा यह महल कई वर्षों बाद बनवाया गया था. बहादुरशाह जफ़र को बंदी बनाकर बर्मा ले जाया गया और रंगून के एक छोटे से क्वार्टर की ग़ैराज-नुमा कोठरी में बंद कर दिया गया. थीबा के लिए यह महल बनवाया गया. उनकी मौत के बाद पूरा परिवार रंगून लौट गया. लेकिन यहां छोड़ गया एक प्रेम कहानी. यह कहानी है रत्नागिरी में ही जवान हुई राजकुमारी और उसके सेवक की प्रेम कहानी.
उर्मिलेश यह सवाल भी उठाते हैं कि मुल्क के आज़ाद होने के बाद जफ़र के अवशेष यहां क्यों नहीं लाये गए? दरअसल सवाल उठाना पत्रकार का जरूरी काम है और उर्मिलेश यह कभी नहीं भूलते. जम्मू-कश्मीर की यात्रा के समय भी वह कश्मीर को एक अलग नज़र से देखते हैं. ‘मिलिटेंसी में महानायक को भुलाता समाज’ में वह कई महत्वपूर्ण बिंदुओं पर चर्चा करते हैं. हालांकि वह समाज को भी खुली नज़र से देखना नहीं चूकते. वह लिखते हैः उत्तर प्रदेश, बिहार या मध्य प्रदेश की तरह कश्मीर के शहरों या कस्बों के किसी चौराहे, सड़क, गली, एयरपोर्ट, बस स्टैंड या टैक्सी स्टैंड पर किसी व्यक्ति (स्त्री-पुरुष या बच्चे) को भीख मांगते नहीं देखा. किसी को सड़क किनारे या किसी सार्वजनिक स्थल पर भूखों लेटे या ठर्रा पीकर गिरे नहीं देखा.
उर्मिलेश ने इस बात को भी चिन्हित किया कि कश्मीरी लोगों के अंदर संबंधों की उष्मा है. कश्मीर में उन्होंने यह भी देखा कि यहां शायर मोहम्मद इकबाल खासे लोकप्रिय हैं. लेकिन इस अध्याय में उर्मिलेश ने दो अहम मुद्दों पर ध्यान खींचा है. पहला, जब कश्मीरी पंडितों का पलायन शुरू हुआ तो प्रशासन ने आतंक और दहशत के दौरान कश्मीरी पंडितों को भरोसा देने के बजाय उनके पलायन की भावना को और हवा दी. साथ ही उर्मिलेश यह भी लिखते हैं कि कश्मीरी पंडितों से ज्यादा मुसलमानों की हत्याएं हो रही थीं. उर्मिलेश ने बाकायदा तथ्यों के साथ यह बात कही है. दूसरी अहम बात इस अध्याय में उर्मिलेश ने यह कही कि किस तरह शेख अब्दुल्ला के निधन के कुछ साल बाद कश्मीर में अलगाववाद और उग्रवाद शुरू हुआ. खासकर 1987 में और सरहद पार की हरकतों के चलते सन् 1989-91 के आते-आते मिलिटेंसी नज़र आने लगी, इस दौर ने जम्मू कश्मीर के मिजाज़ को नहीं, उसके वर्तमान को ही नहीं, अतीत के प्रति उसके नज़रिये को भी बुरी तरह बदल डाला. मिलिटेंसी के इसी दौर में शेख मोहम्मद अब्दुल्ला की राजनीतिक विरासत का लोप होना शुरू हुआ. और शेख अब्दुल्ला को कश्मीरी समाज के लिए नायक नहीं ‘खलनायक’ बना दिए गए. इस अध्याय में और भी बहुत सी ऐसी जानकारियां तथ्यों समेत हैं, जिन्हें संभवतः आप पहली बार पढ़ेंगे.
‘मेम का गांव, गोडसे की गली’ में और भी कई अध्याय हैं. इनमें आपको कारगिल मिलेगा, आंध्र प्रदेश (अब तेलंगाना) मिलेगा और मिलेंगी बहुत सी स्मृतियां. कुछ निजी यात्राएं भी हैं मसलन अध्यापकी के लिए आखिरी इंटरव्यू. लेकिन उर्मिलेश की सोच और उनके विचार यहां भी दिखाई देते हैं. इस किताब को पढ़ना दरअसल अपने समय, इतिहास, और जरूरी तथ्यों से रूबरू होना है. मेम का गांव, गोडसे की गली आपको एक वैचारिक यात्रा पर ले जाएगी, जहां आपकी यात्रा को नये अर्थ मिलेंगे.
मेम का गाँव गोडसे की गली/उर्मिलेश/संभावना प्रकाशन, हापुड़/संस्करण- 2022, मूल्य: 250 रूपये
यह पुस्तक यहाँ से प्राप्त कर सकते हैं.
सुधांशु गुप्त 30 साल तक पत्रकारिता. |
उर्मिलेशजी ने अपने इन यात्रावृतांतों में उस जगह के इतिहास, भूगोल और जमीनी मुद्दों से जुड़े सवालों को बेहद संवेदनशीलता, सूक्ष्म विवेचन और तटस्थ दृष्टि से देखा और रचा है।
अच्छी समीक्षा। स्थान, परिवेश और समय को समेटते हुए।