उसे निहारते हुए |
समकालीन हिन्दी साहित्य में प्रेम एक अस्पृश्य-सा विषय है. ऐसा नहीं है कि प्रेम के नाम पर कविताएँ नहीं लिखी जातीं, किन्तु होता यह है कि उसे समकालीनता के दबाव से आक्रान्त किये बिना उसकी उपस्थिति से इनकार किया जाता है. इस प्रकार प्रेम पर लिखी कविता उन बन्दिशों की कविता बनती है, जो प्रेम की अपनी बन्दिशें नहीं हैं अपितु वे बन्दिशें हैं, जो उस समाज ने लगायी हैं जिसमें प्रेमी और प्रेमिका रहते हैं. चूँकि समकालीन मान्यता यह है कि राजनीति ही समाज को बनाती है इसलिए अन्ततः प्रेम-कविता भी राजनीति से संचालित होती है. कम, बहुत ही कम, कविता इस पथ-संचालन से अलग वह राह पकड़ पाती है जो उसे कवि का हृदय और चैतन्य सुझाते हैं.
ऐसे अपवादों में ही संगीता गुन्देचा का नाम है. वे अब हिन्दी के रचना-जगत् में ‘नवोदित’ नहीं रहीं- एक लम्बे अरसे से उनकी कविताएँ, कथा-कृतियाँ और संस्कृत साहित्य, भारतीय नाट्य-कला, संगीत आदि पर उनकी शोध-परक और वैचारिक कथेतर गद्य-कृतियाँ हमारे सामने आती रही हैं, जिनके बल पर उनका लेखकीय व्यक्तित्व अपना एक अनुपेक्षणीय आकार ग्रहण कर चुका है. लेकिन ‘नवोदित’ न रह जाने पर भी उनकी रचनात्मकता सहज नवोन्मेषी है और हर बार अपनी आमद से हममें स्वागत और औत्सुक्य जगाती है.
नवीनतम कविता-पुस्तक ‘पडिक्कमा’ की कविताएँ ऐसी ही आमद हैं-एक आदिम उष्णता से उत्तप्त मनःकाय की धीर आहट से अपनी ओर आकृष्ट करती हुई, जिसे देखने और सराहने के लिए हम विवश हैं. ’बिछिया-कंगन-करधनी-बाजूबन्द’ सौंप देने के बाद अकेली रह गयी बाट जोहती स्त्री की स्वभावोक्ति ‘चले गये निठुर तुम किस घाट’ (वियोग शीर्षक कविता) में जो सहज टीस है, उसको स्त्रीपुरुष-युग्म के पसार से बाहर कहीं नहीं पा सकते. इस पसार में किसी भाथी का इस्तेमाल नहीं हुआ, यह उस ऊष्मा का परास है जो स्पर्श में तरलता का प्रवाह करती है.
इन कविताओं का प्रस्थान-बिन्दु बहुत गहराई में है, जिसमें उतार की दैहिक चुम्बकीयता कुछ उन साहित्यिक आहटों से भी समृद्ध है, जो समकालीन साहित्य – रचना के साउण्डप्रूफ़ चैम्बर से बहिष्कृत हैं. मैं दो उदाहरण देता हूँ. जतन कविता शुरू होती है ‘वस्त्र उतार कर’ सरोवर में उतरी युवती से जिसे ’मेघों ने देखा’ और ‘बिदेस गये पथिक घर लौट आये’. जिसने भी बारहमासा पढ़ा है, जो भी विद्यापति की ’कामिनि करइ सनाने’ पर मुग्ध हुआ है, वह विरहिणी की उस आस से तुरन्त जुड़ जाता है, जिसने उन तमाम संदेशों को टाँका है, जिन्हें हंस ले जाता है और जिनके लाने के लिए कौए की चोंच में सोना मढ़ाने का वादा हज़ारों बरसों से किया जाता रहा है. कविता इस तरह से समाप्त होती है:
मैंने नहीं किया कोई जतन
ये तो बरस थे सोलह
जो असाढ़ के पहले ही दिन समाप्त हो गये
मैंने नहीं किया कोई जतन
हे पथिक!
नहीं किया कोई जतन
तुम्हें बुलाने का
‘सोलह बरस’ अब भारतीय विधि-संहिता की लड़कियों के लिए कोई पुलक नहीं ला सकते किन्तु लोकगीतों में उनकी उत्तेजना कम नहीं हुई है. और ‘असाढ़ का पहला दिन’ कैसे कोई भूल सकता है, जिस दिन यक्ष ने रामगिरि की पहाड़ी से अलकापुरी तक सन्देश पहुँचाने के लिए मेघ से अनुरोध किया था.
दूसरा उदाहरण मैं संयोग कविता का देता हूँ. यह कविता प्रेम के अन्तर्गत ‘विरह’ से शुरू होकर ’संयोग’ तक की यात्रा ’केलि करते’ क्रौंच पक्षी के जोड़े तक तय करती है. इस राह में पड़ाव है, रामायण जिसके पन्नों से यह युग्म उड़ा है. हर कोई जानता है कि केलिरत क्रौंच-युग्म में से नर-क्रौंच के वध के परिणामी शोक का ही श्लोकबद्ध रूप रामायण है. यह सन्दर्भ सामने रखते ही हम कविता की एक चाक्रिकता का साक्षात् करते हैं और एक प्रश्न का सामना करते हैं: रामायण क्रौंच-केलि की हत्या पर विलाप है या उसकी पुनरुज्जिजीविषा ? स्वयं रामायण अपनी फलश्रुति में अपने को पुनरुज्जिजीविषा बताती है क्योंकि उसका कहना है कि यदि आप रामायण पढ़ेंगे तो उजड़ी अयोध्या फिर आबाद हो जायेगी. निश्चय ही यह दावा किसी लौकिक पुनर्निर्मिति का नहीं है. इस कविता की उपलब्धि स्त्री-विमर्श के भीतर किसी पक्षधरता में नहीं, इस प्रश्न को हमारे सामने फिर ले आने में है जिसके नाते हम कविता की लोकोत्तरता को रेखांकित और जिज्ञासित करने की सोच सकते हैं.
इस संग्रह में कुछ संस्कृत कविताओं के अनुवाद भी संकलित हैं. संस्कृत से हिन्दी में अनुवाद कितना कठिन है यह वे ही जानते हैं जिन्होंने इसकी कोशिश की है. फिर भी, (अँधेरा दिन कविता में) हम विक्रमोर्वशीय के विरह-ग्रस्त पुरूरवा तक कुछ पहुँच बना पाते हैं:
काश यह जीवन
उसे निहारते हुए
उस रात निःशेष हो सकता
संस्कृत कविता ‘पुरानी’ है, इस पुरानेपन में ही उसकी सार्वकालिकता है. विरहिणी से कपूर, मृणाल, कमल-पत्तों का अटूट सम्बन्ध (विलाप या कमलपत्तों की शय्या) अब उस समझ के बाहर है जिसे शैत्योपचार की ‘प्रासंगिकता’ तेज़ बुखार में समझ में आती है क्योंकि वह ‘विज्ञान’ है जबकि ‘विरह-ताप’ केवल एक कवि-समय. किन्तु शायद ऐसी कविताएँ ‘पुरानी चाल’ के नमूनों के तौर पर पढ़ ली जायें. लेकिन जब हमारा सामना कटा हाथ जैसी कविता से होता है:
जिसने करधनी को खींचा
मर्दन किया पीनस्तनों का
नाभि, जंघा और जघन को छुआ
गाँठ ढीली की अधोवस्त्र की
यह वही हाथ है.
तो मुझे पता नहीं कि ‘आधुनिक संवेदना’ इसे कैसे देखेगी. इसके साथ एक सूचना भी जुड़ी है कि यह महाभारत में भूरिश्रवा के कटे हुए हाथ को देख कर उसकी स्त्री का विलाप है. यह सूचना केवल तकनीकी रूप से सही है. वस्तुतः यह उसकी स्त्री का विलाप नहीं है, उसकी स्त्रियों का विलाप है. ’एक स्त्री’ कहने से जिस दाम्पत्य का बोध होता है उसमें यह विलाप अस्वाभाविक है किन्तु ‘अनेक स्त्रियाँ’ से भूरिश्रवा का केवल विलास-सम्बन्ध ही था-उसी की याद यहाँ स्वाभाविक है, और जैसा प्राचीन काव्यशास्त्रियों ने कहा है, यह ‘श्रृंगार’ प्रस्तुत करुण को पुष्ट करता है. यह गान्धारी द्वारा कृष्ण के सामने युद्ध के बाद स्त्रियों के विलाप का प्रस्तुतीकरण है जिसमें भूरिश्रवा के स्वर्गस्थ माता और पिता के विलाप का भी वर्णन है. इस स्त्री-विलाप में भूरिश्रवा के इसी हाथ को लेकर उसके शौर्य, यज्ञ-कर्तृत्व और दानशीलता का भी गुणगान है. जैसे यदि हमने किसी राजा को सर्वदा मुकुट-सज्जित ही देखा हो और उसका कटा सिर देख रहे हों तो उसका वह मुकुट ही हमें याद आयेगा और हमारी करुणा को बढ़ाता रहेगा. मेरा ख़याल है कि यह सूचना अगर ’भूरिश्रवा की एक स्त्री’ के रूप में दी गयी होती तो जो महाभारत में कहा गया है, उसके निकट जाना अधिक सरल होता- वैसे कौन जाने, लोगों को आज इसमें ‘बहुपत्नीप्रथा’ के अतिरिक्त कुछ और न दिखे.
कविताओं पर लौटते हुए, कभी-कभार कुछ सूक्तियाँ अलग से दिखायी दे जाती हैं जैसे कथा स्मृति से नहीं, विस्मृति से घटित होती है (लोपामुद्रा की डायरी). कविता लिखते हुए बीच-बीच में ठहर कर सोचने के लिए विवश होना कवि के लिए भी अच्छा है और कविता पढ़ते हुए ठहर कर सोचना पाठक के लिए भी. मैंने ’सूक्ति’ कहा है किन्तु ‘मय पूछती है बेख़ुदी से/‘क्या तुम ज़िन्दा हो?’ के तुरन्त बाद ‘जो मरता है’ से शुरू होकर कविता की समाप्ति तक जाती हुई अनेक पंक्तियों का समूह (अबूझ) कविता की लगभग आधी जगह घेरता है जिसके बिना यह समझा ही नहीं जा सकता कि पूर्वार्ध में आया युवा भिक्षु क्यों बुद्ध को प्रणाम करता है.
कुछ कविताएँ ‘हाइकूनुमा’ शीर्षक में संकलित की गयी हैं. यह नाम इसलिए दिया गया है कि हाइकू में तीन पंक्तियाँ होती हैं किन्तु वात्स्यायन जी के जापान-यात्रा से लौटने के बाद हिन्दी में ’हाइकू’ की कुछ समय के लिए हुई बढ़ोत्तरी के बावजूद अभी तक यह स्पष्ट नहीं हो सका है कि क्या इस विधा के साथ जापानी सांस्कृतिक प्रदाय को भी लाने का आग्रह था या नहीं. जब हिन्दी के कवि ’ग़ज़ल’ लिखते हैं या जब वे संस्कृत के वृत्त-छन्दों में कविताएँ लिखते थे तो उनके साथ कुछ सांस्कृतिक आग्रह भी होते हैं/थे.
’हाइकू-नुमा’ कह कर ऐसे किसी सांस्कृतिक आग्रह को हटा दिया गया है और हम इन कविताओं को और कविताओं की तरह ही पढ़ सकते हैं. तब इनमें से एक शीर्षक-हीन कविता देखिए:
किनारे पर खड़ी बगुली की परछाईं से
बिंध जाता है
मछली का शरीर..
और इसको इस अभिसार शीर्षक कविता से मिलाइए जो ‘उदाहरण-काव्य’ शीर्षक में संकलित है और जिसके बारे में बता दिया गया है कि यह गाथासप्तशती की एक गाथा का अनुवाद हैः
देखो कैसा एकान्त है
कमल पत्ते पर बैठी
निश्चल निःस्पन्द बगुली यूँ लग रही है
जैसे शंख रखा हो
मरकत मणि के पात्र में.
यह तो स्पष्ट ही है कि दोनों कविताएँ एक ही स्थिति पर आधारित हैं किन्तु शीर्षकहीन ’हाइकूनुमा’ में स्थिति की अवतारणा और अनुवाद में की गयी अवतारणा में अन्तर है: एक ही बगुली (अनुवाद में) नायिका को रति के लिए एकान्त सुलभ करा रही है और ’हाइकूनुमा’ कविता में मछली के लिए प्राण-भय का कारण है. दोनों कविताओं को एकसाथ रखने ने मुझे धूमिल की ‘पटकथा’ की याद दिलायी:
एक अजीब सी प्यारभरी गुर्राहट
जैसे कोई मादा भेड़िया
अपने छौने को दूध पिला रही है
साथ ही किसी छौने का सिर चबा रही है.
इससे हमें कविता के पुनर्योजन की विधि के बारे में भी कुछ सोचने को अवसर मिलता है. हम कविता लिखते समय और पढ़ते समय कविता के विविध परिप्रेक्ष्यों के बन्दी होते हैं जिनमें कविता की लेखकीय आयत्ति और पाठकीय आयत्ति का कोई विचार नहीं होता. उदाहरण के लिए प्राचीन कविता की पुनःप्रस्तुति करते हुए या पढ़ते समय हम यह मान कर चलते हैं कि वह कविता अब जीवित नहीं रही क्योंकि उसका देशकाल हमारे देशकाल से भिन्न है. इसलिए वह कविता हमारे लिए जिस देशकाल में दाखिल की जाती है उसका चरित्र उस म्यूज़ियम की तरह होता है जिसमें मूर्तियाँ मन्दिरों से निकाल कर रखी जाती हैं या उस आडिटोरियम की तरह जिसमें मेलों और देवार्चनाओं से निकाल कर नृत्य प्रस्तुत किया जाता है. हम एक कवच की तरह अपना रोज़मर्रा लिये हुए म्यूज़ियम या आडिटोरियम में घुसते हैं और बिना किसी खरोंच के उस कवच के साथ बाहर निकल आते हैं.
इसके बर-अक्स, मैं एक दूसरा उदाहरण सामने रखता हूँ. यह सर्वविदित है कि अश्वमेध यज्ञ वैदिक कर्मकाण्ड का अंग है और इसका अधिकार केवल क्षत्रियकुलोत्पन्न चक्रवर्ती सम्राट को है. यह कलियुग में वर्जित है किन्तु इसमें का मन्त्र गणानां त्वा … गणपति-पूजन में बराबर इस्तेमाल होता है. यह अपौरुषेय वाक् का पौरुषेय पुनर्विनियोजन है और इसमें कोई कवच नहीं है जो अपौरुषेयता की पौरुषेय जगत् में आमद को रोकता हो. मेरा सोचना है कि यदि हम निष्कवच होकर म्यूज़ियम या आडिटोरियम में घुसते हैं तो हम उस मन्दिर या उस देवार्चन को भी अपने भीतर स्पन्दित पा सकते हैं जिससे मूर्ति या नृत्य को बाहर निकाला गया था. यह लेखकीय (= authorly) आयत्ति का पाठकीय (=readerly) आयत्ति में सुष्ठु-समंजन है और यही कला-सर्जना की स्वायत्ति का वास्तु-कल्पन है.
इसका एक प्रत्युदाहरण देने से शायद बात कुछ और साफ़ हो. अमरुशतक का एक मुक्तक (पद्य-संख्या 40) कहता है: ‘(गाढालिंगन में आनन्द-मग्न प्रिया पता नहीं कि) सो गयी या मर गयी या मन में लीन हो गयी या विलीन ही हो गयी-
सुप्ता किं नु मृता नु किं मनसि किं लीना विलीना नु किम्’.
अर्जुनवर्मदेव ने अपनी टीका रसिकसंजीवनी में मूल के ’मृता (= मर गयी )’ पर आपत्ति की है क्योंकि उसके आते ही ’करुण’ की आमद हो जाती है जो प्रस्तुत ’श्रृंगार’ का विरोधी है (और इसकी जगह ‘म्लाना’ पाठ सुझाया है). यहाँ पर काव्यशास्त्र एक कवच का काम कर रहा है और कविता तथा काव्यशास्त्र से लैस आलोचक की आयत्तियों के समंजन में बाधक बनता है.
इन दो कविताओं का सहपाठ गाथासप्तशती का पद्य अमरुशतक के पद्य की तरह ही मृत्यु, सुषुप्ति और आनन्द के परस्पर की खिड़कियाँ खटखटाते हुए हमें संवेदनाओं के पहले आधुनिक और प्राचीन जैसे विशेषणों के औचित्य पर सोचने के लिए विवश करता है.
इस काव्यसंग्रह से समकालीन कविता में स्त्री की उपस्थिति का भी एक अलग पहलू सामने आता है. प्रायः वर्तमान कविता में स्त्री की मौजूदगी विश्वविद्यालयों के समाजशास्त्र विभागों द्वारा निर्धारित होती है जैसे स्त्री की सीमाएँ एक प्रयोगशाला की दीवारों द्वारा निर्धारित होती हों. बहुत कम ऐसा होता है कि स्त्री की देह और मन के वैशिष्ट्य किसी कविता को अन्तःरूपंकरण (¼in-formation) करते हों. यह बात मैं इस लेख की शुरुआत में भी कह आया हूँ और फिर दुहराता हूँ कि इन कविताओं की ख़ूबी स्त्री को स्वायत्त करने में है, उसकी उस अपनी दुनिया तक पहुँचाने में जिसे वह अपने एकमात्र अन्य-पुरुष-के लिए स्वेच्छा और कामना से उघाड़ती है और इस विधि से उस अन्य को अपनी दुनिया में शामिल करती है. यह लेखकीय आयत्ति और पाठकीय आयत्ति का सुष्ठु-समंजन ही है- भाषान्तर है, भावान्तर नहीं.
स्त्री की इस आत्म-विस्तृति के लिए प्राचीन शब्द ’उशती (= चाहती हुई)’ है. यह चाहना जिस निहारने में रूपंकृत होती है, उसको कविता में उतार पाने के लिए मैं इन कविताओं का आभारी हूँ.
यह कविता संग्रह यहाँ से प्राप्त करें.
वागीश शुक्ल
हिन्दी, संस्कृत, फारसी और अँग्रेज़ी वाङ्मय के गहरे और गम्भीर अध्येता, आलोचक और अनुवादक वागीश शुक्ल (जन्म : १९४६, उत्तर प्रदेश) भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, दिल्ली से सेवा-निवृत्त होकर इन दिनों बस्ती (उत्तर प्रदेश) में रह रहें हैं. साहित्य के मूलभूत प्रश्नों पर आधारित वैचारिक निबन्धों का संग्रह ‘शहंशाह के कपड़े कहाँ हैं’ तथा निराला की सुदीर्घ कविता ‘राम की शक्ति पूजा’ की टीका ‘छन्द-छन्द पर कुमकुम’ प्रकाशित. गालिब के लगभग पूरे साहित्य की विस्तृत टीका पर कार्य जारी. अभी-अभी चन्द्रकान्ता (सन्तति) का तिलिस्म शीर्षक से आलेखों का संग्रह प्रकाशित.
wagishs@yahoo.com
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कविता को पढने और समझने के लिए वागीश शुक्ल पडिक्कमा के बहाने एक पाठ-सा प्रस्तुत करते हैं. वे विलक्षण मस्तिष्क के आलोचक हैं, मैं इस आलोचना-लेख के आलोक में पडिक्कमा को फिर पढूँगा…
संगीता जी की बहुत सुन्दर कविता पर बहुत समीचीन समीक्षा
वाह! बहुत सुंदर. धन्यवाद
एसी अद्भुत कविता के पकर इस पुस्तक मांंांमांंगाने की इच्छा हो रही है
अद्भुत समीक्षा। वागीश शुक्ल और संगीता गुंदेचा दोनों
को प्रणाम।
हिन्दी के मूर्धन्य आलोचक और लेखक श्री वागीश शुक्ल के बड़प्पन के प्रति हृदय से आभारी हूँ। हमारे मूर्धन्यों की हमारे काम पर ऐसी पैनी दृष्टि हमें विनम्र और कृतज्ञ दोनों बनाती है।
आभार – समालोचन और श्री अरुण देव ।
अद्भुत समीक्षा।पुस्तक मंगवा रहा हूँ।
समीक्षा पढ़कर कविताएं पढ़ने की इच्छा प्रबल हुई पुस्तक कहा से छपी है।क्या कोई लिंक है।
वागीश् शुक्ल जी का पुस्तक पर लिखना अपने आप मे उपलब्धि है वो हमारे समय के मूर्धन्य विद्वान हैं।
पड़िक्कमा पुस्तक मंगवा रहा हूँ।
समीक्षा पढ़ी। इस तरह की समीक्षाएं दुर्लभ हैं। वागीश शुक्ला जी को प्रणाम करता हूं। समालोचन को बधाई।
संगीता गुंदेचा जी को बहुत बहुत बधाई। कविताएं अवश्य पढूंगा।
अद्भुत बहुत सुंदर कविता . धन्यवाद
अप्रतिम समीक्षा ।
वागीश जी ने संगीता जी की कविताओं के सौंदर्य को अपने क्लासिकी अंदाज में उद्घाटित किया है एक अलग तरह के इस संग्रह को पढ़ने की इच्छा हो आई है
संगीता जी कोटा आती रही हैं राजेंद्र पांचाल और अंबिका दत्त उनका जिक्र करते हैं। कभी मिलना होगा उनसे
मृदुला गर्ग
बधाई संगीता कि आप समय को फलांगने की ऊष्मा रखती हैं । और बधाई इसलिए भी कि अपनी (स्त्री की) कामुक लालसा को शब्द देने के लिए, मेरी तरह, राज (समाज) ने आपकी। आज़ादी छीनने की कोशिश नहीं की। आज़ाद रहें और प्राचीन और आज को अपने में समेट कर स्त्री कामना का बंधन हीन गान गाती रहें।