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कितनी अन्तर्कथाएं मन में चलती हैं
बहती हैं नदियों में सदियों में
सदियों तक यहां वहां जाने कहां कहां
कभी कभी तुम्हारे मन तक
एक बार अपनी सम्पूर्ण जिजीविषा के साथ
तुमसे प्रेन करना चाहती हूं
तुम्हारे बनाये पेड़ पौधे आसमान बादल
चिड़ियों से प्रेम किया
तुम्हारे बनाये गये मनुष्यों से प्रेम किया
यहां तक कि अपने अनन्त अधूरेपन से भी
अब तुमसे प्रेम करना चाहती हूं
सम्पूर्ण दीवानगी के साथ
मिली है मुझे विरासत में
माथे पर मेरे हौले से रखना तुम अपना हाथ
तुम्हारे नर्म सुकून स्पर्श से मुंद जाएं आंखें
कि आसुओं की नमी में रौशनी आ जाये
अन्धेरों की जगह
हौले से थपकना मेरा जिस्म मां की तरह
जैसे थपकन मेरे रूह में समा जाये
सदियों से भटकती छटपटाती रूह
एक लम्बी शान्त पुरसकून की नींद सो जाये
तुम उठाना बांहों में मुझे
जैसे लोग च़ढ़ाते हैं फूल
दफ़्न कर देना आराम कब्र में
मिल जाऊंगी तुममें हमेशा के लिये.
(दो)
तुम्हारी उपस्थिति शून्यवत कर देती है
दिन रात को लड़खड़ा जाती हैं बेचैनिया
ओठों पर उभर आती है तुम्हारी ख़ामोशी
रख नहीं पाती खुद को तुम्हारे समक्ष
या तुम देखना नहीं चाहते
महसूस भी नहीं करना चाहते
गुलमोहर के फूलों की थरथराहट
दरअसल कुछ गणनायें
अनन्त काल से ही ग़लत सही होती आ रही हैं
मनुष्य को कोई वश नहीं उस पर
हां ये ज़रूर है हम चाहें तो
सितारे नक्षत्रों को पढ़ते हुये
गणनाओं को अपेक्षित आकाशगंगाओं में
ढाल सकते हैं तसल्ली के लिये
बांट सकते हैं सहजता
क्षितिज पर रख सकते हैं अपनी गम्भीरता
रेतीली सूखी सतह पर
सूरज की उगती हुयी किरणों को लेकर
कोई कालजयी कृति बनायी जा सकती है
असम्भव शब्दों से लिखी जा सकती है दोबारा
आत्मकथा.
कहीं गीली ज़मीन नहीं कि रोप दूं
कोमलता के पौधे
कि जड़ पकड़ रही मिट्टी
गिर जायेगा मन पेड़ से गिरी
नादान पत्तियों की तरह
भर जायेगा धुंआ पहाड़ों से बहता
नील नदी की उन्नत घाटियों में
हो जायेंगे सुडौल
तितली के पंख वर्जनाओं की एक लम्बी तान
नैतिकता के दौर में अखण्ड कथा की तरह
बांची जाती है
बचा लेगी कुछ ज़मीन
कुछ वर्जनायें आसमान में घूमती हैं
ज़रूर तुम्हें भिगोती होगी
अपवाद नहीं हो कुछ शताब्दियों में
अपवाद नहीं होते
इसी तरह असभ्यतायें भी सभ्य होने
की परम्परा में नैतिकता का पद
ग्रहण करती हैं गढ़ती हैं तमाम सच
जो ग्रह उपग्रह तक में घुले हैं
पक्का कुछ झूठ भी तिरते होंगे
वर्जनाओं के अन्तरिक्ष में
इन्हीं घूमती ब्रह्माण्डीय वर्जनाओं और
असभ्यताओं को एहसास करने के
किसी चौकस क्रम में
नहीं बनती कोई तथाकथित नैतिकता
न रचती है़ कोई उपदेशात्मक आचरण
सदियों से ढंकी मुंदी लगातार चल रही हैं
वर्जनायें सच के समानान्तर.
(चार)
गहरी अन्धेरी खाइयों से निकलकर
बहती गूंजती आवाज़ों
और खिलखिलाहट के संग
खुद को रखती हूं तुम्हारे भीतर
तुम्हारा भरापन खोल देता है
गाढ़े समय का कोई किस्सा
फिर मिलेंगे का कोई विधान
रचा था या रचने को थे
घुल जाती है तुममें
हवाओं के संग यहां वहां डोलती
कोई सर्जनात्मक सोच
लिखती जाती हूं फिर
ज़िन्दगी की कोई तहरीर
तुम्हें एहसास तक नहीं होता
कितना उद्वेग कितनी हलचल
कितनी बेचैनियां झऱ रही हैं
गुलमोहर के फूलों के साथ
खिले हैं जीवन की सीधी तीखी पड़ती धूप में
अपनी लालिमा के साथ तुम अपनी परछाईं
तक हटा लेते हो वहां से
एहतियातन कोई फतवा जारी न हो जाय़े
क्या इतनी गहनता से आवेशित
होती है कविता
क्या उतरती है शाम पर ऐसी कोई रात
क्या गुज़रती है कोई रूह
अनजाने शून्य में ऐसे चुपचाप
क्या पनपती है कोई इन्द्रधनुष
आकाश में कोई परीकथा
ऐसे ही कभी सोचकर देखना एक बार
परतों में दबी रेखायें
अब कितनी अमूर्त हो चली हैं.
(पांच)
मेरे भीतर उगी सच्चाइयों की कुछ गहरी
रंगतों को तुम चुरा लो और
मैं तुम्हारा वक़्त
मैरी नज़्मों को तुम चांद के भीतर रख दो
तुम ही ऐसा कर सकते हो
तुम्हारी उंगलियों में भी न जाने कितनी
नज़्में क़ैद हैं रिहा होने की छटपटाती
तुम ही ऐसा कर सकते हो
अपने अहम के साथ रहते हुये भी
मेरे अनजाने अजन्में कितने रुपाकारों को
अपने भीतर संजोये तुम
अनियन्त्रित कठिन होते दिन रात में
अन्तर्विरोध से तपते दहलते घबराते
कीच मिट्टी सर्द में घुलते सपने
कई बार याद दिलाते हैं मुझे
आधे अधूरे वज़ूद आकारों के कि
अमूर्तन भी एक हिस्सा है
बातों का वादों का.
(छै)
सौन्दर्य का सबसे प्रिय गीत
नीले हरे रंग से गुंथे देह वृक्षों में
लहरा रहा है
ख़ामोश उदासी के साथ
अंगड़ाइयां रूप लेना चाहती हैं कि
आसमान की सादगी नदी के वक्राकार मोड़
घाटियों का अन्धेरा
अनहद नाद की धुन कोई अजपा जाप
उसकी रूह में पैबस्त है
आओ अपने मन की तूलिका का
एक स्ट्रोक (स्पर्श) लगाना
चिड़िया की आंखों पर
चहचहाहट के कितने पल बीते समय में
और आने वाले समय में गुन्जार होंगे
थोड़े डर के साथ थोड़ा फासले पर
थोड़ी सी बची जगह में मन कैनवस पर
साथ ही अपनी पहली ग़लती को बचाकर
रखना भविष्य के लिये
अभी कितने रंगों से बावस्ता
होना बाकी है.