विजय शंकर
|
वह कवियों जैसे कवि न थे, न उत्साहियों जैसे उत्साही. न वह कम बोलते थे, न ज्यादा. वह ध्यान से सब को सुनते थे. पूछने पर आ जाएँ तो कठिन मगर एकदम मूलभूत सवाल पूछते थे. उनका संकोच, आत्म-संशय उस समय भी बना रहता जब वह भरी सभा में मुख्य वक्ता को ही कुछ सोचने पर, पुनर्विचार करने पर प्रेरित कर देते. उनकी जिज्ञासा सच्ची उत्कंठा में से निकलती थी. मित्रों से बातचीत में एक वाक्य हम सब ने उनके मुख से अलग-अलग समय पर ज़रूर सुना था- “इस पर बात तो होनी चाहिए!”
उनके भीतर हर समय कुछ घुमड़ता रहता था. आसपास की अराजकता उन्हें परेशान करती थी, दिनों दिन भद्दी और विकराल होती जा रही राजनीति भी.
हमें उनकी सादगी आकर्षित करती थी. वह साफ़-सच्चे इंसान हैं, यह बताने की ज़रूरत न थी. यह सब उनकी उपस्थिति का सहज अंग था, बिलकुल जैसे उनका साधारण लिबास, सस्ते, बहुत दिनों तक न घिसने वाले उनके जूते.
वह बाँट कर खाते थे, मिठाई हो, फल या किताबें. जहाँ हम कंजूसी कर जाते, वह फ़राखदिल हो जाते. कभी इससे बिल्कुल उलट भी हो जाता. हम उड़ाने पर आ जाते और वह आनंद लेते.
उनके साथ समय बिताते समय हमेशा ध्यान रहता, यह भंगुर है, अस्थाई है, बीत जाने वाला है. इसीलिए हमें उनके साथ न ग़रीबी बाँटने से डर लगता था, न अमीरी. वह हम मित्रों का कितना बड़ा सम्बल थे, यह अब जान पड़ रहा है, हर दिन, उनके जाने के बाद.
मैं उन्हें लगभग ३५ वर्षों से जानती आई थी. वह मुझसे साढ़े चार वर्ष बड़े थे मगर ऐसे जन्मजात संकोची जैसे मैं उनसे बड़ी होऊँ. वह मेरे संडे अब्ज़र्वर के साहित्य सम्पादन के दिनों के लेखक भी थे. सादगी कितना बड़ा बल हो सकती है, आत्मबल भी, उन्हें बरसों बरस देखते रहने के बाद मैंने समझा था. उनकी कविता इसी उजले व्यक्ति का विस्तार थी, जिसे मैं जानती थी, जिसकी मानवीयता मुझमें गहन आदर भर देती थी.
वह लगभग अवाक् कर देने वाली कविताएँ लिखते थे, उन्हें हमारी प्रतिक्रियाओं से यह मालूम था. मगर वह अनूठे विरक्त व्यक्ति थे. वह युवाओं और समवयसी साथियों की कला प्रतिभा को सामने लाने के समस्त उद्यम अपने सीमित साधनों से करते रहते, समूचे भारत भर में, मगर अपने रचना-कर्म पर प्रायः चुप रहते.
उनके रचना-कर्म ने कितनी बड़ी रेखा खींची, यह तो समय ही तय करेगा, मगर उनके जीवन काल में छपे तीन कविता-संग्रह – आज मैंने बहुत सा उजाला देखा (१९९५), हे स्थगित ईश्वर (२००९), नमस्ते तथा अन्य कविताएँ (२०१८) और क पत्रिका में लिखे सम्पादकीय लेखों का संग्रह समय-असमय के शब्द (२०१६) हमसे गम्भीर पठन की माँग ज़रूर करता है.
पिछले वर्ष ८ अप्रैल को नागपुर से दिल्ली लौटते समय दिल्ली रेलवे स्टेशन पर अचानक हार्ट अटैक से उनकी मृत्यु हुई थी. उस समय वह लगभग ६६ वर्ष के थे. उनका घर नागपुर में था और दिल्ली में भी, मगर घर ने उन्हें कभी पकड़ा-जकड़ा नहीं, न जीवन में, न मृत्यु में.
यदि वह होते, तो इस २ मई को ६७ वर्ष के हो जाते. ऐसे उजले, साफ़ कवि को मैं जानती थी, इस मान को आप पाठकों के साथ साझा करना चाहती हूँ.
-गगन गिल
विजय शंकर की इक्कीस कविताएँ |
विजय शंकर
|
1.
कितनी छोटी-सी इच्छा है तुम्हारी
(माँ के लिए)
कितनी छोटी-सी इच्छा है तुम्हारी
छोटी कहने का सुख जितनी
धूप को पकड़ने का लालच
स्पन्दन का कोई संस्कार नहीं
किसी शब्द का कोई शब्द नहीं
तुम स्वर में भी तो नहीं हो?
लौट आओ, कहने को उठती तुम्हारी पलकें
बहुत दूर भी नहीं जाती.
2.
वह बार बार स्वाँग रचती है
वह बार बार स्वाँग रचती है
बूढ़ी हो गयी कहकर.
वह समझने लगी है
कि उससे
घर के लोग सारी बातें बतायेंगे
खुशहाली के लिए
उससे सलाह मशविरा करेंगे
उसके सामने
अपनी लाज छिपायेंगे नहीं
लोग उसकी तरफ़
हिंसा से नहीं देखेंगे
शरीर से अलग
कोई बात होगी
वह थोड़ी-सी आज़ाद होगी
कुछ समय के लिए
देहरी से बाहर निकलेगी
उसे अपने बचपन में
जाने का मौका मिलेगा
वह जानती है
बूढ़ी होने का मतलब
मर जाना नहीं है.
3.
मैं
मैं
ईश्वर से
प्रेम नहीं करता
उम्र में
वह मुझसे
बहुत बड़ा है
दुःख दर्द तो
अपनी भाषा में ही
व्यक्त होते हैं ना?
वह
मेरी भाषा में
बात नहीं करता
शब्द नहीं
वह अशब्द
बोलता है.
उसकी
सहज मृत्यु
नहीं होती
न मरने वाले
ईश्वर का
मैं क्या करूँ?
4.
स्वप्न में
कभी
गौर से देखिएगा
इन दिनों
गुलाब
एक प्रश्न के साथ
उग रहा है
कुछ अधिक
गाढ़ा रंग है उसका.
उधर
कोई कह रहा था
सिर्फ़ सूरज की साधना से ही
भौंरे पैदा नहीं होते
बारिश से ही
फ़सल नहीं होती
स्वप्न में
ऋण-प्रेम
जागा था किसी का
कोई ऋषि
कह रहा था
नीले रंग को,
अभी तक
किसी ने इतना रुलाया नहीं.
5.
अनिता
टूटते-जुड़ते
खंडहरों में
वह फिर वापिस आ रही है
साक्षी है उसका शरीर
तनी हुई रीढ़ की हड्डी
फ़बता पहनावा
मुख की गरिमा
लुकती-छुपती मुस्कुराहट
बरसों से बनी-ठहरी
अनिता ढह रही है
“क्या एक कमरा
पियानो के लिए बनवा लें?”
बहुत सारे कमरों से घिरा
वह हालनुमा कमरा
बाहर के शोर से बचा रहे
पियानो पर बजती धुनें
हर कमरे में सुनाई दें
अब वह सिर्फ़
अवकाश लेना चाहती है
नींव पर उठती दीवारों पर
पानी डालते हुए
अलग और सरल होना चाहती है
अनिता
अपना घर बना रही है.
6.
वयस्क होती लड़की (1)
हिलते हुए पानी में
उसकी परछाईं
एक बहता हुआ डर है
अनायास वह
अपने शरीर को
टटोलती है
एक क़दम चलकर
आश्वस्त होती है
कुछ बोलती है
खुद ही सुनती है
फिर कहीं मुस्कुराती है
तब तक
सब उसे देख लेते हैं.
सृष्टि उसके अकेले होने के खिलाफ़ है.
7.
अपने अपने
अपने-अपने
बिताये हुए दिन याद आ रहे हैं.
भ्रम में चहलकदमी करते हुए
अटपटे रंगों से सराबोर होते हुए
लहरों से
किताबों से जोड़ते हुए
प्रेम को
रेत पर शब्दों में लिखते हुए
कई-कई दिन बिताये थे
यहीं कहीं नदी मिली थी
अपनी शताब्दी की.
8.
पानी में डूबकर ही
पानी में डूबकर ही
उसकी गहराई को
नापता हूँ
और कोई दूसरा तरीका नहीं है
तुम कहते हो समय नष्ट होता है.
पहली नज़र में मैं
किसी से प्यार नहीं कर सकता
तुम कहते हो यह सब व्यर्थ है.
बहुत-सी चीज़ों से
मुझे डर लगता है
एक-एक कर उनमें
घुलमिल जाता हूँ
तुम कहते हो भ्रम है.
मैं धीरे-धीरे रोज़
सौम्य होकर मर रहा हूँ
तुम अब कि बार मौन हो
कितने सुन्दर लगते हो.
9.
अब समझने लगा हूँ
अब समझने लगा हूँ
कि उसे
मैं नहीं रोक पाऊँगा
हवा, तुम उसे जबरन रोक लेना
इतनी गति से बहना
कि उसे
उसकी प्रतिध्वनि न सुनाई दे.
नदी,
तुम उसके लिए अपना स्वभाव बदल लेना
बहक जाना
शायद वह उस रास्ते से निकले
बच्चों, तुम मुसकुराना
खिलखिलाना
तुम्हें देखकर शायद वह
शान्त हो जाये
अब समझने लगा हूँ
मृत्यु कितनी सहज हो सकती थी.
10.
मुझे मेरी उम्र ने
मुझे मेरी उम्र ने
हर बार धोखा दिया है
बार-बार रोका है
तुम्हारी दुनिया में आने से
इस शताब्दी का आदमी होने से.
मेरे प्यार ने
मेरी कविता ने- अज्ञानता ने
हर बार बचा लिया
मुझे सभ्य होने से.
शब्दों के सही-सही अर्थ
मुझे कभी समझ में नहीं आये
जैसे आत्महत्या के समय
सब कुछ धुंधला हो जाता है.
मैं आत्मसमर्पण के लिए तैयार हूँ
अपनी बेलौस देह
और निस्संग आत्मा के साथ.
11.
कुछ शब्द ही तो बोलने थे
कुछ शब्द ही तो बोलने थे
तुम्हारे रहते मैं बोल नहीं पाया
सुनता रहा, देखता रहा
लौट आया अपनी सीमा में
पक्षी बोलते रहे
भौंरा गुनगुनाता रहा
सबको नामों से सम्बोधित करना
बोलना नहीं है
चौंक जाना, डर जाना, विस्मय से देखना
शब्दों के संकेत नहीं हैं
मृत्यु भी ऐसे ही दिखती है कभी कभी
मौन शब्द नहीं
शब्दों का उत्स है
चलो,
इस शताब्दी का मौन ही बोल लेंगे.
12.
न होने की स्मृति है
न होने की स्मृति है
न होने का साम्राज्य है
लो, अब मैं एक मृत व्यक्ति हूँ
अजन्मा नहीं
अतीत है धड़कता हुआ
बोले हुए शब्द हैं
हँसती हुई तस्वीरें हैं
चेहरे हैं
लकीरे हैं
रौशनी से लिपटी हुई
पड़ोसी की खाँसी है
कल है
कल को पकड़ता हुआ परचम है
तुम हो
तुम्हीं से समुद्र है
लो, इस होने को मैं नकार रहा हूँ.
13.
इस कहानी का अंत
इस कहानी का अंत
दोपहर में ही होना था
ये धड़ कहानी भी नहीं है
प्रेम तो बिल्कुल ही नहीं
सूरज इधर उगता तो
कहानी उधर अँधेरे में चली जाती थी
रौशनी को तरसता उसका मुख्य पात्र
शब्दों को भी उजाला समझता था
इस कहानी की दुविधा
लेखक से बड़ी थी
स्पर्श उसके लिए भी नया था
पहली बार उसे
कोई नाम मिला था
इसी जन्म में वह पुनर्जन्म
महसूस कर रही थी
बस यहीं पर वह कहानी थी.
14.
अधूरी रह जायेगी उड़ान
अधूरी रह जायेगी उड़ान
हारी और थकी हुई चिड़िया की
स्वप्नों के साथ अनिद्रा और
मटमैला रंग होगा
कोई भी पहचान लेगा
कह देगा मृत्यु है
इकट्ठे हुए शब्द
देख रहे हैं, चुप हैं.
समझ रहे हैं
ये सन्नाटा है
इस दीवार की उम्र कितनी होगी?
एक ऋषि से पूछा गया था यह सवाल
उसने कहा
एक लिखावट है
जिसे प्रेम पढ़ा जाता है
एक बरगद है
जिसे आम कहते हैं
अदृश्य है, पारदर्शी है, महक है, दुःख है
एक आदिम आवाज़ है
भरपूर नज़र से देखना है
उत्सर्ग है
अन्दर की भूख है
ये सब इस दीवार की उम्र में शामिल हैं.
15.
एक लम्बी उम्र के बाद
एक लम्बी उम्र के बाद
पारदर्शी हो गया सोच.
किसी अर्थ में बेमतलब हो गया
ओस का मौसम
आँसुओं की तरह चुपचाप
बह निकला
संवेदनाओं का जुलूस.
सोच..
मेरा प्रेम था
संवाद था
प्रतीक्षा थी
कल्पनाओं की रागमाला थी
सोच
मेरा उत्तम पुरुष था.
16.
उस दिन
उस दिन
सूरज और मैं
हम दोनों
एक साथ उगे थे
अपनी-अपनी ज़मीन से
बाद में
सब कुछ बदल गया
बरसात का मौसम
गेहूँ की खेती
झाड़ों के नाम
नदियों का बहाव
हमारी पहचान
उस दिन
चिड़िया मेरे घर आयी थी
बिना कुछ कहे चली गयी.
17.
मेरे पास जो भी था
मेरे पास जो भी था
अर्जित किया हुआ
वो जुनून था
व्यक्तित्व था
आदतें थी
जुनून के आसपास का
सोच था
एक भ्रम था
उसे भी मैंने
जुनून में गढ़ा था
तुम थीं
कोई उम्मीद ज़रूर थी.
18.
किस हड़बड़ी में छूट गया मेरा नाम
किस हड़बड़ी में छूट गया मेरा नाम
शायद ज़रूरत ही नहीं पड़ी उन अक्षरों की
ऐसे कई नाम छूटते होंगे
छोड़ना पड़ता ही होगा
यूँ ही खड़ा रहता होगा जीवन
हाशिये की तरह
दस्तक देता हुआ
किनारे पर, अन्त में
देह अकेली गवाह होगी
इन नाशब्दों के उपहास को देखती हुई.
19.
एक स्त्री का प्रेम
एक स्त्री का प्रेम
उसके जगने में बिखरा हुआ है
जैसे पेड़ का
तितली का
नदी का.
हर जगह अनुपस्थित है
उसका प्रेम
लेकिन वह खोज नहीं
प्रेम उसकी स्मृति नहीं
आदत नहीं
वह बार-बार
क्षण भर को छू लेने को विवश है
लेकिन विवशता नहीं है
स्त्री का प्रेम
उसकी चेतना है
असहयोग है
अविश्वास है.
प्रेम उसका शरीर भी है
एक स्त्री का प्रेम
पुरुष के लिए
हस्तक्षेप है.
20.
आज मैंने बहुत-सा उजाला देखा
सुबह की इस घड़ी में
पूर्वी देशों के करोड़ों लोग
नींद से जागे होंगे
शायद जागते रहे हों
उठ गये
स्त्रियाँ एक कमरे से
दूसरे में चली गयीं
कल के सोचे हुए पर
जीवन चल पड़ा
विस्मित-सी प्रकृति ने दर्ज की होगी
मानवीय विरक्ति
कुछ क्षणों बाद
सतह से दो फुट नीचे बहते पानी ने लिखा होगा
उजाला.
21.
मंडी हाउस में फकीरी
तुम.
उस वेष को धारण करना
उस जुनून में रमे रहना
उस हवा
उस आवाज़ के घेरे में
उस ज़मीन के टुकड़े
उस धूप की महक
उस रंग के विस्तार को देखना
उस पूरे
नृत्य, कला, शब्द, संगीत
भावनाओं और
अनहद के संसार में
अनन्य रहस्य की तरह
एक फ़क़ीर
और किसी की मज़ार
वृक्ष में घोंसले की तरह
घर बसाये बैठे हैं.
जो सब जानते हैं
वे वहाँ
कुछ नहीं जानते
एक दूसरी भाषा के शब्द
वहाँ फूल की तरह बिखरे हैं
हर कोई
बच के चल रहा है वहाँ
चम्पा की गन्ध की तरह
याद आता है
मीठी नीम का दरगाह
याद आते हैं शंकर-शम्भू
नफीसा के नखरे
नुरुद्दीन का ठहाका
उसी धुन में
मैं कई सड़कें पार कर जाता हूँ.
(कविताओं का चयन गगन गिल ने किया है)
गगन गिल सन् 1983 में एक दिन लौटेगी लड़की कविता श्रृंखला के प्रकाशित होते ही गगन गिल (जन्म 1959, नई दिल्ली, शिक्षा : एम. ए. अंग्रेजी साहित्य) की कविताओं ने तत्कालीन सुधीजनों का ध्यान आकर्षित किया था. तब से अब तक उनकी रचनाशीलता देश-विदेश के हिन्दी साहित्य के अध्येताओं, पाठकों और आलोचकों के विमर्श का हिस्सा रही है. लगभग 35 वर्ष लम्बी इस रचना यात्रा की नौ कृतियाँ है-पाँच कविता संग्रह एक दिन लौटेगी लड़की (1989), अंधेरे में बुद्ध (1996), यह आकांक्षा समय नहीं (1998), थपक थपक दिल थपक थपक (2003), मैं जब तक आयी बाहर (2018) एवं 4 गद्य पुस्तकें दिल्ली में उनींदे (2000), अवाक् (2008), देह की मुंडेर पर (2018), इत्यादि (2018). अवाक् की गणना बीबीसी सर्वेक्षण के श्रेष्ठ हिन्दी यात्रा वृत्तान्तों में की गयी है. सन् 1989-93 में टाइम्स ऑफ़ इण्डिया समूह व सण्डे ऑब्जर्वर में एक दशक से कुछ अधिक समय तक साहित्य सम्पादन करने के बाद सन् 1992-93 में हार्वर्ड युनिवर्सिटी, अमेरिका में पत्रकारिता की नीमेन फैलो. देश वापसी पर पूर्णकालिक लेखन. सन् 1990 में अमेरिका के सुप्रसिद्ध आयोवा इण्टरनेशनल राइटिंग प्रोग्राम में भारत से आमन्त्रित लेखक. सन् 2000 में गोएटे इन्स्टीट्यूट, जर्मनी व सन् 2005 में पोएट्री ट्रान्सलेशन सेण्टर, लन्दन युनिवर्सिटी के निमन्त्रण पर जर्मनी व इंग्लैण्ड के कई शहरों में कविता पाठ. भारतीय प्रतिनिधि लेखक मण्डल के सदस्य के नाते चीन, फ्रांस, इंग्लैण्ड, मॉरीशस, जर्मनी आदि देशों की एकाधिक यात्राओं के अलावा मेक्सिको, ऑस्ट्रिया, इटली, तुर्की, बुल्गारिया, तिब्बत, कम्बोडिया, लाओस, इण्डोनेशिया की भरपूर यात्राएँ. भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार (1984), संस्कृति सम्मान (1989), केदार सम्मान (2000), हिन्दी अकादमी साहित्यकार सम्मान (2008), द्विजदेव सम्मान (2010), अमर उजाला शब्द सम्मान(2018) से सम्मानित. ई-मेल : gagangill791@hotmail.com |
कविताएँ ऐसी ज्यों बियाबान में पानी का निर्मल सोता फूट पड़ा हो । सभी कविताएँ इतनी नाज़ुक और आत्मीय उद्गारों से भरी हुई मालूम हुईं कि पढ़ते हुए लगता रहा, किसी कोमल हृदय स्त्री ने इन्हें लिखा है । सब कविताएँ मेरी आत्मा की कविताएँ हैं।
इन्हें पहली बार पढ़ा यह भी मेरी कमनसीबी है।
गगन जी की टीप बेहद सुंदर लगी। उनके शब्द सदा से जादू हैं तिस पर यह आत्मीयता पूर्ण स्मृति आख्यान मन को ख़ूब तरल कर गया।
अद्भुत कविताएं! पूरी पढ़ने के पहले ही मुझे अपनी प्रतिक्रिया देने को विवश किया। बहुत शुक्रिया आदरणीय गगन गिल जी की सुंदर भूमिका के लिए! शुभकामनाएं
पियानो की तरह हल्के सुरों में बजती कविताएँ। हमारे भीतर के बियाबान को एक कोमल संगीत से भरती हुई। प्रस्तुत करने का हार्दिक आभार।
विजय शंकर जी की कविताओं से आत्मीय सा परिचय कराने के लिए आपको और गगन गिल को साधुवाद।गगन गिल का चयन और टिप्पणी दोनों सुंदर।
कविताओं को पढ़ने से पहले गगन गिल की विजय शंकर के स्वभाव और लेखन पर लिखी गयी भूमिका गहरे अर्थ खोलती है । विजय शंकर अपने व्यक्तित्व और कृतित्व के संदर्भ में संकोची इन्सान थे । नागपुर में उन्हें हृदयाघात हो गया । वे दुनिया से जल्दी चले गये । परंतु विपुल रचना संसार छोड़ गये ।
अच्छी कविताएं हैं। ‘वयस्क होती लड़कियां (1)’ एकदम करेजाकाढ़ कविता है। दुःख की बात है कि यह कवि असमय और दुःस्थान में चला गया।
विजय शंकर का दिल्ली रेलवे स्टेशन पर हृदयाघात होने के कारण निधन हो गया ।
सहज होना सबसे कठिन है। वह चाहे जीवन में हो या सृजन में।विजय शंकर की कविताएँ पढ़ते हुए इस सच से साबका पड़ा।ये कविताएँ आपको अनुभूति के एक अलग छोर (भीतरी धरातल) पर लिए जाती हैं जहाँ चीज़ें बिल्कुल निथरी हुई एवं बाहर की बौद्धिक दुनिया से उलट-पलट हैं।शायद इसीलिए ये कविताएँ अति सहज होकर भी दुरूह हैं पर धीरे-धीरे खुलती हैं।इन्हें ठहर-ठहर कर पढ़ना होगा।समालोचन, गगन गिल एवं कवि को साधुवाद !
अंतर का उजास और अनुभूति का ऐश्वर्य इन कविताओं का प्राण तत्त्व है। गगनजी की भूमिका और प्रस्तुति साहित्य के सुन्दर और विश्वसनीय पक्ष को तो रखती ही है, साथ ही जीवन को जोड़ ,बाकी गुना भाग के रूप में देखने वालों के लिए एक बेहद जरूरी नजीर है।गगनजी का यह प्रयास साहित्य के संस्कार की जड़ों को। सींचने जैसा पुनीत उद्यम है।देशभर के छोटे छोटे नगरों में लुप्त होते सांस्कृतिक वातावरण और चेहरे को बचाने में विजयशंकर जी की भूमिका अहम रही है। मैं और मेरा शहर इसकी साक्षी है। क का बीकानेर जनपद विशेषांक इसका उदाहरण है। कृतज्ञ हूं कि भाई अरुणदेव ने इस जरूरी कार्य को उतनी गहराई और समझ के साथ ,सही अवसर पर हम सब के साथ साझा करने के लिए पहल की ।साधुवाद भाई
1. कितनी छोटी-सी इच्छा है तुम्हारी
(माँ के लिये)
कवि ने माँ की इच्छा के बारे में कुछ लिखना था । इसलिये छोटी-सी इच्छा लिख दिया । जगत को बताने के लिये लिखा । सच यह है कि माँ की कोई इच्छा नहीं होती । वह पुत्रों से कुछ नहीं माँगती । भारतीय संस्कार पुत्रियों से माँगने के लिये रोकते हैं । माँ पर लिखी गयी कविता, निबंध या कहानी द्रवित करती है । जैसे कुमार अंबुज के कहानी संग्रह इच्छाएँ में माँ के लिये लिखी गयी कहानी में । मेरे देखे यह दुनिया की सर्वश्रेष्ठ कहानी है । ‘धूप को पकड़ने का लालच’ अर्थात् जो संभव नहीं हो सकता । माँ की यही इच्छा भर है । थोड़ी दूर तक खुलती आँखें भी न पाने की निशानी है ।
I salute Gagan Gill for her superb tribute to Vijay Shanker ji.
She brings alive the man,the poet and the aesthete that he was so animatedly!
So warmly,so articulately,so authentically!!
And there could have been no better way than presenting these splendid poems of his.
Kudos to you too,Arun Deb ji.
Regards
Deepak Sharma
2. बार बार स्वाँग रचती है
बूढ़ी होने का मतलब अधिक आज़ादी और सम्मान मिलने की लालसा हो सकता है । यदि दूसरों को अपनी बात कहने की स्वतंत्रता मिलना है तो स्वागत योग्य क़दम है । अचानक मुझे हजारीप्रसाद द्विवेदी की जीवनी जिसे विश्वनाथ त्रिपाठी ने लिखा था (पुस्तक का नाम व्योमकेश दरवेश) की याद आ गयी । परिवार या परिचितों के किसी घर में विवाह होने पर द्विवेदी जी की पत्नी को मिलने वाली आज़ादी की याद आ गयी । बूढ़े होने का मतलब मर जाना क़तई नहीं होता । इस कविता में बाक़ी महिलाओं को उकसाने का भाव नज़र आ रहा है ।
Thank you, Gagan Gill Ma’am for compiling these gems and putting forth for the world to relish. Vijay Shankar ji was a man of honor and dignity who defied the norm of society and lived by his own set of principles. God took him away too soon. Om Shanti!
बहुत अच्छी कविताएँ। 1995 में विजय शंकर चंडीगढ़ में हमारे घर आये थे। तेजी को वे पहले से जानते थे। तब मैं पहली बार उनसे मिला था। उससे पहले मैं उनके बारे में इतना ही जानता था कि वे कहानीकार जयशंकर के दोस्त हैं जो हमें मिलते रहते थे। हम तीनों ने अपनी कुछ कविताएँ पढ़ीं, सुनायीं। तब उनका पहला कविता संग्रह आया ही था, जो वे हमें देकर गये। उस वक़्त वे मध्यप्रदेश में एक बैंक में काम करते थे। बाद में वे early retirement लेकर दिल्ली आकर रहने लगे। जहाँ तक मुझे पता है उनके पास पैसे की कमी रहती थी और दिल्ली में उनके वर्ष तंगहाली में ही बीते। एक बार जब उन्हें हृदयाघात हुआ तो उन्हें मित्रों से मदद लेनी पड़ी। उनके पहले दो कविता संग्रह हमारे पास हैं। तीसरे का मुझे पता नहीं था।
अकेलापन क्या हर कवि की नियति होगी? यह दुनियाँ हमारी कविताओं की तरह सुंदर क्यों नहीं होती? क्या एक कवि के मन में यह द्वंद्व हमेशा चलता रहता होगा? हमारी कविता बेशक हमारा कहना माने पर दुनियाँ हमारा कहना क्या इसलिए मान ले कि हम कवि हैं? लोगों ने तो भक्ति की भाषा में कविता की है और अपने आराध्य को लाकर अपने बराबर खड़ा कर दिया. कुछ ने अपने मनुष्य रूपी प्रिय को ही इतना ज्यादा रचा कि ईश्वर का आभास देने लगा. क्या कवि दुनियावी प्रेम की प्यास को कविता में उंडेलते और इस सेफ्टी वाल्व से भावनाओं का रेचन भर करते और असली भौतिक प्रेम से कतराने लगते हैं? अगर दूसरा कवि की भाषा नहीं सीख पा रहा तो क्या कवि के अपने कुछ तकाजे नहीं बनते? इस कविता ने तमाम सवाल दिमाग़ में उठाए. …. जवाब कुछ नहीं….
Wah, kya kavitayen hain. Gagan ji ko bahut dhanyavad ewam badhai.
दिल्ली रेल्वे स्टेशन पर एक कवि की हृदयगति का रुक जाना और अपने किसी का आसपास न होना…स्तब्ध कर देने वाली खबर थी। कवि लावारिश नहीं था। बहुत जल्दी इसकी शिनाख्त भी हो गई।
विजय शंकर कवि थे और क पत्रिका के संपादक। क एक गंभीर पत्रिका थी। उसे देख कोई भी समझ सकता था इसका धातव्य भी बिलकुल अलग है। गगन गिल जिस व्यक्ति के बारे में लिख रही हों उसे भी साधारण नहीं मान सकते। विजय शंकर के बारे में उनका लिखना ही बड़ी घटना है। कविता गर आत्मा का अंत:वसन है तो हम सहज ही जान सकते कि वह झीने आवरण से झांक तो रहा है और मौन और स्तब्ध।
गगन जी ने उनके व्यक्तित्व को सम्पूर्णता में उभारा है। सच है कि अपने लेखन के प्रति वे संकोची थे जबकि दूसरों के लिए निरंतर सोचते रहते थे। इस चुनौती भरे समय में उन्होंने कई सृजनात्मक हस्तक्षेप किये। उनके पास आगे के लिए कई योजनाएं थीं।
उनकी कविताओं में अनुभूतियों की विरल सूक्ष्मता और दुर्लभ दार्शनिकता है।
3. मैं
ईश्वर पर बात लिखना या उसे जानने के जतन जटिल हैं । हमारे आस-पास के व्यक्ति भी हमसे बड़े हैं । समय रोज़ रोज़ पुराना होकर भी नया होता जाता है । आस्था और अनास्था भी जटिल (convoluted) हैं । इन पर बात क्यों बंद होनी चाहिये ।
मैं विजय शंकर की इस कविता को समझ रहा हूँ । निरंतर समझने का प्रयास हम सभी में निखार लाता है । जिस प्रकार ईश्वर अपनी भाषा में बोलता है वैसे कवि भी । आस्थावान कहते हैं कि शब्द ही ब्रह्म है । एक सूक्ति है-अहं ब्रह्मास्मि-मैं ब्रह्म हूँ (बृहदारण्य उपनिषद) 1/4/10.
जिनकी जिह्वा पर सरस्वती है वे मेरे लिये श्रद्धेय हैं ।
इतनी सुंदर और सहज कविताओं से गुजरना किसी सुंदर दिन से गुजरना हो …..आभार समालोचन और गगन गिल जी
करुण कविताएँ🙏🙏
ऐसी कविताएँ चंद लोग ही लिख पाते हैं वरना कविता कहने से ज़्यादा भाषा के पांडित्य का प्रदर्शन अधिक होता है।कविताएँ जितनी सहज होती हैं उतनी ही घुलनशील हो जाती हैं, पाठक को वो अपनी कविताएँ लगती हैं। अरुण सर को बहुत धन्यवाद इतनी नायाब रचनाएँ पढ़वाने के लिए।
विजय शंकर की सभी कविताओं को पढ़ लिया है । हर बार कुछ न कुछ छूट जाता है । जैसे समय हमारा साथ छोड़ जाता है । फिसल जाता है । चिड़िया आयी भी बिना कहे थी और ऐसे ही चली गयी । दाना या रोटी का टुकड़ा उसके आने का कारण था ।
कितनी घटनाएँ अनायास घटती हैं । जैसे दिन में मुझे नींद का आ जाना । लिखते हुए मोबाइल का हाथों से फिसल जाना । झपकी लगना और किसी स्वप्न का दिख जाना । सपना जितनी तेज़ गति से चलता है शायद समय भी नहीं ।
बिल्कुल सहज और सुपाठय कविताएँ ।
विजय शंकर जी की इन कविताओं में अंतर्मन संवेदनाओं का विरल भव है। कलाओं से उनके गहरे नाते को भी अनुभूत करते इन अर्थगर्भित, पर सहज कविताओं में उनके उस दार्शनिक मन को बांचा जा सकता है जिसमें लोक का आलोक है।
गगन गिल जी ने भी कविताओं और उनके व्यक्तित्व पर संक्षेप में बहुत उम्दा लिखा है।
TQ V much Gagan ji for compiling shankar ji poems, v nice way of giving him a salute. He was so near to us but still we could not know him better, than too his poems. I n joyed All his writings, especially, “Ab samajhne laga hoon.’ my humble salute to shankarji. May God give him peace. Om shanti, trivar shanti.
विजयशंकर जी विरल थे। उनकी इन अर्थगर्भित पर सहज कविताओं में उनके कला—मन को बांचा जा सकता है। गगन गिल जी ने भी उनके व्यक्तित्व और काव्य पर संक्षेप में बहुत उम्दा लिखा है।
वह एक ही थे अपने आप में अकेले, उनके जैसा कोई दूसरा व्यक्ति इस जीवन में तो नहीं देखा और न उनके जैसा लिखा कहीं पढ़ा। उनकी कविताओं में मैं अक्सर खो जाता था और समा जाता था इनकी गहराइयों में। उनकी कविताएँ ऐसी हैं कि आप अकेले में उन कविताओं के साथ बातें कर सकते हैं। बिल्कुल उनके जैसी ही हैं उनकी कविताएँ भी।
हालाँकि विजय जी उम्र में मुझसे बहुत बड़े थे, पर हम मित्र थे। उनके व्यक्तित्व का मैं ऐसा मुरीद बना कि मेरी उनसे गहरी दोस्ती हो गयी थी। विजय जी ने मुझे अपनी ही चीज़ों को ख़ारिज करना सिखाया। वह मेरी यादों में बसे हैं, मेरे अंतस तक समाए हुए हैं। क्या लिखूँ… शायद यह लिखने का विषय नहीं बल्कि महसूस करने का है, उन्हें जीने का है। काश कि वह वक़्त ठहर जाता! काश वह और रुक पाते! जो कुछ हमने सोचा था, वह सब हम साथ मिलकर कर पाते। और सबसे बड़ी बात कि उनके लिए कुछ तो कर पाते। मगर क्या ही कहूँ, यह सब बातें हमेशा प्रश्नांकित करती रहेंगी।
अभी तक सुबहा रहती है कि कहीं से उनकी आवाज़ आ जाएगी और वह बोलेंगे- और जनाब! कैसे हो?
गगन जी बहुत बहुत शुक्रिया इतनी सुन्दर भूमिका के लिए , इससे बेहतर कुछ भी नहीं हो सकता था , जो उनके व्यक्तित्व के गहरे अर्थों को खोलती है .. और उनके व्यक्तित्व को सार्थक करती हैं .. अरुण देव जी आपको बहुत बहुत साधुवाद आपने विजय जी की कविताएँ को गगन जी की सुन्दर भूमिका के साथ पब्लिश किया.
बहुत बहुत धन्यवाद !
सादर!
– विजेन्द्र एस. विज
विजय शंकर की कविता पर इतनी गहन,आत्मीय, और अर्थमय प्रतिक्रियाएं खुद बता रही हैं कि हम सब ने एक विरल किस्म का कवि और इंसान खो दिया है। गगन गिल की भावपूर्ण भूमिका,और “किस हड़बड़ी में छूट गया मेरा नाम ” कविता , और भी बहुत कुछ बताती हैं। हम में से अनेक की हड़बड़ाहट के बारे में भी।
रुस्तम और मैं भी विजय शंकर से ख़ूब मिला करते थे।
और गगन ने बहुत कम शब्दों में उनके होने के मर्म को छू लिया है।
उनकी अधिकांश कविता खरी और उत्कृष्ट है। उनकी कुछ पंक्तियों को बार बार मन में उद्दीप्त होते हुए महसूस करती हूँ।
जो जीवन उन्होंने चुना वह कवि का जीवन था। अच्छे कवि तो फिर भी मिल जाते हैं, ऐसे कवि कम मिलते हैं जिन्होंने कवि के जीवन का इंतखाब किया हो …जो अडिग उस कठिन मार्ग पर चलते रहे हों जो अच्छे कवि भी अपने लिए तराश नहीं पाते।
कविताएँ ऐसी ज्यों बियाबान में पानी का निर्मल सोता फूट पड़ा हो । सभी कविताएँ इतनी नाज़ुक और आत्मीय उद्गारों से भरी हुई मालूम हुईं कि पढ़ते हुए लगता रहा, किसी कोमल हृदय स्त्री ने इन्हें लिखा है । सब कविताएँ मेरी आत्मा की कविताएँ हैं।
इन्हें पहली बार पढ़ा यह भी मेरी कमनसीबी है।
गगन जी की टीप बेहद सुंदर लगी। उनके शब्द सदा से जादू हैं तिस पर यह आत्मीयता पूर्ण स्मृति आख्यान मन को ख़ूब तरल कर गया।