II विनोद कुमार शुक्ल से रवीन्द्र रुक्मिणी पंढरीनाथ की बातचीत II |
- विनोद जी, प्रणाम और बहुत-बहुत धन्यवाद कि इतनी मुश्किलों में आप ने हमें समय दिया. पिछली बार यह मुलाक़ात होते-होते रह गयी. इस बार मैंने ठान लिया था कि आप से मिलकर ही रहेंगे. ई-मेल से बातचीत करने में कोई मज़ा नहीं आता. आप से भेंट हो, कुछ सुनने को मिले, यह महत्व की बात है. मैं पहले सोचता था कि आप से कैसे बात करूँ? मेरा हिन्दी साहित्य का अध्ययन बहुत ही सीमित है. आप को पढ़ा है और जो भी पढ़ा है उसे लेकर मन में कृतज्ञता का भाव है. छोटा था तब रेणु जी को पढ़ा था. उन को पढ़ने के बाद मन में जो भाव जागा था, वैसा ही कुछ आप की कविता, या ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ पढ़ने के बाद जागा था. मैं अपने युवा मित्रों से कहता हूँ कि ‘दीवार में खिड़की पढ़ो’, ताकि समझ में आये कि प्यार क्या होता है. खैर, मेरी दिक्कत यह है कि मैंने साहित्य का बाकायदा अध्ययन नहीं किया. मैं समीक्षा की परिभाषा नहीं जानता. आप का समूचा साहित्य मैंने पढ़ा नहीं और हमारी मराठी पत्रिका के पाठक, आप के साहित्य से और भी कम परिचित हैं. इसलिए संपादक के रूप में मैं आप से क्या पूछूँ, इस बात को लेकर मैं चिंतित था. फिर मैंने सोचा कि आज के समय को लेकर मेरे मन में एक लेखक या व्यक्ति के रूप में जो भी सवाल हैं, वह मैं आप से पूछूँ. फिर बातचीत का सिलसिला जैसा चले, चलने दें.
मेरी दिक्कत है कि आज के समय में मेरी उपस्थिति बहुत कम है. मैं बूढ़ा हो चुका हूँ और मेरा समय मेरे बुढ़ापे की तरह ही है. मैं घर से बाहर निकलता नहीं. मेरा लोगों से मिलना-जुलना कम हो गया है. मैं सिमट गया हूँ. अब मेरी दुनिया मेरे घर के क़रीब हो गयी है और मेरे घर में ज़्यादा हो गयी है. बरामदे के झूले पर बैठ कर मैं सड़क के लोगों को आते-जाते देखते रहता हूँ. उन्हें देखकर मैं उनकी दुनिया की कल्पना करता हूँ. उन में स्त्री, पुरुष, स्कूल जाने वाले और न जाने वाले बच्चे होते हैं. उन्हें देखकर मैं दुनिया की कल्पना करता हूँ. कोरोना के काल में यह दुनिया और भी सिमट गयी थी. मैं सड़क को दुनिया देखने का रंगमंच मानता हूँ. इन सड़क के लोगों के आने-जाने से, होने से, मेरी कल्पना को उड़ान देने से, मैं दुनिया की कल्पना करता हूँ.
- यह जो सिमटी-सी आज की दुनिया आप देख रहे हैं, और जो आप ने पहले देखी है, जिस में आपकी जड़ें समाई हैं वह गांव की दुनिया, जो आदिवासियों के बहुत क़रीब है, क्या उससे बहुत दूर आ गए हैं हम लोग?
मैं बहुत ही घुमक्कड़ किस्म का व्यक्ति कभी नहीं रहा. मैं बहुत ज्यादा बाहर नहीं निकला, और चूंकि मैं लिखने पढ़ने में लग गया था, मुझे भारत में इधर-उधर जाने का जो मौका मिला, वह केवल लिखने-पढ़ने की वजह से ही है. जहाँ मुझे निमंत्रित किया गया, बुलाया गया, मैं वहीं गया. अपने मन से घूमने के लिए मैं कहीं नहीं गया. मेरे पास समय कम था, मुझे लगता था कि मेरा सारा समय जो है, यहीं होने से, अपने घर वालों के साथ होने में बीत जाता है, और मुझको लगता था कि समय की कमी है. इस समय की कमी के साथ में मेरे बचपन का जो हिस्सा है, वह बहुत मुश्किलों में बीता हुआ है. हम लोगों की गृहस्थी नहीं के बराबर धन से शुरू हुई थी.
जब मेरी बेटी पत्नी के पेट में आई थी, तब उसे जनाना अस्पताल में ले जाने के लिए जमा पूंजी सिर्फ सौ रुपए थी. यद्यपि उस समय वह सौ रुपए बहुत ज्यादा थे. मुझे अपनी नौकरी से जो वेतन मिलता था, उस का अधिकांश हिस्सा अपने परिवार में, माँ और भाइयों के बीच खर्च करना पड़ता था, क्योंकि मेरे बड़े भाई कुछ ऐसा काम करते नहीं थे. हम तीन भाई थे; जो सब से बड़े भाई हैं, उनकी मृत्यु हो गई और जो सबसे छोटे भाई हैं उनकी भी मृत्यु हो गई. बड़े भाई की कुछ खास कमाई नहीं थी, घर में कुछ खेती थी, संयुक्त परिवार था, पांच चाचाओं का परिवार था, तो उसी में रहते थे. चूंकि, जब मैं सात-आठ साल का रहा होऊंगा, तब मेरे पिता की मृत्यु हो गई थी. हम हमारे छोटे चाचा के आश्रय में रह कर पले बड़े; हमारा पूरा परिवार पला बड़ा. आज हम इस स्थिति में हैं, वह हमारे छोटे चाचा किशोरी लाल शुक्ल की वजह से, जो दिग्विजय महाविद्यालय के प्राचार्य भी थे. उन्हीं के प्रयत्न से और उन्हीं की सलाह से ही दिग्विजय महाविद्यालय की स्थापना हुई और मुक्तिबोध भी उन्हीं के कारण राजनांदगांव आए और वहीं स्थापित हुए. उस समय उनकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी, राजनांदगांव में आने के बाद ही वह ठीक हुई. वह नागपुर में पता नहीं कहाँ, किसी तालाब के पास रहते थे, शुक्रवारी तालाब था शायद.
- जी, उनके भतीजे अभी हैं वहाँ पर, हम मिले हैं उनसे.
तो मैं यह कह रहा था कि अगर मैं कहीं विदेश भी गया, तो कविता पाठ के कारण ही गया. खुद होकर, अपने पैसों से मैंने कोई घुमक्कड़ी नहीं की, न मेरे परिवार ने की है. हम लोग सिमटे हुए रहे. तो जो कुछ भी मेरा अनुभव है, वह अनुभव यहीं का है, इस अनुभव को आप छत्तीसगढ़ का अनुभव कह सकते हैं.
- एक ज़माना था, जब कई सारे भारतीय रचनाकार परंपरा की ज़मीन में अपनी जड़ें गहरी जमा कर लिखते थे. अभी के जमाने में आप ही हैं, जिनकी जड़ें परंपरा में हैं, जो परंपरा को समझते हैं, जो समाज को समझते हैं, साथ में होने को समझते हैं. तो मेरा सवाल यह है कि आज जब पूरी दुनिया से आस्था गायब हो रही है, लोगों का किसी चीज में विश्वास नहीं रहा, अंधी दौड़ चल रही है, धार्मिक उन्माद बढ़ रहा है, धर्म और जाति को लेकर हिंसा बढ़ रही है; ऐसे वक्त आप अपनी आस्था को कैसे जिंदा रखते हैं?
देखिए, मेरी आस्था जो है वह मनुष्यता की तरफ है. हिंसा, कट्टरता जैसी चीजें जब किसी धार्मिक आस्था से जुड़ती हैं, तो वह मुझ को अच्छा नहीं लगता. गांधीजी का प्रभाव हम लोगों के परिवार में बहुत रहा. मैं छोटा था जब ३० जनवरी शाम को गांधीजी की मृत्यु का समाचार राजनांदगांव में हमको मिला. राजनांदगांव एक छोटी सी जगह थी, एक कस्बा ही था. मेरा घर ठीक कृष्णा टाकीज के सामने था, जहाँ मेरा जन्म हुआ. अम्मा कहती थी कि, जिस दिन मेरा जन्म हुआ, उसी दिन कृष्णा टाकीज का उद्घाटन हुआ. हमारे घर की सामने वाली सड़क पर बहुत उजाला होता था. एक तो टाकीज की वजह से, और ठेले में जो कार्बाईट के लैंप जला करते थे. उस टाकीज को खुलवाने में हमारे परिवार का, मेरे पिता और हमारे चाचाओं का भी हाथ था. सप्रे ब्रदर्स की टाकीज थी वह, उसके जो मैनेजर थे, वह क्षीरसागर थे.
- आप ३० जनवरी की बात कर रहे थे.
हाँ, जब गांधीजी की हत्या का समाचार नांदगांव में आया, तो लोग अपनी अपनी जगह में अलग-अलग सिमट कर के आपस में बात करने लगे, और पूछने लगे कि यह क्या हुआ? कैसे हुआ? क्यों हुआ? उन की आँखों में आँसू भरे हुए थे. घर में भी सब रो रहे थे. चूंकि, घर में बड़े रो रहे थे, तो बच्चे भी उनको देख कर रो रहे थे. मैं उस समय सड़क पर था, और जो लोग जगह-जगह झुंड बना कर के आपस में गांधीजी की मृत्यु की चर्चा में लगे हुए थे, उनके बीच जाकर कुछ सुनने की कोशिश कर रहा था. तो वहीं कार्बाईट की लैंप की रोशनी में मुझे एक रुपए का सिक्का मिला. चांदी का सिक्का था वह. सिक्का मिलने के बाद मैने आस-पास देखा, एक दो लोगों से मैंने पूछा तो किसी ने ध्यान ही नहीं दिया, सब आपस में गांधीजी के बारे में ही बात कर रहे थे. फिर मैं वह चांदी का सिक्का ले कर माँ के पास गया. माँ उस वक्त रो रही थी, तो मैंने अम्मा को बताया कि, “अम्मा, ये मुझको एक रुपए का चांदी का सिक्का मिला है, मैं इस का क्या करूं?”, तो अम्मा ने कहा, “तुमने किसी से पूछा नहीं ये किसका सिक्का है?” मैंने कहा,“मैंने पूछा था, लेकिन किसी ने बताया नहीं कि ये सिक्का उनका है, तो मैं अब क्या करूं इस सिक्के का?” तो उन्होंने कहा कि “सवेरे कांदीवाले (हरी घास बेचने वाले) घास का बोझा लेकर निकलेंगे, तो तुम घास का बोझा सड़क पर डलवा देना. एक रुपए की जितनी भी घास आए,वह सड़क पर बिछा देना.”
तो मैंने बड़े सवेरे उठ कर कांदी खरीदी, एक रुपए में बहुत सी कांदी आयी थी. तो मैंने उन कांदी वालों से कहा कि तुम इसे सड़क पर बिछा दो, तो सड़क में उन्होंने बिछा दिया और उस पर गायें चरने लगी. एक बात जो मैं मुख्य रूप से कहना चाहता हूँ इसमें, कि जब मैं बड़ा हुआ तो मैंने इस घटना को याद किया, गांधीजी की मृत्यु की घटना को. उस वक्त तो एक तांबे का पैसा भी मिल जाता था, तो भी एक बड़ी बात होती थी, बहुत सारी चीज़ें आ जाती थी. एक तांबे के सिक्के में दो जलेबी आ जाती थी. तो मैंने यह सोचा कि गांधीजी की मृत्यु मुझे क्यों याद है? क्या गांधीजी महात्मा थे, घर में, सड़क में सब रो रहे थे, क्या इसलिए याद है? लेकिन जब मैं गांधीजी की मृत्यु को याद करता हूँ तो मुझे वह एक रुपए का सिक्का क्यों याद आ जाता है? तो क्या एक रुपए का सिक्का मिलने की वजह से मेरे मन में गांधीजी की याद बनी हुई है उस समय की? या गांधीजी की वजह से वह एक रुपए का सिक्का मिलना मुझे याद है? तो मैं इसे जानने और समझने की कोशिश करता.
गांधीजी के अर्थशास्त्र को मैं आजादी के लिए, उस समय के लिए और आज की इस स्थिति में जो आधुनिकतम बाज़ार है उस से निपटने के लिए महत्वपूर्ण मानता हूँ. गांधीजी में अर्थव्यवस्था से लड़ने की सूझ थी. अपनी सारी जरूरत की चीज़ें हमारे आस-पास और हम से हीं हो, ये उनकी अर्थव्यवस्था थी. वह अर्थव्यवस्था उस समय के लिए अनुकूल थी, क्योंकि उस समय सारी चीज़ें गांव में सिमटी हुई थी. वहीं लोहार भी मिल जाता था, अगर चाकू में धार करानी है, तो वह भी वहीं मिल जाता था. बाहर से कोई चीज की जरूरत ही नहीं पड़ती थी. लेकिन अब हर चीज बाहर से आती है और बाहर से आई चीजों का जोड़ है. अब जो बाज़ार है वह स्थानिक न रह कर के वैश्विक बन गया है, और बिना दुनिया के बाज़ार चलाना मुश्किल हो गया है. स्थितियाँ बदल गई हैं. हो सकता है कि आज गांधीजी होते तो और भी स्थितियाँ बदल जाती और हिंद स्वराज में कुछ और चीज़ें आ जाती.
बिना स्थानिक हुए आप वैश्विक नहीं हो सकते, आप जितने स्थानिक होंगे, उतने वैश्विक होंगे. तो मैं बहुत स्थानिक किस्म का व्यक्ति रहा हूँ, और मुझ में जो कुछ भी वैश्विकता की जानकारी है, वह अधिक स्थानीयता की वजह से है.
- ये बहुत ही जरूरी और मौलिक बात कही आपने, कि आप जितने स्थानिक होते हैं, उतने ही वैश्विक हो पाते हैं, क्योंकि उसी में सब जड़ें-परंपराएँ आ जाती हैं. आज तो लोगों के संबंध टूट गए हैं, बिखर गए हैं. वह जिस वैश्विकता की बातें करते हैं, वह बाज़ार से संचालित वैश्विकता है. उस में आस्था, विश्वास और सम्बन्धों के लिए कोई जगह नहीं बचती, उसमें सिर्फ बाज़ार ही बचता है. इसलिए यह सवाल, जो मैं आप से पूछने ही वाला था, बेहद महत्त्वपूर्ण हो जाता है -क्या आप आस्तिक हैं? आपके लिए आस्तिकता के मायने क्या हैं? और रचनाकार को आपके अर्थ में आस्तिक होना कहाँ तक जरूरी है?
हमारे घर का जो वातावरण रहा बचपन से, वह धीरे-धीरे काफी प्रगतिशील होता रहा. हम लोग ब्राह्मण हैं, कान्यकुब्ज ब्राह्मण. “दुर्गा जी हम लोगों की कुलदेवी रहीं हैं. हमारे बाबा पहले देवी को बकरे की बलि चढ़ाते थे, तो उनके बेटे माँसाहारी हो गए, और ये सिलसिला चलता रहा. वैसे छोटे चाचा जी बहुत प्रोग्रेसिव थे. मेरी माँ ने धीरे-धीरे बकरे की बलि का रिवाज बदल दिया. उनका बचपन बंगाल में बीता. बंगाल में भी यह बलि देने की प्रथा थी, लेकिन अम्मा उसे नहीं मानती थीं. अम्मा माँसाहारी नहीं थीं, क्योंकि नाना भी माँसाहारी नहीं थे, वे उत्तरप्रदेश से गए थे और वहाँ मिट्टी तेल का व्यापार करते थे. पद्मा नदी के किनारे जमालपुर था, वहाँ रहते थे. दंगे में उनकी मृत्यु हो गई, तो पूरा परिवार लौटके कानपुर आ गया.
तो अम्मा ने तिल का बकरा बनाया और उसकी बलि दे दी. कहा – “तुम लोग इसे चाकू से काट दो और भगवान को तिल से बनाया हुआ यह प्रसाद चढ़ाओ और वही खा लो.” इस तरह अम्मा कोशिश करती थीं कि ये रिवाज खतम हो जाए. माँ आस्तिक भी थीं, और प्रगतिशील भी. “ मेरी पत्नी आस्तिक हैं. वह अगर कहीं मंदिर जाती हैं, तो मुझे उसे मंदिर लेकर जाना पड़ता था. अगर वह मंदिर में हाथ जोड़ती हैं, तो मैं भी हाथ जोड़ता था. वह प्रार्थना करती थीं, ईश्वर से कुशल-मंगल या जो भी कुछ भी माँगती थीं हमारे परिवार के लिए और मैं तब कहता था ईश्वर से, कि मुझे एक अच्छा मनुष्य बना दो.
इस बात की मैंने हमेशा कोशिश की, और अच्छा मनुष्य बनने के लिए मैंने बराबर संघर्ष किया. वह संघर्ष अभी खतम नहीं हुआ है. हम मरते दम तक एक अच्छा मनुष्य बनने की कोशिश करते हैं. ये लिखना पढ़ना भी एक अच्छा मनुष्य बनने की कोशिश की कथा है, ये लोगों की कथा है कि मैं उनके साथ एक लोग की तरह शामिल हूँ. मैंने इस बात की कोई कोशिश नहीं की, ऐसा कोई दबाव नहीं बनाया कि मेरी पत्नी अपनी आस्तिकता को और ईश्वर के मूर्तिपूजन को छोड़ दे. वह अभी भी पूजा करती हैं.
अम्मा के जमाने से घर में दिया जलाने का रिवाज था तुलसी के चौरे में, मेरी पत्नी अभी भी रोज तुलसी के चौरे में दिया जलाती है. मैं इसको एक परंपरा की तरह देखता हूँ, मुझको ये बहुत अच्छा लगता है कि घर में दिया जल रहा है. चूंकि मैं इसको एक परंपरा की तरह देखता हूँ कि घर में दिया जल रहा है, तो पत्नी कभी-कभी भूल गई, या उसे दिया जलाने की याद देर से आई, तो मैं उसे याद दिलाता हूँ, कि तुमने अभी तक दिया नहीं जलाया. मेरी आस्था, मेरी आस्तिकता, मेरे परिवार के साथ में है और मेरी प्रार्थना हमेशा से यही रही है कि मुझे एक अच्छा मनुष्य बना दो.
- तो आपकी आस्तिकता की व्याख्या मनुष्य का अच्छा होना यह है?
हाँ, मेरा यह ख़याल है कि इस तरह की आस्तिकता प्रत्येक मनुष्य में होनी चाहिए. अच्छा मनुष्य होने का मतलब है अच्छे संसार का होना.
- क्या हर किसी रचनाकार के लिए इस अर्थ में आस्तिक होना जरूरी है?
रचनाकार को होना चाहिए या नहीं, मैं इस बात को नहीं जानता. मैं अपनी बात कह रहा हूँ और अपनी बात कर रहा हूँ.
- आपने कभी यह कहा था कि यह जरूरी नहीं कि हर रचनाकार अच्छा मनुष्य हो, लेकिन अगर वह अच्छा मनुष्य बनता है, तो अच्छा रचनाकार भी बन सकता है.
शायद मैंने यह किसी (विशिष्ट) संदर्भ में कहा है. कई बार स्थितियाँ ऐसी होती हैं कि बुरे मनुष्य के रूप में उसकी आलोचना सामाजिक तौर पर होती है, लेकिन वह अच्छे रचनाकार के रूप में भी जाना जाता है. एक अच्छा संगीतकार या चित्रकार भी कुछ स्थिति और परिस्थितियों में अपराधी हो सकता है. कब, किससे, किस स्थिति में क्या हो जाए और समाज उसको क्या मानता है ये बिलकुल अलग बात है. लेकिन जिस समय वह रचना के साथ में होता है, वह एक अच्छे मनुष्य के रूप में ही होता है.
- आपने कहा था कि आप परंपरा को लेकर चलते हैं, अपने आपको परंपरा का हिस्सा मानते हैं. उस परंपरा में बहुत सारी चीज़ें आती हैं, अच्छी भी आती हैं, बुरी भी आती हैं. लेकिन जो भी हो, उस परंपरा का मैं हिस्सा हूँ, ऐसा आप मानते हैं?
परंपरा का मतलब अच्छी परंपरा से है, और समय के अनुसार अनुकूल परंपरा से है. परंपरा अपने आप बदलती है; समय की स्थितियाँ और परिस्थितियाँ इस तरह से बनती हैं, कि जो परंपरा उसके अनुकूल नहीं है, वह बदल जाती है और समय के अनुकूल हो जाती है. यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. जैसे ऋतुएँ बदल जाती हैं, वैसे परंपरा बदल जाती है. आज से पता नहीं पहले जब बरसात होती थी, तो कितनी बरसात होती थी. हम पुरानी चीजों को समेट कर रखना चाहते हैं. हम उन्हीं अच्छी चीजों को समेट करके रखें, जो हमारी परंपरा में कभी रहीं हों. स्थितियों और समय के बदलने के अनुसार हमें बीते हुए के बारे में आज के समय के लोगों को जरूर बताना चाहिए. ये साथ में होने का जरूरी हिस्सा है. बिना अनुभव के, किसी दूसरे का अनुभव हमारा अनुभव बने, और हम अपने अनुभव के अनुसार, जो हमारे लिए जरूरी है, उसको अपना लें.
- समय की विडंबना ऐसी है कि समाज में, साहित्य में जो प्रगतिशील तत्त्व हैं, उन्होंने परंपरा का दामन छोड़ दिया है और जो परंपरा की बात करने लगे हैं, वे मूल्य विवेक की बात नहीं करते. मुझे लगता है कि 20वीं शताब्दी यह परिवर्तन की शताब्दी थी, लोग परिवर्तन को मानते थे. 21वीं शताब्दी में लोग बहुत ज्यादा असुरक्षित हो गए हैं. भूमंडलीकरण हो या कुछ भी हो, लोग परंपरा को पकड़ कर रखना चाहते हैं, अपनी जड़ों की तरफ जाना चाहते हैं. अपनी जड़ों को ढूंढने की प्रक्रिया में लोग परंपरा की दिशा में जाते हैं, कभी जाति को पकड़ते हैं, कभी धर्म को पकड़ते हैं. लेकिन जो परंपरा को पकड़ने के लिए जाते हैं, वह गलत प्रभाव में आते हैं, और जिनके पास मूल्य विवेक है, अच्छाई है, वे परंपरा को नहीं मानते. लेकिन आप कहते हैं कि मूल्यों के आधार पर तय करो कि परंपरा में क्या अच्छा है, क्या नहीं और अच्छी परंपरा को संवारो, लोगों तक पहुंचाओ, उनको शरीक करो… शायद यही रास्ता अभी बचा हुआ है और ऐसे लोग बहुत विरल हैं, जो परंपरा को लेकर जाते हैं और परंपरा की अच्छाई को लेकर सामने आते हैं.
हाँ, लेकिन तब भी स्थितियाँ और परिस्थितियाँ जो होती हैं, उनकी ताकत होती है. उसको चाहे मजबूरी कह लें, या फिर कोई और कारण, लेकिन स्थितियाँ बदल जाती हैं. कोई ऐसी घटना हो जाती है, जो परंपरा के बिल्कुल विरोध में होती है, जाति के विरोध में होती है; लेकिन मजबूरी में आदमी उसको स्वीकार करने की कोशिश करता है. तो परंपरा के इस होने-न-होने के संघर्ष को पुराने ज़माने से और अभी के ज़माने से मिलाकर देखें, तो ज़मीन आसमान का फर्क हो गया है. चीज़ें बहुत बदल गई हैं पहले से. अब वह ५ हजार-१० हजार साल पुरानी स्थितियाँ नहीं रही, सारी स्थितियाँ बदल गई हैं. परंपरा को कितना भी समेटना चाहे, हम नहीं समेट सकेंगे. लेकिन हमारी याददाश्त जितना समेट पाती है, उतना हम समेट लेते हैं और समय के अनुसार तो चीजें बदलती रहती है. समय भी एक परंपरा है. देखिए, जिस तरह समय हमेशा एक-एक पल में बदलता रहता है, तो परंपरा भी समझ लीजिए कि एक-एक पल में बदलती रह सकती है.
- आप बार-बार कहते रहे हैं कि आप घर-घर जाते हैं, लोगों से कहते हैं कि अच्छे लोगों की कमी नहीं है, तो यह विश्वास कहाँ से आता है? क्या आप को आज भी लगता है कि आज के समय में अच्छों की कमी नहीं है?
हाँ ज़रूर!
- तो फिर वह अच्छे लोग दिखाई क्यों नहीं देते हैं? सुनाई क्यों नहीं देते हैं?
अच्छे लोग हमारी उम्मीद में रहते हैं, और यह उम्मीद हम लोगों को बनाए रखनी है कि दुनिया में अच्छे लोगों की कमी नहीं है. इस उम्मीद को बनाए रखना है, इस उम्मीद को छोड़ना नहीं है. अगर कहीं साथ होने का कोई मतलब निकलता है, कि हम औरों के साथ हैं, अकेले नहीं है, तो इसी उम्मीद के कारण हम हैं.
अब आप यह देखिए बच्चे कैसे आपस में एक झुंड बना लेते हैं, और उनका अपनापन हो जाता है. परिवार की स्थिति अलग है, बाहर की स्थिति अलग है, सड़क की स्थितियाँ अलग हैं, पड़ोस की स्थितियाँ अलग हैं. हमें इसीके अनुसार पूरे संसार को अपने पास में, अपने विचार में, अपने होने को समेट करके रखना है.
- आपने अपनी कविता में कहा था कि, अंधा आदमी जो टटोलकर पूरे विश्व को देखता है, वह सच्चे अर्थ में महसूस करना है कि सीमाँत को अगर महसूस करना है, क्षितिज तक पहुंचना है, तो टटोलकर ही जाना जा सकता है. यह बहुत ही महत्वपूर्ण बात है, जो शायद ही कोई कहता है. क्या आप इसे कुछ विस्तार से बताएंगे ?
इसका मतलब यह है कि, जब तक नज़दीक नहीं होंगे किसी के, मनुष्य के रूप में जी नहीं पाएँगे. मनुष्यता का मतलब होता है समीप होना; दूरी को समीप ले आना यह मनुष्यता का अर्थ होता है. और वैश्विकता का अर्थ यही है की दुनिया हमारे कितनी समीप है. यह मनुष्यता की दूरी को समीप करना है. जिन को हम जानते भी नहीं, जहाँ कभी हम जायेंगे भी नहीं, ऐसी जगहें हैं जहाँ तरह-तरह के लोग रह रहे हैं. लेकिन यहाँ हम अपने पड़ोसियों के साथ अच्छे से रह रहे हैं, तो इसका मतलब है कि सारी दुनिया में लोग अपने पड़ोसियों के साथ अच्छे से रह रहे हैं.
हम यहाँ जिस तरह जैसे होते हैं, हम दुनिया को उसी तरह देखने और समझने की कोशिश करते हैं. दुनिया वैसी ही होती है, जैसे हम होते हैं. हमारे लिए दुनिया बहुत अच्छी हो, यही सोचना चाहिए.
- आप सभी के समीप होने की, सब से प्यार करने की बात कह रहे हैं. लेकिन आज के जमाने में प्रेम की बात करना ख़तरे से खाली नहीं है.
आपका मतलब स्त्री-पुरुष के प्रेम से है?
- किसी भी तरह का प्रेम. हम मानवता की बात करते हैं, व्यापक बनना चाहते हैं. लेकिन आज वह दौर चल रहा है, जिसमें हिंदू, मुसलमान को बांट कर देखा जाता है, जाति के नाम पर विद्वेष फैलाया जाता है. अगर हम कहते हैं कि सब इंसान एक हैं, प्रेम से ही सब लोगों को जीता जा सकता है, तो लोग टूट पड़ते हैं आप पर, आपकी बात को लेकर.
कट्टरता और हिंसा का विरोध होना चाहिए. प्रेम के लिए ज़मीन तैयार करनी पड़ेगी. जैसे फूलों की फसल को उगाने के लिए तैयारी करनी पड़ती है, ज़मीं की तैयारी, हल बक्खर की तैयारी, कल्पना की तैयारी, खुशबू की तैयारी और हवा के चलने की तैयारी. यह महक दूर-दूर तक फैले, इसलिए यह तैयारी तो करनी पड़ेगी और लगातार इसके लिए कोशिश करनी पड़ेगी.
फूल खिलने से पहले तोड़ने की भी स्थितियाँ होती हैं, लेकिन ऐसी भी स्थिति होती है कि कली को तोड़ा जाए तो किसी के गले की माला के लिए या जूड़े में गूंथने के लिए. कई कलियाँ तो फूल के रूप में खिलती भी नहीं हैं, यह उनका स्वभाव होता है और जो खिलता है फूल, वह भी तो झड़ जाता है. लेकिन लोग फूल उगाना कभी छोड़ते नहीं हैं. तो हमें भी (प्यार करना) नहीं छोड़ना चाहिए. स्थितियाँ कठिन तो होती ही हैं.
- कविता के संदर्भ में आपने कहा था कि अच्छी कविता गद्य की गहराइयों में रहती है. हमने मराठी में कई रचनाकार देखे जो पहले कवि हुआ करते थे, लेकिन बाद में उन्होंने कविता लिखना बंद कर दिया. उनकी कहानियों में, उपन्यासों में झर कर आती है उनकी कविता. किसी भी भाषा में आप जैसे कम ही लोग हैं जो कविता भी लिखते रहे हैं और उनके गद्य में भी कविता प्रवेश कर गई है. क्या आप बता सकते हैं कि जब आप कविता लिखते हैं या कविता छोड़कर दूसरा कुछ लिखते हैं, तब क्या फर्क होता है?
मेरे साथ में हमेशा यह होता है कि कुछ कहना होता है, तो उस कहने की अभिव्यक्ति होनी चाहिए. जो कह रहे हैं वह कहा गया कि नहीं कहा गया? हम अपनी रचनाओं में ‘कहा गया है’ की स्थिति से ‘अपनी बात पूरी की’ इस स्थिति तक अभिव्यक्त होने की कोशिश करते हैं. कई बार यह अभिव्यक्ति कविता के रूप में हो जाती है.
कविता का मतलब होता है कि बहुत थोड़े से शब्दों में कहा हुआ, जिसमें दो शब्दों के बीच में ढेर से अर्थों की गुंजाइश होती है. थोड़ी सी लयबद्धता भी होती है; छंद की लय नहीं, लेकिन वाक्य के टुकड़ों में और शब्दों की गूंज में वह लय होती है. कई बार हमको लगता है कि यह अभिव्यक्ति कविता के रूप में सिमट नहीं पाएगी, उसमें यह कहना बहुत मुश्किल है. तो अनायास, जो हम अभिव्यक्त करना चाहते हैं, उसको हम गद्य के रूप में अभिव्यक्त करने की कोशिश करते हैं.
- इसमें ‘अनायास’ बहुत जरूरी है.
हाँ, मतलब हमारी कोशिश अभिव्यक्ति की रहती है और हम इस तरह के प्रयत्न करते रहते हैं.
- यानी एक-तरफ़ा प्रयत्न तो होता है, शिल्प है. वह गद्य हो या पद्य, लेकिन फिर भी उसमें कुछ सहजता होती है.
हाँ, और कई बार अभिव्यक्ति हमको समझ में आती है और दूसरों को समझ में नहीं आती. जिनको समझ में नहीं आती, हम उनको नहीं जानते. जिनको समझ आती है, उनको भी हम नहीं जानते.
- कश्मीर में जो पाबंदियाँ लगी एक साल पहले, तब आप ने कश्मीर पर बहुत सुंदर कविता लिखी थी.
मुझे तो ऐसा कुछ याद नहीं आ रहा.
- उसमें आप ने कहा था कि मैं कहीं जा नहीं पाता, किसी से मिल नहीं पाता. यानी आपने जो संदर्भ दिया था, उससे मुझे लगा कि आपने कश्मीर पर लिखी है. होता ये है कि आप सहजता से कोई कविता लिख देते हैं और उसका संदर्भ हम कहीं भी जोड़ सकते हैं.
यह संभव है. रचना लिखने की एक प्रक्रिया होती है. प्रत्येक रचना, चाहे वह कविता हो, अपनी प्रक्रिया साथ में लेकर आती है और जब रचना खत्म होती है तो उसके साथ उस की रचना प्रक्रिया भी खत्म हो जाती है. दूसरी कविता जब आती है तो उसकी अपनी दूसरी रचना प्रक्रिया होती है. उसी तरह पाठक हर रचना को अपनी रचना समझने की प्रक्रिया से समझने की कोशिश करता है. वह इस बात की कोशिश करता है कि रचनाकार की रचना प्रक्रिया के कितने नजदीक वह पहुंच पाता है.
यह समझना पाठक के अनुभव के आधार पर निर्भर होता है कि वह कविता पढ़ने का कितना अनुभवी है, कब से उसका साथ कविताओं के साथ है और किन-किन लोगों की कविताएँ उसने पढ़ी हैं. तो एक अनुभवी लेखक के लिए कई बार एक अनुभवी पाठक की भी जरूरत पड़ती है, जिसकी कोई जानकारी एक दूसरे को नहीं होती है.
- लोगों ने कभी कहा होगा कि आप राजनीतिक नहीं हैं, आप राजनीतिक कमिटमेंट की बात नहीं करते, राजनीतिक संदर्भ आपकी कविताओं में नहीं आते, वगैरह-वगैरह. प्रगतिशीलता का जब बोलबाला था, तब बहुत सारे लोगों ने यह भी कहा होगा कि आप कोई आईडियोलॉजिकल पोजीशन नहीं लेते. इन बातों का आपने कैसे जवाब दिया?
अगर वह दौर था तो अब वह दौर खत्म हो गया. चीज़ें तो बदलती रहती हैं.
- लेकिन तब आपको ऐसे नहीं लगा क्या कि मैं कुछ अलग कर रहा हूँ, बाकी लोग अलग कर रहे हैं? क्या आपने हमेशा माना कि आप अकेले हैं?
देखिए, यह जरूर है कि रचना का संबंध पाठकों के साथ होता है. लेकिन साहित्य की दुनिया में जुड़े हुए लोगों के बीच में एक आलोचक भी होता है. यह आलोचक जो है, एक ऐसा पाठक होता है जो अपनी आस्था के अनुकूल, अपने अनुभव के अनुकूल, अपनी पहचान के अनुकूल रचनाओं का आकलन करता है, और इस स्थिति तक करता है की वह रचनाओं को अच्छा या ख़राब भी बताता है. मैंने कभी भी आलोचना की चिंता नहीं की. मुझको यह हमेशा लगा कि जो मेरा अनुभव है वही मैं लिख सकता हूँ. जो मेरी मान्यता है, वही लिख सकता हूँ. दूसरे के कहने से मैं अपने को क्यों बदलूं? मैं जैसा हूँ, जैसी रचनाएँ करता हूँ, मैं वैसा ही रहूँगा और वैसी ही रचनाएँ करूंगा. मैंने आलोचना की कभी परवाह नहीं की और मैं अपनी तरह से लिखता रहा.
- और फिर आलोचक ही बदल गए!
हाँ, आलोचक तो बदलते रहते हैं. रचना की अलग-अलग समय में अलग-अलग आलोचना होती हैं. सारी जिंदगी लिखते रहें, बुढ़ापे में लोगों ने अच्छा कहना शुरू किया. इससे पहले मैंने कभी नहीं जाना कि मैं अच्छा लेखक हूँ!
- लेकिन पाठकों का प्यार तो आपको बराबर मिलता रहा होगा?
पाठकों का पहले उतना प्यार नहीं मिला मुझे, क्योंकि संपर्क के साधन भी नहीं थे, और चूंकि मैं बहुत ज्यादा मिलता-जुलता भी नहीं था लोगों से. लेकिन तब भी मैं पाठकों के सामने उपस्थित हो सकूं, इसलिए आयोजकों का सहयोग मिलता रहा, और पाठकों के सामने मेरी उपस्थिति किसी न किसी बहाने बनती ही रही, क़रीब-क़रीब हर समय में बनती रही.
- लेखक या रचनाकार के लिए दूसरों की रचनाएँ पढ़ना कितना जरूरी है?
यह बहुत ज़रूरी है. हम किसी दूसरे के क़रीब उतना ही हो सकते हैं, जितना दूसरा अपने बारे में बताएगा. दूसरे की रचना उस इन्सान को अधिक से अधिक जानना है. दूसरे का जो अनुभव है जीवन के बारे में, अगर हम उस किताब को पढ़ते हैं, तो उसका जीवन हमारे जीवन का, अनुभव का हिस्सा बन जाता है. इसलिए लिखने के लिए पढ़ना बहुत जरूरी है. यह मुक्तिबोध भी कहते थे, और बार-बार कहते थे कि अगर कहीं तुम पढ़ना छोड़ दोगे तो तुम लिखना भी छोड़ दोगे. अगर तुम दूसरे की कलम का लिखा हुआ पढ़ते हो और तुम लिख रहे हो, तो तुम भी कलम को पकड़ सकते हो.
एक चीज हमेशा याद रखें कि जो लेखक है जिसने अपने जीवन में लेखन को अपनाया है, तो उसने केवल दूसरों को पढ़कर ही अपने को इस स्थिति में बनाया है.
- आप बार-बार यह कहते हैं कि रचना प्रेम करने जैसा है, रचना की निर्मिति और प्रेम का होना एक दूसरे के काफी क़रीब है. और आप दूसरी जगह कहते हैं कि प्रेम की जगह अनिश्चित है. तो यह जो अनिश्चितता और प्रेम वाली बात है, तो क्या यह जरूरी है कि प्रेम अनिश्चित ही हो, अगर वह निश्चित बन जाता है तो क्या होगा? क्या यह प्रक्रिया ही महत्वपूर्ण है, या उसके कुछ और मायने हैं?
मैंने जगह को अनिश्चित कहा है, प्रेम को अनिश्चित नहीं कहा है.
- उस बात को थोड़ा और समझाएँ गे आप?
प्रेम की जगह तो सारी दुनिया है, और प्रेम की जगह हर आदमी के लिए सारी दुनिया में कहीं भी हो सकती है. अगर इस दुनिया में उसको अपने प्रेम की जगह नहीं मिलती, तो इस दुनिया में ही वह अपने प्रेम की जगह कहीं ना कहीं बना लेता है. मतलब कई बार स्थितियाँ होती हैं कि आदमी इस बात की कोशिश करता है कि प्रेम हो जाए. लेकिन हमारा समाज कभी भी इतना उदार नहीं रहा कि मनुष्य के अलावा जीव जगत में प्रेम की जो स्थितियाँ प्राकृतिक रूप से दिखाई देती हैं, उन्हें स्वीकार करें.
प्रेम को उसने सभ्यता की आड़ में कर दिया है, यह सभ्यता कपड़ों की है, देह को छिपाने की है. जो चीजें आड़ में रखने की हैं, या जो आड़ में चली गई हैं, वे बहुत ही निजी होती हैं. हर आदमी अपना निजी संसार बनाना चाहता है. इस निजी संसार में केवल प्रेम ही रहता है. निजता ही प्रेम है और प्रेम ही निजता है.
- जिस निजता की बात आप कर रहे हैं, और आज के दौर में जो प्राइवेसी की बात होती है (प्राइवेसी: मेरा अपना अलग से कुछ होना) क्या ये दोनों एक सी हैं या भिन्न हैं?
ये अलग-अलग संदर्भ की अलग-अलग चीज़ें हैं. निजता की परिभाषा जिस अर्थ में मैंने कहा, उस अर्थ में बदलती रहती है. मैंने प्रेम के संदर्भ में कहा, अब पेट भरने की निजता तो अलग होगी, अगर ठंड पड़ती है तो ठंड से बचने की निजता अलग होगी. तो निजता स्थितियों और परिस्थितियों के अनुसार बदल गई है. निजता चाहे अपनी हो या दूसरों की.
- बाज़ार के कारण बहुत सी चीजों का अर्थ ही बदल गया है.
बाज़ार तो है ही और लेन-देन की स्थितियाँ भी हैं. वह तो समाज के गठन के स्वरूप में हुआ है, एक सामूहिकता के लिए, उस सामूहिकता में अपनी निजता को बचाने के लिए. ये स्थितियाँ सब अलग-अलग हैं. लेकिन मनुष्य अपनी निजता, अपनी सोच की निजता बनाए रखना चाहता है. लेखन का कार्य सोच की निजता ही है, और अगर प्रेम की बात लिखता है, तो ये सोच की निजता में आ गई. अगर दूसरे की निजता की बात करता है तो यह बात लिखने की निजता में आ गई. हम निजता को भी तरह-तरह से, अपनों और दूसरों से सुरक्षित करना चाहते हैं. बहुत सी निजता ऐसी होती है की हम किसी को बताना भी नहीं चाहते, हम उसको अपने साथ, अपने में समेट कर रख लेना चाहते हैं.
- आप अपनी रचनाओं के द्वारा प्रेम की बात करते हैं, पारस्परिकता की बात करते हैं, जीव-जंतु, कीड़े-मकोड़े, पर्वत, पेड़ इनसे रिश्ते की बात करते हैं, सभी मनुष्यों के साथ रिश्ते की बात करते हैं, क्या इसे हम आदिवासी मानसिकता कह सकते हैं?
यह आपका बहुत ही अच्छा प्रश्न है. निजता एक आदिवासी मानसिकता है, हम ज्यों-ज्यों सभ्य होते चले जाते हैं, यह निजता की आदिवासी मानसिकता समेट पाना कठिन होता चला जाता है. इसका एक मात्र तरीका यह है कि हम अपनी निजता को दूसरों की निजता से जोड़ कर एक सामूहिकता बनाएँ, तो यह एक आदिवासी मानसिकता है, और मैं इस बात को मानता हूँ.
- तो क्या हमें वहाँ लौटना जरूरी है?
जब एक मनुष्य का जन्म होता है तो उसकी मानसिकता एक जैसी ही होती है, चाहे वह सभ्य समाज में हो या आदिवासी समाज में. बच्चे की मानसिकता आस-पास के वातावरण के हिसाब से बदलती चली जाती है. अगर वह बच्चा बड़ा होकर अपने अनुभव से अपनी मानसिकता बनाता है, तो वह भी एक अच्छी मानसिकता होगी.
- लेकिन आधुनिकता की होड़ में हम सब इस मानसिकता से दूर जा रहे हैं. जिस हिसाब से दुनिया जा रही है, उस हिसाब से मानसिकता भी प्राकृतिक से कृत्रिमता की तरफ जा रही है. वह प्रकृति को नष्ट करने के लिए जा रही है, संबंधों को तोड़ने की ओर जा रही है. तो क्या हमें उसे तोड़कर वापस लौटना जरूरी है?
नहीं, तोड़कर लौटने की जरूरत नहीं है. हम मानसिकता की बात कर रहे हैं न. मैं तो यही कहता हूँ कि लोग जंगल गमले में उगाया करेंगे. यह जो आकाश हमें मिला है, ये हमको बना बनाया मिला है. हमने उसको बनते नहीं देखा. हमको इस बात का ख़याल रखना चाहिए कि, जो कुछ भी बना बनाया हमको मिला है, उसका ख़याल हमेशा बना रहे. चाहे वह पेड़ हो, जंगल हो, पहाड़ हो, नदियाँ हो, समुद्र हो, वह वैसा ही रहे, जैसा शुरुआत में रहा है.
ये प्रकृति ने हमें दिया था. मनुष्य तो बहुत बाद में आया. ये दुनिया तो पहले बनी, बनी बनाई दुनिया हमको मिली. लेकिन मैंने यह भी कहा है कि मनुष्य को घर बनाने का ख़याल जो आया है, वह चिड़ियों के घोंसले को देख कर हो आया होगा. चिड़िया ने मनुष्य से नहीं सीखा कि घोंसला कैसे बनाते हैं, ये मनुष्य ने उनसे सीखा है. तो प्रकृति ने हमें बहुत सी चीजें सिखायी हैं, और उसका एहसान हम नहीं मानते हैं.
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विनोद कुमार शुक्ल प्रकाशित कृतियाँ हैं- ‘लगभग जयहिन्द’, ‘वह आदमी नया गरम कोट पहिनकर चला गया विचार की तरह’, ‘सब कुछ होना बचा रहेगा’, ‘अतिरिक्त नहीं’, ‘कविता से लम्बी कविता’, ‘कभी के बाद अभी’, ‘प्रतिनिधि कविताएँ’ (कविता-संग्रह); ‘पेड़ पर कमरा’ तथा ‘महाविद्यालय’ (कहानी-संग्रह); ‘नौकर की क़मीज़’, ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’, ‘खिलेगा तो देखेंगे’, ‘हरी घास की छप्पर वाली झोपड़ी और बौना पहाड़’ (उपन्यास). मेरियोला आफ़्रीदी द्वारा इतालवी में अनूदित एक कविता-पुस्तक का इटली में प्रकाशन, इतालवी में ही ‘पेड़ पर कमरा’ का भी अनुवाद. कई रचनाएँ मराठी, मलयालम, अंग्रेज़ी तथा जर्मन भाषाओं में अनूदित. मणि कौल द्वारा 1999 में ‘नौकर की क़मीज़’ पर फ़िल्म का निर्माण. ‘आदमी की औरत’ और ‘पेड़ पर कमरा’ सहित कुछ कहानियों पर अमित दत्ता के निर्देशन में बनी फ़िल्म ‘आदमी की औरत’ को वेनिस फ़िल्म फ़ेस्टिवल के 66वें समारोह (2009) में स्पेशल इवेंट पुरस्कार. ‘गजानन माधव मुक्तिबोध फ़ेलोशिप’,‘राष्ट्रीय मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’, ‘शिखर सम्मान’ (म.प्र. शासन), ‘हिन्दी गौरव सम्मान’ (उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान), ‘रज़ा पुरस्कार’, ‘दयावती मोदी कवि शेखर सम्मान’, ‘रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार’ तथा ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ के लिए ‘साहित्य अकादेमी पुरस्कार’ आदि से सम्मानित हैं.
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रवीन्द्र रुक्मिणी पंढरीनाथ पेशे से अध्यापक रहे हैं, और रुझान से कार्यकर्ता-लेखक. औषधि विज्ञान में अध्ययन (आई. आई. टी. बॉम्बे से पीएच. डी.) और अध्यापन करने से पहले वे जेपी आंदोलन का हिस्सा बन चुके थे. बाद में वे पर्यावरण, स्त्री-पुरुष समता और स्वास्थ्य से संबन्धित कई आंदोलन तथा गतिविधियों से जुड़े रहे. भ्रूण हत्या के विषय में शोध कार्य, आंदोलन और आखिरकार राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर कानून बनाने में उन की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है. पचास की उम्र पार करने के बाद वे गंभीरता से साहित्य और लेखन की ओर मुड़े. वे ज़्यादातर मराठी में लिखते हैं. उन का प्रथम उपन्यास ‘’खेल घर’ कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से नवाजा गया. उनकी शीघ्र प्रकाशित होने वाली पुस्तकों में प्रमुख है– दीर्घ कहानियों का संकलन तथा ‘विज्ञान बोध’. वह कविताएँ और गल्प हिन्दी में लिखते हैं. उन्होंने गुलज़ार की चुनिन्दा कविताएँ और बाबुषा कोहली की ‘प्रेम गिलहरी दिल अखरोट’ का मराठी अनुवाद किया है, जो पुस्तक रूप में प्रकाशित हैं. वह‘सर्वंकष’ नामक मराठी त्रैमासिक पत्रिका के प्रधान संपादक हैं. |
ऐसा कम ही होता है कि लेखक के लेखन में उसके अपने व्यक्तित्व का सीधा असर दिखता हो। विनोदजी भीतर बाहर से एक ही हैं। उनके चरित्र, दृश्य, संवाद सबमें एक के साथ एक और दिखता है। यह उनमें कुदरती और सहजता के साथ है। वे इस लिहाज से विरल हैं, एक व्यक्ति के रूप में और लेखक के रूप में भी।
“मनुष्य को घर बनाने का ख़याल जो आया है, वह चिड़ियों के घोंसले को देख कर हो आया होगा”, यह कितनी सुन्दर बात है जो विनोद कुमार शुक्ल ही कह सकते हैं। निजता के प्रश्न को मनुष्य की आदिवासी प्रवृत्ति से जोड़ने का उनका विचार भी अद्भुत है। बहुत अच्छी बातचीत है।
इस महत्वपूर्ण बातचीत के लिए समालोचन का बहुत आभार।इस बातचीत को पढ़ते हुए मुझे ऐसा भी लग रहा है जैसे विनोद जी साक्षात सामने हो और जिस तरह कोई अभिभावक अपने बच्चों को समझा रहा है उसी तरह हमें समझा रहे हो। दुनिया में अच्छे लोग अब भी है उनका यह विचार पढ़ मुझे हजारी प्रसाद द्विवेदी का निबंध “अभी निराश होने का समय नहीं है “याद आ गया। विनोद जी स्वस्थ रहें यही शुभकामना है।
सार्थक और दिलचस्प वार्तालाप। विनोद जी अपनी अंतरंग को बिना किसी आडम्बर
के सहज भाव से अनावृत्त करते हैं। इस महत्वपूर्ण बात के लिए साक्षात्कारकर्ता को बधाई।
बहुत सुंदर भेंटवार्ता है यह।
इस बातचीत में वरिष्ठ कवि विनोद कुमार शुक्ल ने जिस सहजता से साहित्य और जीवन से जुड़े प्रश्नों के सच्चे और खरे उत्तर दिए हैं-वे एक ईमानदार सर्जक की आत्मस्वीकृतियां हैं।वह चाहे कोई सामाजिक सन्दर्भ हो या पारवारिक प्रसंग उनकी टिप्पणी सहज और मानवीय है।उनके लिए किसी भी चीज़ से महत्वपूर्ण है मनुष्य का सच्चे अर्थों में मनुष्य होना।प्रकृति हो या परिवेश सब जगह वे सृष्टि की कल्याण कामना से परिपूर्ण हैं।यद्यपि यह लम्बी वार्ता है पर बेहतर होता साक्षातकर्ता उनके रचना कर्म को लेकर कुछ और गहरे में उतरते।