विपिन चौधरी
२ अप्रैल १९७६, भिवानी (हरियाणा),खरकड़ी– माखवान गाँव
बी. एससी., ऍम. ए.(लोक प्रकाशन)
कुछ कहानियाँ और लेख प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में
रेडियो के लिये नियमित लेखन, साहित्यिक और सामाजिक गतिविधिओं से जुड़ाव
सम्प्रति– मानव अधिकारों को समर्पित स्वयं सेवी संस्था का संचालन
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विपिन चौधरी हिंदी कविता के युवा स्वर में शुमार हैं. उनकी कविताओं ने कथ्य और शिल्प के स्तर पर अपेक्षित स्तरीयता हासिल की हैं. ये कविताएँ स्त्री होने के अर्थ का संधान करती हैं.,उसके स्वप्न – दु: स्वप्न की अंतर्यात्रा करती हैं. इन ग्यारह कविताओं में विपिन की संवेदना और समझ को पढा जा सकता है.
१.
जनपद – कल्याणी – आम्रपाली
भंते,
स्मृतियाँ
मुझे अकेला छोड़
अपनी छलकती हुयी गगरियाँ कमर पर उठा
पगडण्डी–पगडण्डी हो लिया करती हैं
स्मृतियों के मुहं मोड़ते ही
अजनबी झुरियां,
झुण्ड बनाकर
मुझसे दोस्ती करने के लिये आगे
बढ़ने लगती हैं
अठखेलियाँ करने को आतुर
रहने लगी हैं
बालों की ये सफ़ेद लटें
उफ्फ
अब और नहीं
भंते और नहीं
मेरा दमकता
नख–शिख
घडी– दर– घडी दरक रहा है
क्या हर चमकती चीज़
एक दिन इसी गति को जाती हैं ?
राष्ट्र को बनाने, बिगाड़ने वाला
मेरा सौन्दर्य इतना कातर
क्योंकर हुआ, भंते
जिस जिद्दी दुख,
का रास्ता सिर्फ नील थोथे को मालूम हुआ करता था
अब वही दुःख
मेरे मदमदाते शरीर में
अपना रास्ता ढूंढने लगा है
मुक्ति की
कोई राह है भंते
सीधी न सही
आड़ी–टेढ़ी ही
वैशाली की नगरवधू जनपद कल्याणी
बौद्ध भिक्षुणी के बाने
भीतर भी
आसक्ति के कतरों को
अपने से अलग नहीं कर पा रही
इस अबूझ विवशता को क्या कोई नामकरण दिया है तुमने भंते
बिम्बिसार की मौन मरीचिका के आस–पास
एक वक़्त को मेरा प्रेम जरूर
टूटी चूड़ी सा कांच–कांच हो गया था
किन्तु बुद्धम– शरणम् के बाद भी
अनुराग, प्रीति, मुग्धता के अनगिनत कतरे मेरे तलुओं पर रड़क रहे हैं
सौंदर्य क्या इतनी मारक चीज़ है
तथागत
कि मेरे प्रश्नों पर तुमने यूँ
एकाएक मौन साध
ध्यान की मुद्रा में खुद को स्थिर कर लिया है
२.
ज्यादातर मैं सत्तर के दशक में रहा करती हूँ
सत्तर की फिल्मों का दिया भरोसा कुछ ऐसा है कि मैं
अपने कंधे पर पड़े अकस्मात
धौल–धप्पे से चौंकती नहीं हूँ मैं
भीड़ भरे बाजार में
बरसों बिछड़ी सहेलियां मिल जाया करती हैं
खोयी मोहब्बत दबे पाँव आ धमकती है
पीले पड़ चुके पुराने प्रेम–पत्रों में
उस दौर की फिल्मों ने अपने पास बैठा कर यही समझाया
भरे–पूरे दिन के बीचो– बीच
बदन पर चर्बी की कई तहें ओढे
एक स्त्री मुझे देख कर तेज़ी से करीब आती है
और टूट कर मिलती है
मुड़ कर थोडी दूर खड़े अपने शर्मीले पति से कहती है
\”सुनो जी मिलो मेरी बचपन की अज़ीज़ सहेली से\’
और मैं हूँ कि
अपने पुराने दिनों में लौटने की बजाये
बासु दा की फिल्म के उस टुकड़े में गुम हो जाती हूँ
जहाँ दो पुरानीं सहेलियां गलबहियां डाले भावुक हो रही हैं
बस स्टॉप पर 623 की बस का इंतज़ार करते वक़्त
अमोल पालेकर तो कभी विजेंदर घटगे नुमा युवक अपने पुराने मॉडल का
लम्ब्रेटा स्कूटर
मेरी तरफ मोड़ते हुए लगा है
फिल्म \’मिली\’ के भोंदू अमिताभ का
मिली \”कहाँ मिली थी\” वाला वाक्या आज भी साथ चलता है
ताज्जुब नहीं कि
डिज़ाइनर साड़ियों के शो रूम में
(विद्या –सिन्हा की ट्रेड मार्क) बड़ी–बड़ी फूलों वाली साड़ियाँ तलाशने लगती हूँ
\’मूछ –मुंडा\’ शब्द पर बरबस ही उत्पल– दत्त सामने मुस्तैद हो जाते हैं
भीड़ में सिगरेट फूंकता
दुबला –पतला दाढ़ीधारी आदमी दिनेश ठाकुर का आभास देने लगता है
हर साल सावन का महीना
\”घुंघरुओं सी बजती बूंदे\” की सरगम छेड़ देता है
और मैं 1970 को रोज़ थोडा–थोडा जी लेती हूँ
श्याम बेनेगल की नमकीन काजू भुनी हुई फिल्में
देर रात देखा करती हूँ
मेरी हर ख़ुशी का रास्ता उन्नीस सौ सत्तर से हो कर आता है
अपने हर दुःख की केंचुली को
उस पोस्टर के नीचें छोड़ आती हूँ
जहाँ \’रोटी कपडा और मकान\’ के पोस्टर में मनोज कुमार मंद–मंद मुस्कुराते
हुए खड़े हैं
और नीचे लहरदार शब्दों में लिखा है
\’मैं ना भूलूंगा इन रस्मों इन कसमों को\’
गायक, मुकेश
३.
दुनिया भर की लम्बे बालों वाली स्त्रियाँ
सुबह उठने के साथ ही बालों को इक्कठा कर जुड़ा बांधती हैं
गीले बाथरूम को देखते ही खीज उठती है
उनके आंसुओं में जमे हुए नमक के टीले परनालो में बहने लगते हैं
साथ चलते हुए रिश्तों के रास्ता बदलते ही सिर के बल धरती पर आ गिरती हैं
और बुरे समय में अपने नुकीले नाखूनों का सटीक इस्तेमाल करने को मजबूर हो उठती हैं
संसार की सभी स्त्रियाँ
आधी आबादी की भूख को
सलीके से अपने बेलन के नीचें दबा कर
चार– छः बच्चों के मुहं में एक साथ निवाला डाल सकती हैं
चारों ओर घिरी तबाही में भी
एक ओट में
दो ईंट खड़ी कर पेट भरने का इंतजाम कर लेती हैं
और
वे भी हमारे इसी संसार की स्त्रियाँ हैं
पुरुष–प्राणी के घर पर ना रहने पर
जिनकी भूख गायब हो जाती है और
दिन भर दाल–मोठ के साथ चाय सुड़क कर
अगले दिन गोष्ठी में जा कर वे
पितृसत्ता के मुखालफत पर लंबा भाषण दे आती है
४.
पाँव का अनुशासन हैं, सीढियां
वे आकाश की ओर प्रस्थान करने के बाद
सीधे पाताल का ही रुख करती हैं
दायाँ की मस्ती
बाएँ की तफरीह को एक तरफ छोड़
सीधाई या निचाई ही उन्हें भाती हैं
तभी तो पाँवों का अनुशासन हैं सीढियां
एक तल की सतह से हौले–हौले उठ
दूसरे तल में बेआवाज
जीवित तलाश की तरह पहुँचते हुए
चुपके से अपना कद निकालते हुए
एक किनारे से
खामोश अंधेरे को ले कर
दूसरे तल की चहकती रोशनी
से ताल–मेल मिलाकर
तीसरे माले में जा पहुँचती हैं
जहाँ एक गर्भवती तन्हा स्त्री
सूनी अवसादग्रस्त आँखों से किसी पदचाप की बाट जोह रही है
सीढ़िया,
यहाँ फिर एक तमीज़ बरतती हैं
और उम्मीद को अपने भीतर
जगह दे
बिना किसी आवाज़ के
ऊपर की ओर चल देती हैं
५.
उसी शिद्दत से \’मैं\’ उसके विचार में दाखिल होती हूँ
जिस शिद्दत से
‘घर’
भागे हुए लड़के के सपनों में शामिल होता आया है
प्रकर्ति ने अपनी घुट्टी में
कुछ ऐसा स्नेह घोल कर पिलाया कि
शाखों से झडे पत्ते
कई दिन उस पेड़ की छाया से दूर जाने से कतराते रहे
झूठा है ये बिछुड़ना, शब्द
प्यार के दस्तूर में
अलगाव कभी शामिल नहीं हुआ
प्रेम उस ऊँचाई का नाम है
जहाँ से गिरने के बाद
मौत का कभी कोई जिक्र नहीं हुआ
हमारे तुम्हारे समय को
बिना रोक–टोक के आगे बढ़ने दो
किसी तीसरे समय में
विस्मृति का उल्लेख करेंगे
वैसे भी ये कुछ ऐसे
बारीक़ हलफनामें हैं जिन्हें
कहीं उकडू बैठ
छिपे रहने
में ही आनंद आता रहा है
६.
एक तरफ की रोटी को
थोडा कच्चा रख
दूसरी तरफ को
थोडा जायदा पका कर फूली हुई रोटी को बना कर एक स्त्री
अनजाने में ही संसार की पहली गृहस्थन बन गयी होगी
जिस प्राणी की आँखों में पहले–पहल नग्न शिला देख
गुलाबी डोरों ने जन्म लिया होगा
उसे पुरुष का नाम दे दिया गया होगा
जो अपने मन–भीतर उठती सीली भांप
में यदा–कदा सुलग उठा हो
उसने ही आगे चल कर
प्रेम की राह पकड़ ली होगी
धरती ने
मनुष्यों की इन कोमल गतिविधियों पर खुश होते हुए
अपने सभी बंद किनारे खोल दिए होंगे
फिर एक दिन
जब पुरुष,
स्त्री को चार दीवारी भीतर रहने को कह
अपने लिए यायावरी निश्चित कर
बाहर खुले आसमान में निकल आया होगा
तब धरती चाह कर भी अपने खुले हुए
किनारों को समेट ना पाई होगी
७.
दुःख के उस पार भी क्या
कोई शमशानी बस्ती है
क्या वहां भी कोई औरत
अपने लम्बे बाल संवारते हुए
अपने पुराने दिनों की मधुर यादों में उलझ गयी है
मूंज की चारपाई के
पायों से बांधे गए दुपट्टे के झूले में
अंगूठा चूस रही है भूखी बच्ची
चूल्हों से उठती हुई भांप
आधे भरे हुए पेट में मरोड़ उठा रही है
माँ की सुखी छाती से कुपोषित बच्चा चिपका हुआ है
एक बड़े आत्मघाती विस्फोट के बाद
इधर–उधर पड़े हुए लोग अपने शरीर के उड़ते हुए अंगों को भौचक
देख रहे है
शहर की चमचमाते चौराहे पर
पागल युवा स्त्रियाँ निवस्त्र बैठी हुई है
उधर मंडराते हुए लंपट युवा
खिल्ली उड़ाते घूम रहे हैं
नयी नवेली दुल्हनों की आंखे लम्बे इन्जार में बाद
मूँद गयी है
उस पार भी क्या
प्यार एक मृगतृष्णा है
उम्मीद एक धोखा
क्या दुःख के उस पार भी
केवल दुःख ही है?
८.
धूल से भरा एक मौसम
बारिश के बीच से गुज़र,
साफ़–सुथरा होने के बाद
फिर से धूल में लोट–पोट हो जाता है
एक नायिका
एकतरफा प्रेम में डूब कर
नायक द्वारा फेंके हुए सिगरेट के टुकडे उठा कर
अकेले में पीने लगती है
और फिर उसी सरूर में अपने सबसे अज़ीज़ सपनों को बारी–बारी से कन्धा दे
दिया करती है
प्रेम की सीली यादों को
नाजुक ओस सी
सावधानी से रूई पर उठा लेने के बाद
आंसुओं की गंगा– जमुना में बहा देना
प्रेम का सिलसिलेवार विधान है
हमारी आत्मा
उन्हीं छुटी हुई चीज़ों से दोस्ती करने को आगे करती है
जो हमारे हाथ लगने से रह गयी है
और एक दिन
आत्घाती बन
हमें ही चोट पहुंचाने लगती है
जब यह बात कोई यह बात जान लेता है
तब तक वह अपनी सारी जमा पूँजी
अपनी आत्मा के हवाले कर चुका होता है
९.
नायक
अपनी पीठ दिखा
दूर जा चूका हैं
नायिकाएं
सिर झुकाए सुबक रही हैं
एक बड़ी खिड़की में
इंतज़ार के खड़े सीखचों को थाम कर गुमसुम बैठी है नायिका
नायिका
सोलह सिंगार में व्यस्त है
नायक
पडोसी देश की सेना को धूल चटा कर अभी–अभी लौटा है
इतिहास की झांकी से हमारे नायक –नायिकाओं का अक्स कुछ ऐसा ही दिखता है
एक लम्बे अरसे के बाद ही नायिकाएं
जान सकी
कि आंसू,
जलता हुआ गर्म पारा है
इंतज़ार,
एक मीठा धोखा
याद,
एक आत्मघाती जहर
सिंगार,
खुद को भूलने का सलीकेदार शऊर
यह जान
सुनहरे फ्रेम में जड़ी हुई सभी नायिकाएं बाहर जा चुकी हैं
तस्वीर में रौंदी हुयी घास
साफ़ दिखाई दे रही है
नायक,
तफ़रीह से वापिस आ गए हैं
बेचैन हैं
अपनी नायिकाओं को तयशुदा जगह पर
न पाकर
अब नायक अकेले और प्रतीक्षारत खड़े हैं
आओ
मेरे समय के चित्रकारो
उन्हें इसी अवस्था में चित्रित करो
हमारे पास कुछ ऐसी तस्वीरें भी तो हो
जिसके दोनों पलड़े में एक सा भार दिखाई दे
१०.
मन के भीतर मन
उसके भी भीतर एक और मन
मन का एक दरवाज़ा खुलता है तो दूसरा बंद होता है
और मन की चौकसी करते
हैं मजबूत और मुस्तैद दरवाज़े
मन की एक सुरंग में डेरा डाल रखा है
सहेली के उस निष्ठावान प्रेमी ने
जो दूसरी ओर आँख उठा कर भी न देखता था
दूर रिश्तेदारी के रोशन चाचा जो
देव आनंद सा रूप–रंग के कर जन्में थे
पड़ोस की वह कुबड़ी दादी
जो अपनी दादी से भी प्यारी लगा करती थी
ढेर साड़ी गुड़ियां और उनकी गृहस्थी का छोटा–मोटा साजों सामान
पड़ोस का दीनू
जो परीक्षा के दिन उसकी साईकल का पंचर लगवा कर आया
और आज तक साईकल में पंचर लगवाता हुआ ही दिखाई देता है
एक अधूरा प्रेम
जो दुनिया का ज़हर पी–पी कर
कालिया नाग बन गया था
बाहर ज़रा सी आहाट हुई और
दरवाज़ा भेड़ कर वह
मुस्कुराते हुए अपने शौहर का ब्रीफकेस हाथ में थाम कर
कह उठती है
\’आप मूह हाथ धो आईये
मैं अभी चाय बना कर लाती हूँ \’
और माथे पर चू आये पसीने को पोंछती है
नज़र बचा कर
आखिर इतने मन के खुले हुए दरवाज़ों का
झटके से मुहं बंद करना कोई आसन काम तो नहीं
११.
पतझड़ के पीले पत्तों की मानिंद
खाली घर की दीवारों से
स्मृतियाँ किश्त दर किश्त झडती रहती हैं
अपने खालीपन से आजिज़ आ
सूना घर
दिन में कई बार
अपना जाल बाहर की ओर फेंकता है
घर को हाथ पर हाथ धर बैठना पसंद नहीं
वह सांसों की आवाजाही चाहता है
उसे अपने आँगन में पींग की हिलौर
छत पर पतंग
रात को सपने
और दिन में तीन बार जली रोटी की महक और जीरे की धांस चाहिए ही चाहिए
घर के खालीपन को कहीं से सूंघते–महसूसते हुए
कहीं दूर से पंख फैलाये
कबूतर का एक जोड़ा आकर
अपनी नयी गृहस्थी बसा लेता है
इंद्रधनुषी– बैंगनी– हरी कॉलर वाले में
टहलते –फुदकते हुए
कबूतर का यह जोड़ा
खाली घर की आत्मा को खंगालने में मसरूफ हो जाता है
खाली घर
नयी तरह की अनुभूति से तृप्त रहने लगा था
कि
एक दिन नए किरायेदार का छोटा बच्चा
घर का मुख्य दरवाजे के प्रवेश करते ही
कह उठता है
डैडी–मम्मी लगता है
अभी–अभी रोशनदान के रास्ते कोई पक्षी बाहर गया है
शुक्र है हम एक आबाद घर के बाशिंदे हुए
पिता मन के सुकून भरते हुए कह उठते हैं.
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