वीरेन डंगवाल की कविता
ख़्वाब की तफ़सील अंधेरों की शिकस्त
श्रीनारायण समीर
‘काफ़ी बुरा समय है साथी
गरज रहे हैं घन घमंड के नभ की फटती है छाती
अंधकार की सत्ता चिल-बिल चिल-बिल मानव-जीवन
जिस पर बिजली रह-रह अपना चाबुक चमकाती
संस्कृति के दर्पण में ये जो शक्लें हैं मुस्काती
इनकी असल समझना साथी
अपनी समझ बदलना साथी.’
वीरेन साधारण के असाधारण कवि हैं और उनकी कविता साधारण की साधारणता की व्यंजना. सामान्य, मामूली तथा तुच्छ समझे जाने वाले प्राणियों, पदार्थों और अनुभवों की सुंदर, संवेदनशील, अनुभूति प्रवण एवं अविस्मरणीय झाँकी दिखाती इनकी कविता हिंदी की मूल्यवान थाती है. कविता में यथार्थ का निरूपण, साधारण के साथ प्रेम एवं आत्मीयता, अनुभूति की गहराई तथा लय और प्रवाह का निर्वाह वीरेन की कविता की ऐसी विशेषताएँ हैं, जिनका संबंध व्यापक जन मानस से सीधे जुड़ता है. इस धरातल पर यह सवाल भी खड़ा होता है कि समाज के साधारण, मामूली तथा तुच्छ समझे जाने वाले प्राणियों, पदार्थों और विषयों पर एक-से-एक कविताएँ कवि ने क्या यूँ ही लिखी हैं ? क्या ये कविताएँ समाज में महत्त्वपूर्ण तथा मुख्य की धारणा की उपेक्षा और मुखालफत नहीं हैं ? इन सवालों का एक ही जवाब है और वह है ‘हाँ’ . तो जाहिर है कि इन कविताओं के जरिये वीरेन ने समाज के मूल्यवान, स्थापित तथा शक्तिशाली की उपेक्षा कर अपना प्रतिरोध दर्ज कराया है. इस लिहाज से वीरेन सत्तरोत्तरी हिंदी कविता के महत्त्वपूर्ण कवि हैं.
हिंदी में कवि कर्म की विडंबना भी विचित्र है. एक ओर कविगण अपनी शिष्टता, भद्रता और उच्चता-बोध से ग्रस्त रहते हैं, जबकि समाज उन्हें तनिक भी तवज्जोह नहीं देता. ऐसे में साधारण जीव-जंतुओं और मामूली वस्तुओं पर कविता करना भला कौन चाहेगा ? परंतु वीरेन ने साधारण के चित्रण के बहाने अपने समय के जटिल यथार्थ को जिस कौशल और कौतुक के साथ उजागर करने का प्रयास किया है, वह चकित करता है. उदाहरण के लिए वीरेन की एक कविता है ‘मसला’. इस कविता में कवि ने वक्त के पेचीदा सवाल को बड़े सीधे, दो टूक और खुरदरे लहजे में उछाल कर बड़बोले नीतिज्ञों को उनकी हैसियत बताने का काम किया है. आखिर मनुष्य मसले जाने का प्राणी कब से हो गया ? जबकि उसकी मेधा, सहनशीलता, सर्जना और करुणा की बदौलत दुनिया और खूबसूरत बन सकती है. कविता जमाने की रीति और विडंबना का जिक्र करती हुई बुनियादी सवाल उठाती है और प्रकारांतर से परिवर्तन को आज के समय की जरूरत बताती है. इस तरह से वीरेन की कविता अपने समय का प्रतिपक्ष रचती है.
कविता को लोक से जोड़े रखने तथा प्रतिरोध की आवाज बनने में मानवीय प्रेम, संवेदना तथा करुणा की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है. आठवें दशक की युवा आक्रोश की कविता प्रकारांतर से प्रेम, संवेदना एवं करुणा का विस्फोट थी. वीरेन इस विस्फोट के प्रतिनिधि कवियों में थे. उनकी कविता व्यक्तिगत लिप्सा, परस्पर विद्वेष तथा सामाजिक विषमता के बरअक्स प्रेम के बुनियादी सरोकार, संगी-साथियों के साहचर्य की आकांक्षा और खुशहाल समाज के स्वप्न तथा सृष्टि के साधारण जीव-जगत् को प्रेम करते हुए मनुष्य बनने की कविता है. वीरेन की कविता यथार्थ का वस्तुगत एवं बेबाक चित्र प्रस्तुत करने तथा उत्तेजना विहीन प्रतिरोध का मानस तैयार करने के चलते हमारा ध्यान आकर्षित करती है. यह कविता छंदमुक्त कविता को छांदिक, लयात्मक एवं प्रवाहपूर्ण बनाने के प्रयासों के लिए भी सत्तरोत्तरी हिंदी कविता में ध्यानाकर्षण का विषय एवं प्रशंसा का भागीदार रही है. उदाहरण के लिए वीरेन की ‘हमारा समाज’ शीर्षक कविता की ये पंक्तियाँ गौरतलब हैं :-
“यह कौन नहीं चाहेगा उसको मिले प्यार
यह कौन नहीं चाहेगा भोजन-वस्त्र मिले
यह कौन न सोचेगा हो छत सर के ऊपर
बीमार पड़े तो हो इलाज थोड़ा ढब से…
पर हमने यह कैसा समाज रच डाला है
इसमें जो दमक रहा, शर्तिया काला है
वह कत्ल हो रहा, सरेआम चौराहे पर
निर्दोष और सज्जन, जो भोला-भाला है”
(‘कविता वीरेन’, पृष्ठ : 135-136 )
वीरेन बदलाव और विराट चाहत के कवि हैं. सृष्टि को रस-सिक्त करने की विराट चाहत उनकी कविताओं में अंतःप्रवाह की तरह मिलती है. कवि की यह चाहत कोई बनावटी चाहत नहीं; बल्कि मानवीय संवेदना एवं प्रेम के बुनियादी सरोकार और हेतु से प्रेरित तथा आलोड़ित है. इस चाहत के पीछे अपनत्व की ऊष्मा से भरा कवि-हृदय है. यह कवि जीवन एवं जगत् के यथार्थ से सुपरिचित है तथा इसे सामाजिक विडंबनाओं की बारीक समझ भी है. तभी वह ‘पर्जन्य’, ‘इन्द्र’, ‘वरुण’, ‘द्यौस’ जैसे वैदिक रूपकों पर कविता रचते हुए किसी मिथकीय भटकाव का शिकार नहीं होता; वरन् इन रूपकों की अंतर्वस्तु में मानवीय गरिमा, संवेदना और लोक की खुशहाली की आकांक्षा गूँथने में कामयाब होता है. वैसे, मिथकों पर आधारित ये कविताएँ कोई रहस्य नहीं बुनतीं; बल्कि दृष्टि का विस्तार करती हैं और हमारी संवेदना को जाग्रत करती हैं. ऐसे में सहज की विशिष्टता का बोध कराती वीरेन की ये कविताएँ आज के कवियों के लिए शिक्षण एवं स्पृहा का विषय हो सकती हैं.
कविता की संगत करना मनुष्यता की बाँह गहना है और कविता पर विचार करना सहृदय होना. कविता हृदय में अंकुरित होती, धमनियों में फलती-फूलती और आत्मा की आवाज बनकर प्रकट होती है. कविता के प्रकटीकरण में देशकाल समाहित होता है. तभी वह प्रासंगिक होती है और उसमें ‘लोकमंगल’ के फूल खिलते हैं. ऐसी ही कविता में साधारण की प्रतिष्ठा तथा कमजोर और निरुपाय के प्रति पक्षधरता का भाव मिलता है. कविता में साधारण की प्रतिष्ठा और कमजोर के प्रति पक्षधरता करुणा से आती है. कविता में करुणा की महिमा उसके उद्भव काल से रही है. कविता का आदि अनुष्टुप करुणा की विह्वल पुकार ही तो था. ‘रामायण’ की महत्ता में स्त्री, ग्रामवासी और वनवासी समाजों की केंद्रीय भूमिका से कौन इन्कार कर सकता है ? यही समाज राम की शक्ति और सामर्थ्य के स्रोत रहे और इन्हें ही महत्त्व देने की वजह से राम आदर्श एवं अनुकरणीय माने जाते हैं. वीरेन जैसे जातीय जीवन राग के कवि के लिए भी राम का आदर्श बहुत मायने रखता था.
जातीय जीवन राग के प्रसंग में उल्लेखनीय है कि भारतीय समाज जातीय सामाजिक समूहों से गठित तथा इन्हीं समूहों में विभक्त एक विशिष्ट समाज है. जातीय सामाजिक समूह एक खास भू-भाग, जलवायु, संस्कृति और भौगोलिक परिवेश का रहवासी समूह होता है, जिसका रहन-सहन, खान-पान, पहनावा, भाषा, सामाजिक रिवाज तथा त्यौहार एक समान होते हैं. भारतीय समाज आधुनिक शिक्षा तथा आर्थिक उपार्जन के बदलते संसाधनों तथा केंद्रों के चलते आज तेजी से रूपांतरित हो रहा है. नगरों में पेशा आधारित सामाजिक समूहों का उभार एवं महानगरों में सर्वदेशीय नागरिक उपस्थिति इसी रूपांतरण के परिणाम हैं और यही आज के भारत की वास्तविकता है. प्रसंगवश ज्ञात हो कि जिस भाव बोध को असमी, ओड़िया, बांग्ला आदि भाषाओं में ‘जातीय’ कहा जाता है, वह हिंदी में ‘राष्ट्रीय’ और अंग्रेजी में ‘नेशन’ कहलाता है. इस शब्द-भेद के बावजूद सभी जातीय समूहों में दया, ममता, प्रेम एवं करुणा तथा हर्ष और विषाद जैसे मानवीय गुण एक समान मिलते हैं. जातीय समूहों के ये गुण तथा एक जैसे खान-पान, तीज-त्योहार, पारंपरिक संगीत, धार्मिक संस्कार, लोकाचार एवं भौगोलिक वैशिष्ट्य इन्हें आंतरिक रूप से एक भाव, लय तथा अनुराग के बंधन में बाँधते हैं. यह बंधन जीवन को निरंतर गतिमान, पुनर्नवा तथा आकर्षक बनाये रखता है. इस तरह से विकसित हुआ सामूहिक जीवन-अनुराग कालक्रम में ‘जातीय जीवन राग’ कहलाया. यही जातीय जीवन राग हमारी पहचान है, जो सदियों से एक जैसा और एक सम में प्रवहमान है तथा जो हमें दुनिया के बाकी समाजों से अलग और विशिष्ट बनाता है.
वीरेन की कविता आम आदमी, उसकी जीवनचर्या तथा साहचर्य की कविता है. इस कविता में किसान, मजदूर, घरेलू स्त्री, बच्चे आदि सभी हैं. इसमें आम आदमी की आवाज, पसंद, चिंता, दौड़-भाग, सपने, सलाहियत आदि सब कुछ हैं. इसमें रोजमर्रा का जीवन, गाँव, शहर, पहाड़, जंगल, सड़क और संघर्ष पूरे वैभव में तथा अपनी-अपनी पहचान के साथ उपस्थित हैं. इसमें ‘समोसे’ छानते छनौटे की झंकार है तो ‘डीजल इंजन’ के व्याज से ‘उपूरे, परे, दरे, पूरे, दपूरे’ का ध्वनि वैविध्य भारतीय रेलों की संक्षिप्तियाँ भर नहीं हैं; बल्कि समय तथा जीवन के विद्रूप का संकेत देती ध्वनियाँ भी हैं. कविता में इन ध्वनियाँ की उपस्थिति और शाब्दिक लयकारी विशिष्ट है. यह विशिष्टता कुछ और नहीं, कवि के जीवन राग तथा छंद अनुराग की द्योतक है. कवि ने इन्हें लोक जीवन से अर्जित किया है. इस तरह से यथार्थ के साथ जुड़ाव, साधारण के साथ आत्मीयता तथा छंद के प्रति झुकाव वीरेन की कविता की ऐसी विशेषताएँ हैं, जिनका संबंध सीधे तौर पर भारत के जन मानस से और हमारी सामाजिक अभिरुचि से जुड़ता है. अतः यह कहना औचित्यपूर्ण है कि वीरेन जातीय जीवन राग के कवि हैं.
वीरेन पूर्वज कवियों में सबसे ज्यादा निराला से प्रभावित हैं. उनमें निराला जैसी सहजता ही नहीं, निराला जैसा आत्मधिक्कार और पश्चताप-बोध भी है. ‘सरोज स्मृति’ में निराला जब कहते हैं- “धन्ये, मैं पिता निरर्थक था, कुछ भी तेरे हित न कर सका !” तो उनकी विवशता और पछतावा खुलकर व्यक्त होता है. वीरेन को भी अपने जीवन से कम शिकायत नहीं है. मध्यवर्गीय लालसा तथा सुविधापरस्ती में जीवन व्यर्थ कर देने के प्रति वीरेन के यहाँ भी गहरे पश्चाताप का भाव है. उनका यह पश्चाताप मुक्तिबोध के “अब तक क्या किया ? जीवन क्या जिया !” की तरह कविता में आत्मधिक्कार बनकर व्यक्त हुआ है. वीरेन के आत्मधिक्कार की बानगी उनकी ‘कैसी जिंदगी जिये’ कविता में मिलती है.
आठवें दशक के कवियों में वीरेन गहरे पश्चाताप तथा धारदार आत्मालोचना के कवि हैं. उन्होंने अपनी विफलता, विवशता, प्रवंचना और पश्चाताप को केंद्र में रखकर कई कविताएँ लिखी हैं. सामंती समाज व्यवस्था में आखिर एक कवि की हैसियत ही क्या होती है ? धनबल और बाहुबल के जमाने में कवि जैसे निर्बल, निरीह एवं जगत् की चिंता करने वाले ‘दुखिया दास’ की कौन चिंता करता है ? उसे जीने के लिए और अपने एवं परिवार के भरण-पोषण के लिए वह सब कुछ करना पड़ता है, जिन्हें उसका संवेदनशील और भावुक मन रंच मात्र भी पसंद नहीं करता. इसीलिए वीरेन की कविता में आत्मालोचना के कई उदाहरण एवं मुकाम मिलते हैं. इस धरातल पर वीरेन अपने पूर्ववर्ती मुक्तिबोध और निराला से ही नहीं, भक्तिकाल के पूर्वज संत कवियों की परंपरा से भी जुड़ते हैं, जिनमें आत्मधिक्कार की प्रवृत्ति बड़ी गहरी थी.
“मो सम कौन कुटिल खल कामी
जेहिं तनु दियौ ताहिं बिसरायौ, ऐसौं नोनहरामी”
अथवा
“मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर”
कहने वाले सूर और तुलसी की परंपरा से वीरेन का जुड़ाव मानवीय संवेदना एवं करुणा से सिक्त जुड़ाव है.
वीरेन के पश्चाताप बोध का एक पक्ष और है, जिसपर ध्यान देने की जरूरत है. वह पक्ष तब उद्घाटित होता है, जब वीरेन का यह कबूलनामा सामने आता है –
“एक कवि और कर ही क्या सकता है
सही बने रहने की कोशिश के सिवा”.
इसमें कवि की मंशा और अन्यथा विवशता अप्रकट रहकर भी प्रकट हो गयी है. हालांकि, ‘मैं कवि हूँ पाया है प्रकाश’ के निराला की भाँति वीरेन में भी स्वाभिमान कूट-कूट कर भरा मिलता है –
“मैं ग्रीष्म की तेजस्विता हूँ
और गुठली जैसा
छिपा शरद का ऊष्म ताप
मैं हूँ वसंत में सुखद अकेलापन”
( ‘कवि’, ‘कविता वीरेन, पृष्ठ : 58 )
‘मैं शैली’ में लिखी गयी यह कविता, मौलिक कल्पना, गहन संवेदना एवं तीव्र अनुभूति की सशक्त अभिव्यक्ति होने के बावजूद, अपने सर्जक की वैचारिक प्रस्थापना का उद्घोष है. इसमें कवि जिन आम फ़हम चीजों और सहज प्राप्य वस्तुओं, भावों, स्थितियों, अनुभूतियों आदि से अपने को जोड़ता हुआ अपना परिचय देता है, वह उसके सरोकार तथा मामूली चीजों के प्रति गहरे लगाव का द्योतक है. कविता के बिंब और प्रतीक भी अभिनव एवं प्रेरक हैं.
वीरेन की कविता नेहरू युग से मोहभंग की प्रतिक्रिया वाले व्यापक सामाजिक और राजनीतिक उथल-पुथल भरे दौर की कविता है. वह घरेलू मोर्चे पर नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह और उसके क्रूर दमन से उबलता हुआ दौर था. वैश्विक स्तर पर वियतनाम युद्ध के विरोध का दौर भी वही था. उस दौर में अमेरिका की विद्रोही बीट पीढ़ी की अराजकता भी एक प्रवृत्तिगत उभार के रूप में दुनिया भर में ध्यान आकर्षित कर रही थी. हिंदी कविता के वातावरण में धूमिल का गुस्सा छाया हुआ था. वीरेन की काव्य चेतना पर इन घटनाओं का गहरा प्रभाव पड़ा. उन्हीं दिनों में आलोकधन्वा की कविता ‘जनता का आदमी’ और ‘गोली दागो पोस्टर’ तथा वीरेन की कविता ‘रामसिंह’ नक्सलबाड़ी की संघर्ष-चेतना की अभिव्यक्ति के रूप में चिह्नित एवं चर्चित हुईं. इन कविताओं का लक्ष्य और सरोकार मनुष्य का शोषण तथा दमन करने वाले शासक वर्ग का प्रतिरोध करना था. साथ ही न्याय एवं समानता पर आधारित व्यवस्था के लिए क्रांति का स्वप्न जगाना तथा संघर्ष की चेतना को धार देना था. तब ये कविताएँ अपने क्रांतिकारी तेवर और बयान के लिए तथा सामाजिक यथार्थ एवं विडंबना के सशक्त चित्रण की वजह से चर्चा के केंद्र में थीं.
वीरेन तद्भव जीवन और लोकधर्मी चेतना के कवि हैं. वे अपनी कविता को लोक से जोड़ने तथा उसे संप्रेषणीय बनाने के लिए तुकबन्दी तक का प्रयोग पूरी शिद्दत से करते हैं. इसके लिए वे सपाटबयानी का शिल्प अपनाने से भी परहेज नहीं करते. कविता में बीच-बीच में सूक्तियाँ रचते चलना वीरेन की ऐसी काव्यगत विशेषता है, जो उन्हें अपने समकालीनों में खास बनाती है. उनकी सूक्ति जैसी काव्य उक्तियों में जीवन की विडंबना, त्रासदी, उम्मीद, संकल्प और प्रबोधन के भाव मिलते हैं. इसलिए वीरेन की कविता लोक के मर्म का स्पर्श करने के बावजूद, गुरु-गंभीर नहीं; सहज और स्वाभाविक लगती है. उनकी किसी-किसी कविता की कोई-कोई पंक्ति इतनी चुटीली एवं मुहावरेदार है कि उसमें एक पूरी कहावत मिल जाती है. उनकी ऐसी ही एक कविता है ‘इतने भले नहीं बन जाना साथी’.
जीवन में विचार एवं विवेक को अपनाने की जिद्द करती यह कविता व्यंग्य से शुरू होती है. संगी-साथियों के व्यवहार और कार्यकलाप पर दोस्ताना कटाक्ष से शुरू होती इस कविता का स्वर आगे चलकर तीखा हो जाता है. शुरुआती कटाक्ष व्यक्तिवादी घाघपन तथा कठमुल्लेपन पर करारा प्रहार में तब्दील हो जाता है. कविता यह सीख देती है कि सभ्यता और संस्कृति अपनी मौलिकता में मलिन नहीं होती. परंतु उनका मुखौटा अमानवीय और हत्यारा हो सकता है. यह कविता संस्कृति का खेल खेलने वालों की असलियत समझने और अपनी समझ बदलने के आह्वान के साथ लकीर का फकीर बनने की मुखालफत करती है. कविता अपने अभिप्राय में पाठकों से भी यथार्थवादी तथा व्यावहारिक बनने का आग्रह करती है और समझदारी का विमर्श रचती है. कहने की आवश्यकता नहीं कि समझदारी का विमर्श स्वभाव से प्रतिरोधी होता है.
वीरेन की शख्सियत में वैचारिक प्रतिबद्धता और अदम्य जिजीविषा कूट-कूट कर भरी थी. कवि परिवर्तनकामी विचार से इस कदर आबद्ध और बदलाव का इतना गहरा आकांक्षी रहा कि अकादमिक वृत्ति करने एवं कविता लिखने के बावजूद जुलूस में शामिल होने तथा धरने पर बैठने के अपने पसंदीदा काम से कभी परहेज नहीं किया. दिल की बीमारी के बावजूद मन से मातृभूमि को टूटकर प्यार करता कवि तब रुला देता है, जब वह ‘एक’ कविता में अपनी अब तक की स्थगित इच्छाएँ व्यक्त करता है.
वीरेन के जीवन के अंतिम कुछ दिन गले के कैंसर का इलाज कराते हुए दिल्ली के रॉकलैंड हॉस्पिटल में बीते. उन्होंने उस समय के अपने यातनादायी अनुभव को ‘रॉकलैंड डायरी’ शीर्षक कविता ( ‘स्याही ताल’ संग्रह ) में अंकित किया है. यह कविता पढ़ते हुए पता चलता है कि कवि अपनी तमाम वैचारिक पक्षधरता, प्रतिबद्धता, बुद्धिमत्ता और जिंदादिली के बावजूद कितना भावुक, जिज्ञासु, निश्छल और निर्मल हृदय है.
वीरेन की इन्हीं दिनों की लिखी एक अन्य संवेदनशील कविता है – ‘रामदास-दो’. रघुवीर सहाय का प्रसिद्ध काव्य नायक ‘रामदास’ इस कविता में पुनर्जीवित हुआ है. अंतर बस इतना है कि रघुवीर सहाय का रामदास ‘खुली सड़क पर भीड़ के बीच हत्यारे द्वारा’ मारा गया था; जबकि ‘रामदास-दो’ अस्पतालों की मुनाफाखोरी की भेंट चढ़ता है.
वीरेन की कविता जीवन की संपूर्णता का उद्भास है. यह उद्भास उनकी कविता में विषय-वैविध्य, सहज के सौंदर्य, लय, शैली एवं शिल्प की सादगी में भासमान है. कवि को मालूम है कि कविता का मार्ग ‘अति सूधो सनेह को मारग’ नहीं; बल्कि विवेक और चेतना की जद्दोजहद से भरा होता है. ‘सावन बीता’ शीर्षक कविता में उन्होंने लिखा भी है –
“भीतर-भीतर यह गोंद सरीखा जो रिसता
प्राचीन भीत पर कैसा अनुपम अंकन है
कैसी बेताबी जिसके बिना सुकून नहीं
ऐसा भीषण रास्ता कविता का रास्ता है.”
वीरेन की कविता में प्रेम की गहरी अनुभूति और चराचर के साथ सह-अस्तित्व की प्रवृत्ति मिलती है. उनकी कविता में प्रेम जैविक से आगे की अनुभूति है. वह पुरुष और स्त्री के बीच लंबे साहचर्य से विकसित पारस्परिक अनुराग का पर्याय है. इस प्रेम में स्त्री न तो प्रेम-दीवानी है और न अपने प्रेमी के व्यक्तित्व में विलीन होती भावुक समर्पिता. वह अवयव की कोमलता के कारण छुई-मुई बिल्कुल नहीं है. वह कर्मठ है, स्वावलंबी है तथा साथी भाव की दीप्त आभा में अपने पूरे वजूद के साथ उपस्थित है. इस अर्थ में वीरेन प्रेम के बुनियादी सरोकार तथा सम्मान के कवि हैं.
प्रेम जड़ता का विरोधी, संपूर्णता का अनुरागी तथा परंपरा का भंजक होता है. प्रेम स्वभाव से प्रतिरोधी होता है. हिंसक और अमानवीय समय में प्रेम खुद में प्रतिरोध होता है. वीरेन का कवि इस बात को भलीभाँति जानता है. इसलिए वह प्रेम की कविता रचते हुए किसी और बात की परवाह नहीं करता. कविता में शाश्वत और भद्र रचने की परवाह तो रंच मात्र भी नहीं. वह कविता के लिए विचार के आरोपण तथा परिवर्तन की सायास चेष्टा को भी जानलेवा मानता है. इसलिए वह अपनी कविता में नकली शाश्वतता के बजाय स्वानुभूति और स्वानुभव का सच रचना श्रेयस्कर समझता है. इसलिए उसकी कविता में अनुभूतियों की प्राणवान छवियाँ और लय का मोहक उजास है. कदाचित् इसीलिए वीरेन की कविता में अंतर्वस्तु का सूखा और शिल्प का अकाल नहीं मिलता. विषय की विविधता और विन्यास जनित ताजगी वीरेन की कविता की ऐसी विशेषता है, जो उसे हर हाल में अभिनव तथा जीवन रस से भरपूर बनाये रखती है.
वीरेन की कविता पितृसत्तात्मक समाज में शोषित और उत्पीड़ित स्त्री की पक्षधर कविता है. अकारण नहीं वीरेन की कविता स्त्री जीवन की बुनियादी चुनौतियों के साथ-साथ परिवार और समाज में उसकी दोयम दर्जे की हैसियत को रेखांकित करती है तथा इसे बदलना चाहती है. कवि की बहुचर्चित ‘पी.टी.ऊषा’ शीर्षक कविता ऐसी ही है. यह कविता भूख की पहचान तथा साधारण की महिमा का गान करती हुई बड़ी सहजता से बड़ी बात कह जाती है. इसमें बेआवाज जबड़े की सभ्यता पर कवि का कटाक्ष बड़ा मानीखेज है. यह कवि की सामान्य जन के प्रति पक्षधरता को उजागर करता कटाक्ष है, जो अपनी परिणति में तथाकथित सभ्य समाज पर प्रहार बन जाता है.
कवि की ऐसी ही एक महत्त्वपूर्ण कविता है – ‘हम औरतें’. यह कविता स्त्री के प्रति हमारे समाज के सोच और सलूक का आईना है. पुरुष होने के दंभ में हम औरतों के साथ क्या-क्या अमानवीय और अपमानजनक व्यवहार नहीं करते. औरतें भी बच्चों से लेकर पति तक की इच्छाओं और आदेशों का पालन करती हुई अपनी इच्छाओं एवं कामनाओं को जीवन भर दबाती रहती हैं. लेकिन कहते हैं न कि ‘मरता क्या न करता’. इच्छाओं और कामनाओं को दबाते-दबाते हलकान औरत आखिरकार फट पड़ती है.
यह कविता अपनी लघुता के बावजूद, विचार और प्रभावान्विति में बड़ी कविता है. इसमें स्त्री की आकांक्षा और अभीप्सा का जैसा जीवंत तथा जागतिक वर्णन कवि ने किया है, वह अद्भुत है.
वीरेन की कविता में स्त्रियाँ घर सँभालती, खेत गोंड़ती, घास काटती, संतरे बेचती और जंगल से लकड़ियाँ बीनती हुई मिलती हैं. उनकी कविता में ‘चारबाग स्टेशन : प्लेटफार्म नं. 7’ की वह बावली स्त्री भी है, जिसके साथ हमारा समाज बर्बर है. कवि की एक कविता है ‘परिकल्पित कथालोकांतर काव्य-नाटिका नौरात, शिवदास और सिरीभोग वगैरह’. इस कविता में स्त्रियों में पूजा पाठ के बहाने ही सही, ‘घर से बाहर निकलने की छुट्टी की खुशी’ अलौकिक है. बावजूद इसके, वीरेन स्त्री को कोई रियायत नहीं देते; नहीं महिमा मंडन करते हैं. अलग से कोई विशेषण-विशेष्य भी नहीं रचते. अलबत्ता उन्होंने अपने समकालीन आलोकधन्वा की ‘भागी हुई लड़कियाँ’ अथवा ‘ब्रूनो की बेटियाँ’ सरीखी स्त्री केंद्रित कोई कविता नहीं लिखी, फिर भी उनकी कविता में स्त्री-जीवन का यथार्थ और संघर्ष अपने समूचेपन में उपस्थित तथा दृश्यमान हैं. उनकी कविता में स्त्री की स्थिति वैसी ही है, जैसी स्थिति हमारे समाज में देखी जाती है- आशंका, अपमान, शोषण और सपनों के भार तले दबी-सहमी कारुणिक स्थिति. ‘वन्या’ और ‘कटरी की रुकुमिनी और उसकी माता की खंडित गद्यकथा’ इसी भाव की मार्मिक कविताएँ हैं. ये कविताएँ पहाड़ के नैसर्गिक सौंदर्य, जीवन-संघर्ष और करुणा का वृतांत रचने के बजाये अत्याचार, दमन और अन्याय की ऐसी गाथा हैं, जिनसे प्रतिरोध की एक सशक्त शृंखला निर्मित होती है.
वीरेन की स्फुट कविताएँ भी गहरे भाव और अभिप्राय से युक्त हैं. ललित शब्द विन्यास और लयात्मक संरचना की ये कविताएँ अभिव्यंजना से परिपूर्ण हैं. इनमें कवि के कोमल मनोभावों की अभिव्यक्ति प्रभावित करती है. किसी-किसी कविता में व्यवस्था का व्यंग्य-विद्रूप भी देखते बनता है. स्फुट कविताओं की अन्तःप्रेरणा में कवि के अनुभव जगत् और वाह्य जगत् समान रूप से भागीदार हैं. इसलिए ऐसी कविताई को निष्प्रयोजन हर्गिज नहीं कहा जा सकता. ऐसी कविताओं में ‘मैं नहीं तनहा’, ‘पान की कला’, ‘गलत हिज्जे’, ‘क्या कीजे’, ‘सजना ! सजना’, ‘घिघ्घी’, ‘सभा’ आदि उल्लेखनीय हैं. इन कविताओं को पढ़ने वाला कोई भी काव्य-प्रेमी स्वीकार करेगा कि जीवन के मामूली अनुभव पर भी अच्छी कविता रची जा सकती है, बशर्ते कवि के पास संवेदनशील दृष्टि तथा सृजन का कौशल हो.
वीरेन की कविता वैचारिक पक्षधरता की कविता है. इस कविता में सादगी और ऊष्मा से भरा जीवन है तथा उसकी चुनौतियाँ हैं, तो व्यक्ति-जीवन और सामाजिक जीवन को शोषण से मुक्त करने एवं खुशहाल बनाने की गहरी आकांक्षा भी है. कवि अपनी सपनीली दृष्टि और कल्पना से कविता में एक नया एवं व्यापक लोक रचता है. इसमें हमारे लोक जीवन और समाज में प्रायः तुच्छ समझे जाने वाले प्राणियों तथा वस्तुओं की खासी उपस्थिति है. इस उपस्थिति में सहजता तथा स्वाभाविकता का आकर्षण है. शहरी मध्यवर्ग के जीवन के संघर्ष और यथार्थ के विविध रूपों एवं अनुभवों को उसी की भाषा में मूर्त और संवेद्य बनाना इस कविता की पहचान है. यह कविता संवेदना एवं करुणा के गहरे क्षणों में व्यक्ति एवं समाज की छोटी-बड़ी घटनाओं, सवालों और समस्याओं के भँवर में डूबती-उतराती जिंदगी की आकुल पुकार है. इसलिए यह हमारे पूरे परिदृश्य की कविता है और बहुत हद तक खबरदार करती कविता है. इस कविता के रंग अनेक हैं. कहीं यह स्वानुभूति की अभिव्यक्ति है, तो कहीं खालिस बयान से शुरू होती है; परंतु जल्दी ही आत्मालोचना, व्यंग्य तथा प्रतिरोध में रूपांतरित हो जाती है. आगे चलकर यह देशकाल की खबर बन जाती है. यह कविता अपने समय तथा समाज की खबर बताती हुई खबरदार भी करती है. कविता बताती है कि
“भीषणतम मुश्किल में दीन और देश
लोगों के दुख तनिक कम न हुए बढ़े और बढ़े और और
कोमलता अगर कहीं दीख गई आँखों में, चेहरे पर
पीछे लग जाते हैं कई-कई गिद्ध और स्यार
बिस्कुट खिलाकर लूट लेने वाले ठग बटमार
माया ने धरे कोटि रूप
अपना ही मुल्क हुआ जाता परदेश. प्यारे मंगलेश.”
(‘रात–गाड़ी’, कविता वीरेन, पृष्ठ : 200 )
वीरेन को शिष्ट समाज की अभिरुचि का कवि नहीं बनना था. मगर व्यापक जन समाज की आकांक्षा और सरोकार के कवि के रूप में उनकी जो छवि लोक-चित्त में है, उसे कोई बिगाड़ नहीं सकता. वे कविता में आतंक पैदा करने के विपरीत संवाद की चाहत के कवि हैं, मुश्किल-से-मुश्किल हालात को जागरण की रात बनाने की चाहत के कवि. इस कवि की सहज, संप्रेषणीय और आत्मीयता जगाती कविता अपनी अंतर्वस्तु, भाषा, शिल्प और सरोकार से तथा संवेदना एवं करुणा से सिक्त मनुष्य-राग से व्यवस्था की नाकामी पर सवाल खड़े करती है. व्यवस्था की नाकामी यानी गहरे संकट की घड़ी. गहरे संकट की घड़ी में आदमी अपनी मातृभाषा में बोलता है. मार्क्स ने कविता को मनुष्यता की मातृभाषा कहा है. इसलिए यह स्वाभाविक है कि जहाँ कहीं मनुष्यता संकट में होती है, वहाँ की कविता उस संकट को पूरी प्रामाणिकता और निष्ठा से उकेरती एवं अभिव्यक्त करती है. वैसे भी, कविता में संकट उकेरना, प्रतिरोध दर्ज करना है. प्रतिरोध की कविता केवल नारा नहीं होती. उसमें कविता की शर्तें भी व्यंजित होती हैं. उसमें शोषण, दमन, व्यथा-कथा, जन-आकांक्षा, प्रेम, स्त्रियों के सवाल, बच्चों के सपने आदि की अनुगूँज भी होती है. वीरेन की कविता में इन सब की गहरी अनुगूँज जाहिरा तौर पर मनुष्यता के संकट की ईमानदार और प्रामाणिक अभिव्यक्ति है. ऐसे में वीरेन अपने समकालीनों में सर्वाधिक लंबे समय तक पढ़े और सराहे जाते रहें, तो कोई आश्चर्य नहीं. वीरेन की प्रतिज्ञा भी है –
“रात है रात बहुत रात बड़ी दूर तलक
सुबह होने में अभी देर है माना काफी
पर न ये नींद रहे नींद फ़कत नींद नहीं
ये बने ख्वाब की तफ़सील अंधेरों की शिकस्त.”
(‘कानपुर’, कविता वीरेन, पृष्ठ : 313 )
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कविता वीरेन यहाँ उपलब्ध है.
श्रीनारायण समीर
बेंगलूर विश्वविद्यालय से पीएच.डी. |
इनकी असल समझना साथी/ अपनी समझ बदलना साथी/काफी बुरा समय है साथी…। वीरेन डंगवाल की कविताओं पर अब तक का सबसे अच्छा लेख है यह। वीरेन डंगवाल पर इससे अच्छा कोई लेख मैंने पहले नहीं पढ़ा। थोथे माल का लाख ढिंढोरा पीट लें , बहुत दिन तक बाजार में वह टिकता नहीं। इसी तरह रचना में दम होगा तो सदियों बाद भी वह धरती फोड़कर निकली दूब की तरह लहलहा उठेगी। वीरेन डंगवाल की कविताएं ऐसी ही दूब जैसी हैं। कारण चाहे जो हो , यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं कि श्रीनारायण समीर से पहले के आलोचकों ने वीरेन डंगवाल की कविताओं पर विचार करते हुए कृपणता ही दिखाई। ‘ समालोचन’ पर यह लेख प्रसारित करने के लिए इसके संपादक- संचालक अरुण देव जी का शुक्रिया और इसके लेखक श्रीनारायण समीर को बहुत-बहुत बधाई! अंत में हिन्दी के लेखकों , साहित्यकारों और आलोचकों से यही कहूंगा – अपनी समझ बदलना साथी।👍