विष्णु खरे की कविताओं का एक प्रतिनिधि संकलन राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है. कविताओं का चयन कवि केदारनाथ सिंह ने किया है. भूमिका में केदारनाथ जी लिखते हैं– “एक ऐसा कवि (विष्णु खरे) जो गद्य को कविता की ऊंचाई तक ले जाता है और हम पाते हैं कि अरे, यह तो कविता है! ऐसा वे जान बूझकर करते हैं- कुछ इस तरह कि कविता बनती जाती है – कि गद्य छूटता जाता है. पर वह छूटता नहीं- कविता में समां जाता है.”
विष्णु खरे के नवीनतम कविता संग्रह \’और अन्य कविताएं\’ (२०१७) पर यह लेख ओम निश्चल ने लिखा है.
विष्णु खरे की कविताएं
एक बहुत लम्बा वाक्य वह
ओम निश्चल
विष्णु खरे के इस संग्रह का यह केवल संक्षेप पाठ हैं. अक्सर कवियों को उनके किसी एक संग्रह से पढ पाना संभव नही होता. उनका पूरा कवि जीवन एक मिजाज की अनवरत यात्रा है. इतनी तरह की कविताएं उनके यहां हैं और ऐसे ऐसे वृत्तांत जो किसी भी वृत्तांतप्रिय कवि से तुलनीय नहीं . उनका गद्य वृत्तांतप्रियता में विश्रांति का अनुभव करने वाला गद्य है. ऐसा गद्य जिसे पढ़ते हुए यथार्थ की भीड़ से कंधे रगड़ती चलती कविताओं की कुंवर नारायण जी की बात पुन: पुन: प्रमाणित होती है.
विष्णु खरे की कविताओं से कभी वैसी आसक्ति नहीं बनी जैसे अन्यों से. पर सदा उन्हें स्पृहा और हिंदी कविता में एक अनिवार्यता की तरह देखता रहा. वे पहचान सीरीज़ के कवि रहे. पहले संग्रह \’खुद अपनी आंख से\’ ही उनके नैरेटिव को कविता में कुछ अनूठे ढंग से देखा पहचाना गया. फिर \’पिछला बाकी\’,\’सबकी आवाज़ पर्दे में\’, \’काल और अवधि के दरमियान\’, \’लालटेन जलाना\’ और \’कवि ने कहा\’—आदि इत्यादि. वे कविता के नैरेटिव और गद्य को निरंतर अपने समय का संवाहक बनने देने के लिए उसे मॉंजते सँवारते रहे. पत्रकारिता, कविता, सिनेमा, कला, भाषा हर क्षेत्र में उनकी जानकारी इतनी विदग्ध और हतप्रभ कर देने वाली होती कि आप लाख प्रकाश मनु के अनुशीलन के अन्य पहलुओं से असहमत हों पर खरे को दुर्धर्ष मेधा का कवि कहने पर शायद ही असहमत हों. हालांकि कविता में अति मेधा का ज्यादा हाथ नहीं होता. औसत प्रतिभाएं भी कविता में कमाल करती हैं और खूब करती हैं.
उनके पिछले संग्रह \’काल और अवधि के दरमियान\’ को पढते हुए लगा था कविता में वे जितने प्रोजैक हैं उतनी ही उनकी कविता अपनी तर्काश्रयिता से संपन्न. वे दुरूह से दुरूह विषय पर और आसान से आसान विषय पर कविता को जैसे कालचक्र की तरह घुमाते हैं. उनके अर्जित और उपचित ज्ञान का अधिकांश उनकी कविताओं में रंग-रोगन की तरह उतरता है तो यह अस्वाभाविक नहीं. उनकी आलोचना कभी कभी इतनी तीखी होती है जितनी कि कभी कभी किसी किसी कवि को शिखरत्व से मंडित कर देने में कुशल. उनके ब्लर्ब कवियों के लिए प्रमाणपत्र की तरह हैं जिनके लिए भी वे कभी लिखे गए हों. कविता में वे इतने चयनधर्मी रहे हैं कि कोई औसत से नीचे का कवि उनसे आंखें नहीं मिला सकता.
भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कारपाए कितने ही कवियों की धज्जियां उड़ाती उनकी आलोचना आज भी कहीं किसी वेबसाइट में विद्यमान होगी. हो सकता है, उसमें किंचित मात्सर्य का सहकार भी हो. पर अपने कहे पर विष्णु खरे ने शायद ही कभी खेद जताया हो. पर इसका अर्थ यही नहीं कि उनके अंत:करण का आयतन कहीं संक्षिप्त है बल्कि वह इतना विश्वासी, अडिग और प्रशस्त रहा है कि वह पीछे मुड़ कर देखना ही नहीं चाहता. कविता में या जीवन में या समाज में वे कभी संशोधनवादी नहीं रहे. उन्हें साधना मुश्किल है. उनकी साधना जटिल है. उनकी कविता को साधना और समझना और भी जटिल. क्योंकि अनेक ग्रंथिल परिस्थितियां उनकी कविता के निर्माण में काम करती दीखती हैं. वे मेगा डिस्कोर्स के कवि हैं.
भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कारपाए कितने ही कवियों की धज्जियां उड़ाती उनकी आलोचना आज भी कहीं किसी वेबसाइट में विद्यमान होगी. हो सकता है, उसमें किंचित मात्सर्य का सहकार भी हो. पर अपने कहे पर विष्णु खरे ने शायद ही कभी खेद जताया हो. पर इसका अर्थ यही नहीं कि उनके अंत:करण का आयतन कहीं संक्षिप्त है बल्कि वह इतना विश्वासी, अडिग और प्रशस्त रहा है कि वह पीछे मुड़ कर देखना ही नहीं चाहता. कविता में या जीवन में या समाज में वे कभी संशोधनवादी नहीं रहे. उन्हें साधना मुश्किल है. उनकी साधना जटिल है. उनकी कविता को साधना और समझना और भी जटिल. क्योंकि अनेक ग्रंथिल परिस्थितियां उनकी कविता के निर्माण में काम करती दीखती हैं. वे मेगा डिस्कोर्स के कवि हैं.
अभी हाल ही आया उनका सातवां कविता संग्रह \’और अन्य कविताएं\’ इस जटिलता और दुर्बोधता का प्रमाण हैं. इसका नाम भी उन्होंने शमशेर की तर्ज पर रखा है. उनके भाषा-सामर्थ्य और भीतर अंतर्निहित ठहरी गहराइयों की प्रशंसा कुंवर नारायण ने बहुत पहले की थी. यद्यपि उन्होंने यह भी पाया है कि उनकी कुछ कविताओं में यथार्थ की ठसाठस कुछ कुछ उसी तरह है जैसे किसी दैनिक अखबार का पहला पेज. लेकिन इसमें भी कविता के मूलार्थ को बचाए रख पाना उनकी कला का परोक्ष आयाम है. वे इनमें यथार्थ की भीड़ में कंधे रगड़ते चलने का रोमांच पाते हैं तो अनुभवों की अधिक अमूर्त शक्तियों का अहसास कराने का सामर्थ्य भी. उनकी कविताएं कल भी और आज भी बौद्धिकता और ज्ञानार्जन का प्रतिफल हैं. वे कमोबेश जिरहबाज़ लगती हैं. उनकी राह पर चलने वाले गीत चतुर्वेदी और व्योमेश शुक्ल ने कविता में गद्य के स्थापत्य और प्रतिफल को खूबी से साधा है.
परन्तु इस जिरहबाज़ और संगतपूर्ण निष्कर्षों तक कविता को ले जाने की प्रवृत्ति उनमें कूट कूट कर भरी है. कविताएं उनकी वैज्ञानिकता का लोहा मनवाती हैं पर बाजदफे लगता है कि उनकी कविता में साधारणता में जीने वालों के प्रति एक सहानुभूतिक रुझान भी है. यह कवि-कातरता है – करुणा है जिसके बिना कविता में वह भावदशा नहीं आ सकती जो आपको विगलित और विचलित कर सके. उनकी कविताओं में दृश्य की यथास्थितिशीलता के एक एक पल का बयान होता है—रेखाचित्र से लेकर उस पूरी मनोदशा भावदशा, समाजदशा का अंकन. शोक सभा के मौन को लेकर लिखी पहली ही कविता विलोम इन्हीं दशाओं से होकर निरुपित हुई है. वह शोकशभा का रेखांकन भी है और दिवंगत आत्मा के प्रति पेश आने वाले पेशेवर हो चुके शोकार्त समाज का आईना भी. पर जहां उनके भीतर का यह कुतूहल बना रहता है हर विषय को अपनी तरह से स्कैनिंग कर लेने में प्रवीण और उत्सुक; वहां वे अनेक स्थलों पर करुणासिक्त नजर आते हैं. वहां अपनी बौद्धिकता के आस्फालन को इस हद तक नियंत्रित करते हैं कि चकित कर देते हैं.
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\’उसी तरह\’ में अकेली औरतों और अकेले बच्चों को जमीन पर खाते न देखने का काव्यात्मक ब्यौरा कुछ इसी तरह का है. इसी तरह उनकी कविता \’\’तुम्हें\’\’ है. सरेआम एक आदमी को मारे जाते देखने वालों पर यह कविता एक तंज की तरह है. जैसे वह बाकी बचे हुए लोगों को उनका हश्र बता रही हो. अकारण नहीं कि यहां मानबहादुर सिंह जैसे कवि याद आते हैं जो बुजदिल तमाशबीनों के बीच अकेले कर मार दिए गए और भीड़ अपनी कायरता के खोल में छिपी रही.
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\’उसी तरह\’ में अकेली औरतों और अकेले बच्चों को जमीन पर खाते न देखने का काव्यात्मक ब्यौरा कुछ इसी तरह का है. इसी तरह उनकी कविता \’\’तुम्हें\’\’ है. सरेआम एक आदमी को मारे जाते देखने वालों पर यह कविता एक तंज की तरह है. जैसे वह बाकी बचे हुए लोगों को उनका हश्र बता रही हो. अकारण नहीं कि यहां मानबहादुर सिंह जैसे कवि याद आते हैं जो बुजदिल तमाशबीनों के बीच अकेले कर मार दिए गए और भीड़ अपनी कायरता के खोल में छिपी रही.
आज किसानों की आत्महत्या खबरों में है. दशकों से ऐसा चल रहा है, जैसे एक आत्मघाती वातावरण की ओर किसानों को ढकेला जा रहा हो. यह आम आदमी की चिंताओं में है. पर सत्ता के रोएं इन हत्याओं से विचलित नहीं होते. कवि कहता है कि आत्महत्या करनी ही है तो आत्महत्या के कारकों को मार कर क्यों नहीं मरते. पर कवि अंत तक आकर इस नतीजे पर पहुंचता है कि हम खुद क्या हैं ! हम तो खुद अपने ही प्रेत हैं अब पछतावे में मुक्ति खोजते भटकते हुए. हम जैसे तो कभी की आत्महत्या कर चुके !(उनसे पहले) विष्णु खरे, जैसा कि कहा है, अनेक मामलों में अप्रतिम हैं—-हर बार श्रेष्ठता के अर्थ में ही नहीं, विलक्षणता के अर्थ में भी. वे यदि समाज के कुछ कमीनों पर प्रहारक मुद्रा में पेश आते हैं तो सदियों से पूजित अभिनंदित सरस्वती का एक विरूप पाठ वे अपनी कविता सरस्वती वंदना में रखते हैं. वे बताते हैं कि अब न तुम श्वेतवसना रही न तुम्हारे स्वर सुगठित–वे विस्वर हो चुके हैं. कमल विगलित हो चुका, ग्रंथ जीर्णशीर्ण, तुममे अब किसी की रक्षा की सामर्थ्य नहीं कि तुम किसी को जड़ता से उबार सको. वे यजमानों की आसुरी प्रवृत्तियों की याद दिलाते हुए उन्हें अपने पारंपरिक रूप और कर्तव्य को त्याग कर या देवी सर्वभूतेषु विप्लवरूपेषु तिष्ठिता के रूप में अवतरित होने का आहवान करते हैं. सरस्वती के आराधकों को खरे का यह खरापन कचोट सकता है पर विष्णु खरे का कवि ऐसी गतानुगतिकता पर समझौते नही करता. क्योंकि वह जानता है कि बाजार के इस महाउल्लास में सरस्वती भी बाजारनियंत्रित हो चुकी हैं. उनकी वंदना भी अब हमारे प्रायोजित विनय का ही प्रतिरूप है.
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विष्णु खरे के इस संग्रह पर आलैन कुर्दी का चित्र है. हमारे अंत:करण को झकझोर देने वाला कारुणिक चित्र. इस कारुणिक प्रसंग पर अनेक कवियों ने कविताएं लिखीं कि करुणा की बाढ़ एकाएक सोश्यल मीडिया पर छा गयी थी. खरे ने भी इस पर आलैन शीर्षक से बहुत मार्मिक कविता लिखी है. आलेन अपने परिवार के साथ ग्रीस जाने के लिए एक नौका पर सवार था कि अपनी मां, भाई और कई लोगों के साथ डूब जाने से उसकी मौत हो गई. लहरों के साथ बह कर तट पर पहुंचे आलैन के शव की तस्वीर ने पूरी दुनिया में हंगामा मचा दिया. इस दुर्घटना में आलेन के पिता अब्दुल्ला कुर्दी बच गए. जिन्होंने कनाडा का शरण देने का प्रस्ताव ठुकरा दिया था. खरे की इस कविता की आखिरी पंक्तियां देखें :
आ तेरे जूतों से रेत निकाल दूँ
चाहे तो देख ले एक बार पलट कर इस साहिल उस दूर जाते उफ़क को
जहां हम फिर नही लौटेंगे
चल हमारा इंतिजार कर रहा है अब इसी खा़क का दामन.
खरे का काव्य संसार अप्रत्याशित का निर्वचन है. कवि मन जिधर बहक जाए, वहीं कविता हो जाए. निरंकुशा: हि कवय: जिसने कहा होगा,सच ही कहा होगा. विष्णु खरे ऐसे ही निरंकुश कवियों में हैं. उनके यहां कविता के अप्रतिम अलक्षित विषय हैं,कभी कभी दुनिया जहान की चीजों को कविता में निमज्जित करते हुए हमें अखरते भी हैं पर हम उनसे उम्मीदें नहीं छोड़ते.
यहां दज्जाल ; जा, और हम्मामबादगर्द की ख़बर ला, संकेत, तत्र तत्र कृतमस्तकांजलि, दम्यत् जैसी कविताएं हैं जिनके लिए खरे से कुछ समझने की दरकार भी हो सकती है. पर ऐसी भी कुछ कविताएं हैं जहॉं लगता है कि वे अपनी स्थानीयता को बचाए हुए हैं : \’और नाज़ मैं किस पर करूँ\’, सरोज स्मृति, जैसी कुछ कविताओं में. प्रत्यागमनमें वे पुरा परंपरा में लौट कर कुछ नया बीनते बटोरते हैं तो \’सुंदरता\’ और \’कल्पनातीत\’ में वे तितलियों और बकरियों के दृश्य का बखान भी करते हैं. —-और दम्यत् तो एक ऐसे शख्स का रेखाचित्र है जो डायबिटीज से ग्रस्त होश खोकर कोमा में चला जाता है और उसकी अस्फुट सी बुदबुदाहट उस पूरी मन:स्थिति की यायावरी में तब्दील हो जाती है. इस कविता को लिखना भी एक अदम्य पीड़ा से गुज़रना है.
यहां दज्जाल ; जा, और हम्मामबादगर्द की ख़बर ला, संकेत, तत्र तत्र कृतमस्तकांजलि, दम्यत् जैसी कविताएं हैं जिनके लिए खरे से कुछ समझने की दरकार भी हो सकती है. पर ऐसी भी कुछ कविताएं हैं जहॉं लगता है कि वे अपनी स्थानीयता को बचाए हुए हैं : \’और नाज़ मैं किस पर करूँ\’, सरोज स्मृति, जैसी कुछ कविताओं में. प्रत्यागमनमें वे पुरा परंपरा में लौट कर कुछ नया बीनते बटोरते हैं तो \’सुंदरता\’ और \’कल्पनातीत\’ में वे तितलियों और बकरियों के दृश्य का बखान भी करते हैं. —-और दम्यत् तो एक ऐसे शख्स का रेखाचित्र है जो डायबिटीज से ग्रस्त होश खोकर कोमा में चला जाता है और उसकी अस्फुट सी बुदबुदाहट उस पूरी मन:स्थिति की यायावरी में तब्दील हो जाती है. इस कविता को लिखना भी एक अदम्य पीड़ा से गुज़रना है.
कविता अक्सर अपनी स्थूलता के बावजूद अभिप्रायों और प्रतीतियों में निवास करती है. वह सामाजिक विडंबनाओं के अतिरेक को पढती है. वह कोई उपदेश नही देती न किसी नैतिक संदेश का प्रतिकथन बन जाना चाहती है क्येांकि ऐसा करना कविता का लक्ष्य नही है खास कर आधुनिक कविताओं का. पर कविता की पूरी संरचना के पीछे उस विचार की छाया जरूर पकड़ में आती है जिसके वशीभूत होकर कवि कोई कविता लिखता है. यहां बढ़ती ऊँचाई जैसी कविता इसका प्रमाण है. दशहरे पर जलाए जाते रावण को लेकर हमारे मन में तमाम कल्पनाएं उठती हैं. वह अब इस त्योहार का एक शोभाधायक अंग बन चुका है.
पुतले बनाने वालों के व्यापार का एक शानदार प्रतिफल. हर बार पहले से ज्यादा ऊॅचे रावण के पुतले बनाने की मांग और ख्वाहिश इस व्यापार को जिंदा रखे हुए है और लोगों की कामना में उसकी भव्यता का अपना खाका है. न व्यक्ति के भीतर के रावण को जलना है न बुराइयों का उपसंहार होना है पर रावण की ऊंचाई बढती रहे, यह लालसा कभी खत्म नही होती. ऐसे में कुंवर नारायण की एक कविता याद आती है, इस बार लौटा तो मनुष्यतर लौटूँगा. कृतज्ञतर लौटूँगा. पर यहां रावण को शिखरत्व देने वाला समाज है उसे जला कर प्रायोजित दहन पर खुश होने वाला समाज है. और रावण है कि उसका अपना एजेंडा है :
पुतले बनाने वालों के व्यापार का एक शानदार प्रतिफल. हर बार पहले से ज्यादा ऊॅचे रावण के पुतले बनाने की मांग और ख्वाहिश इस व्यापार को जिंदा रखे हुए है और लोगों की कामना में उसकी भव्यता का अपना खाका है. न व्यक्ति के भीतर के रावण को जलना है न बुराइयों का उपसंहार होना है पर रावण की ऊंचाई बढती रहे, यह लालसा कभी खत्म नही होती. ऐसे में कुंवर नारायण की एक कविता याद आती है, इस बार लौटा तो मनुष्यतर लौटूँगा. कृतज्ञतर लौटूँगा. पर यहां रावण को शिखरत्व देने वाला समाज है उसे जला कर प्रायोजित दहन पर खुश होने वाला समाज है. और रावण है कि उसका अपना एजेंडा है :
वह जानता है उसे आज फिर
अपना मूक अभिनय करना है
पाप पर पुण्य की विजय का
फिर और यथार्थता से जल जाना है
अगले वर्ष फिर अधिक उत्तुग भव्यतर बन कर
लौटने से पहले. (बढ़ती ऊँचाई)
इसी तरह संकल्प कविता समाज की नासमझी और मूर्खताओं का सबल प्रत्याख्यान है कि पढ कर भले अतियथार्थता का बोध हो पर कविता के भीतर से उठते निर्वचन से आप मुँह नहीं मोड़ सकते. इस बहुरूपिये समाज की ऐसी स्कैनिंग कि कहना ही क्या. कबीर ने तभी आजिज आकर कहा होगा, मैं केहिं समझावहुँ ये सब जग अंधा. कवि वही जो केवल सुभाषित का गान न करे समाज के सड़े गले अंश पर भी आघात करे भले ही वह गाते गाते कबीर की तरह अकेला हो जाए. संकल्प कविता के अंश देखें–
सुअरों के सामने उसने बिखेरा सोना
गर्दभों के आगे परोसे पुरोडाश सहित छप्पन व्यंजन
चटाया श्वानों को हविष्य का दोना
कौओं उलूकों को वह अपूप देता था अपनी हथेली पर
उसने मधुपर्क-चषक भर-भर कर
किया शवभक्षियों का रसरंजन
सभी बहुरूपये थे सो उसने भी वही किया तय
जन्मांधों के समक्ष करता वह मूक अभिनय
बधिरों की सभा में वह प्राय: गाता विभास
पंगुओं के सम्मुख बहुत नाचा वह सविनय
किए जिह्वाहीन विकलमस्तिष्कों को संकेत भाषा सिखाने के प्रयास
केंचुओं से करवाया उसने सूर्य नमस्कार का अभ्यास
बृहन्नलाओं में बॉंटा शुद्ध शिलाजीत ला-लाकर
रोया वह जन अरण्यों में जाकर
स्वयं को देखा जब भी उसने किए ऐस जतन
उसे ही मुँह चिढाता था उसका दर्पन
अंदर झॉंकने के लिए तब उसने झुका ली गर्दन
वहां कृतसंकल्प खड़े थे कुछ व्यग्र निर्मम जन
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ओम निश्चल
जी-1/506 ए , उत्तम नगर, नई दिल्ली-110059