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समालोचन

Home » विष्णु खरे को याद करते हुए: प्रकाश मनु

विष्णु खरे को याद करते हुए: प्रकाश मनु

आज विष्णु खरे की तीसरी बरसी है. प्रकाश मनु का उनसे घनिष्ठ लगाव रहा है, उनके द्वारा विष्णु खरे का लिया गया साक्षात्कार हिंदी के कुछ अच्छे साक्षात्कारों में से एक है. विष्णु खरे का युवाओं से सम्मोहक लगाव था, अच्छी कविताओं पर उनकी टिप्पणियाँ कवियों को जब-तब मिलती रहती थीं. समालोचन से वह गहरे जुड़े थे और लगभग सभी अंक पढ़ते थे, लिखते थे. उनकी याद आती है. कमी खलती है. प्रकाश मनु ने उन्हें शिद्दत से यहाँ याद किया है.

by arun dev
September 19, 2021
in संस्मरण
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विष्णु खरे को याद करते हुए: प्रकाश मनु

विष्णु खरे का चित्र अनुराग वत्स के सौजन्य से

फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

विष्णु खरे को याद करते हुए
प्रकाश मनु

विष्णु खरे की तीसरी बरसी पर कुछ लिखने बैठा हूँ, तो स्मृतियों का एक रेला है, जो उमड़ता चला आता है. कभी एकाएक भावबिद्ध सा हो उठता हूँ तो कभी मूक और अवाक सा, यादों की एक पूरी फिल्म को अपनी आँखों के आगे चलता महसूस करता हूँ. और लगता है, विष्णु खरे कहीं गए नहीं. वे तो आसपास ही हैं, मेरे भीतर हैं, हर जगह हैं और मैं जब चाहूँ उन्हें छू सकता हूँ. देश-दुनिया के हर विषय पर उनसे बतिया सकता हूँ. उनके भीतर चल रहे प्रचंड झंझावातों से परच सकता हूँ और अपना हर सुख-दुख साझा कर सकता हूँ.

औरों के लिए जो बहुत सख्त और खुरदरे कवि और कुछ-कुछ अबूझ इनसान थे, मैंने उन्हें कितने ही आर्द्र और भावुक क्षणों में डब-डब आँखें लिए, और कभी-कभी तो बातें करते-करते एकाएक आँसुओं से भीग गए चेहरे को पोंछते हुए देखा है, बताऊँ तो भला कितने लोग यकीन करेंगे?

पता नहीं, मुझमें उन्होंने क्या देख लिया था कि मेरे आगे वे खुद को पूरी तरह खोल देना चाहते थे. जैसे जानते हों कि उनका एक-एक शब्द कहीं न कहीं दर्ज होगा, जिससे जाने गए विष्णु खरे के साथ ही न जाने गए विष्णु खरे को कभी लोग जानेंगे, और भीतर से पहचानेंगे- उनकी पूरी संवेदना, ताप और मुकम्मल सच्चाई के साथ!

उनसे अनंत मुलाकातें हैं. हर मुलाकात अपने में अलग और विशिष्ट. ज्यादातर इतनी लंबी और बृहत् मुलाकातें कि उनमें हमारा समय, समाज, साहित्य जगत और दिनोंदिन क्रूर होते जीवन यथार्थ से जुड़े बेहद तीखे और धारदार सवाल खुद-ब-खुद चले आते थे. साथ ही खुद विष्णु जी की जीवन कथा के कई अजाने पन्ने खुलने लगते थे. लिहाजा हर बातचीत में विष्णु जी का एक नया ही रूप सामने आता था. और इन्हीं बातों, मुलाकातों और अजस्र संवाद में न जाने कब मैं उनका परिवारी सदस्य हो गया, मुझे पता ही नहीं चला.

जिन दिनों मिलना नहीं हो पाता था, तब भी वे देश-विदेश में कहीं भी हों, उनके फोन जरूर आते थे. बहुत लंबे और देर तक चलने वाले फोन, जिसमें उनके नए लिखे के साथ-साथ, भीतरी वैचारिक हलचलें, साहित्य की दुनिया के कचोटते हुए मुद्दे और शख्सियतें, बहुत कुछ चला आता था. हर बार वे सिर्फ मेरा ही नहीं, जब तक सुनीता और दोनों बेटियों का हालचाल नहीं पता कर लेते थे, उन्हें चैन नहीं पड़ता था. यहाँ तक कि एक बार मैं गंभीर रूप से बीमार पड़ा तो वे बड़ी कठिन परिस्थितियों में भी दिल्ली से मेरे घर फरीदाबाद आए थे और बहुत देर तक साथ बैठे रहे थे. उनका उस समय का स्नेहपूरित स्निग्ध चेहरा क्या मैं कभी भुला सकता हूँ? हालाँकि बाद में मुझे यह जानकर दुख हुआ था कि वे ऐसे हालात में घर आए थे, जबकि उनके लिए यह बहुत मुश्किल और तकलीफ भरा था.

ये पंक्तियाँ लिखते हुए बार-बार याद आ रहा है कि कोई पैंतालीस बरस पहले विष्णु खरे को मैंने उनकी कविताई से जाना था, और एक कवि के रूप में वे मुझ पर छाते चले गए थे. एक तरह से मैं आविष्ट सा, उनके प्रभाव के घेरे में आ गया था. साथ ही कुछ-कुछ चकित और रोमांचित भी कि अरे, कविताएँ इतनी खुली, इतनी बेबाक और मर्मभेदी भी हो सकती हैं, जो आपको भीतर तक थरथरा दें…और आपको नए सिरे से सोचने ही नहीं, नए सिरे से जीने की भी चुनौती दें. ऐसी कविताएँ मैंने पहले कभी पढ़ी न थीं. कविताएँ ऐसी हो भी सकती हैं, सच पूछिए तो मैंने कभी इससे पहले कल्पना ही न की थी. वह मेरा, एक अर्थ में, पुनर्जन्म था. एक लेखक, एक कवि, एक साहित्यिक और एक मनुष्य के रूप में पुनर्जन्म. विष्णु खरे को पढ़ने के बाद मैं वह नहीं रहा था, जो पहले था….

उन दिनों एक साथ बहुत कवियों को पढ़ा था, और मन में सभी का कुछ अलग सा प्रभाव और अक्स थे. पर विष्णु खरे तो विष्णु खरे थे. उन जैसा कोई नहीं था, जिसकी कविताओं में ऐसा दुर्वह आकर्षण हो कि आप उससे बाहर निकल ही न पाएँ. उन्हें पढ़ा तो लगा, जैसे उनसे बहुत पुरानी पहचान है और वे न जाने कब से अपनी भावाविष्ट लय वाली कविताओं के जरिए मेरे मन, चेतना और रुधिर में बहते आए हैं, और उन्हें पढ़कर, उनकी कविताओं के सान्निध्य में ही मैं पूरा होता हूँ. उनमें गद्य में बहती हुई कविता का नया रूप और बात कहने का कुछ अधिक खुला अंदाज ही नहीं, जीवन को देखने की एक नई आँख भी मुझे मिली थी, और मुझे लगा, जैसे मैं भीतर-बाहर से बदल रहा हूँ. इससे पहले निराला को पढ़ा था, या मुक्तिबोध को, तब भी मन की यही हालत हुई थी. पर विष्णु खरे को पढ़ा तो लगा कि उनमें निराला भी हैं, मुक्तिबोध भी, और अपने गरजते हुए अनहद नाद के साथ कबीर भी.

बाद में बरसों बाद जब ‘नवभारत टाइम्स’ में उनसे पहली बेहद आत्मीय मुलाकात हुई तो लगा कि सचमुच मैं उन्हें बहुत पहले से जानता हूँ. बस, जो विष्णु खरे मेरे भीतर थे, अब बाहर आ गए हैं. और वे सचमुच वैसे ही थे, जैसा मैंने उनकी कविताओं के जरिए टटोला और जाना था. एकदम विलक्षण. दुर्जेय और दुस्साहसी भी. एक कवि के रूप में, और व्यक्ति के रूप में भी. अभिव्यक्ति के हर तरह के खतरे उठाने चाहिए, यह कहना बहुत आसान है. पर उसके लिए अपने पूरे वजूद को दाँव पर लगा देना कैसा होता है, यह मैंने विष्णु खरे को देखकर जाना. एक ऐसा शख्स जो हर खतरे उठा सकता था, और उसे किसी से डर नहीं लगता था. पर साथ ही किसी नए से नए लेखक में भी प्रतिभा की चिनगारी देख लेते, तो वे आगे बढ़कर उसे गले लगा लेते थे. अपने से बाद वाली पीढ़ी को इस कदर सराहने और उन्हें आगे लाने के लिए ऐसा बेचैन कवि-साहित्यकार मैंने कोई और नहीं देखा. हिंदी में ऐसे दर्जनों नए और अजाने कवि-लेखक हैं, जिन्हें सबसे पहले विष्णु खरे ने पहचाना. साथ ही उन पर जिस गहरे लगाव और भावनात्मक ऊष्मा के साथ लिखा, वह अपने आप में एक मिसाल है.

खुद मुझे पहली मुलाकात से ही, उन्होंने जिस तरह अपना, बहुत अपना बना लिया, वह आज भी मेरे लिए किसी अचरज से कम नहीं है. शायद यही वजह है कि मैं आज भी इस ‘सच’ पर यकीन नहीं कर पाया कि विष्णु खरे जो ‘एक दुर्जेय मेधा’ के रूप में मेरे मन, मस्तिष्क और भाव-जगत पर पिछले पैंतालीस बरसों से छाए हुए थे, अब नहीं हैं. विष्णु खरे जो एक लड़ाका कवि के रूप में मुझे युवाकाल से ही मोहते रहे, और लगभग समकालीन कविता का पर्याय ही बन गए, वे भला जा कहाँ सकते हैं?

फिर-फिर वे याद आते हैं. फिर-फिर याद आता है कि इन चार-साढ़े चार दशकों में मेरे भीतर-बाहर समय की कितनी तेज हलचल और आँधियों के थपेड़े गुजरे, गुजरते गए. बहुत कुछ बदला, बदलता चला गया. लेकिन मैं एक बार उनके सम्मोहन की लपेट में आया तो फिर कभी नहीं निकल पाया. वे ऐसे ही थे. उनका प्रभाव विकट था. ऊपर से बहुत खुरदरे लगते हुए भी वे भीतर से कितने कोमल, संवेदनशील और भावार्द्र थे, उन्हें कोई बहुत निकट का आदमी ही जान सकता था….

ऐसे क्षण जब शब्द साथ छोड़ देते हैं, और देर तक बस चुप्पी से ही आप संवाद करते हैं….

भला कौन यकीन करेगा कि ऊपर से बड़ा कठिन-कठोर और चटियल सा नजर आने वाला यह हिमालय पिघलता था, तो किस कदर पानी-पानी हो जाता है.

आज जब उनकी स्मृतियों के पन्ने उलटते हुए, यह संस्मरण लिख रहा हूँ, सब कुछ एक साथ याद आ रहा है, और मेरी आँखें नम हैं.
सारे बीते पल एक साथ याद आ रहे हैं. किसे बताऊँ कि विष्णु खरे के जाने के साथ ही मैंने क्या कुछ खो दिया.

यादों की एक पूरी फिल्म है. अंतहीन. जिसमें कहीं ‘द ऐंड’ नहीं.

पिछले दो दशकों से तो हालत यह थी कि वे देश में हों या विदेश में, कोई पंद्रह-बीस दिनों में उनका फोन जरूर आ जाता था. बड़े भाई सरीखी करुणा और पारिवारिक भावना के साथ वे मेरा हालचाल पता करते थे और जिस मनःस्थिति में वे जी रहे होते थे, उसे भी कुछ-कुछ बयाँ कर जाते थे. या फिर मेल से पत्राचार करके वे इस दूरी को पाटते थे….और मझे इंतजार रहता था, अब विष्णु जी का फोन आएगा, या मेल से कोई संदेश. और वह आता था.

याद पड़ता है, विष्णु जी के लिए उनके जीवन-काल में ही लिखी थी मैंने कविता, ‘विष्णु खरे के लिए एक कविता सा कुछ’. उस कविता की आखिरी पंक्तियाँ हैं—

विष्णु खरे का जीना सिर्फ विष्णु खरे का जीना है
इसलिए कि जो उसकी जिद है वही उसकी ताकत…
और कभी-कभी तो उसकी कोई बहुत प्यारी-सी सनक भी
उसकी विचित्र अपराजेय ताकत बन जाती है!

शायद इसीलिए
अपने कुछ-कुछ अनोखे बानक और अकूत ताकत के साथ
खुद से बाहर आता है कोई विष्णु खरे
सबको ललकारता हुआ तो बड़ी आफत होती है

अभी वह दो-चार डग ही अपनी मस्ती के भर पाता है
कि अचानक
रास्ता काट जाता है हँसता-हँसता
कोई चतुर सयाना वीर बालक
ग्लोबलाइजेशन के जमाने का सफल कवि
जो उसी से सीखकर उस पर चलाता है तीर

फिर दो कदम वो और आगे बढ़ता है
कि रास्ता काट जाता है एलीटिज्म का सफेद कुहरीला भूत
जो वातानुकूलित कमरों में जनमा है
और जिसे इस तरह खुलकर बात कहने से सख्त आपत्ति है
……………………………………………..
वह टकराता है सबसे
और निकलता है और ताकतवर बनकर सीना चौड़ाए
इतना ताकतवर कि दुनिया एक खेल समझती है
और खेलना चाहती है उससे एक गेंद की मानिंद
और वह है कि दुनिया को उठाए है हाथ में एक गेंद की मानिंद
कहाँ रखूँ इसे कि इसके बल निकल जाएँ
और रोग हों दुरुस्त.

तो अब असल मुद्दा तो शायद यही है विष्णु जी,
कि कितना आप खेलते हैं
उस गेंद से और करते हैं क्या-क्या जतन
कि पूरे जतन से रख दी जाय वह गेंद
अपनी धुरी पर
उसी अक्षांश-देशांतर में कि जो समय की जरूरत है

इस विचित्र खेल में
कितना आप खुद को खिलवाड़ से बचाते हैं विष्णु खरे
जो सात दिशाओं सत्ताईस खुले षड्यंत्रों से चला आता है
मोरचा बाँधे
एक मैं नहीं, सारी दुनिया यह देख रही है साँस रोककर
और आप हैं कि सदा की तरह यह सब जानते-बूझते भी
मुसकरा रहे हैं बस, मुसकराए जा रहे हैं मंद-मंद.

कविता पर तारीख पड़ी है—28.3.2012. 18 अप्रैल को यह विष्णु जी के पास भेजी गई. उसके चार दिन बाद, 22 अप्रैल को विष्णु जी ने जवाब में लिखा-

‘प्रकाश जी,

कुछ पंक्तियों के बाद मुझसे इसे पढ़ते नहीं बना.
मैं कोई पाखंड नहीं कर रहा, लेकिन ऐसा कुछ देखने पर मैं एक गहरे संकोच और अवसाद में डूब जाता हूँ कि मैं ऐसी, इतनी भावनाओं और भरोसे के योग्य नहीं.

और कुछ भी कहना इसके साथ एक party बन जाना होगा. आपने मुझे संकट में डाल दिया.

लेकिन हाँ, उचित समझें तो इसे हरिपाल त्यागी और ‘उद्भावना’ के अजय कुमार जी को पढ़वाएँ, या दोनों में से किसी एक को, बिना बताए कि मैंने कहा है. फिर वह जैसा कहें, वैसा करें. मुझे न बताएँ कि उन्होंने क्या कहा?
अब और क्या बताऊँ?

विष्णु खरे’

ऐसे ही मैंने अपने प्यारे दोस्त चित्रकार हरिपाल त्यागी पर कविता लिखकर विष्णु जी को पढ़ने के लिए भेजी तो उनका उत्तर आया, “मुझे सृजन-सखा के इस पहलू का इतना अंदाज न था. वे सौभाग्यशाली हैं कि उन्हें आप जैसा संवेदनशील और ईमानदार मित्र मिला हुआ है.”
विष्णु जी के हर पत्र में कुछ अलग बात होती थी. आत्मीयता का बहुत गहरा स्पर्श भी, जो कहीं भीतर धँसता था. लगता था, वे आपके करीब, बहुत करीब हैं.

पर अब विष्णु खरे नहीं है. और कुछ नहीं है….

12 सितंबर, 2018 की रात को अचानक हुए मस्तिष्काघात के बाद कोई सप्ताह भर मृत्यु से एक लंबी लड़ाई लड़ते हुए, आखिर वे गए….पर विष्णु खरे जैसा हर तरह के अन्याय और कपट चालों के आगे डट जाने वाला, दिलेर, हिम्मती और दुर्जेय योद्धा कवि जा कैसे सकता है? उनकी कविता सार्वकालिक है, और वह हर दिल में अपना घर बना लेती है. यही उनकी शक्ति भी है. इसीलिए वे जाकर भी जाने वाले कवियों में नहीं हैं.

शायद कइयों को पता न हो कि महाभारत विष्णु खरे का सर्वप्रिय ग्रंथ था, जिसके कई प्रसंग उनकी कविता का विषय बने. इसी संदर्भ में कहूँ तो मुझे कई बार लगता है, विष्णु खरे हमारे दौर के कर्ण थे. वक्त का काम केवल अर्जुन से नहीं चलता, उसे कर्ण भी चाहिए. हर युग में एक कर्ण चाहिए, जिसके बेचैनी भरे सवाल हजारों कानों में गूँजते रहें, और बार-बार जवाब माँगें. सही जवाब माँगें. और हमारे दौर में यह काम विष्णु खरे ने किया, जिन्होंने केवल कविताएँ ही नहीं लिखीं. हर कविता में बेचैन कर देने वाले वे सवाल भी गूँथ दिए, जिनके जवाब खोजे बिना हमें चैन नहीं पड़ सकता. इस अर्थ में विष्णु खरे की कविता कोई आनंद देने वाली कविता नहीं है, बल्कि वह बेचैन कर देने वाली कविता है, जो हमें भी अपने साथ शामिल कर लेती है, और हर अन्याय से लड़ने के लिए उकसाती है.

यों विष्णु खरे केवल कवि नहीं थे. कवि होने के साथ-साथ वे सुविख्यात आलोचक, अनुवादक और बड़े ही मौलिक किस्म के चिंतक भी थे. आप कह सकते हैं, एक भीषण दुःसाहसी चिंतक, जो हर तरह का खतरा उठाकर भी अपनी बात कहते थे. और जैसे कहनी होती थी, जिस जोर और बलाघात के साथ, वैसे वे कहते थे. और इससे दूर-दूर तक एक गूँज पैदा होती थी. बहुत से लोग बिदकते थे. कई बार तो बिल्कुल उनके आजू-बाजू के लोग भी नाराज हो जाते थे. निकटतम मित्र भी. कबीर को लेकर उनसे एक लंबा इंटरव्यू मैंने किया. कोई साठ-सत्तर पन्ने का वह नदी की तरंगों की तरह बहता हुआ बहु-आयामी, व्यापक इंटरव्यू है. उसमें कबीर के बहाने जो खरी और बेलौस बातें उन्होंने कहीं, वे ऐसी ही थीं, जो मौजूदा दौर के बहुत से अवसरवादी साहित्यिकों पर मर्म प्रहार करती थीं. एकदम तिलमिला देने वाली. कबीर पर बोलते हुए वे सचमुच आज के कबीर लग रहे थे, और उनसे बातचीत करते हुए, मैं भीतर एक थरथराहट सी महसूस कर रहा था.

और इसके साथ ही, विष्णु खरे पत्रकारिता जगत के एक गौरवशाली स्तंभ थे. एक बड़े और सतेज संपादक. सही मायने में एक तेजस्वी संपादक, जो जब चाहे वक्त में टंकार पैदा कर देते थे. ‘नवभारत टाइम्स’ में उनके दौर की पत्रकारिता पर चर्चा के बगैर समकालीन पत्रकारिता पर बात की ही नहीं जा सकती. हालाँकि सच तो यह है कि उनके इन सभी रूपों पर उनके कुछ-कुछ खुरदरे और जुझारू कवि-व्यक्तित्व की छाया थी. मानो ये सभी उनके विलक्षण कवि-व्यक्तित्व के ही आनुषांगिक रूप हों.

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Comments 8

  1. कुमार अम्बुज says:
    4 years ago

    उनका साक्षात्कार प्रसिद्ध रहा है। विष्णु जी को याद करनेवाली इस पोस्ट से गुजरना एक अच्छा अनुभव है।

    Reply
  2. दया शंकर शरण says:
    4 years ago

    विष्णु खरे पर प्रकाश मनु के संस्मरण दिल की गहराइयों से इतने डूबकर लिखे गये हैं कि इन्हें पढ़ना भी एक विरल अनुभव लोक से अपने को समृद्ध करने जैसा है। इनमें रोमांच है,आत्मीय स्पर्श है, समकालीन यथार्थ की कड़वाहट और मिठास भी है। और भाषा इतनी पारदर्शी और बेबाक कि एक सम्मोहन की-सी स्थिति में पाठक को छोड़ आती है। मैं इस बात को हर बार दोहराता हूँ कि विष्णु खरे की कविताएँ उस प्रविधि को अपनाती हैं जो चीजों को विखण्डित करती हुई,उसके रेशे-रेशे को अलगाती हुई सत्य तक पहुँचती हैं। यह सान्द्र से तनु होते जाने की रचना प्रक्रिया है। इस बेहद अंतरंग और आत्मीयता भरे संस्मरण के लिए प्रकाश मनु जी को शुभकामनाएँ और बधाई !

    Reply
  3. Anonymous says:
    4 years ago

    व्यक्तिगत रूप से मैं कवि विष्णु खरे को बहुत पसंद करता था। जो उन्हें बोलना होता था वे मंच पर निर्भीक होकर बोलते थे। कविता उनके लिए जीवन जीने की कार्यवाई थी। अपनेआसपास ही क्यों सुदूर-दूर तक बसे-रहते लोगों का ख्याल रखते। जो उन्हें नापसंद थे उनके लिए ललकार और प्रियजनों के लिए अपार प्यार। यह उनका स्वभाव था।
    बहरहाल, मुक्तिबोध की तरह वे प्रलयंकारी काव्यमेधा के प्रतिनिधि कवि थे।

    Reply
  4. Girdhar Rathi says:
    4 years ago

    विष्णु खरे की याद शिद्दत से आती है। मुझे ही नहीं, मेरे परिवार को उनके चले जाने के तथ्य को आत्मसात करने में काफ़ी मशक्कत करनी पड़ी है। उनका अभाव है, रहेगा। प्रकाश मनु के इंटरव्यू अनोखे हैं। मेरी स्मरण शक्ति मुझे ऐसे एक ही अन्य की याद दिलाती है, और उनके इसी तरह, बिना किसी टीप या रिकार्डर के लिए गए निहायत अनोखे साक्षात्कारों की- मनोहर श्याम जोशी, उन्हें याद करने वाले भी इन दिनों गिनेचुने ही होंगे। लेकिन जोशी जी चौतरफ़ चौकन्ने इंटरव्यूकार थे। यानी, सामने मौजूद अपने सम्मानित नायक की मूर्ति गढ़ते हुए, वह ऐंचक वैंचक लकीरों निशानियों ऐबों की भी अनदेखी नहीं करते थे,संकेत तो कर ही देते थे। अंग्रेज़ी में Hagiography और Biography में बड़ा फ़र्क़ माना जाता है। इन विधाओं के भीतर भी गुणावगुण अलग से रेखांकित किये जाते हैं। प्रकाश मनु शायद इस मामले में जोशी जी से को क़तई सहमत न होंगे। जहां जोशी जी अपने हीरो को कुछ ऐसे पेश करते थे कि वह केवल जोशी जी का नहीं, पाठकों का भी हीरो बन जाता था, वहां इस संस्मरण में प्रकाश मनु के विष्णु खरे, प्रकाश मनु के ही विष्णु खरे रह जाते हैं।
    भावनात्मकता और भावुकता के बीच ,हमारे प्रिय मित्र प्रकाश मनु की डायरी में, किसी तरह का फ़र्क़ दर्ज नहीं हो पाता। मझधार के झकोलों का उल्लेख चाहें जितना हो, नैया हमेशा उस पार ही रहती है–इस पार नहीं, क्योंकि इतने क़रीब चांद का मुंह टेढ़ा भी लग सकता है। ऐसा नहीं कि evil को देखना पहचानना वे जानते न हों– ऐसा होता तो उनका कथा लेखन वह कदापि न होता जैसा कि है, बल्कि कुछ कविताएं भी evilकी पराकाष्ठा हमें दिखा जाती हैं–पर अपने किसी भी प्रिय के बारे में कोई कटाक्ष तक मनु जी के मुख से नहीं सुना जा सकेगा। नतीजा ये होता है कि अत्यंत प्रिय होने के बावजूद, मनु भाई के खरे किसी और लोक के जीव लगने लगते हैं! और यह कोई प्रशंसनीय उपलब्धि तो नहीं ही है! मेरा संपर्क विष्णु खरे से लगभग 1965 से बना रहा, और इस मित्रता में हम दोनों ने एक दूसरे को ऐब कुटेव भी देखें ही। और भी हमारे दस पांच मित्र परिचित हैं जो तमाम स्नेह के बावजूद, बतला सकते हैं कि चांद में कुछ दाग़ तो थे। समाचार जगत की बगिया उधेड़ने वाले प्रकाश मनु की नज़र भी उस ओर ज़रूर मुड़ी होगी, लेकिन दुनिया का साहित्य पढ़ते-पढ़ते कुछेक हिंदी वाले भी , निंदा पुराण से परहेज़ करते हुए भी, ख़ालिस कशीदाकारी पर ज़रा सहम से जाते हैं। इस संस्मरण में हम प्रकाश मनु के अंतरंग को बख़ूबी पहचान सकते हैं, और एक समर्पित साहित्य प्रेमी, प्रकाश जी को जान पाना भी कम महत्वपूर्ण नहीं है।

    Reply
  5. वंशी माहेश्वरी says:
    4 years ago

    विष्णु खरे के स्मृति-आकाश में आपका नक्षत्र अत्यन्त देदीप्यमान है.
    उन स्मृतियों में अपनत्व भरा आचमन ह्रदय में तीर्थ हो जाता.
    आपका स्मरण बहुविध तो है ही साथ ही साथ उस नदी में नहाते हुए उनके रचनात्मक संसार में डूब जाना भी है.
    ये आलेख लिखा नहीं गया -लिखा गया है.
    तन्मय होकर आपने रत्नों से भरा जो ख़ज़ाना खोजकर-खोलकर बिखेर दिया वह आपकी खरेजी के प्रति अनुराग-आसक्ति तो है ही वह पाठकों के लिये भी प्रासंगिक है.

    आपकी कविता भावात्मक होती हुई, गहराई से बौद्धिक धरातल से जुड़ी है-

    ‘दुनिया को उठाए है हाथ में एक गेंद की मानिंद’
    ‘जो सात दिशाओं सत्ताईस खुले षड्यंत्रों से चला आता है
    मोरचा बाँधे’

    विष्णु खरे पिपरिया भी आये वे छिंदवाड़ा में थे तब. असंख्य वर्ष हो चुके इस बात को.
    दिल्ली में मिलते थे तो पिपरिया के संदर्भ में पूछते ही थे.

    वे नारियल हैं-बाहर से कठोर,भीतर से मुलायम.
    इस लेख के स्मरण से विष्णु जी स्मरणीय हैं .
    मेरी स्वस्तिक कामना.

    Reply
  6. प्रकाश मनु says:
    4 years ago

    प्रिय भाई अरुण जी,
    अपनी तरह के दुर्जेय कवि और खाँटी शख्स विष्णु खरे जी की तीसरी बरसी पर कुछ लिखना
    मेरे लिए स्मृतियों के एक सैलाब से गुजरने सरीखा था।

    मुझे खुशी है कि आपके आग्रह पर कुछ लिखा गया, ऐसे कवि के लिए जो कई मामलों में बेनजीर था
    और रहेगा। शायद इसीलिए उनके जाने के बाद भी उनका होना उसी तरह महसूस होता है।

    मैंने बेशक अपनी स्मृतियों में बसे उन विष्णु करे को सामने लाने की कोशिश की,
    जो मेरे विष्णु खरे थे–मेरे अपने विष्णु खरे।

    पर आज सुबह से ही मित्रों और आत्मीय साहित्यकारों की जैसी उत्साह भरी
    प्रतिक्रियाएँ मुझे मिल रही हैं, उससे लगता है, कि जिस तरह से वे मेरे–मेरे अपने विष्णु खरे थे,
    उसी तरह बहुतों के अपने–बहुत अपने विष्णु खरे जरूर रहे होंगे। इसीलिए उनके संग-साथ वालों को
    उनकी उपस्थिति आज भी ठीक वैसी ही वार्म्थ के साथ महसूस होती है।

    वैसे भी एक बार उनके निकट आने के बाद कोई उन्हें भूल नहीं सकता था।
    मैं आज भी चौंकता हूँ, जब कभी-कभी निस्तब्धता में एकाएक उनकी आवाज
    गूँजती हैं– “कैसे हैं प्रकाश जी?”

    अलबत्ता भाई अरुण जी, आपने इतने सलीके से और एक बड़े विजन के साथ
    विष्णु जी से जुड़ी इन स्मृतियों को प्रस्तुत किया, इसके लिए आपका और ‘समालोचन’ का
    बहुत-बहुत आभार!

    स्नेह,
    प्रकाश मनु

    Reply
  7. Anonymous says:
    4 years ago

    कुछ काम हम रोज़ करते हैँ. ब्रश करना, नाश्ता करना, नहाना, इत्यादि, उसी तरह खरे जी को याद करना भी है. उनका प्रेम और गुस्सा दोनों याद आते हैँ. खरे जी पर जब उदभावना का विशेष अंक निकाला तो उनकी पत्नी का कमेंट बड़ा अच्छा लगा. उनका कहना था ” आपने ऐसा अंक निकाला जैसे विष्णु निकालते “मैंने उनके साथ अपनी ज़िन्दगी का क्वालिटी टाइम बिताया है. उन्हें भूलना असंभव है.

    Reply
  8. Sanjeev Buxy says:
    4 years ago

    विष्णु खरे जी पर अच्छा संस्मरण लिखा है प्रकाश मनु जी ने उनसे मेरी बात होती रहती है विष्णु खरे जी को लेकर मेरा उपन्यास भूलन कांदा जब गया में छपी थी तब विष्णु खरे जी ने मुझे फोन करके कहा था कि मैं उनसे मुंबई आकर मिलूं उन्हें मुझसे कुछ बातें करनी है उनसे कहा, “मैं ज़रूर मुम्बई आकर आपसे मिलता हूँ।” संयोग से जनवरी 2011 में ही मुझे एक कार्य मुंबई का मिल गया। मैं पंजीयक फर्म एवं संस्थाएँ था। उससे संबंधित एक कंपनी ला के प्रकरण में मुख्यसचिव विवेक ढाँढ को नोटिस मिला। कंपनी ला बोर्ड मुंबई में 7 जनवरी को उपस्थित होना था। मुझे कहा गया इस प्रकरण में मुंबई जा कर बोर्ड के सामने उपस्थित हो जाएँ। नेकी और पूछ-पूछ! मैं तो विष्णु खरे से मिलने के लिए लालायित था सो मैं तुरंत तैयार हो गया। अपने साथ चलने के लिए रमेश अनुपम को तैयार कर लिया। मैं और रमेश अनुपम दोनों 6 जनवरी को मुम्बई गए। विष्णु खरेजी के निवास के पास ही मलाड वेस्ट के एक होटल में हम लोग रुके। पहले दिन तो विष्णु खरे होटल में आ गए। रात बारह बजे तक उनसे बातें होती रहीं। दूसरे दिन हम लोग उनके निवास ए 703 महा लक्ष्मी रेसीडेंसी, गेट नं 8, मालवणी माहडा के फ्लेट में छह बजे शाम को पहुँच गए। घर में वे अकेले ही थे। उनका कुत्ता था और कोई नहीं। इस तरह हमारी दो बैठकें हुईं और ‘भूलन कांदा’ को लेकर अच्छी चर्चा हुई। उन्होंने पूछा कि गाँव के लोग क्या मुखिया के सामने बीड़ी पिएँगे ? मैंने बताया कि ज़रूर पिएँगे, इसमें कोई लिहाज या परहेज नहीं है। यह आमतौर पर देखा जाता है। बल्कि ऐसा होता है कि कई बार मुखिया ही गाँव वालों को अपनी ओर से बीड़ी देते हैं। इसी तरह कई और प्रश्न उन्होंने किए जिसका समाधान मैंने किया। उनसे यह मुलाक़ात मैं हमेशा याद रखूँगा। उन्होंने बताया कि वे तीन बार ‘भूलन कांदा’ उपन्यास पढ़ चुके हैं। विष्णु खरेजी ने पूरा घर दिखाया और बताया कि उनका बेटा फ़िल्म निर्देशन के क्षेत्र में काम कर रहा है। दिन रात व्यस्त रहा करता है। फ़िल्म ब्लैक और उसके पहले संजय लीला भंसाली के फ़िल्मों में सहायक के रूप में निर्देशन का कार्य किया है आजकल सतीश कौशिक के साथ फ़िल्म कर रहा है। हमारे बैठे में ही तीन बार बेटे का फ़ोन आता है कि सबके लिए क्या डिनर भिजवा दूँ? हम लोगों ने मना कर दिया क्योंकि तीन बजे ही हम भोजन किए थे

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