• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » व्हाट्सएप इतिहास : कारण और निदान : सौरव कुमार राय

व्हाट्सएप इतिहास : कारण और निदान : सौरव कुमार राय

इतिहास-लेखन कितना संवेदनशील और राजनीतिक है, यह कहने की आवश्यकता नहीं है. रसूल हमज़ातोव (मेरा दाग़िस्तान) ने ठीक ही लिखा था कि ‘अगर तुम अतीत पर पिस्तौल से गोली चलाओगे, तो भविष्य तुम पर तोप से गोले बरसायेगा’. विलियम डेलरिम्पल के इस कथन ने कि ‘भारतीय इतिहासकारों की जनता से संवादहीनता ने 'व्हाट्सएप इतिहास' के लिए जगह बनाई है’ इस पूरे मुद्दे को बहसतलब बना दिया है. इसकी चर्चा कर रहे हैं अध्येता और लेखक सौरव कुमार राय.

by arun dev
January 10, 2025
in बहसतलब
A A
व्हाट्सएप इतिहास : कारण और निदान : सौरव कुमार राय
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

व्हाट्सएप इतिहास : कारण और निदान
सौरव कुमार राय

2021 की बात है. मेरी किताब ‘डिबेटिंग मॉडर्न इंडियन हिस्ट्री’ को प्रकाशित हुए अभी एक-दो महीने ही हुए थे. यह मूलतः आधुनिक भारतीय इतिहास के विविध आयामों से संबंधित ऐतिहासिक विमर्शों की पड़ताल करते हुए टेक्सट बुक शैली में लिखी गयी पुस्तक थी. जैसा कि नवोदित लेखकों के साथ होता है, मैं स्वयं ही इसकी कुछ कॉपियां इतिहास विषय से जुड़े अध्यापकों को देता फिरता था, जिससे कि किताब उनके माध्यम से ही सही विद्यार्थियों तक पहुँच सके. इसी क्रम में जब एक प्रभावशाली प्रोफ़ेसर को अपनी किताब दी तो उनके मुँह से अनायास ही निकला,

‘अरे! तुम टेक्सट बुक लिखने के चक्कर में कहाँ पड़ गए. यह तो बुढ़ापे में लिखा जाता है. अपने शोधलेखन पर ध्यान दो.‘

उनका लहजा कुछ-कुछ खिल्ली उड़ाने जैसा था.

दरअसल, अकादमिक इतिहासकारों ने अपने इर्द-गिर्द शोध का ऐसा आभामंडल बना लिया है कि टेक्सट बुक अथवा पाठ्यपुस्तक लिखना उन्हें चुके हुए लोगों का काम जान पड़ता है. हालाँकि यह स्थिति हमेशा से नहीं थी. एक समय था जब प्रतिष्ठित इतिहासकार टेक्सट बुक लिखा करते थे. उन्हें  एहसास था कि समाज को विद्वता की जरूरत होती है पर उससे पहले जानकारी की जरूरत होती है. सामान्य पाठकों और विद्यार्थियों तक प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध कराना वे अपनी जिम्मेदारी समझते थे. इसके लिए उन्होंने स्कूलों के लिए भी किताब लिखना जरूरी समझा. यह कोई संयोग नहीं है कि बिपिन चंद्र, सुमित सरकार, रोमिला थापर, इरफ़ान हबीब, सतीश चंद्र, अर्जुन देव जैसे तमाम दिग्गज इतिहासकारों ने एक समय स्कूली बच्चों के लिए भी लिखा.

समय बदला और अकादमिक इतिहासकार अपने-अपने शोध के शीशमहल में कैद होते चले गये. अपने शोध में रमे रहना और उसपर ही बातें करते रहना उन्हें आसान और ज्यादा रुचिकर जान पड़ा. इसका नुकसान समाज ने झेला. एक शून्य उत्पन्न हुआ. और जैसा कि प्रकृति का नियम है, कोई भी शून्य की स्थिति ज्यादा समय तक नहीं बनी रह सकती. आमजन के इतिहासबोध विषयक इस शून्यता को भरने का कार्य किया गैर-पेशेवर इतिहासकारों ने.

उसका खामियाजा आज हम भुगत रहे हैं. देश की जनता जिसके इतिहासबोध पर ही देश के विकास की नींव खड़ी रह सकती है, जब तक वह स्वयं मोर्चा नहीं संभाल लेती है, यह पढ़े-लिखे अकादमिकों की जिम्मेदारी थी, और है, कि वे एक जनपक्षधर सांस्कृतिक अभियान की अगुआई करें. अपनी इस जिम्मेदारी में वे कहीं-न-कहीं पिछड़ गए.

इस सन्दर्भ में हाल ही में विलियम डेलरिम्पल ने इंडियन एक्सप्रेस के ‘आइडिया एक्सचेंज’ कॉलम में बोलते हुए एक बहस छेड़ दी. डेलरिम्पल के अनुसार भारतीय अकादमिकों द्वारा आम जनता तक संवाद कायम करने की विफलता ने ‘व्हाट्सएपिया इतिहास’ के लिए उर्वर भूमि तैयार करने का काम किया है.

उनके इस बयान का पेशेवर अकादमिक इतिहासकारों द्वारा चहुंओर निंदा की गयी. वे तरह-तरह के उदाहरण देने लगे जहाँ अकादमिक इतिहासकारों ने स्कूली बच्चों तथा जनसाधारण के लिए समाचार पत्रों आदि में लेखन किया हो. लेकिन मजे की बात यह है कि उनके पास भी उदाहरणस्वरूप घूम-फिर के वही गिने-चुने नाम थे: सुमित सरकार, रोमिला थापर, इरफ़ान हबीब, आदि. जैसे कि इनके बाद गैर-अकादमिक सामान्य इतिहासलेखन की आवश्यकता ही न रह गयी हो.

रोमिला थापर. चित्र फेसबुक से

यदि मैं आधुनिक भारतीय इतिहास की बात करूँ तो विद्यार्थी आज भी 1980 के दशक में बिपिन चंद्र व सुमित सरकार द्वारा लिखे हुए पाठ्य पुस्तकों को ही पढ़ते आ रहे हैं. ऐसा तो नहीं है कि 1980 के दशक के बाद इतिहासलेखन में कोई प्रगति ही नहीं हुई है. बल्कि, इसके उलट बीसवीं शताब्दी के अंत व इक्कीसवीं शताब्दी की शुरुआत में इतिहासलेखन में कई क्रांतिकारी परिवर्तन हुए. उनका सार-संकलन कर जनसामान्य तक उन्हीं की भाषा में पहुंचाने की जिम्मेदारी आखिरकार कौन लेगा. बीच में शेखर बंद्योपाध्याय ने आधुनिक भारतीय इतिहास पर जरूर एक सराहनीय पाठ्यपुस्तक तैयार की है जो विद्यार्थियों का पर्याप्त ध्यान आकृष्ट करने में कामयाब रही. लेकिन ऐसे और प्रयासों की जरूरत लगातार बनी हुई है.

ऐसे में दिवंगत इतिहासकार लाल बहादुर वर्मा का एक कथन ध्यान आता है. वे कहते हैं कि इतिहास का वास्तविक निर्माता यानी कि सामान्य जन इस देश में इतिहास का पाठक ही नहीं माना जाता है. इसलिए उसके लिए लेखन भी नहीं होता है. उसपर तुर्रा ये कि जनता को ही ‘मूर्ख‘ करार दे दो. इतिहासलेखन उत्तरोत्तर विद्वानों द्वारा, विद्वानों के लिए, विद्वानों का लेखन बनते चला गया.

जैसे हर सरल काम इतना सरल नहीं होता, वैसे ही जन सामान्य के लिए इतिहास लिखना कोई ‘सामान्य’ कार्य नहीं है. इसमें काफी मेहनत लगती है. जिस तरह के पाठकों को इतिहास सम्बोधित होता है उस पाठक के अपेक्षाओं के अनुकूल हुए बिना वह इतिहास स्वीकार्य नहीं होगा. उद्धरणों व इतिहासकारों के प्रासंगिक-अप्रासंगिक मतों से पटे पड़े अंग्रेजी भाषा में लिखे इतिहासलेखन का भारतीय जनता के लिए कोई विशेष महत्व नहीं है. लेखन कर्म एक प्रकार का संवाद है. और संवाद में दोनों पक्षों का एक स्तर पर आना जरूरी है, अन्यथा जैसा कि कहा जाता है चीजें सिर के ऊपर से निकल जायेंगी.

वर्तमान समय में यह चुनौती और बढ़ गयी है. समय तेजी से बदल रहा है. टेक्नोलॉजी का जिस गति से प्रसार हुआ है, उसमें पुराने तौर-तरीके अपनी धार तकरीबन खो चुके हैं. आज कोई कहे कि सोशल मीडिया से दूरी बनाकर सिर्फ किताबें लिखकर जनता को प्रामाणिक इतिहासबोध से युक्त किया जा सकता है, तो यह मुश्किल है. प्रत्येक समय की अपनी चुनौतियाँ होती हैं और उसके हिसाब से उनसे निपटने की तैयारी होनी चाहिए. एक समय था जब मध्यमवर्गीय परिवारों में अखबार व रुचि अनुसार पत्रिकाएँ सहज ही आया करती थीं. बच्चों के पास बोरियत दूर करने के लिए मोबाइल की सुविधा न थी. ऐसे में अपने खाली समय में वे अखबार और पत्रिकाएँ अनायास ही उलट-पलट लिया करते थे.

लेकिन जैसा कि कृष्ण कुमार अपनी किताब ‘पढ़ना, जरा सोचना’ (नयी दिल्ली: जुगनू प्रकाशन, 2018) में कहते हैं आज हालात यह हैं कि सभी माता-पिता यह तो चाहते हैं कि उनके बेटे-बेटियाँ पढ़ने की आदत डालें, लेकिन वे स्वयं शायद ही कभी कुछ पढ़ते हों. उनके लिए पढ़ना सिर्फ नौकरी पाने का जरिया भर है. नौकरी मिलते ही, उन्हें कुछ पढ़ने की जरूरत महसूस ही नहीं होती. ऐसे में बेटे-बेटियों से पढ़ने की आदत डालने की अपेक्षा करना दिवास्वप्न ही जान पड़ता है.

किसी भी समाज के इतिहासबोध के निर्माण में विश्वविद्यालय अथवा उच्च शिक्षा के इदारे उन तीन स्थलों में से सिर्फ एक है जहाँ इतिहास विषयक विमर्श अपना आकार ग्रहण करता है. अन्य दो स्थल जहाँ लगातार ऐतिहासिक विमर्श चलते रहते हैं वे हैं: स्कूल तथा लोकवृत्त (सोशल मीडिया, राजनीति, सामुदायिक विमर्श, आदि). हमारी इतिहास की समझ इन तीनों क्षेत्रों में चलने वाले विमर्शों की परस्पर क्रिया के फलस्वरूप विकसित होती है. ऐसे में यह जरूरी है कि पेशेवर इतिहासकार इन तीनों क्षेत्रों में बराबर दखल दें. किसी भी क्षेत्र को कमतर समझना विकृत इतिहासबोध को बढ़ावा देना है.

कई ऐतिहासिक धारणायें स्कूल में बाल और किशोरावस्था में ही जड़ जमा लेती हैं और उच्च शिक्षा तक आते-आते उन्हें बदलना बहुत कठिन हो जाता है. विद्यार्थियों का एक बड़ा समूह तो दसवीं के बाद इतिहास की पुस्तकें पढ़ता भी नहीं है. यही वजह है कि इतिहास की कई संकीर्ण व सांप्रदायिक व्याख्याएँ जनमानस में प्रगतिशील धारणा की अपेक्षा अधिक बलवती रहती हैं. फिर चाहे उच्च शिक्षा जगत में लीन अकादमिक इतिहासकार कितने भी शोधपरक तथ्य जुटा लें, उनका प्रभाव सीमित ही रह जाता है. उदाहरण के तौर पर आप कितना भी कह लें कि औरंगज़ेब की हिन्दू विरोधी नीतियाँ धार्मिक कम राजनीतिक ज्यादा थीं, या फिर उसके दो सबसे बड़े सेनाध्यक्ष जय सिंह और जसवंत सिंह हिन्दू थे, या कि उसने दक्षिण के मुस्लिम शासकों पर उतना ही अत्याचार किया था जितना कि हिन्दुओं के ऊपर; साधारणतया जनता यही मानती है कि वह एक कट्टर हिन्दू-विरोधी मुस्लिम शासक था और उसकी सभी नीतियाँ धार्मिक विद्वेष का नतीजा थीं.

इसी प्रकार लोकवृत्त में चल रही ऐतिहासिक व अस्मितामूलक विमर्शों को हल्का करार दे उन्हें नजरअंदाज करना भी खतरनाक हो सकता है. वह भी एक ऐसे समय में जब ज्ञान की राजनीति अपने चरम पर हो और अकादमिकों की छवि धूमिल करने का चौतरफा प्रयास हो रहा हो.

यह गौरतलब है कि किसी भी विकसित समाज में हर तरह के पाठकों के लिए प्रामाणिक इतिहासलेखन की कोशिश होती है फिर चाहे अकादमिक इतिहास हो, लोकप्रिय इतिहासलेखन (पॉपुलर हिस्ट्री) हो या फिर रोचक इतिहासलेखन (बेड टाइम / कॉफी हाउस हिस्ट्री). इसे फ्रांस में प्रचलित इतिहासलेखन की विधाओं से समझा जा सकता है जिसका उल्लेख लाल बहादुर वर्मा द्वारा इंडियन हिस्ट्री काँग्रेस के अलीगढ़ सेशन में ‘भारतेतर इतिहास’ सत्र में दिए गये उनके अध्यक्षीय भाषण में भी मिलता है.

लाल बहादुर वर्मा. फेसबुक से

फ्रेंच स्रोतों पर आधारित एक सर्वेक्षण कर लाल बहादुर वर्मा यह दर्शाते हैं कि किस प्रकार तीनों तरह का इतिहासलेखन न सिर्फ जरूरी व प्रासंगिक होता है बल्कि तीनों में ही तथ्यगतता का भी निर्वाह किया जा सकता है.

इसे समझाने के लिए वे नेपोलियन के संदर्भ में जॉर्ज लफेब्रवे, आन्द्रे कास्तलो और गी ब्रेतों के लेखन का उदाहरण देते हैं. जहाँ एक तरफ लफेब्रवे का कार्य उत्कृष्ट अकादमिक लेखन का उदाहरण है, वहीं आन्द्रे कास्तलो का लेखन सामान्य पाठकों के लिए आसान शब्दों में नाटकीय इतिहासलेखन का नमूना है. जबकि गी ब्रेतों ने कहवा घरों या सोते समय पढ़े जानेवाले रोचक साहित्य के रूप में इतिहासलेखन किया है.

वर्मा साहब कहते हैं कि जाहिर है कि समाज में सभी जॉर्ज लफेब्रवे द्वारा लिखा गंभीर इतिहास नहीं पढ़ना चाहते हैं–  यह संभव भी नहीं है. आन्द्रे कास्तलो और गी ब्रेतों जैसे लोगों द्वारा लिखा गया इतिहास ही अधिक लोकप्रिय होगा, पर समाज की प्रगति की दृष्टि से उसकी उपयोगिता तभी है जब वह प्रामाणिक होगा.

लाल बहादुर वर्मा के अनुसार इस तरह का अध्ययन भारतीय इतिहास के संदर्भ में और जरूरी है. इस देश की अधिकांश जनता विश्वविद्यालय तक पहुँच ही नहीं पाती है. जो जैसे-तैसे पहुँचती भी है वह गाइड, कुंजी आदि के जरिये निर्वाह करने को अभिशप्त है. ज्ञान दिल्ली और कलकत्ता केंद्रित होकर रह गया है. राजकीय विश्वविद्यालयों की बात कौन करे, कई केन्द्रीय विश्वविद्यालय भी धराशायी हो रखे हैं. लोकप्रिय इतिहास के क्षेत्र में ऐसे लोगों का दबदबा है जिनकी ट्रेनिंग इतिहास विषय में है ही नहीं.

गी ब्रेतों जैसा इतिहासलेखन तो भारतीय संदर्भ में अनुपलब्ध ही है. रोचक इतिहासलेखन के नाम पर गल्प व मिथकीय लेखन का बोलबाला है.

ऐसे में पेशेवर अकादमिक इतिहासकारों का शोधलेखन तक सीमित रहना समाज के भविष्य के लिए घातक है. आज नहीं तो कल उन्हें अपने-अपने शोध के शीशमहल से बाहर निकालना होगा. क्योंकि जनता के बीच ज्यों-ज्यों इतिहासबोध घटेगा, त्यों-त्यों वे विद्वानों को हेय दृष्टि से देखना शुरू करेंगे. यदि सामान्य जन तक तथ्यात्मक इतिहास नहीं पहुंचेगा, तो वे नैसर्गिक तौर पर ‘पोस्ट-ट्रुथ’ (सत्यातीत अथवा सत्य से परे की स्थिति) की तरफ बढ़ेंगे. और फिर अकादमिक चाहे लाख चीखते-चिल्लाते रहें उनका लोकवृत्त में चलने वाले विमर्शों पर असर पड़ना बंद हो जायेगा. दुर्भाग्यवश कई मायनों में इसकी शुरुआत हो भी चुकी है. मीरा नंदा की सद्यः प्रकाशित किताब ‘ए फील्ड गाइड टु पोस्ट-ट्रुथ इंडिया’ (गुरुग्राम: थ्री एसेज कलेक्टिव, 2024) इस बात की तरफ इशारा करती है जिसे हर किसी को पढ़ना चाहिए.

साल में एक-आधी बैठक कर या फिर कुछ व्याख्यानों का आयोजन कर इस स्थिति को बदलना मुश्किल है. ‘पोस्ट-ट्रुथ’ की तरफ बढ़ती इस जनता को निरंतर एवं व्यापक संगठित प्रयास के जरिये ही रोका जा सकता है. अंत में, लाल बहादुर वर्मा के ही शब्दों में,

‘इतिहास को आगे बढ़ाने के काम का अनिवार्य अंग है उसके नाम पर हो रहे बकवास को नकारना, समाप्त करना और ऐसी स्थिति पैदा करना कि बकवास न पैदा हो सके, न पनप सके.’

इतिहासकारों को अपनी यह सामाजिक जिम्मेदारी न सिर्फ समझनी होगी बल्कि इस दिशा में जमीनी प्रयास भी करने होंगे. अकादमिक शोध लेखन चलता रहे, परन्तु साथ ही ज्ञान का सरलीकरण भी हो. वर्तमान दौर में, जब इतिहास के पुनर्लेखन के कुछ स्वार्थी ठेकेदार सक्रिय हैं, प्रशिक्षित एवं दक्ष लोगों द्वारा सामान्य जन की रुचि और समझदारी को ध्यान में रखकर सरल पुस्तकें लिखे जाने एवं सोशल मीडिया कंटेंट तैयार करने की सख्त आवश्यकता है.

सौरव कुमार राय
शोध अधिकारी
गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति
skrai.india@gmail.com

Tags: 20252025 बहसतलबव्हाट्सएप इतिहास : कारण और निदानसौरव कुमार राय
ShareTweetSend
Previous Post

पेद्रो पारामो : क़ब्रों का करुण-कोरस : रवीन्द्र व्यास

Next Post

उपनिवेश में कुम्भ : उमेश यादव

Related Posts

श्रेयसी : मनीषा कुलश्रेष्ठ
समीक्षा

श्रेयसी : मनीषा कुलश्रेष्ठ

बाबुषा की ग्यारह नयी कविताएँ
कविता

बाबुषा की ग्यारह नयी कविताएँ

हार्ट लैंप : सरिता शर्मा
समीक्षा

हार्ट लैंप : सरिता शर्मा

Comments 10

  1. AMITA MISHRA says:
    6 months ago

    उचित सवालों को उठाया गया है।

    Reply
  2. Namarta says:
    6 months ago

    Very incisive and topical Saurav, sharing!

    Reply
  3. Shiv Gopal Yadav says:
    6 months ago

    पढ़कर बहुत अच्छा लगा! मैंने ‘पढ़ना, ज़रा सोचना’ किताब पढ़ी है, जो बच्चों और बड़ों में पढ़ने की आदत विकसित करने पर जोर देती है। इससे मैंने जाना कि इतिहास की किताबों को तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता है (यदि मैं गलत हूँ तो कृपया सुधारें) – लोकप्रिय/बेडटाइम और/कॉफी टेबल इतिहास की किताबें।

    यह वर्गीकरण मुझे मेरी किताबों की सूची को व्यवस्थित करने और यह तय करने में मदद करेगा कि कौन सी किताबें खरीदनी चाहिए। एक ऑफिस जाने वाले व्यक्ति और गैर-इतिहासकार के रूप में, मुझे कठिन इतिहास की किताबों में रुचि नहीं होगी।

    आपने सही कहा है कि इतिहास पर कई किताबें ऐसे लोग भी लिखते हैं जिन्हें इतिहास की गहरी जानकारी नहीं होती। इस बात का ध्यान मैं भविष्य में किताबें चुनते समय अवश्य रखूंगा। बेहतरीन लेख के लिए धन्यवाद!

    Reply
  4. Anchit says:
    6 months ago

    बिल्कुल सही। भारतीय एकेडेमिया अपने विशिष्टताबोध और ब्राह्मणवाद से कभी बाहर ही नहीं निकल पाया और हमेशा पूंजी उन्मुख रहा। असल में मध्यवर्गीय हीन भावना हमेशा उसका ड्राइविंग फोर्स रही है। और अब आम जन से उसकी दूरी इतनी अधिक हो चुकी है कि दोनों के बीच कोई संवाद संभव नहीं हो सकता।

    Reply
  5. सवाई सिंह शेखावत says:
    6 months ago

    सौरव कुमार राय की टीप काफ़ी मानीखेज़ और विचारणीय है।अकादमिक क्षेत्रों की विफलता ने सोशल मीडिया के टटपूँजिया स्रोतों को बढ़ावा दिया है।

    Reply
  6. दुर्गा प्रसाद गुप्त says:
    6 months ago

    ऐसा नहीं है। यह अधूरा सच है।इसके लिए अकेले एकेडमिक्स ही जिम्मेदार नहीं हैं । वह पूंजी, बाजार और प्रौद्योगिकी की दुनिया में अकेला है। पूंजीवाद ने उसे एकल परिवार की तरह ही ,एकल whats app university प्रदान कर और अकेला कर दिया है। इस प्रौद्योगिकी का संबंध किसी गैर पूंजीवादी व्यवस्था से नहीं है। प्रौद्योगिकी एकेडेमिक्स के नहीं,पूंजीवाद के हाथ में है।वह एकेडमिक्स को दुनिया के कोने कोने में पहुंचा तो देता है साथ ही W.A. विश्वविद्यालय के एकल नागरिक के विस्तृत माध्यम के रुप में भी। पर वह हमेशा एकेडमिक्स और उसकी सामाजिक दुनिया, जिसमें शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थान भी शामिल हैं-के पहुंच के बीच अवरोधक के रूप में उपस्थित रहती है। प्रौद्योगिकी, पूंजी, बाजार आगे आगे, बाकी सब पीछे-पीछे. विलियम डेरिम्पल हमारी त्रासदी का पूरा सच नहीं, अधूरा ही कहते हैं।

    Reply
  7. नरेश गोस्वामी says:
    6 months ago

    सच बात तो यह है कि यहां सौरव जैसे युवा इतिहासकार ने इतिहास-लेखन के क्षेत्र में जिस अभाव की ओर संकेत किया है, उसे पूरा करने का दायित्व तो वरिष्ठों का था।
    सौरव ने यह निश्चित ही विवेकपूर्ण बात कही है कि विशेषज्ञता के निर्धारित वृत्त और लोकप्रिय इतिहास-लेखन में कोई अंतर्निहित बैर नहीं है। लेकिन, हमारे सामाजिक गठन की छाया इतिहास-लेखन की प्रक्रिया और प्रतिमानों को भी प्रभावित करती रही है। वर्ना क्या कारण था कि हमारे इतिहासकारों की शुरुआती पीढ़ी के बाद आए इतिहासकारों ने पाठ्य-पुस्तकों के लेखन को दोयम दर्जे का काम मान लिया?
    बहरहाल, यह कितनी अजीब बात है कि एक विषय के रूप में इतिहास लगभग हरेक विश्वविद्यालय में पढ़ाया जाता रहा, लेकिन जनता के बीच इतिहास की कोई सम्यक समझ या चेतना विकसित नहीं हो सकी‌।

    Reply
  8. रवि रंजन says:
    6 months ago

    इस आलेख में जो बातें इतिहास के बारे में कही गई हैं वे ज्ञान के अन्य अनुशासनों पर भी लागू होती हैं.
    रात- दिन सन्दर्भ ग्रंथ और शोध पत्र लिखने वाले विद्वानों का भारत के आम लोगों से कोई बौद्धिक नाता नहीं बन पाया है. इतिहास समेत ज्ञान के तमाम अनुशासनों से सम्बद्ध बातचीत प्राय: विश्वाविद्यालयों और शोध संस्थानों के अहाते में होती हैं.
    कोई बड़ा वैज्ञानिक, समाजवैज्ञानिक या साहित्यकार शायद ही अपने इलाके के किसी स्कूल में जाकर अपने विषय के बारे में कोई लोकप्रिय व्याख्यान देता है या स्कूली बच्चों के लिए पठनीय कोई सामग्री तैयार करने की जहमत मोल लेता है.
    इससे जो disconnect जन्म लेता है उसका नतीज़ा सामने है.
    पोस्ट ट्रुथ के इस दौर में फेसबुक, व्हाट्सएप्प आदि के माध्यम से व्यक्ति से लेकर किसी ख़ास ऐतिहासिक समय के बारे में अनजाने या जानबूझकर प्रसारित अप्रामाणिक सूचनाओं ने आम लोगों के दिलो-दिमाग़ को आच्छादित कर लिया है. पोस्ट- ट्रुथ से प्रो-ट्रुथ की ओर जनता को उन्मुख करना एक बड़ी चुनौती है.

    Reply
  9. आनंदकृष्ण says:
    6 months ago

    सौरभ जी ने कुछ महत्वपूर्ण और ज़रूरी मुद्दे उठाए है । दरअसल, समाज में ऐतिहासिक चरित्रों से जुड़ी हुई किंवदंतियां, आख्यान और दंतकथाएं घुली मिली होती हैं । इनमें से अनेक ऐसी होती हैं जो इतिहास के तथ्यों से सामंजस्य नहीं रखतीं । इस बिंदु पर इतिहास के अकादमीशियनों और आम समाज में कॉन्फ्लिक्ट बनता है । इस स्थिति में संतुलन बनाने के लिए इतिहास-लेखक की बड़ी ज़िम्मेदारी होती है ।
    फ़िल्म “बैजू बावरा” के प्रारंभ में कथा की पूर्वपीठिका में सूत्रधार कहता है -” …. अंततः इतिहास भी सर्वमान्य किंवदंती ही है ।”

    Reply
  10. प्रत्यूष चन्द्र मिश्रा says:
    6 months ago

    सौरभ जी द्वारा इतिहासलेखन को लेकर उठाये गये सवाल समाज के अन्य अनुशासनों पर भी उसी प्रकार लागू होते हैं.यह समस्या केवल इतिहास लेखन की नहीं बल्कि नब्बे के बाद से ग्लोब के समतल होने या कर दिए जाने के व्यापक पहलुओं से जुडी हुई है.तकनीक और पूंजी की केन्द्रीयता के लगातार फैलते आधार ने यह स्थिति पैदा की है.जिसे हम इतिहास लेखन की समस्या मान रहे हैं वह व्यापक तौर पर समाज के सभी क्षेत्रों पर समान रूप से लागू होती है.जिन समस्याओं पर सौरभ नजर डाल रहे हैं उनके निराकरण के बिन्दुओं की ओर हम सभी को गंभीरतापूर्वक सोचने की जरूरत है.इस बहस को समालोचन में जगह देने के लिए आपका आभार.

    Reply

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक