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Home » तुम कहाँ गए थे लुकमान अली

तुम कहाँ गए थे लुकमान अली

(photo courtesy Tribhuvan Deo) सौमित्र मोहन (१९३८- लाहौर) का लुकमान अली कभी-कभी अकविता के ज़िक्र में किसी लेख में दिख जाता पर पर इधर कई दशकों से सौमित्र मोहन कविता की दुनिया से निर्वासित थे. बकौल केदारनाथ अग्रवाल ‘हिंदी कविता को मुक्तिबोध और राजकमल चौधरी के बाद सौमित्र मोहन (लुकमान अली  कविता) ने आगे ले […]

by arun dev
June 3, 2018
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(photo courtesy Tribhuvan Deo)


सौमित्र मोहन (१९३८- लाहौर) का लुकमान अली कभी-कभी अकविता के ज़िक्र में किसी लेख में दिख जाता पर पर इधर कई दशकों से सौमित्र मोहन कविता की दुनिया से निर्वासित थे.

बकौल केदारनाथ अग्रवाल ‘हिंदी कविता को मुक्तिबोध और राजकमल चौधरी के बाद सौमित्र मोहन (लुकमान अली  कविता) ने आगे ले जाने का काम किया’. वह सौमित्र मोहन कहाँ गुम कर दिए गए थे. जो दिल्ली साहित्य के तंत्र के लिए कुख्यात है, ऐन उसके दिल के पास रहते हुए भी उनपर किसी की नज़र नहीं पड़ी.  

जिस कवि ने कविता की एक धारा का प्रतिनिधित्व किया हो वह इतना उपेक्षित कैसे रह सकता है भला.

८० वर्षीय हिंदी के इस महत्वपूर्ण कवि की सम्पूर्ण कविताओं का संग्रह \’हापुड़\’ से प्रकाशित हुआ है. साहित्य अकादमी समेत तमाम संस्थाओं के समक्ष अब कम समय बचा है इस ‘उपेक्षा’ के अपराध से अपने को बरी करने के लिए.

संग्रह ‘आधा दिखता वह आदमी’ की भूमिका  से कुछ अंश और उनकी आकार  में कुछ छोटी कविताएँ ख़ास आपके लिए.




आधा   दिखता   वह   आदमी  :  सौमित्र मोहन      


आरंभिक –

१. इस किताब में मेरी कुल १४९ कविताएँ हैं. मैं चाहता हूँ कि लोग मुझे इन्हीं कविताओं से जानें – पहचानें. यही मेरी ‘सम्पूर्ण कविताएँ’ हैं हालांकि इनके श्रेष्ठ होने के बारे में मेरा कोई दावा नहीं है.

२. ऐसा नहीं है कि मेरी काव्य-रचना इतनी भर रही है. हर कवि की तरह मेरे पास भी अभ्यास- कविताओं का एक ज़खीरा था जिसे मैंने दिल कड़ा कर नष्ट कर दिया है. ऐसी कविताओं की संख्या लगभग ३०० रही होगी – १९५६ से अब तक की अवधि में. इसके लिए मुझे अपने घनिष्ठ मित्रों तक की मलामत सहनी पड़ी है. उनका कहना है कि इन कविताओं पर फिर से काम किया जा सकता था. पर मुझे इसका रत्ती भर संताप नहीं है.

३. मुझे अक्सर ‘अकविता’ के खाँचें में रख दिया जाता है लेकिन मेरी गति और नियति वही नहीं है. मैंने कविता को अपने ढंग से बरता है – इसमें अतियथार्थवादी बिम्बों, फैंटेसी और इरॉटिक सन्दर्भों का भरपूर प्रयोग हुआ है. अपनी दुनिया को समझने का यह मेरा तरीका है. जो बाहर है, वही भीतर है. मेरे लिए यथार्थ के दो अलग स्तर नहीं हैं.

४. मैं उस दौर का हिस्सा रहा हूँ. जिसने अपने से पहले की पीढ़ी को धकेल कर अपने लिए जगह बनाई थी. इस नई पीढ़ी ने कविता को एक नया ‘डिक्सन’ दिया था और मध्यवर्गीय सामाजिकता तथा भ्रष्ट शासन –तन्त्र पर खुल कर चोट की थी – अश्लील कहलाए जाने का जोखिम उठा कर.

५. १९६० के दशक में हुए लेखन को जोरदार आलोचक नहीं मिले अन्यथा इस पीढ़ी को ‘अराजक’ कहे जाने की शर्म नहीं उठानी पड़ती.

(२०१८)

___________________________

(रेखांकन : जय झरोटिया)


पहला प्यार

मैंने तुम्हें होठों पर चूमा.
तुमने घाटी पर फैली
            धूप को
आधा ढंक दिया.

गृहस्तिन

वह बातें करती है
और रोती है.
और चुप रहती है
और हंसती है
वह कुछ नहीं करती
और सभी कुछ सहती है.

दोपहर में विश्राम

टोकरे के पास रखा
       कटोरदान
धूप की मांस्पेशियाँ.

स्मृति भ्रम

ओह – तुम्हारी याद !
चांदनी में एक पक्षी
          उड़ गया.

बारहमासा -१

एक दीवार कच्ची पक्की.
कुछ पत्तियां
नीचे गिरी हैं.
हवा
उन्हें लिए जा रही है
उठाए उठाए.
यह मौसम नहीं
उसका नशा है,
चीज़ों को बिगाड़ते हुए
धीरे-धीरे
बारिश में
रंग
बदल रहे हैं
कितने.
इसके बावजूद
भले-भले

बारहमासा – २

घास के फूल
मानसून की चमकती बिजली में
खिले क्यों हैं ?

साक्ष्य

दीवार में काफी बड़ा सुराख़ बना हुआ था
एक बच्चा कूद कर
जब बाहर आता है तो
बाकी लड़के उस पर टूट पड़ते हैं
बच्चे के लिए बचने का उपाय
वही सुराख़ है जिसमें से वह इधर आया था.
इस घटना का साक्ष्य केवल काल है !

पश्चात् – संवेदन

मैं रंगों की वादी में धकेल दिया गया हूँ-
         कोई एक रंग चुनने के लिए :
लेकिन मुझसे
अमलतास के फूलों में डूबता
                सूर्यास्त
अलग नहीं किया जाता.

पूर्णिमा

एक कुहुकती हुई गंध
        आकाश की.
नदी में
बहता हुआ संगमरमरी दीया.

मई – जून

दर्पण की चौंध की तरह
ठहर गई है
        दोपहरी.

वय : संधि

एक हरी टहनी पर
    श्वेत फूल
धीरे से आ.!

ब्लैक आउट

भूरी बिल्ली का एक बच्चा
     चांदनी खुरच रहा है
दीवार से.


निंदा

एक पुरानी दीवार में से कीड़े
              चुनता हुआ
               कठफोड़वा
कहाँ ? कहाँ ?
___________
mohansoumitra@gmail.com


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