वरिष्ठ कथाकार बटरोही के आख्यान ‘हम तीन थोकदार’ की यह दूसरी किश्त है. इतिहास, संस्कृति, और मिथक कैसे बनते और बदलते रहते हैं इसे यहाँ देखा जा सकता है. कथारस से संतुलित इस यात्रा में बटरोही पाठकों की दिलचस्पी कहीं से भी कम नहीं होने देते, पहाड़ की ऊंचाई और अंतरंगता से भरपूर इस आख्यान को ऐसा लगता है कोई पुरातत्ववेत्ता लिख रहा है.यात्रा बूमरैंग – कोरोना समय में थोकदारपिछले अंक में:75 साल पहले एक थोकदारी समाज की स्मृतियों के साथ पैदा हुए इन पंक्तियों के लेखक की भेंट अचानक 18 अप्रैल, 2020 को कोरोना वायरस के साथ हुई. यह वायरस अपने साथ पैंसठ साल पहले मिले एक झोला-छाप ज्योतिषी का यह सन्देश भी लाया था कि यह उसकी जिंदगी का आखिरी साल है. एक साल के बाद उसके पास कुछ नहीं बचेगा, न जिंदगी, न घटनाएँ और न अहसास.स्मृतियाँ तेजी से पीछे की ओर लौटीं तो वह जिंदगी भर अर्जित ज्ञान का सहारा लेकर वायरस द्वारा थमाए उस कोरे काग़ज को पढ़ने की कोशिश करने लगा. कोरे काग़ज को क्या पढ़ा जा सकता है, भले ही वह कंप्यूटर में ही क्यों न लिखा गया हो! क्या एक बार जी जा चुकी ज़िंदगी को दुबारा पाया जा सकता है? क्या लौटती/लौटी हुई जिन्दगी वही होती है जिसे हमने जिया था? जिंदगी का चयन तो उसे ढोने वाले का नहीं होता, मगर बूमरैंग के बाद उसे फिर से देखने की इच्छा तो होती ही है. क्या सबको होती है?…यह अनुभूति ख़ुशी, कष्ट और उलझन की है या पुनर्सृजन की? जब पिछला सब कुछ मिट चुका हो, तब यह बात भी बेमानी हो जाती है कि कहाँ से शुरू किया जाए! मानो नियति द्वारा अनायास उछाली गई जिंदगी का बूमरैंग. किसी को नहीं मालूम होता कि जिंदगी की यह गेंद किस जगह से पहली उछाल मारेगी, कहाँ पर टप्पा खाएगी और कहाँ पर रुकेगी. यह बात बेमानी नहीं तो सार्थक भी नहीं है कि वह कहाँ से शुरू हुई थी, कहाँ से बूमरैंग हुई थी और कहाँ पर जाकर रुकी. ये सारी जगहें पड़ाव थे, ठिकाने थे या घर? निरे आभास थे, कल्पना थे या यथार्थ, जिन्हें हमने कभी पूरे होशो-हवास में छुआ था, महसूस किया और अपना हिस्सा बनाया था…यह न तो किस्सागोई है, न ज्ञान की तलाश और न ही कोई विन्यास. फ़क़त अहसास हैं जिन्हें मैं आपके साथ साझा करना चाहता हूँ.छोटा-सा ब्रेक : लॉक डाउन डायरीफतेहपुर, हल्द्वानी, जिला नैनीताल : 3 मई, 2020 : लॉक डाउन का दूसरा चरण आज ख़त्म हो गया है. सारा देश इसी दिन के इंतज़ार में था मगर लॉक डाउन ख़त्म नहीं हुआ; अलबत्ता दो सप्ताह के लिए उसका विस्तार हो गया. पूरे देश को तीन जोनों में बांटा गया है और नैनीताल जिला ऑरेंज जोन में है. लोग उम्मीद लगाये बैठे थे कि उत्तराखंड के बाकी पहाड़ी जिलों की तरह नैनीताल भी ग्रीन जोन में आ जायेगा. मगर यह देखकर लोगों को ताज्जुब हुआ कि लॉक डाउन में उधम सिंह नगर तो ग्रीन जोन घोषित हो गया और नैनीताल ऑरेंज.फतेहपुर का मेरा फार्म हाउस हल्द्वानी के कालाढूंगी चौराहे से सिर्फ आठ किलोमीटर दूर है, रामनगर रोड पर. इसके बावजूद मुझे यह बात एक स्थानीय अख़बार से पता चली कि हल्द्वानी एकाएक ‘कोरोना पीड़ितों’ की हिट लिस्ट में आ गया है. अख़बार ने एक विस्फोट की तरह सूचना दी कि हल्द्वानी के बनभूलपुरा इलाके में कोरोना संक्रमण वाले कुछ जमाती घुस आए हैं. 4 अप्रैल के बाद तो अख़बार ने घटना का सिलसिलेबार ब्यौरा इस प्रकार प्रस्तुत किया:“4 अप्रैल को नैनीताल जिले में एक साथ पांच कोरोना पॉजिटिव के मरीज रिपोर्ट हुए. 6 को बनभूलपुरा के दो इलाके लाइन नं. 17 और मलिक का बगीचा सील किया गया. 7 को बनभूलपुरा क्षेत्र के 28 रास्ते भी बंद हुए. 9 को बनभूलपुरा हॉट स्पॉट घोषित. इलाके को पूरी तरह सील कर दिया गया. 12 को बनभूलपुरा लाइन नं. आठ में लोग सड़क पर उतरे और हंगामा हुआ. 13 को इलाके में शासन के आदेश पर कर्फ्यू लगाया गया. कर्फ्यू का शत-प्रतिशत अनुपालन कराने के लिए दो कंपनी पैरामिलिट्री फ़ोर्स बुलाई गई…
“लाइन नं. आठ में रविवार को पुलिस की टीम मौलाना सहित अन्य लोगों का मेडिकल टेस्ट कराने को लेकर समझाने के लिए बंजारान मस्जिद में थी. पुलिस के बाहर निकलने पर एक अफवाह फ़ैल गई. इसके बाद सैयदों की भीड़ पुलिस के खिलाफ नारेबाजी करते हुए सड़क पर उतर गई. भीड़ के अनियंत्रित होने पर मौलाना हस्तक्षेप करने आगे आए. पुलिस अधिकारियों और धर्म गुरुओं के समझाने पर भीड़ तितर-बितर हो गई. इस मामले में जिला पुलिस ने स्पष्ट कर दिया था कि लॉकडाउन का उल्लंघन करने वाले बख्शे नहीं जायेंगे. डीजी कानून व्यवस्था अशोक कुमार ने पत्रकारों को बताया कि बनभूलपुरा लॉकडाउन मामले में मुकदमा दर्ज किया गया है. इस मामले में पुलिस अवश्य कार्रवाही करेगी. एसएसपी ने बताया कि बनभूलपुरा पुलिस ने 200 अज्ञात लोगों के खिलाफ धारा 147, 148, 188, 269, 270 के तहत मुकदमा दर्ज किया है…
“डीएम ने बनभूलपुरा के लोगों से अपील की है कि कर्फ्यू के दौरान घरों से बाहर न निकलें. शासन और प्रशासन का उद्देश्य है कि कोरोना संक्रमण से कोई व्यक्ति और समुदाय प्रभावित न होने पाए. प्रशासन द्वारा बनभूलपुरा के लोगों को सभी मेडिकल सुविधाओं के साथ ही आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति करायी जाएगी. आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति के लिए विभागीय अधिकारियों को लगाया गया है. एसएसपी सुनील कुमार मीणा ने कहा कि शासन के कर्फ्यू सम्बन्धी निर्णय का पूर्ण रूप से पालन कराया जायेगा… डीआईजी जगत राम जोशी ने सोमवार की शाम कर्फ्यूग्रस्त क्षेत्र का भ्रमण कर स्थिति का जायजा लिया…
“देर शाम साढ़े आठ बजे बुलाई गई बैठक में सिटी मजिस्ट्रेट प्रत्यूष सिंह और एसपी सिटी अमित श्रीवास्तव ने कहा कि सिर्फ अफवाह के आधार पर भीड़ इकठ्ठा हो गई थी. उलेमा ने कहा कि स्वास्थ्य परीक्षण के बाद वे चौबीस घंटे मस्जिद में रहेंगे और सभी निर्देशों का पालन करेंगे. एसपी सिटी अमित श्रीवास्तव ने बताया कि उलेमा की बातें मान ली गई हैं. अब उलेमा मस्जिद में, जब कि अन्य लोग आम्रपाली संस्थान में क्वारनटीन होंगे. यदि रिपोर्ट नेगेटिव आती है तो होम क्वारनटीन किया जायेगा. बैठक में बंजारान मस्जिद के मौलाना अब्दुल बासित, मौलाना मुकीम कासमी, मौलाना मुफ़्ती कमर इक़बाल, मोहम्मद युसूफ, पार्षद गुफरान, महबूब आलम, अरशद अयूब, आदिल मिकरानी, इस्लाम मिकरानी, हाफिज कासिम, हाजी रशीद आदि मौजूद थे. (साभार, ‘अमर उजाला’, नैनीताल संस्करण)
कोरोना वायरस का खौफ पूरे देश में इस कदर छाया हुआ है कि लगता है, मानो पूरे देश की साँस ठहर गई है. जो जिस जगह है, वहीं पर रुक गया है, मानो रफ़्तार में परेड कर रही सैनिक टुकड़ी की गारद सलामी ले रहे मुख्य अतिथि ने ही झटके से ‘थम’ कहकर परेड को रोक दिया हो. पिछली दोनों बार में लॉक डाउन के विस्तार की घोषणा खुद प्रधान मंत्री ने की थी; इस बार, संभव है संयोग से ही, पूरे दिन सिर्फ दो चेहरे उभरे और भाग्यवश दोनों उत्तराखंडी थे. बचपन से ही मेरे आदरणीय मित्र रहे भगत सिंह कोश्यारी जी, जो उस दिन महाराष्ट्र के राज्यपाल की कुर्सी पर बैठे हुए मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को राज्यसभा का सदस्य नामित करने सम्बन्धी विवाद को लेकर विमर्श कर रहे थे और पूर्व थल-सेनाध्यक्ष जनरल बिपिन रावत, चीफ़ ऑफ़ डिफ़ेंस स्टाफ़ बनने के बाद देश को संबोधित कर रहे थे. जब से प्रधान मंत्री ने राष्ट्रीय सलाहकार के रूप में अजित डोभाल साहब को नियुक्त किया था, उत्तराखंडवासियों की ज़बान पर सिर्फ मोदीजी का नाम सुनाई दे रहा था. लोगों का कहना था, इतने उत्तराखंडी एक साथ कभी राष्ट्रीय मुख्यधारा का हिस्सा नहीं बने थे.बेशक, लॉक डाउन का लोगों ने स्वागत किया हो या नहीं, मानवेतर प्रकृति ने उसका न सिर्फ स्वागत किया, उसे भरपूर गले लगाया है. वसंत ऋतु शुरू हुए तीन महीने से ज्यादा का वक़्त गुजर चुका है, मगर हर सुबह अपनी ताजगी के साथ उसका मदभरा चेहरा नयी ऊर्जा से खिल उठता है. पहाड़ी चिड़ियों का मधुर संगीत वर्षों के बाद शाश्वत उमंग के साथ सुनाई देने लगा है, एन वक़्त पर जो पक्षी मैदानों की ओर स्थानांतरित होकर हमें जगाने के लिए उपस्थित हो जाते, मगर कुछ समय से उनकी आहट धीमी पड़ गई थी, वो उसी तत्परता से अपना परिचय देने के लिए लोगों की दहलीज पर फुदकने लगी थीं. पहाड़ों की गोद वर्षों बाद अपने सुपरिचित फूलों, वनस्पतियों, तितलियों, भौंरों और सुगन्धित लताओं से भरने लगी थी. वसंत का ऐसा निष्कलंक चेहरा लोग सचमुच भूल चुके थे. कई दशकों के बाद लोगों ने देखा, आकाश कितना नीला, पहाड़ियां इतनी धुली-धुली और प्रकृति का हर रंग कितना चटकीला और सौम्य है!…जो अख़बार मार-काट और षड्यंत्रकारी घटनाओं से पटे रहते थे, इतने दुबले कलेवर वाले हो गए थे कि उन्हें देखकर दया आती थी. बौद्धिक और राजनीतिक लफ्फाजी को मानो एक अनुशासन मिल गया था. वही कहा जा रहा था जितना जरूरी हो! अधिकांश टीवी चैनल एक ही तरह की भाषा बोल रहे थे, खुद को अलग दिखाने के लिए उनके एंकर अपनी आवाज सबसे तेज बनाने में लगे हुए थे, उनकी आवाज को मानो जंक लग गया हो.(ब्रेक के बाद)‘द्यौव में’ : मेरा पहला स्कूलजुलाई, 1949 को एक गर्मी भरे दिन, जिंदगी के तीन साल पूरे होने पर पिताजी मुझे ‘द्यौवमें’ में ले गए. यह मेरे पहले स्कूल का नाम था. इस स्कूल को मेरे पटवारी दादाजी ने इलाके के बच्चों को साक्षर करने के लिए खोला था. दादाजी ही मुख्य कर्ता-धर्ता थे, इसलिए किसी की हिम्मत नहीं थी कि यह कहे, बच्चा अभी अंडर-एज है. शायद यही वजह थी कि मेरा बौद्धिक विकास कक्षा के पाठ्यक्रम के अनुरूप कभी नहीं हो पाया. हिंदी व्याकरण तो मेरी समझ में कभी आया ही नहीं.मेरा गाँव ‘छानगों’ (छाना गाँव) अल्मोड़ा जिले की वर्तमान तहसील लमगड़ा की पुरानी पट्टी सालम की मुख्य नदी पनार के किनारे चारों ओर से अनेक पर्वत-श्रृंखलाओं से घिरी एक पहाड़ी के मध्य में बसा सामान्य-सा गाँव है. चारों ओर से यह विशाल चट्टानों से घिरा हुआ है, जिन्हें ‘कोट’ (किला) कहा जाता है. एक कोट का स्वामी थोकदार रहा होगा, और हमारे गाँव का किला था ‘ग्वाल्दे कोट’ (ग्वल्ल देवता का किला). वर्तमान तोकों के साथ भी इनका अवश्य सम्बन्ध रहा होगा, जो एक ग्राम-इकाई का भी द्योतक था.हमारे पुरखों के ज़माने में पूरे थोकदारी-इलाके में कोई स्कूल नहीं था. आम लोग स्कूल के बारे में कोई जानकारी नहीं रखते थे. पिताजी और उनके एक सहपाठी-दोस्त चिंतामणीजी दो ही ऐसे लोग थे जिन्होंने सामने के शिखर पर बने स्कूल की दस मील (पंद्रह किलोमीटर) की कठिन चढ़ाई चढ़-उतर कर दर्जा दो तक पढ़ा था. शायद यही वजह थी कि वो अपनी आगामी पीढ़ी के लिए शिक्षा की अहमियत से परिचित थे. (इसीलिए उन्होंने मुझे तीन वर्ष की उम्र में कक्षा एक में भरती कर दिया था.) उनके लिए यह दौर निश्चय ही मुश्किल रहा होगा. गाँव से तीन किमी उतर कर घाटी में बहती पनार नदी तक पहुंचना और फिर नदी पार कर फिर से पांच किलोमीटर चढ़कर स्कूल पहुंचना. पढ़ाई करने के बाद फिर से उतना ही चलकर वापस आना.बरसात में यात्रा सचमुच डरावनी हो जाती रही होगी, जब नदी का पानी उस बनैली घाटी में गुस्सैल नाग की तरह फुंफकारता हुआ चक्कर काटता होगा और पुरखों के थोकदारी साम्राज्य को अपने आगोश में लेने के लिए सारी ताकत झोंक देता होगा. नदी अपने पाटों को कई गुना विस्तार देकर मल्ला और तल्ला सालम को इस तरह विभाजित कर देती होगी कि दोनों इलाके दो अलग-अलग संसारों का रूप धारण कर लेते होंगे.आपातकालीन आवागमन के लिए कुछ खास जगहों से ही नदी को पार किया जा सकता था. ये जगहें कम गहरी होती थीं, तो भी इन्हें रोज की तरह कपड़े उतारकर ही पार किया जा सकता था. नदी के बीच ठहरी हुई भारी शिलाओं से निर्मित इन प्राकृतिक पुलों के बारे में केवल इलाके के कुछ खास बुजुर्ग ही जानते थे; या फिर पिताजी और चिंतामणीजी. तो भी, कितनी ही सावधानी क्यों न बरतें, सिर पर रखी कपड़ों और कापी-किताबों की गठरी भीग ही जाती होगी. एक हाथ से सिर के कपड़ों और दूसरे हाथ से पांवों का संतुलन बनाते हुए जब वह दूसरे किनारे पहुँचते होंगे,कपड़ों को पहनने लायक सुखाने के बाद फिर से पहनने में भी वक़्त लगता ही होगा. स्कूल पहुँचने से पहले कुलदेवी के मंदिर में प्रणाम करना अघोषित परंपरा थी, इसमें भी समय जरूर लगता होगा.
अच्छी बात यह थी कि उन दोनों ने अपनी यह शिक्षा-यात्रा किशोर उम्र में शुरू की थी… करीब पंद्रह-सोलह वर्ष में. अठारह-बीस की उम्र में जब पिताजी दूसरा दर्जा पास करने के बाद शिक्षित होकर वापस गाँव लौटे होंगे, तब दोनों का गाँव में कैसा स्वागत हुआ होगा, इसका अंदाज लगाया जा सकता है. (चिंतामणी जी दर्जा दो की परीक्षा देने के बाद से ही शास्त्री की अपनी आगे की पढ़ाई करने के लिए बनारस चले गए थे.) शिक्षित होने के दो-एक साल के बाद पिताजी की शादी कर दी गई थी जिसके साथ उनके थोकदारी इलाके में मेरा अस्तित्व धारण करने का रहस्य छिपा हुआ था.⟱किस्सा गाँव के उस प्राइमरी स्कूल का तो नहीं, नौ-दस साल की मेरी उम्र का है, जब मैं नैनीताल के सरकारी मिडिल स्कूल में सातवीं कक्षा में पढ़ रहा था. बिशनदत्त पन्त यानी ‘बिशन गुरू’ हमारे क्लास-टीचर और हिंदी के अध्यापक थे. पूरा स्कूल उनके गुस्से से कांपता था.हिंदी की कक्षा में ही गुरूजी ने एक दिन मुझसे पूछा, ‘इससे पहले किस स्कूल में पढ़ते थे?’मैंने तपाक-से उत्तर दिया, ‘जी, द्यौव में में.’उन्होंने मानो सुना नहीं, थोड़ा गुर्रा कर पूछा, ‘कहाँ?’ मैंने फिर वही उत्तर दिया. तब भी वह नहीं समझे और अपनी बैंत पकड़े मेरी डेस्क के पास आ धमके.‘कहाँ?’मैंने फिर वही जवाब दुहराया.अबकी बार मानो उनकी सब्र का बांध टूट पड़ा, मेरी पीठ पर दो बैंत सटका कर चिल्लाए, ‘ये मै-मै क्या कर रहा है? यहाँ से पहले किस स्कूल में पढ़ता था?’मैंने फिर दोहराया, ‘द्यौव में’ में.’उन्होंने कई बार फिर पूछा और हर बार मैंने उन्हें यही उत्तर दिया. हर बार वह चिल्लाते रहे कि मैं यह ‘मै-मै’ क्या बक रहा हूँ, और मैं हर बार अपने स्कूल का वही नाम दुहराता रहा. काफी मशक्कत के बाद गुरूजी यह तो समझ गए कि मेरे स्कूल का नाम ‘द्यौव’ है, मगर तब भी उनकी समझ में नहीं आया कि मैं बार-बार ‘मै-मै’ क्यों कह रहा हूँ.75 वर्षों तक हर साल किसी-न-किसी रूप में हिंदी-व्याकरण पढ़ने-पढ़ाने और संसार भर के देसी-विदेशी विद्यार्थियों को हिंदी पढ़ाने के बावजूद मैं आज तक किसी को नहीं समझा पाया कि मेरे पहले स्कूल का नाम व्याकरण की दृष्टि से क्यों गलत था? मैं खुद भी आज तक बिशन गुरू को दिये गए अपने उत्तर को लेकर आश्वस्त नहीं हूँ, इसीलिए चाहता हूँ कि अपनी जिंदगी के इस आखिरी साल में गुरूजी के सवाल का जवाब खोजकर अपने शुभचिंतकों को बता ही दूं.⟱मैं नहीं जानता कि यह उस दौर की राष्ट्रीय शिक्षा-नीति थी या मेरे पिताजी और चिंतामणीजी की अपने स्कूल के लिए बनाई गई नीति; जो स्कूल हमारे लिए ‘द्यौवमें’ में खोला गया था, उसमें कक्षा दो तक की पढ़ाई कुमाउनी में होती थी, छठी तक हिंदी में, और कक्षा छः से तमाम दूसरे विषयों के अलावा दो नयी भाषाएँ- अंग्रेजी और संस्कृत- की पढ़ाई शुरू होती थी.‘कुमाउनी’ हिंदी की तीन उपभाषाओं में से एक, ‘मध्य-पहाड़ी’ की बोली है. मेरे गाँव का सम्बन्ध कुमाउनी के मानक रूप खस-पर्जिया क्षेत्र के साथ है जो अल्मोड़ा शहर से लगा होने के कारण साक्षरता की दृष्टि से अपेक्षाकृत आगे हैं. भाषाविद इस भाषा की जड़ें शौरसेनी अपभ्रंश में, जबकि कुछ दूसरे लोग दरद-खस प्राकृत के साथ बताते हैं. बताया गया है कि यह भाषा प्राचीन आर्यों और यक्षों के द्वारा बोली जाने वाली भाषा का मिश्रित रूप है. गाँवों में बोली जाने वाली कुमाउनी और शहर के लोगों की भाषा में बहुत ज्यादा फर्क है. शहर में रहने वाले पढ़े-लिखे कुमाउनियों की भाषा में, जिनमें बहुसंख्य ब्राह्मण और ‘साह’ (वैश्य) लोग आते हैं, तत्सम शब्दों का प्रयोग किया जाता हैं जब कि ठाकुर और शिल्पकार परिवारों की भाषा का सम्बन्ध प्राचीन प्राकृतों के साथ होने के कारण उनकी भाषा के अनेक संज्ञा-रूप विशेषणों के आधार पर कुछ हद तक मनमाने ढंग से बनाये गए हैं, जैसा कि प्रत्येक लोक भाषा में होता है.हमारे पहाड़ी नामों पर शायद शिष्ट भाषाओं का ही दबाव रहा होगा कि प्राकृत ‘द्यौव में’ का संस्कृतीकरण एक दिन ‘देवीथल’ कर दिया गया; हमारे बचपन के संज्ञा-शब्द को अशुद्ध करार देते हुए नए शब्द को शुद्ध मान लिया गया, जो आज तक चला आ रहा है. मुझे नहीं मालूम कि ‘द्यौव में’ (देवता का स्थान) को बदल कर ‘देवीथल’ (देवी का स्थान) नाम किसने बनाया, लेकिन इस बदलाव में मुझे बचपन से ही अपने परमपिता देवताओं और मातृशक्ति देवियों के बीच हुए लम्बे संघर्ष की आहट सुनाई देती रही है. मुझे नहीं मालूम कि उनमें से कौन जीता, मगर मानव सभ्यता के विकास-क्रम में मनुष्य की जिजीविषा, जीवन-संघर्ष, प्रकृति बनाम मानव के अस्तित्व के किस्सों, मिथकों, इतिहास आदि शक्तियों द्वारा प्राप्त विवरणों से पता चलता है कि पुरुष देवों और स्त्री देवियों का यह शक्ति-संघर्ष सदियों से चला आ रहा है.
पुरावेत्ता बताते हैं कि पुरुष प्रधान आर्य संस्कृति से पहले इन पहाड़ों में स्त्री प्रधान संस्कृतियाँ निवास करती थीं, जिनके वर्चस्व को ख़त्म करके आर्यों को अपना प्रभुत्व स्थापित करने में शताब्दियाँ लगी थीं. बोलचाल की भाषा के रूप में ‘दरद पैशाची’ प्राकृतों का प्रयोग करने वाली पिशाच जाति से जुड़े अनेक प्रसंग हमारे इलाके में आज भी मौजूद हैं. हमारे पुरखों के मूल गाँवों से मिलते-जुलते कितने ही गाँव आधुनिक काली कुमाऊँ क्षेत्र की राजधानी चम्पावत के आस-पास स्थित हैं, जो हिडिम्बा और घटोत्कच के मंदिरों के रूप में जाने जाते हैं, मूल आदिवासी उन्हें अपना पूर्वज मानते हैं.हमारे स्कूल ‘द्यौव में’ पहाड़ी की पीठ पर हमारे थोकदार पुरखों के द्वारा बड़ी संख्या में विशालकाय वीर-स्तम्भ गाढ़े गए थे, जिन्हें हमारी भाषा में ‘बिरखम’ कहा जाता है. काली कुमाऊँ का यह इलाका रण-बाँकुरे क्षत्रियों का है, जो अपनी वीरता, सदाशयता और लोक-कल्याण की भावना के लिए विख्यात रहे हैं. अष्टधातु के रंग के ये बिरखम पांच-छह फुट लम्बे और गोलाई में इतने विशाल हैं कि एक प्रौढ़ व्यक्ति इन्हें दोनों हाथों से घेर नहीं सकता. खास बात यह है कि ये पहाड़ की चोटियों में ही रखे गए हैं और एक शिला को एक वीर द्वारा स्थापित किया गया है. उड़ीसा के पैका वीरों के समान इन्हें भी ‘पैक’ कहा जाता था और बचपन से ही इनमें भारी-से-भारी शिलाओं को ढोने का कौशल सिखाया जाता था.गाँव के सबसे निकट के इस पर्वत-शिखर द्यौवमें के ठीक सामने समुद्र सतह से 7000 फुट की ऊँचाई पर हमारे इलाके की कुलदेवी ‘धुरका’ का मंदिर है, जहाँ पूरे सालम और काली-कुमाऊँ क्षेत्र के लोग हर साल सामूहिक पूजा के उद्देश्य से एकत्र होते हैं. ‘धुरका’ स्थानीय बोली में वन देवी का नाम है, जिसे शुद्धतावादियों ने ‘दुर्गा’ का अपभ्रंश मानकर आर्यों के साथ जोड़ दिया गया. यहाँ भी ‘धुरका’ अशुद्ध और ‘दुर्गा’ शुद्ध रूप में स्वीकार कर दरद-पैशाची के अस्तित्व को नकार दिया गया है. मगर प्राचीन भाषाओं के ये अवशेष दैवी-शिखरों पर स्थापित वीर खम्बों की स्मृतियों के जीवंत गवाह हैं.⟱“काफलीखान से भनोली मोटर मार्ग पर स्थित चैलछीना और गुणादित्य के मध्यवर्ती ऊंचे शिखर पर धुर्कादेवी मल्ला सालम का सुप्रसिद्ध शक्ति पीठ है. कुमाऊँ के सभी शाक्तपीठों -देवीधुरा, गंगोलीहाट, धौलादेवी, दन्या के समान इसकी भी पूरे इलाके में मान्यता है. इस पर चढ़ने के लिए चारों ओर से विकट चढ़ाई है. पूर्वोत्तरी ढाल पर सभी शाक्तपीठों की भांति देवदार का घना और विस्तृत सुरक्षित वन है, जिसमें कई बड़े-बड़े, पुराने-से-पुराने देवदार के वृक्ष हैं. निर्जल, अनुर्वर, तीक्ष्ण ढालों पर इतना अच्छा वन बड़ी दुर्लभ सम्पदा है.“मंदिर की रूप-रचना देखने से प्रतीत होता है कि यह चंद राजाओं के काल में बना होगा. इसे कम-से-कम चार सौ वर्ष पुराना तो होना ही चाहिए. यहाँ पर 6-6”, 8-8” नाप की मूर्तियाँ और उनके टुकड़े पड़े हैं. संभवतः ये नवग्रहमंडल के पटल के टुकड़े हों या किसी विष्णु प्रतिमा के भी टूटे-फूटे भाग भी हो सकते हैं जिनको कहीं दूर से लाकर रख दिया गया होगा…देवी को पुजारी लोग वैष्णवी बताते हैं. किन्तु मंदिर के बाहर एक कोने में चामुंडा की स्थापना की गई है. बलि भी दी जाती है, यहाँ नित्य पूजा होती है…”(विवरण साभार : ‘राग-भाग काली कुमाऊँ’ – डॉ. राम सिंह)धुर्कादेवी के शिखर पर खड़े होकर कुमाऊँ की पहाड़ियाँ एक गोल आवर्त की भांति उसको चारों ओर से घेरे प्रतीत होती हैं. यहाँ से मध्य हिमालय का अधिकांश भाग पश्चिमी हिमालय के कुमाऊँ-गढ़वाल के प्रमुख हिम शिखरों सहित देखा जा सकता है. रानीखेत की तुलना में धुर्कादेवी के शिखर से चारों ओर का विहंगम दृश्य कई गुना अधिक रोमांचक और मन-भावन प्रतीत होता है. किसी अन्य देवीपीठ से इतनी समग्रता में पर्वतीय छटा के अनुपम दृश्य नहीं दिखाई पड़ते हैं. धुर्कादेवी शिखर के दोनों ओर अर्ध-चंद्राकार आवर्त के रूप में जेंती, देवीधुरा, एड़द्यो, धामद्यो, मोरनौला, पहाड़पानी, शहरफाटक आदि मनभावन शिखर हैं जिनका आपस में अटूट राजनीतिक-सांस्कृतिक सम्बन्ध है. सैकड़ों किस्से-किम्वदंतियां हैं और हैं उनसे जुड़े असंख्य लोक-विश्वास.पनार नदी के पश्चिमी जलागम के ऊँचाई वाले स्थान में कोटौली नामक गाँव है जो मल्ला सालम पट्टी के अंतर्गत आता है. यहाँ पर कुमाऊँ के प्रसिद्ध लोक-देवता ऐड़ी का प्रसिद्ध स्थान है. लोगों का विश्वास है कि ऐड़ी देवता ने यहाँ पर अपनी पहचान के लिए आसमान से ‘तिरसूल’ (त्रिशूल) और ‘गांजा’ (गदा) बरसाई (गिराई) थी. इसलिए ऐड़ी के गांजा को ‘बरसी गांजा’ कहते हैं. जब ऐड़ी के जागर लगते हैं, इनको ऐड़ी का प्रतिरूप मानकर स्थापित किया जाता है. शेष समय में ये देवता के भंडार में रहते हैं. लोगों का कहना है कि ऐड़ी का यह ‘तिरसूल’ अष्टधातु का है.जेंती सालम का प्रमुख व्यापारिक, ऐतिहासिक एवं शैक्षिक गतिविधियों का प्रधान केंद्र है. लोहाघाट-अल्मोड़ा राष्ट्रीय राजमार्ग के मोरनौला (7500 फुट) से एक मार्ग उत्तर-पूर्व के ढलान में जेंती पहुँचता है. जेंती से अल्मोड़ा की दूरी 64 किमी, लोहाघाट की दूरी 79 किमी, भनोली की दूरी 35 किमी है. ये स्थान जेंती से क्रमशः पश्चिम, पूर्व और उत्तर में स्थित हैं. जेंती मोरनौला से होकर हल्द्वानी (133 किमी) और नैनीताल (103 किमी) से भी जुड़ा है. इस प्रकार जेंती सालम क्षेत्र का हृदय है. यह एक लम्बी पहाड़ी धार के उत्तरी ढलान में बिखरी छोटी-छोटी बस्तियों का समूह है.जेंती का सर्वाधिक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थल पूर्व में ऊँट के कूबड़ की भांति उठी धामदेव की उत्तल वेदिका है. प्राकृतिक रूप से यह अपने-आप में एक चमत्कार ही है कि जहाँ सामान्य रूप से पहाड़ों के शिखर नुकीले और दोनों ओर ढालू हुआ करते हैं, उसके विपरीत धामदेव की ऊपरी सतह काफी विस्तृत और चौरस है. लोक परम्पराओं में इस चौरस वेदिका का उल्लेख प्राचीन काल से ही होता आ रहा है.⟱पहाड़ों की चोटियों में देवताओं का निवास माना जाता है. गाँव और इलाके की सबसे ऊंची चोटी पर कुलदेवी का और देवताओं की श्रेणी के अनुसार अपेक्षाकृत कम ऊंचे टीलों पर दूसरे स्थानीय देवताओं का आवास माना जाता है. इन छोटे-बड़े शिखरों पर स्थानीय शिल्पकारों के द्वारा मंदिर निर्मित किये गए हैं जिन्हें कभी टीलों के नाम से या कभी सम्बंधित देवता के नाम से जाना जाता है. देवता को ‘दे’ या ‘द्यौ’ संबोधन से पुकारा जाता है और ये संबोधन ही लोगों की ज़बान पर आते-आते संज्ञा-सूचक बन जाते हैं. कभी-कभी टीले की स्थिति, दिशा और स्थानीय कबीलों के साथ उसके रिश्तों के आधार पर उनके नए संज्ञा या विशेषण-नाम गढ़कर उन शिखरों और देवताओं को पुकारा जाता है. चूँकि देवता का निवास टीले के ऊपर है इसलिए देवता के नाम के साथ ‘में’ को प्रत्यय की तरह ऐसे जोड़ दिया जाता है कि ‘में’ संज्ञा शब्द का हिस्सा बन जाता है. देव-भाषा के व्याकरण के अनुसार बहस हो सकती है कि ग्रामीणों को ऐसी स्थिति में ‘में’ प्रत्यय का प्रयोग करना कहिये या ‘पर’ का, मगर यह एक फालतू दिमागी कसरत होगी क्योंकि देवभाषा के व्याकरण से ये ग्रामीण जरा-भी परिचित नहीं हैं. जैसे ‘ग्वाल्दे’ (ग्वल्ल देवता) शब्द अपने-आप में पर्याप्त है मगर बताया जाना है उस स्थान के बारे में. स्थानीय व्याकरण के हिसाब से उसे ‘ग्वाल्दे में’ (ग्वल्ल देवता का स्थान/मंदिर/ चोटी) कहना ही शुद्ध होगा. इसी तरह ‘एड़द्यो में’ (एड़ी देवता और उसके मंदिर की पहाड़ी), ‘द्यौव में’ (देवता की धरती और उसका स्थान) आदि. कभी-कभी सीधे विशेषणों के साथ जोड़कर भी संज्ञा शब्द बनाये गए हैं जैसे ‘गैर में’ (गहराई के टीले वाली धरती का स्थान), ‘सैण में’ (समतल भूमि वाले टीले की धरती) आदि.विद्यालय भी देवता के आशीर्वाद से प्राप्त स्थान माना गया है, इसलिए उसे ‘द्यौव’ (देवता का स्थान) कहा गया; उस स्थान पर स्कूल बना तो ग्रामीणों के व्याकरण के अनुसार उस जगह का नाम ‘द्यौव में’ होना ही था. इतना ही नहीं, जगह और स्कूल का सम्मिलित नाम भी ‘द्यौव में’ हो गया. एक ही शब्द ‘द्यौ’ के साथ दो प्रत्यय ‘व’ और ‘में’ जोड़कर शब्द का अनुशासन बिगाड़ दिया, मगर यह तर्क तो शुद्धतावादियों का है!संस्कृत व्याकरण के नियमों के हिसाब से यह सब भ्रष्ट और बेहूदा कसरत हो सकती है, मगर मैं अपने पूज्य थोकदार पुरखों की बौद्धिक कसरत को ख़ारिज तो नहीं कर सकता था. ऐसे में न तो प्राकृत परंपरा से जुड़े मेरे पुरखों के तर्कों को संस्कृत परंपरा वाले बिशन दत्त पन्त उर्फ़ ‘बिशन गुरू’ समझ सकते थे और न हम थोकदार उनकी परंपरा के तर्कों को.‘जाग में’ यानी देवता का स्थानसमय का चक्का विपरीत दिशा में घूमकर 75 साल पहले मेरे गाँव ‘छानगों’ पहुँचकर ठहर गया है. इस वक़्त मैं अपने ‘जागमें’ में हूँ; जागमें, यानी देवता का स्थान. (‘जाग’ के ‘जा’ को ह्रस्व ‘आ’ पढ़ें.) पहाड़ियों का यह देवता हिन्दुओं के देवताओं से भिन्न है हालाँकि वक़्त का अनंत सफ़र तय करने के बाद यह देवता भी हिन्दू देवताओं का जैसा ही चिकना-चुपड़ा बन गया है. इसके बावजूद दोनों की कोई तुलना नहीं की जा सकती. समानता अगर कोई है तो इस रूप में कि हिन्दुओं के कथित पढ़े-लिखे ‘सभ्य’ समाज के ‘भगवान’ की तरह इसके भी अनेक अर्थ और पर्यायवाची बना दिए गए हैं.निश्चय ही देव भाषा की परम्परा के लोगों के लिए ‘जाग’ शब्द ‘जागर’ या ‘जागरण’ का संक्षिप्त रूप होगा हालाँकि जरूरी नहीं कि इसका अर्थ भी वही हो. देवता के अलावा इस शब्द का एक अर्थ ‘जगह’ है, इसके अलावा ‘चौकसी’, ‘जागृत अवस्था’, ‘चेतनावस्था’, ‘सावधान’, ‘इंतजार’ आदि अनेक अर्थों में इसका प्रयोग होता है; मगर कुमाउनी-गढ़वाली में इसका सबसे प्रचलित अर्थ है ‘ठहरो’, ठहरने का आदेश… जाहिर है कि एक पहाड़ी आदमी को आदेश सिर्फ देवता ही दे सकता है. घने जंगलों, बलखाती-गरजती नदियों और ऊंची-ऊंची पर्वत श्रृंखलाओं में बेख़ौफ़ मुक्त विचरण करते एक पहाड़ी को. उसे रोकना आसान नहीं; इसलिए रोकने का आदेश देना पड़ता है, और यह आदेश उसे सिर्फ और सिर्फ देवता ही दे सकता है.हर पहाड़ी गाँव के मध्य में कुल देवता का मंदिर होता है, जिसे लोग पूरे आदर के साथ ‘जागमें’ पुकारते हैं. यह स्थान सिर्फ गाँव की भौगोलिक सीमा का ही केंद्र नहीं होता, गाँव की सांस्कृतिक चेतना का भी केंद्र होता है. गाँव से जुड़े किसी भी प्राणी का, जिसमें मनुष्य, पशु-पक्षी; यहाँ तक कि पेड़-पौंधे, कीट-फतिंगे और भूत-प्रेत भी शामिल हैं, से जुड़े किसी भी सामाजिक, अधिदैविक, आध्यात्मिक या धार्मिक काम की शुरुआत बिना ‘जागमें’ में हाजिरी लगाये संभव नहीं है. प्रत्येक उत्सव और सामुदायिक कार्य-कलाप का आरम्भ यहीं से होता है. गाँव की औरतें, पुरुष, बच्चे और बुजुर्ग जरूरत पड़ने पर यहीं आकर देवता के सामने अपनी गलतियों, अपराधों का स्वीकार करने के बाद पश्चाताप करते हैं, किसी परिचित या अपरिचित व्यक्ति के द्वारा पैदा किये गए संकट की शिकायत करते हैं और उसे दण्डित करने की विनती करते हैं.पहाड़ों के ये मंदिर गोरख परंपरा के हैं, इसलिए इनमें निवास करने वाले देवता औघड़, जोगी, मुक्त विचरण करने और बिना छत और दरवाजों के खुले में रहने वाले, अत्याचारियों को तत्काल दंड देने वाले और सदाचारियों के ऊपर आए संकट को दूर कर शांति तथा सद्भाव का माहौल निर्मित करने वाले परोपकारी देवता हैं. अधिकांश देवता प्राकृतिक शक्तियों के प्रतीक हैं इसलिए मानवीय रूपाकार में नहीं, अमूर्त, वायवीय शक्तियों के रूपक हैं. ये देवता आम पहाड़ी आदमी की शक्ल-सूरत, पहनावे, चाल-ढाल, सपनों और आकांक्षाओं की बातें करते हैं, इसलिए आम पहाड़ी आदमी उन पर पूरा भरोसा करता है और उनके द्वारा किये जाने वाले विश्वासघात की बात तो सपने में भी नहीं सोचता. खास बात यह है कि आज भी लोग मुख्य धारा के देवताओं की अपेक्षा इन पर अधिक विश्वास करते हैं. ये देवता भी एक योगी के रूप में लोगों पर उपकार करने का प्रदर्शन करने के बजाय अपने समाज और परिवेश के कल्याण के लिए प्रकृति से भिक्षा मांगते हैं.
(क्रमशः)
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