(Way going Photo by Nikos Prionas) |
कविताओं का पहला प्रकाशन ख़ुशी, उम्मीद और ज़िम्मेदारी एक साथ है. अखिलेश सिंह की इन कविताओं में नवोन्मेष है पर इसे शिल्प में रचने के लिए मिहनत की अभी दरकार है. बहरहाल कविताएँ कुलमिलाकर आश्वस्त करती हैं. कवि को बधाई.
अखिलेश सिंह की कविताएँ
पेड़ों की मौत
मैंने मर जाते हुए देखा है
बहुत से पेड़ों को
वे चीखते हुए गिर पड़ते थे
और धूल का गुबार उठता था
एक सूनापन हमेशा के लिए थिर जाता था
कई बार उन्हें बहुत देर तक मारा गया
उनसे झरता रहा था बुरादा, पानी, गदु
कई बार वे वृद्ध होकर, गिरकर खुद ही मर गये
और कई बार किसी ऊँचे ढूहे पर वे खड़े खड़े ही मर गये
उनका शरीर पूरा काला पड़ गया था
उस समय वे अपने अकेलेपन से चीखा करते थे, रोज ब रोज
उनकी देह को भीतर ही भीतर मकरोरे खा चुके थे
कुछ पेड़ , गिरे और टिके रहे, देते रहे फल, आश्रय और मनोविनोद
लेकिन, फिर उनको भी मारा गया
पेड़ मर रहे थे चिड़ियाँ चिंचिया रही थीं
अंडे फूट रहे थे, संसार उजड़ रहा था
संसार उजड़ गया, पेड़ मर गये
पेड़ मर रहे थे, मैं छटपटा रहा था
लेकिन यह छटपटाहट उतनी नहीं थी कि वे देख सकें
उतना आवेग नहीं था कि उनकी हत्या रुके
मैं भी गवाह बना बड़ी बड़ी कायाओं के सामूहिक हत्याकांड का
वे पेड़ मेरी स्मृतियों में हैं
उनके भूतो को दबा दिया गया है और वहाँ मनुष्य की सफलता के झंडे फहरा रहे हैं
पेडों के विलाप में, अपने वंश के नाश की चिंता थी
मनुष्यों के आत्मघात पर क्षोभ था
खीझ थी वृक्ष-प्रेम के विज्ञापनों पर
जोकि किसी मृत पेड़ की देह से बने कागज पर छपा था
बचपन से लेकर जवान होने तक की मेरी समूची कहानी में
बहुत से पेड़ों की निर्मम मौतों की कहानी भी है.
ओ अरावली की नातिनें !
आमेर के सूरज पोल से कुमारी सखियाँ उतर रही हैं
अरावली की नातिनें
ये चली हैं जल महल की ओर
किसी सारस जोड़े को ढूँढने
ऊँटों ने इन्हें राह में मुँह बिराया
जोगी-बाना में घूम रहे एक आदमी ने इन्हें ठगना चाहा
सारंगी इनकी सहचरी थी
उसने सच सच कह दिया
ओ कुमारियों !
लौट जाओ महल और अरावली की साँस में बज रहे
उन आदिम किस्सों को सुनो
जिनमें कठपुतलियों के दुगमुग सिरों को काट दिया गया है
हर शै को खिलौनों की ही तरह खेलकर तोड़ दिया गया है
पीछे उड़ाई है धूल आगे की ओर चलती बारातों ने
सुस्ता रहे, उस बूढ़े अरावली से पूछो
कि उसकी देह के रोमों से पसीने क्यों नहीं आते ?
वह क्यों सो गया है
किसी गादर बैल की तरह.
दिल्ली के हुक्मरां अब उसकी पेशी नहीं करते
नहीं लेते उससे बेगार कोई
फिर, किस गहरी तीर का मारा हुआ, वह धाराशायी सा पड़ा है.
कहाँ होती है कविता
ग़ुलाब अड़हुल के
खिले मिलते हैं सुबह सुबह
सुबह सुबह मिलती है झरी हुई ओस
रात भर ओस झरती है,खिलते हैं पुष्प रात भर
किसी अर्ध रात्रि को माघ की
साफ ठंडी रौशन फ़िजा में
मैंने ओस के मोती फले हुए पाये
कभी-कभार तीसरे प्रहर तक फूलों को खिले हुए पाया
श्रृंगाल चीखते हैं रात भर, मैं घूमता हूँ रात भर
एक ही समय
एक ही अंतरिक्ष
एक ही हवा
धरती का तल भी एक ही तो
फिर भी मैं कभी न देख पाया खिलते हुए फूलों को
न देख पाया
अवश्या को मोती सा फलते हुए
मैं बहुत बार फूलों को खिलते हुए पकड़ लेना चाहता हूँ
बहुत बार अवश्या को उंगलियों पर फलित होते देखना चाहता हूँ
मैं देखना चाहता हूँ कविताओं के रूपाकार को घटित होते
और उन्हें शब्दों में थिरकते हुए भी
कविताओं के साफ़ साफ़ प्रत्यय कहाँ रहते हैं ?
वृक्ष के विकास में है फूलना
धरती के मधुर ताप में है अवश्या का घटित होना
कविताओं का होना कहाँ है ?
कहीं वहीं तो नहीं !
जहाँ से फूल का खिलना और अवश्या का श्वेत-मुक्ता होना नहीं दिखता ?
आषाढ़
बहुत दिन नहीं बीता पिछले आषाढ़ को
और आषाढ़ फिर से आ गया
जैसे फूलों को गये बहुत दिन नहीं होते हैं
और वे मुँह काढ़े फिर आ जाते हैं
कई बार बिरवे गायब होते हैं
और फूल आकर लौट जाते हैं
वह तालाब जहाँ छप-छैया मारते थे बाल-गोपाल
उसकी सँकरी गली में लटके बेला-फूल
अबकी नहीं आये होंगे
वे उदास फूल मेरे सपने में आये किंतु,
मैं चित्रकार न हुआ
उन्होंने भी मुझे बरज दिया कि,
कोई स्केच उदासी का मैं कभी न खींचू
क्योंकि यह आषाढ़ है
किसान,
प्रेमी,
लताएँ,
सब संभावना से हैं
मुझे आश्चर्य हुआ कि,
उनकी परिभाषा का आषाढ़
फिर तो आया ही नहीं !
महीने आ जाते हैं , मौसम नहीं आता.
गोदना
गोदना गोदाये हैं अम्मा
धूमिल सा
बिल्कुल उनके दिट्ठि जैसा
पढ़ी लिखी नही हैं अम्मा
एक भी किताब
करिया अच्छर भँइस बराबर
देखती हैं
हाथ फेरती हैं
लेकिन बिगड़ जाती हैँ
कि वे नहीं पढ़ेंगीं गोदना
उसमें लिखा है बाबू का नाम
स्मृतियों की दुनिया में खो जाती हैँ
बरबस ही निहारते हुए गोदना
कि घंटो खून बहा था
और वे बिलखी थीं
कई-कई पाँत आँसू
बाबू का गुस्साया चेहरा
कि ठीक से गोड़ भी न मीज पाईं थीं
कई दिनों तक.
धनतेरस, अम्मा और सिल्वर
और एक नया बरतन आयेगा
अम्मा जिसे सिल्वर कहतीं हैं
और मैं अलमुनियम
मेरे लिए सिल्वर चांदी है
अम्मा के लिए चांदी ही चांदी है
उनके लिए हर सुखद चीज चांदी है
उनकी कहावतों में चांदी है
उनके सोने की नथ का तरल्ला भी चांदी है.
उनकी साँसे चाँदी हैं
उनके साबूत दांत चांदी हैं
चांदी हैं उनके धूप में नहीं पके,सुफ़ेद बाल
वे कहती हैं कि बछिया के माथे पर चांदी है
मोर की चुर्की में भी चांदी है
चांदी का एक पनडब्बा भी था उनका
जिसे तुड़वाकर बड़की पतोहू की करधन बनी
तो
एक नया बरतन आयेगा
अम्मा उसे टुनकारेंगी
उसके मुंह में हाथ डालकर नचायेंगी
फिर कहेंगी कि
सिल्वर हल्का होता है
हाथ टूट जाता था पीतल के बड़के भदीले
हुमासकर इधर से उधर करने में
पका भात उतारने में
उनका ये कहना उनके बातों से ज्यादा उनकी आँखों में है
वे फिर कहेंगी
सिल्वर छूटता है, बिमारी का घर है
मुला, पीतल खरीदना अब किसके बस का है
वे रंगोलिया से कहेंगी
ले आ एक चुटकी चीनी और
पहिलो-पहिल इसमें डाल दे
आज बरस बरस का दिन है
भात चढ़ा दे.
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अखिलेश सिंह
१५ नवम्बर १९९०
पड़री, फैजाबाद, उ.प्र.
१५ नवम्बर १९९०
पड़री, फैजाबाद, उ.प्र.
इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक.
छात्र आंदोलनों से जुड़ाव.
कुछ आलेख कुछ अनुवाद प्रकाशित
छात्र आंदोलनों से जुड़ाव.
कुछ आलेख कुछ अनुवाद प्रकाशित
akhianarchist22@gmail.com
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