रचनाकारों के लिए हंस सहित्य का देश था. हंस से उन्हें साहित्य की नागरिकता मिलती थी. जो स्थिति कभी आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी के समय सरस्वती की थी, राजेन्द्र जी ने हंस को भी उस स्थिति में ला खड़ा किया था. सुदूर कस्बों में साहित्य के नाम पर हंस ही मिल सकता था. इसके साथ ही वह बौद्धिक खुराक से भरपूर होता था और हिंदी पट्टी के मानसिक पिछड़ेपन पर उसके चोटों के स्थायी निशान आज भी आपको मिलेंगे.
विमर्शकार सुशील कृष्ण गोरे ने यह बात ठीक कही है कि राजेन्द्र जी केवल स्त्री /दलित चेतना के ही पैरोकार नहीं थे अपितु ‘वे उग्र हिंदुत्व और संविधान तथा लोकतंत्रविरोधी शक्तियों से भी बराबर लोहा लेते रहे. वे रुढ़ियों और हर प्रकार की कट्टरता एवं कठमुल्लेपन के विरोधी रहे’. उन्हें याद करते हुए समालोचन की यह तीसरी कड़ी.
स्वप्न, संघर्ष एवं मुक्ति का ध्वजवाहक थे – राजेन्द्र यादव
सुशील कृष्ण गोरे
राजेन्द्र यादव केवल एक हिंदी लेखक का नाम नहीं है. वह अपने समय का एक उद्वेगात्मक स्वर था. वह जीवन की एक मानवीय गाथा था. उनका जीवन अपने आपमें एक प्रकाश स्तंभ है – जो बार-बार हमें इस बात के लिए झकझोरता रहेगा कि हम साहित्य को मनुष्यता के पक्ष में सबसे विश्वसनीय और सबसे मजबूत हस्तक्षेप बनाने में कितनी कारगर भूमिका निभाते हैं. राजेन्द्र यादव ने अपने संपूर्ण लेखन में अपनी इसी केंद्रीय भूमिका को जिया है – अपने उसूलों और अपनी शर्तों पर. उनकी जीवन यात्रा पर एक नज़र डालें तो लगता है कि वे शुरू से अंत तक किसी अभियान पर मजबूती से डटे रहे. इसमें कहीं कोई समझौता, संधियां, साजिश़ें, कुटिल चालें, घात-प्रतिघात आपको नहीं दिखेंगे. दिखेगा तो सिर्फ़ उनका बेलागपन, अक्खड़पन, शंहशाही तेवर, सामने से ललकारने की कूवत और बेईमानी और अपमान से आहत होकर ऊपर से उसे हँसकर झेल लेने की उनकी ताकत. हिंदी साहित्य के तमाम गणमान्यों के इतने विरोध और हमलों के बावजूद अपनी सच्चाई को उनकी टुच्चई से बचा लेने के खेल में माहिर राजेन्द्र यादव उन सभी मानसिक विकलांगों को भी बरबस याद आते रहेंगे.
राजेन्द्र यादव में कुछ विलक्षणताएं ऐसी थीं जो जीवन-भर उनके दुश्मनों की प्रतिभा को निष्प्रभ और उनके आत्मलिप्सु पाखंड को खंड-खंड करती रहीं. वे असहमतियों और असहजताओं के लोकतांत्रिक मूल्यों के एक ईमानदार बुद्धिजीवी थे. वरिष्ठ कवि अशोक वाजपेयी ने ठीक ही कहा है कि राजेन्द्र यादव वास्तव में जिंदी के एक पब्लिक इंटेलेक्चुअल थे. दरअसल, राजेन्द्र जी हिंदी के रचना संसार में अपनी इसी शानदार पारी के लिए अनंत काल तक याद किए जाते रहेंगे. बहुत ही शातिराना ढंग से हिंदी के गुटबाज यह हवा फैलाते रहे कि राजेन्द्र यादव लेखन में चूक गए हैं. अब उनके पास स्त्री, दलित एवं हाशिए के विमर्श के अलावा कुछ बचा नहीं है. उनके विरोधियों ने बहुत नीचे गिरकर उन पर अनाप-शनाप आरोप लगाए. उन्हें बदनाम किया. ‘हंस’ के संपादक के रूप में वे स्त्री विमर्श के बहाने देह-विमर्श चला रहे हैं. हालांकि, स्त्री-विमर्श के अलावा वे उग्र हिंदुत्व और संविधान तथा लोकतंत्रविरोधी शक्तियों से भी बराबर लोहा लेते रहे. वे रुढ़ियों और हर प्रकार की कट्टरता एवं कठमुल्लेपन के विरोधी रहे. वे मानसिक उपनिवेशवाद के खिलाफ़ रहे और जीवन के मुक्त एवं अकुंठ विस्तार के आड़े आने वाली हर दुश्वारी के विरुद्ध युद्धरत रहे.
वे प्रेमचंद की विरासत के सच्चे वाहक थे. साहित्य को समाज के आगे चलने वाली मशाल बनाने में उनकी भागीदारी कभी भी भुलायी नहीं जा सकेगी. चूंकि वे हिंदी में नई कहानी आंदोलन के सूत्रधारों में थे इसलिए उनकी चेतना आधुनिक संस्कारों में रँगी थी. आधुनिक संस्कार का आशय संस्कार चैनल वाला संस्कार नहीं बल्कि आधुनिक विचारों एवं रेशनलिज्म से है सामूहिकता के एकाश्मी तंत्र को तोड़कर व्यक्ति की अस्मिता को स्थापित कर रहा था. उसके स्वत्व को प्रगाढ़ बना रहा था. उसमें मुक्ति की कामना से पहले का विद्रोही तेवर भर रहा था. जितनी भी रुके हुए रास्ते थे उन्हें खोल रहा था. कंठ में दबी सदियों-सदियों की आवाजों को मुखरित कर रहा था. ज़ाहिर है व्यवस्था की सिकुड़नें अपनी सिधाई में तनने लगी थीं. यह उद्वेलन, उत्तेजना और संभावना का समय था. राजेन्द्र जी विश्व साहित्य के गहरे पाठक थे. पश्चिमी आधुनिकता की अनुलिपि उनकी संवेदना के साथ अनुस्यूत होती गई. उनके कथा-साहित्य में स्त्री-पुरुष संबंधों की बारीक पड़ताल का नज़रिया इसी आधुनिकता की देन थी. निश्चित रूप से यह पहली बार नहीं था कि हिंदी में या अन्य भारतीय भाषाओं में स्त्री-पुरुष संबंधों को सृजनात्मक कथा साहित्य का केंद्र बिंदु बनाया जा रहा था. राजेन्द्र यादव से पहले स्वयं प्रेमचंद, शरतचंद्र, अज्ञेय, जैनेंद्र कुमार आदि ने इस विषय पर लिख चुके थे. खुद उनके समकालीन निर्मल वर्मा, मोहन राकेश, कमलेश्वर आदि लिख ही रहे थे.
राजेन्द्र जी ने कथा, उपन्यास, निबंध, संस्मरण, समीक्षा, अनुवाद आदि कई विधाओं में बहुत लिखा है. कोई ये नहीं कह सकता कि वे ‘हंस’ के संपादन के नाम पर मठाधीशी कर रहे थे. उन्होंने अनगिनत नए लेखकों को उभारा और उन्हें हंस में प्रकाशित किया. हिंदी के एक वरिष्ठ लेखक ने एक साक्षात्कार में कहा था कि साहित्य में बहसबाजी और विमर्शबाजी नहीं चलेगी. विमर्श एक शार्ट-कट है. यह वैसे ही हुआ कि बिना महसूस किए कहानी लिख दो. लेकिन यह संभव नहीं है. उन्होंने ही अमृतलाल नागर के हवाले से बताया था कि यह ‘निकम्मी इंटलेक्चुअलता’ है.
इस पर अपने-अपने तर्क एवं सफाइयां हो सकती हैं, लेकिन इतना तो निश्चित है कि समाज और सभ्यता की सबसे बड़ी कसौटी मानवीय गरिमा की आकांक्षा है. मानवीय सरोकारों को प्रतिष्ठित करने वाले किसी भी लेखन को बिना महसूस किए लिखना संभव नहीं है. कहानी या कविता की भाषा और उसके रूप एवं शिल्प-विधान समझने के लिए सुजान होना जरूरी हो जाता है, लेकिन नारेबाजी या बहसबाजी कहकर उसे साहित्य में उपेक्षणीय मानने की साजिश सिर्फ़ इसलिए चलाई जा रही है क्योंकि वह जनकेंद्रित है, परिवर्तनमूलक है. वह साहित्य को स्वप्न, संघर्ष एवं मुक्ति का ध्वजवाहक बनाने में समर्थ है. हाशिए के इसी मुक्तिकामी स्वप्न को संघर्ष में बदलने की लड़ाई के अपराजेय योद्धा थे – राजेन्द्र यादव.
उनकी स्मृति को मेरा सादर नमन…
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सुशील कृष्ण गोरे
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