गांधी-दर्शन का गतिशील आख्यान आनंद पाण्डेय
गांधी उन दुर्लभ विश्व नेताओं में हैं जिन पर अभी-भी बड़े पैमाने पर विचार-पुनर्विचार किया जा रहा है. इतिहास के विषय के रूप में नहीं बल्कि जीवंत प्रासंगिकता के रूप में. अपनी नियति से साक्षात्कार के क्रम में. बेहतर और न्यायपूर्ण विश्व के निर्माण के स्वप्न के रूप में वे अभी-भी हमारी दृष्टि में हैं, ओझल नहीं हुए हैं. विश्वभर में न जाने कितने आन्दोलन, नीति और सुधार कार्यक्रम गाँधी से प्रभावित होकर चलाये जा रहे हैं. इसी तरह न जाने कितने दार्शनिक, बुद्धिजीवी और शोधकर्ता गाँधी के जीवन और दर्शन को समझने और उसका मूल्य आँकने के साथ-साथ उससे हमारी मौजूदा दुनिया की समस्याओं को समझने और सुलझाने के लिए सूत्र भी ढूँढ रहे हैं.
यह तब है जब दुनिया संरचना के स्तर पर लगातार तेजी से गाँधी से दूर जा रही है. कदाचित इसी कारण गाँधी में यह रूचि लगातार बनी हुई है. जितनी दूरी उतनी ही उत्कट स्मृति और आवश्यकता-बोध. उतनी ही गाँधी से सीखने और उनके मार्ग के अनुसरण की तड़प.
यह विडंबना ही है कि भारत के बाहर जितना ही यह आवश्यकता-बोध और तड़प सघन है उतना ही भारत के भीतर गाँधी-विरोधी वातावरण का सृजन किया जा रहा है. विरोधियों के अलावा जो गाँधी से लगाव रखते हैं वे उनसे सीखने और उनके मार्ग का अनुसरण करने से ज्यादा उन्हें प्रतीक में रूपांतरित और पर्यवसित करने में रूचि दिखा रहे हैं. कुलमिलाकर वे गाँधी को नहीं उनके प्रतीकों को ज्यादा महत्त्वपूर्ण और प्रासंगिक मानकर चलते दिखायी दे रहे हैं. इस काम में गांधी-प्रेमियों और गाँधी-शत्रुओं में एक दूसरे से होड़ लगी है. ऐसे लोग लगातार कम होते जा रहे हैं जो गांधीवाद को गाँधी-दृष्टि से देखने पर बल देते हैं.
राजीव रंजन गिरि द्वारा सम्पादित और अनन्य प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक ‘गांधीवाद रहे न रहे’ पुस्तक ऐसे ही गांधीवादियों और गांधीविदों के लेखों का संकलन है. इसमें सच्चिदानंद का लेख ‘गांधीजी को कैसे समझें’, धीरेन्द्र मजूमदार का ‘संघ नहीं संग’, कुमार प्रशांत का ‘धर्म की देहरी और समय देवता’, अभय प्रताप का ‘शोध की दिशाएँ’, त्रिदीप सुहृद का ‘गोधूली वेला में परंपरा और आधुनिकता’, प्रमोद कुमार का ‘प्रजा राजनीति का आदिग्रंथ’, कृष्ण नाथ का ‘अहिंसक प्रतिकार के प्रयोग : गांधी के बाद’, लक्ष्मीदास का ‘खादी की चुनौतियाँ और संभावनाएं’ और राजीव रंजन गिरि का लेख ‘गांधी की मनोभूमि’ संकलित हैं. पुस्तक के अंत में गांधी के कुछ भाषणों को ‘गांधीवाद रहे न रहे’ नाम से संक्षिप्त और सम्पादित करके एक लेख की शक्ल में रखा गया है.
लेखकों की सूची देखकर स्पष्ट होता है कि ये सभी लेखक ‘गांधीवादी’ हैं. कोई गांधी द्वारा चलायी गयी संस्था से जुड़ा हुआ है तो कोई गांधी के नाम पर बनी संस्था से. कोई गांधीवादी विचारक है तो कोई गांधीवादी कार्यकर्त्ता. इन सब की पहचान भी इसी रूप में है. कहने का अर्थ है कि सब-के-सब गाँधी-मार्गी और उनके अनुयायी हैं. जाहिर है, ये सभी अपनी-अपनी तरह से गाँधी के वाद और सिद्धांतों की व्याख्या और विश्लेषण करते हैं. एक गहरी निष्ठा, लगाव और सहानुभूति के साथ. लेकिन, यह पुस्तक घोषित रूप से किसी ‘गांधीवाद’ के अस्तित्त्व को अस्वीकार करती हुई और यदि कोई ऐसा ‘वाद’ है तो उसके ध्वंश का उत्सव मनाती पुस्तक है. स्वयं गाँधी-‘वादियों’ और अनुरागियों की तरफ से इस तरह के उपक्रम होते देख आश्चर्य होता है कि अपने नेता और मार्गदर्शक के प्रति ऐसी निर्ममता और तटस्थता! जो न केवल उसके ‘वाद’ को ख़ारिज करती हो बल्कि उसके ‘ध्वंश’ का उत्सव मनाती हो, उसकी अभिलाषा और उपक्रम को आगे बढ़ाती हो!
असल में, ‘गांधीवाद’ के प्रति यह निर्ममता और तटस्थता तथा ‘ध्वंश-कामना’ गांधी और उनके दर्शन तथा सिद्धांतों की गहरी और प्रामाणिक समझ के साथ-साथ उनके प्रति उत्कट-प्रेम और उनके दर्शन और सिद्धांतों की निरंतरता की चिंता से उत्पन्न हुई है. यह गांधी और उनके दर्शन की दीर्घजीवी, जीवंत और प्रवाहमान बनाये रखने के लिए ‘गांधीवाद’ की शल्य-चिकित्सा करती पुस्तक है. पुस्तक में हर उस वैचारिक और दार्शनिक उपक्रम की आलोचना और प्रतिकार है जो गाँधी के विचारों और सिद्धांतों को ‘वाद’-बद्ध करते हैं. क्योंकि, वादबद्धता से पंथ और मठ-निर्माण होता है जो विचार के प्रति आलोचनात्मक विवेक के स्थान पर निष्ठा और भक्ति की अपेक्षा करता है. फलत: दर्शन और विचार अनुकरण और बौद्धिक उपक्रम के स्थान पर अंधभक्ति और आस्था का विषय हो जाता है.
दुनिया भर के कई विचारक और दार्शनिक इसलिए प्रभावहीन और मृत हो गए क्योंकि उनके अनुयायियों ने उसे वादबद्ध करके उसे आस्था-तंत्र में बदल दिया. स्वयं अपने देश में कबीर जैसे असंख्य क्रांतिकारी विचारकों और पंथ विरोधी कवियों के नाम पर पंथ बनाकर उनके अनुयायियों ने उनकी क्रांतिकारिता और प्रासंगिकता को नष्ट कर दिया. धर्म-पंथ और मंदिर-मस्जिद विरोधी कबीर के नाम पर धर्म बना और मंदिर भी. कोई भी कालद्रष्टा दार्शनिक और विचारक अपने विचारों और सिद्धांतों के ऐसे हश्र के प्रति सचेत और चिंतित रहता है. गांधी विशेष रूप से चिंतित रहते थे. यह किताब गाँधी की इसी चिंता से प्रेरित है. ‘गांधी वाद रहे न रहे’- शीर्षक ही किताब के इस चरित्र और प्रतिपाद्य को रेखांकित करता है.
इस दृष्टि महात्मा गाँधी का उक्त भाषण और सम्पादक लिखित भूमिका विशेष रूप से ध्यान देने की माँग करती हैं. कहना न होगा कि भूमिका असल में गाँधी के भाषण का भाष्य और व्याख्या है. जो यह दिखाती है कि गाँधी के ‘वाद’ के रहने या न रहने पर कोई अंतर नहीं आता है. अंतर आता है, उनके सिद्धांतों और विचारों के रहने या न रहने पर. और, गांधीवाद न गाँधी को पसंद था न उनके सच्चे अनुयायी के रूप में इस किताब को ही. इस किताब का महत्त्व यह है कि यह गाँधी की चिंता और भावना का न केवल प्रतिफल है बल्कि समकालीन चिंतन की दुनिया में उसके महत्त्व और जरुरत को रेखांकित भी करती है.
इस बात को तर्कसंगत ढंग से समझने के लिए गाँधी के उक्त भाषण और इस किताब की सम्पादकीय को विस्तार से देखने की आवश्यकता है. गांधी के जीवन में ही उनके विचारों और सिद्धांतों को ‘गांधीवाद’ के नाम से जाना जाने लगा था. समर्थकों और विरोधियों दोनों के बीच. लेकिन, गाँधी हमेशा अपने को ‘वादी’ कहलाने से बचते थे. वे कहते हैं,
“अगर सच पूछा जाय तो खुद मैं ही नहीं जानता कि गांधीवाद का क्या अर्थ है. …आपको ‘गांधीवाद’ नाम को ही छोड़ देना चाहिए; नहीं तो अंध-कूप में जाकर गिरेंगे…. ‘गांधीवाद का ध्वंश हो’ की आवाज मुझे प्यारी लगती है. … वाद निकम्मी चीज है….आप सांप्रदायिक न बने….मेरे मरने के बाद मेरे नाम पर अगर कोई संप्रदाय निकला तो मेरी आत्मा रुदन करेगी.”
पृष्ठ १२३-१२४.
इन वाक्यों में गांधी की ‘गांधीवाद’ के बारे में चेतावनियों और चिंताओं को समझ सकते हैं. राजीव रंजन गिरि ने अपनी भूमिका में इनकी विस्तार से व्याख्या की है और उसे ठीक सन्दर्भ में रखा भी है.
गांधी कुछ मूलभूत सिद्धांतों और मूल्यों के साथ न केवल भारत की स्वतंत्रता के लिए काम कर रहे थे बल्कि कई रुढियों और जकड़नों को मिटा रहे थे. ये सिद्धांत वाद-प्रतिपादन नहीं बल्कि आचरण और व्यवहार को नियमित करने के काम के लिए थे. कोई भी राजनेता समय और परिस्थतियों के अनुसार अपने विचारों और नीतियों में रद्दोबदल करता है. जरुरत और परिस्थिति उसके लिए महत्त्वपूर्ण है, न कि वाद-निरूपण. गांधी के इस पक्ष को सामने रखते हुए गिरि लिखते हैं, ‘गांधी बदलती परिस्थितियों के हिसाब से विचार बदलने में हिचकते नहीं थे.’ स्वयं गांधी कहते थे, ‘मुझे हमेशा एक ही रूप में दिखाई देने की कोई परवाह नहीं है.’जाहिर है, जो गांधी जीवन पर्यंत सीखते और बदलते रहे, उसे वाद में बांधना उसका गला घोंटना है.
कहने की आवश्यकता नहीं, गांधी की चिंताओं और चेतावनियों के बावजूद उनका ‘वाद’ भी बनाया गया और उनके नाम पर संप्रदाय भी बना. गढ़ और मठ भी बने. जिनसे गांधी-दर्शन की कलकल करती पयस्विनी अवरुद्ध हुई. इनसे गांधी के दर्शन का विकास नहीं हुआ, प्रचार भले चाहे जितना हुआ हो. यह किताब गांधी को संप्रदाय और वाद के बंधन से मुक्त कर देश और काल की आवश्यकतानुसार उनके दर्शन और सिद्धांतों के आचरण और विकास करने पर बल देने के लिए समर्पित है. यही इसकी सबसे बड़ी प्रशंसा है. यही इसकी सबसे बड़ी विशेषता है.
लेकिन, इस किताब का यही एक आयाम नहीं है. इसमें गांधी-दर्शन के कुछ और आयाम भी हैं, जिन्हें ये लेख अपने-अपने ढब से समझने-समझाने के प्रयत्न करते हैं. पुस्तक का पहला लेख ‘गांधीजी को कैसे समझें’ मोतिहारी में राजकुमार शुक्ल, जिनके आग्रह पर गांधी चंपारण गए और वहाँ किसानों के पक्ष में अंग्रेज सरकार की नीतियों के विरोध में सत्याग्रह शुरू किया, की स्मृति में आयोजित कार्यक्रम में वरिष्ठ समाजवादी चिन्तक सच्चिदानंद सिन्हा के भाषण की पुनर्प्रस्तुति है. अपने शीर्षक के अनुसार यह गांधी को समझने के सूत्र देने के स्थान पर मार्क्स और गांधी का संक्षेप में, लेकिन अंतर्दृष्टिपूर्ण तुलनात्मक अध्ययन करता है और प्रकारांतर से देशकाल के हिसाब से गांधी के महत्त्व को रेखांकित करता है.
दूसरा लेख धीरेन्द्र मजूमदार का है जो गांधी पर न होकर उनके बाद के गांधी ‘वादी’ आंदोलनों की दशा और दिशा को समझना चाहता है. चूँकि मजूमदार स्वयं इन आंदोलनों में शामिल रहे हैं इसलिए उनकी बातों में न केवल प्रामाणिकता है बल्कि इन आंदोलनों की प्राथमिकताओं, चिंताओं रणनीतियों और असफलताओं का वेदनापूर्ण लेखा-जोखा भी है. लेख के शीर्षक ‘संघ नहीं संग’ से ही स्पष्ट होता है कि वे संघ या संगठन बनाकर काम करने में सफलता की सम्भावना कम देखते हैं इसलिए उनका जोर है, \’“बनी-बनाई संस्था द्वारा क्रान्ति नहीं हो सकती है” इसके लिए जिन्हें क्रान्ति करनी है, उनका संग-साथ चाहिए. इस लेख में विनोबा भावे के भूदान आन्दोलन की प्रक्रिया और उद्देश्य पर भी बहुत अंतर्दृष्टिपूर्ण सामग्री है. इसमें उन्होंने हिंसक क्रान्ति और अहिंसक क्रान्ति का तुलनात्मक अध्ययन करके यह सिद्ध किया है कि अहिंसक क्रान्ति ज्यादा दीर्घजीवी होती है.
‘धर्म की देहरी और समय देवता’ में कुमार प्रशांत ने गांधी के धर्म सम्बन्धी विचारों और धर्म सुधार आंदोलनों पर विचार किया है. गांधी ने संगठित धर्मों, विशेषकर हिन्दू धर्म की परम्पराओं और कुरीतियों की कटु आलोचना की है. इस लेख में गांधी की धर्म-मीमांसा की व्यवस्थित आलोचना और व्याख्या की गई है. अभय प्रताप के लेख ‘शोध की दिशाएं’ में गांधी की शोध-दृष्टि और अनुसन्धान-दृष्टि का अध्ययन और विवेचन किया गया है. गांधी शोध और अनुसन्धान को महत्त्व देते थे. समय-समय भारत को ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में प्रतिष्ठित करने के लिए शोध का आह्वान करते थे. इसके लिए वे कुछ विषय और तरीके भी सुझाते थे. इस लेख से हमें गांधी के इस अल्पज्ञात पक्ष का भरपूर परिचय मिलता है.
‘हिन्द स्वराज’ गांधी के दर्शन को प्रस्तुत करने वाली केन्द्रीय पुस्तक है. त्रिदीप सुहृद और प्रमोद कुमार के लेखों में ‘हिन्द स्वराज’ का अध्ययन प्रस्तुत किया गया है. मजूमदार की तरह कृष्ण नाथ का लेख गांधी के बाद के समय पर केन्द्रित है. इसमें गांधी के बाद के समय में हुए विश्वभर के अहिंसक आंदोलनों के विवरण तो हैं ही गांधी के मूलभूत सिद्धांतों का परिचय और अर्थ भी दिया गया है. इसके लिए गांधी साहित्य से चुन-चुन कर उद्धरण पेश किये गए हैं. लक्ष्मीदास ने अपने लेख में खादी की चुनौतियाँ और संभावनाओं पर विचार किया है. यह लेख गांधी के अर्थशास्त्र और श्रमशास्त्र का बदलती परिस्थितियों में मूल्याङ्कन तो करता ही है, उसके महत्त्व का प्रतिपादन भी करता है. इस लेख में खादी ग्रामोद्योग आन्दोलन पर भी आलोचनात्मक टिप्पणियाँ की गई हैं. यह लेख भी राजकुमार शुक्ल स्मृति समारोह, मोतिहारी में २०१३ के भाषण की पुनर्प्रस्तुति है. आखिरी लेख राजीव रंजन गिरि का है. इसमें वे गांधी की ‘मनोभूमि’ को खोलते हैं. उन घटनाओं और परिस्थितियों का उल्लेख करते हैं जिनसे गांधी की मानसिकता निर्मित हुई. इसमें भारतीय मानस और गांधी के मानस के जटिल और तनावपूर्ण संबंधों का विश्लेषण किया गया है.
कुलमिलाकर यह किताब हिंदी के पाठकों को गांधी और गांधी-दर्शन पर हमें बिना किसी पूर्वाग्रह और आशंका के एक स्वस्थ और पारदर्शी पाठ के लिए आमंत्रित करती है. गांधी और उनके दर्शन को जड़ बनाने और उसे जड़ दृष्टि से देखने; दोनों का प्रतिकार करती है.
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आनंद पांडेय
राष्ट्रीय रक्षा अकादमी,खड़कवासला, पुणे
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