‘खिलाड़ी दोस्त तथा अन्य कविताएँ’ के बारह साल बाद हरे प्रकाश उपाध्याय का यह दूसरा कविता-संग्रह- ‘नया रास्ता’ रश्मि प्रकाशन से छप कर आया है.
नया रास्ता
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कविता की एक स्वतंत्र सत्ता होती है. जगत की स्वाधीन शक्तियाँ कवि की अनुभूतियों से जुड़कर प्रतिक्रिया स्वरूप कविता के रूप में प्रकट होती हैं. कविता कवि को ढूँढती है. कवि कविता को नहीं खोज सकता. खोजी गयी कविताएँ अपनी कृत्रिमता और ओढ़े गए कथ्य और शिल्प के कारण दूर से ही पहचानी जा सकती है. ऐसी कविताओं में एक नीरस दोहराव लक्षित होता हैं. हरे प्रकाश उपाध्याय अपनी पीढ़ी के उन कवियों में हैं जो कविता के लिए जीवन को उसकी पूरी अनिश्चितता और ऊँच-नीच में जीना जानते हैं. उनकी काव्यानुभूतियाँ जीवन के खुरदुरे पन का कोई सौंदर्योपचार यानी कासम्मेटिक ट्रीटमेण्ट नहीं करती हैं वरन जीवन को उसके वास्तविक रूप में महसूस करने के लिए अपनी समस्त ज्ञानेंद्रियों को उन्मुक्त और खुला छोड़ देने की पक्षधर हैं. ऐसे में यह लाज़िम है की उनकी कविताओं में जीवन का स्याह और श्वेत पक्ष अपने वास्तविक रूप में मौजूद है. ऐसा जब कभी होता है तो कविता की चिरंतन यात्रा का यह एक महत्वपूर्ण पड़ाव सिद्ध होता है. हरे प्रकाश की कविताएँ इसी कोटि में आती हैं जो अपने समय, समाज और आम आदमी के साधारण से साधारण संघर्ष को देखती और दर्ज करती हैं. ऐसा करते हुए वह किसी नैतिक-अनैतिक की बहस में नहीं उलझते हैं. अपने समय को संग्रह की पहली कविता में ही पूरी ताक़त और शिद्दत से दर्ज करते हुए कहते हैं–
अब यह देश
एक ऐसा अंधा कुवाँ है
जिसमें जब भी झांकिये
किसी किसान की लाश तैरती हुई दिखती है.
आप देखेंगे कि देश जितनी पुरानी बहस में कविता का इस प्रकार का हस्तक्षेप बहरे कानों तक अपनी आवाज़ पहुँचा सकता है और हमारे किए कराए की सच्चाई को उजागर करते हुए एक तरह से राजनीतिक और सामाजिक क्रियात्मकता का कारण बन सकता है.
ऐसे ही नहीं विश्व के लगभग समस्त आंदोलनों और क्रांतियों की नैतिक अगवाई उस समय की कविता करती रही है. हरे प्रकाश की कविताओं में जीवन की उदासी, बेगानेपन और विस्मृति का हर रंग मौजूद हैं चाहे वह अपना सबकुछ लुटाकर बेहतर भविष्य की तलाश में देश-देश भटकता मज़दूर हो या अपने वाजिब हक़ के लिए दुत्कारा और ठगा जाता आम आदमी–
अब वह जाए तो कहाँ जाये
अब वह लौटे तो किसके पास लौटे
अब वह उस देश में कैसे लौटे
जहाँ बिक गयी उसकी ज़मीन
बिक गया आसमान
कहने को मगर
है उसका भी एक देश
जहाँ कुछ भी नहीं है उसका
अथवा
लोग सरकारी दफ़्तरों में भकुआए हुए घूमते रहते हैं
इस मेज़ से उस मेज़ पर दुरदुराये जाते हुए.
किसी भी सरकारी दफ़्तर में आम आदमी की दयनीय अवस्था का यह चित्रण समवेदना को झिंझोड़ कर रख देता है. वह यहीं नहीं रुकते, आगे बढ़ते हैं और पूछते हैं–
क्या वह दिन कभी आएगा
जब हरचरना भी पेट भर खाएगा.
कहने को मनुष्य विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अंतरिक्ष पर राज कर रहा हैं परन्तु धरती पर अभी भी गरीब-मजदूर के पेट भरने का सवाल जस का तस मुंह बाये खड़ा है. एक भूखा आदमी हमारी सारी प्रगतिशीलता के दावों को एक सेकेण्ड में हवा में उड़ा देता है. भूख का यह आदिम प्रश्न कवि के लिए सबसे ज़रूरी और प्राथमिक प्रश्न है और जो व्यवस्था इस पेट भरने के प्रश्न की अनदेखी करें उसको लक्ष्य कर हरे प्रकाश कहते हैं–
झूठ-मूठ का देश
झूठ – मूठ की संसद
* * * * *
सचमुच के डण्डे
सचमुच की फ़ज़ीहत.
हरे प्रकाश की भाषा अपने कथ्य के अनुरूप सहज, सरल और सार्थकता लिये हुए है. उसमें भावुकता का अतिरेक नहीं है. उन्हें पता है क्या और कितना कहना है. कविता की लय और उसके आंतरिक प्रवाह पर उनकी पकड़ कहीं भी ढीली नहीं दिखती. वह कहते हैं-
भूख को नहीं मिला समाधान
दीन-हीन जन और पीटा गया
बहस में जबकि उसे बार- बार घसीटा गया
बहस चलती रही
बहस करने वालों की तक़दीर बदलती रही
भौंचक्क देखता रहा
भूखा आदमी.
जैसे रोज़मर्रा की टीवी पर चलने वाली बहसें हमारी आँखों के सामने सजीव हों उठती हैं. और भूखे आदमी के लिए उन चीखती-चिल्लाती बहसो की निरर्थकता का अहसास दर्द की एक तीक्ष्ण लकीर ज़ेहन में खींच देता है. नया रास्ता की कविताएँ बार-बार आम जन के दर्द और दैनंदिन संघर्ष की और लौटती हैं और जनसाधारण के लिए जन-गण-तंत्र की सार्थकता को लेकर चिंतित हो उठती हैं–
सात दशक से देश आज़ाद है
सोचो सात दशक से देश आज़ाद है
और –
किससे पूँछें
किससे करें शिकायत
पंचों बोलो कहाँ करें पंचायत
ठगा हुआ देश ठिठका हुआ देश
किधर जाये
किधर से लौट आए.
यानी कि आम आदमी की ज़रूरतों और उनको पूरा करने में तंत्र की असफलता जिस तरह का भ्रम और विचारहीनता उत्पन्न कर सकती है, उसको दर्ज करना चाहता है कवि, और हम देख सकते हैं वह अपनी बात कहने में सफल हुआ है. अपने समय की पीड़ा और विसंगतियों को जो कविता अनदेखा करती हैं वह एक न्यूरोटिक आत्मालाप के अतिरिक्त कुछ नहीं कही जा सकती. अपनी भावनाओं के उतार-चढ़ाव तक सिमटा कवि समाज और समाजोपयोगी साहित्य से अलग-विलग हो जाता है. इस दृष्टि से नया रास्ता की कविताएँ एक सार्थक उद्घोष जान पड़ती है। कवि क़ो दबा-कुचला, भूखा-नंगा, तंत्र की मार से लहूलुहान आदमी देश का सरल भावार्थ जान पड़ता है. और उसपर हमारी पलायन वादी प्रवृत्ति के तो क्या कहने –
बौद्धिकता की चादर भर
रही हमारी दुनियाँ
उसी में छुपकर देखे हमने बड़े- बड़े सपने
सिर्फ़ सपने सपने सपने
और सपने सपने सपने
सपने में सोए सपने जागे
हम सपनों से बढ़े नहीं आगे.
कवि कोई राजा, राजनेता, अभिनेता नहीं होते. वे कहीं से भी घूम कर अपने स्व में लौटते हैं खुद के उपजाए सवालों के उत्तर ढूँढने. कवि और कविता का एक सिरा अवश्यमेव अंतरतम से जुड़ा रहता है और दूसरे सिरे को पकड़कर कवि और कविता दुनिया – जहान की सैर करते हैं. और जब कवि लौटता है तो उसके पास सवालों की पूरी फेहरिश्त होती है. उसके अपने घर भी दूसरे के घरों का आख्यान करते हुए लगते हैं–
जिनके घर नहीं हैं
दरअसल वे बेघर नहीं है
उनके भी घर हैं
उनके घर में भी उनके अपने-अपने डर है
उनका पता अभी दर्ज होना है मतदाता सूची में.
हर हाल में मनुष्यत्व को बनाए रखने की ज़िम्मेदारी भी कवि निभाना चाहता है. कवि यह सुनिश्चित करना चाहता है कि भविष्य के लिए किसी का वर्तमान नष्ट नहीं हो-
मैं एक कठोर निर्णय लेना चाहता हूँ
पर ऐसा नहीं हो पाता
क्या आप सोच रहे हैं कि मैं भविष्य से भयभीत हूँ
नहीं, नहीं सर आप ग़लत सोच रहे हैं
मैं इतिहास के बारे में सोच रहा हूँ
एक सही भविष्य बनाने के लिए
मैं एक ग़लत इतिहास नहीं पैदा कर सकता.
जो बात सदियों तक इतिहास के नामी-गिरामी शासक और तानाशाह नहीं समझ सके वह कवि के बाएँ हाथ का खेल है. नया रास्ता की कुछ लम्बी कविताओं में कहीं-कहीं हरे प्रकाश का खबर नवीस दिख जाता है पर तुलनात्मक रूप से वहाँ भी उनका कवि ज़्यादा मुखर है, कविता हावी रहती हैं और यही बात इस कृति को अनूठा भी बनाती है, क्योंकि खबरों से कविता निकालना बहुत मुश्किल और जोखिम भरा काम है. हरे प्रकाश यहाँ भी सफल दिखते हैं.
पुनः नया रास्ता की कुछ कविताएँ बहुत तरलता लिए हैं. उदाहरण के लिए एक कविता दुःख की चर्चा करना समीचीन है–
कहाँ रहते हैं दुःख
क्या घर बदलते हैं दुःख
क्यों घर बदलते हैं दुःख
दुःख क्या ओढ़ते-बिछाते हैं
अक्सर ये कहाँ आते जाते हैं
क्या ट्रैफिक में कभी-कभी फँस जाते हैं दुःख.
कवि कोमल होते हैं. दर्शन ने दुःख और जीवन के अंतर-संबंधों, कारण और निवारण पर प्रभूत चर्चा की है परन्तु दुःख की अपनी क्या समस्याएँ हो सकती हैं उसकी नवोन्मेषी चिंता नया रास्ता का कवि करता हैं. कविता जगत और जीवन की स्थूल समस्याओं से अचानक ही कैसे कक्षा परिवर्तन करती है इसका सुन्दर उदाहरण दुःख कविता है. और इसकी सरलता, भोलापन और काव्य सौंदर्य मन मोह लेते हैं.
‘नया रास्ता ‘की कविताएँ आम जन के जीवन के रोज़मर्रा के संघर्षों और टूटते सपनों से उद्भूत है. यहाँ एक ओर उनकी लाचारी और बेबसी से निकले बिम्ब है तो दूसरी ओर उनके प्रेम और सपने भी हैं. सपनों में एक अलग तरह का अधूरापन है. वहाँ मनचाही चीजों के मिलने का सुख तो है ही, उनके प्राप्त न होने से अनुभूत पीड़ा की यादें भी हैं. अनुपस्थित की पीड़ा का यह स्वप्नबोध ख़ासियत है इन कविताओं की. और एक चिरंतन अधूरापन तो जैसे जीवन का हिस्सा होते हुए कविता बन जाता है, हरे प्रकाश कहते हैं-
समूची पकड़ में नहीं आती चीजें
जितना सोचता हूँ उसका
थोड़ा ही पाता हूँ
थोड़ा कह पाता हूँ
थोड़ा कहने से रह जाता हूँ.
‘नया रास्ता ‘की कविताओं को पढ़ते हुए अचानक ही आपको लग सकता है कि एक चुप्पी आपके मन- मस्तिष्क में समा गयी है. आपके आसपास कोई आवाज़ नहीं रही, झींगुर की भी नहीं. इस सन्नाटे से कवि का रोज़ का साबका है, वह उसके लिए एक परिचित बात है जैसे. हरे प्रकाश लिखते हैं-
मैं एक कलम
इस ख़ालीपन में देर तक हिलाता हूँ
भरना चाहता हूँ इसमें
दोस्तों की बातें
अजनबियों की मादक चिट्ठियाँ सम्हालकर
गिलास में भरना चाहता हूँ इनका काकटेल
जैसे साँसों की रोशनाई लबालब
और इससे रचना चाहता हूँ अपना विदा गीत.
‘नया रास्ता ‘की कविताएँ एक आम शहरी के जीवन का मर्सिया नहीं वरन जीवन को रोज़ उसकी सम्पूर्णता में जीने से उपजा संगीत हैं. ये कविताएँ पूरी ठसक से ज़िन्दगी के भीतर मौजूद रहकर, वहीं से जीवन की रंग-बेरंग तस्वीर भेजती हैं. इन कविताओं में जीवन की किसी रूमानियत का कोई आग्रह अथवा बेवजह की उम्मीद नहीं बोई गई है. इन्हें पढ़ते हुए आप अपने में ही कहीं गहरे डूब सकते हैं. बाहर निकलने का हुनर आपको आना चाहिये नहीं तो आप सीख जाएंगे. इस प्रक्रिया में आप थोड़ा ही सही पर ज़रूर बदल जाएंगे. यही इन कविताओं की सार्थकता है.
rakeshkmishr@gmail.com
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नया रास्ता (कविता-संग्रह )