हिंदी कविता के मानचित्र में अनामिका जी का अपना विशेष प्रतिष्ठित मुकाम है जिसमें उन्होनें कविता को स्त्रीत्व के सभी आयामों निजी और सामाजिक यातनाओं से जोड़ते हुए अंतर्वस्तु, भाषा और शिल्प का नया धरातल निर्मित किया है. कविता के लिये अनेक प्रमुख पुरस्कारों से सम्मानित होने के साथ कथा साहित्य, आलोचना, संस्मरण,अनुवाद और एक स्त्री-चिंतक के रूप में पब्लिक इंटलेक्चुअल के रूप में नारीवादी विमर्श के क्षेत्र में सक्रिय रहने और अंग्रेजी साहित्य के अध्यापन से लेकर अनामिका जी का कार्य फलक बहुत व्यापक है ,परंतु सबसे पहले और सबसे बाद में वे एक कवि ही हैं. उनके कविता-संग्रह- गलत पते की चिठ्ठी, बीजाक्षर, समय के शहर में , अनुष्टुप, कविता में औरत ,खुरदरी हथेलियाँ, दूब-धान, टोकरी में दिगंत जैसी प्रमुख रचनाएँ कोमल संवेदनाओं के साथ विवेकशील दृष्टि के कलात्मक संयोजन के कारण हिंदी कविता में अलग से पहचानी जाती हैं. स्त्री विमर्श के समकालीन दौर के संघर्ष का चित्रण तो अलग-अलग रूप से आज कविता में हो ही रहा है लेकिन हिंसक और क्रूर यथार्थ में अनामिका जी की कविता समाज और सृष्टि में प्रेम और करूणा को बचाए रखने की अनवरत यात्रा है. इस प्रयास में वे भारतीय समाज में पुरुष सत्ता और वर्चस्ववादी, सामंती संरचना से जूझ रही असंख्य स्त्रियों के दुख और पीड़ा का सरलीकरण कभी नहीं करती जो उनकी कविता की पहचान है. प्रख्यात आलोचक डॉ मैंनेजर पांडेय के अनुसार- ‘भारतीय समाज और जनजीवन में जो घटित हो रहा है और इस घटित होने की प्रक्रिया में जो कुछ गुम हो रहा है, अनामिका की कविता में उसकी प्रभावी पहचान और अभिव्यक्ति देखने को मिलती है.’ इसी रचनात्मक पथ पर निरंतर उनकी सृजन यात्रा में अनामिका जी का नवीनतम कविता-संग्रह ‘पानी को सब याद था’इसी वर्ष राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हो कर आना समकालीन कविता में और पाठकों के लिये एक नयी सार्थक उपलब्धि है.
अनामिका एक अस्तित्व के रूप में स्त्री होने को कभी नकाराती नहीं बल्कि गरिमा के साथ स्त्री होने को स्वीकारती हैं क्योंकि एक रचनाकार के रूप में स्त्री का व्यक्तित्व अपनी अस्मिता के होने को सभी भेद-प्रभेदों के बीच से निकलकर गुजरकर अपनी पहचान पाता है और फिर एक विशिष्ट मनोविज्ञान को रचता है जिसे समग्रता से अनुभव किए बिना न तो कोई अहसास होता है न विचार, न कल्पना न अतंर्दृष्टि. इसलिए एक कविता में अनामिका जी ने कहा था-
लोग दूर जा रहे हैं
और बढ़ रहा है
मेरे आसपास का स्पेस!
इस स्पेस का अनुवाद
विस्तार नहीं अंतरिक्ष करूंगी मैं
क्योंकि इसमें मैंने उड़नतश्तरी छोड़ रखी है.
समय का धन्यवाद
कि इस समय मुझमें सब हैं
सबमें मैं हूँ थोडी -थोड़ी
दरअसल इस पूरे घर का
किसी दूसरी भाषा में
अनुवाद चाहती हूँ मैं
पर यह भाषा मुझे मिलेगी कहाँ.
अनामिका स्त्री के जीवन को, घर को नकारती नहीं हैं बल्कि अपनी भाषा से उसे नयी पहचान देना चाहती हैं.वर्चस्व की सामाजिक व्यवस्था से दबी मुक्त होने की सहज आकांक्षा के लिए इस अनुवाद की भाषा जब वे ईजाद कर लेती हैं तो उन्हें स्त्री की वास्तविक जमीन मिल जाती है जो उसकी अपनी हो सके. स्त्री अनुभवों की यातनाओं, दंश और संघर्ष को वे अपनी कविता में पूरी सच्चाई और तीव्रता के साथ व्यक्त करती हैं.
‘पानी को सब याद था ‘संग्रह की कविताएँ स्त्री की साझी दुनिया की सगेपन की घनी बातचीत जैसी कविताएँ हैं जिनमे अद्भुत आत्मीयता और जीवंत संवाद है जो सीधे पाठकों तक संप्रेषित होता है. स्त्रियों का अपना समय इनमें मद्धम लेकिन स्थिर स्वर में अपने दु:ख-दर्द, कटु अनुभव और उम्मीदें बोलता है परंतु इनमें किसी भी तरह का काव्य चमत्कार पैदा करने का न कोई आग्रह है न इन कविताओं का उद्देश्य.अपने सहज संवेदनात्मक अभिप्राय में कवयित्री की दृष्टि उन समवेत पीड़ाओं को संबोधित करती है जो स्त्री के साथ-साथ उपेक्षित, गुमनाम, वंचित हाशिये के लोगों की उन भीतरी-बाहरी यत्रंणाओं से भी गुजरती है जो उनके जीवन में इस पार से उस पार तक फैली हैं. यह एक स्त्री रचनाकार होकर समाज के एक जिम्मेदार नागरिक के रूप में अपने परिवेश को वास्तविकता में गढ़ने का संवेदनशील सार्थक प्रयास है.स्त्री को मात्र देह विमर्श तक सीमित न करके समाज में उसकी अस्मिता को पहचानने का बोध इन कविताओं की संवेदना को तरलता, सरोकारों को गहनता, सर्जना को उर्वरता और संघर्ष को स्वप्नों का सौंदर्य प्रदान करता है. यहाँ स्त्री क्षितिज का जो विस्तार है वह उनके दायित्व और चिंताओं का व्यापक स्वरूप है औरवर्ण, जाति, धर्म, वर्ग से परे एक साझा अनुभव है, अटूट सम्बंध है जहाँ जीवन ठोस सच है और जीवन से स्पंदित है.
भारतीय स्त्रियों के जीवन संघर्ष, हास-परिहास और गीत-अनुष्ठान, रीति-रिवाज, सामूहिक क्रिया-कलापों के जरिये पीड़ा को सह पाने की उनकी परंपरागत युक्तिहीन युक्ति के व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने पर अनामिका की कविताओं के नये अर्थ खुलते हैं. जिन तक कविता को देखने-परखने के रूढ़ ढांचे को तोड़कर ही पहुँचा जा सकता है –
काम के बोझ से कमर टूटी जिनकी
उनकी भी होती कमरधनियाँ
चाहे गिल्लट की होतीं, लेकिन होतीं
झनझन-झन बजतीं वे
मिल -जुलकर मूसल चलाते हुए!
दस रुनझुनें मिलकर
पूरी अंगनैया झनका देतीं
छत्तीस तोले कीथीं जिनकी
सत्तावन की जंग में
बेगमों की करधनियाँ भी
बेमोल ही बिक गईं !
अब करधनियाँ नहीं हैं
कमर अब कसी है इरादों से
और औरतों ने आवाज़ उठा ली है
दादियों की बात मानते हुए
कि ऐसा भी धीरे क्या बोलना
आप बोलें कमरधनी सुने!
बोलें, मुहँ खोलें जरा डटकर
इतनी बड़ी तो नहीं है न दुनिया की कोई भी जेल
कि आदमी की आबादी समा जाए
और जो समा भी गई तो
वहीं जेल के भीतर झन-झन-झन
बोलेंगी हथकड़ियाँ
ऐसे जैसे बोलती थीं कमरधनियाँ
मिल-जुलकर मूसल चलाते हुए.
परंपरा और संस्कृति में अंतर्निहित बड़ी-बजुर्ग स्त्रियों, दादियों-नानियों, मां की कथाओं और उनके मुहावरों-कहावतों में छिपे काल-सिद्ध सत्य का अन्वेषण अनामिका जी हमेशा अपने मौलिक तरीके और शैली में हमेशा करती आई हैं. ये कविताएँ भी लोक और जन-श्रुतियों की अनुभव संपन्न थाती में जीवन सत्य की और आत्म सत्य की अनेक धाराओं से अपने सरोकारों के मंतव्य को सींचती और पुष्ट करती चलती हैं. स्त्री क्योंकि अनामिका जी के लिए कोई जाति विशेष नही है, बल्कि एक केंद्रीय तत्व है जो प्राणि मात्र के अस्तित्व में मौजूद रहता है. वह मनुष्य के रूप में पुरुष में भी है, पेड़ में है, पानी में भी है जो सतत गतिशील है. यह स्त्री तत्व ही जीव को जन्म देता हैजीवन भीऔर उसे सार्थक करता है. इस संग्रह की अनूठी कविताएँ कवयित्री के लिए उसी तत्व को केंद्र में लाने का अप्रतिम दायित्व है तमाम चुनौतियों और प्रतिकूलताओं के बीच-
जो बातें मुझको चुभ जाती हैं
मैं उनकी सुई बना लेती हूँ
चुभी हुई बातों की ही सुई से मैंने
टाँकें हैं फूल सभी धरती पर.
इन कविताओं में स्त्री के विविधात्मक संसार को एक नये सिरे से गढ़्ने की उम्मीद है और इसके लिए अनामिका जी के पास एक संपन्न परतदार भाषा है जिसमें जातीय स्मृतियाँ हैं, जो निजी भी है सार्वभौम भी, उस भाषा में जीवन और समाज को देखने का एक बड़ा विज़न भी है. एक स्त्री रचनाकार के रूप में उनमें जो प्रेम और उम्मीद है उसे वे अपनी कविताओं में जीवनानुभवों में व्यक्त करती हैं क्योंकि उनके अनुसार अनुभव बांटने की चीज़ ही है. दुनिया में सब कुछ भी बांटने के लिये ही होताअ है अंदर बचा कर रखने के लिये नहीं. जो मानवीय अनुभव, सुख-दुख, तकलीफ, विडंबनाएँ हमने आत्मसात की वे साझा करने के लिए ही है. इसलिए उनकी कविता एक व्यैक्तिक रचना न होकर समूचे समाज की तरफ से एक सामूहिक प्रयास बन जाती है. अनामिका जी अपनी कविताओं में उन तमाम भेद-भावों की संरचनाओं को तोड़्ती हैं जो वर्चस्व पूर्ण समाज में स्त्री के लिए निर्मित की गई हैं. सभ्यातगत इतिहास में वे स्त्री और पुरुष के आपसी विपर्यय पर अपना ध्यान रखती हैं और स्त्री-प्रश्नों को उठाने के लिए प्रदत्त और निर्धारित शब्द संरचना को बदलती हैं. उनकी अभिव्यक्ति में जीवन से जुड़े अनेक शब्द अपने नये संदर्भों के साथ आते हैं और प्रतीकात्मक बिंबों से सजी आत्मीय भाषा में व्यंजना के नये अर्थ प्रस्फुटित होतें हैं. उनकी संवेदना का फैलाव उन वंचित जनों तक भी है जिसमें एक स्त्री की करुणा सहज रूप से जुड़ जाती है इसलिये लोक-भाषा के शब्द सायास नहीं बल्कि उनके अनुभव का अनिवार्य हिस्सा बन कर आते हैं. ‘क्षिति जलपावक’ कविता में यह गहन संवेदना इसी तरह संप्रेषित होती है-
कहते हैं वैद्यराज
वैसे तो पाँच तत्वों की बनी है ये काया
लेकिन हर मन पर होती है अलग छाया
किसी एक महातत्व की.
ये ही होता है रिश्तों में भी
कुछ रिश्ते आकाश होते हैं
कुछ पानी
कहते हैं वैद्यराज-
मज़े-मज़े में होना आकाश
होना अगन-पवन-पानी
पर माटी में पैर गोड़ने हों तो
संभलना!
थोड़ा निहुर जाना
धानरोपनी में झुकी उस किसानिन की लय में
जिसे पीठ पर झेलनी है बहुत मार-
मौसम की हो या महँगाई की
हूक उठे, आँख में चुभे किरकिरी
फिर भी करनी है मेहनत लगातार.
साधारण जीवन की असाधारण जीवन स्थितियाँ, त्रासद विडंबनाएँ इन कविताओं में बिम्बों, चरित्रों, दृश्यों और संवादों का एक सजीव संसार उपस्थित कर देती हैं कि पाठक इन स्मृतियों को उसी अंतरंग मन:स्थिति के साथ ही संवेदना में दर्ज़ कर लेता है.शहर की मध्यवर्गीय स्त्री कीपीड़ा हो या गाँव-कस्बे की निर्धन स्त्री की अंतर्व्यथा, उसे सहज और आत्मीय रूप से उकेरने का कौशल अनामिका जी की काव्यात्मक विशिष्टता है. मानवीय संबधों में आते बदलाव और परिवेश की चुनौतियों से, परिवार और समाज की मर्यादाओंसे जूझती बेटी, बहन के रूप में स्त्री के अस्तित्व का संघर्ष अब ज्यादा जटिल और बहुआयामी है. परंपरा और आधुनिकता के इस विरोधाभास में अनामिका की कविताएँ मिथक और लोकश्रुतियों को भी नये सिरे से स्त्री पक्ष में पुनर्मूल्यांकित करती हैं जिनमें आज का यथार्थ शिद्दत से उभर कर आता है. ऑनर किलिंग और तथाकथित सम्मान के नाम पर उभरती जातीय खाप-संस्कृति की पर उनकी बारीक नज़र स्त्री -अस्मिता पर हुए शोषण के नये आघातों को देखती है जैसे –‘प्रेम के लिए फाँसी’ कविता में-
मीरा रानी , तुम तो फिर भी खुशकिस्मत थीं
खाप पंचायत के फैसले
तुम्हारे सगों ने तो नहीं किये.
‘राणाजी ने भेजा विष का प्याला’–
कह पाना फिर भी आसान था
‘भैया ने भेजा’- ये कहते हुए जीभ कटती.
बचपन की स्मृतियाँ कशमकश मचातीं
और खड़े रहते ठगे हुए राह रोककर
हँसकर तुम यही सोचती-
भैया को इस बार मेरा ही
आखेट करने की सूझी!
वह सब संपदा: त्याग, धीरज, सहिष्णुता.
मेरे ही हिस्से कर दी
क्यों उसके नाम नहीं लिखी ?
अनामिका जी के लिए स्त्री-मुक्ति का विराट संदर्भ मूलत: समानता, आत्मसम्मान न्याय और मानवीय गरिमा के साथ अधिक सहज प्रेमपूर्ण संबंधों के लिए समाज में उसके स्वतंत्र अस्तित्व की स्थापना के लिये है. स्त्री मुक्ति के यथार्थ का यूटोपिया समूची मानवता के सभ्यातामूलक विकास के लिये वंचितों, शोषितों और पीडित जनों के व्यापक संघर्ष में हिस्सेदारी निभाने से ही संभव है. इसलिये उनकी कविता-भाषा बहुकेंद्रित और संवादधर्मी है और उसका आधार लोकतांत्रिक है. यह साझा स्त्री-विमर्श स्त्री को दैहिक-मानसिक-आर्थिक-सांस्कृतिक प्रताड़नाओं से मुक्त करने का निरतंर प्रयास है जिसमें अन्याय और क्रूरता के समानानंतर करुणा और न्याय दृष्टि है. इस संग्रह की कविताओं में साधारण स्त्री- छवियों का विविध संसार है जो बहुरंगी- बहुआयामी है. साधारण जीवन की असाधारणता जिसमें ज़िंन्दगी तरह-तरह के प्रभावों, रंग-रूप, सुख-दुख, विडंबनाएँ और बाधाओं को झेलते हुए तिल-तिल काटी जाती है.
इतिहास की नायिकाओं से महादेवी वर्मा, सुभद्राकुमारी चौहान, मीराबाई,घनानंद की सुजानसे बेगम अख्तर तक और गाँव-कस्बे, शहर से लेकर झुग्गी-झोपड़ियों,गली-मोहल्लों, फुटपाथों, अनाथालायों, शिविरों, विस्थापित बस्तियों तक से खेत–खलिहान ,मजदूरी, घरेलू और अन्य बेगार के कार्यों से जुड़ी श्रमिक सर्वसाधारण स्त्रियाँ, इन कविताओं में जीवंत हो उठती है. परम्परा से रूढ़ि को अलग करती हुई नयी दृष्टि से सचेतन स्त्रियां जिनके जीवन का संघर्ष अंतहीन है और मुक्ति का रास्ता इतना आसान नहीं. मेरे मुहल्ले की राबिया फकीर, स्त्री सुबोधिनी: उत्तर कथा, अमरफल,रूसी औरतें, निगमबोध पर मामी, टैगोर को मेरा प्रेमपत्र, कस्बे में शेक्सपियर शिक्षक, चैन की साँस, हनूज दिल्ली दूर अस्त, प्लेटफॉर्म पर ग्रामवधुएँ,विस्थापन बस्ती कीकुछ पुरमज़ाक पद्मिनी नायिकाएँ, गायत्रीकौल:खोली नम्बर 55, कबाड़िन: खोली नम्बर 261, ब्यूटी कल्चर: खोली नंबर 65, राबिया अनवर : खोली नंबर 73,डॉली सर्राफ: खोली नंबर 88, पासवर्ड: निर्भया की अम्मा: खोली नंबर 105 , नसीहत जैसी सशक्त कविताएँ जिनमें जाति और मजहब से परे प्रत्येक स्त्री का दुख साझा है –
मेकअप में
उस्ताद है शाज़िया
ईश्वर की भूलें भी
मनोयोग से सुधार देती है
उसका नन्हा पार्लर है घरौंदा
पीट कर निकाल दी गई औरतों का
धो देती है उनके चेहरों से
सदियों की धूल
दुनिया के सारे आस्वादों की खातिर
जब फिर से तैयार हो जाते हैं रंध्रकूप-
फिर दोनों साथ-साथ बैठी हुईं
चाय नहीं पीतीं
पीतीं हैं घूँट -घूँट अमृत वो
उस मगन आपसदारी का
जिसको कि कहते हैं बहनापा !
स्त्रीवाद की कठोर ज़मीन पर खड़े होकर अनामिका जी आज के परिवेश में स्त्री के उत्पीड़न और स्त्री-समाज के त्रासद यथार्थ के प्रति भी पूरी तरह सजग और सचेत हैं. बाज़ारवादी सभ्यता व उपभोगवादी संस्कृति में स्त्री का संघर्ष अब अधिक कठिन और चुनौतीपूर्ण हुआ है जिसमेंअत्याचार, यौन-हिंसा, अन्याय और शोषण के नये-नये तरीकों से टकराना भी नियति है.इन कविताओं में समसामयिक परिवेश की तमाम अमानवीय और निर्मम विसंगतियों के प्रति चिंताएँ भी शामिल हैं. आधुनिक और विकसित कहे जाने वाले समाज में भी स्त्री के दुख, संत्रास और यातना की परतें पौरुषवादी व्यवस्था की मानसिकता में समाहित हैं. इस संग्रह की विशिष्ट लंबी कविता- ‘एक ठो शहर था- और एक थी निर्भया’ इस पूरी व्यवस्था के विरुद्ध स्त्री के सशक्त और प्रखर प्रतिरोध को दर्ज़ करती है.कुछ साल पहले दिल्ली में दिसंबर की एक रात में घटित निर्भया के जघन्य कांड और यौन हिसां के अमानवीय बर्बर संदर्भों में स्त्री-अस्तित्व के अनेक पहलुओं को मार्मिकता से उभारती है. पांच अंकों में विभक्त यह कविता कई उप-खंडो में विभाजित यह कविता विस्थापन बस्तियों में रहने वाली कई स्त्रियों के जीवन और अंतर्मन से गुजरती हुई निर्भया तक पहुँचती है और अप्ने तरीके से अनेक सबंधों और संदर्भों के साथ इस घटना के निहितार्थों की व्याख्या करती है. दिल्ली जो कितनी बार बसी और कितनी बार उजड़ी मानों इसकी गवाह बन जाती है. निर्भया की माँकी उससे जुड़ी अनेक स्मृतियाँ, एक वर्ष के अंतराल में कई मौसमों से गुजरते हुएस्त्री होने की त्रासदी को अपनी बेटी में और निरंतर अपनी पीड़ा में झेलते हुए,न्याय की अंतहीन प्रतीक्षा में संकल्प के साथ इस लड़ाई को लड़ते हुए उम्मीद को वह स्थगित नहीं करती जो एक स्त्री के साथ मानवता का सामूहिक संघर्ष बन जाती है-
दुनिया के साझा अलाव में
चिंगारियों की बिसात ही भला क्या
आखिर तो जीवन है
एक मशाल यात्रा !
और कुछ नहीं छूटता
छूटती है बस ये गाथा
कि कोई किसलिए जिया
और मरा तो वह मरा कौन सी धुन में
कौन आग तापता हुआ
अपनी राह गया
कौन ढहा भी तो
अपनी मशाल
किसी और को थमाता हुआ
जैसे निर्भया ने थमाई
यह कहते हुए-
देह भी एक देश है जैसे
यह देश भी देह है.
इस कविता में अनामिका जी क्रमिक रूप से स्त्री के अंतर्संघर्ष को, आक्रोश को, पीड़ा को जैसे अपनी आत्मानुभूति के मुश्किल असहनीय सफर की तरह महसूस करती हैं. स्त्री का संत्रास बहुत संज़ीदगी से इस कविता में बयान होता है किसी जो समस्याओं को घटनाओं को देखने का उनका अपना संवेदनशील दृष्टिकोण है जिसमें अभी निष्पाप बचपन है और जो संवेदना का साझा धरातल है. यह हिंस्त्र और बर्बर समय के उनके प्रतिरोध का अपना तरीका और विशिष्ट शैली है जो भारतीय स्त्री मन की गहरी समझ से उत्पन्न हुई है. इस पूरी व्यवस्था, समाज और सभ्यता से उनकी यही मांग है कि स्त्रीत्व को वर्चस्व का जरिया न बनाया जाए, उसके अधिकारों, सम्मान और गरिमा को स्वतंत्र अस्तित्व को मानवीय परिसर में देखा जाए. यह जेंडर समानता आज के समय की अतिवादी प्रवृत्ति नहीं बल्कि बहुत सी ऐतिहासिक और परंपरागत भूलों को सुधारने का स्त्री की अस्मिता का आंदोलन है.
इस दृष्टि से ‘पानी को सब याद था’ संग्रह की नयी कविताओं में अनामिका जी की काव्य-संवेदना और स्त्री-आकाक्षाओं का विस्तार स्त्री-जीवन से जुड़े अनेक पक्षों तक जाता है. स्त्री-मुक्ति के संदर्भ में ये कविताएँ बने-बनाए विमर्श के ढ़ांचे को तोड़ती है और स्त्रीवाद का नया पाठ तैयार करती हैं. उनके सरोकार संवेदनात्मक दिशा में अग्रसर होकर भी यथार्थ के प्रति सजग वैचारिक विवेक पर आधारित हैं. स्त्री के आत्मसम्मान का प्रश्न और उसकी स्वतंत्र वैचारिक जमीन की तलाश इस समय की कविता की केंद्रीय चिंता है जो सामाजिक व्यवस्था में अपनी पहचान और गरिमा के लिए संघर्षशील है. जहाँ स्त्री को अपने अधिकारों के लिए जागरूक होने के साथ परपंरागत यंत्रणाओं के दायरे से बाहर आने की बेचैनी और उसके लिए तय की गई त्रासदियों के विरोध में अनामिका जी का उभर कर आता है और सदियों से चले आ रहे सभी तरह के उत्पीड़न के खिलाफ उनका संज़ीदगी से प्रतिरोध भी व्यक्त होता है. स्त्री- अस्मिता के पक्ष में वस्तुत: यह स्वर पूरे समाज की सामंती मानसिकता और पितृसत्तात्मक व्यवस्था के विरुद्ध है जिसमें सबकी व्यापक भागीदारी होनी चाहिए.
अनामिका जी की कविता स्त्री-पक्ष में बोलने वाली कविता है जो आधी आबादी के बुनियादी अधिकारों और अस्तित्व का भी बड़ा प्रश्न है जिससे उनकी संवेदना और मानवीय चेतना कभी अछूती नहीं रह पाती. समय के निरंतर बदलाव की सामाजिक प्रक्रिया में स्त्री-यथार्थ की समसामयिक चुनौतियाँ-जटिलताएँ इन कविताओं के केंद्र मे हैं जो स्त्री की आत्मुनुभूति का भोगा हुआ यथार्थ है. ये कविताएँ स्त्री को सदैव समाज द्वारा परिधि पर रखने की परंपरागत सोच के प्रतिरोध में अनथकप्रयास हैं जिसके लिए एक नई स्त्री-भाषा का सार्थक जीवंत शिल्प भी इनकी विशिष्टता है. यह स्त्री के साझे स्वप्नों और आकांक्षाओं से और अपने सांस्कृतिक मूल्यों से जुड़ा होकर भी आधुनिक विमर्श है जो स्त्री की व्यैक्तिक मुक्ति को मानव-मुक्ति के विराट संदर्भों से जोड़ता है–
“घर के पचास काम निबटाकर
मातृभाषा में अखबार बाँचती हैं जो-
उन मामियों, मौसियों, चाचियों और बुआओं की
राष्ट्रीय चेतना
गाँधी और टैगोर की
पालिता है
तंग दायरों में वह नहीं सोचती
और उड़ी जाती है
पंच प्राणों- सी
जात और मज़हब के
बाड़ों के पार !”
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मीना बुद्धिराजा
ऐसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, अदिति कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय.
संपर्क-9873806557