स्वप्निल श्रीवास्तव
हिंदी में बहुतेरे कवि रहे है – जो पत्रकारिता के पेशे में रहते हुये कवितायें लिखते रहे है. उन्होने कविता को नये शब्द दिये है. आजादी के पहले और बाद के कवियों में ऐसे अनेक कवि मिल जायेगे. ऐसे कवि बेहद चेतनाशील होते हैं. उन्हें कविता लिखने के लिये किसी प्रशिक्षण की जरूरत नही है. खबरो की दुनिया में कविता के लिये बहुत कच्चा माल है. यह कवि का कमाल है कि वे खबरों को किस तरह कविता में तब्दील करता है. हिंदी कविता में अज्ञेय, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर और विष्णु खरे ऐसे कवि है जिन्होने अपनी कविता में पत्रकारिता के अनुभव का इस्तेमाल किया.
हम ऐसे वक्त में रह रहे है जिसमे राजनीति से बचना नामुमकिन है. सत्ता का चरित्र निरंतर क्रूर होता जा रहा है. हमारे शासक हमारे रहनुमा नही रह गये है. वे जनता को अपना गुलाम और ताबेदार समझते है. 21 वीं शताब्दी के उदय होते होते टेलीविजन मीडिया समूहो की भूमिका प्रमुख होने लगी थी. ये चैनल जनता के मुद्दों को सामने लाने की अपेक्षा शासक वर्ग की रक्षा ज्यादा करते है. प्रिंट मीडिया का उपयोग फेक न्यूज और पेड न्यूज के लिये किया जाने लगा. ऐसे समय में सच क्या है, यह जानना मुश्किल हो गया. ऐसे दौर में पत्रकारों की भूमिका संदेह के परे नही रह गयी है. सच का लिखा जाना क्रमश: कम होता गया और झूठ को सच के रूप में प्रचारित किया जाता रहा.
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(सुभाष राय) |
सुभाष राय के कविता संग्रह सलीब पर सच की कवितायें उस सच को खोजती हुई नजर आती है, जो हमारे समय के कोलाहल में गायब हो गया है. सुभाष राय लम्बे समय से पत्रकारिता की दुनिया के बाशिंदे है. वे मौजूदा समय मे अखबार के जरिये साहित्य को बचाने की कोशिश कर रहे है. यह बात दावे से कही जा सकती है कि जिस समय दैनिक समाचार पत्रों से साहित्य अनुपस्थित हो रहा था, उस समय अखबार के माध्यम से उन्होने साहित्य के प्रति पाठको को जागरूक बनाया.
सुभाष राय की कविताओं में समय की ध्वनियां दर्ज है. उनकी कतिपय कवितायें पाठको को उग्र लग सकती है लेकिन क्या हमारे समय में सच को कोमलकांत शब्दावलियों में व्यक्त किया जा सकता है? आठवे दशक में कठिन समय का मुहावरा प्रचलित था. अब यह उसके आगे का समय है. यह क्रूरता और फासिज्म का समय है, जब सारी तदबीरे उलट चुकी है. साहित्य और राजनीति के ककहरे बदल चुके हैं. पक्ष – विपक्ष में कोई विभेद नही रह गया. दोनो का उद्देश्य कदाचार ही है. जनता के सामने एक दूसरे के दुश्मन दिखते है लेकिन नेपथ्य में गलबहियां मिलाते रहते है.
अपने संकलन के प्राक्कथन में सुभाष राय कहते है – कविता मेरे भीतर प्राण की तरह बसती है. वह भले शब्दों में न उतरे या बहुत कम उतरे लेकिन उससे मुक्त होना मेरे लिये संभव नही है. मै नही कहूंगा कि मैं कविता रचता हूं. कविता खुद को खुद ही रचती है.
उनके इस कथन से मंटो की याद आयी. मंटो ने लिखा है कि अफसाना लिखने की लत मेरे लिये शराब की लत की तरह है. आगे वे कहते हैं कि अगर वे अफसाना न लिखें तो उन्हें लगेगा कि उन्होने कपड़े नहीं पहने हैं, गुस्ल नहीं किया है, शराब नहीं पी है.
यहां तुलना करना मेरा अभीष्ट नहीं है. लेखक बड़ा हो या छोटा उसकी अपनी जगह है. बड़े लेखक हमे प्रेरित करते है. यह बात तय है कि बेचैनी लेखक या कवि का प्राथमिक भाव है. बिना बेचैन हुये लिखने का कोई अर्थ नहीं है.
वास्तव में कविता लिखने की यही प्रक्रिया है वह बलात न लिखी जाय. सुभाष राय की इस आत्म स्वीकृति को ध्यान में रख कर उनकी कवितायें पढ़ी जानी चाहिये. उनके सम्बन्ध में यह याद रखना होगा कि उन्होने बिलम्ब से लिखना शुरू किया. यदि ऐसा न होता तो अब उनके कई संग्रह आ चुके होते. हिंदी कवियों में धैर्य का तत्व कम रह गया है. कविता लिखी नहीं उत्पादित की जा रही है. हम सब इस कुटेब के शिकार है. इस संग्रह की पहली कविता उनकी प्रतिबद्धता को जाहिर करती है…
मेरा परिचय उन सबका परिचय है
जो सोये नही है जनम के बाद…
उनसे मुझे कुछ नहीं कहना
जो दीवारों में चुने जाने से खुश है
जो मुर्दो की मानिंद घर से निकलते हैं
बाजार में खरीदारी करते है
और खुद खरीदे गये सामान में बदल जाते हैं.
यह कविता सत्ता और बाजार की भूमिका से हमें अवगत कराती है. सत्ता और बाजार दोनों का काम मानवविरोधी है. उसके लिये आदमी बिकाऊ माल है. सत्ता और बाजार के लिये हम उपकरण के अलावा कुछ नहीं है. दोनों में हमे खरीदने और बरबाद करने की ताकत है.
कवि के पास भले ही स्वर्णिम संसार न हो लेकिन उसके पास सपने जरूर होते हैं. ये सपने उसे यथार्थ तक पहुंचाते हैं . कवि के सपने कविताओं में रूपांतरित होते हैं. पाश को याद करिये, जिसने कहा था – ‘सबसे ज्यादा खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना’. सुभाष राय के पास सपने हैं. वे कहते हैं –
जिनके पास सपने नहीं होते
वहीं पांवों के निशान का पीछा करते हैं
वही ढ़ूढ़ते हैं आसान रास्ते
सचमुच वे कहीं नहीं पहुंचते.
सुभाष राय की कवितायें सत्ता–विरोध की कवितायें हैं. उन्हें पता है कि किस तरह सत्ता आम आदमी के जीवन के साथ व्यवहार करती है. किस तरह मतदाताओं को सपने दिखाती है. रघुवीर सहाय जैसे कवियों में जनतंत्र की विफलता को लेकर अनेक कवितायें लिखी हैं – जो पहले से ज्यादा प्रासंगिक है. दरअसल जनतन्त्र की अवधारणा को पूंजी तंत्र खारिज कर चुका है. इस जनतंत्र को शासक नहीं कुछ चुने हुये कारपोरेट चला रहे हैं. अब यह बात सार्वजनिक हो चुकी है. विकास के अर्थ बदल गये हैं. वह अब एक नारा ह. अपनी इस बात को सुभाष राय सोनचिरैया के मिथक के माध्यम से हमारे सामने लाते हैं. यह देश कभी सोने की चिड़िया था – यह पद हर व्यवस्था में भिन्न – भिन्न ढंग से दोहराया जाता रहा है. इस तरह के मिथक जनता को दिग्भ्रमित करने के लिये उपयोग में लाये जाते हैं. जब वर्तमान में हमें अपनी समस्यायों का हल नहीं मिलता तब लोग अतीत की शरण में जाते हैं. सत्ता इन मिथकों का इस्तेमाल करना जानती है.
जब से समझने लगा देश, जनता और विकास के अर्थ
पहचानने लगा दुश्मन और दोस्त के बीच का फर्क
जानने लगा अपने और देश के बीच का रिश्ता
तब से देख रहा हूं पंख फड़फड़ा रही है सोनचिरैया.
इस कविता में सोनचिरैया का प्रयोग दूसरे संदर्भ में किया गया है .
उनकी एक कविता देवदूत है जिसमें वे नया रूपक गढ़ते हैं. देवदूत धार्मिक दुनिया का एक मुहावरा है. समय समय पर उसके आने की भविष्यवाणी की जाती है. यह धर्म के धंधे का एक रूप है. उसके आने की भविष्यवाणी तब की जाती है, जब सत्ता के सामने कोई गम्भीर संकट पैदा हो जाय. जब से राजनीति और धर्म का गठबंधन हुआ है, इस तरह के टोटके बढ़े हैं. नास्त्रेदमस ने कई सत्ताओं को संकट से बचाया है. हमारे समाज में चंद्रास्वामी जैसे लोग थे जिन्होंने गणेश जी को दूध पिला कर समाज के हाथ में नया चमत्कार दे दिया था. आज की सत्ता इन्ही प्रतीकों और मिथकों पर चल रही है – जिसे सत्ता के एजेंट अपनी तरह से प्रचारित कर रहे हैं. देवदूत कविता की पंक्तियां देखें…
एक दिन वह निकलेगा सड़कों पर
और फूट पड़ेगी नदियां सुख और ऐश्वर्य की
डूब जायेंगी झुग्गी- झोपड़ियां उनकी वेगवती धार में
खेतों में खूब अनाज होगा, बागों में फूल खिलेंगे.
यह कविता देवदूत सत्ता पर व्यंग्य है. हे राम सुनो तुम में वे राम के राजनीतिक इस्तेमाल की बात करते हैं. इसी क्रम में उनकी कविता –नचिकेता पढ़ी जा सकती है. हिंदी कविता में मिथकों और आख्यानों का खूब प्रयोग हुआ है. सुभाष राय की कवितायें इसका अपवाद नहीं हैं. लेकिन वे मिथकों का प्रयोग सावधानी से करते हैं. इन मिथकों के जरिये वर्तमान समय को समझने की कोशिश करते हैं.
सुभाष राय अपनी कविताओं में निरंतर सवाल उठाते हैं और लोगो को सावधान करते हुये कहते हैं –
मौसम से सावधान रहना
हवायें कभी कुछ नही बताती.
यानी हमारे समाज में कभी कुछ भी आकस्मिक घट सकता है. जो कुछ ऊपर से दिखाई देता है, उसकी भूमिका नेपथ्य में पहले से तैयार की जाती है. सच को झूठ और झूठ को सच में बदलने की कवायद सत्ता का हिस्सा है, इसमे बचा हुआ सच छिप जाता है. सुभाष राय अपनी कविताओं में सच कहने की जगह खोज लेते हैं. वे इतिहास के अनसुलझे प्रश्नों के जवाब खोजते हैं. उनकी कविता इतिहास के अनुत्तरित प्रश्न में बहुत से ऐसे स्थल हैं, जो हमे बेचैन करते हैं.
कवि के राजनीतिक जीवन के अलावा, उसका सामाजिक जीवन है – जिसमें उसका परिवार रहता है. वहां उसके गांवों की दुनिया है. बहुत सी छूटी हुई स्मृतियां हैं, उसके दंश हैं, पछतावे हैं. यहां उसे भावुक होने की स्वतंत्रता मिलती है. हालांकि हमारे यहां अति क्रांतिकारी सोच का ऐसा तबका है- जो अतीत को जीवन का हिस्सा नहीं मानता लेकिन क्या हम अतीत के बिना जीवन की कल्पना कर सकते हैं ? हम सब अतीत से कुछ न कुछ सीखते हैं और उसे मानने से इनकार कर देते हैं. यही हमारे वर्तमान को आगे नहीं बढ़ने देता. सुभाष राय की कविता मेरा परिवार उनके यादों का एलबम है. इस कविता में माता – पिता, भाई, पत्नी, बच्चे सब शामिल हैं –
पिता के नाम लगाया है
मैंने अशोक हरा–भरा
उसके पत्तों के बीच
चिड़िया ने बनाया है घोंसला
मैं उसके बच्चों को उड़ते हुये देखना चाहता हूं
ताकि पिता को याद रख सकूं
हर उड़ान के दौरान.
इसी तरह उनकी कविता प्रेम प्रेम के बारे में नयी व्याख्या करती है. वह कहते हैं-
तुम प्रेम की परिभाषाये चाहे जितनी अच्छी कर लो
पर प्रेम का अर्थ नहीं कर सकते
प्रेम खुद को मार कर सबमें जी उठना है
प्रेम अपनी आंखों में सब का सपना है .
नागर विकास ने किस तरह गांवों के आस्तित्व को खतरे में डाल दिया है, उसे हम अपने जीवन में देख रहे हैं. किस तरह देश की राजधानी का विस्तार एन सी आर (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र) के रूप में हो रहा है, यह तथ्य हमारी आंख के सामने है. नगर अपने विस्तार में गांवों को समाहित करते जा रहे हैं– यह तो लोकसंस्कृति का संहार है. सुभाष राय की कविता गांव की तलाश में इन्ही त्रासद स्थितियों का विवरण है.
कुल मिला कर इस संग्रह की कवितायें हमारे समय और समाज के अनेक व्योरे प्रस्तुत करती हैं. इन तफ्सीलों में कवि का अपना विजन दिखाई देता है. साथ ही साथ चीजों को बदलने की एक बेचैनी भी है. कविताओं में कवि का सत्ता के विरूद्ध प्रतिरोध मुख्य भाव है. वे कहीं-कहीं आक्रामक हो उठते हैं. यह आक्रामकता हमें अच्छी लगती है. क्योकि उसके बिना न जीवन में काम चल सकता है न कविता में.
शिष्टता का वक्त अब नहीं बचा है. इसलिये मर्यादा में रहते हुये यह काम बुरा नहीं है. पहले संग्रह होते हुये उनकी कवितायें प्रौढ़ हैं. भाषा की सहजता के कारण वह पाठको को आसानी से समझ में आ जाती हैं.
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स्वप्निल श्रीवास्तव
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