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समालोचन

Home » परमेश्वर फुंकवाल की कविताएँ

परमेश्वर फुंकवाल की कविताएँ

कोरोना समय में मजदूरों को यह जो जगह-जगह से खदेड़ा गया जिसे पलायन जैसे नरम शब्द से ढँक दिया गया है, मनुष्य इतिहास की बड़ी त्रासदी है. दुनिया वैसी ही है. २१ वीं सदी पर पुरानी सदियों का वैसा ही अमानवीय बोझ है. न जाने कब इस महादेश में मजदूरों को ‘नागरिक’ होने का सम्मान […]

by arun dev
June 10, 2020
in कविता
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कोरोना समय में मजदूरों को यह जो जगह-जगह से खदेड़ा गया जिसे पलायन जैसे नरम शब्द से ढँक दिया गया है, मनुष्य इतिहास की बड़ी त्रासदी है. दुनिया वैसी ही है. २१ वीं सदी पर पुरानी सदियों का वैसा ही अमानवीय बोझ है. न जाने कब इस महादेश में मजदूरों को ‘नागरिक’ होने का सम्मान मिलेगा.
एक कवि जो रेलवे में ओहदेदार है और जो शहर राजकोट में इस प्रपंच के बीच उनका खदेड़ा जाना देख रहा है. बंदिशों के बीच संभव मदद भी कर रहा है और लिख रहा है. ये कविताएँ इस चीख, पुकार, प्रार्थना के बीच लिखीं गईं हैं. इसमें भोक्ता और सृजक के बीच अपेक्षित सम्मानजनक दूरी नहीं है. कविताएँ किसी सिद्धांत की मोहताज नहीं रहतीं.
परमेश्वर फुंकवाल की ये कविताएँ प्रस्तुत हैं.









परमेश्वर फुंकवाल की कविताएँ 
प्रस्तावना
इसमें न जीवन
न कोई ऊर्जा
न खुद बढ़ सकने की हैसियत
न जीवित न मृत
न दृश्य न अदृश्य
किसी देवासुर कथा के 
तिलिस्म जैसा
आसुरी चाह लिए
यह निर्जीव कण
जीवन की कोशिकाओं पर
तानाशाह बनकर हो गया है क़ाबिज़
किसके दुखों से
किन यातनाओं के
प्रतिशोध में
जन्मा
यह रसायन
यह सूक्ष्म
आरएनए का कण
प्रोटीन की परत में लिपटा
अपने काँटों से
छलनी करता पूरी पृथ्वी को?


पलायन
वे श्रमिक थे
वे पैदल ही पार कर सकते थे
प्रतीक्षाओं के पुल
वे प्रतीक्षा नहीं कर सकते थे
वे अँधेरे में चल रहे थे
पर उन्हें भरोसा था उजाले पर
इस समय चलना ही ज़रूरी था
बात करना भी
जिसके कंधे पर गठरी थी
उसने बिटिया को गोद में उठाये राह चर से प्रश्न किया
कहाँ जाओगे
उसे पता न था
वह बस चल रहा था
हज़ार मील की दूरी पर जो घर वह छोड़कर आया था
पता नहीं वह अब हो कि न हो
अब वहां पहुँच भी सकेगा कि नहीं
कौन जाने उसके दरवाजे खुले भी होंगे उसके लिए
उसके गले में उत्तर में प्रश्न पूछने की भी
आर्द्रता शेष नहीं थी
सब कह रहे थे
यह लड़ाई हम जीतेंगे
यह लड़ाई समय मांगती है
दुनिया लड़ रही है शोध चल रहे हैं
उसे बस चलते रहना है यही पता था
जिन उजालों की आस में वे चल रहे थे
उसी की दस्तक पर
वह बच्ची अपने पिता को जगाने की जद्दोजहद में थी
वह अपनी लड़ाई लड़ चुका था
अपनी दूरी चल चुका था
पिछली रात इतना थक चुका था
वह अब बस सोना चाहता था
उसे चिंता का बुखार था
वह आवाज़ देना चाहता था
उसकी बंद साँसों में सूखी खांसी थी
उसे कोरोना नहीं था.



वापसी (1)
वे जा रहे थे
किसी ने कहा था अब लौट चलो
अपने वतन में जीना मरना जो भी होगा ठीक ही होगा
राजकोट के प्लेटफोर्म पर दूर बने गोलों पर कतारों में खड़े
वे क्या सोच रहे थे?
दो बच्चे प्लेटफोर्म पर लेटे आकाश को घूर रहे थे
केतन भाई ने उनके माता पिता को खाने के पैकेट दिए
उनके लिए खिलौने भी
कुछ टोफीयों के साथ
झाबुआ की बस्ती में
या फिर काम पर
कहीं नहीं हुआ था उनका इस सब से सामना
उलट पुलट कर उसे बार बार देख
कोशिश में थे कि पहचानें क्या है
और डर में कि कहीं कोई छीन न ले
चेहरे को कपड़े से ढँक कर वे लौट रहे थे
पर उन्होंने कोई गुनाह नहीं किया था
क्या वे फिर लौटेंगे?
केतन भाई कहते हैं हाँ
उनकी आंखें कहती हैं नहीं
पर स्टेशन पर यह बिदाई
उनसे भुलाई नहीं जाएगी
वे शायद फिर कभी सौराष्ट्र न आयें
उनकी यादों में सौराष्ट्र अवश्य आएगा.
केतन भाई शायद इसे ही उनकी वापसी मानते हैं.


वापसी (2)
मैं जब वतन ले जाने वाली पहली गाडी पर गया
केतन भाई उत्साह से मिले
उनका एक एन जी ओ है
कानुडा यहाँ कान्हा को कहते हैं 
उन्ही के नाम से
कहने लगे
इन बारह सौ मजूरों का
खाना पानी सबकी व्यवस्था कर दी है
फिर पूछने लगे अगली गाड़ी कब जाएगी?
मेरी प्रश्नवाचक दृष्टि पर
कहने लगे जितनी गाड़ियाँ जाएगी
हम संभालेंगे
वे स्टेशन पर उन्हें विदा जरूर कर रहे थे
पर असल में वे
उनकी वापसी पक्की करने आये थे.

वापसी (3)
उनके घर थे, चाल थी
भरी पूरी गली थी
तम्बू थे
ये धरती उनकी थी
आसमान उनका था
कुछ बिहार था
कुछ यूपी
थोड़ा बंगाल थोड़ा उडीसा
थोड़ा थोड़ा मिलकर इन सबसे भी
गुजरात बनता था
बच्चे जब घुल मिलकर खेलते थे
एक ऐसा रसायन बनता था
जिसकी महक से
सौराष्ट्र की मिट्टी सौंधी हो उठती थी
अब वीराने में कुत्ते भोंक रहे हैं
बस्ती में अचानक
एक रात आये अकेलेपन पर
उनके पास खाने को कुछ नहीं
सूनी दीवारे
खाली आले
खुले दरवाजों से समय की गिलहरी
कर रही है अन्दर बाहर आवाजाही
पीपल के पत्ते उस मीठे गीत की तलाश में
जो मुंह अँधेरे चल पड़ा है
अनमने अमलतास और गुलमोहर
बस्ती की धूल से अपनी उदासी
कहने के लिए झर रहे हैं
वे ऐसे गए हैं
जैसे अब कभी नहीं लौटेंगे
कौन जानता था
इन बस्तियों में इतने सूबे रहते थे
रंगीले राजकोट के कितने ही रंग
अचानक फीके हो गए हैं
यह जो ट्रेन उन्हें लेकर जा रही है
खुश है उनके वतन लौटने की खुशी से
उधर से खाली लौटेगी
और अपनी उदासी किसी से न कह सकेगी.


वापसी (4)
रात में किसी ने आवाज़ दी
जाना चाहते हो?
तम्बू के बाहर कोई पुलिस था
मेघ नगर की ट्रेन कल सुबह लगेगी
अपना पूरा सामान बांध कर
वे ट्रेन में बैठे थे
मेघ नगर
यही स्टेशन था
जहां से कभी चले थे
उसे वे भूल बैठे थे
अब वह उन्हें याद कर रहा था
वे क्यों लौट रहे थे उन्हें नहीं पता
और सच पूछें तो
उन्हें आज लग रहा था
वे अपना वतन छोड़कर चल पड़े हैं
वे लौट रहे थे
पर वे फिर लौटना चाहते थे


वापसी (5)
ऐसा भी नहीं था कि इतने दिनों यहाँ
कोई ख़ास मुश्किल थी
रहने को जगह
खाने को दो टाइम भोजन
अब भी दुगुनी मजदूरी देने की बात थी
पर अब उन्हें अपनी मिट्टी की गंध याद आ गई थी
धरती और आकाश का खुलापन
उनकी स्मृतियों में तैर रहा था
अम्मा की फोन पर भरभराती आवाज़
उनके कानों में पसरे शोर को चीर रही थी
अब उन्हें कोई नहीं रोक सकता था
गंगा के कछार
हूगली के तट
उन्हें याद कर रहे थे
वहां की हवा अब उनकी देह को भिगो रही थी
एक-एक कर गिर रहे थे
पेड़ों के पत्ते
पर उनकी जड़ें
अभी भी जीवित थीं
वनों की हरियाली उनकी जड़ों में लौट रही थी
साठ दिनों की बंदी में
पहली बार
रोटी के अलावा
उन्होंने कुछ सोचा था
पहली बार जेहन में आया कि
भूख और प्यास के सिवा भी
उनके पास कितना कुछ था
जो उनका अपना था
जिसके पास किसी भी समय लौटा जा सकता था


वापसी (6)
वह एक सौ सड़सठ वर्षों से चल रही थी
वह रुकी तो इसलिए
हम बचे रह सकें
उसके रुकने से
जैसे यह धरती ही निश्वास हो उठी
इसका चलना
धमनियों में खून का चलना है
पटरियों का लोहा
पहियों की गति से प्रेम करता है
इस संक्रमण काल में
कितने ही हैं
चाबीवाले, कांटेवाले
कोई अनाम फिटर
सिग्नल मेंटेनर
स्टेशन मास्टर गार्ड
लोको पायलट
सुरक्षा प्रहरी
टिकट परीक्षक
सब लौट रहे हैं 
ये रुके हुए हैं अपने काम पर
इनके रुकने से
चल पड़ी है
यह दुनिया
स्टेशन से रवाना होने वाली
ट्रेन पर
ये करतल ध्वनि से विदा कर रहे हैं
अपने जैसे कइयों को
कि अपनों को
प्लेटफोर्म को सूना छोड़ जाती ट्रेन
इनकी आँखों की नमी में
धुंधली होती जाती है
ट्रेन से एक अबोध बालक इनकी ओर देख हाथ हिलाता है
इनके नाम मैं हजारों सलाम लिखता हूँ.


उपसंहार
जाना
ऐसे जैसे
मिट्टी के ही पास
अंततः चले जाते हैं
साँसों के कण
अग्नि के पास चली जाती है
देह में घुली सारी राख
आकाश में चला जाता है
प्रकाश
नदी में चला जाता है
बारिश का सारा जल
जाना
एक नए जन्म के लिए
पर लौट कर आना
और तब देह के स्पर्श से नहीं
करुणा और प्रेम से तर
आत्मा से छूना
कोई आस की दवा
कोई बाकी रह गया आसीस 
ले आना
यही रहे हैं हमेशा भारी
हर आततायी पर
इस बार भी पड़ेंगे
जीवन के इन करोड़ों प्रतिकणों पर
एक सौ पच्चीस नेनोमीटर के
इस विषाणु के पहले और बाद की
दुनियाओं के बीच
यह विशाल फांक
जो लील रही
कितने ही अपनों को
हमसे ही पाटी जाएगी
हमारी ही आँखों में होगी
वह रोशनी
जो इस अंधी सुरंग के पार है.
_______________________________
pfunkwal@hotmail.com
Tags: कविताएँ
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