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Home » परिप्रेक्ष्य : संपादकों के दायित्व : राहुल राजेश

परिप्रेक्ष्य : संपादकों के दायित्व : राहुल राजेश

हिंदी साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादकों की कार्य–शैली की चर्चा-कुचर्चा को सार्वजनिक करने से लेखक बचते हैं. युवा कवि और अनुवादक राहुल राजेश ने नया ज्ञानोदय के संपादक रहे रवीन्द्रकालिया के अंतिम संपादकीय के बहाने इस चर्चा से पर्दा हटा दिया है. बहुत ही जिम्मेदारी भरा आलेख है. एक लेखक की संपादक से क्या अपेक्षा रहती […]

by arun dev
May 4, 2014
in Uncategorized
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हिंदी साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादकों की कार्य–शैली की चर्चा-कुचर्चा को सार्वजनिक करने से लेखक बचते हैं. युवा कवि और अनुवादक राहुल राजेश ने नया ज्ञानोदय के संपादक रहे रवीन्द्रकालिया के अंतिम संपादकीय के बहाने इस चर्चा से पर्दा हटा दिया है. बहुत ही जिम्मेदारी भरा आलेख है. एक लेखक की संपादक से क्या अपेक्षा रहती है और अपनी उपेक्षा को वह किस तरह लेता है, पढना बहुत कुछ कहता है.   


बात   निकलेगी   तो   दूर  तलक  जाएगी…
(यानीसंपादकों की सिर्फ़ मजबूरियाँ ही नहीं होतीं, संपादकों के दायित्व भी होते हैं.)
राहुल राजेश


अप्रैल, 2014 के \’नया ज्ञानोदय\’ के संपादकीय से बात शुरू करते हैं. \’नया ज्ञानोदय\’ के अपने इस अंतिम संपादकीय में रवीन्द्र कालिया जी ने एक \’सुपरिचित\’ लेखक महोदय का पत्र संपादकीय के आरंभ में अविकल रुप से उद्धृत किया है, जो कुछ यूँ है– \’\’मुझे इस बात का दुख है कि आपने अपने संपादन– काल में मुझे \’नया ज्ञानोदय\’ में कभी नहीं छापा. आपके काल में मैं पत्रिका के लिए अछूत कैसे हो गया? देश की सभी प्रतिष्ठित पत्र–पत्रिकाओं में मेरी रचनाएँ प्रमुखता से छपती रही हैं. यदि मुझे नहीं छापने के पीछे कोई साहित्येतर कारण है तो यह बेहद अफ़सोसनाक है.\’\’ सबसे पहले मैं यह बता दूँ कि मुझे रवीन्द्र कालिया जी ने अपने संपादन–काल में \’वागर्थ\’ और \’नया ज्ञानोदय\’ में एकाध–बार छापने की कृपा की है, इसलिए पाठकगण कृपया मुझे इस पत्र का लेखक नहीं मानें. आशय यह कि मैं यह लेख किसी प्रतिक्रियावश नहीं, बल्कि कुछ वृहत्तर मुद्दों पर अपने विचार रखने के लिए लिख रहा हूँ.


उन्हें प्राप्त होने वाले ऐसे और इसीप्रकार के अनेक पत्रों और अपनी रचनाओं के प्रकाशन के बाबत उनसे मिलने आने वाले बहुत–से लेखकों का संदर्भ देते हुए रवीन्द्र कालिया जी ने बतौर संपादक अपनी कई मजबूरियाँ गिनाई हैं और इसी बहाने लेखकों की एक ऐसी जमात की ओर इशारा किया है, जो समकालीन साहित्य, समकालीन लेखन तो क्या, प्रेमचंद या प्रसाद से भी अनभिज्ञ है अथवा बहुलेखन और बहुप्रकाशन का शिकार है.

अपने संपादकीय में रवीन्द्र कालिया जी नेजिन बातों का उल्लेख किया है और इसी बहाने जो संपादकीय मजबूरियाँ गिनाई हैं, उनसे कमोबेश सहमत हुआ जा सकता है. लेकिन अपनी मजबूरियों और ऐसे लेखकों के उपक्रमों का वर्णन करने मात्र के लिए एक पूरा का पूरा संपादकीय खर्च करने का कोई सटीक औचित्य प्रतीत नहीं होता. रवीन्द्र कालिया जी ने एक पूरा का पूरा संपादकीय और इसके पूरे दो पृष्ठ खर्च करके यदि एक संपादक की मजबूरियाँ गिनाई थी तो उन्हें एक संपादक के दायित्व भी गिनाने थे और इसका भी विस्तृत उल्लेख और वर्णन करना था कि कितने संपादक इन तमाम दायित्वों का निर्वाह और पालन करते हैं अथवा नहीं करते हैं?

रवीन्द्र कालिया जी नेअपने इस अंतिम संपादकीय में जिन बातों का जिक्र किया है, उनसे केवल वे ही नहीं, बल्कि तमाम संपादक रोज ही रूबरू होते होंगे. लेकिन यह सिक्के का एक पहलू ही है. इस प्रसंग का एक पक्ष ही है. सिक्के का दूसरा पहलू या इस प्रसंग का दूसरा पक्ष है– संपादकों के दायित्व. कहने की आवश्यकता नहीं कि किसी भी पत्र–पत्रिका के एक जिम्मेदार संपादक का दायित्व या कहें, महती और व्यापक दायित्व होता है कि वह अपने संपादन के बूते पत्र या पत्रिका का बड़ा से बड़ा पाठक–वर्ग तैयार करे, उसकी पठनीयता का विस्तार करे, स्थापित लेखकों के साथ–साथ दूर–दराज में सृजनरत प्रतिभावान और संभावनाशील रचनाकारों को भी स्थान दे, पत्रिका में अपनी निजी पसंद–नापसंद को हावी नहीं होने दे, रचनाकारों की बजाय रचनाओं का निष्पक्षता से चयन करे, पत्र या पत्रिका को किसी खेमे, किसी गुट या किसी लेखकीय गिरोह (कार्टेल) का शिकार नहीं होने दे, पत्रिका को किसी प्रवृति–विशेष या वाद–विशेष का मुखपत्र हो जाने से बचाए, पत्रिका में किसी एक विधा को आवश्यकता से अधिक तरजीह नहीं दे, किसी विधा–विशेष को दरकिनार नहीं करे और साहित्य की सभी विधाओं के प्रकाशन में समुचित संतुलन बनाए रखे आदि–आदि. लेकिन ऐसे कितने संपादक हैं जो इन बातों का सावधानीपूर्वक ध्यान रखते हैं और इन रचनात्मक दायित्वों का निष्पक्षता से और जिम्मेदारीपूर्वक निर्वाह करते हैं?

इतना ही नहीं, कुछ न्यूनतम और अनिवार्य संपादकीय शिष्टाचार भी होते हैं, जिन्हें हरेक संपादक को विनम्रतापूर्वक निभाने होते हैं. इनमें से सबसे पहला और सबसे अहम शिष्टाचार होता है रचना–प्राप्ति की सूचना देना और प्राप्त रचनाओं पर अपने निर्णय यानी उनकी स्वीकृति–अस्वीकृति से लेखकों को एक निश्चित समय–सीमा में अवगत कराना. लेकिन तत्काल रचना–प्राप्ति की सूचना देना तो दूर, संपादक सालों–साल तक रचनाओं पर कोई निर्णय नहीं देते. पोस्टकार्ड और टिकट लगा लिफाफा रचनाओं के साथ भेजने पर भी महीनों तो क्या, साल बीत जाने पर भी लेखक को मालूम नहीं होता कि उनकी रचनाएँ गंतव्य तक पहुँची भी या नहीं या उनपर संपादक ने क्या निर्णय लिया. चाहे लघु पत्रिका का संपादक हो या किसी वृहत पत्रिका का संपादक हो, चाहे कोई नामी–गिरामी संपादक हो या कोई अदना–सा संपादक– अब किसी में इतनी बिरादराना विनम्रता नहीं बची कि वह संलग्न पोस्टकार्ड पर या अपनी तरफ से ही लेखक को अपने मंतव्य से अवगत कराये और अपेक्षित शिष्टाचार निभाये. सच कहा जाए तो यह न्यूनतम संपादकीय शिष्टाचार चलन से लगभग बाहर हो गया है. क्या इस अपेक्षित शिष्टाचार की उपेक्षा करके संपादक लेखकों के भी धैर्य की परीक्षा नहीं लेते? क्या ऐसा नहीं करने से एक ही रचना के दो जगह छप जाने की संभावना नहीं बढ़ जाती?

रवीन्द्र कालिया जी नेअपने संपादकीय में यह भी लिखा है कि \’\’जब सेसूचना क्रांति ने दस्तक दी है, रचनाओं की आमद में यकायक वृद्धि हो गई है.\’\’ इस बात में सच्चाई है. लेकिन इसी सूचना क्रांति ने लेखकों के साथ–साथ संपादकों को भी तो यह मुफ्त सहूलियत दी है कि वे कुछ समय के भीतर उन्हें ईमेल पर ही अपना जवाब भेज दें. लेकिन कितने संपादक ऐसा करते हैं? जब आप ईमेल से रचनाएँ मँगाने का विकल्प देंगे तो ईमेल से भी रचनाएँ आएँगी ही. जब डाक या कूरियर से रचनाएँ पहुँचती थीं, तब भी यही कहा जाता था कि थोक के भाव में रचनाएँ पहुँचती हैं. संपादक रचनाओं की इस बढ़ी हुई आमद को इस तरह भी क्यों नहीं लेते कि आपकी पत्रिका में हर कोई छपने का गौरव हासिल करना चाहता है? 

आज मामूलीसे मामूली पत्रिका के संपादकीय पते के नीचे भी एक तो क्या दो–दो ईमेल पते छपे होते हैं, दो–दो मोबाइल/फोन नंबर छपे होते हैं और इंटरनेट पर भी पत्रिका के मौजूद होने की सूचना होती है. स्वयं रवीन्द्र कालिया जी के संपादकीय के शीर्ष और अंत में फेसबुक, ट्वीटर, ब्लॉग, गूगल प्लस यानी इसी सूचना क्रांति की हरेक दुकान पर पत्रिका और स्वयं उनकी उपलब्धता का सगर्व उदघोष है. फिर इस सूचना क्रांति की बदौलत रचनाओं की बढ़ी हुई आमद का रोना क्यों? संपादक इस सूचना क्रांति का इस्तेमाल और लाभ क्या केवल अपने तक ही सीमित रखना चाहते हैं? ये संपादक ही हैं जो आवश्यकता पड़ने पर लेखकों से फौरन ईमेल से ही रचनाएँ भेजने की गुहार करते हैं ताकि टंकण का समय बचे और झटपट रचनाएँ अंक में चली जाएँ. ये संपादक ही हैं जिन्हें ऐसे मौकों पर डाक से रचनाएँ पहुँचने–पाने का सब्र नहीं होता. यदि ईमेल की सुविधा के कारण रचनाओं की आमद बढ़ी है तो ये संपादक क्यों नहीं समझना–जानना चाहते कि आज स्पीड पोस्ट और कूरियर तो क्या, साधारण डाक भी बेहद महंगी और खर्चीली हो गई है. साधारण डाक के नहीं मिलने का खतरा या बहाना रहता है और स्पीड पोस्ट से पाँच से दस पृष्ठों में रचनाएँ भेजने में पचास से सौ रुपए तक का खर्च बैठ जाता है. ऊपर से पोस्टकार्ड, लिफाफों और कागज का भी खर्च जोड़ लीजिए. इतना खर्च करके भी रचनाएँ भेजने पर संपादक को इतनी तमीज नहीं होती कि रचनाओं के साथ आए पोस्टकार्ड पर ही प्राप्ति–सूचना और मंतव्य भेज दें ताकि लेखक को सहूलियत हो और वह किसी असुविधा या दुविधा से बच जाए.

कुछ संपादक अपनी पत्रिका के हरअंक में लेखक को ताकीद करते हैं कि रचनाओं के साथ अपना फोन नंबर, मोबाइल नंबर और ईमेल अवश्य दें. लेकिन वे न तो फोन, एसएमएस या ईमेल से लेखक को कोई सूचना देने का शिष्टाचार निभाते हैं और न ही लेखक को पत्र लिखकर कोई सूचना देने की जहमत उठाते हैं. कुछ संपादक यह ताकीद करते हैं कि यदि इतने महीने के अंदर स्वीकृति की सूचना नहीं मिले तो रचना अस्वीकृत समझें. लेकिन इतने तो क्या, कितने महीनों तक कोई सूचना नहीं मिलती और अचानक उसी पत्रिका में रचनाएँ छपी हुई मिलती है. इस बीच लेखक उन रचनाओं को अस्वीकृत मानकर अन्यत्र भेज चुका होता है, जहाँ वही रचनाएँ दुबारा छप चुकी होती हैं. कुछ संपादक यह ताकीद करते हैं कि रचनाएँ टाइप कराकर ही भेजें. लेकिन मैंने पाया है कि जब मैं हाथ से लिखकर रचनाएँ भेजता था तो उनके छपने पर उनमें प्रूफ और मुद्रण की गलतियाँ या तो एक भी नहीं होती थी या फिर बमुश्किल इक्की–दुक्की होती थीं. लेकिन जब से रचनाएँ टाइप करके और ईमेल से सॉफ्टकॉपी में भी भेजने लगा हूँ, तबसे उनके छपने पर उनमें एक नहीं, दो नहीं, तमाम गलतियाँ नमूदार होने लगी हैं. यानी संपादक रचनाओं की सॉफ्टकॉपी मँगाकर अपना काम आसान कर लेता है लेकिन प्रूफ पढ़ने में लापरवाही बरतना शुरू कर देता है. अब आप ही बताइए कि यह सब लेखकों के साथ संपादक द्वारा की गई ज्यादती नहीं तो और क्या है? ऐसे में लेखक यदि संपादक को पत्र, ईमेल या एसएमएस भेजकर अथवा अंतत: फोन करके अपनी रचनाओं की स्थिति जानना चाहता है तो इसमें हर्ज क्या है? यदि संपादक अपना फर्ज नहीं निभाए तो क्या लेखक को इतना भी हक नहीं कि वह संपादक से सीधे–सीधे पूछे कि कृपया साफ–साफ बताएँ कि आप मेरी रचनाएँ छाप रहे हैं या नहीं छाप रहे हैं?

आजकल पत्रिकाओं के संपादकीयकार्यालय में स्टाफ (टाइपिस्ट, प्रूफरीडर, सहायक संपादक आदि) की संख्याअमूमन कम ही होती है. ऐसे में हाथ से लिखी सामग्री की कंपोजिंग में ज्यादा समय और श्रम लगता है. ऐसी स्थिति में संपादक भी पेशेवर प्रकाशकों की तरह ही यही चाहते हैं कि उन्हें पत्रिका के लिए भेजी गई सामग्री की सॉफ्टकॉपी भी जरूर उपलब्ध हो जाए ताकि स्वीकृति की स्थिति में अथवा अंक छपने में हो रहे विलंब की स्थिति में सॉफ्टकॉपियों में मौजूद रचनाओं का ही सीधे इस्तेमाल कर लिया जाए, भले ही पूर्व में उस अंक में उन रचनाओं को शामिल करने की कोई योजना या मंशा नहीं हो. 

ऊपर जिन स्थितियों का मैंनेउल्लेख किया है, वह स्थितियों का एक सामान्य जायजा है. लेकिन हर जगह अपवाद होते हैं. यहाँ मैं अपवाद के तौर पर \’पहल\’ के संपादकश्री ज्ञानरंजन जी और \’वागर्थ\’ और \’नया ज्ञानोदय\’ के संपादक रहे श्री प्रभाकर श्रोत्रिय जी का विशेष रूप से उल्लेख करना चाहता हूँ. \’पहल\’ के लिएज्ञानरंजन जी को मैंने जब कभी अपनी रचनाएँ भेजी, उन्होंने तुरंत रचना–प्राप्ति की सूचना संलग्न पोस्टकार्ड पर या अपनी तरफ से पोस्टकार्ड लिखकर भेजी. इतना ही नहीं, अस्वीकृति की स्थिति में उन्होंने हरबार स्पष्ट कारण बताकर रचनाएँ लौटायी. कई बार रचनाएँ लौटाते हुए उन्होंने रचनाओं पर पर मार्गदर्शी संक्षिप्त टिप्पणी भी की यथा; रचनाएँ अभी कच्ची हैं, रचनाओं में भावुकता ज्यादा है आदि–आदि. दो बार तो उन्होंने एक–एक पृष्ठ लंबे पत्र लिखकर अपनी बात कही. उनसे इस प्रकार संवाद होने से किसी नए रचनाकार को कितना बल और प्रोत्साहन मिलता है, कितना मार्गदर्शन मिलता है, यह अलग से रेखांकित करने की जरूरत नहीं. जब भी उन्होंने मेरी रचनाएँ लौटाई, मुझे उनकी स्वीकृति से कहीं ज्याद खुशी हुई क्योंकि मुझे अपनी रचनाओं को दुबारा दुरूस्त करने की प्रेरणा मिली. मैंने रचनाओं के इस तरह लौटाए जाने पर जब उन्हें धन्यवाद दिया और आभार प्रकट किया तो उन्होंने एक बार अलग से पोस्टकार्ड लिखा– \’\’आम तौर पर यह मिजाज दुर्लभ है. लोग अन्यथा लेते हैं, रूठते हैं, जो गैर–रचनात्मक दृष्टि है. आपने बहुत सकारात्मक नजर से वस्तुस्थिति को लिया. आपकी आत्मालोचनाएँ और समय की धड़कनें आपको बचाएँगी और आपके बीजतत्व का सही तरह से पोषण करेंगी. लिखना स्वय में एक चुनौतीपूर्ण कार्य है. आपको मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ.\’\’ एक संपादक के रूप में उनका यह स्नेहपूर्ण और मार्गदर्शी व्यवहार अनूठा था. अब किसी संपादक से ऐसी सदाशयता और विनम्रता की उम्मीद करना बेमानी है. अब तो न्यूनतम (अपेक्षित) शिष्टाचार भी दुर्लभ हो गया है. 

इसी तरह प्रभाकर श्रोत्रिय जी ने\’वागर्थ\’ के \’नई कलम\’ स्तंभ में मुझे छापा तो स्वीकृति

भेजते हुए एक बहुमूल्य टिप्पणी लिख भेजी– \’\’संवेदना आपकी गहरी है. हाँ, शब्द बहुत खर्च किए गए हैं. कहीं–कहीं यह फैलाव कम करना होगा.\’\’ और एक बार मेरी कुछ लंबी रचनाएँ लौटाते हुए एक छोटे–से पत्र में उन्होंने लिखा– \’\’छोटी, सांकेतिक और सरलता से संप्रेषित, मर्मस्पर्शी कविताएँ भेजिए. लंबी कविताओं में गद्यात्मक इतिवृति से उसका स्थूल रूप सामने आता है और बीच–बीच की तीखी, मार्मिक पंक्तियाँ उसमें कहीं छिप जाती हैं. हमारा आवेग, हमारी चिंता उतनी ही मार्मिकता से पाठकों तक पहुँचनी चाहिए.\’\’ एक संवेदनशील आलोचक और जिम्मेदार संपादक द्वारा की गई यह टिप्पणी मेरा आज भी रचनात्मक मार्गदर्शन कर रही है. क्या आज कोई संपादक हजारों रचनाओं पर विचार करने की भारी व्यस्तता और दबाव में भी ऐसी सकारात्मक संपादकीय सदाशयता दर्शाता है और दूर–दराज के अनजान लेखकों से भी इतना विनम्र व्यवहार करता है? 

दरअसल आजकल संपादकों में ऐसी संपादकीय सदाशयता, विनम्रता और न्यूनतमशिष्टाचार के भी लगभग लोप हो जाने का मूल कारण रचनाओं की बेशुमार बढ़ी हुई आमद नहीं, बल्कि अपनी निजी पसंद की रचनाओं और इससे भी कहीं अधिक, निजी पसंद, खेमे, गुट या कार्टेल के लेखकों की सहज उपलब्धता है. आजकल अधिकांश पत्रिकाएँ दिल्ली से ही निकलती हैं और उन पत्रिकाओं में दिल्ली में निवास कर रहे छोटे–बड़े तमाम लेखकों की मौजूदगी और दबिश अपेक्षाकृत कहीं ज्यादा है. ऐसे लेखकों का इन पत्रिकाओं के संपादकों से परिचय और संपर्क कुछ ज्यादा ही घना होता है. फिर संपादकों को भी इन लेखकों से फौरी तौर पर रचनाएँ जुटाने में अपेक्षाकृत ज्यादा सहूलियत और आसानी होती है. ऐसे लेखकों को अपनी रचनाओं पर संपादकों की राय या निर्णय से अवगत होने के लिए लंबी प्रतीक्षा भी नहीं करनी पड़ती क्योंकि संपादक या तो सीधे उनसे रचनाएँ माँग लेते हैं या प्रत्यक्ष भेंट या फोन पर बातचीत में उन्हें अपना मंतव्य बता देते हैं अथवा उनसे तत्काल दुबारा रचनाएँ मँगवा लेते हैं. ऐसे में दूर–दराज से आई रचनाएँ अमूमन लंबे समय तक अनिर्णित ही पड़ी रह जाती हैं और उनपर संपादक मशक्कत करने की जहमत भी नहीं उठाते. दिल्ली से बाहर के जो लेखक संपादक के सक्रिय संपर्क में रहते हैं, उनकी रचनाओं पर संपादक महोदय जरूर पहले गौर फरमाने का कष्ट कर लेते हैं. 

आजकल पत्रिकाओं को औरएक रोग लगा हुआ है, वह है विशेषांक निकालने का रोग. पिछले पाँच–दस वर्षों में विशेषांक निकालने का यह रोग महाविशेषांक निकालने के महारोग में तब्दील हो गया है. दिमाग पर बस जरा–सा जोर डालिए और आपके सामने विशेषांकों–महाविशेषांकों की लंबीऽऽऽऽ फेहरिस्त नमूदार हो जाएगी– युवा विशेषांक, युवा लेखन विशेषांक, युवा कविता विशेषांक, युवा कहानी विशेषांक, युवा आलोचना विशेषांक, आलोचना विशेषांक, उपन्यास विशेषांक, स्त्री लेखन विशेषांक, दलित लेखन विशेषांक, आदिवासी लेखन विशेषांक, फलां लेखक विशेषांक, फलां कथाकार विशेषांक, फलां कवि विशेषांक, फलां आलोचक विशेषांक, मीडिया विशेषांक, किसान विशेषांक, मजदूर विशेषांक, पिता विशेषांक, माँ विशेषांक, गीत विशेषांक, गजल विशेषांक, व्यंग्य विशेषांक, अनुवाद विशेषांक, साठोत्तरी लेखन विशेषांक, लॉन्ग नाइन्टीज विशेषांक, भारत–पाक विभाजन विशेषांक, स्वाधीनता विशेषांक, उत्तर भारत विशेषांक, दक्षिण भारत विशेषांक, पश्चिम भारत विशेषांक, पूर्वोत्तर भारत विशेषांक, उर्दू विशेषांक, बांग्ला विशेषांक, उड़िया विशेषांक, पंजाबी विशेषांक, मराठी विशेषांक, डोगरी विशेषांक, गुजराती विशेषांक, मैथिली विशेषांक, नेपाली विशेषांक, खाड़ी देश विशेषांक, मुस्लिम देश विशेषांक, पाकिस्तानी विशेषांक, अफगानी विशेषांक, उत्तराखंड विशेषांक, झारखंड विशेषांक, बुंदेलखंड विशेषांक, विदर्भ विशेषांक, प्रेम महाविशेषांक, बेवफाई महाविशेषांक, गजल महाविशेषांक आदि–आदि–आदि….. वैसे आप अपनी कल्पनाशीलता और सामर्थ्य से इस फेहरिस्त को और अधिक दूर तक बढ़ा सकते हैं. स्वयं रवीन्द्र कालिया जी ने बतौर संपादक विशेषांक–महाविशेषांक निकालने के इस महारोग का सर्वाधिक पोषण–दोहन किया है. \’नया ज्ञानोदय\’ के जिस अंक के संपादकीय ने मुझे यह सब लिखने को प्रेरित किया, वह अंक भी \’\’पंजाब सिंध गुजरात मराठा द्रविड़ उत्कल बंग विशेषांक\’\’ है. और इसीअंक में आगामी यानी मई, 2014 के अंक के बारे में भी भारी–भरकम उदघोषणा है कि अगला अंक भी विशेषांक ही होगा. \’\’सरहद विशेषांक\’\’.. मानो रवीन्द्र कालिया जी \’नया ज्ञानोदय\’ के नएसंपादक श्री लीलाधर मंडलोई जी को भी ताकीद करते जा रहे हों– \’\’यह महारोग पाल लो. बड़े सुखी रहोगे..\’\’ 

इन औरऐसे सैकड़ों विशेषांकों–महाविशेषांकों से अघाये–उकताये पाठकों को अचरज नहीं करना चाहिए यदि उन्हें निकट भविष्य में इस महारोग की कुछ और छटाएँ देखने को मिले और उनके हाथों में कर्मठ–कल्पनाशील संपादक मर्द विशेषांक, औरत विशेषांक, कुँआरा विशेषांक, कुँआरी विशेषांक, शादीशुदा विशेषांक, तलाकशुदा विशेषांक, पति विशेषांक, पत्नी विशेषांक, सिंगल विशेषांक, गे विशाषांक, लेस्बियन विशेषांक, यौन महाविशेषांक, घृणा महाविशेषांक, हरजाई महाविशेषांक आदि–आदि जैसे नायाब तोहफे पकड़ा दें.  

दरअसल विशेषांक–महाविशेषांक निकालने में संपादकों को सबसेबड़ी सहूलियत यह होती है कि उन्हें पत्रिका के लिए आई रचनाओं के अंबार में से रचनाएँ चुनने–बीनने–छाँटने की मशक्कत या मगजमारी नहीं करनी पड़ती. बस विशेषांक या महाविशेषांक का विषय या व्यक्ति तय किया और इस विषय या व्यक्ति पर केंद्रित विशेषांक–महाविशेषांक में \’फिट\’ बैठने वाले लेखकों से रचनाएँमँगवा ली. फोन, एसएमएस, ईमेल आदि तो है ही हाथ में. बस मनमाफिक लेखकों से संपर्क करना है, झटपट रचनाएँ डाक से नहीं, ईमेल से मँगा लेनी है और लीजिए, विशेषांक–महाविशेषांक हो गया तैयार. कुछ संपादक तो इस महारोग से इस कदर ग्रस्त हैं कि वे तो साल के बारहों महीने (बारहों अंक) विशेषांक ही निकालने को उतारू दिखते हैं. यदि ऐसा वे नहीं कर पाते तो हर दूसरा अंक तो कम से कम कोई न कोई विशेषांक होगा ही. अब ऐसे में कोई संपादक सामान्य अंकों के लिए सामान्य तौर पर भेजी गई रचनाओं पर विचार करने की जहमत क्यों उठाएगा? यदि रचनाएँ भेजने वाला कमबख्त लेखक संपादक से पूछने की गुस्ताखी कर ही बैठा कि मेरी रचनाओं का क्या हुआ तो ऐसे संपादक का माकूल जवाब तैयार होता है– \’\’भई, ऐसा है कि हम अभी लगातार विशेषांक निकालने जा रहे हैं. लगातार कई विशेषांकों–महाविशेषांकों की हमारी योजना है. अभी आपकी रचनाओं के लिए गुंजाइश नहीं है. सामान्य अंक जब निकलेगा, तब देख लेगें.\’\’ अब भलाहर अंक या हर दूसरा अंक ही विशेषांक हो, महाविशेषांक हो तो सामान्य अंक की बारी ही कब आएगी? 

इन विशेषांकों–महाविशेषांकों परआप जरा गौर करें तो आप सहज ही पाएँगे कि ऐसे उपक्रम दस–बीस–तीस बड़े नामों को जुटाने के उपक्रम भर ही हैं. और इस प्रकार के आयोजनों के पीछे संपादक की एक ही मंशा होती है कि इन पर खूब चर्चा हो. चर्चा न हो तो विवाद जरूर ही हो. कहने की जरूरत नहीं कि आजकल पत्रिकाओं का \’विवाद–प्रेम\’ कुछ ज्यादा ही बढ़गया है. लेखक–परिचय प्रकरण, छिनाल प्रकरण, शालिनी माथुर प्रकरण, महुआ माजी प्रकरण वगैरह–वगैरह तो पाठकों को याद ही होगा. इन विशेषांकों में और एक बात बहुत \’कॉमन\’ दिखती है, वह हैएक ही प्रकार के लेखक–समूहों का इस प्रकार के आयोजनों में हर बार शामिल होना. उदाहरण के लिए यदि आप युवा कहानी विशेषांक ले लें तो आप पाएँगे कि पत्रिका के पहले वर्ष तो क्या, लगातार तीसरे वर्ष भी प्रकाशित युवा कहानी विशेषांक में अमूमन वही–वही युवा कहानीकार ही छपे मिलेंगे. इससे यह बात तो जाहिर हो जाती है कि संपादक या तो अपनी सहूलियत के लिए उन्हीं–उन्हीं रचनाकारों को बार–बार छाप रहा है या संपादक बस अपने संपर्क और परिचय के दायरे में आने वाले रचनाकारों को ही पत्रिका में जगह दे रहा है या फिर संपादक इस स्वपरिभाषित–स्वनिर्धारित समूह के बाहर के युवा रचनाकारों को रचनाकार मानने को ही तैयार नहीं है अथवा वे संपादक की पसंद को पोषित नहीं करते. यहाँ एक बात और गौर करने लायक है कि कई युवा विशेषांकों में अठारह तो क्या, अड़तालीस बरस के रचनाकार भी शामिल होते हैं. वैस भी हिंदी साहित्य में युवा लेखकों के निर्धारण और चयन में लंबे समय से घालमेल या कहें, सुविधानुकूल घालमेल चलता आ रहा है. 

इन विशेषांकों–महाविशेषांकों मेंऔर एक बात गौर करने लायक है कि जिन दस–बीस–तीस नामी–गिरामी लेखकों को बार–बार यत्र–तत्र–सर्वत्र छापा–परोसा जाता है, उनकी सभी रचनाएँ हर बार उत्कृष्ट नहीं होतीं. कई बार आपको इनकी बेहद सामान्य या औसत रचनाएँ भी पढ़ने को मिल जाएँगी. अब गुलजार को ही लें. वे \’नया ज्ञानोदय\’ के सामान्यअंकों से लेकर विशेषांकों–महाविशेषांकों में शर्तिया मिलेंगे. गुलजार बेशक बड़ा नाम हैं और उन्हें हिंदी सिनेमा में महत्वपूर्ण योगदान के लिए अभी–अभी दादा साहेब फाल्के पुरस्कार दिए जाने की घोषणा भी हुई है, लेकिन मुझे लगता है, उनका नाम शामिल करने के लालच में कई बार उनकी बेहद सामान्य रचनाएँ भी शामिल कर ली जाती हैं. आशय यह कि जैसे अमिताभ बच्चन बेशक सदी के महानायक कहे–माने जाते हों लेकिन यह जरूरी तो नहीं कि उनकी हर भूमिका, हर अदा या हर फिल्म काबिले–तारीफ ही हो. वैसे अब हिंदी साहित्य की अधिकांश शीर्ष पत्रिकाओं के शीर्ष संपादक रचनाओं का चयन करने की बजाय सीधे रचनाकारों यानी नामों का चयन करने में ज्यादा रूचि लेने लगे हैं. नतीजा यह है कि अब शीर्षस्थ और स्तरीय या कहें नामी–गिरामी पत्रिकाओं में भी घटिया रचनाएँ देखने को मिल जाती हैं. हिंदी साहित्य की तमाम छोटी–बड़ी, लघु–बृहत पत्रिकाएँ धुर वामपंथ, धुर दक्षिणपंथ, धुर मध्यमार्ग, किसी न किसी गुट या खेमे अथवा फलां वाद–फलां विवाद की स्थायी शिकार तो होती ही जा रही हैं. 

आजकल हिंदी सहित्य जगत में और एकचलन जोर पकड़ता जा रहा है. जैसे फिल्म जगत के अभिनेता–कलाकार कुछ समय बाद निर्देशक (डायरेक्टर) या निर्माता–निर्देशक (प्रोड्यूसर–डायरेक्टर) बन जाते हैं, वैसे ही इधर कुछ वर्षो से हिंदी साहित्य जगत के कई युवा लेखक भी सांपदक, प्रकाशक या संपादक–प्रकाशक में तब्दील होते जा रहे हैं. आप अपनी चारों ओर बस थोड़ा–सा नजर दौड़ाएँ, आपको ऐसे कई लेखक नजर आ जाएँगे जो हाल के वर्षों में संपादक, प्रकाशक या संपादक–प्रकाशक के रूप में कायांतरित हो गए हैं. पुराने लेखकों में ज्ञानरंजन–रवीन्द्र–अखिलेश की तिकड़ी इस प्रकार के सफल कायांतरण का नायाब उदाहरण तो है ही. कुछ विराम और अंतराल के बाद, हिंदी साहित्य जगत में नई–नई पत्रिकाओं के प्रकाशन का भी सिलसिला फिर चल पड़ा है. ये नई–नई पत्रिकाएँ तमाम भारी–भरकम और कद्दावर पत्रिकाओं की तरह स्वयं को भी लघु पत्रिकाओं के रूप में पेश कर रही हैं. लेकिन मुझे एक बात समझ में नहीं आती कि ये तथाकथित लघु पत्रिकाएँ जब सौ–सवा सौ पन्नों की नहीं, बल्कि तीन–तीन, चार–चार सौ पन्नों तक की होती हैं तो फिर ये स्वयं को लघु पत्रिका कहलाना क्यों पसंद करती हैं? ऊपर से ये लघु पत्रिकाएँ नियमित नहीं, अनियतकालीन होती हैं. 

यदि आप गौरकरें तो स्थापित–प्रतिष्ठित पुरानी लघु पत्रिकओं से लेकर नई और कम स्थापित लघु पत्रिकाओं के हरेक अंक में कई सरकारी और निजी विज्ञापन होते हैं. यदि औसत अनुमान लगाएँ तो हरेक अंक में कम से कम एक से डेढ़–दो लाख रुपए तक के ये सरकारी–निजी विज्ञापन जरूर होते हैं. यदि एक अंक के प्रकाशन और वितरण में इस विज्ञापनी आय की आधी रकम यानी पचास से पचहत्तर हजार रुपए भी खर्च हो जाते हैं, तब भी कम से कम पचास से पचहत्तर हजार रुपए की बचत या कमाई प्रति अंक तो हो ही जाती है. इन लघु पत्रिकाओं के संपादक इतने कर्मठ तो होते ही हैं कि वे पाठकों से हरेक अंक के दाम अथवा वार्षिक/आजीवन शुल्क कमोबेश वसूल कर ही लेते हैं. फिर मुझे यह बात भी समझ में नहीं आती कि ये फिर आर्थिक तंगी का रोना क्यों रोते हैं? अब तो केंद्रीय हिंदी संस्थान से भी कई–कई पत्रिकाओं को आर्थिक अनुदान मिल रहे हैं और दिल्ली सरकार भी पत्रिकाओं को विज्ञापन देकर आर्थिक सहायता कर रही है. गौरतलब है कि इन पत्रिकाओं के संपादक प्रिंटर, बाइंडर से लेकर कूरियर–डाक तक को पैसे देने में कोई कोताही नहीं करते लेकिन लेखकों को मानदेय स्वरूप अठन्नी भी नहीं देना चाहते. सरकारी और निजी संस्थाओं/व्यवसायी घरानों से निकलने वाली पत्रिकाओं को छोड़कर यदि कोई अपवाद हों तो उनसे अग्रिम माफी चाहता हूँ और उनसे निवेदन करता हूँ कि कृपया वे मेरी इस अज्ञानता को दूर करें. 

हिंदी साहित्य जगत में और एकबात बहुत जोर–शोर से बार–बार दुहरायी जाती है कि पत्रिकाओं की अपेक्षित बिक्री नहीं हो पाती. भाई, पाठक एक साथ कितनी–कितनी पत्रिकाएँ खरीदेगा? खरीद भी ले तो एक साथ कितनी–कितनी पत्रिकाएँ पढ़ेगा? एक मासिक साहित्यिक पत्रिका की कीमत कम से कम तीस रुपए होती है और तथाकथित लघु पत्रिकाओं की कीमत पचास से सौ रुपए प्रति अंक होती है. फिर एक साधारण पाठक रोजमर्रा की जरूरतों के अलावा इन पत्रिकाओं पर कितना खर्च करेगा? फिर कई पत्रिकाएँ इंटरनेट पर भी उपलब्ध हैं. जिनकी क्रयशक्ति अगाध–अपार है, उनकी रूचि हिंदी साहित्य में कितनी (कम) है, यह तो जगजाहिर ही है. लेकिन आजकल संपादक भी हिंदी के प्रकाशकों की तरह ही राग अलापने लगे हैं. यानी सरकारी खरीद में बेची गई ऊँची–ऊँची कीमतों वाली किताबों से मोटा–मोटा मुनाफा कमाने वाले \’साहित्यानुरागी–साहित्यसेवी\’ प्रकाशकों की तरहऐसे तमाम संपादक भी बस साहित्य सेवा, नहीं–नहीं, \’निस्वार्थ साहित्य सेवा\’ ही तो कर रहे हैं. \’यश–धन–संपर्क\’ से समृद्ध होने की कामना थोड़े न है उनकी. लेकिन जनाब. ये पब्लिक है, सब जानती है. इसलिए नो उल्लू बनाविंग.. नो उल्लू बनाविंग…

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संपर्क:
राहुल राजेश, ए-1/12, आरबीआई ऑफिसर्स कॉलोनी,
वेजलपुर रोड, वासणा, अहमदाबाद-380 007 (गुजरात).  
मोबाइल नं. 09429608159.
ईमेल– rahulrajesh2006@gmail.com 
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