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Home » पूनम अरोड़ा की कविताएँ

पूनम अरोड़ा की कविताएँ

पूनम अरोड़ा कहानियाँ और कविताएँ लिखती हैं, नृत्य और संगीत में भी गति है. कविताओं की  भाषा और उसके बर्ताव में ताज़गी और चमक है. बिम्बों की संगति पर और ध्यान अपेक्षित है. उनकी पांच कविताएँ आपके लिए पूनम   अरोड़ा   की   कविताएँ         (एक) एक रात के अलाव से जो लावा निकला था […]

by arun dev
November 23, 2018
in कविता
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पूनम अरोड़ा कहानियाँ और कविताएँ लिखती हैं, नृत्य और संगीत में भी गति है. कविताओं की  भाषा और उसके बर्ताव में ताज़गी और चमक है. बिम्बों की संगति पर और ध्यान अपेक्षित है.

उनकी पांच कविताएँ आपके लिए
पूनम   अरोड़ा   की   कविताएँ        





(एक)

एक रात के अलाव से
जो लावा निकला था
उसने अबोध स्त्री के माथे पर शिशु उगा दिया
शिशु जब-जब रोया
अकेला रोया
अबोध स्त्री के हाथ अपरिपक्व थे और स्तन सूखे
किसी बहरूपिये ने एक रात एक लम्बी नींद स्त्री के हाथ पर रख एक गीत गाया
शिशु किलकारी मारने लगा
देवताओं ने चुपचाप सृष्टि में तारों वाली रात बना दी
गीत गूँजता रहा सदियों तक
अबोध स्त्रियाँ जनती रहीं कल्पनाओं के शिशु और बहरूपिये पिता सुनाते रहे
समुद्री लोरियाँ.

(दो)

मेरा बचपन गले तक भरा है
रक्तिम विभाजन के जख्मों से
मैंने इतनी कहानियां सुनी हैं नानी से सात बरस की उम्र से
कि अब वो गदराए मृत लोग चुपचाप बैठे रहते हैं मेरी पीठ से पीठ टिकाकर
वो कहते हैं फुसफुसा कर
कि रक्त का हर थक्का जम गया था कच्ची सड़कों, चौराहों और सीमेंट की फूलदार झालरों के फर्श पर
जिसकी जात का फंदा टूटा था
हमारे ऊंट जिन पर लदा था
मुल्तान के डेरा गाजी खां की हॉट को ले जाने वाला सामान
बढ़िया खजूर, मुन्नका और अखरोट
वे सब भी रक्त के मातम में भीड़ के पैरों तले कुचले जा रहे थे
एक नई दुल्हन थी \’अर्शी\’
जिसके खातिर अरब से पश्मीना मंगवाया था उसके दूल्हे ने
मेरे व्यापारी पुरखों से
कहता था इसे पहन कर
वो सर्दी में बिरयानी और गोश्त पकाएगी
सिंध नदी के पास के क़स्बे से आये उसके व्यापारी मित्रों के लिए
सुबह माँ को सावी चाय देने जाते हुए
इसी शहतूती रंग के पश्मीना से सर को ढकेगी
और रात में इसी का पर्दा हटाएगी अपनी भरी छातियों पर से
इन कहानियों को बरसों बीत गए
और मैं कविताएं लिखते हुए
कभी-कभी हल्का दबाव महसूस करती हूँ अपनी पीठ पर
सूरज रोज़ एक तंज करता है
कि मैंने कितनी कहानियां और अपने पुरखों की पीली आँखे भुला दी
मैं सोचती हूँ
क्या सच में ऐसा हुआ है.

(तीन)

बचपन में हर एक चीज को पाना बहुत कठिन था मेरे लिए
सलाइयाँ चलाते हुए
अपनी उम्र की ईर्ष्या से मैं हार जाती थी
अपनी छोटी चाहतों में मैं अक्सर खाली रहती थी
मेरे गायन-वादन सुगंधहीन और आहत थे
यहाँ तक कि मेरा पसंदीदा
सफेद फूल वाला पौधा भी
मुझे दुःख में ताकता था
सफ़ेद से नाता था तो वो केवल तारे थे
जो ठीक मेरे सर के ऊपर उगते थे हर रात
एक सुराही जो रहस्यमय हो जाती थी रात को
मेरी फुसफुसाहट के मोरपंखी रंग
उसके मुंह से उसके पेट में चले जाते थे
माँ कहती ये सुराही रात में ही ख़ाली कैसे हो जाती है
मेरा अवचेतन अपने मुँह को दबाकर
हँसने की दुविधा को
पूरी कोशिश से रोकता था
मैं कहना चाहती थी जो काम तुम नहीं करती
वो सुराही करती है मेरे लिए
स्वप्न जो स्वप्न में भी एक स्वप्न था
मेरे बचपन में भटकता था वो स्वप्न अक्सर
खिड़की से झांकता
छिपकली की पूंछ से बंधा
उस दीवार पर मेरे साथ तब तक चलता
जब तक मैं ऊंचाई का अंदाज़ा नहीं लगा लेती थी
मुझे नहीं पता था कि मृत्यु
ऐसे ही मोड़ पर किसी जोकर की तरह मुग्ध करती है हमें
बेहोशी से पहले
मेरी कल्पनाएं भयभीत होकर निढाल होना चाहती थीं
मुझे घर के सब रंग पता थे
फिर भी
मैं उन्हें किसी और रंग में रंगना चाहती थी
किसी ऐसे रंग में
जिसमें पिता के दुष्चरित्र होने की जंगली खुम्ब सी गंध न हो
न हो उसमें माँ की वहशी नफरत पिता के लिए
सारे तारे जब सो जाते तो जागता था एक साँप और परियाँ
तीन पहर मेरी कल्पनाओं के और चौथा पहर
मेरी अस्तव्यस्त नींद का
जागने और सोने के बीच का
वो असहाय और बेचैन पल
जब मुझे दिखायीं देती थीं
आसमान में उड़ती परियाँ
और छत पर बेसुध पड़ा एक बांस का डंडा
जो हर रात
एक साँप में तब्दील हो जाया करता था
डर ज़रूरी था मेरी नींद के लिए
डर बहुत ही आसानी से चले आने वाला
एक शब्द था मेरी स्मृतियों के लिए
स्मृतियां, जिनमें भूखे कुत्ते
अपनी काली आत्मा के लाल होंठो से
नई कच्ची छातियाँ चूसते थे
स्मृतियां,जिनमें ज़िस्म पर चलते
लिसलिसे केंचुएं थे.
जिन्हें भीड़ में सरक कर नितम्ब छूना
किसी हसीन दुनिया में स्खलन करने सा लगता
अनजानी ग्लानियों के पार जाने का कोई पुल नहीं होता
होता है तो केवल वो क्षण जिसे जीते हुए
हमें याद आते रहें पिछले पाप
पापों से गुज़रना सरल है
लेकिन सरल नहीं है उनको सहेज कर रखना
दो दुनिया चलती रही मेरे साथ
दो आसमान और दो सितारे भी
अब तक कितने ही बिम्ब और उपमाएं
चली आईं कविता में
लेकिन मैं सोचती हूँ
कितनी बड़ी कीमत चुकाई है मेरी स्मृतियों ने बचपन खोने में
हम अक्सर चूक जाते हैं
उस अपरिहार्य पल को चूमने से
जिसके आँसू पर हम बेरहमी से रख देते हैं अपने जूते.

(चार)

मैं तुम्हें दोष नहीं दूंगी
कि आज मेरे कमरे में
जो घना अंधेरा साँप की तरह रेंग रहा है
उसका बोझ धीरे से
बहुत धीरे से और चुपचाप
तुम्हारे उज्ज्वल निश्चयों की प्रतिध्वनि बन गया
यह भी सच है कि
तुमने सरोवर में खिलते कमल देखें होंगे
और तभी से रंगों में सोना तुम्हारी आदत में आया होगा
मुमकिन यह भी है कि
तभी तुमने मेरी तरफ कभी न देखने के अनजान भ्रम को
बाज़ार में दुकानों में गिरा दिया होगा
फिर एक दिन
किसी आक्रामक सिरहन ने तुम्हें कहा होगा
नींद के साथ नींद सोती है
और परछाई के पास परछाई अपनी आवाज़ लिखती है
सूक्ष्म जीवों के पास कोई भेस नहीं होता
जैसे चरित्र बदल जाते हैं ध्वनि, प्रकाश और संवादों के मध्य
और देह तैरने देती है ख़ुद को कामोद्दीप्त यज्ञ में
मैं बहुत दिनों से इस असमंजस में हूँ
कि तुमसे कहूँ
ले जा सकते हो तुम मेरी सघन देह का प्रत्येक प्रतिमान
और अनेक प्रसंगों से पुता
जड़ हुआ अभिमान
छलकना अगर कोई सीखता
तो मैं कहती
तुम बेपरवाह और मीठे जल का एक ख़्याल हो
मेरी त्वचा की उत्सुक और मोम में लिपटी उदासियाँ
क्या आ सकती हैं
तुम्हारे किसी काम?

(पांच)

मन भिक्षुणी होना चाहता है
नंगे पांव सुदूर यात्रा पर निकलना चाहता है
हड़बड़ाहट में बेसाख्ता किसी व्यंग्य पर हैरान होना चाहता है
किसी एक हस्तमुद्रा पर ध्यान लगाकर
अपने अतीत के रेशम में
वो नर्म कीड़े खोजना चाहता है
जिन्होंने संसार में अपनी आस्था रखी थी
टापुओं की ठंडक में ह्रदय अपनी आँखें वहीं छोड़ आता है
आग बनकर किसी पूर्व की स्मृति में
देर तक खुद को आहूत करता हुआ.
समुद्री भाषा रात भर देह पर सरसराहट करती है
यह तलाश के क्या नये बिंदु नहीं मन पर
निस्तब्ध ख्याली मन
शोक में चांदी का एक तार बुनता रहता है
सो चुकी मकड़ियां ऐसा तार नहीं बुन पाती
न ही जागने पर वे शोकगीत गाती हैं
मीलों तक माँ अकेली चलती दिखाई देती है.
रोशनी की एक बारीक लकीर पर.
और मुझे याद भी नहीं रहता
कि मैं उसे पा रही हूँ या खो रही हूँ
पांच हज़ार वर्ष पूर्व में
किसी स्त्री की एक \’आह\’
आज भी स्त्रियों के कंठों में अटकी है
प्रश्न वहीं के वहीं है
स्थिर और ठिठके
मुख के विचलित भावों में
एक चिड़िया सी सुबह तब मेरी दीवार पर बैठ जाती है
जब एक मोरपंख मेरी पीठ को  सहलाता है
और मैं नीला कृष्ण बन जाती हूँ
मेरे वश के सभी प्रश्न
एक स्पर्श मात्र से पिघल जाते हैं.
_________

पूनम अरोड़ा ( २६ नवम्बर, फरीदाबाद हरियाणा में निवास) श्री श्री नाम से भी लेखन करती हैं. इतिहास और मास कम्युनिकेशन में स्नातकोत्तर उपाधियाँ. हिंदी स्नातकोत्तर अंतिम वर्ष की पढ़ाई कर रही हैं. नेचुरोपैथी के अंतर्गत हीलिंग मुद्रा और योग में डिप्लोमा कोर्स किया है. कुछ समय के लिए मॉस कम्युनिकेशन फैकल्टी के तौर पर अध्यापन भी किया है. भारतीय शास्त्रीय नृत्य भरतनाट्यम की विधिवत शिक्षा ली है. पूनम ने कहानी, कविता को संगीत के साथ मिलाकर अपनी आवाज में कई रेडियो शो भी किये हैं.
इनकी दो कहानियों \’आदि संगीत\’ और \’एक नूर से सब जग उपजे\’ को हरियाणा साहित्य अकादमी का युवा लेखन पुरस्कार मिल चुका है. 2016 में एक अन्य कहानी \’नवम्बर की नीली रातें\’ भी पुरस्कृत है और वाणी प्रकाशन से प्रकाशित एक किताब में संकलित हुई है. कविता, कहानियां, आलेख आदि देश की महत्वपूर्ण पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं.
संपर्क : shreekaya@gmail.com

Tags: कवितापूनम अरोड़ा
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