अर्चना लार्क कविताएं लिख रहीं हैं, और बेहतर लिखेंगी यह इन कविताओं को पढ़ते हुए लगता है.
अर्चना लार्क की कविताएँ
बेटी का कमरा
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एक दिन नहीं बचता बेटियों का कमरा
बहू के कमरे में चक्कर लगातीं
सवालिया शिकन को नजरंदाज कर भरसक खिलखिलाती हैं
उनके कमरे उनके नहीं रह जाते
कमरे का कोना देख याद आता है
आँख मिचौनी का खेल
वहीं अलमारी में रखी वह तस्वीर जिससे माँ ने कभी डराया था
सहेली को लँगड़ी फंसा कर गिरा देने पर बड़ी देर तक घूरती रही थी वह तस्वीर
बाबा की परछाईं कोने में रह गई है
माँ के बगल में सोने की लड़ाई आज भी कमरे में खनकती है
माँ के पेट पर ममन्ना लिखना और पेट पर फूंक मारना
माँ ने मान ही लिया है
अब किसी कोने में हो जाएगा उसका गुजारा
तो बेटियों का क्या है ससुराल में
कि हो उनका कोई कमरा.
एक मिनट का खेल
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एक मिनट का मौन
जब भी कहा जाता है
हर कोई गिन रहा होता है समय
और फिर मौन बदल जाता है शोरगुल में
एक मिनट का मौन
ग़ायब हो जाता है
सिर्फ एक मिनट में
अपने शव के पास उमड़ी भीड़ को देख व्यक्ति और मर जाता है
मृत्यु वाकई पहला और अंतिम सत्य है
और माफ़ करें मुझे मरने में ज़रा समय लग गया.
होना होगा
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आँसू को आग
क्षमा को विद्रोह
शब्द को तीखी मिर्च
विचार को \’मनुष्य\’ होना होगा
खारिज एक शब्द नहीं \’हथौड़ा\’ है
\’मादा\’ की जगह लिखना होगा सृष्टि
मुहब्बत
मज़बूती
जीने की कला,
शीशे की नोक पर जिजीविषा.
मनुष्य \’लिखना\’ नहीं
मनुष्य \’होना\’ होगा.
भदेस प्रेम
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नहीं चाहती मुझे प्रेम हो
हँस पड़ती थी
अपने ही बनाए चुटकुले पर
और लगातार हँसती जाती थी उन सहेलियों पर
जिन्होंने कर लिया था प्रेम
एक पान मुँह में चबाए
गिलौरी बगल में दबाए
होठों के कोरों से रिसते लार को बार बार समेटते
वे अपनी फूहड़ आवाज़ और अंदाज़ में
न जाने क्या समझाते रहते हैं
अपनी प्रेमिकाओं को
त्रिवेणी संगम के पास
प्रेमिकाएँ बनी-ठनी
आतुर निगाहों से
अपलक अनझिप
प्रेमी को निहारती रहती हैं
कोई कैसे पड़ सकता है प्रेम में
न लड़ाई न बहस
न अपेक्षा न उपेक्षा
देर तक होती थी इनके बीच घर गाँव की बातें
कितनी बार रोते देखा है इन प्रेमी जोड़ों को
हर जोड़े के यहाँ
मिट्ठू पनिहार और काकी मिल ही जाती थीं
संवाद के लिए
क्या मेरे लिए भी है कहीं मेरा प्रेम.
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अर्चना लार्क
(जन्म सुल्तानपुर)
कुछ कविताएँ प्रकाशित
फ़िलहाल दिल्ली में रहती हैं.
archana.tripathi27@gmail.com
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