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Home » महेश आलोक की कविताएँ

महेश आलोक की कविताएँ

 उम्र पकने के साथ-साथ प्रेम भी परिपक्व होता चलता है, वह देह से कम देखभाल में ज्यादा प्रकट होता है.  वृद्ध जोड़ो  की प्रेम कविताएं हिंदी में इतनी कम लिखी गयीं हैं कि एक संग्रह बनाना चाहें तो मुश्किल होगी. महेश आलोक  वरिष्ठ कवियों में आते हैं इधर उन्होंने कुछ ऐसी कविताएँ लिखीं हैं. इन […]

by arun dev
June 22, 2021
in कविता, साहित्य
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उम्र पकने के साथ-साथ प्रेम भी परिपक्व होता चलता है, वह देह से कम देखभाल में ज्यादा प्रकट होता है.  वृद्ध जोड़ो  की प्रेम कविताएं हिंदी में इतनी कम लिखी गयीं हैं कि एक संग्रह बनाना चाहें तो मुश्किल होगी. महेश आलोक  वरिष्ठ कवियों में आते हैं इधर उन्होंने कुछ ऐसी कविताएँ लिखीं हैं.


इन कविताओं की प्रेम  की सादगी मन में बस जाती है. ‘पत्थर राग’ कविता विशेष ध्यान खींचती है, जैसे यह हमारा समय हो.

 

 

 

महेश आलोक की कविताएँ

 

१.

एक बुजुर्ग की आत्मकथा

 

उनके पास उतना ही पैसा है

जितने में वे और पत्नी

जीवित रह सकें

 

लड़का जिद कर रहा है कि

एक पैर कब्र में है और बुड्ढा है कि

पैसे पर कुंडली मार कर

बैठा है

 

जब पता था कि बुढ़ौती में हाथ काँपेंगे तो

दस्तखत की जगह बैंक में

अँगूठे का निशान लगाना चाहिए था न

 

वे समझदार हो गए हैं

पत्नी बीमार है

उसे जूस पिलाना है

 

वे बेटे के सामने हर बार करते हैं दस्तखत

और दस्तखत है कि

मिलता ही नहीं है मूल

दस्तखत से

 

सिर्फ वे जानते हैं कि

पत्नी का नाम लिख रहे हैं

दस्तखत की जगह

 

प्रेम की भाषा में.  

 

 


 

२.

अस्सी के पिता और उनसे चार वर्ष चार वर्ष छोटी माँ

 

दोनों को गठिया है

और बीस कदम चलने में भी बीस मिनट लगते हैं उन्हें

 

माँ के पास बस एक ही काम है

सुबह छः बजे से ग्यारह बजे तक विभिन्न धार्मिक चैनलों को सुनना

और सुनना भी क्या

थोड़ी देर बाद ही उनकी आँख लग जाती है और लेने लगती हैं खर्राटे

लेकिन मजाल क्या कि पिताजी चैनल बदल दें

जैसे ही चैनल बदलता है वे बड़बड़ाने लगती हैं

इन्हें तो मेरा इस उमर में भजन कीर्तन सुनना भी अच्छा नहीं लगता

बैठ के पलंग तोड़ रहे हैं

अरे नल से पानी टपक रहा है

उसे ठीक करवाने का समय नहीं है

न लड़का सुनता है न बाप

 

वे उन्हें चुपचाप बैठे नहीं देख सकतीं

इतना काम पड़ा है कौन करेगा

 

इसके पास तो बैठना ही बेकार है

अस्सी साल से खट रहा हूँ

इसे लगता है अभी भी पच्चीस साल का जवान हूँ

वे बड़बड़ाते हैं और अखबार लेकर बालकनी में

बैठ जाते हैं

 

वहाँ धूप आ रही है बीमार पड़ जाइएगा

वे तेज आवाज में बोलती हैं

और पिताजी ऐसी प्रतिक्रिया देते हैं

जैसे सुना ही नहीं

 

वे मन ही मन खुश होते हैं एक यही तो है

जो मेरी इतनी चिन्ता करती है

फिर कान से सुनने वाली मशीन हटाकर बोलते हैं

अब मुझसे नहीं होता यह सब

इसके चिल्लाने से तो मैं तंग आ गया हूँ

इसी की वजह से मुझे गठिया हुआ है

तो क्या मैं ठीक करूँ

और दोनों फिर झगड़ने लगते हैं

 

अचानक वे चिल्लाती हैं अरे मेरा पैर

और पिताजी बोलते हैं पचास बार कहा है कि झटके से मत उतरो

और पिताजी उनका पैर उठाकर बिस्तर पर रख देते हैं

और धीरे-धीरे दबाने लगते हैं

 

वे मन ही मन प्रसन्न होती हैं

और चुपचाप उनका हाथ झटकते हुए कहती हैं चलिए हटिए

पाप लगाएंगे क्या

 

हालाँकि दोनों अब अलग-अलग कमरे में सोते हैं

लेकिन मजाल क्या है कि माँ को रात में छींक भी आ जाए तो

पिता हड़बड़ाकर पहुँच जाते हैं माँ के पास और पूछते हैं

महेश की माँ तुम ठीक तो हो

कुछ हुआ तो नहीं.

 


 

3.

पत्थर राग

 

सब कुछ पत्थर जैसा लग रहा है

 

किसी की मृत्यु पर लोग

पत्थर जैसे आँसू बहा रहे हैं

 

हवाओं के होंठ और जबान पत्थर जैसी हो गई है

ईश्वर के बारे में खैर कहने की जरूरत नहीं

उस पर चढ़े फूल भी पत्थर जैसे लग रहे हैं

 

नदियों में जो पत्थर मुलायम दिल वाले हो गए थे

पुनः पत्थर हो गए यह देखकर कि अगर ऐसे ही बने रहे

तो मर जाएंगे नदियों की तरह

एक बूँद पानी भी नहीं मिलेगा कफन के लिए

 

वह भीड़ जो शहर की आँख की किरकिरी बनी हुई थी

पत्थर बनकर चिपक गई है बहुमंजिला इमारतों से

वह अपनी याददाश्त में इतना पत्थर हो गई है कि

गिरते समय उसे याद ही नहीं रहा कि वह उन तमाम गाँवों पर

गिर रही है जो बहुमंजिला इमारतों के अगल-बगल

गाँव को बचाए रखने की कवायद में लगे थे

 

संगीत के जो सुर पत्थरों को गुनगुनाने पर मजबूर कर देते थे

और पौधों को बहुत जल्दी जवान कर देते थे

बाजार की पत्थरों वाली आँधी में लहूलुहान हो रहे हैं

सुना है पत्थरों की जमात वाले कुछ बिसुरे गायकों की

इतनी चल रही है कि उन्होंने पत्थर राग पर

काम करना शुरु कर दिया है

 

इस पत्थर होते समय में चाँदनी

पथरीली जमीन पर गिरकर पत्थर-पत्थर हो रही है

और हम चाँदनी को इतिहास बनते देख रहे हैं

बहुत साल बाद आकाश की खुदाई से पता चलेगा कि

कभी चन्द्रमा की आँखें

पत्थर के बटन जैसी भी थीं

 

और तो और पुरानी फिल्मों जैसे बिम्ब रचते

प्यार में दो फूलों के बिल्कुल उनकी नाक के पास आते रिश्तों में

पहाड़ी चंदन की लकड़ियों जैसी जो खुशबू थी

कब पथरीले पहाड़ में तबदील हो गई

पता ही नहीं चला.

_________________________________________

महेश आलोक

(28 जनवरी 1963,गोरखपुर)

उच्च शिक्षा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से.

 

चलो कुछ खेल जैसा खेलें, छाया का समुद्र(कविता संग्रह) तथा 

आलोचना की तीन पुस्तकें  प्रकाशित

मराठी,उर्दू, अँग्रेजी,बँगला और पंजाबी में कुछ कविताएं अनूदित

 

उ0प्र0 हिन्दी संस्थान,लखनऊ द्वारा विश्वविद्यालयी साहित्यकार सम्मान से सम्मानित आदि

सम्पर्क:

हिंदी विभाग

नारायण महाविद्यालय,शिकोहाबाद(फिरोजाबाद) , उत्तर-प्रदेश

Tags: कविताएँ
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