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Home » लोकधर्मिता और कुछ कविताएँ : विजेंद्र

लोकधर्मिता और कुछ कविताएँ : विजेंद्र

कविताओं से कवि होना चाहिए, अगर  बचनी हैं तो कविताएँ ही बचेंगी. जनकवि, जनता का कवि, लोककवि, लोकधर्मी कवि आदि-आदि कविताओं को समझने के क्रम में तैयार आलोचकीय वर्गीकरण हैं. ८३ वर्षीय विजेंद्र के दस से अधिक कविता संग्रह (23 कविता संग्रह और १४ भागों में रचनावली भी) और लगभग इतने ही आलोचनात्मक–डायरी आदि प्रकाशित […]

by arun dev
July 7, 2018
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कविताओं से कवि होना चाहिए, अगर  बचनी हैं तो कविताएँ ही बचेंगी. जनकवि, जनता का कवि, लोककवि, लोकधर्मी कवि आदि-आदि कविताओं को समझने के क्रम में तैयार आलोचकीय वर्गीकरण हैं. ८३ वर्षीय विजेंद्र के दस से अधिक कविता संग्रह (23 कविता संग्रह और १४ भागों में रचनावली भी) और लगभग इतने ही आलोचनात्मक–डायरी आदि प्रकाशित हैं. वह चित्रकार भी हैं. उनके साथ ‘लोकधर्मी’ कवि कुछ इस तरह जुड़ा है कि दोनों एक दूसरे के  पर्याय लगते हैं. उन्हें लोकधर्मी कविता की अवधारणा का प्रस्तोता समझा जाता है.
कविता की लोकधर्मिता को व्याख्यायित करता उनका यह आत्मकथ्य, उनकी कुछ कविताएँ और उनके चित्र यहाँ प्रस्तुत हैं.  
कविता में लोक का धर्म                   
विजेंद्र



इतने लम्बे अनुभव के बाद कविता मेरे लिए जीवन की अन्य क्रियाओं की तरह ही एक बहुत ही अनुत्पादक सृजन क्रिया है. यहाँ मुझे रूसी क्रन्तिकारी कवि मायकोवस्की की बात याद आती है. उसने कहा है कि,  “अगर कविता को उच्च गुण और विशिष्टता अर्जित करनी है, अगर उसे भविष्य में पनपना है तो हमें चाहिए कि उसे हल्का-फुल्का काम समझ कर अन्य सभी प्रकार के मानवीय श्रम से अलग करना त्याग दें”. इस से कुछ बातें साफ़ हैं. एक तो कवि अपने  को उस सामान्य जन से अलग न समझे जो उत्पादक श्रम करता है. दूसरे, हम कविता को श्रम-सौन्दर्य से जोड़े रहे. अपनी जनता से एकायाम रहें.  इसी सन्दर्भ में लोक की बात भी कवि को समझ लेनी चाहिए. लोक हमारा अपना बहुत ही प्राचीन शब्द है. आचार्य भरत मुनि और अभिनव गुप्त ने लोक को कविता के लिए अनिवार्य बताया है. लेकिन आज लोक शब्द को लेकर कुछ शंकाएँ हैं. कुछ विवाद भी हैं.

लोक का एक प्रचलित अर्थ है सामान्य. यह कुलीनता और प्रभु लोक से बिलकुल उल्टा है. लोक में हम उन वर्गों को सम्मिलित कर सकते है जो अपने श्रम पर जीते है. इस दृष्टि से, मोटे तौर पर, हम इस में  निम्न मध्य-वर्ग, निम्न वर्ग, दलित, अनुसूचित जातियाँ,  अनुसूचित जनजातियाँ, आदिवासी, तथा अन्य वे लोग जो दिन-प्रतिदिन अपने कठिन श्रम से अपनी आजीविका अर्जित कर किसी तरह अभावों में जीते  हैं. लेकिन अभिजात वर्ग लोक का नाम लेते ही गाँव को भागता है. और लोक के उत्सव धर्मी रूप को अपने मनोरंजन के लिए याद करता है. अर्थात, लोक -गीत, लोक नृत्य, लोक कलाएँ, लोक –उत्सव, लोक की रूढ़ियाँ.  अंध विश्वास आदि. ये कुलीन वर्ग के लिए लोक का सांस्कृतिक रूप कहा जा सकता है. उस से वह अपना मनोरंजन करता है.  


लेकिन वास्तविक लोक वह है जो अपने श्रम के लिए खट रहा है. जो अभावों में है. और शोषण –उत्पीड़न से मुक्त होने के लिए संघर्ष रत है. जो अंदर-अंदर कुलीनों के प्रति आक्रोशित  भी है. और समय आने पर आक्रामक भी होता है. इस लिए लोक को  गाँव और शहर में विभाजित करके नहीं देखा जा सकता. जहाँ भी श्रम –शील, आभाव –ग्रस्त, शोषित –उत्पीडित जन अपने अस्तित्व को संघर्ष कर रहे है वहाँ लोक है.
मिसाल के लिए भारतीय –स्वतंत्रता संग्राम में लाखों आदिवासिओं ने अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ कर कुर्बानियाँ दी थीं. जैसे बिरसा मुण्डा, तिलका माँझी आदिवासिओं का नेतृत्व कर रहे थे. इसी प्रकार स्वंत्रता संग्राम में छोटे किसानों और श्रमिकों ने आज़ादी के लिए संघर्ष किया था  अत: लोक का यह रूप  आज के लोकतंत्र की धुरी है. मैंने लोक के इसी पक्ष को स्थापित करने के लिए डेढ़ दशक तक “कृति ओर” पत्रिका के माध्यम से संघर्ष किया है. मेरे सम्पादकीय इसके प्रमाण हैं.  आज हर लेखक अपने को लोकधर्मी कहने को उत्सुक है. मेरे समीक्षक मुझे “लोकधर्मी” कवि कहकर ही मेरा मूल्याङ्कन करते हैं. पिछले दिनों वरिष्ठ आलोचक डॉ. अमीरचंद जी के संपादन में एक किताब भी आई है, “विजेंद्र की लोकधर्मिता”.
मैंने लोक को सर्वहारा का पर्याय माना है. युवा मर्क्सवादी  समीक्षक उमाशंकर सिंह परमार के शब्दों में, “विजेंद्र का लोक और जन दोनों शब्दावलियो को नया अर्थ देने एवं लोक की अर्थ-वत्ता में विचारधारा का समावेश करने और द्वंद्वात्मक–भौतिकवादी दर्शन से लोक की विवेचना करने में अविस्मरणीय योगदान है” ( “लहक “अप्रैल-मई , 2018, पृष्ठ.76 ) तो कविता मेरे लिए लोक की पुनर्रचना है जो मेरी आत्मा का स्थापत्य भी रचती है. मुझे विश्व  कवि पाब्लो नेरुदा  की पंक्तियाँ याद  आ रही हैं – उसने कहा है कविता में बाहरी दुनिया की चीजें किस प्रकार एक हो जाती हैं –
मेरे अंदर वे एक हो जाती हैं
जिन्दगियाँ और पत्तियाँ (बादामी)
बहार, पुरुष, और पेड़
झंझा और पत्तिओं की दुनियां से  मैं  प्यार करता  हूँ
मेरे  लिए  होठों  और जड़ों में भेद करना संभव नहीं
दरसल, मुझे भी अपने जनपद और स्थानीयता से बहुत लगाव है. इस से कविता सीमित और संकुचित नहीं होती. “विश्व के लोकधर्मी कवि”  मेरी पुस्तक में 12 देशों के शिखर लोकधर्मी कवि हैं. उन सब में अपने जनपद और परिवेश के प्रति गहरा लगाव है. मेरा विनम्र विचार है कि  कोई भी बड़ी कविता स्थानीय होकर ही वैश्विक बनती है. मैंने लम्बी कवितायेँ भी लगभग 60 के आस-पास लिखी हैं. इन में फलक बहुत विस्तृत है. जहाँ-जहाँ मैं रहा वहाँ के जनपद और इलाके इन  में बोलते हैं. वहाँ के कर्मनिष्ठ, श्रमिक और खेतिहर किसान बराबर चित्रित हुए हैं. लोगों का मानना है कि मैंने सबसे अधिक जन-चरित्र सृजित किये हैं. अनेक कौमों के लोग उन में  आते हैं.
मेरी एक कविता है, “मुर्दा सीनेवाला”. यह एक वास्तविक चरित्र है. जिसे मैंने बिलकुल करीब से देखा है. इसी प्रकार मेरे जन-चरित्र काल्पनिक न होकर वास्तविक है. मैं अधिकांश छोटे स्थानों पर रहा. इस लिए जन-जीवन से संपर्क बना रहा. खास तौर से छोटे खेतिहर किसानों और श्रमिकों से. जहाँ भी रहा वहाँ के लोगों से एकात्म हुआ. वहाँ की प्रकृति से करीब का संपर्क बनाया. मुझे लगता रहा है कि बिना प्रकृति के कविता इकहरी और सतही होने लगती है. अत:  प्रकृति मेरी कविता में कोई उद्दीपन न हो कर एक विराट और विपुल आलंबन का रूप लेती है. इस अर्थ में प्रकृति भी मेरी कविता में एक चरित्र ही है. जिससे आदमी अपने अनुकूल बनाने को संघर्षरत है. अत: प्रकृति मेरी कविता में  मनुष्य और अपने बीच के संघर्ष को ध्वनित करती है. वह कहीं भी निर्जन नहीं हैं. न अन्तर्विरोध शून्य.
लेखक होने के नाते मेरा दर्शन मार्क्सवाद है. यही एक विचारधारा ऐसी है जो सर्वहारा की मुक्ति की बात करती है. दूसरे, यह दुनिया के बारे में सिर्फ बात ही नहीं करती. बल्कि उसे सर्वहारा के पक्ष में बदलने पर बल देती है. मार्क्स की तत्व-मीमांसा लगतार पढता रहा हूँ. 

एक कवि को किसी वैज्ञानिक दर्शन की गहरी जानकारी जरुरी है. क्योंकि बिना उसके कविता में चिंतन की गहनता नहीं आ पाती. और जिस कविता में गहन चिंतन नहीं होता वह बड़ी और विश्व-द्वंद्व तथा सार्वभौमिक कविता नहीं हो पाती. इसके लिए  कवि को सावधानी बरतनी पड़ती है कि विचारधारा ऊपर से थोपी हुई न लगे. इस विचारधरा को समझने के लिए ही मैंने गद्य लिखने का अभ्यास किया. मेरी 5 मोटी जिल्द डायरी की हैं. जिन में साहित्य, कविकर्म, काव्य प्रक्रिया, भाषा, रूपविधान, शिल्प और वाक्य-विन्यास  सौंदर्यशास्त्र आदि के प्रसंग भरे पड़े हैं. सौंदर्यशास्त्र में ने लगातार पढ़ा है. उसके फलस्वरूप मेरी तीन पुस्तकें सौंदर्यशास्त्र पर है.  “सौन्दर्य-शास्त्र :  भारतीय चित और कविता” ,  “सौंदर्यशास्त्र के नए क्षितिज“  सौन्दर्य-शास्त्र प्रश्न और जिज्ञासाएँ “. इस से मुझे अपनी कविता की सैद्धान्तिकी विकसित करने में  बहुत सहायता मिली है.
मैं कविता के प्रयोजन और परिणाम दोनों पर ध्यान देता हूँ. मेरे अनुसार किसी लेखक का मूल्याङ्कन उसके कथनों से नहीं होता.  बल्कि रचना और लेखक के व्यवहार और जनता पर उनके प्रभाव से होना चाहिए.  मैं कलाकृतियों के एकांगी और संकीर्ण मूल्याङ्कन के पक्ष में नहीं हूँ. कुछ लोग एक ख़ास किस्म की विचारधारा से प्रेरित कविता को ही महत्व देते हैं.
मेरा अपना विनम्र विचार है कि हमें ऐसी कला-कृतियों को भी सहन करना चाहिए जिन में विभिन्न प्रकार के राजनीतिक दृष्टि कोण प्रस्तुत किये गए हों. बशर्ते वह सीधे-सीधे जन विरोधी तो नहीं है. राष्ट्र विरोधी तो नहीं है. अवैज्ञानिक नहीं  है. ध्यान रहे कविता को हम दार्शनिक तर्कशास्त्र से नहीं समझते. बल्कि उसे काव्य तर्क (POETIC  LOGIC) से ही समझना होगा. मिसाल के लिए अगर कोई कवि कहे कि आज तो सूर्य पश्चिम से उदित है. तो हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए. दूसरे, मनुष्य प्रकृति के नियमों को मानता है. उन्हें नहीं तोड़ सकता. लेकिन कविता प्रकृति के नियम नहीं मानती. हमारे प्राचीन काव्य-शास्त्री आचार्य मम्मट ने कहा है कि कविता,  “ नियति कृत नियम रहितां”  है. अर्थात कविता प्रकृति के नियमो को नहीं मानती.
ध्यान रहे कुछ कृतियाँ राजनीतिक दृष्टि से प्रतिक्रियावादी होकर भी उनमें कुछ-न–कुछ  कलात्मकता हो सकती है. वे कला कृतियाँ जिन में कलात्मक प्रतिभा का आभाव होता है बिलकुल शक्तिहीन होती हैं. चाहे वे राजनीतिक दृष्टि से कितनी ही प्रगतिशील क्यों न हों. कविता में नारेबाजी और पोस्टर तकनीक कविता को कमजोर बनाते हैं. हमें दोनों का ही विरोध करना चाहिए. कविता एक कला कृति भी है. इसे कभी नहीं भूलना चाहिए.
कविता की जीवंत भाषा हम जनता के बीच रहकर ही अर्जित कर सकते हैं. रचनाशील भाषा ही कविता के लिए उपुक्त है. अर्थात ऐसी भाषा जहाँ शब्द पूर्व निर्धारित अर्थों का अनुगमन करते है रचनाशील भाषा नहीं कही जा सकती. रचनाशील भाषा में शब्द कवि द्वारा सृजत नव-अर्थों का अनुधावन करते हैं. इस में संदेह नहीं कि श्रमशील जन की भाषा बहुत ही समृद्ध और गतिशील होती है. हमारी अपनी पुस्तक अर्जित भाषा से कहीं अधिक समृद्ध और जीवंत होती है.
कहना न होगा की जीवंत काव्य भाषा में  प्रमुख महत्व क्रिया–पदों का ही होता है. क्योंकि जीवन गतिशील और विकासशील है. दूसरे, जीवन और वर्ग समाज के गहरे अन्तर्विरोध उसे और अधिक गतिशील और विकासोन्मुख बना देते हैं. काव्य  भाषा  को रूपक, बिम्ब, उपमा, विशेषण आदि विशेष  उपकरण  उसे अधिक अर्थवान  और समृद्ध बनाते हैं. पर इनका उपयोग बहुत ही समझ–बूझ, संयम और अनुशासन से करना चाहिए.
इसी प्रकार लय कविता का प्राण है. यहाँ तुकबंदी से मतलब नहीं है. बल्कि कविता में आवेग, संवेग, भाव , विभव, अनुभव आदि को एक आन्तरिक प्रवाह में पिरोते हुए सुगठित रूप (फॉर्म)  में ढालना ही लय है. लय कथ्य में अंतर्निहित होती है. अत: कथ्य के अनुसार वह अपना रूप लेती रहती है. बात-चीत के लहजे  में लिखी कविता में भी लय होती है. लय के कथ्य के अनुसार अनेक रूप और स्तर हो सकते हैं. लयहीन कविता निष्प्रभावी होती है. कविता में संश्लिष्ट अर्थ–ध्वनी भी लय रचती है. कहा गया है, “MUSIC OF  IDEAS”. इसी के साथ हमारी काव्य शैली भी कविता का महत्वपूर्ण उपकरण है.  शैली से ही कवि की पहचान होती है. हम बड़े कविओं  की कविता-पंक्ति देख कर उसे पहचान लेते हैं. मार्क्स ने शैली के बारे में बहुत ही महत्वपूर्ण बात काव्य भषा में कही  है,  “ STYLE   IS   A   DAGGER   WHICH   STRIKES  UNERRINGLY   AT THE HEART”     अर्थात “शैली एक ऐसा खंजर है जो ह्रदय पर अचूक वार  करता है.”  शैली के बारे में ऐसा कथन मैंने अन्यत्र नहीं पढ़ा. और न सुना.
कविता पूरे  जीवन  की मांग करती है. यह कोई आकस्मिक कर्म नहीं है. बल्कि सार्वकालिक ऐसा कर्म है जो हर क्षण का समर्पण चाहता है. इसी लिए कविता को हमारे यहाँ साधना कहा गया है. राजशेखर ने अपनी प्रख्यात कृति,  “काव्य मीमांसा”  में कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण बातें कवि कर्म, कविता की तैयारी और कवि आचरण के बारे में कही हैं. कहा है,  कविओं को विद्याओं तथा उपविद्याओं का अध्ययन करना चाहिए. अर्थात व्याकरण, कोश, छंद-संग्रह, तथा अलंकर शास्त्र-  ये काव्य विद्याएँ हैं जिनका ज्ञान कवि को होना उचित  ही है. कवि  सदा पवित्र रहे. कहा है पवित्र चरित्र या स्वभाव ही सरस्वती का वशीकरण है. कवि को चाहिए कि वह जाने कि “लोक सम्मत”  क्या है. अपनी रचना को बड़ा नहीं समझना चाहिए. कविता के प्रयोजन के बारे में भी आचार्य मम्मट ने अनेक माहत्वपूर्ण बातें कही हैं. लेकिन सबसे महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय है, “शिवेतरक्षतये”  अर्थात जो जन का  अमंगल करे, जो जनविरोधी है, कविता उसका विनाश करे. 
मैंने अरस्तू  से लेकर टी.एस. एलियट. तक का योरपीय काव्यशास्त्र जब पढ़ा तो मुझे कविता का इतना बड़ा प्रयोजन कहीं दिखाई नहीं दिया. वहाँ प्रमुखत: दो बातों पर जोर है. कविता हमें संस्कारित करे. और आनंद दे. लेकिन अमंगल और जनविरोधी तत्व का विनाश भी करे यह भारतीय मौलिक दृष्टि है जो मनुष्य के लोकमंगल की भावना से प्रेरित है. यह मौलिक भी है. और कविता को जनकल्याण से युक्त कर उसे बहुत बड़ा दायित्व सौंपा गया है.
__________

             

विजेंद्र  की कुछ कविताएँ






    अपने चित्र 
      (महान डच  चित्रकार वॉनगॉग की  याद  में)                       


चाहता हूँ
खाना खाते समय भी
उलट-पलट कर अपने चित्र देखूँ
हर चित्र अपूर्ण लगता है
पहले का पूरक-अपूरक
किसी कौने में अकेले बैठ कर
स्केन करने से पहलें भी
मैं उन्हें उलटता-पलटता हूँ
किस कोण से उनमें मेरा चित्त
प्रतबिम्बित हुआ है
आदमी की पीड़ाओं के उफान
रंगों  में भू दृश्य बन जाते हैं
उड़ान भरते हंस शिकारी से भयभीत
बार बार अपूर्णता की ओर ही
निगाह जाती है
यह भी एक तैयारी है
कवि कर्म और चित्रकला के लिए

जो कवितायें और चित्र
मुझे अच्छे नहीं लगते
उन्हें डस्टबिन के हवाले करता हूँ
यह बेरहमी मुझे सोचने को
चिनगारियाँ देती है
जैसे अग्निकणों को फिर से
बीनना होगा
किसी से बात करने की
इच्छा नहीं होती इनके बारे में
सच को बचाए रखने के लिये
पवित्रता जरूरी है आत्मा की
क्या कोई चीज़ पूर्णतः
पवित्र होती भी है
जिसे देखा नहीं
उसके बारे में कहना क्या उचित है
जो मोह-माया से घिरी है वह
निरपेक्ष कैसे
पवित्रता एक भ्रम तो नहीं
किसी उच्चतम गुणात्मकता को
सिर्फ एक नाम खोज लिया है
हमें सन्तोष मिलता है
हम गहराइयों में जा रहे हैं
यहाँ ऐसा कोई नहीं
जे घटिया या श्रेष्ठ लेखक का जिक्र करे
या किसी चित्रकार की
चर्चा हो सके
वॉनगॉग ने जब अपना एक कान
काट कर अपनी प्रेमिका को दिया होगा
तो उसे कितने
भयानक स्वप्न दिखाई दिये होंगे
कविता में कम से कम
बोलने का अभ्यास कर रहा हूँ.       

(वॉनगॉग.  महान  डच  चित्रकार. वह जीवन भर प्रेम के लिये भटकता रहा. पर किसी का सच्चा प्यार  न  पा  सका. वह अन्त में सनकी और अर्ध- विक्षिप्त हो गया था. उसकी एक प्रेमिका ने  जब उससे कुछ माँगा तो उसके पास देने को कुछ  था ही नही. प्रेमिका ने मज़ाक में उससे  उस का एक कान देने को कह दिया. वॅनगाग ने सचमुच  अपना एक कान  काटकर  उसे दे दिया.)
 कहने को शेष         
  
समेटता हूँ जितना अपने आपको
उतना ही गहन होता है रिक्त
चित्त की हिलती  हैं जड़ें
मुरझाने लगते हैं फूल
पतझर का अब
कोई अन्त नहीं रहा
न कोई ओर-छोर
अपने उलझे धागे
समेटने में लगा हूँ
सूर्यास्त की लालिमा शेष है
जिस वसन्त को मैंने
धरती के कणों से बीना था
वह अब कभी नहीं लौटेगा
कितना विस्तृत विराट है
खुला सामने
फिर भी दिखता नहीं क्षितिज
बहुत से पक्षियों को ऊँची उड़ान के लिये
डैने खोलते देखता.
          
मत हो उदास                           
ओ  मेरी  कविताओ
मत हो  उदास
तुम्हें समाज में कोई सम्मान नहीं मिला
मैं ही दोषी हूँ
बहुत ही दुर्बल और भीरु
गाँव का गँवार
आज तक गढ़लीकों की धूल से
अपने को मुक्त नहीं कर पाया
मत हो उदास
सम्भ्रान्त तुम्हें पिछड़ा समझ
नफरत करते हैं
वे तुम में चमत्कारी चुटकले
खोजते हैं
तुम्हारा बदन खुरदरा है
झाड़-झंखड़ों से छिदा-कटा
मैं समय से बहुत पीछे हूँ
हाशिए पर है मेरा नाम
तुम साहस करो
मैं ही हूँ दोषी
जो तुम्हें लकड़हारों
किसानों,  मजदूरों की संगत में
घसीटता रहा
सफेदपोश सम्भ्रान्त तुम मे
अपना साफ- सुथरा
पौलिश से चमकता चेहरा नहीं देख पाते
तुम्हें दूर से ही दुत्कारते हैं
तुम मत हो उदास
दोषी मैं ही हूँ
साहस करो
अच्छे भविष्य की उम्मीद
तुम्हें श्रोतो नहीं मिले
न पाठक
मैं ही हूँ  रिक्त मन
गँवार और उजड्ड
तुम ने समझा है मेरा मन
तुम सम्भ्रान्तों के छद्म को
करती रही बेनकाब
किसानों, श्रमिकों और लकड़हारों में
जाती रही बे-खौफ
इस पूरी त्रासदी का खलनायक
मुझे ही मानों
लेकिन तुम मुझे छोड़कर
मत जाओ
मैं ने तुम्हें अपने चित्त के
अतल में सँजोया है
जैसे मेरे अमूर्त चित्रों में रंग संयोजन
एक को दूसरे से अलग करना
मृत्यु है
तुम कितनी सरल हो
हरेक पर करती हो भरोसा
तुम्हारी  आँखों की पवित्रता
खुला निरभ्र आकाश
कैसे हो पायेगा मेरा चित्त ऐसा
तुमने देकर नयी आकृतियाँ
विगत को शब्दें में
कहने दिया है
तुम नग्न हो
शीत में ठिठुरती
तीखे ताप में तपती
तिरछी तेज़ बौछारों में भीगती
जाओ, जाओ वहाँ
जहाँ किसान अन्न की आस में
खेतों को कठिनाई से
सींचता है , जाओ.

हूँ
आकाशोन्मुख होना मेरा लक्ष्य नहीं
पृथ्वी का ठोसपन मुझे लुभाता है
ओह ! कितनी यादें झाँकती है
जाले लगे झरोखों से
ताज का स्थापत्य नहीं
क्षणों में प्रवाहित रक्त का
चाहिये मूर्तिशिल्प
हर क्षण
जो वातास छूकर तुम्हें मेरे पास आता है
उसे जगह देता हूँ
चित्त के पवित्र भवन में
क्या हैं हम दोनों
सितार पर कसे ढीले तार
अब झाला देने से
भंग स्वर निकलते हैं
अँधेरे में खोई चीज़ें
ओह! उनकी छायायें भी नहीं दिखती
आती है कुदाल की आवज़
जब लाल पत्थर की
गढ़ी सिल्ली उपट आती है
लकड़हारों के कुल्हाड़े
जब पड़ते हैं वृक्षों के तनों पर
पूरा  वन काँपता है
भूख नहीं सुनती
वृक्षों का रुदन
नहीं देख पाती
टहनियों के आँसू
जो पचाते हैं भूख  की  लपटें
वे  रहते  हैं  जीवित
उनकी  राख  देखने  को
फूलों का सहसा कुम्हलना
ओह! मीठे गीत
बहुत पीछे छूट गये वसन्त के साथ
त्रासद वेदना का ध्रुपद
बजता है दिन-रात
कहने को अभी शेष है  समर
अनकही बात. 

दुनिया बहुत बड़ी है
मैं तुम्हें
एक बार में नहीं देख सकता
दुनिया बहुत बड़ी है
एक बार में सिर्फ उजली नाभि दिखती है
पाँचों उंगलियाँ एक बार में उसे नहीं छूतीं
काली चट्टानों की खिरी कोरों पर
जमी कत्थी काई
सूर्य के लगातार प्रहार से
उनका जिस्म खुरदरा हुआ है
किसान धरती कमा रहे हैं
अपने पसीने से उगाते है अन्न
मैं उसे अन्नमय गंध से पहचानता हूँ

वसंत ऋतु ने पहली बार तुम्हारे मस्तक को छुआ है
मैं तुम्हें चाहकर भी एक बार में नहीं देख सकता
एक बार में दिखती है
नीम की महकती मंजरियाँ शांत
मेरे पूर्वजों के चेहरों पर छाया कुहासा
हाथों पर उभरी सिलबटोदार झुर्रियाँ
दुनिया बहुत बड़ी है
जाने कितने रंग हैं इसके
जो चित्रों से नहीं बताये जा सकते
एकबार में पके सेब का
लाल हिस्सा देख सकता हूँ
या घोड़े की टाप से खुंदा
लालोंहां अंकुर धरती को फोड़ के निकला है

मैं तुम्हें एक बार में नहीं देख सकता
हम यहाँ से मुड़ते हैं
तुम मेरे साथ हो
मुझे भरोसा है
यह रास्ता हम दोनों को सरल नहीं है
यहाँ से चट्टानें शुरू होती हैं
नए ढलान उभरते हैं
जीवन उतना सीधा -सपाट नहीं है
जैसा हमने वसंत आगमन पर समझा था
यहाँ से आगे तुम मेरे साथ हो
कुछ डरी , सहमी और अंदर से विचलित
घबराओ मत काल ऐसे ही हमारी
अग्नि-परीक्षा लेता रहा है
तुम चुप क्यों हो
पर आँखें कहती हैं
यह तुम्हारा साथ बहुत सारे वृक्षों के तनों से
अधिक पुख्ता है
वनों से अधिक सघन
ओह ! तुम्हारा यह साथ सदेह
आत्मा के स्थापत्य से ही रचा है एकाकार
यह साथ …. वैसा ही सुर्ख है
जैसे झुरमुटों में दीखता बाल-रवि
यह साथ दीप्त रहेगा अंत तक
यह रहेगा पूरा भरोसा है
हमने सहे हैं विष-बुझे दंश एक साथ
आगे ये ढलान और कठिन होंगे
काल हमारे प्यार की हर क्षण परीक्षा लेगा
हम एक बार इस बीहड़ से निकल कर
दोआबा के विस्तृत मैदान में उगेंगे
जहाँ मैंने देखे है बौराते आम दूर-दूर तक
यही है मेरे दोआबी इलाके का गौरव
इसे छोड़ बबूलों में चलना पड़ रहा है
तुम्हारे साथ-साथ
हम यहाँ से आगे जाने को
सजग होकर मुड़ते है
एक-साथ
ओह ! यह दुनिया तुम से बहुत बड़ी है.


तुम्हें कल की चिंता है
कल बादल होंगे यह पूर्वा कह रही है
कल श्रमिक के घर खाली कनस्तर बजेगा
ओह ! कवि … निरी खूबसूरत चीजों से
जीवन नहीं चलता
भूख सिर्फ अन्न से मिटती है
जिसे मेरे देश का हलधर उगा के देता है
और प्यास पानी से
लाखों को रोटी नसीब नहीं है
जल का कोई रंग नहीं होता
न कोई घर
मैं फिर भी उसे पहचानने को
मरुथल में भटका हूँ
भरतपुर पक्षी -विहार अभय-आरण्य की झीलों को
बहुत करीब से देखा है थिर-अथिर
लहरों का रंग जामुनी था
तरंग-मालायें जैसे पक्षिओं का कंठा-भरण
श्रमशील हाथ सौन्दर्य रचते हैं
पाँव का असर धरती पहचानती है
सूर्य प्रभा में पत्तियां उल्लसित लगती हैं
उनकी नसों में रसायन पक रहा है
उसे छंद में बांधना कठिन है
मैं प्रार्थना न भी करूं
तो भी धरती को फोड़ अंकुरण होगा
बालियाँ अन्न से भरेंगी
खरपत को तुम्हारे आशीर्वचन की चिंता नहीं
ग्राम कन्यायें बथुआ खोंट रही हैं
उनकी एकाग्र उँगलियों में सधी हुई लय है अनूठी

हर साल किसान खरपत को निरता है
हर साल वह उग आती है
मैं ईश्वर को न भी मानूं
तो भी धमन-भट्टियो में इस्पात पकेगा
वे सुबह से अपने हाथों को साधे
आँच झेलते हैं
अपने पाँवों को साधे खड़े रहते हैं
ये वह प्रार्थना है
जिस से दुनिया की आकृति बदलती है
और नया सौन्दर्य रचा जाता है.
जीवन में इंद्र-घनु खिलते हैं
वे हाथ फूल के सहायक बन जाते हैं
फूल अपने रंगों को और चटक और खुश -दिल बनाते हैं
कभी खिलते हैं
फिर धरती पर गिर जाते हैं
ऐसा ही तो जीवन है
जड़ें जल की तरफ
मुँह किये पौंडती रहती हैं
पुष्प-दल बनता है
पराग-कण मुखर होते हैं सूर्य के प्रकाश में
पत्तियाँ रस -सिक्त
धूप-छाँव मैं ऋतुओं के खुले डैने
वर्षा और शीत में
ये पंखडियाँ
अपने जननांगों की रक्षा करती हैं विष-कीटों से
नर-मादा मिलते हैं
अंडाशय की अदृश्य कोठरियो में
गोल-गोल उजास का जिस्म
बंधा रहता है हवा के बारीक रेशों से
रँगे तंतुओं से ही

जीवन के इंद्र-धनुष खिलते हैं. 
______________________________________

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