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Home » विनोद विट्ठल की सात कविताएं

विनोद विट्ठल की सात कविताएं

‘सुंदर सपने जितना छोटा होता है कम रुकता है कैलेंडर इसकी मुँडेर पर जैसे सामराऊ स्टेशन पर दिल्ली-जैसलमेर इंटर्सिटी’   फरवरी जहाँ वसंत आता है, अनमना रंग पीताभ इसके आगे चलता है और ढेर सारे सुर्ख गुलाबों से भर जाती हैं चाहतें. पीठ पीछे हथेलियों में छिपे ये फिर महकते रहते हैं जीवन भर. विनोद […]

by arun dev
February 14, 2021
in कविता, साहित्य
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‘सुंदर सपने जितना छोटा होता है

कम रुकता है कैलेंडर इसकी मुँडेर पर

जैसे सामराऊ स्टेशन पर दिल्ली-जैसलमेर इंटर्सिटी’

 

फरवरी जहाँ वसंत आता है, अनमना रंग पीताभ इसके आगे चलता है और ढेर सारे सुर्ख गुलाबों से भर जाती हैं चाहतें. पीठ पीछे हथेलियों में छिपे ये फिर महकते रहते हैं जीवन भर. विनोद विट्ठल की इन कविताओं में जो प्रेम है उसकी उम्र हो चली है.

 

प्रस्तुत हैं कविताएँ 

 


विनोद विट्ठल की कविताएं                                

 

 

 

 

1.

तरीक़े

 

मैंने भाषा के सबसे सुंदर शब्द तुम्हारे लिए बचा कर रखे

मनचीते सपनों से बचने को रतजगे किए

बसंत के लिए मौसम में हेर-फेर की

चाँद को देखना मुल्तवी किया

सुबह की सैर बंद की

 

अपने अस्तित्व को समेट

प्रतीक्षा के पानी से धरती को धो

तलुओं तक के निशान से बचाया

 

न सूँघ कर खुशबू को

न देख कर दृश्यों को बचाया

जैसे न बोल कर सन्नाटे को

एकांत को किसी से न मिल कर

 

समय तक को अनसुना किया

सब-कुछ बचाने के लिए

 

याद और प्रतीक्षा के यही तरीक़े आते हैं मुझे!

 

 

 

2.

जवाब

 

हाथों की तरह एक थे

आँखों की तरह देखते थे एक दृश्य

बजते थे बर्तनों की तरह

 

रिबन और बालों की तरह गुथे रहते थे

साथ खेलना चाहते थे दो कंचों की तरह

 

टंके रहना चाहते थे जैसे बटन

 

टूटे तारे की तरह मरना चाहते थे

गुमशुदा की तरह अमर रहना चाहते थे

 

किसी और नक्षत्र के वासी थे दरअसल

पृथ्वी से दिखते हुए.

 

 

 

3.

बड़ी उम्र की प्रेमिकाएँ

 

क्योंकि नहीं होता है ज़िंदगी में कोई रिवाइंड का बटन

डिलीट नहीं की जा सकती है कुछ फ़ाइलें

पुतईगर की तरह परेशान करती रहती है दीवारों पे छूटी अनरंगी जगहें

 

क्योंकि पसंद उन्हें भी था

सघन और पूरा प्रेम जैसे कोई बड़ा तरबूज़; बनास का

हाफुस बहुत बड़ा और पका हुआ; रत्नागिरी का

पानीदार नारियल जिससे घंटों बुझाई जा सके प्यास; कोट्टयम का

 

क्योंकि बहुत वाचाल होकर भी वे चुप कराईं गईं

जीवंतता के बाद भी उपेक्षित छोड़ दिया गया उन्हें पुराने रेडियो की तरह

बैटरी थी जो अब भी जगमगा सकती थी टॉर्च कई घंटे

 

क्योंकि वे बन गईं हैं कुरुक्षेत्र धर्म और अधर्म के युद्ध में

अपनी नैतिकता रही है उनके पास हज़ारों साल से

तमाम ज्ञान और विवेक के भी; वे खाना चाहती हैं एक बार सेव

देखो कितने ही बरसों से गिर रहे हैं और खाए भी जा रहे हैं हज़ारों-हज़ार

क्या किया जाए कि अब उसे सेव नहीं बल्कि सेव की शराब पसंद है जिसे किन्नौर में घंटी कहा जाता है

 

क्योंकि अधीर नहीं है वो गुफ़ा के अंधेरों की तरह

जानती है हर चाल और चरित्र पुरुष का

और इसीलिए बन जाती है

प्रेमिका से कुछ अधिक; प्रेम का सारा अर्क देते हुए

माँ से कुछ अधिक; ममता की बहुरंगी छुअन के साथ

धरती से ज़्यादा चुप्पा; सहती हुई हर नादानी

 

बावजूद इसके कि सब एक-से होते हैं

बावजूद इसके कि थोड़े समय बाद मुरझा जाते हैं सारे फूल

बावजूद इसके कि थम जाता है हर युद्ध

बावजूद इसके कि हार जाती है हर महामारी

नहीं हारती बड़ी उम्र की प्रेमिकाएँ

 

देखो अपनी पुरानी नाइटी को सहला रही हैं

बसंत बेमौसम हुमग रहा है !

 

 

(ii)

उनकी पसंद की रात कहाँ आई है घनघोर काली

उनकी पसंद का चाँद दूज से आगे ही नहीं बढ़ रहा है

नहीं दे रहे हैं ख़ुशबू पसंद के फूल

चाहती है कबीट की तरह कोई उन्हें तोड़े और खा जाए

पेड़ों के झुरमुट में

 

ओरीयो का आख़िरी बिस्किट हैं वे

आख़िरी बाइट कैडबरीज टेम्प्टेशन की

अंतिम घूँट आमरस की गिलास का

आख़िरी चम्मच बनारसी मलाई के दोने का

 

बुझने से पहले भभकना कोई अपराध तो नहीं

 

खुल कर जीना मृत्यु का स्वागत है !

 

 

(iii)

कोई नहीं जानता उनके बारे में

चाँद की तरह गुम हो जाती हैं आधी रात

पहन लेती हैं अपने पंख

पता रहते हैं उन्हें लम्बी यात्राओं के रोमांच

लम्बे अबोले के आनंद भी

 

घाटू के पत्थर की मूर्ति के अनावृत्त वक्ष पर

रखा हुआ रोहिड़े का फूल !

 

 

 

(4)

एक स्त्री के अनुपस्थित होने का दर्द

 

वे जो दर्जा सात से ही होने लगी थी सयानी

समझने लगी थी लड़कों से अलग बैठने का रहस्य

कॉलेज तक आते सपनों में आने लग गए थे राजकुमार

चिट्ठी का जवाब देने का संकोचभरा शर्मीला साहस आ गया था

बालों, रंगों के चयन पर नहीं रहा था एकाधिकार

 

उन्हीं दिनों देखी थी कई चीज़ें, जगहें

शहर के गोपनीय और सुंदर होने के तथ्य पर

पहली बार लेकिन गहरा विश्वास हुआ था

 

वे गंगा की पवित्रता के साथ कावेरी के वेग-सी

कई-कई धमनियों में बहती

हर रात वे किसी के स्वप्न में होती

हर दिन किसी स्वप्न की तरह उन्हें लगता

 

वे आज भी हैं अपने बच्चों, पति, घर, नौकरी के साथ

मुमकिन है वैसी ही हों

और यह भी

कि उन्हें भी एक स्त्री के अनुपस्थित होने का दर्द मेरी तरह सताता हो 

 

 

 

 

5.

एक मित्र की प्रेमिका के लिए

 

काम में लेने के तरीक़े से बेख़बर होकर भी

आग, पत्थर, लोहे और लकड़ी-सी तुम थी

पहिए-सी तुम तब भी लुढ़क सकती थी

फ़र्क़ प्रेम-पत्र की शक्ल में धरती का घूर्णन था दिन-रात लानेवाला

वरना दिन-रात तो थे ही

 

माना उन दिनों नहीं था विज्ञान

आदमी ने परिंदों के पर नहीं चुराए थे

मछलियों के जाली पंख भी नहीं बना पाया था

 

मित्र के मना करने के बावजूद बताता हूँ

नदी के पास तुम्हारी मुसकुराती फ़ोटो है

हवाओं ने तुम्हारी आवाज़ को टेप कर रखा है

 

क्या फ़र्क़ पड़ता है संबोधनों का इस समय में

जबकि मैं आश्वस्त हूँ

प्रेम, भूख और नींद के बारे में

 

वास्कोडीगामा से बड़े हैं चंदा मामा

दिन-ब-दिन छोटी और एक-सी होती इस दुनिया में

मुश्किल होगा मेरे मित्र की गरम साँसों से बचना

तपे चूल्हे के पास बेली पड़ी रोटी की तरह.

 

 

 

6.

चाँद

 

रात के अकेले अंधेरे में

इक्यानवे की डायरी में उसके फ़ोटो को छू

आश्वस्त हो जाता हूँ;

चाँद मेरे ही पास है

 

वह भी ऐसा ही करती होगी

उसकी आश्वस्तियों का चाँद भी होगा

 

भरोसे के अलावा भी चाँद में बड़ी चीज़ है

वह सबका होता है.

 

 


7.

फ़रवरी

 

सुंदर सपने जितना छोटा होता है

कम रुकता है कैलेंडर इसकी मुँडेर पर

जैसे सामराऊ स्टेशन पर दिल्ली-जैसलमेर इंटर्सिटी

 

फ़रवरी से शुरू जो जाती थी रंगबाज़ी; होली चाहे कितनी ही दूर हो

सीबीएसई ने सबसे पहले स्कूल से रंगों को बेदख़ल किया है

 

इसी महीने से शुरू होता था शीतला सप्तमी का इंतज़ार

काग़ा में भरने वाले मेले और आनेवाले मेहमानों का

अमेज़ोन के मेलों में वो बात कहाँ ?

 

लेकिन कॉलेज के दिनों में बहुत उदास करती थी फ़रवरी

दिनचर्या के स्क्रीन से ग़ायब हो जाती थी सीमा सुराणा की आँखें

पूरा कैम्पस पीले पत्तों से भर जाता था

घाटू के उदास पत्थरों से बनी लाइब्रेरी

बहुत ठंडी, बहुत उदास और बहुत डरावनी लगती

जैसे निकट की खिलन्दड़ी मौसी अचानक हो जाती है विधवा

 

नौकरी के दिनों में ये महीना

मार्च का पाँवदान होता है: बजट, पैसा और ख़र्च-बचा पैसा

 

इच्छा तो ये होती है

हेडफ़ोन पर कविता शर्मा की आवाज़ में

बाबुशा कोहली की प्रेम कविताएँ सुनते हुए

टापरी के फ़ॉरेस्ट गेस्ट हाउसवाली रोड पर निकल जाएँ

पर वो रोड भी तो फ़रवरी की तरह छोटी है

 

कई बार ये मुझे सुख का हमशक्ल लगता है

देखो, पहचानो, ग़ायब!

___________________________

विनोद विट्ठल

10 अप्रैल, 1970 को जोधपुर में जन्म

“भेड़, ऊन और आदमी की सर्दी का गणित”, “लोकशाही का अभिषेक, “Consecration of Democracy” और “पृथ्वी पर दिखी पाती” समेत आधा दर्ज़न किताबें प्रकाशित. “पृथ्वी पर दिखी पाती” के लिए 2018 का युवा शिखर साहित्य सम्मान.

पता :

A-8, शोलतू कॉलोनी, 

पोस्ट ऑफ़िस– टापरी 

ज़िला– किन्नौर – 172194 (हिमाचल प्रदेश)
vinod.vithall@gmail.com

Mobile – 8094005345

Tags: कविताएँ
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