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समालोचन

Home » सुघोष मिश्र की कविताएँ

सुघोष मिश्र की कविताएँ

(फोटो आभार : H. C. Bresson) हिंदी कविता की दुनिया युवतर कवियों से आबाद है. ये कवि अपनी समझ और निपुणता के साथ जब सामने आते हैं तो विस्मय  होता है और आत्मिक ख़ुशी का कारण बनते हैं. एक नए कवि से जो आप उम्मीद रखते हैं, सुघोष की कविताएँ उन्हें पूरा करती हैं. आकार […]

by arun dev
November 3, 2018
in कविता
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(फोटो आभार : H. C. Bresson)

हिंदी कविता की दुनिया युवतर कवियों से आबाद है. ये कवि अपनी समझ और निपुणता के साथ जब सामने आते हैं तो विस्मय  होता है और आत्मिक ख़ुशी का कारण बनते हैं.
एक नए कवि से जो आप उम्मीद रखते हैं, सुघोष की कविताएँ उन्हें पूरा करती हैं. आकार में अपेक्षाकृत लम्बी कविताओं को साध कर उन्होंने कुछ अतिरिक्त भी किया है. इसके साथ यह भी कि वह एक अच्छे फोटोग्राफर हैं.    
उनकी पांच कविताएँ आपके लिए.


सुघोष   मिश्र   की  कविताएँ                      






ईश्वर

अंतिम बार देखा गया उसे
सूखे वटवृक्ष के तले
अपराजेय का विशेषण खो चुके
किसी महान योद्धा की तरह
घुटनों पर बैठे
किसी अकिंचन की भाँति दीन
चिंतातुर और शोकग्रस्त
जैसे कोई असफल रचनाकार
अपनी किसी कल्पना से पराजित
अपनी ही आत्मा से निर्वासित.
चाँदनी नदी में सेवार-से बिखरे
केश श्वेत सर्प-मंडली-से दिखते
चिंता की श्रेणियों-सी उलझी दाढ़ी
बरोहों-सी लटकती भू छूती
जिसमें झूलती थीं मकड़ियाँ और मृत तितलियाँ
वटवृक्ष के जड़ों-सी बेडौल अंगुलियाँ—
किसी साधक के निश्चय-सी दृढ़
प्रिय के कटुवचन-सी नुकीली
धरती को ऐसे जकड़ती थीं
जैसे प्रेम छूटने से पहले गहता है हृदय
कवि पकड़ता है अपनी अस्वीकृत कृति
मृत्यु से पूर्व थामता है कोई चारपाई के पाट.
निर्बल बाहु काँपती थी परोपकारों के भार से
गर्दन झुक गई थी स्तुतियों की मार से
मुख अनवरत दैवीय स्मित से दुखता था
वह अपनी ही धूप में जलता
अपनी ही बारिश में भीगता
अपनी ही शीत में ठिठुरता था
उसके दिल के कोटर में रहती थी गिलहरी मरी हुई
उसकी सूखी आँखों से झाँकती थी तड़पती मछली.
उसकी कल्पनाएँ ब्रह्मांड से विराट थीं कभी
पराक्रम शताधिक आकाशों से ऊँचा
सृजनशीलता सहस्र महासागरों से गहरी
और ऊर्जा कोटि सूर्यों से बढ़कर थी
उसकी श्वासों से गतिमान थे तारकपुंज
धमनियों में तिरती थीं आकाशगंगाएँ
उन्माद के चरम पर पहुँच
विखंडित हो गया वह अनंत तत्त्वों में
बनाया एक मंजुल चित्रफलक
कुछ रंग चुनकर रची चराचर सृष्टि
ऊर्जा और चेतना की कूँचियों से
भर दिया उन्हें विभिन्न आकृतियों में
स्वयं को सौंप दिया कला को सम्पूर्ण
अंत:स्थ को सकुशल पुनर्रचित कर
श्रम सिंचित सौंदर्य बिखेर दिया
रूप-शब्द-रस-गंध और स्पर्श में,
पुनः देखा पूर्वप्रयासों की ओर
और नवनिर्मित को भर लिया अंक में
एक सद्य:प्रसूता के औत्सुक्य से निहारा उसे
डूब गया सृजन के असीम सुख और अपूर्व थकान में.
तदनन्तर देखा उसने
उसकी अपनी वह कृति
छिटक चली जा रही दूर
बना रही नई आकृतियाँ स्वयं
भर रही नए रंग
उसमें अब नई कलाएँ और सभ्यताएँ हैं
भूख है, शोषण है, दमन है
नए-नए ईश्वर हैं : शक्तिशाली किंतु नश्वर
परिश्रमी ग़ुलाम उनके : कलावंत कृशकाय
अपनी रचना से पीड़ित
वह अधिक निष्ठुरता से करती
निर्माण और ध्वंस
ध्वंस और निर्माण
अंशपूर्ण सौंदर्य को करती अस्वीकार
दैवीय नियंत्रण से मुक्त
वह अग्रसर होती पूर्णता की ओर
अपने समूचे बिखराव के साथ.
सृष्टि उसकी युगों की साधना थी
एक अभूतपूर्व विराट स्वप्न
यथार्थ में स्वातंत्र्य-पक्षधर
प्रथम विद्रोही
जो कामना से उपजी थी
और प्रेम बन गई
मात्र कला न रह जीवन बन गई
कर्ता को कर गई
एकाकीपन के लिए चिर अभिशप्त
सशंकित उसने चीख़ते हुए कहा —
ईश्वर से नहीं हो सकतीं ग़लतियाँ !
कौन है मेरी प्रेरणा के पीछे ?
कहाँ है मेरा निर्माता ?
उसने हरसंभव शोध किये किंतु गया हार
निर्वात की नीरवता को मथ डाला
प्रचंड विक्षोभ से
किंतु नष्ट न कर सका अपनी कृति को
मोहवश
प्रायश्चित के तरीक़े अपनाए अनंत
किंतु असंतुष्ट रहा —
कृतियाँ नष्ट कर देती हैं कर्ता को
स्वयं रह जाती हैं सुरक्षित
कलाएँ दीर्घायु होती हैं
कलाकार का रक्तपान कर ,
वह हताश हो उठा
विचारों के ज्यामितिक संतुलन पर टिकी
भावों की अमूर्त ऊष्मा से अनुप्राणित
सृष्टि को आरम्भ में ही
छोड़ चला गया अधूरी
उस पर अंकित कर
अस्पष्ट अज्ञात हस्ताक्षर.
अब वह प्रकाश को भी देदीप्यमान करता
प्रकट नहीं होता
अभेद्य अंधेरों में विलीन हो गया है
अपनी कलाओं से उपेक्षित
कृतियों से तिरस्कृत
रचनात्मक व्याधियों से पीड़ाग्रस्त संक्रमित
वह न्याय की गुहार नहीं लगा सकता
किसी चिकित्सक के पास नहीं जा सकता
सिर्फ़ हँसता है या रो देता
ख़ुद पर तरस नहीं खाता
ज्ञान-भक्ति-योग की कोई राह नहीं पहुँचती उस तक
कलात्मक महत्त्वाकांक्षाओं के तड़ित में
झलक जाता है कभी-कभार.
वह शोक से ऊबकर रहस्य बन गया
अपनी ही परछाईं से भयभीत
छुप गया ग़लतियों के गह्वर में
किसी मासूम कीड़े की तरह —
ओह !
ईश्वर !
वह एक पागल कलाकार था.


सूखी बावली

एक शहर है दिल्ली
जिसके एकांत में हर जगह
प्रेमरत युगल या सम्भोगरत कबूतर आश्रय पाते हैं
दिन ढलने के बाद यहाँ प्रेत उड़ते होंगे शायद
या प्रेमियों के स्वप्न जागते होंगे
नशे के धंधे होते होंगे या वेश्यावृत्ति
मालूम नहीं —
ये बूढ़ा चौकीदार बता सकता है या कुछ पुलिस वाले.
मुझे यहाँ एक परछाईं भर की तलाश है
जो मेरे एकांत में तनिक झाँक ही जाय तो चैन मिले
इतना ख़ाली हूँ भीतर से कि भरा-भरा रहने लगा हूँ
कहाँ-कहाँ नहीं भटकता-फिरता हूँ,
इस वासंती साँझ जहाँ बैठा हूँ
धूप किसी पीले अजगर-सी थकी
सरकती जा रही है बादलों पर
जो ख़ुद उतर जाएगी पश्चिम की घाटी में
विशालकाय लाल कीड़े को खाने
और यहाँ छोड़ जाएगी लम्बी परछाईं का केंचुल —
अजीब है ये दिल्ली की साँझ !
दिल की फ़ितरत भी अजीब है
पत्थर हो जाने पर भी धड़कनों का सोता फूटता रहता है
आत्मा गीली रहती है आख़िरी साँस तक
अनुपस्थितियाँ काई-सी जमी रहती हैं स्मृतियों में
रिक्तियाँ चमगादड़ों-सी चीख़ती हैं खण्डहरों में
सुख-दुःख ताक-झाँक जाते जब-तब खिड़कियों से
सीढ़ियों से उतरता प्रेम लहू के निशान छोड़ जाता है
आत्मीयताएँ व्यतीत होकर नष्ट नहीं होतीं किंतु
चमक खोकर भी वैभवशाली बनी रहती हैं,
बीतता समय दर्ज होता रहता है मिट्टी की डायरी में —
इतिहास समय का रथ है कलाएँ उसमें जुते घोड़े
कलाकर है सारथी : मनस्वी अनुशासित शक्तिमान.
यह अग्रसेन की बावली है
दिल्ली के सीने में धँसी हुई
किसी हत्यारे के तीर की तरह नहीं
माधवी के प्रेम-सी गहरी और शीतल
रानी जब उतरती थी बावली की सीढ़ियाँ
लाल-बलुए-पत्थर पलाश-फूल-से दहकते थे
भीगने से मुख पर आसंजनित केश
नाग-चन्द्र-सम्बंध का औचित्य सिद्ध करते थे
राजा के दुकूल बावली के दोनों सिरे छूते थे,
अहंकारी अट्टालिकाएँ आहों तले दब जाती हैं
प्रेम के प्रतीक बचे रहते हैं युगों तक
बावली बची है अब पानी सूख चुका है …
गुम गया यहाँ रात्रिविश्राम करते शहंशाहों, फ़क़ीरों, व्यापारियों, बंजारों का इतिहास
उनके कहकहे, थकान और गीत बचे हैं
तृप्ति बची है उदासियाँ बची हैं,
किंवदंती है कि सूखने से पहले
इसमें जमा हो गया था काला पानी
जिसमें डूब गए अनगिनत सम्मोहित जन —
ये दिल्ली की प्रेतबाधित जगहों में शामिल है इन दिनों
यहाँ से सिर्फ़ ढाई किलोमीटर दूरी पर है संसद भवन.
वैसे मैं अधिक उम्मीद नहीं कर सकता इस जगह से
इसकी गहराई मेरे विषाद को और गहराती है —
कितनी देर से मेरी आँखें लगी हैं इसकी सतह पर
कितनी बार मेरी दृष्टि लुढ़कती रही इन सीढ़ियों पर
कितनी बार मैं ख़ुद को गिराता रहा हूँ कितनी ही नीचाईयों में
ओह! यह बावली
मुझे धरती के गर्भ तक नहीं पहुँचा देगी
मूल तक पहुँचने की सारी संभावनाएँ चुक गई हैं,
व्यर्थ है यहाँ बैठना जीवन जितना
मुझे तत्काल जलानी होगी सिगरेट
उठ जाना होगा पागलपन का बोझ उठाए
पहाड़गंज में पीनी होगी शराब
रात भर मुझे सड़कों पर लगेंगी ठोकरें
रात भर मैं तारों से करूँगा बात
रात भर मेरी आँखों से झड़ती रहेगी रेत
रात भर मैं चाँदनी से धुलूँगा अपनी आँख.


यात्रा

असफलता मात्र एक स्थिति है
अभाव है अस्थाई समस्या
असामाजिकता कायरतापूर्ण बचाव.
एकांत है दैनंदिन युद्धभूमि में हत्यारों से लड़ने का पूर्वाभ्यास
अँधकार एक मलहम है अंत:स्थ घावों के लिए
प्रकाश आत्महत्या के विरुद्ध एक जिजीविषा.
आँखें साक्षी हैं सब कुछ पीछे छूटते जाने की
दृष्टि है अतीत की धूल झाड़ती हुई
वर्तमान में धँसकर देखने की तमीज़.
अनगिनत अग्निपथों का ताप सहते हुए पाँव हैं
कई नरकों से बाहर निकल आने की उम्मीद.
जीवन जो एक बहुमूल्य हार है
शृंखलाबद्ध दुर्घटनाओं से जड़ित
मृत्यु है इसके परित्याग का स्थाई सुख.
यात्रा इन सबके बीच एक सम्भावना है
खिड़की एक खुला आसमान
अतीत के चलचित्र देखती डूबती यादें हैं.
प्राची की सेज पर अलसाई है मुग्धा भोर
दिवस को सुकृत से कांतिमय बनाती दिव्या दोपहर है
अंशुमाली की बाट जोहती बैठी है आगतपतिका शाम
प्रेयस् को नीलकमल से लुभाती अभिसारिका रात है.
साथ हैं
स्त्रियाँ, पुरुष और बच्चे
हिजड़े, भिखमंगे, चने और चाय वाले
ड्राइवर, गॉर्ड, टीटी, पुलिस
मज़दूर, किसान, नेता और चोर
कवि, क्रांतिकारी, भूखे हुए लोग
हत्यारे, दलाल, खाकर अघाए लोग
पागल और मरीज़
शराबी और प्रेमी,
बीड़ी-सिगरेट पीते लोग
समोसे-पकौड़े खाते लोग
उलटियाँ करते और नाक-भौंह सिकोड़ते लोग
झूठ के धंधे करने वाले
सच की बेगारी करने वाले
न जाने कितने सारे लोग
देसी-परदेसी और विदेशी लोग.
बेजान पटरियों पर
चिंगारियों के फूल खिलाती
मिलन-बिछोह के दो स्टेशनों बीच
उम्र भर भागती,
हवाओं का हृदय बींधती हुई
रेलगाड़ी
एक कविता है
जो यात्रियों को उपमाओं की तरह नहीं ढो रही.





मृत्यु

(मेघ गर्जन)
वर्षा का नैरंतर्य टूटता नहीं :
युद्धभूमि बन जाती कीचसनी
मुक्त आकाशीय मंच,
नाटक यह त्रासद
अभिनेता नहीं योद्धा यहाँ
सहृदय प्रेक्षक नहीं कोई
निर्मम हत्यारे हैं.
अगनपाखी-से उड़ते अस्त्र
बिखेरते भूमि पर ऊष्ण गाढ़ा रक्त
तड़ित-सी गोलियाँ घातक
बेंधतीं हुई बूँदों को
कवचहीन करतीं आत्मा
तीव्र रोशनियाँ
दृष्टि रहीं छीन
विस्फोटक ध्वनियाँ
करतीं देह को विदीर्ण
हिंसा का सुंदर समायोजन है.
नायक चीख़ता है
देख अपनी कटी वज्रबाहु
नायक युद्ध करता हारता है
देखता है
सैकड़ों लाशें लिपटती
सैकड़ों परदों में
बारिश हो रही है
बदलते जा रहे हैं दृश्य.
पहले दृश्य में
है भीगता एक श्वान
चुपचाप घर के द्वार पर मायूस
सामने छूटी पड़ी हैं
चप्पलें टूटी नन्हें किसी बच्चे की,
अगले दृश्य में
वह देखता है खिड़कियाँ
दो झाँकते चेहरे
नमित मुख सौम्य
आँखों में जमी है भूख
होंठों पर शिकायत, नहीं करते,
सिर्फ़ सूखी टहनियों से
हैं बनाते चित्र —
गीली भूमि पर एक आइना है
जिसमें झाँककर वह सिहर जाता है.
और फिर वह देखता है
व्योम श्यामल अति भयावह
तीर बरसाता छतों पर बारिशों की
भीगती है अलगनी सब वस्त्र अस्त-व्यस्त
नहीं आती जो तुरंत ही पहुँच जाती थी
कहाँ है वह ?
आत्मीया छवि सजीली
कहाँ है वह ?
दीखती ही नहीं प्यारी !
ध्यान देती नहीं व्यग्र पुकार पर !
वह रोक देना चाहता है एक पल को
देख ले और चूम ले सुकुमार उसके हाथ
असहाय जीवन का प्रफुल्लित साथ
नहीं सम्भव प्रेम भी इस एक पल को.
अंतिम दृश्य में वह स्वयं है
पर देखता है नहीं ख़ुद को
रक्त और कीच से लिपटा
झुकाए माथ अपने
अस्त्र-शस्त्र विहीन
गोलियों से बिंधी है देह
नष्ट हुई नीड़
से उड़ गई चिड़िया मुलायम पंख वाली ,
वह गिरा ज्यों आख़िरी उम्मीद
फिसलता गया गहरे गर्त में
काग़ज़ की नाव-सा तिरता
भूमि पर खींचता शोक का दीर्घ परदा
नष्ट होते अंत का वह अंत करता.
(वर्षा में मृत्यु सर्वाधिक कारुणिक दृश्य है)


इन दिनों  

नींद के इंतज़ार में सुबह हो गई
पसीने की सफ़ेदी पर पानी पोंछ
क़मीज़ दिन भर हाँफती भागती रही
उम्मीदें धक्के खाती रहीं बसों और कार्यालयों में
जीवन महानगरीय गतियों और चालों तले कुचलता रहा,
कीचड़ का बोझ ढोती चप्पल
लँगड़ाती हुई खोजती रही
किसी मोची की दुकान
दृष्टि इतनी रही पस्त
कि एक बार भी देख न पायी आसमान,
सिक्के खनकना बंद होने तक लुटते रहे
जेबकतरों, दलालों, भिखमंगों और सुंदरियों से
क़लम की नोंक तीखी होती रही
प्रार्थना-पत्रों पर
चाक़ू मारते रहे
शोर
और
शब्द.
सड़कों पर
कुत्ते कूड़े में खोजते रहे अपना प्राप्य
कोई टटोलता रहा धूल में खोया भाग्य
दिन भर
कल्पनाएँ दरवाज़े पर पहुँच कर चाभी-सी खो गईं
हथौड़े की चोट से टूट गई लय
बिम्ब खिड़कियों के जालों में जा लगे
प्रतीक घुल गए स्थायी ख़ालीपन में
अनुभव गंधाते मिले दो दिन के जूठे बर्तनों में,
दीवाल की सीलन पर संतुलन साधती रही
भाषा सहमी हुई छिपकली-सी ताकती रही
रस रिसता रहा आँखों से लगातार,
शिल्प को उखड़ती खूँटी पर टाँगकर
अंधेरे में कोई विषय खोजती हारती
पसीने और चिंता में बूड़ी
कविता
थककर
सो
गई.
________________
सुघोष मिश्र
एम फ़िल (हिंदी साहित्य)
दिल्ली विश्वविद्यालय
sughosh0990@gmail.com
Tags: कवितासुघोष मिश्र
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