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समालोचन

Home » परिप्रेक्ष्य : मोदियानो : गीत चतुर्वेदी

परिप्रेक्ष्य : मोदियानो : गीत चतुर्वेदी

२०१४ के साहित्य के नोबेल पुरस्कार की जब घोषणा हुई तब फ्रेंच भाषा के लेखक Patrick Modiano  की भारत जैसे अंग्रेजी के उपनिवेश रह चुके देश में तलाश शुरू हुई. फ्रांस के इस सर्वाधिक लोकप्रिय लेखक को हम कितना जानते हैं ?गीत चतुर्वेदी  ने इस अवसर पर  मोदियानो के साहित्य की गम्भीर विवेचना करते हुए […]

by arun dev
October 11, 2014
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२०१४ के साहित्य के नोबेल पुरस्कार की जब घोषणा हुई तब फ्रेंच भाषा के लेखक Patrick Modiano  की भारत जैसे अंग्रेजी के उपनिवेश रह चुके देश में तलाश शुरू हुई. फ्रांस के इस सर्वाधिक लोकप्रिय लेखक को हम कितना जानते हैं ?
गीत चतुर्वेदी  ने इस अवसर पर  मोदियानो के साहित्य की गम्भीर विवेचना करते हुए उनकी तुलना अनेक लेखकों से की है. साथ ही नोबेल पुरस्कार की अपनी राजनीति पर भी उनकी नजर है. खास आलेख.  

        


प्रूस्‍त, पैट्रिक मोदियानो और नोबेल पुरस्‍कार             

गीत चतुर्वेदी 
फ्रेंच लेखक पैट्रिक मोदियानो को नोबेल पुरस्‍कार की घोषणा के बाद पुरस्‍कार समिति के पीटर इंग्‍लंड ने उन्‍हें ‘हमारे समय का मार्सल प्रूस्‍त’ कहा. यह एक बेहद बुनियादी और दिलचस्‍प उद्गार है, जहां से मोदियानो के रचनाकर्म को समझने की शुरुआत हो सकती है. लेकिन उससे पहले उन उद्गारों पर नज़र डाली जाए, जिन्‍हें उनकी विशेषता के रूप में व्‍यक्‍त किया गया : \”(यह पुरस्‍कार) स्‍मृति की कला के लिए, जिसके ज़रिए उन्‍होंने मनुष्‍य के प्रारब्‍ध के अनछुए पहलुओं को छुआ और नाज़ी क़ब्‍ज़े के दौरान जिए गए जीवन को वर्तमान समय में प्रस्‍तुत किया.  स्‍मृति,  लोप, मनुष्‍य की पहचान और समय उनकी मुख्‍य थीम हैं.’’

मोदियानो की थीम उन्‍हें प्रूस्‍त के क़रीब खड़ा करती है. जब कोई लेखक स्‍मृति को अपनी रचनाशीलता का मूल आधार बनाता है, लंबे समय तक लिखता है, तो अंत में पाता है कि वह जीवन-भर दरअसल एक ही किताब लिखता रहा, अलग-अलग खंडों में, अलग-अलग शीर्षक से. और यही कारण है कि नोबेल की घोषणा के बाद जब समिति ने मोदियानो से फोन के ज़रिए पहला औपचारिक साक्षात्‍कार लिया, तो उसमें लेखक ने यही कहा- ‘मुझे अब ऐसा लगता है कि पैंतालीस साल से मैं एक ही किताब लिख रहा था.’ मोदियानो या किसी भी अन्‍य लेखक को यह अहसास अपने रचनाकर्म के मध्‍यांतर में ही हो जाए कि वह दरअसल एक ही किताब लिख रहा, तो वह अपनी धारा बदलने को छटपटा जाए. किंतु यह इस थीम का प्रताप है कि भले लेखक इसे सचेत चुने या अचेत, यह अहसास बहुत लंबे समय बाद आता है.

यही कारण है कि प्रूस्‍त का सारा लेखन भी एक ही किताब की महत्‍वाकांक्षी रचना की अलग-अलग जिल्‍द है. क़रीब पंद्रह लाख शब्‍दों, चार हज़ार पन्‍नों व सात खंडों में फैला उनका उपन्‍यास ‘रिमेबरेंस ऑफ थिंग्‍स पास्‍ट’ (या उसका नया नाम ‘इन सर्च ऑफ़ लॉस्‍ट टाइम’) स्‍मृति का वृहत् आख्‍यान है. प्रूस्‍त का ज़ोर मनुष्‍य की ऐतिहासिक स्‍मृति से ज़्यादा उसके निजी मानसिक इतिहास पर है. भौतिक बाहरी और अधिभौतिक भीतरी दबावों के बीच स्‍मृति एक पीड़ाधारी देह है, जो कभी नक्षत्रों की तरह चमकती है, तो कभी अंधेरे की किरण की तरह प्रकाश के वृत्‍त को दो-फांक कर देती है. वह बेहद गंभीर, शास्‍त्रीय और चिंतनशील रचनात्‍मकता है, जो न केवल साहित्‍य को, बल्कि मनोविज्ञान को भी नई दिशा देती है. मनोविज्ञान-शास्‍त्र में कई अवधारणाएं प्रूस्‍त के इस उपन्‍यास के कारण ही विकसित हुईं और उनका नामकरण प्रूस्‍त द्वारा प्रयुक्‍त शब्‍दावलियों में ही किया गया. प्रूस्‍त को नोबेल पुरस्‍कार नहीं दिया गया था, लेकिन मोदियानो को पुरस्‍कार की प्रशस्ति के समय ‘हमारे समय का प्रूस्‍त’ कहा गया. इसमें नोबेल समिति के प्रायश्चित का भी अंतर्पाठ संभव है.

किंतु क्‍या मोदियानो सच में हमारे समय के प्रूस्‍त हैं?  यदि सिर्फ़ थीम की बात की जाए, तो ऐसा कहा जा सकता है, लेकिन दोनों के पूरे रचनाकर्म का ध्‍यान रखा जाए, तो यह उद्गार महज़ एक डेकोरेशन है, कम जाने गए एक लेखक की ओर ध्‍यानाकर्षण करने वाला डेकोरेशन. मोदियानो की थीम भी स्‍मृति है, उसका लंबा आलाप व आख्‍यान है, स्‍मृति की विभीषिकाओं से गुज़रते हुए मनुष्‍य की पहचान के संकट को रेखांकित करने का उपक्रम है, निजी स्‍मृति व सामूहिक स्‍मृति के बीच किसी डोर पर नट की तरह चलते रहने का संतुलन है. प्रूस्‍त बेहद बीसवीं सदी थे, मोदियानो उनका संक्षेपित विस्‍तार हैं. तुलना के उस उद्गार के संदर्भ में यही उनकी विशेषता है. एक विस्‍तार, जो कि संक्षिप्‍त हो, संक्षेपित हो. संक्षेपण को विस्‍तार नहीं माना जाता, फिर भी मोदियानो अपनी थीम में, प्रूस्‍त के संक्षेपित विस्‍तार हैं. थीम के प्रति लेखकीय व्‍यवहार, उपन्‍यास-कला, क्राफ़्ट व अन्‍य संरचनागत स्‍तरों पर वह प्रूस्‍त से काफ़ी अलग हैं. उनके उपन्‍यास पचास हज़ार शब्‍दों या डेढ़ सौ पन्‍नों में समाप्‍त हो जाते हैं. (ख़ुद पीटर इंग्‍लंड ने अपनी प्रेसवार्ता में कहा था, ‘आप लंच के बाद उनकी किताब पढ़ना शुरू कीजिए. शाम से पहले ख़त्‍म कर दीजिए. आराम से डिनर कीजिए और उसके बाद नींद आने से पहले उनकी दूसरी किताब भी पढ़कर पूरा कर दीजिए.’ हल्‍की-फुल्‍की यह टिप्‍पणी उनकी किताबों के भौतिक आकार पर ही थी.) प्रूस्‍त की तरह वह स्‍मृति पर मनोवैज्ञानिक व दार्शनिक मान्‍यताएं स्‍थापित करते नहीं चलते (प्रूस्‍त के बाद के लेखकों में सबसे अच्‍छी तरह यह प्रयोग कुंदेरा ने किया है), बल्कि स्‍मृतियों के स्‍फुलिंग व स्‍मृतियों के विलोप जैसी मान्‍यताओं से जुड़े किसी एक प्रसंग को उठाते हैं, उसके आसपास सहज-योग पद्धति का ध्‍यान करते हैं, फिर उन मान्‍यताओं को ही संकटग्रस्‍त कर देते हैं. प्रूस्‍त के पास स्‍मृति का हठ-योग है, मोदियानो स्‍मृति के सहज-योग में वास करते हैं. यही उनका विस्‍तार भी है. प्रूस्‍त अपने लेखकीय वर्तमान को आधार बनाते हैं, मोदियानो लेखकीय वर्तमान को छोड़कर नज़दीकी इतिहास में चले जाते हैं. व्‍यक्ति की स्‍मृति, समूह द्वारा रचे गए इतिहासों को संदिग्‍ध बनाती है. साहित्‍य, वैयक्तिक व व्‍यक्‍तिगत स्‍मृतियों को सहेजने का काम कहीं ज़्यादा जि़म्‍मेदारी से करता है. इसीलिए दुनिया का सारा इतिहास, साहित्‍य से संकटग्रस्‍त होता आया है. 

मोदियानो के चरित्र याद करने से इंकार कर देते हैं. हिंदी आलोचना की तेवर वाली पदावली का प्रयोग किया किया जाए, तो – उनके उपन्‍यास ‘स्‍मरण के खि़लाफ़ विद्रोह’ हैं. जब भी कुछ बेहद ज़रूरी याद करने का मौक़ा आता है, वे याद करने के विरुद्ध खड़े होते हैं. इसका सूत्र उस फ्रेंच इतिहास में है, जिसे मोदियानो ने अपनी रचनाओं का प्राकृतिक आवास बनाया है. उनके उपन्‍यास ‘आउट ऑफ़ द डार्क’ में नायक साठ के दशक में एक लड़की से प्रेम करता है. दोनों अलग हो जाते हैं. पंद्रह साल बाद दोनों की मुलाक़ात फिर से होती है. इस बीच लड़की अपना नाम, पेशा, पहचान आदि बदल चुकी है. नायक उसे उसके चेहरे से पहचानता है, जिसे वह बदल नहीं पाई है. वह उससे बात करने की कोशिश करता है, लेकिन लड़की हर बात से इंकार करती जाती है. वह पूरे अतीत से इंकार कर देती है. यह ज़ाहिर है कि लड़की को उस अतीत ने इतनी तकलीफ़ दी थी कि उसने अपनी पहचान बदल ली. जब वही अतीत फिर उसके सामने आकर खड़ा हो गया, तो उसने उसे मान्‍यता नहीं दी. उसने अतीत को ठुकरा दिया. अतीत को ठुकराना व्‍यक्ति को ठुकराने से अलग है. यह अपने अ-व्‍यक्ति को ठुकरा देने जैसा है. यह भी स्‍पष्‍ट है कि लड़की को विस्‍मृति नहीं है, फिर भी वह स्‍मृति में लौटना नहीं चाहती. याद न करना भी एक विद्रोहात्‍मक कार्यवाही हो सकती है. यह निजी स्‍मृति का नकार है. पाठक इस ऊहापोह में पड़ जाता है कि लेखक या नायक सही कह रहा है या वह लड़की सही कह रही है. नायक ने पहचानने में भूल की है या लड़की झूठ पर झूठ बोले जा रही. छोटा-सा यह उपन्‍यास इसी द्वंद्व में चलता है. नायक अंत में एक ऐसी जगह को देखता है, जिसे वह पहले जानता था, जहां पहले बहुत सारी राहबत्तियां जलती थीं, लेकिन अब वहां एक भी राहबत्‍ती नहीं जल रही. घुप्‍प अंधेरा है. वहां पहले कॉफ़ी हाउस, थिएटर थे, लेकिन अब नहीं हैं. अब सिर्फ़ उनके साइनबोर्ड बचे हैं. उनमें से एक अब भी दमक रहा है, बेबात ही दमक रहा है. ये सारे साइन बोर्ड स्‍मृति के स्‍फुलिंग हैं. एक ही बोर्ड दमक रहा, बाक़ी कोई नहीं. दमकना बोर्ड की स्‍मृति है. बोर्ड ने अपने दमकने से इंकार कर दिया है. बोर्ड ने अपनी स्‍मृति को नकार दिया है. सिर्फ़ एक बोर्ड दमक रहा है, यानी पूर्ण विस्‍मृति का घटाटोप नहीं है, स्‍मृति कहीं न कहीं उपस्थित है. मोदियानो यही दिखाना भी चाहते थे- भीतर स्‍मृति थी, लेकिन उससे बड़ा उसका नकार था, इसलिए भीतर स्‍मृति का नकार बचा.

एक दूसरे उपन्‍यास में युवाओं का एक समूह अपनी सामूहिक स्‍मृति को नकार देता है. किसी एक घटना से उनकी स्‍मृति जाग जाती है, उन्‍हें एक पूरा इतिहास याद आने लगता हो, लेकिन वह समूह उस इतिहास से मना कर देता है. पिछले उपन्‍यास में निजी स्‍मृति का नकार था, यहां सामूहिक स्‍मृति का नकार है.

प्रूस्‍त ने इनवालंटरी मेमरी या अनिच्‍छुक स्‍मृति को अपनी रचनाधर्मिता का आधार बनाया था. मनोविज्ञान की शब्‍दावली में यह शब्‍द भी प्रूस्‍त के ज़रिए ही आया. सरल रूप से इसे इस तरह समझ सकते हैं – जब हम कोई चीज़ या घटना देखते-महसूस करते हैं, तब वह हम पर इस तरह प्रभाव पैदा करती है, कि उससे जुड़ी कोई स्‍मृति हमें अपने पाश में ले लेती है. उससे पहले वह स्‍मृति हमारी नियमित स्‍मृति में नहीं होती, लेकिन एक बाह्य उपकरण उसे जगा देता है. उसके बाद, उसके ज़रिए हम कई चीज़ें याद करने लग जाते हैं. स्‍मृतियों की एक कड़ी चल पड़ती है. जैसे चांदी का एक गिलास हमारी नियमित स्‍मृति में नहीं, लेकिन एक दिन उसे देखते ही हमें याद आ जाता है कि एक बार हमने चांदी के गिलास में शरबत पिया था. इसके साथ यह याद आना शुरू होता है कि वह शरबत किसके यहां पिया था, उससे हमारा क्‍या रिश्‍ता था, क्‍या वह व्‍यक्ति अब भी हमारे जीवन में है या खो चुका है. इस तरह एक लंबी कड़ी बननी शुरू होती है. वह जो पहली स्‍मृति है, जो चांदी के गिलास को देखने से जगी, वह अनिच्‍छुक स्‍मृति थी. उसकी अनिच्‍छा ने शेष स्‍मृतियों को इच्छित कर दिया.

ऊपर मैंने मोदियानो के जो उदाहरण दिए हैं, वे दोनों ही प्रूस्‍त की इनवालंटरी मेमरी के प्रतिलोम में खड़े होते हैं. दोनों ही उदाहरणों में इनवालंटरी मेमरी उपस्थित होती है, पहले में निजी, दूसरे में सामूहिक. उसके ज़रिए स्‍मृति की पूरी मेखला जग सकती थी, किंतु मोदियानो ऐसा नहीं करते. वह स्‍मृति की प्रक्रिया को बाधित कर देते हैं. इनवालंटरी का महत्‍व तभी है, जब उसके ज़रिए अन्‍य स्‍मृतियां जागृत हो जाएं. यदि आप जागृत ही न होने दें, तो पूरी प्रक्रिया महत्‍वहीन हो जाती है. यह स्‍मृति की पीड़ा को पुन: आविष्‍ट न होने देने की चेष्‍टा है. एक तरह से स्‍मृति व उसकी पीड़ा का नकार है, तो दूसरी तरफ़ यह नए अर्थों में प्रूस्‍त का परिष्‍कार भी है.

चीनी मूल की अमेरिकी उपन्‍यासकार यियून ली, जिनकी किताबें मुझे बेहद प्रिय हैं, एक साक्षात्‍कार में अपनी किताबों के बारे में कहती हैं, ‘हर किताब किसी दूसरी किताब से संवाद कर रही होती है. हर लेखक अपनी किताब के भीतर अपने प्रिय किसी दूसरे लेखक से बातचीत करता है.’ यानी किताब सिर्फ़ कहानी नहीं कह रही, वह किसी दूसरी किताब के साथ चर्चा में मशग़ूल भी है. यदि हमने वह किताब पढ़ रखी है, तो तलहटी के स्‍तर पर चल रही उस चर्चा से तारतम्‍य बना सकते हैं. मोदियानो के उपन्‍यास तलहट पर प्रूस्‍त की किताबों के साथ संवाद में मगन रहते हैं. वे कभी प्रूस्‍त को संकट में डालते हैं, कभी ठीक उन्‍हीं के रास्‍ते पर चलते हैं, तो कभी एकदम से उनका मज़ाक़ उड़ाते भी नज़र आते हैं.

लेखक अपने लेखन के ज़रिए आत्‍म की तलाश में रत होता है. जब वह बाहरी दुनिया की कहानी लिखता है, जो किसी तृतीय पुरुष को अपना चरित्र बनाता है, लेकिन जब वह भीतर दुनिया की कहानी की ओर जाता है, तो प्रथम पुरुष की तरफ़ आता है. इस तलाश को और वैयक्तिक बनाते हुए वह तृतीय पुरुष को अलग कर देता है, ख़ुद लेखक को ही प्रथम पुरुष में अभिव्‍यक्‍त करना शुरू करता है. यह एक उत्‍तर-आधुनिक उपकरण है. इसीलिए उत्‍तर-आधुनिक, जिसे मैं आगे ‘पो-मो’ शब्‍द से संबोधित करूंगा, उपन्‍यासों में आपको अक्‍सर मुख्‍य चरित्र ऐसा मिलेगा,  जो स्‍वयं लेखक है और एक लेखक के रूप में ही अपनी किताब में शामिल भी है. प्राचीन भारतीय साहित्‍य में इसके सबसे अच्‍छे उदाहरण वाल्‍मीकि और वेद व्‍यास हैं. दोनों ही अपनी किताबों में लेखक के साथ-साथ एक चरित्र के रूप में भी उपस्थित होते हैं, हालांकि बेहद कम समय के लिए और आख्‍यान पर अपनी इस उपस्थिति का अधिक प्रभाव नहीं डालते, लेकिन बीसवीं सदी में,  ख़ासकर पश्चिमी पो-मो उपन्‍यासों में,  लेखक एक साथ दो स्‍तरों पर अपनी किताब में उपस्थित होता है. आधुनिक साहित्‍य में इस प्रयोग की भव्‍यता मार्सल प्रूस्‍त से शुरू होती है. प्रूस्‍त के पास अपना मार्सल है, काफ़्का के पास मिस्‍टर के. बोर्हेस के पास बोर्हेस है, ‘आय’ है. ऑस्‍टर के पास पॉल है. कुत्‍सी के पास जॉन है. फिलिप रॉथ के पास ख़ुद के अलावा टॉर्नोपोल,  ज़ुकरमान और केपेश हैं. कल्‍वीनो के पास अपना ‘रायटर’ है, जो जाने कौन-सी किताब लिख रहा है. अमोस ओज़ के पास भी एक अनाम ‘ऑथर’ है,  जो कॉफी हाउस में बैठता है,  किसी वेट्रेस के नितंब देखता है,  और वहीं बैठे-बैठे उसकी कहानी रचने लगता है,  जो कि ख़ुद ऑथर की कहानी बनती जाती है. कुंदेरा के पास भी ऐसा है. बोलान्‍यो के पास  आर्तुरो बेलानो और हुआन गार्सीया मादेर्रो है. ये सब प्रसिद्ध लेखकों के उदाहरण हैं. ऐसे कई उदाहरण दिए जा सकते हैं. आखि़र इनके पास ऐसे चरित्र क्‍यों हैं?  ये सारे चरित्र इस समाज में एक लेखक की नैतिकता व उसकी नियति का संधान करते नज़र आते हैं. ये सारे चरित्र स्‍व की खोज में निकले हुए यात्री हैं. ये सब एक ‘पराए’ स्‍व के ज़रिए ‘अपने’ स्‍व की तलाश में लगे हैं. सारे महान उपन्‍यास अंतत: एक यात्रा-वृत्‍तांत होते हैं- स्‍व की तलाश की यात्रा का वृत्‍तांत. 

मोदियानो इसी परंपरा से जुड़ते हैं. उनके फिक्‍शन को इन सबसे अलग करके नहीं, बल्कि इन्‍हीं की कड़ी में देखना चाहिए. वह फिक्‍शन और ऑटोबायोग्राफ़ी को समाहित कर देते हैं. उनका लेखक जब एक चरित्र के रूप में उपस्थित होता है,  तो वह फ़ैक्‍ट होता है, जबकि उपन्‍यास फिक्‍शन के स्‍तर पर चल ही रहा है. इस फिक्‍शनल ऑटोबायोग्राफ़ी को कई आलोचक ‘ऑटो-फिक्‍शन’ कहते हैं. मोदियानो को ऑटो-फिक्‍शन का लेखक माना जाता है. वह ख़ुद मानते हैं कि वह विशुद्ध आत्‍मकथा कभी नहीं लिख सकते. वैसे भी, वह अपने उपन्‍यासों में तथ्‍यों का बेहद सटीक प्रयोग करते हैं. एक ऐसी आत्‍मकथा, जिसमें लेखक ने जानते-बूझते आत्‍मकथा के दायरों को भंग किया है,  विधा के रूप में आत्‍मकथा के केंद्रीय विचार को, परिष्‍कृत करते हुए महज़ आत्‍म की घटनात्‍मक कथा कहने के बजाय, आत्‍म का निरूपण करने वाली कथा के रूप में बरता है. सुधी पाठक इस संदर्भ में नबोकफ़ की ‘स्‍पीक, मेमरी’, फिलिप रॉथ की ‘द फैक्‍ट्स’ और जे. एम. कुत्‍सी की ‘बॉयहुड’, ‘यूथ’ और ‘समरटाइम’ जैसी त्रयी का स्‍मरण कर सकते हैं. इन सभी किताबों में लेखकों का प्रयास है कि वे आत्‍म की कथा बांचने के बजाय अपने आत्‍म-तत्‍व का निरूपण कर सकें,  उसके संधान की दिशा तय कर सकें. 

थीम के स्‍तर पर मोदियनो की जो यात्रा प्रूस्‍त के संसार व प्रति-संसार के पुनर्संधान से शुरू होती है, संरचना के स्‍तर पर वह पो-मो कथाख्‍यान शैली का ग्रहण करती है. स्‍व की तलाश के लिए स्‍व को साधन बनाना. अपने लिए अपना ही एक ‘पराया’ स्‍व गढ़ना. यह प्रतिबिंब देखकर अपना रूप संवारने जैसा है. वह बेहद आत्‍म-चेतस हैं. वह भूलने नहीं देते कि पाठक दरअसल एक किताब पढ़ रहा है, वह ख़ुद भी बीच-बीच में पाठक की तल्‍लीनता को कोंचते रहते हैं, 19वीं सदी के उपन्‍यासों की तरह वह पाठक को पूरी तरह कथा व कथारस के भीतर बह नहीं जाने देते,  बल्कि अपनी संरचना को इस तरह ऊबड़-खाबड़ करते चलते हैं कि पाठक को बीच-बीच में पर्याप्‍त झटके लगते रहें. वह पारंपरिक अर्थों में कथावाचक, कि़स्‍सागो या स्‍टोरीटेलर नहीं हैं. हिंदी में,  और अंग्रेज़ी में भी,  अधिकांश पाठक कि़स्‍सागोई खोजा करते हैं. कि़स्‍सागोई एक छल-आवरण है,  एक कि़स्‍म का कैमोफ़्लेज,  जिससे लेखक अपनी दीग़र कमज़ोरियां छिपा ले जाना चाहता है और पाठक जिसके ज़रिए अपना एक विलास-लोक या कंफर्ट-ज़ोन तैयार करता है. पाठक को आसानी होगी, वह तुरंत रचना में प्रवेश कर लेगा, सुविधाजनक आवाजाही करेगा. पो-मो संरचना लेखक की उन दीग़र कमज़ेारियों को उजागर करती है और अपना वितान उन्‍हीं कमज़ोरियों पर रचती भी है,  इसीलिए पो-मो कथाख्‍यान शैली को शिरोधार्य करने वाले लेखक पांरपरिक कि़स्‍सागोई को किनारे रख देते हैं. इसी के साथ-साथ वह पाठक को लगातार अलर्ट रहने को भी कहती है. यह अहसास बार-बार दिलाती है कि वह जो कुछ पढ़ रहा है, वह एक पुस्‍तक है,  और इसके साथ उसका व्‍यवहार एक पाठक की तरह होना चाहिए. इसीलिए वह पाठकीय सरलताओं की अवहेलना करती चलती है.

पारंपरिक कि़स्‍सागोई से प्रस्‍थान भी परंपरा में एक हस्‍तक्षेप जैसा है. थीम या विचार के लिए लेखक परंपरा के पास जा सकता है,  क्‍योंकि थीम एक सार्वजनीन विषय-वस्‍तु-व्‍यापार है. थीम का वैयक्तिक होना क़तई अनिवार्य नहीं,  लेकिन कोई भी लेखक परंपरा के ज़रिए दृष्टि नहीं पा सकता. साहित्‍य में उधार की दृष्टि लंबे समय तक नहीं चल पाती. हर लेखक को अपनी एक वैयक्तिक दृष्टि तलाशनी होती है,  जैसे हर शरीर के पास अपनी एक जोड़ी निजी आंख होती है. इसीलिए मोदियानो भी अपनी एक दृष्टि की तलाश में पो-मो कथाख्‍यान शैली के पास जाते हैं,  और मुख्‍यत: डिटेक्टिव शैली का प्रयोग करते हैं.

पांरपरिक कि़स्‍सागोई से किनारा कर लिया,  पाठक को सुविधाजनक हिस्‍सा भी नहीं दिया, तो किताब के क्राफ्ट के भीतर उस ‘ब्रीदिंग स्‍पेस’ को कैसे बनाया जाए,  जिसमें कहन और पठन एक साथ चलते रह सकें?  इस सवाल से जूझने के बाद ज़्यादातर लेखक कथाख्‍यान के लोकप्रिय उपकरण डिटेक्टिव शैली का प्रयोग करते हैं. पो-मो कथाख्‍यान शैली में रचे गए अधिकांश उपन्‍यासों या कहानियों में यह डिटेक्टिव या मिस्‍ट्री शैली अपनी-अपनी निजी विशेषताओं-कमियों के साथ दिखाई पड़ती है. मुख्‍य पात्र एक आभासी कि़स्‍म के रहस्‍य को खोज निकालने के पीछे पड़ा रहता है. यह पराए आवरण में अपनी बात की पोशीदगी है. कई बार यह रहस्‍य (या मिस्‍ट्री) शुरू में या बीच में ही खुल जाता है, लेकिन लेखक उसकी चिंता नहीं करता,  क्‍योंकि उसने सिर्फ़ शैली के रूप में डिटेक्टिव संरचना को अपनाया है,  उसके कथ्‍य की संरचना कुछ और है. इसीलिए रहस्‍यों के खुल जाने के बाद भी वह पेज-टर्नर के रूप में इसका प्रयोग करता चलता है. बोर्हेस की कहानियां इस शैली का अप्रतिम उदाहरण हैं. उनमें अंत में शरलॉक होम्‍स जैसा कुछ घटित नहीं होता,  कोई ऐसी चीज़ नहीं होती,  जिससे पूरी कहानी में चली आ रही अवधारण सिर के बल खड़ी हो जाए,  लेकिन फिर भी पूरी कहानी का आवरण किसी मूर्त या अमूर्त चीज़ की तलाश में बुना गया होता है. ओरहन पमुक की ‘द ब्‍लैक बुक’,  उम्‍बेर्तो ईको की ‘द नेम ऑफ़ द रोज़’,  ऑस्‍टर की ‘न्‍यूयॉर्क ट्रायलॉजी’और बोलान्‍यो की ‘द सैवेज डिटेक्टिव्‍स’ को इसी सिलसिले में रखा जा सकता है.
मोदियानो की सबसे चर्चित कृति है- ‘मिसिंग पर्सन’. नायक एक प्रायवेट जासूस है. उसे स्‍मृतिलोप होता है और वह ख़ुद को ही भूल जाता है. वह अब तक के जीवन में दूसरों की समस्‍याएं सुलझाता आया है,  अब उसके सामने स्‍व एक समस्‍या की तरह है. यह द्वितीय विश्‍वयुद्ध के दौरान वह ख़ास हिस्‍सा है, जब फ्रांस के एक भाग पर नाज़ी क़ब्‍ज़ा हो जाता है. मोदियानो फ्रांस के इसी दौर को अपनी रचनाओं का बैकड्रॉप बनाते रहे हैं. यह बात बार-बार कही जाती है कि फ्रांसीसी इस दौर को अपनी  स्‍मृति के भंडार से निकाल देना चाहते हैं. मोदियानो इसी दौर की स्‍मृति को जिलाते हुए स्‍मृति के प्रति अनिच्‍छा को अपनी रचनाओं में दिखाते रहे हैं. इस दौर में कई लोगों ने ऐसी करतूतें कीं,  जिन्‍हें वे बाद में भूल जाना चाहते थे या जिनके लिए उन्‍हें बाद में सार्वजनिक या निजी माफि़यां मांगनी पड़ीं. उसी दौर में यह नायक अपनी स्‍मृति खो बैठता है. वह अपनी पहचान की तलाश में निकलता है. उसे बेहद कम लोग मिलते हैं,  क्‍योंकि उसके साथ के लोग अब खो चुके हैं और अगर हैं भी, तो वह उन्‍हें कैसे पहचान पाएगा. उसे अपने आसपास से बहुत सारे सुराग़ मिलते हैं,  वह उन्‍हें आधार बनाकर अपने होने की एक थ्‍योरी बनाता चलता है. कहीं उसे पता चलता है कि वह किसी हॉलीवुड अभिनेता का सहायक था,  तो कहीं यह कि वह कोई राजदूत था. एक जगह उसे पता चलता है कि वह एक यूनानी दलाल था. एक जगह उसकी थ्‍योरी उसे बताती है कि वह इन सभी व्‍यक्तित्‍वों का मिश्रण था. उसे कहीं भी यह पता नहीं चलता कि स्‍मृति-लोप से पूर्व भी वह एक जासूस ही था. इस थ्‍योरी में कई त्रासद, कई कॉमिक इज़ाफ़े होते रहते हैं.  उसे जो जैसा बोलता है, वह वैसा करने लग जाता है. उसे समझ में आता है कि वह सिर्फ़ स्‍मृति ही नहीं खोया है, बल्कि बहुत कुछ खो बैठा है. बुनियादी बात तो यह है कि वह अपना स्‍व ही खो बैठा है,  जिसकी तलाश में उसने यह यात्रा शुरू की थी. ऐसी मिस्‍ट्री का क्‍या अंत हो सकता है? सिवाय इसके कि वह पहचान के संकट की भूलभुलैया में भटकता रह जाता है. जासूसी कथा शैली के अभ्‍यस्‍त पाठकों को अंत में हमेशा एक नतीजे की तलाश होती है. ऐसे पाठकों को झटका लगता है,  जब उपन्‍यास उन्‍हें किसी सुपाच्‍य परिणति तक नहीं ले जाता. पूरे उपन्‍यास में नायक को पदचाप की ध्‍वनि सुनाई पड़ती है, कभी रेत से, कभी फ़र्श से. बीच में कहीं आया एक वाक्‍य उपन्‍यास की कुंजी खोलता है : रेत पर हमारे पदचिह्न पड़ते हैं, पर महज़ कुछ पलों के लिए.

मोदियानो इस शैली का प्रयोग तो करते हैं,  लेकिन इस शैली को ही अपूर्ण बता देते हैं. मिस्‍ट्री को वह स्‍व के संधान में समाप्‍त में करते हैं और मिस्‍ट्री शैली को ही अपर्याप्‍त क़रार देते हैं. सिर्फ़ मोदियानो ने ही नहीं,  पिछले पचास साल के कई लेखकों ने मिस्‍ट्री शैली का प्रयोग इस तरह कर इस शैली की अपूर्णताओं को उजागर किया है. आखि़र इन जैसे लेखकों को आत्‍म के संधान के लिए जासूसी शैली की ज़रूरत क्‍यों पड़ती है?  मैं इस पर हमेशा हैरान होता रहा. मेरे ख्‍़याल से इसका उत्‍तर उसी तलाश में छिपा हुआ है. किसी चीज़ की तलाश करना, उसके खोए हुए को पुष्‍ट करना है. जब कोई चीज़ खोई हुई होगी,  तो उसमें मिस्‍ट्री या रहस्‍य का भाव होगा. उसे खोजने में दस जगह जाना पड़ेगा,  वे दसों जगहें दिलचस्‍प हो सकती हैं,  वह दिलचस्‍पी कथासूत्र का विकास करेगी. यानी चोर-हत्‍यारे की खोज करने वाले उपन्‍यासों की शैली का प्रयोग अपने अत्‍यंत निजी आत्‍म या स्‍व की खोज करने में किया जा सकता है. अपराध के सूत्रों की खोज जितनी ही रोचक यात्रा हो सकती है अपने अधिभौतिक सूत्रों की खोज करना. अपने होने का कारण खोजना उतना ही रोमांचक हो सकता है,  जितना होम्‍स की कोई यात्रा.

एक बड़ा सवाल खड़ा होता है कि आत्‍म की तलाश आखि़र क्‍यों की जाए?  इसका सभी के पास अपना जवाब है. मैं जिस भाषा में यह लेख लिख रहा हूं,  उस भाषा के साहित्यिक माहौल का आलम ऐसा है कि ‘आत्‍म की तलाश’ जैसा कोई भी शब्‍दबंध इस्‍तेमाल करते ही लेखक पर आध्‍यात्मिक होने का लेबल जड़ दिया जाता है. मनुष्‍य के भौतिक संकटों को स्‍थूल रूप से तरजीह दी जाती है. ऐसी बातें कही जाती हैं,  जिनसे यह लगे कि आत्‍म की तलाश और भौतिक संकट दो अलग-अलग चीज़ें हैं. इस द्वैत को स्‍थापित करते हुए आत्‍म–विषयी को निकृष्‍ट और भौतिक संकट-विषयी को श्रेष्‍ठ साबित किया जाता है. यह सोच तथाकथित प्रगतिशील (निश्-)चेतना का पतनशील बाय-प्रोडक्‍ट है. लंबे समय में इसने हिंदी उपन्‍यास-कला को अधोन्‍मुख किया है. अधिक लंबे समय में यह सोच इस कला के लिए और घातक होगी. यह देखना होगा कि आत्‍म–चेतना ही मनुष्‍य को भौतिक संकटों के खि़लाफ़ संघर्ष करने की प्रेरणा देती है. ‘समरगाथा’ के नायक ने यदि आत्‍म-चेतना विकसित न की होती, तो वह संघर्ष नहीं कर पाता. न ही गोर्की की ‘मदर’ का नायक व मुख्‍य पात्र. बिना आत्‍म-चेतना के वर्ग-चेतना भी नहीं आती. ‘मैं कौन हूं’ जैसा सवाल ही इस जवाब की ओर ले जाता है कि मैं आदि-शोषित हूं. ‘मुझे क्‍या होना है’ जैसा सवाल शोषण के विरुद्ध संघर्ष की ओर ले जाता है. लेकिन यह देख सकने के लिए कुछ लोगों को अपने चश्‍मे उतारने होंगे.

दान्‍ते की एक बात याद आती है : ‘जब भी मनुष्‍य कोई क्रिया करता है, वह चाहता है कि उस क्रिया के ज़रिए उसकी छवि या अक्‍स परावर्तित हो सके.’ जो छवि परावर्तित होती है, उसमें वह मनुष्‍य कहीं नहीं दिखाई देता. क्रिया और छवि के बीच यह संघर्ष चलता रहता है. दोनों के बीच का यह विरोधाभास ही उपन्‍यास-कला का मूल बिंदु है. कविता में एक छवि,  एक क्रिया तक रुका जा सकता है,  कहानी में चार छवि,  चार क्रियाओं तक जाया जा सकता है. लेकिन उपन्‍यास एक साथ गहराई व विस्‍तार मांगते हैं. इसलिए उसमें क्रिया और छवि का यह संघर्ष सतत चलता है. इस संघर्ष की परिणति एक लगातार असंतोष का रूप लेती है. वह असंतोष लेखक से उपन्‍यास की रचना कराता है. इसी बीच कहीं लेखक को यह आभास होता है कि वह जिस आत्‍म का संधान कर रहा है, क्रिया से जिस छवि की चाहना कर रहा है,  वह न तो क्रिया से उपलब्‍ध हो रही है,  और न ही क्रियोत्‍पन्‍न छवि से ही,  तब वह मन के भीतरी लोकों की तरफ़ जाता है. वह जितना भीतर जाता है,  जितनी सूक्ष्‍मताओं का आवाह्न करता है,  पाता है कि उसके आत्‍म की एकल विशिष्‍टता नष्‍ट हो रही है. आखि़र सूक्ष्‍मताओं में तो सभी मनुष्‍य एक ही जैसे हैं. जैसे पदार्थ का विखंडन करते रहा जाए,  तो अंतत: सारे पदार्थ परमाणु में बदल जाते हैं. यह आभास होते ही लेखक वापस बाहर आ जाता है. यह विरोधाभासी कार्यवाही चलती रहती है. मिलान कुंदेरा ने अपने उपन्‍यासों और निबंधों में इस स्थिति का कई बार सुंदर व मान्‍य विश्‍लेषण किया है.

इस पूरी प्रक्रिया के भीतर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आत्‍म-तत्‍व की निर्मिति किससे होती है. सारा आत्‍म दो तत्‍वों में रहता है: स्‍मृति और विस्‍मृति. किसी भी मनुष्‍य के जीवन से स्‍मृति को निकाल दीजिए, उसे पता नहीं चलेगा कि वह क्‍या है. मनुष्‍य घटनात्‍मक स्‍मृतियां, पहचानजनक स्‍मृतियां भूल जाता है,  किंतु किसी भी मनुष्‍य को पूर्णत: स्‍मृतिहीन नहीं किया जा सकता. कितना भी स्‍मृतिलोप हो,  मनुष्‍य को यह याद रहता है कि उसके पास दो हाथ हैं,  दो पैर हैं,  एक पेट है, भूख है. स्‍मृतिहीन मनुष्‍य भी चलने और दौड़ने की स्‍मृति व अभ्‍यास रखता है. उसे कमोबेश भाषा की स्‍मृति रहती है. वह चीज़ों के नाम भूल जाता है,  अपना नाम भी भूल जाता है,  लेकिन एक आधारभूत भाषा उसके पास बनी रहती है,  जिससे वह अपनी स्‍मृतिहीनता का संप्रेषण करता है. यदि किसी तरह यह समग्र स्‍मृति नष्‍ट की जा सके,  तो वह संपूर्ण निश्‍चेष्‍ट हो जाएगा. उसके पास पैर होंगे, लेकिन चलने की स्‍मृति व अभ्‍यास नहीं होंगे. उसके पास हाथ होंगे, लेकिन किसी वस्‍तु को उठाने की स्‍मृति व अभ्‍यास नहीं रहेंगे. यह पूर्णत: व समग्र विस्‍मृति होगी. ऐसी स्थिति में आत्‍म कुछ नहीं रह जाएगा. यानी जिसकी स्‍मृति हर ली,  उसका आत्‍म भी हर लिया.

किसी मनुष्‍य को यदि सबकुछ याद रहे,  वह कुछ भी भूलता न हो जैसा बोर्हेस की एक कहानी का चरित्र, तो उसके पास भी आत्‍म नहीं बचेगा. उसे इतना सबकुछ याद रहेगा कि उसे समझ ही नहीं आएगा कि वह दरअसल है क्‍या?  इसीलिए आत्‍म का निवास विस्‍मृति में भी है.

आत्‍म के विलोपन के लिए इस अतिवाद पर जाना कोई ज़रूरी नहीं. एक निश्चित परिमाण में स्‍मृतिहीनता आत्‍म को ग़ायब कर देती है. इसीलिए जब भी स्‍मृति को विषय के रूप में चुना जाएगा, आत्‍म की तलाश की बात अपने आप शुरू हो जाएगी. स्‍मृति और आत्‍म नाभिनालबद्ध हैं. जैसा कि हमने ऊपर मोदियानो के उपन्‍यास ‘मिसिंग पर्सन’ में देखा. उसे समग्र विस्‍मृति नहीं है, उसे बुनियादी चीज़ें याद हैं,  लेकिन उनके बावजूद वह अपना आत्‍म खो चुका है. उसकी तलाश में निकला है. यही तलाश मोदियानो की रचनाओं का मूलाधार है. स्‍मृति,  खोया हुआ समय और आत्‍म–संधान. यह खोया हुआ समय सिर्फ़ व्‍यक्ति के जीवनकाल का खोया हुआ समय नहीं है. स्‍मृति हमारी मानवीय जि़म्‍मेदारी है. हम अपने जन्‍मकाल से पहले पैदा नहीं होते,  लेकिन जन्‍मकाल से पहले की सामूहिक स्‍मृतियां,  हमारी निजी स्‍मृतियों में इस क़दर रच-बस जाती हैं,  कि कई बार हम दोनों में फ़र्क़ नहीं कर पाते. जिस तरह यह सामूहिक स्‍मृति हमें आनंद देती है,  उसी तरह एक ग्‍लानि व अपराधबोध भी पैदा करती है. लेखक का अपराधबोध कभी निजी नहीं होता,  उसमें एक सामूहिकता अवश्‍य होती है. यह ग्‍लानि पाठक के भीतर भी होती है. एक ग्‍लानि,  दूसरी ग्‍लानि से संवाद करती है. इसी तरह लेखक और पाठक के भीतर सामूहिक स्‍मृतियों के रास्‍ते निजी स्‍मृति के भवन में आया उल्‍लास भी होता है. एक उल्‍लास, दूसरे उल्‍लास से संवाद करता है. सामूहिक स्‍मृति या इतिहास रचनाओं के भीतर इस तरह यात्रा करते हैं. जैसा दोस्‍तायेव्‍स्‍की, प्रूस्‍त और काफ़्का के भीतर. इसीलिए जब भी स्‍मृति को विषय की तरह बरता जाएगा, आत्‍म की तलाश शुरू होगी, वैसे ही खोए हुए समय या इतिहास के पुनर्संधान की बात भी शुरू हो जाएगी. हमने सिलसिलेवार देखा कि मोदियानो में यह सब ही कुछ है.   

नोबेल मिलने से पहले तक अंतर्राष्‍ट्रीय साहित्‍य की दुनिया में पैट्रिक मोदियानो को कम जाना जाता था. घोषणा के तुरंत बाद ही कई अख़बारों ने सर्वे किया कि क्‍या आप इस लेखक को जानते हैं? ज़्यादातर लेखकों और पाठकों ने अ‍नभिज्ञता जताई. ये सब वे पाठक थे, जिनका विश्‍व-साहित्‍य के प्रति ज्ञान अंग्रेज़ी के माध्‍यम से अर्जित है. ख़ुद नोबेल समिति के पीटर इंग्‍लंड ने घोषणा के बाद यह कहा कि मोदियानो को ज़्यादातर लोग नहीं जानते. इन पंक्तियों के लेखक के साथ यह संयोग रहा कि पो-मो कथाख्‍यान शैली में अपनी विशेष रुचि के कारण उसने नोबेल घोषणा से काफ़ी पहले ही मोदियानो की तीन किताबें अंग्रेज़ी अनुवाद के ज़रिए पढ़ रखी थीं,  इसीलिए वह इतने विस्‍तार से अपनी बात कह सका.

अंग्रेज़ी से प्रभावित दुनिया में मोदियानो अवश्‍य ही कम जाने गए लेखक रहे हों, लेकिन उनके अपने देश फ्रांस में यह स्थिति नहीं. वहां उन्‍हें लगभग हर घर में जाना जाता है. फ्रेंच में उनकी किताबें बेस्‍ट-सेलर होती हैं. इसी साल उनका नया उपन्‍यास आया है, और कुछ ही महीनों में जिसकी एक लाख से ज्‍यादा प्रतियां बिक चुकी हैं.  पीटर हैंडके जैसे लेखक काफ़ी समय पहले ही मोदियानो को फ्रांस का जीवित महानतम लेखक कह चुके हैं.  मोदियानो की कीर्ति का अंदाज़ा इस बात से भी लग सकता है कि फ्रांस के एक मशहूर गायक ने उनके नाम व कृतियों के आधार पर एक प्रसिद्ध गीत की रचना की थी. उन्‍होंने कई फिल्‍मों की पटकथा भी लिखी, फिल्‍मकार लुई मॉल की संगत ने भी उन्‍हें यश दिया. वह चर्चाओं से दूर अपनी किताबों की दुनिया में रहते हैं. उनके इंटरव्‍यू भी ज़्यादा नहीं मिलते. यह साहित्‍य के एक संन्‍यासी को मिला पुरस्‍कार है, जो गलाकाट प्रतिस्‍पर्धा के इस दौर में तमाम लाइमलाइट से दूर रहता है, जनसपंर्क अभियान नहीं चलाता, पार्टियों में नहीं जाता और अच्‍छी किताबें लिखता है.

उनके नाम की घोषणा से नोबेल पुरस्‍कार पर एक बार फिर विवाद हो रहा है. क्‍या नोबेल पुरस्‍कार किसी ऐसे लेखक को मिलना चाहिए जिसने व्‍यापक पाठकीय स्‍वीकृति, लोकप्रियता हासिल कर ली हो या उच्‍चकुलीन साहित्‍य के र‍चयिता किसी ऐसे लेखक को, जो बहुसंख्‍यक पाठकों के लिए लगभग अनजाना हो? विश्‍व-साहित्‍य की न्‍यूयॉर्क लॉबी इस घोषणा से ज़्यादा ख़फ़ा है. अमेरिकी मीडिया लंबे समय से यह सवाल उठा रहा है कि नोबेल पुरस्‍कार यूरोप-केंद्रित है. गाहे-बगाहे वह अफ्रीका और एशिया के लेखकों को भी पुरस्‍कार दे देता है, लेकिन वह जान-बूझकर अमेरिका की उपेक्षा कर रहा है. न्‍यूयॉर्क लॉबी का ख़फ़ा होना समझ में आता है. फिलिप रॉथ, पॉल ऑस्‍टर, जॉएस कैरल ओट्स जैसे लेखक अभी तक प्रतीक्षा कर रहे हैं. ख़ासकर रॉथ के संदर्भ में यह प्रतीक्षा बेहद खलने वाली हो चुकी है. अंतर्राष्‍ट्रीय साहित्‍य में रॉथ का क़द बेहद बड़ा है. इससे पहले के कई नोबेल विजेता रॉथ के लेखन को अपना प्रेरणा-स्रोत मान चुके हैं. अमेरिकी मीडिया की छटपटाहट है कि इसके बाद भी रॉथ को उपेक्षित क्‍यों किया जा रहा है. यदि नोबेल न भी मिला,  तो भी रॉथ के क़द पर इसका कोई असर नहीं पड़ने वाला. रॉथ अब संभवत: नोबेल के क़द से बड़े हो चुके हैं. इतिहास में भी यह पुरस्‍कार कई मास्‍टर्स और जाएंट्स को नहीं मिला. तोल्‍स्‍तोय, चेखॉव, काफ़्का, जेम्‍स जॉएस, प्रूस्‍त  से लेकर बोर्हेस, रूज़ेविच, हर्बर्ट तक. ये सभी और इन जैसे कई वंचित लेखक नोबेल पुरस्‍कार के क़द से बड़े हैं. बीसवीं सदी के कथा-साहित्‍य के चार हिस्‍से किए जाएं, तो पाएंगे कि पहले हिस्‍से को प्रूस्‍त और जॉएस ने प्रभावित किया, दूसरे हिस्‍से को काफ़्का ने प्रभावित किया, तीसरे और चौथे हिस्‍से को बोर्हेस ने प्रभावित किया. इतने प्रभावशाली इन लेखकों को नोबेल नहीं मिल पाया, किंतु इनसे प्रभावित लेखकों को नोबेल अवश्‍य मिल गया.

दरअसल, यह कोई नहीं जानता कि नोबेल समिति के मन में क्‍या चल रहा है, पुरस्‍कार न देने के लिए वह किन बातों को आधार बनाती है. ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि नोबेल पुरस्‍कार किसी ऐसे लेखक को मिला हो, जिसे अंग्रेज़ी के ज़रिए बहुत सारे लोग न जानते हों. जबकि आम मान्‍यता यह बन चुकी है कि केवल वही लेखक श्रेष्‍ठ हैं, जिन्‍हें अंग्रेज़ी के ज़रिए बहुत लोग पढ़ते हों या जिस लेखक ने अमेरिकी प्रकाशन-उद्योग को प्रभावित किया हो.  नोबेल की निर्णायक समिति में अंग्रेज़ी वाले लोग कम ही होते हैं,  अन्‍य यूरोपियन भाषाओं के साहित्‍य के जानकार ज़्यादा. वे जर्मन, स्‍वीडिश, फ्रेंच आदि मूल या अनुवादों को ज़्यादा प्रामाणिक मानते हैं, क्‍योंकि उनकी ही नहीं, दुनिया के साहित्‍य में कई विद्वानों की मान्‍यता है कि इन भाषाओं में अनुवाद का मुख्‍य आधार साहित्यिक गुणवत्‍ता को बनाया जाता है, जबकि अंग्रेज़ी में अनुवाद का आधार अक्‍सर कॉमर्शियल होता है. जिसमें ख़ूब बिकने की क्षमता होगी, उसका अंग्रेज़ी अनुवाद जल्‍द हो जाता है. वरना ‘हायब्रो’ साहित्यिक गुणवत्‍ता की किताबें अंग्रेज़ी में,  विभिन्‍न यूनिवर्सिटी प्रेस या न्‍यू डायरेक्‍शन जैसे, छोटे हाउस ही छापते हैं.

यह पुरस्‍कार नोबेल कमेटी ही देती है  तो उन्‍हें जो सही लगेगा, उसी को देगी. इस पर बाहर से कुछ कहना इसलिए भी नहीं जमता, कि चयन उनका विशेषाधिकार है. उन्‍होंने लेखक की लोकप्रियता को तो कभी पैमाना नहीं बनाया,  हां, गुणवत्‍ता को ज़रूर बनाया. वह समिति यह दावा भी नहीं करती कि वह इस साल की अवधि में विश्‍व के सर्वश्रेष्‍ठ लेखक को ही यह पुरस्‍कार दे रही हो. मुझे ध्‍यान नहीं पड़ता कि पिछले तीस-चालीस साल में उन्‍होंने किसी कमज़ोर लेखक को पुरस्‍कार दे दिया हो  (भले इस बार के या अतीत के कई नोबेल शांति पुरस्‍कार गले से नीचे न उतर पाए हों). हां, कम जाने गए लेखकों को ज़रूर दिया, पर पुरस्‍कार मिलने के बाद उस लेखक की गुणवत्‍ता को पूरी दुनिया ने माना. यह भी इस पुरस्‍कार की एक सफलता है. जो लोकप्रिय या प्रसिद्ध हो चुका, उसे तो सभी पढ़ ही रहे. एक ऐसा हीरा खोज के दुनिया के सामने रखना, जो सच में हीरा है, लेकिन लोगों की नज़रों से दूर. यह भी बड़ी बात है. पिछले दस-पंद्रह बरसों के लॉरिएट्स में ओरहन पमुक ही ऐसे आखि़री लेखक थे, जो नोबेल से पहले ही अत्‍यंत प्रसिद्ध और लोकप्रिय हो चुके थे. यानी लोकप्रिय लेखकों का इतिहास कम रहा है. लोगों को आश्‍चर्य होता है, जब यह पता चलता है कि चेस्‍वाव मिवोश की अंग्रेज़ी में पहली किताब 1976 में आती है, और उन्‍हें 1980 में नोबेल मिल जाता है. अंग्रेज़ी में भले देर से आए, लेकिन मिवोश ने सन 60 से ही यूरोपीय व विश्‍व साहित्‍य को प्रभावित करना शुरू कर दिया था. 

बाक़ी, राजनीति, भाषाई-इलाक़ाई  फेव‍रिटिज्‍़म आदि जैसी बातें हर पुरस्‍कार के बारे में होती हैं, वह सब भी होता होगा, हमें नहीं पता, नोबेल भी उससे अछूता न होगा, यह भी सही है. पर मोदियानो जैसे लेखक को पुरस्‍कार मिलने से यह फिर साबित होता है कि सब कुछ अंग्रेज़ी ही नहीं, सब कुछ अमेरिका ही नहीं. वे लेखक भी श्रेष्‍ठ हो सकते, जिन्‍हें अंग्रेज़ी के पाठक, अंग्रेज़ी के प्रकाशक या अंग्रेज़ी कै पैरोकार नहीं समझ पाते. मोदियानो ख़ुद अंग्रेज़ी नहीं बोलते, लेकिन अब अंग्रेज़ी के बड़े प्रकाशक उन्‍हें दूर-दूर तक पहुंचाएंगे. क्‍योंकि एक साल पहले तक उनकी किताबें अंग्रेज़ी में फ़ायदा नहीं देती थीं, अब ख़ूब देंगी.  न्‍यूयॉर्क के एक छोटे प्रकाशक गोडाइन ने मोदियानो की तीन किताबें छापी हैं. पिछले बीस बरसों में तीनों को मिलाकर महज़ आठ हज़ार प्रतियां बिकीं. वह पंद्रह दिनों के भीतर ही उन किताबों की बड़ी संख्‍या में छपाई करने वाला है. येल यूनिवर्सिटी प्रेस  फरवरी 2015 में मोदियानो के तीन नॉवेला का संग्रह छापने वाली थी, दो हज़ार प्रतियों के प्रिंट ऑर्डर के साथ. पुरस्‍कार की घोषणा के बाद उसने यह किताब नवंबर 2014 में ही छापने का फ़ैसला किया है, वह भी बीस हज़ार प्रतियों के पहले संस्‍करण के रूप में. मोदियानो के फ्रेंच प्रकाशक गालिमार ने नवंबर माह के लिए एक लाख अतिरिक्‍त प्रतियां छापने की घोषणा की है. यह सिलसिला अभी चलता रहेगा. पुरस्‍कार का एक अर्थ यह भी होता है कि अनजानी गलियों तक लेखक की पहुंच बन जाए.
_____________

साभार : अनुराग वत्स


गीत चतुर्वेदी

आलाप में गिरह (कविता संग्रह) राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली,२०१० 
सावंत आंटी की लड़कियां ( कहानी संग्रह), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, २०१०
पिंक स्लिप डैडी (कहानी संग्रह), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, २०१०
चिली के जंगलों से (नेरूदा के संस्मरणों व लेखों का अनुवाद), संवाद प्रकाशन, मेरठ  
चार्ली चैपलिन की जीवनी,संवाद प्रकाशन, मेरठ  
लोर्का, नेरूदा, यानिस रित्सोस, एडम ज़गायेव्स्की, अदूनिस, तुर्की युवा कवि आकग्यून आकोवा और इराक़ी कवयित्री दून्या मिख़ाइल. ईमान मर्सल,बेई दाओ, को उन, एदुआर्दो चिरिनोस  आदि के कविताओं के अनुवाद प्रकाशित.
इनके अलावा मराठी से हिंदी में भी कई अनुवाद आदि.
geetchaturvedi@gmail.com
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