हम तीन थोकदार का एक थोकदार ख़ुद इस आख्यान का लेखक है और वह किस तरह से पहाड़ के एक गाँव से निकलकर नैनीताल पहुंचता है, मुक्तिबोध से प्रभावित होता है. वह अस्तित्ववाद पर शोध करना चाहता है. होते हवाते वह साहित्य के केंद्र इलाहबाद में पहुंच जाता है. मटियानी के साथ रहते हुए अमृत राय से मिलता है. और फिर वहां से बनारस के प्रेमचंद के लेखन-कक्ष को अपने रहने और शोध के लिए चुनता है. यह सब आज खुद किसी कथा से कम नहीं.
प्रस्तुत है. सातवीं क़िस्त.
हम तीन थोकदार (सात)
हिंदी वालों की दुनिया में छोटे-से गाँव से हिंदी के सबसे बड़े लेखक की शरण में
बटरोही
कई दिनों की लगातार बारिश के बाद नैनीताल की पहाड़ियों से ठंडक और नमी चू रही थी. तालाब किनारे दाहिने हाथ को थोड़ा चढ़ने के बाद एक लम्बी बाखली की तरह था बड़ा बाज़ार, जिसके बीचों-बीच एक डिब्बानुमा घर में मुझे बुआजी के पास छोड़कर पिताजी दूसरी सुबह वापस अपने गाँव चले गए. दस साल की मेरी उम्र, पिछले तीन दिनों से अपने गाँव से कभी पैदल और कभी बस में लगातार यात्रा करने के कारण मैं बेसुध सोया हुआ था. उन्होंने मुझसे विदा नहीं ली, अलबत्ता जब मैं जगा, मेरी हथेली पर एक रुपये का सिक्का पड़ा था. नैनीताल पहुँचने के दिन शाम को ही मेरी उपस्थिति में पिताजी ने बिधवा बुआ से कहा कि मैं अब उनके साथ नैनीताल ही रहूँगा. घर के काम-काज में उनका हाथ बंटा दूंगा और इसकी एवज में वो मुझे स्कूल भेज देंगी. हालाँकि सरकारी स्कूल की फीस ज्यादा नहीं थी, पिताजी का आशय था कि मेरे इस श्रम के बदले वो मेरी फीस जमा कर दें. बुआजी की ननद एक पब्लिक स्कूल में मैट्रन थी, जहाँ मेरे हमउम्र बच्चे पढ़ते थे. बच्चे स्कूल छोड़ते हुए अपने ठीक-ठाक कपड़े, किताबें और स्टेशनरी छोड़कर जाते थे, पिताजी निश्चिन्त थे कि बुआ पर कोई आर्थिक भार नहीं पड़ेगा, उनके साथ रहकर मैं गाँव की अपेक्षा शहर की अच्छी शिक्षा हासिल कर लूँगा.
गाँव विस्तार में फैली हुई ऊंची-ऊंची पहाड़ियों के बीच बसे पत्थर-छाये अनेक घरों का समूह था जो इतनी विशाल धरती के अनजाने कोने में एक बड़े परिवार की तरह बसा हुआ था. नैनीताल एक रहस्यमय झील के चारों ओर बसा हुआ बिजली के असंख्य लट्टुओं से जगमगाता शहर था, जिसमें खुलापन नहीं, दमघोटू घनत्व था. मानो सारे लोग अपने-अपने मकानों के साथ एक-दूसरे में सिमटे हुए किसी अबूझ षड्यंत्र की योजना बना रहे हों. गाँव की एक-एक चीज को मैं व्यक्तिगत रूप से जानता था, पत्थरों-टीलों, पहाड़-क्षितिज और उनके शिखरों पर मुस्तैद सेनानियों की तरह खड़े देवदार-प्रजाति के वृक्षों को. शहर में सब कुछ अपरिचित और चुनौतीपूर्ण था. धीरे-धीरे शहर से परिचय हुआ और उसने मुझे साहित्य से जुड़े संस्कारों की वह खिड़की दी, जिसने मेरे थोकदारी संस्कारों को तराशा. उनके प्रति सम्मान का भाव रखते हुए साहित्य की मुख्यधारा के साथ जोड़ने में मदद की. यह मेरा पहला प्रस्थान था जब मैंने एक नए संसार में प्रवेश किया. यहीं मुझे पता चला कि हमारी पाठ्य-पुस्तकों के अलावा ज्ञान का कहीं बड़ा और समृद्ध खजाना साहित्य के रूप में पहले से मौजूद है. पाठ्य-पुस्तकों की जगह इन दूसरी किताबों ने मुझे अपनी गिरफ्त में लेना शुरू कर दिया और मैं उसमें रच-बस कर उसका हिस्सा बन गया.
नैनीताल ब्रिटिश हुक्मरानों का बसाया शहर था जिसमें हिंदी को गुलामों की भाषा समझा जाता था. उसमें उच्च शिक्षा हासिल करना तो दूर, उसे पढ़े-लिखे लोगों की भाषा के रूप में मान्यता देने में भी लोगों को तकलीफ होती थी. जो पाठ्यक्रम मैंने पढ़ा, उसने तो मुझे हिंदी के प्रति आकर्षित नहीं किया, अलबत्ता कॉलेज में कोर्स की किताबों के अलावा पढ़े प्रेमचंदजी के उपन्यासों, शैलेश मटियानी की कहानियों और एमए करने के बाद अचानक हाथ लगी मुक्तिबोध की किताब ‘एक साहित्यिक की डायरी’ ने साहित्य को मेरी जिन्दगी का हिस्सा बना दिया. इस बीच कितनी ही दूसरी किताबें भी पढ़ी होंगी, शब्द और साहित्य के प्रति आकर्षण जारी रहा होगा, मगर ऐसी किताब सिर्फ मुक्तिबोध की थीं, जिसने मेरी सोच, समझ और विचार-प्रक्रिया को मानो शक्ल दे डाली. उसी ने मुझे अपनी जड़ों से जुड़ने और उनका विस्तार करने की समझ दी. इस बात पर मैं बाद में बातें करूँगा, अलबत्ता यह बता देना चाहता हूँ कि आने वाले जीवन में मुझे शैलेशजी, मुक्तिबोध और प्रेमचंदजी के साथ, उनके साहित्य के साथ निकट से रहने का मौका मिला. करीब पांच महीने तक मैं प्रेमचंदजी के बनारस वाले घर के उसी कमरे में रहा जो उनका लेखन-कक्ष था और मुक्तिबोध का केशव तो मेरी बौद्धिक चेतना का मानो आधार ही बन गया.
मुक्तिबोध के प्रति जब मैं पहली बार आकर्षित हुआ, फेंटेसी के बारे में कुछ भी नहीं जानता था. शब्द और उसके संसार की बारीकियों के बारे में बताने वाले अध्यापक थे भी नहीं. हमारे अध्यापक हिंदी का परिचय पुराने ज़माने की संस्कारी माँ की मुंहलगी बेटी के रूप में देते थे जो अपने छात्रों से संस्कृत के विचार की और छात्राओं से अंग्रेजी के आचार की अपेक्षा रखते थे.
अलबत्ता, ये वो दौर था जब सृजनात्मक साहित्य की दुनिया में स्त्री एक नए रूप और संभावना के रूप में उभर रही थी, समाज भी बड़ी करवट ले रहा था, आर्थिक और सांस्कृतिक संबंधों की नए सिरे से आधारशिला रखी जा रही थी. साहित्यिक लेखन के एक बड़े हिस्से में स्त्री सहज नहीं, वर्जना के रूप में प्रवेश कर रही थी. यही हालत हिंदी पढ़ने वाले विद्यार्थियों की थी. सारा नव लेखन, दृश्य और प्रसार-माध्यम स्त्री और उसकी देह के इर्द-गिर्द घूम रहा था; पुराने संस्कृत और नए अंग्रेजी साहित्य के बेमेल घालमेल को पढ़कर कस्बों-छोटे शहरों में नए तरह की फैंटेसियां जन्म ले रही थीं. ये वो दौर था जब नयी चेतना की इस करवट में से युवा छात्र-छात्राओं, लेखक-लेखिकाओं और अध्यापकों के बीच अपनी-अपनी तरह की फेंटेसी जन्म ले रही थी जो गुनाहों के देवताओं से शुरू होकर धुंद में कैद दमित इच्छाओं के रेत के महलों के आकार लेकर एक और अनेक जिंदगियों के रूप में अंकुरित हो रही थीं. बुजुर्ग अध्यापक स्त्री देह की चर्चा सुनना तो चाहते थे, उसे सुनाना नहीं, विद्यापति, जयदेव और श्रृंगारिक कवियों को पढ़ाते हुए लड़कियों की ओर से आँखें दुराकर इशारे से ‘आगे बढ़िये’ कहते हुए जल्दी-जल्दी पाठ ख़त्म कर देते थे.
ऐसे माहौल में मुक्तिबोध की फैंटेसी मेरे लिए चमत्कार से कम नहीं थी. मुक्तिबोध को मैंने उन विराट कलात्मक अपेक्षाओं के रूप में न पढ़ा, न समझा; असलियत यह थी कि वैसी समझ मुझमें थी भी नहीं. मुक्तिबोध की जड़ों का मुझे दूर-दूर तक पता नहीं था, मेरे लिए उनका अनुमान लगा सकना भी मुश्किल था… कहाँ मध्य प्रदेश का चम्बल इलाका और कहाँ उत्तराखंड का वनांचल, इसके बावजूद उनकी फैंटेसी के बीच से गुजरते हुए मुझे अपनी थोकदारी जड़ों के अधिक स्पष्ट आयाम और आशय प्राप्त हुए. मुक्तिबोध का यह पाठ मेरे लिए एक अनपढ़ देहाती संस्कारों वाले जिद्दी छात्र का अनुमान था जो मेरे लिए भले ही अर्थवान हो, हिंदी की दुनिया के लिए उसका कोई मतलब नहीं था. साहित्य की पृष्ठभूमि भले न हो, हिंदी साहित्य का विद्यार्थी होने का दंभ तो था ही, जिसने मैंने मुक्तिबोध जैसे जटिल रचनाकार को अपना अन्तरंग बना लिया. ‘तीसरा क्षण’ की ये पंक्तियाँ जब मैंने पहली बार पढ़ीं, मुझे वे अपनी रहस्यमयता के साथ मालवा के परिवेश में नहीं, अपने रचनात्मक जीवन के प्रस्थान बिंदु, थोकदारों के संसार में गईं; मानो केशव का यह संवाद मुक्तिबोध ने मेरे लिए ही रचा हो:
“जब हम हाई-स्कूल में थे, केशव मुझे निर्जन अरण्य-प्रदेश में ले जाता. हम भर्तृहरि की गुहा, मछिन्दरनाथ की समाधि आदि निर्जन किन्तु पवित्र स्थानों में जाते. मंगलनाथ के पास शिप्रा नदी बहुत गहरी, प्रचंड, मंथर और श्याम-नील थी. उसके किनारे-किनारे हम नए-नए भौगोलिक प्रदेशों का अनुसन्धान करते. शिप्रा के किनारों पर गैरव और भैरव सांझें बितायीं. सुबहें और दुपहर अपने रक्त में समेट लीं. सारा वन्य-प्रदेश श्वास में भर लिया. सारी पृथ्वी वक्ष में छिपा ली.” (मुक्तिबोध: तीसरा क्षण)
नैनीताल जैसे शहर में इस तरह की शब्द-फैंटेसी को जीना सचमुच पागलपन के लक्षण समझे जा सकते थे, समझे गए, इसके बावजूद स्नातकोत्तर कक्षाओं के इकलौते छात्र के रूप में मेरे लिए इस फैंटेसी को अपनी आजादी के साथ जीने की पूरी छूट दी. मेरे दोनों सहपाठी-छात्र संस्कृत की काव्यशास्त्रीय भक्त परम्परा के थे, जो नए लेखन को दुश्मन की निगाह से देखते थे. अंग्रेजियत में रंगा शहर होने के बावजूद हिंदी की लड़कियों का विद्रोह महादेवी तक सीमित था. (गरिमा श्रीवास्तव माफ़ करें, तब उनका जन्म नहीं हुआ था!) सारे सहपाठी आत्मीय और रसिक थे, लेकिन मर्यादा का अर्थ उनके लिए यौन शुचिता के दायरे में रहना था.
उन्हीं दिनों पढ़ी थीं इस नयी-नयी हाथ लगी किताब की ये पंक्तियाँ:
\”और, एक बार, जब हम दोनों फोर्थ ईयर में पढ़ रहे थे, वह मुझे कैंटीन में चाय पिलाने ले गया. केवल मैं ही बात करता जा रहा था. आखिर, वह बात भी क्या करता – उसे बात करना आता ही कहाँ था. मुझे फिलॉसफी में सबसे ऊंचे नंबर मिले थे. मैंने प्रश्नों के उत्तर कैसे-कैसे दिए, इसका मैं रस-विभोर होकर वर्णन करता जा रहा था. चाय पीकर हम दोनों आधी मील दूर एक तालाब के किनारे जा बैठे. वह वैसा ही चुप था. मैंने साइकोऐनलिसिस की बात छेड़ दी थी. जब मेरी धारा-प्रवाह बात से वह कुछ उकताने लगता तब वह पत्थर उठाकर तालाब में फैंक मारता. पानी की सतह पर लहरें बनतीं और डुप्प-डुप्प की आवाज.
“साँझ पानी के भीतर लटक गयी थी. संध्या तालाब में प्रवेश कर नहा रही थी. लाल भड़क आकाशीय वस्त्र पानी में सूख रहे थे. और मैं संध्या के इस रंगीन यौवन से उन्मत्त हो उठा था.
“हम दोनों उठे, चले, और दूर एक पीपल के वृक्ष के नीचे खड़े हो रहे. एकाएक मैं अपने से चौंक उठा. पता नहीं क्यों, मैं स्वयं एक अजीब भाव से आतंकित हो उठा. उस पीपल वृक्ष के नीचे अँधेरे में, मैंने उससे एक अजीब और विलक्षण आवेश में कहा, ‘शाम, रंगीन शाम, मेरे भीतर समा गयी है, बस गयी है. वह एक जादुई रंगीन शक्ति है. मुझे उस सुकुमार ज्वाला-ग्राही जादुई शक्ति से – यानी मुझसे मुझे डर लगता है.’ और सचमुच तब मुझे एक कंपकंपी आ गयी!!
“इतने में शाम साँवली हो गयी. वृक्ष अँधेरे के स्तूप-व्यक्तित्व बन गए. पक्षी चुप हो उठे. एकाएक सब ओर स्तब्धता छा गयी. और, फिर इस स्तब्धता के भीतर से एक चम्पई पीली लहर ऊँचाई पर चढ़ गयी. कॉलेज के गुम्बद पर और वृक्षों के ऊंचे शिखरों पर लटकती हुई चाँदनी सफ़ेद धोती-सी चमकने लगी.
“एकाएक मेरे कंधे पर अपना शिथिल ढीला हाथ रख केशव ने मुझसे कहा, ‘याद है, एक बार तुमने सौन्दर्य की परिभाषा मुझसे पूछी थी?’
“मैंने उसकी बात की तरफ ध्यान न देते हुए बेरुखी-भरी आवाज़ में खा, ‘हाँ’.
“’अब तुम स्वयं सौन्दर्य अनुभव कर रहे हो.’
“मैं नहीं जानता था, मैं क्या अनुभव कर रहा था. मैं केवल यही कह सकता हूँ कि किसी मादक अवर्णनीय शक्ति ने मुझे भीतर से जकड़ लिया था. मैं केवल इतना ही कह सकता हूँ कि उस समय मेरे अंतःकरण के भीतर एक कोई और व्यक्तित्व बैठा था. मैं उसे महसूस कर रहा था. कई बार उसे महसूस कर चुका था. किन्तु अब तो उसने भीतर से मुझे बिलकुल ही पकड़ लिया था. ‘मैं जो स्वयं था वह स्वयं हो गया था. अपने से ‘वृहत्तर’, विलक्षण, अस्वयं.’
“एकाएक उस पाषाण-मूर्ति मित्र की भीतरी रिक्तता पर मेरा ध्यान हो आया. वह मुझसे कितना दूर है, कितना भिन्न है, कितना अलग है – अवांछनीय रूप से भिन्न!!
“वह मुझसे पंडिताऊ भाषा में कह रहा था: किसी वस्तु या दृश्य या भाव से मनुष्य जब एकाकार हो जाता है तब सौन्दर्य-बोध होता है. सब्जेक्ट और ऑब्जेक्ट , वस्तु और उसका दर्शन, इन दो पृथक तत्वों का भेद मिटकर जब सब्जेक्ट ऑब्जेक्ट से तादात्म्य प्राप्त कर लेता है तब सौन्दर्य भावना उद्बुद्ध होती है!!
“मैंने उसकी बात की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया. सौन्दर्य की परिभाषा वे करें जो उससे अछूते हैं; जैसे मेरा मित्र केशव! उनकी परिभाषा सही हो तो क्या, गलत हो तो क्या! इससे क्या होता जाता है!!
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“मैंने जवाब दिया, ‘एक तो मैं वस्तु पक्ष का ठीक-ठीक अर्थ नहीं समझता. हिंदी में मन से बाह्य वस्तु को ही वस्तु समझा जाता है – ऐसा मेरा खयाल है. मैं कहता हूँ कि मन का तत्व भी एक वस्तु है तो ऐसे तत्व के साथ तदाकारिता या तादात्म्य का कोई मतलब नहीं होता क्योंकि वह तत्व मन ही का एक भाग है. हाँ, मैं इस मन के तत्व के साथ तटस्थता के रुख की कल्पना कर सकता हूँ; तदाकारिता की नहीं.’
“मेरे स्वर और शब्द की हलकी-धीमी गति ने उसे विश्वास दिला दिया कि मैं उसकी बात उड़ाने के लिए बात नहीं कर रहा हूँ, वरन उसकी बात समझने में महसूस होने वाली कठिनाई का बयान कर रहा हूँ.
“उसने मेरी ओर देखकर किंचित स्मित किया और कहने लगा, ‘तुम एक लेखक की हैसियत से बोल रहे हो इसलिए ऐसा कहते हो. किन्तु सभी लोग लेखक नहीं हैं. दर्शक हैं, पाठक हैं, श्रोता हैं. वे हैं, इसलिए तुम भी हो – यह नहीं कि तुम हो इसलिए वे हैं!! वे तुम्हारे लिए नहीं हैं, तुम उनके सम्बन्ध से हो. पाठक या श्रोता तादात्म्य या तन्मयता से बात शुरू करें तो तुम्हें आश्चर्य नहीं होना चाहिए.’
“मेरे मुँह से निकला, ‘तो?’
“उसने जारी रखा, ‘तो यह कि लेखक की हैसियत से, सृजन-प्रक्रिया के विश्लेषण के रास्ते से होते हुए सौन्दर्य-मीमांसा करोगे या पाठक अथवा दर्शक की हैसियत से, कालानुभव के मार्ग से गुजरते हुए सौन्दर्य की व्याख्या करोगे? इस सवाल का जवाब दो.’
“मैं उसकी चपेट में आ गया. मैं कह सकता था कि दोनों करूँगा. लेकिन मैंने ईमानदारी बरतना ही उचित समझा. मैंने कहा, ‘मैं तो लेखक की हैसियत से ही सौन्दर्य की व्याख्या करना चाहूँगा. इसलिए नहीं कि मैं लेखक को कोई बहुत ऊँचा स्थान देना चाहता हूँ वरन इसलिए कि मैं वहां अपने अनुभव की चट्टान पर खड़ा हुआ हूँ.’
“उसने भौंहों को सिकोड़कर और फिर ढीला करते हुए जवाब दिया, ‘बहुत ठीक; लेकिन जो लोग लेखक नहीं हैं वे भी तो अपने ही अनुभव के दृढ़ आधार पर खड़े रहेंगे और उसी बुनियाद पर बात करेंगे. इसलिए उनके बारे में नाक-भों सिकोड़ने की जरूरत नहीं, उन्हें नीचा देखना तो और भी गलत है.’
“उसने कहना जारी रखा, ‘इस बात पर बहुत-कुछ निर्भर करता है कि आप किस सिरे से बात शुरू करेंगे! यदि पाठक, श्रोता या दर्शक के सिरे से बात शुरू करेंगे तो आपकी विचार-यात्रा दूसरे ढंग की होगी. यदि लेखक के सिरे से सोचना शुरू करेंगे तो बात अलग प्रकार की होगी. दोनों सिरे से बात होगी सौन्दर्य-मीमांसा की ही. किन्तु यात्रा की भिन्नता के कारण अलग-अलग रास्तों का प्रभाव विचारों को भिन्न बना देगा.
“दो यात्राओं की परस्पर भिन्नता अनिवार्य रूप से, परस्पर विरोधी ही है – यह सोचना निराधार है. भिन्नता पूरक भी हो सकती है, विरोधी भी.
“यदि हम यथा-तथ्य बात भी करें तो भी बल (एम्फेसिस) की भिन्नता के कारण विश्लेषण भी भिन्न हो जायेगा.
“किन्तु सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रश्न किस प्रकार उपस्थित किया जाता है. प्रश्न तो आपकी विचार यात्रा होगी. यदि इस विचार-यात्रा को रेगिस्तान में विचरण का पर्याय नहीं बनाना है तो प्रश्न को सही ढंग से प्रस्तुत करना होगा. यदि वह गलत ढंग से उपस्थित किया गया तो अगली सारी यात्रा गलत हो जाएगी.’
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“मैं चाहता हूँ कि साहित्य-सम्बन्धी धारणाएं वास्तविक साहित्य में विश्लेषण के आधार पर बनायी जाएँ. जिस प्रकार विज्ञान में इंडक्शन से डिडक्शन पर आया जाता है – तथ्यों के, संग्रह से उनके विश्लेषण द्वारा, उनके सामान्यीकरण से अनुमान और निष्कर्ष निकाले जाते हैं – उसी प्रकार साहित्य में इंडक्शन से डिडक्शन पर क्यों न आया जाये? इंडक्शन का क्षेत्र केवल हिंदी साहित्य तक ही सीमित क्यों रहे? उपन्यास क्या है, यह पढ़ाते समय हम विश्व के प्रमुख उपन्यासों के उपरांत ही यह ठहराएँ कि उपन्यास किसे कहते हैं और उसका शिल्प क्या है अथवा उसके प्रधान अंग क्या होते हैं…”
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“जब हम दोनों भोजन को बैठे तो बनियान के भीतर उसके गोरे, सुघर, कसे हुए शरीर को देखकर मैं सन्न रह गया – प्रसन्न नहीं हुआ. गोर शरीर पर एक बूढ़ा सफ़ेद-भूरा चेहरा! केवल बहुत खूबसूरत मालूम हुआ. निश्चित रूप से, हाँ, चिंता की रखाएँ उसके चेहरे पर थीं. वे काफी गहरी भी थीं. लेकिन क्या वे चिंता की थीं? या चिंतन की? मैं इसका निर्णय नहीं कर सका.
“भोजन के दौरान उसने एक बड़ी मजेदार बात कही. उसने हाथ में कौर लेकर मेरी तरफ देखते हुए कहा, ‘तुममें और मुझमें एक बड़ा भेद है. विचार मुझे उत्तेजित करके क्रियावान कर देते हैं. विचारों को तुम तुरंत ही संवेदनाओं में परिणत कर देते हो. फिर उन्हीं संवेदनाओं के तुम चित्र बनाते हो. विचारों की परिणति संवेदनाओं में और संवेदनाओं की चित्रों में. इस प्रकार तुममें ये दो परिणतियाँ हैं. अगर तुम्हारी कविताएँ किसी को उलझी हुई मालूम हों तो तुम्हें हताश नहीं होना चाहिए. मैं तुम्हारी कविताएँ ध्यान से पढ़ता हूँ.’ मैंने डरते-डरते पूछा, ‘मेरी कविताएँ तुम्हें अच्छी लगती हैं?’ ‘उनमें और सफाई की जरूरत है. किन्तु मैं उन लोगों का समर्थक नहीं हूँ जो सफाई के नाम पर, सफाई के लिए ‘कंटेंट’ (काव्य-तत्व) की बलि दे देते हैं.”
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नैनीताल जैसे शहर में इस तरह की शब्द-फैंटेसी को जीना सचमुच पागलपन के लक्षण समझे जा
मुक्तिबोध का यह विश्लेषण हिंदी समालोचन के सामने अजीब-सी दुविधा के रूप में उपस्थित होता है. यह असलियत है कि हिंदी समीक्षा-आलोचना में जितना विमर्श मुक्तिबोध को लेकर हुआ है, शायद ही कोई दूसरा लेखक इतना सौभाग्यशाली रहा हो. देखा जाये तो सारी हिंदी आलोचना रामचंद्र शुक्ल और मुक्तिबोथ के दो ध्रुवान्तों के बीच भटकती रही है. बीच का सारा हिंदी समालोचन या तो शुक्लजी का खंडन है या मंडन. इस बीच परम्परागत भारतीय दृष्टि का अर्थ माना गया संस्कृत काव्यशास्त्र और आधुनिक का अर्थ अंग्रेजी से छनकर आया पाश्चात्य दृष्टिकोण. मुक्तिबोध ने जो मौलिक सवाल उठाये थे, उनका विस्तार हिंदी साहित्य पढ़ने वाले छात्रों तक नहीं हो पाया. इस बीच एक ऐसी समीक्षा-दृष्टि सामने आई जिसने मुक्तिबोध पर उसी तरह कब्ज़ा कर लिया जैसा विश्वविद्यालयों के आचार्यों ने रामचंद्र शुक्ल पर. जिस तरह सारी भारतीय राजनीति कांग्रेस-भाजपा के विमर्श के बीच सिमट कर रह गयी उसी प्रकार हिंदी आलोचना लेखकों-आचार्यों के बीच. रचना के बीच से उसके अन्तःस्रोतों के अनछुए आयाम उभरे, विद्वान आचार्यों ने प्राचीन मीमांसा पद्धतियों का विस्तार भी किया, नए आयाम उभरे लेकिन उनमें कहीं भी मुक्तिबोध का विस्तार नहीं था.
शायद मुक्तिबोध अपने मूल रूप में पाठ्यक्रम तक पहुँच ही नहीं पाया. मुक्तिबोध के बहाने संसार भर की भाषाओं में उभरी नयी विचारधाराओं और समीक्षा-दृष्टियों का परिचय भी सामने आया, उनकी स्थापनाओं के माध्यम से संसार के कालजयी साहित्य का विद्वत्तापूर्ण विश्लेषण भी किया गया, मगर हिंदी का वह पाठक और लेखन उतना ही प्यासा रहा जितना पहले था. ‘एक साहित्यिक की डायरी’ के केशव और मुक्तिबोध की चर्चा के सामानांतर मार्क्सवाद, अस्तित्ववाद, आधुनिकता और उत्तर आधुकता पर बेहिसाब चर्चा की गयी फिर भी छोटे शहरों-कस्बों का थोकदार-पाठक अज्ञानी और उपेक्षित ही रहा. एक तरह से उलझन के भंवर में फंसता ही चला गया.
हिंदी क्षेत्र के किसी भी पाठक या लेखक को आज तक यह भी मालूम नहीं है कि भारत के किसी कोने में आज भी जीते-जागते तीन थोकदार निवास करते हैं. उनके बारे में अगर कोई जानकारी है भी तो पुरातात्विक अवशेष के रूप में. जैसे मालव के अँधेरे ढूहों में कैद ब्रह्मराक्षस, वैसे ही उत्तराखंड में पाषाण युग से मौजूद देवीधुरा के शिखरों पर स्थापित वीर-खंभे.
‘जब थोकदार होते ही नहीं तो उनकी भाषा का पता हम कैसे लगा सकते हैं?’ वह केशव नहीं था जिसने यह सवाल उठाया था. मगर उन्हीं दिनों केशव के गर्भ में से ही जीता-जागता बाहर निकला था. इसके बावजूद केशव की तरह उसका एक नाम था. मान लीजिए कि उसका नाम लक्ष्मण था. उसने हर पल मुझसे बहस की थी. वह आज तक मुझसे बहस करता आ रहा है.
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एमए करने के बाद शोध के सिलसिले में मैं इलाहाबाद गया जहाँ मुझे साहित्य की एक जीवंत और बिंदास दुनिया मिली. हिंदी की सर्वश्रेष्ठ मेधा उन दिनों प्रयाग में मौजूद थी. साहित्य जगत में मेरी न कोई पहचान थी और न ऐसा कुछ लिखा था, जिसे लेकर मेरे मन में लेखक होने की ग़लतफ़हमी हो. उस वक्त के चर्चित लेखकों से दोस्ती हुई और धीरे-धीरे मैं उस परिवार का हिस्सा बन गया. १९६६ में मैं विवि का शोध-छात्र बना.
राजेन्द्र यादव द्वारा सम्पादित हिंदी कहानी का ऐतिहासिक संकलन ‘एक दुनिया: समानांतर’ उन्हीं दिनों प्रकाशित हुआ था और उसकी खूब चर्चा थी. प्रेमचंदजी के बड़े बेटे श्रीपत राय कहानी की एक पत्रिका ‘कहानी’ नाम से निकालते थे जिसमें छपना हर नए लेखक का सपना हुआ करता था. मैं बेरोजगार था, एक दिन काम की तलाश में मैं श्रीपतजी के पास गया तो उन्होंने किसी नयी किताब की समीक्षा करने की सलाह दी. मैं ऐसे किसी प्रस्ताव के इंतजार में ही था, दूसरे ही दिन उनके पास ‘एक दुनिया: समानांतर’ की समीक्षा ‘नयी कहानी का नायक राजेन्द्र यादव या विश्वामित्र’ लेकर पहुंचा जिसे उन्होंने १९६७ के किसी अंक में छापा. इस समीक्षा के प्रकाशन के बाद समीक्षक के रूप में मुझे मेरी चर्चा होने लगी.
मुक्तिबोध को पढ़ने के बाद दिमाग में घुमड़ रहे अपने विचारों के लिए मुझे ऐसे ही किसी मंच की तलाश थी. महीनों की घुमड़न से एक विस्तृत आलेख तैयार हुआ था, ‘कहानी का रचना विधान: टूटती हुई धारणाओं का रचनात्मक बोध’. श्रीपत जी को आलेख दिखाया तो उन्हें पसंद आया और उसे उन्होंने जल्दी ही ‘कहानी’ के एक अंक में प्रकाशित कर दिया. मित्रों ने सलाह दी कि इस थीम पर कहानी की रचना-प्रक्रिया पर कोई किताब तैयार की जा सकती है, चाहिए, साल भर की मेहनत के बाद मुक्तिबोध की स्थापनाओं के समानांतर पांच अध्यायों की एक किताब तैयार हो गई, ‘कहानी: रचना-प्रक्रिया और स्वरूप’, जिसे राजेन्द्र यादव ने १९७३ में अपने ‘अक्षर प्रकाशन’ से प्रकाशित किया. लम्बे समय तक यह किताब चर्चा में रही, हिंदी समाज में उसका अच्छा स्वागत हुआ, लेकिन पाठ्यक्रम संसार में लेखक, पाठक और शब्द के आपसी रिश्तों को लेकर उन सन्दर्भों में बात नहीं पहुँच पाई जिसके बारे में हिंदी में पहली बार मुक्तिबोध ने चिंता जताई थी. १९८५ में मैंने एक बार फिर अपनी दूसरी किताब ‘कहानी:संवाद का तीसरा आयाम’ (नेशनल पब्लिशिंग हाउस) में रचना के इन तीन अनिवार्य आयामों को लेकर बहस उठाने की कोशिश की मगर तब तक हिंदी लेखन बहुत साफ तौर पर अपने-अपने पूर्वाग्रहों की कोटर में दुबक चुका था, इन कोटरों के दरवाजे ‘बाहरी’ व्यक्तियों के लिए हमेशा के लिए बंद कर दिए गए.
अपनी बातों की पैरवी करने की मंशा से नहीं, बहुत संक्षेप में खुद की स्थापनाओं का परिचय देने के लिए ‘कहानी: रचना-प्रक्रिया और स्वरूप’ (१९७३) का एक अंश यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ:
“रचना न तो आत्मरति है और न विक्षिप्तता.
“आगे एक गहरा शून्य था. पश्चिम के अंतिम मूल्यांकित विचारक अस्तित्ववादी थे, जिनकी देन अकेलापन थी. दुर्भाग्यवश हम फिर वहीं, भारत में थे – जहाँ अकाल था, जातीय दंगे थे, प्रांतीयता के छिछले स्तर थे, और था कुछेक साहित्यिक मठाधीशों का राज्य, जिनका काम अपने वर्गगत स्वार्थों के अनुसार ‘लेखकों’ का निर्माण करना था; और यह भी दुर्भाग्य था कि इनमें से किसी भी मूल्य की रचनात्मक सार्थकता यह लेखक नहीं खोज पाया. इतने बड़े सन्दर्भों से कूदकर फिर-से इन छोटे-मोटे मूल्यों को रचना का आधार बनाया भी कैसे जा सकता था.\”
“यह स्वाभाविक था कि इसके बाद ‘परिवेश’, ‘परिदृश्य’ और ‘अनुभवों की प्रामाणिकता’ आदि के नारे लगाये जाते…” (पृष्ठ २९)
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प्रेमचन्द के घर में : इलाहाबाद और वाराणसी
नैनीताल का यह थोकदारी पड़ाव दस वर्ष का था, ५६ से ६६ तक. हिंदी में एमए तो कर लिया था लेकिन आगे की दुनिया में दाखिले के लिए जिस विशिष्टता की जरूरत थी, मेरे पास नहीं थी. साहित्य की दुनिया की जो छवि इस बीच बनाई थी, उसके और डिग्री के बीच कोई तालमेल नहीं बैठा पाया. इस बीच नैनीताल में रहते हुए ही, हिंदी के कई बड़े लेखकों और प्राध्यापकों के साथ परिचय हुआ; इच्छा जगी कि किसी बड़े विश्वविद्यालय से विद्वान प्राध्यापक के निर्देशन में शोधकार्य करूं. मेरे जैसे युवक के लिए यह इच्छा दिवास्वप्न से अधिक कुछ नहीं थी. आर्थिक आधार तो हवा में था ही, अकादमिक योग्यता भी कमजोर थी. शोधकार्य तो दूर की कौड़ी थी. जो शैक्षिक योग्यता मैंने हासिल की थी, उससे बीएचयू और प्रयाग जैसे देश के शीर्षस्थ विश्वविद्यालयों में दाखिला लेना, जो पूरब के केम्ब्रिज और ऑक्सफ़ोर्ड कहलाते थे, एक असंभव इच्छा थी. जिस आगरा विश्वविद्यालय से मैंने द्वितीय श्रेणी में डिग्री हासिल की थी, उसे लेकर इन प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में प्रवेश का सपना नहीं देखा जा सकता था. मगर इच्छाओं के घोड़े उस उम्र में कहाँ वश में रहते है?
नैनीताल में रहते हुए हिंदी के बड़ी पत्रिकाओं में कहानियां और लेख प्रकाशित हो गए थे और पत्र-व्यवहार से एक अच्छी-खासी लेखक-बिरादरी बन चुकी थी. कई हम-उम्र चर्चित रचनाकारों के साथ समकालीन लेखन को लेकर बहसों-प्रतिक्रियाओं का सिलसिला पूरे मनोयोग से जारी था. नैनीताल में देवेन मेवाड़ी और वीरेन डंगवाल तो मित्र थे ही, युवा विद्यार्थियों की संस्था ‘द क्रैंक्स’ के जरिये एक अखिल भारतीय बिरादरी बन चुकी थी. बाद में इलाहाबाद जाकर उस वक्त के चर्चित लेखकों ज्ञानरंजन, दूधनाथ सिंह. गंगाप्रसाद विमल, रवीन्द्र कालिया, नीलाभ, अमर गोस्वामी, गिरधर राठी, शिवकिशोर तिवारी, धनञ्जय, इसराइल आदि अन्तरंग मित्रों में शामिल हो चुके थे. हालाँकि लेखक होना शोध करने के लिए पर्याप्त पात्रता नहीं हो सकती थी, फिर भी उस दुनिया में प्रवेश करने का यह एक सम्मानजनक द्वार तो उन दिनों था ही.
एमए के दौरान उस वक़्त की सर्वश्रेष्ठ पत्रिका ‘धर्मयुग’ में प्रसिद्ध कथाकार-प्राध्यापक डॉ. शिवप्रसाद सिंह की अस्तित्ववाद पर एक लेखमाला छप रही थी, जिसे लेकर उनके साथ पत्राचार होने लगा. मन की यह इच्छा हिलोरें लेने लगी कि काश, इसी तरह के किसी विषय पर मैं शोध करता. यों ही, शिवप्रसादजी को मैंने अपनी इच्छा जाहिर की और उन्होंने अपने निर्देशन में काम करने की इजाजत दे दी. मेरी कल्पना के पंखों को मानो रास्ता मिल गया और मैं बिना आगा-पीछा सोचे वाराणसी के लिए चल पड़ा. काठगोदाम रेलवे स्टेशन पर पहुँचने के बाद मेरी कल्पना यथार्थ की धरती पर ठहरी और मैं सोचने लगा, मैं वाराणसी में कहाँ ठहरूंगा, खाने-पीने, लिखने-पढ़ने के लिए खर्च कहाँ से आएगा? कुछ देर के लिए मेरे पांवों तले की जमीन खिसक गयी. मुझे लगा, मैं संसार का सबसे जड़ प्राणी हूँ जिसके पास विवेक जैसी कोई चीज नहीं है. टिकट खरीद लिया था, ट्रेन में तो बैठ गया, मगर दिमाग कुछ भी काम नहीं कर रहा था. एकदम विचारहीनता की स्थिति में फंस गया. तभी मुझे इलाहाबाद के मटियानीजी का ख्याल आया जिन्होंने मुझे लिखा था कि मैं जब भी वाराणसी जाऊं, इलाहाबाद होते हुए ही जाऊं. थोड़ी देर के लिए मानो मेरी साँस-में-साँस आई और मैंने तत्काल निर्णय लिया कि लखनऊ से मैं वाराणसी के बदले इलाहाबाद का टिकट खरीदूंगा और आगे की रणनीति वहीं तय करूँगा. मुझे लगा, मैं कुछ हद तक हल्का महसूस कर रहा हूँ.
जून, १९६६ की एक लू भरी सुबह प्रयाग स्टेशन के पास मटियानीजी के घर भारद्वाज आश्रम पहुंचा तो वो खुद ही परेशान थे. तीन दिन पहले उनके बेटा हुआ था; आश्रम के हॉल-नुमा कमरे के एक कोने पर भाभीजी कुछ ही देर पहले अस्पताल से लौटने के बाद शिशु को गोद में लिए अधलेटी पड़ी थीं. कुछ हैरत-भरी-सी नजरों से मटियानीजी ने मुझे और मेरे सामान को घूरा और फिर खुद ही सामान को दीवार के सहारे टिकाकर सब्जी की टोकरी थामे बोले, ‘चलो, सब्जी ले आते हैं.’ मेरे पास इसके अलावा कोई विकल्प नहीं था कि मैं उनके पीछे-पीछे चल देता. मैंने उनके हाथ से टोकरी पकड़ने की कोशिश की लेकिन उन्होंने मुझे टोकरी नहीं दी.
एक मुसीबतजदा के ऊपर एक और मुसीबत. छः लोगों के परिवार के साथ एक और मैं जुड़ गया. ठीक है कि मैं अस्थायी रूप से उसमें शामिल था, मगर कब तक रहूँगा, निश्चित नहीं था. वाराणसी की उम्मीद तो मैंने त्याग ही दी थी, इलाहाबाद में मुझे रिसर्च में प्रवेश मिल पायेगा, यह इच्छा आकाश कुसुम पाने से कम नहीं थी. इलाहाबाद में और किसी को जानता नहीं था, जिन लोगों के साथ पत्राचार हुआ था, उनके पास जाकर ठहरा तो नहीं जा सकता था. लौटने का विकल्प मुझे खुद ही बेहूदा लग रहा था. नैनीताल में परिजन मुझसे पैसा कमाकर आर्थिक मदद की उम्मीद कर रहे थे. मटियानीजी के पास ठहरने के सिवा फ़िलहाल कोई दूसरा विकल्प नहीं था.
भाग्यवादी कहते है कि इस संसार में जो भी घटित होता है, पहले से तय है. इस सिद्धांत को मैंने कभी नहीं स्वीकार किया, अलबत्ता हमेशा चुनौती दी है. शायद इसके पीछे यह तर्क हो कि उम्मीद और विश्वास का अपना एक शास्त्र होता है जो हमारे लिए रास्ता बनाता चलता है.
युवा साहित्यकार मित्रों के कहने पर मैंने डीफिल के लिए अप्लाई कर दिया; उम्मीद तो नहीं थी कि उस पर विचार होगा, फिर भी एक दिन जब ‘माध्यम’ संपादक बालकृष्ण राव से मिलने गया तो उन्हें समस्या बताई. ‘माध्यम’ में कई रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी थीं और राव साहब की बड़ी उत्साहजनक प्रतिक्रियाएं प्राप्त हुई थीं. सुमित्रानंदन पन्तजी से उनके घर पर मिला और उन्हें भी अपनी समस्या बताई. दोनों के ही हिंदी विभाग के प्राध्यापकों से अच्छे सम्बन्ध थे और उन्होंने आश्वासन दिया कि वो मदद करेंगे.
हिंदी विभाग के अध्यक्ष उस वक़्त नाटककार रामकुमार वर्मा थे जो बैंक रोड के पास ही कहीं रहते थे. एक दिन विभागाध्यक्ष से मिलने उनके कमरे पर गया तो उन्हें अपने आवेदन की जानकारी दी. कुछ देर तक वो मेरे चेहरे को घूरते रहे, अचानक सवाल किया, ‘पंतजी के रिश्तेदार हो?’
मैं कुछ समझा नहीं, इतना ही मुँह से निकला, ‘जी नहीं.’
इसके बाद वो कुछ नहीं बोले. उनके मौन को जब काफी देर हो गयी, मैं पलटा और कमरे से बाहर आ गया.
शाम को कॉफ़ी हाउस के बाहर रघुवंशजी ने बताया कि शोध समिति ने डॉ. रामकुमार वर्मा के निर्देशन में मेरा आवेदन स्वीकार कर लिया है.
इस अचानक-समाचार ने मुझे हतप्रभ-सा कर दिया क्योंकि रामकुमार जी को मैं जरा भी नहीं जानता था, मेरे मन में उनकी छवि कट्टर पुरातन-पंथी की थी. मैंने रघुवंश जी से कहा, सर, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि आप मुझे अपने अंडर में ले लें?’
“यह निर्णय रिसर्च कमेटी का है, इसे मैं अकेला कैसे बदल सकता हूँ”, रघुवंश जी बोले.
रघुवंश जी के साथ डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी हमेशा रहते थे, उस वक़्त भी थे. ‘चलो, देखते हैं’, उन्होंने कहा और आगे बढ़ गए. दो-चार दिन के बाद मेरे पास विवि का पत्र आ गया कि मेरा शोध-आवेदन डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी के निर्देशन में स्वीकार कर लिया गया है.
वर्षों की मेरी चाह पूरी हुई थी, लेकिन इसका जश्न कैसे मनाएं, यह बड़ा सवाल था. फिलहाल रहने और खाने-पीने का संकट नहीं था, मटियानीजी अभावों के बीच रहने के आदी थे, कठिन-से-कठिन क्षणों में भी वो जिन्दादिली के साथ किसी किस्म के साधनों के अभाव में इतना बड़ा परिवार पाल रहे थे, उसकी देखा-देखी मैं भी उनके साथ चल रहा था. उनकी वजह से कभी निराशा नहीं घेरती थी.
उन दिनों आकाशवाणी के इलाहाबाद केंद्र में इलाचंद्र जोशी जी प्रोड्यूसर थे, एक कहानी का तीस रुपये पारिश्रमिक मिलता था, उन्होंने आश्वासन दिया कि वो महीने-दो महीने में मेरी कहानी और वार्ता प्रसारित कर देंगे. मित्र प्रकाशन की मशहूर पत्रिका ‘मनोरमा’ में कथाकार अमरकांत संपादक थे, वो भी एक रचना प्रकाशित करके अच्छा पारिश्रमिक दिला देते थे. कभी-कभी मैं अपने भाई साहब से भी पैसे मंगा लिया करता था.
इसी संरक्षण ने मुझे हिंदी साहित्य की सबसे बड़ी हस्ती प्रेमचंदजी के परिवार का संरक्षण प्राप्त हुआ जिसने मेरे जीवन की दिशा ही बदल दी. अमृत राय ने उन्हीं दिनों राजकमल प्रकाशन से मशहूर कहानी पत्रिका ‘नई कहानियां’ के अधिकार ख़रीदे थे और अशोक नगर वाले अपने घर ‘धूप छांह’ में ही उसका सम्पादकीय कार्यालय शुरू किया था. ‘धूप छांह’ में अमृत राय जी की माँ शिवरानी देवी प्रेमचंद, पत्नी सुधा चौहान और बेटे रहते थे. एक दुर्घटना में अमृतजी के एक बेटे की मृत्यु हो गयी थी, इसलिए वो हर पल खुद को प्रकाशन और संपादन के काम में व्यस्त रखते थे.
अमृत राय जी ने जब ‘नई कहानियां’ के लिए कहानियाँ आमंत्रित कीं तो मैंने उन्हें उहीं दिनों लिखी अपनी कहानी ‘माध्यम’ प्रकाशनार्थ भेजी. अगले महीने जब उनके संपादन में ‘नई कहानियां’ का प्रवेशांक आया, मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा, उस अंक में पहली कहानी मेरी ही थी. मुझे बाद में मालूम हुआ कि कहानी की विषयवस्तु अमृतजी की उन दिनों की मानसिकता से काफी मेल खाती थी. लगता था कि कहानी ने उनके मर्म को छू दिया था. जब भी वह मिलते वह कहानी की प्रशंसा करते.
उसी दौरान एक दिन उन्होंने मेरे आर्थिक आधार के बारे पूछा. मैंने अपनी हालत बयान की तो उन्होंने कहा कि मैं उनके ‘धूप छांह’ के सम्पादकीय कार्यालय में उनकी मदद करूं. इसके लिए वो मुझे १३० रुपये देने लगे थे. मेरे लिए इतना पर्याप्त था. १९६६-६७ में दस रुपये महीने में खूब अच्छा कमरा मिल गया, तीस रुपये माहवार में दोनों वक़्त का खाना और बिजली-पानी मुफ्त. जेब खर्च के लिए काफी पैसा बच जाता था.
आर्थिक मदद के अतिरिक्त इस घर में जो खजाना मुझे मिला, उसका तो कोई मूल्य ही नहीं था. जिस कमरे में मैं बैठता था, उसके बगल में अमृत रायजी की माँ, प्रेमचंदजी की पत्नी शिवरानी देवीजी का कमरा था, मुझे उन्हीं के बगल से गुजरकर कार्यालय के कमरे के लिए निकलना होता था इसलिए आते-जाते नमस्कार के बहाने उनसे घनिष्टता हो गई. काफी वृद्ध हो गयी थीं, बॉर्डर वाले किनारे की सफ़ेद साड़ी में वो ज्यादातर बैठी रहतीं, हालाँकि चल-ढाल में आलस्य या थकावट नहीं थी. मुझे कभी-कभी अपने पास बुलाकर बैठा लेतीं. पुरानी यादों का मन से वर्णन करती थीं, साहित्य की नहीं, मुझसे वो पहाड़ों के बारे में बातें करतीं. एक बार उन्होंने बताया कि वो नैनीताल जा चुकी थीं. वो प्रेमचंदजी के साथ गयी थीं और पहाड़ के लोग उन्हें बहुत अच्छे लगते हैं.
शिवरानी जी घर पर ही पान लगाकर खाती थीं, कमरे के एक कोने पर पान-दान पड़ा रहता था. उन्होंने जब देखा कि मैं भी ज़र्दे का पान खाता हूँ, मेरी इस आदत से वो नाखुश हुई थीं. ‘इस उम्र में ज़र्दा नहीं खाना चाहिए’, वो मुझे टोकतीं, ‘सेहत के लिए अच्छा नहीं होता!’.. फिर चुपके से यह भी कहतीं, ‘कभी बहुत तलब लगे तो पान-दान से अपने लिए ले लेना, एक टुकड़ा मुझे भी दे देना.’
यह मेरे लिए सचमुच गर्व का अहसास है कि मुझे मेरे कठिन क्षणों में हिंदी के सबसे बड़े लेखक के परिवार ने नयी जिंदगी दी. मैंने प्रेमचंदजी को नहीं देखा, मगर शिवरानी देवी प्रेमचंद को अपने पास महसूस किया, बड़े बेटे श्रीपत राय जी ने ‘कहानी’ पत्रिका में मंच देकर और छोटे बेटे अमृत राय जी ने ‘नई कहानियां’ का सहारा देकर कंगाली के दिनों में एक तरह से मेरी प्राण-रक्षा की.
मगर इस परिवार के संरक्षण की कहानी का स्वर्णिम काल अभी मेरे जीवन में आना बाकी था.
‘नई कहानियां’ कार्यालय में एक दिन अमृत राय जी ने पूछा कि मैं इलाहाबाद में किस कारण से आया हूँ. मैंने बताया कि मैं विवि में शोध कार्य कर रहा हूँ. हैरानी में उन्होंने कहा, दिन भर तो मैं ‘धूप छांह’ में ही दिखाई देता हूँ, शोधकार्य कब करता हूँ? मैंने उन्हें बताया कि उन्नीसवीं सदी की पत्रिकाओं का अध्ययन करने के लिए मुझे नागरी प्रचारणी सभा और दूसरे पुस्तकालयों में जाकर सामग्री का संकलन करना है, लेकिन मेरे पास वहां रहने का कोई ठिकाना नहीं है.
बिना एक पल रुके अमृतजी ने अपनी पत्नी को आवाज दी, ‘सुधा, बटरोही को बनारस वाले घर की चाभी दे दो. हंस प्रकाशन के बनारस ऑफिस के इंचार्ज को फोन कर दो कि कमरा साफ करवा दें, वहां कुछ महीने बटरोही रहेगा.’ इन्होंने उसी वक़्त मुझे सौ रूपये दिलवाए और थोड़ा सख्ती से कहा, ‘अब तभी लौटना जब तुम्हारा रिसर्च का काम हो जाय.’
दूसरे ही दिन मैं वाराणसी के गोदोलिया मोहल्ले में पाण्डे धर्मशाला के सामने प्रेमचंदजी के घर पर था. तीन मंजिला इस विशाल घर के दोतल्ले पर “हंस प्रकाशन’ का एक धुंधला सा बोर्ड लगा था और बाहर से ही लगता था कि घर का उपयोग बहुत दिनों से नहीं हुआ है. कोई सज्जन मुझे घर के कमरों और रास्ते की जानकारी दे गए और किसी किस्म की दिक्कत होने पर हंस प्रकाशन की बुध बाजार वाली दुकान में संपर्क करने के लिए कह गए. मुझसे कहा कि सारा घर खाली है, मैं जिस कमरे में भी रहना चाहूं, उन्हें बता दूँ, वो सफाई करवा देंगे.
जिस कमरे को मैंने पसंद किया वह धूल-धक्कड़ से भरा अस्त-व्यस्त कमरा था, मानो वर्षों से वहां कोई नहीं रहा हो. उसका पंखा काम नहीं कर रहा था और बल्ब-ट्यूब-लाइट भी टूटी-फूटी थी. जो व्यक्ति मुझे पहुँचाने आये थे,उन्होंने आग्रह किया कि मैं कोई और कमरा ले लूं, इसकी सफाई में वक़्त भी लगेगा और खर्चा भी बहुत आएगा. मैंने उनसे कहा कि मैं अपने सामने सफाई करवा लूँगा, आप आदमी की व्यवस्था कर दें. इस शर्त पर वो राजी हो गए. वो व्यक्ति बार-बार संकोच कर रहे थे और ज़िद कर रहे थे कि मैं कोई दूसरा साफ-सुथरा कमरा ले लूं. उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्यों इतनी परेशानी झेल रहा हूँ! वो हैरान थे मगर मुझे कमरे की एक-एक चीज को छूने और उसे व्यवस्थित करने में जादुई स्पर्श का अहसास हो रहा था.
वह प्रेमचंदजी का लेखन कक्ष था. जो शायद उनकी मृत्यु के बाद से ही छूटा हुआ था. १९३६ से १९६९ तक तैंतीस साल तक. लिखने की टेबल के बीच हरे रंग का कपड़ा धूल से मटमैला हो चुका था. पुराने फैशन की गद्देदार कुर्सी के दोनों हत्थों का कपड़ा कुछ घिस गया था. मुझे उसे छूने में भी झुरझुरी महसूस हो रही थी… इन पर अपनी कुहनी टिकाकर हिंदी का सबसे बड़ा उपन्यासकार थोड़ी देर सुस्ताकर अपने चरित्रों की अगली रणनीति तय करता होगा, ‘हंस’ के अंकों की रूपरेखा बनाता होगा… मेज के सामने अस्त-व्यस्त हालत में कुछ कुर्सियां पड़ी थीं; उनमें हिंदी और भारतीय भाषाओं के कितने ही साहित्यकारों ने पीठ टिकाकर हिंदी के भविष्य की योजना का खाका तैयार किया होगा. बगल में दीवार पर प्रेमचंदजी का शिक्षा-विभाग के निरीक्षक की वर्दी वाला बड़ा-सा फोटो टंगा था, उस फोटो को कितनी ही बार मैंने अपनी पाठ्य-पुस्तकों में देखा था, उसे स्पर्श करने में मुझे सचमुच दिव्य रोमांच की अनिभूति हो रही थी.
दूसरे दिन मैंने मजदूरों को उन तस्वीरों को हाथ नहीं लगाने दिया था, सारे चित्र खुद ही कपड़ों से पौंछे थे. खिडकियों के परदे भी धूल से भरे थे, उन्हें निकलवाकर धोबी को भिजवा दिया था. प्रेमचंद जी के इस घर को देखकर मुझे लगा, हिंदी समाज अपने नायकों की छवि कितने विचित्र रूप में सुरक्षित रखता है! हिंदी के अधिकांश विद्यार्थियों के बीच प्रेमचंद आज भी गोदान के होरी के रूप में जीवित हैं. हिंदी में ही ऐसा क्यों होता है कि पाठक अपने लेखक में खुद की प्रक्षेपित छवि को देखना चाहता है. जो जितना बड़ा लेखक है, उसकी छवि को उतना ही विकृत करने में आनंद का अनुभव किया जाता है. प्रेमचंद की गरीबी… महादेवी का विरह… और निराला की सनक… उनके अभावों को हिंदी समाज पूजता है, मानो हिंदी समाज के आम आदमी की तरह गरीबी और बदहाली ही उसकी नियति है. वही लेखक अपने संघर्षों से अभावों का अतिक्रमण कर लेता है तो हिंदी का हमपेशा लेखक ही उससे ईर्ष्या करने लगता है.
(एक छोटा-सा ब्रेक)
रवीश कुमार का प्राइम टाइम: २३ जुलाई, २०२०
ठीक इसी तरह एकाएक यकीन नहीं होता कि अंतर्राष्ट्रीय मेगसेसे सम्मान एक हिंदी पत्रकार को मिल सकता है. २३ जुलाई को रात नौ बजे रवीश कुमार ने अपने ‘प्राइम टाइम’ में बिहार में नदियों की बाढ़-संस्कृति पर आधे घंटे का बेहद खूबसूरत कार्यक्रम प्रस्तुत किया. ‘बाढ़’ और खूबसूरती!… रवीश कुमार ने भारत की लोक-परम्परा में नदियों के महत्व और उसके विविध रूपों को एक जीवंत इकाई के रूप में रेखांकित करते हुए मानो ‘बाढ़’ और ‘तवाही’ शब्दों के आशय ही बदल डाले. नदियाँ पृथ्वी के जन्म से ही जीवन का आधार रही हैं और मनुष्य समेत तमाम जीव-जंतुओं का पोषण करती रही हैं, इसलिए उन्हें माँ के समकक्ष रखा गया है. समकक्ष नहीं, सृष्टि की पहली माँ वही तो हैं. कार्यक्रम में रवीश कुमार ने बिहार के प्रख्यात पर्यावरण प्रेमी हवलदार त्रिपाठी और अनुपम मिश्र की किताबों का जिक्र करते हुए मनुष्य, भाषा और नदी के सह-संबंधों को उजागर करते हुए इस मूल्यवान सत्य को उजागर किया कि भाषा और अस्तित्व का अंकुरण सबसे पहले जल में से ही होता है. इस प्रकार जिसे हम साहित्य कहते हैं उसका मूल भी नदियाँ ही हैं क्योंकि नदी और भाषा के सहभाव के बिना संस्कृति जन्म ले ही नहीं सकती.
अंग्रेजी के पीछे वहशियाना अंदाज़ में भागते हिंदी समाज को चेताने का जो काम इन दिनों रवीश कुमार कर रहे हैं, वो आम भारतीयों के लिए जिन्दा रहने का बहुत बड़ा संबल है, उस थोकदारी समाज के लिए तो निश्चय ही, जो अपनी आखिरी सांसें गिन रहा है.(क्रमश:)