अभिषेक अनिक्का द्विभाषी लेखक एवं कवि हैं जिनकी रूचि राजनीति, दर्शन, जेंडर अध्ययन और फिल्मों में है. अभिषेक ने अपनी पढ़ाई दिल्ली के किरोड़ीमल कॉलेज एवं मुंबई के टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेस से की है. पिछले कई वर्षों से बिहार एवं दिल्ली में सामाजिक विषयों पर काम कर रहे हैं. उनकी कुछ कविताएँ .
अभिषेक अनिक्का की कविताएँ
दिल्ली
दिल्ली
कितने बड़े हो गए तुम
सरक ही गए आखिर
ज़ौक़ के साये से
कितने बड़े हो गए तुम
सरक ही गए आखिर
ज़ौक़ के साये से
तुम्हारी पुरानी इमारतें
तुम्हारी चमकती सड़कें
तुम्हारे गोल चक्कर
तुम्हारे रिंग रोड
अब फ़ीके से लगते है
तुम्हारी चमकती सड़कें
तुम्हारे गोल चक्कर
तुम्हारे रिंग रोड
अब फ़ीके से लगते है
ना तुम मुझे कहते हो
जान, आज प्यार करो
ना मैं कभी सोच पाता हूँ
जान, आज प्यार करो
ना मैं कभी सोच पाता हूँ
हाँ, जाड़े की रोमानी रात
या लुट्येन्स की बरसात में
तुमको गले लगाने का मन
अब भी करता है
या लुट्येन्स की बरसात में
तुमको गले लगाने का मन
अब भी करता है
पर देखो न
तुम भी धुंए में डूबे
और मैं भी तुम्हारे साथ
कश पे कश
लिए जा रहा हूँ
तुम भी धुंए में डूबे
और मैं भी तुम्हारे साथ
कश पे कश
लिए जा रहा हूँ
क्या हम उन जोड़ों की तरह हैं
जो साथ जी तो पाते नहीं
पर मरते साथ हैं.
जो साथ जी तो पाते नहीं
पर मरते साथ हैं.
विकल्प
उसने कहा
मेट्रो ही अच्छी है
बस होती
तो मर्दाना शरीर भीड़ के नाम पर
छूते रहते उसके शरीर को
उसने कहा
सलवार कुर्ती ही ठीक है
स्कर्ट होती
तो मर्दाना आँखें देखने के नाम पर
चीर देते उसके कपड़ों को
उसने कहा
वर्जिन ही सही
सेक्स किया होता
तो मर्दाना ढाँचे नैतिकता के नाम पर
कुचल देते उसके चरित्र को
वो खोजती रहती है
कैब में, घर में, पार्क में
साड़ी में, लेगिंग में, शॉर्ट्स में
शादी में, प्यार में, लीव इन में
बस, खोजती ही रहती है
विकल्प
जीवन जीने के
जितना खोजती है
उतना ही खोती जाती है, खुदको
आलसी सपने
जाड़े में अधपके सपने भी
बिलकुल धीरे धीरे सीझते हैं
कभी स्वेटर में, कभी रजाई में
इतराकर उमड़कर पसीजते हैं
पारा गिरने पर, आग जलने पर
कल्पना की हर करवट पर
सच और सम्भावना
आपस में रीझते हैं
बिलकुल धीरे धीरे सीझते हैं
कभी स्वेटर में, कभी रजाई में
इतराकर उमड़कर पसीजते हैं
पारा गिरने पर, आग जलने पर
कल्पना की हर करवट पर
सच और सम्भावना
आपस में रीझते हैं
सर्दी
सुबह सर्द है
कम्बल गर्म
शब्दों का आलसी साया
धूप के इंतज़ार में लेटा है
कम्बल गर्म
शब्दों का आलसी साया
धूप के इंतज़ार में लेटा है
प्रेम / कहानी
कभी मैं ओस
कभी तुम पानी
फ़िर भी यह प्रेम कहानी
बारिश के इंतज़ार में बैठी
कभी तुम पानी
फ़िर भी यह प्रेम कहानी
बारिश के इंतज़ार में बैठी
आर्गुमेंट
दो गूंजती आवाज़ों के बीच
खोजते हैं हम दोनों
हमारे रिश्ते के हर हर्फ़ को
कमरे में लैंप की धीमी रौशनी
पकाती है कुछ यादों को
आँच धीमी है, अच्छा है
लकड़ी से बनी ये पलंग
कल रात फ़िर ताबूत बन गई
हर रोज़ एक नयी कब्रगाह
पर साथ दफ़न हम दोनों
आधी रात है
तुम चुप, मैं चुप
क्या अंदर की खामोशी कम थी
इससे अच्छा तो चिल्ला ही लेते
एक दूसरे पर
खामोशी वाली प्रेम कहानी
ऐसे भी किसी और की है
दिल्ली में बिहार
दिल्ली की सड़कों पर बिहार
अपनी ही मगन में चलता है
रिक्शे की ट्रिंग ट्रिंग के बीच
कच्ची कमाई और बड़े अरमानों
के साए में हिचक कर पलता है
ऊँची बिल्डिगों में, कारखानों में
कभी गार्ड, कभी ऑटो
कभी दिहाड़ी, कभी मौसमी
पसीने का बिहारी रस
हर कोने से टप टप निकलता है
अंगिका और मैथिली का स्वाद
हवा में जब तैरता मिलता है
तो मन करता है लपक लूँ
और रख लूँ अपनी जेब में
शायद मैं भी एक दिन के लिए
फिर से बिहार बन जाऊं
एक बेमानी कविता
टूटी सड़कों पर सन्नाटा चलता है
टूटे हुए तंत्र की कहानी गढ़ता है
बिना तालों की चाभियाँ
बिना डॉक्टर के अस्पताल
बिना तेल का एम्बुलेंस
बिना दवा की शीशियाँ
बिना शिक्षक के स्कूल
बिना पानी के नल
बिना फसल के हल
बिना आवाज़ के बल
जनतंत्र जब जन के बिना ही चलता है
तो केवल बेमानी कविताएं लिखता है.
टूटे हुए तंत्र की कहानी गढ़ता है
बिना तालों की चाभियाँ
बिना डॉक्टर के अस्पताल
बिना तेल का एम्बुलेंस
बिना दवा की शीशियाँ
बिना शिक्षक के स्कूल
बिना पानी के नल
बिना फसल के हल
बिना आवाज़ के बल
जनतंत्र जब जन के बिना ही चलता है
तो केवल बेमानी कविताएं लिखता है.
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