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| Painting by Javier Alvarez |
\’स्तन’ और ‘ब्रेस्ट कैंसर’: व्याधि, कविता, स्त्री और स्त्रीवादी
संतोष अर्श
“पवन करण और अनामिका ने व्याधि से ग्रस्त दर्द से दुखते हुए, मृत्यु के भय से आक्रांत, शल्य चिकित्सा के कारण विरूपीकृत स्त्री के शरीर पर नश्तर से कविताएँ उकेर दीं और स्त्री के रक्तस्नात अनावृत्त शरीर को हम सब के बीच ला खड़ा किया मगर इस बार इन दोनों कवियों के इस क्रूर, हिंसक, बर्बर और निहायत ग़लीज़ मज़ाक पर हँस पाना भी हमारे लिए मुमकिन नहीं.”
स्तन, स्त्रीत्व का प्रतीक हैं. स्त्री के सौंदर्य की चरमावस्था! अर्द्धनारीश्वर के मिथक को मानने वाली संस्कृति में कहा जाता रहा है कि पुरुष के पुष्पित स्तन स्त्री के सुंदर, अभिभूत करने वाले स्तनों में फलित होते हैं. शैशवावस्था से लेकर आजीवन, स्त्री के स्तन पुरुष के लिए प्रगाढ़ आकर्षण, आश्चर्य और रहस्य से भरे अंग हैं. स्तनविहीन स्त्रीत्व की कल्पना न पुरुष कर सकता है न स्वयं स्त्री, यह उन दोनों के लिए त्रासद स्थिति होगी. स्त्री के स्तनों के तिलिस्म और आकर्षण से मुक्त हो पाना पुरुष के लिए मुमकिन नहीं है. पवन करण ने भी अपनी कविता ‘स्तन’ ‘पुरुष होकर’ ही लिखी है. उन्होंने अपनी कविता संगीता रंजन को समर्पित की है जिन्हें छाती के कैंसर की वज़ह से अपना एक स्तन गँवाना पड़ा था. यही बात उनके संग्रह (स्त्री मेरे भीतर, जिसमें यह कविता संकलित है) में कविता के नीचे भी लिखी है. यहाँ ‘छाती’ शब्द को यों ही गुज़र जाने देना नहीं चाहिए. उर्दू के बेहतरीन अफ़सानानिगार मंटो को छाती शब्द के प्रयोग पर (उनके अपने दौर में) बड़ी-बड़ी सफ़ाइयाँ और मुख़्तलिफ़ जवाब देने पड़ते थे. यह गौरतलब है कि शालिनी माथुर ने भी अपने लेख में मंटो को उनकी कहानी ‘ठंडा गोश्त’ के साथ याद किया है. यक़ीनन मंटो की कहानी ठंडा गोश्त अश्लील नहीं है. पवन करण की कविता स्तन भी अश्लील नहीं है. पोर्नोग्राफिक नहीं है. हाँ अपने समय की एक सामान्य कविता है जिसे ब्रेस्ट कैंसर ने विशेष कर दिया है. यह हिन्दी साहित्य की दुनिया की भीषण त्रासदी है कि मंटो के ज़माने के जवाबलेवा किसी न किसी सूरत में आज भी मौज़ूद हैं.
स्तन कविता किताब के दो पृष्ठों पर फैली हुई है लेकिन उसमें पाँच पंक्तियाँ ही प्रमुख हैं. प्रारम्भ की तीन पंक्तियाँ-
और जब भरा हुआ होता तो उनमें छुपा लेता अपना मुँह
कर देता उन्हें अपने आँसुओं से तर
कितना कुछ हट गया उनके बीच से
अंतरंग क्षणों में उन दोनों को
हाथों में थामकर वह उससे कहता
ये दोनों तुम्हारे पास अमानत हैं मेरी
मेरी ख़ुशियाँ, इन्हें संभालकर रखना
पर, यह कहकर एतराज़ किया जा सकता है कि स्तन जो कि स्त्री देह के संवेदनशील अंग ही नहीं यौनांग भी हैं, उन पर किसी का अधिकार नहीं है. वे किसी की अमानत नहीं हो सकते ! स्त्री की देह उसका अधिकार है. माय बॉडी माय राइट ! लेकिन अधिकार प्रेम से मिलता है. और प्रेम के रंग इस कविता में बिखरे हुए हैं. प्रेमी-पुरुष की देह पर भी स्त्री का अधिकार है. रागात्मक क्षणों में, वह चाहे तो कह कह सकती है कि तुम्हारे ये पुष्पित स्तन और सख़्त पुट्ठे मेरी अमानत हैं. यहाँ किसी प्रकार की अतिरंजना नहीं बल्कि बराबरी की बात है. स्त्रीवाद की बुनियाद तो स्त्री-पुरुष की समानता को लेकर ही पड़ी आख़िर ? और कविता में स्त्री की उन्मुक्त रज़ा है. उसे अपने स्तन प्यारे हैं ! और होने ही चाहिए. अपनी देह को प्यार करना ही चाहिए. उसे निरामय, स्वस्थ और सुंदर बनाए रखने के हरसंभव प्रयत्न करने चाहिए. इसीलिए तो-
वह जब कभी खड़ी होकर आगे आईने के
इन्हें देखती अपलक तो झूम उठती
वह कई दफ़े सोचती इन दोनों को एक साथ
उसके मुँह में भर दे और मूँद ले अपनी आँखें
पोर्नोग्राफी स्त्री को हीन बनाती है लेकिन वह असली नहीं है. उसमें पशुवत यौनरत होने का अभिनय करते स्त्री-पुरुषों की चीखें और चरमसुख का कामुक सीत्कार नकली होता है. पोर्नोग्राफी में सेक्स और हिंसा दोनों हैं. हिंसा और सेक्स के अपने महीन मनोवैज्ञानिक संबंध हैं जिन पर यहाँ चर्चा मुमकिन नहीं है. लेकिन काम-वासना के हिंसक उत्प्रेरण के लिए पोर्नोग्राफी का उत्पादन बाज़ार का एक हिस्सा है, पूँजी का एक उपक्रम है. इस पर आशुतोष कुमार ने ठीक लिखा है कि, “पोर्नोग्राफी के विषय में खुद स्त्रीवाद के दायरे में शोध, बहस और विमर्श का ज़ख़ीरा इतना बड़ा है कि उसे संक्षेप में समेटने के लिए भी एक विशेषांक की ज़रूरत पड़ेगी. पोर्नोग्राफी के हज़ारों रूप हैं. पोर्नोग्राफी किसी तरह की हो, वह हर हाल में स्त्री के लिए अपमानजनक ही होती है, यह कोई सर्वस्वीकार्य धारणा नहीं है. ऐसी धारणा स्वयं स्त्री के खिलाफ़ जा सकती है.”
तो कभी दशहरी आमों की जोड़ी कहता
अवध में नवाबी के दौरान तरगारे-हरकारे होते थे जो रतिक्रियारत होने जा रहे नवाबों के पलंग के नीचे पहले से घुसकर अपने कामुक सीत्कार, वाक्-कौशल आदि से उनकी कामेच्छा को उद्दीप्त करते थे. दरबारी कवि ऐसे ही होते थे. ग़रज़ यह कि शहद के छत्ते और दशहरी आम जैसे उपमान कविता को कमज़ोर करते हैं. पवन करण का ‘शहद के छत्ते’ उपमान स्तन की जैविक संरचना से कुछ-कुछ भले ही मेल खाता हो लेकिन ऐसे उपमानों का प्रयोग करने के कारण कवि को स्त्रीवादियों से किसी तरह नहीं बचाया जा सकता. और स्तन दशहरी आम होते हैं ? इससे ठीक तो अनामिका की कविता ब्रेस्ट कैंसर में ‘दुनिया की सारी स्मृतियों को दूध पिलाने वाले उन्नत पहाड़ों जैसे स्तन’ हैं. अनामिकाकी कविता के स्तनों का निरूपण भी देखा जाना चाहिए-
दूध पिलाया मैंने,
हाँ बहा दीं दूध की नदियाँ
तब जाकर मेरे इन उन्नत पहाड़ों की
गहरी गुफाओं में जाले लगे.
स्तनों को क्या कुछ नहीं कहा गया ! उनका किस तरह का प्रयोग नहीं किया गया ? बाज़ार के नब्बे फ़ीसद विज्ञापन स्त्री के स्तनों पर टिके रहे हैं. उस क्रम में ‘उन्नत पहाड़’, ‘शहद के छत्ते’ और ‘दशहरी आम’ को भी रख लिया जाय. यहाँ तक आकर अब स्तनों के विषय में जर्मेन ग्रीयर के विचारों को देखना भी काम्य होगा कि- ‘भरी-पूरी छातियाँ असल में स्त्री के गले में लटका फाँसी का फंदा हैं : ये उसे उन पुरुषों की निगाह में चढ़ा देती हैं जो उसे अपनी रबड़ की गुड़िया बनाना चाहते हैं, लेकिन उसे यह सोचने की छूट हरगिज़ नहीं दी जाती कि उनकी फटी पड़ती आँखें सचमुच उसे ही देखती हैं. छातियों की तारीफ़ तभी तक है जब तक कि उनके असली काम की निशानियाँ नहीं दिखाई देतीं : रंग गहरा हो जाने, खिंचने या सूख जाने पर वे वितृष्णा उपजाती हैं. वे एक व्यक्ति के अंग नहीं आंटे की तरह गूँधे और मरोड़े जाने या चुसनी की तरह मुँह में भरे जाने के लिए उसके गले में लटके प्रलोभन हैं.’ (जोशी मधु. बी. (अनु.), बधिया स्त्री, पृष्ठ- 36) जर्मेन ग्रीयर के विचार स्तनों से पीड़ित स्त्री के लिए हैं. यौन और जैविक कारणों से संतप्त स्तनों से व्याधिग्रस्त स्तन बहुत अलग हैं. यह सुकून देने वाली बात है कि स्तन कैंसर पर लिखी जा रही कविता में अनामिका ने स्तनों पर होने वाले यौन हमलों का भी ध्यान रखा है-
तुम मेरे पीछे पड़े थे
अंग-संग मेरे लगे ऐसे
दूभर हुआ सड़क पर चलना.
खा रहे मुझको ये जाले
और मौत की चुहिया
मेरे पहाड़ों में
इस तरह छिपकर बैठी है
कि यह निकलेगी तभी
जब पहाड़ खोदेगा कोई
पहाड़ उपमान का प्रयोग कवयित्री ने संभवतः इसलिए भी किया हो कि भारत में एक आयु तक स्तनों को स्त्री पहाड़ की तरह ढोती है और इसलिए भी कि कैंसर की पीर पर्वत सी होती होगी. विद्यापति स्तनों को चक्रवाक कहें, सूरदास श्रीफल, रीतिकाल के कवि उरोज, कठिन-कुच या और कुछ कहें, पवन करण शहद के छत्ते और दशहरी आम कहें या अनामिका उन्नत पहाड़, तकलीफ के हीरे और बुलबुले कहें ! वास्तव में स्तन चर्बी, सहायक ऊतकों और लसीकाओं वाले ऊतकों से निर्मित और पसलियों पर स्थित होते हैं जिनमें परलिकाएँ (Lobes) होती हैं, जिनसे होती हुई दूध की वाहिकाएँ (Lactiferous Duct) स्तनाग्र या निप्पल से आकर जुड़ती हैं.त्वचा के नीचे से स्तन के ऊतकों के एक क्षेत्र का विस्तार बगल तक होता है. बगल में भी लसीका ग्रंथियाँ (Lymph Nodes) होती हैं. लसीका ग्रंथियों का फैलाव कॉलरबोन से लेकर चेस्टबोन तक होता है.ब्रेस्ट कैंसर विशेषज्ञ चिकित्सों के अनुसार 85 प्रतिशत स्तन कैंसर दूध वाहिकाओं या परलिकाओं की कोशिकाओं में होता है. अनामिका जिस ‘मौत की चुहिया’ की बात अपनी कविता में कर रही हैं वह यहीं जन्म लेकर छिपी बैठी रहती है और स्तनों को तकलीफ के हीरे बना देती है. स्तन कैंसर व्याधि के लिए जाले और चुहिया से रचा गया रूपक कृत्रिमता उपन्न करता है. ‘गुफाओं में जाले लगे’ बिम्ब कैस प्रभाव पैदा करता है ? स्तन अंदर से गुफाओं जैसे नहीं हैं. वे ख़ाली और अंधकारमय नहीं हैं. उनके भीतर मातृत्व का प्रकाश है. दुनिया की सारी स्मृतियों को दूध पिलाने के पश्चात भी वे खाली नहीं होते, उनमें पूर्णता और तृप्ति भर जाती है. और मौत की चुहिया, जो स्तन की गाँठ के लिए अनामिका ने रची है वह मुहावरे को तोड़-मरोड़ कर रची गयी है. इस रूपक को सही पकड़ा गया है. बीमारी को रूपक से अभिव्यक्त करने के कुछ रचनात्मक कारण होते हैं क्या ? कविता रचनी है तो क्या हुआ ? पहाड़ जैसे उन्नत स्तनों के लिए ऐसी बरहमी या विरक्ति ठीक नहीं जो अनामिका की कविता में व्यंजित हुई है. बीमारी मनुष्य-जीवन का हिस्सा है. उसके ज़िंदा होने की निशानी है. जिजीविषा की कसौटी है. अनामिका ने इस कविता में स्त्री की पीड़ा से परिहास करने की कोशिश की है, यही आइरनी है. यह व्यंग्योक्ति कविता प्रकट भी करती है-
अंततः मैंने तुमसे पा ही ली छुट्टी !
पवन करण की कविता में देहराग अधिक हो गया है. इसीलिए उनकी कविता का पोस्टमार्टम किया गया था. लेकिन पुरुष की ओर से यह सचाई भी है. पुरुष में देह-लिप्सा अधिक है. अगर पुरुष की लिप्सा को अपनी कविता में पवन करण ने ज्यों का त्यों अभिव्यक्त कर दिया है तो वे प्रशंसा के पात्र हैं भर्त्सना के नहीं. ‘ब्रेस्ट कैंसर’ कविता का दुनिया की सारी स्मृतियों को दूध पिलाने वाला एक स्तन पवन करण की कविता के विपरीतलिंगी देहराग के मध्य से बाहर निकल गया है-
कुछ नहीं कहता उससे, वह उसकी तरफ देखता है
और रह जाता है, कसमसाकर
पुरुषवाद ने स्तनों के उभार को लेकर जो कामुक प्रपंच रचा है, अगर अनामिका इस पुरुषवादी प्रपंच को आधार बनाकर ही व्यंग्य में स्तनों को दूध की नदियाँ और पहाड़ बता रही हैं तब तो ठीक है लेकिन यदि वे भी स्तनों की पुरुषवादी लिप्सा के भँवर में फँस गई हैं तो स्तनों पर पुरुषों जैसी ही कविता लिख रही हैं. काव्यशास्त्र के किसी ग्रंथ में यह नहीं लिखा है कि वे स्तनों पर पुरुष जैसी कविता नहीं लिख सकतीं. नारीवादियों के ग्रन्थों में लिखा हो तो और बात है. पवन करण के कवि का निस्तारण हो जाएगा क्योंकि स्त्री के जैविक अंगों (जो पुरुष के पास नहीं हैं) को लेकर उसकी अनुभूति से पुरुष हमेशा-हमेशा के लिए महरूम है. स्तनों पर बात करते समय भीतर की स्त्री से नहीं भीतर के पुरुष से बचना पड़ता है. पवन करण नहीं बच पाए हैं. लेकिन अनामिका क्यों नहीं बच पाईं ? स्तन और व्याधि को आधार बनाकर यह कहना संगत होगा कि स्तन-कैंसर जैसे रोग की गंभीरता को समझना ज़रूरी है. क्योंकि यहाँ स्त्री और पुरुष की अनुभूति का प्रश्न नहीं है बल्कि इस बीमारी से पीड़ित स्त्री की अनुभूति का प्रश्न है. यह अनुभूति स्तन-कैंसर से ग्रस्त हुए बिना पायी जा सकती है क्या? यहाँ स्त्री-पुरुष की बहस से दूर स्त्री और स्तन-कैंसर जैसी व्याधि से ग्रस्त स्त्री ही उपस्थित हैं. और इन दोनों कविताओं ने इस बात का साइन बोर्ड भी लगा रखा है.
कविता व्याधि की तरह दारुण नहीं है लेकिन स्तनों की तरह सुंदर और संवेदनशील निश्चित रूप से है. कवियों पर निजी आक्रमण करने के लिए कविताओं की दुर्व्याख्याओं के बहुत से कारण हो सकते हैं. इन कविताओं पर जो बहस हुई उनमें से एक की रचनाकार अनामिका उस बहस में सम्मिलित हुईं. रचनाकार रचना करके उसे छोड़ देता है. उसकी व्याख्याओं के प्रपंच में नहीं पड़ता है. फिर ज़हर मिले जाम उसे पीना भी चाहिए. अनामिका ने स्त्रीवाद की आड़ लेकर उनकी कविता पर किए गए आक्षेपों को लेकर (या प्रतिवाद में) एक लेख (कविता को समझने के लिए कविता के योग्य बनना पड़ता है) लिखा है. यह इतना आवश्यक नहीं था. लेख में वे लिखती हैं, “स्त्रीवादी कविता की प्रिय तकनीक अंतर्पाठीय मिमिक्री है जो ध्रुवान्तों (कॉस्मिक-कॉमनप्लेस,देहाती-शहराती, पौरात्य-पाश्चात्य, निजी-समवेत आदि) के बीच एक नाटकीय चुप्पी घटित करने से संभव होती है ! स्त्री कविता,मेटाफिजिकल-कन्फ़ेशनल, कबीराना-फ़कीराना और सूफ़ियाना कविता की तरह, भावों की शुद्धता में यक़ीन नहीं करती. और गंभीर से गंभीर बात बड़े विनोदी स्वर में कह सकने की हिम्मत रखती है.” यदि कविता को समझने के लिए कविता के योग्य बनना आवश्यक है तो कवि का यह बताना कि उसकी कविता किस तरह पढ़ी जाय ग़ालिबन गैरज़रूरी है. पवन करण ने ऐसा कुछ लिखा हो तो मेरी नज़र से नहीं गुज़रा. नहीं लिखा तो बहुत अच्छा है.
हिन्दी दुनिया के दक्षिण-वामी-मध्यमी, कार्टेल, सिंडीकेट, मठ-गढ़, माफ़िया-गुर्गों से निरापद होकर यह कहना होगा कि ये दोनों हिंदी की ज़रूरी कविताएँ हैं. स्तन कविता की स्त्री उस अतीतराग को स्मरण करती है जो दोनों स्तनों के साथ उसके जीवन में था. शल्य-चिकित्सा के बाद उसका जीवन बच गया है. अतीतराग की स्मृतियों में व्याधि से बच जाने का उल्लास छुपा हुआ है- ‘मगर, वह, विवश, जानती है.’ व्याधि एक जैविक विवशता है. और-
उसकी देह पर घूमते उसके हाथ
क्या ढूँढ रहे हैं, कि उस वक़्त वे
उसके मन से भी अधिक मायूस हैं.
अब मेरी कोई नहीं लगती ये तकलीफ़ें
तोड़ लिया उनसे अपना रिश्ता
जैसे कि निर्मूल आशंका के सताये
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| (एंजेलिना जॉली)) |
एक कोख के जाए
तोड़ लेते हैं संबंध
और दूध का रिश्ता पानी हो जाता है.
_____________ स्तन / पवन करण
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| अनामिका |
ब्रेस्ट कैंसर/ अनामिका
मेरी स्मृतियाँ!







