सुधांशु फ़िरदौस की कविताएँ |
ll मुल्क है या मक़तल ll
कैसा चमन कि हमसे असीरों को मन’अ है
चाक-ए-कफ़स से बाग़ की दीवार देखना
(मीर)
(१)
तुम्हारी ख़ूबसूरती है या मौत का ख़्याल
बाग़ों में इस बार कुछ ज़्यादा ही खिले हैं गुलाब
देखो इन मोरों की आंखों में बादलों का तवील इंतज़ार
हमारी बेचारगी, तुम्हारे नाज़ो-अंदाज़
तारीख़ गवाह है
किताबें भरी पड़ी है ज़िंदा अफ़्सानों से
इस कशमकश का हासिल क्या है
वस्ल या फ़िराक़
ये-आड़ी-तिरछी सी लकीरें
जिनसे बने हुये दायरे को हम मुल्क कहते हैं
जहां आज़ादी के लिए रूहें रहती हैं तड़पती
कैदख़ाने नहीं तो और क्या हैं?
युग बीत गए
वक़्त बदल गया
किताबें चाट डाली गईं
लेकिन कहीं कोई मसीहा सच कहने को आज भी नहीं तैयार
कहते हैं कि आंखों में छुपी हुई होती है
मौत की आहट
घर हो या बाज़ार किसी से नज़र मिलाते ही
इन दिनों होने लगती है घबराहट
क्या नफ़ासत से चाबुक मारते हैं हुक्काम
मज़ा आ रहा है कहते हैं अवाम!
(२)
वो मेरे भाई ही हैं कोई पराए नहीं
जो बात-बात पर मुझे कहते हैं ग़द्दार
हद तो तब हो गई जब उन्होंने उस रोज़ कहा :
“जो सवाल कर रहा वह है मुसलमान
उसे चले जाना चाहिए पाकिस्तान’’
‘‘भाई साहब, माफ़ कीजियेगा कहीं आप तो नहीं हैं मुसलमान?”
आहंग में ढूंढ़ा था हमारे पुरखों ने ख़ुद को लाफ़ानी करने का राज़
वे उसे कपड़ों की तरह पहन हो गए थे ज़िंदगी और मौत के पार
हम अपनी बे-आहंगी का महसूल चुकाते हुए रोज़ मर रहे हैं
वक़्त एक बगूला है जो किसी को भी अपने चपेटे में ले सकता है
हर कारसाजी अपनी तामीर से पहले
महज़ ख़याल गोई ही होती है
हुकूमत का कोई भी अदना-सा फ़ैसला
मामूली-सा फ़रमान
काफ़ी है आपको ताउम्र करने को हलकान.
ll शरदोपाख्यान ll
विकचकमलवक्त्रा फुल्लनीलोत्पलाक्षी
विकसितनवकाशश्वेतवासो वसाना ।
कुमुदरुचिरकान्तिः कामिनीवोन्मदेयं
प्रतिदिशतु शरद्वश्चेतसः प्रीतिमग्याम् ।।
(ऋतुसंहारम् – ३/२८)
[१]
खिली है शरद की स्वर्ण-सी धूप
कभी तीखी कभी मीठी आर्द्रताहीन शुष्क भीतरघामी धूप
मां कहा करती थी कि चाम ही नहीं हड्डियों में भी लग जाती है ये धूप
इसमें ही सुखाया जाता है मृदंग को छाने वाला चमड़ा
बहुत से किसान सुखाते हैं इस धूप में ही
पखेव के बहाने सालों भर मवेशियों के जोड़-रस्सी में काम आने वाला पटुआ
सुखाई जाती है इस धूप में ही बाजार से बिना बिके लौट आई मछलियां
इस लापरवाह धूप के भरोसे ही ओल, अदरक, आलू, आंवला, मूली के
रंग-बिरंगे अचारों के मर्तबानों से सज जाती हैं छतें
सज जाते हैं आंगन
जिसे लग जाए ये धूप
उसके माथे में कातिक-अगहन तक उठता रहता है टंकार
जो बच गए उनके मन को शिशिर-हेमंत तक उमंग से भरती
नवरात्र के हुमाद-सी सुवासित करती रहती है ये धूप
[२]
साफ-सफ्फाक सोते का बहता हुआ जल
असंगत अंतराल पर गिर रहे हैं गूलर के पके हुए फल
अपनी कटाई के इंतजार में यौवन से मदमाते-झूमते
कास के फूलों की सफेदी रच रही
इस सुदूर वितान में
अपना ही एक प्रतिआकाश
खेतो में धान की जड़ों के बीच डोभे गए खेसारी के बीजों में
शुरू हो गया है धीरे-धीरे अंकुरण
हवा के साथ-साथ पत्तियों की हल्की सरसराहट
फलों के पानी में गिरने की विलंबित टपटपाहट
शरद की इस दोपहरी को गीतात्मकता से भर
लोरी का काम कर रही है
दूर से ही दिख जा रही है मछलियों की चपलता
वे मच्छीमारों की बंसियों के तिलिस्म से बेखबर
गूलर के लाल-लाल फलों पर आसक्त और चुंबनातुर
बार-बार उपरा जा रही हैं सतह पर
[३]
ओस से भरी हुई है शरद की शाम
अपना काम-काज निपटाकर
मेट्रो की तारों पर कतारबद्ध बैठे हैं कबूतर
सुनहरी धूप में दिन भर नहाने से कुम्हलाई हैं पत्तियां
दफ्तरों से लौटते थके-मुरझाए चेहरे
एफएम पर सुन रहे हैं एक ही गीत
पहली ही बूंद से भीगने को मुंतजिर दरख्त
झुटपुटे में लग रहा विरह से लिपटा कोई यक्ष
दीपावली की तैयारियों से सज गए हैं बाजार
घर की याद में बेकल हैं प्रवासी परिंदे
अपनी खुमारी में बेटिकट या टिकटयाफ्ता
गिन रहे रवानगी का दिन
[४]
शरद की पूर्णिमा
आज होगा कितने ही नवयुगलों का शुभ-लाभ से युक्त कोजगरा
क्या शुभग रूप निखरा है आकाश में चांद का
रात की रानी अपनी मादकता से चित्त को विपर्यस्त किए दे रही है बार-बार
गली वाला हरसिंगार इतना खिला है कि फूलों से ओझल हो गई हैं पत्तियां
मंद-मंद पश्चिमी बयार के साथ आती खुनकी
कभी-कभी सिहरा दे रही है बदन को
भिगो रही ओस की अदृश्य निरंतरता
चंद्रिका से नहाए इस पूरे विस्तार को
जहां भी जल रही हैं बत्तियां पतंगे वहीं नृत्यरत खुद को कर रहे उत्सर्ग
दूर सेमल के पेड़ पर रतिरत कोई पक्षी चहका
आज कितनी ही मछलियां कर रही होंगी चांद की चाह में प्राणदान
[५]
ऋतुओं के स्पर्श से लापरवाह है वातानुकूलन
आखिरी मेट्रो सवारियों को उतार अंतरालों पर लौट रही है
जाने को अपनी आरामगाह
मानवीय बस्तियों में कोई आहट कोई सुगबुगाहट नहीं
लोग व्यस्त हैं सप्ताहांत के जलसों में
या पड़े हैं टेलीविजन देखते बिस्तर पर निढाल
जाने किसके खीर से भरे भगोने में गिरेगी अमृत बूंद
नींद से दूर मेरे लिए इस छत पर बैठे
तुम्हारी याद को संजोना
अजाब है या नेमत
तय करना मुश्किल पड़ रहा है.
ll कालिदास का अपूर्ण कथागीत ll
मूढं बुद्धमिवात्मानं हैमीभूतमिवायसम् ।
भूमेर्दिवमिवारुढं मन्ये भवदनुग्रहात् ।।
अद्यप्रभृति भूतानामधिगम्योऽस्मि शुद्धये ।
यदध्यासितमर्हद्भिस्तद्धि तीर्थं प्रचक्षते ।।
(कुमारसंभवम् – ६.५५/५६)
एक समय था जब ऋतुओं के आगमन को लेकर
कितनी उत्सुकता रहती थी मन में
प्रत्येक नक्षत्र का अपना विधान अपना पकवान
ऋतुओं में छुपा होता था जीवन का सारा अनुष्ठान और मिष्ठान
कैसे मेघाच्छादित नभ देख हर्षोल्लास से भागते थे आम्र उपवन की ओर
वर्षांत में जब पशुओं की महामारी को भगाने लिए उठता था हरका
गोबर-लाठी के हड़बोंग को छोड़
उत्साह में चिल्लाते-दौड़ते कैसे करते थे ग्राम-प्रदक्षिणा
हटती ही नहीं थीं प्रीतिस्निग्ध आंखें मेघों से होड़ लेते बलाकाओं के झुंड से
आम्र मंजरियों और बकुल-पंक्तियों के खिलने की कैसी रहती थी प्रतीक्षा
दृश्यों को अनावृत्त करने का कौतूहल नहीं दबता था दबाए
गूलर के फूल या तेरह धारी वाले मक्के के बाल के स्वामित्व की चाह जैसी
कैसी निष्कपट जिज्ञासाएं उन्मत्त कर रात्रिचर निडर बना भटकाती थीं निर्जन ग्राम-प्रांतर में
दादुर, मीन, धेनु, वृषभों से कैसा रहता था अनुप्राणित
कितना रोया था एक बार कदंब की छांव में बैठा मृत तितली को करके जलाप्लावित
दूर नदी मंझधार में नौका पर झिझिया खेलतीं स्त्रियों द्वारा गाए जाते
हलकी पुरवा बयार के साथ ग्राम में पहुंचते गीतों की मद्धम स्वर-लहरियां
कीर्तनियों के झाल, करताल, मृदंग के आरोहावरोह की मादक ध्वनियां
रेत पर सूर्य-किरण के साथ दौड़तीं निश्छल सुबहें
चंद्रछवि के साथ नदी में तैरतीं शीतल रातें
किसी पूर्वजन्म की स्मृति लगती हैं
अब तो अपने ही हृदय के यक्ष और यक्षिणी की विरह में घुलता
ऋतुओं की टोका-टाकी से वीतराग
कमल, कुंद, लोध्र, कुरबक, शिरीष,कदंब कुसुमों को
खिलते और मुरझाते निर्लिप्त देखता हूं
लेना ही पड़ता है कालिदास को एक न एक दिन संन्यास
‘ऋतुसंहार’ से ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ तक आते-आते वह मांग ही लेता है मुक्ति
नंदीग्राम के त्याग का उज्जैन के त्याग से होता है उपसंहार
मल्लिका का सान्निध्य हो या प्रियंगुमंजरी का सहवास
विरह हो या संसर्ग एकाकी कालिदास
एकाकी ही रहता है
अवशेष से उत्पन्न हूं
एक दिन अवशेष छोड़ चला जाऊंगा
उससे पहले संतप्त हूं
भाषा-भाषा
शब्द-शब्द
देह-देह
भटकने के लिए
2
भटकना होता है अकेले ही प्रत्येक प्रतिभा को अपनी त्रासदी में
सब कुछ झेलते हुए बिना किसी प्रचलित आस-आकांक्षा के
देना ही होता है अवदान
रचना ही होता है सबसे छुपाकर
जीवन की संपूर्ण मसि का उत्सर्ग कर एक प्रेमपत्र
क्या पता कैसा हो इसका भवितव्य
पहुंचे या न पहुंचे वह प्रेमिका तक
पहुंच भी जाए तो वह उसे पढ़े या न पढ़े
पढ़ भी ले तो उसमें निहित भावनाओं-व्यंजनाओं को समझे या न समझे
अक्षर-अक्षर और सांस-सांस बना रहता है शक्ति,व्युत्पत्ति और अभ्यास पर एक संशय
मन बैठ-बैठ जाता है देख कि कितना व्यापक है शब्द-ध्वनि का यह फैला हुआ पारावार
हिमालय के उच्च शिखर से होड़ लेती है पूर्ववर्ती कवियों की कीर्ति-पताका
जब भी सोचता हूं वाल्मीकि या वेदव्यास को तब बोध होता है अपनी अपूर्णता का
दुविधाएं उद्दंड मेघ की तरह मन को घेर लेती हैं बार-बार
करता हूं इष्ट का स्मरण
कहता हूं जला दी है मैंने अपनी नौका
मिटाता आया हूं अपने पदचिह्न
पीछे हटने का रखा ही नहीं कोई विकल्प
तैरना ही मुक्ति इस निदाघ सिंधु में
नहीं चाहता कोई अनुकंपा या वरदान
मृत्यु कवि के लिए एक छंद से दूसरे छंद में लगाई गई छलांग है
कोरे पृष्ठ पर जब भी उतरता है कोई शब्द
असंगत हो जाती है हृदय की चाल
कानों की शिराएं होती हैं तप्त
एकाग्र हो करता हूं शब्द का अनुसंधान
एक प्रवाह एक छंद है जो करता है अग्रसर
प्रत्येक क्षण नए-नए अनुभवों से होता है पुनः पुन: जन्म
कविता से काव्येतर अभिलाषा
प्रेम से प्रेमेतर अंदेशा
अपमान नहीं तो और क्या है प्रेम और कविता का
मिल जाए कुछ मनोनुकूल दान, भोजन और भोजनोपरांत दक्षिणा
भिक्षाटन नहीं है कोई भी कलाकर्म
न ही ब्राह्मण-वृत्ति या कर्मकांड
कविता तो नितांत विरोधी रही है इस लोकोपवादी याचक वृत्ति की
कवि में उपस्थित रहना ही चाहिए एक शालीनता से भरा औद्धत्य
नहीं मिलता भिखारियों को सरस्वती का आशीर्वाद
एक बिल्कुल नए अनुसंधान के लिए
एक आधी-अधूरी कल्पना जो क्या बनेगी इसका नहीं अभिज्ञान
सारी भौतिक लालसाओं और तृष्णाओं को त्याग
जल, रक्त, मांस, अस्थि को एकत्र कर देनी ही होती है आहुति
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यहां से दिखती है दूर कीर्ति की एक चमक एक आभा
जो हो सकती है मरीचिका भी कोई नहीं जानता
आंखें बांध अपने भीतर की कौंध को संभाले चढ़ना होता है
उपत्यका की चढ़ाइयों पर मृत्युपर्यंत
बहुत ही साधारण घटना है पथ से चूक खाई में गिर जाना
गिर ही जाते हैं लोग शुष्क जीवनानुभव और मलिन मन लेकर
ऐसे ही खाई में गिरे दादुरों की क्षुद्रतापूर्ण वक्रोक्ति से आक्रांत है समस्त कला-जगत
कला का इतिहास पदाक्रांत है दुर्भिक्षता और अकाल-मृत्यु से
मरणोपरांत कीर्ति का इतिहास जीवन भर घिसे असंख्य पत्थरों में से
किसी एक सौभाग्यशाली को स्पर्शमणि का प्राप्य स्पर्श है
दुर्निवार है कला-कर्म
कवि होना और भी प्रिय भोज्य होना है मृत्यु का
अकाल-मृत्यु से लब्ध अस्थियों के ढेर के ऊपर
कालिदास के आराध्य नटराज करते हैं नृत्य
भरत मुनि बजाते हैं वीणा
काव्य-पुरुष करते हैं आराधना
सरस्वती के हाथों से अपने इन दुस्साहसी पुत्रों के लिए बरसते हैं स्नेह-कुसुम
सृष्टि की असफलता की शल्य-चिकित्सा के प्रयास का एक और मर्मान्तक अंत देख
ब्रह्मा की आंखों से टपक जाते हैं आंसू
जिससे कवि लेते रहते हैं पुनर्जन्म
विष्णु देख ब्रह्मा की विह्वलता स्मृतियों में झांक मंद-मंद मुस्काते हैं
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प्रत्येक क्षण कोई न कोई कवि नंदीग्राम से होता है विस्थापित
लेकिन युग लग जाते हैं किसी कालिदास को उज्जैन पहुंचने में
कश्यप ने विनता से कहा था कि अधैर्य सबसे बड़ा पाप है
कला-क्षेत्र में अधैर्य पाप नहीं महापातक है
यदि नहीं है साहस अपना सर्वस्व दांव पर लगाने का
तब भलाई है प्रतिभा को कहीं और ही लगाने में
क्योंकि यहां सत्ता है अनंत अनिश्चितताओं, विडंबनाओं और प्रवंचनाओं की
बहुत व्यस्त और निर्मम समालोचक है समय
बेध्यानी में खारिज करता समग्र जीवन-संघर्ष
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अमर्श से भरे कुटिल प्रपंचों का प्रदर्शन अशोभनीय बनाता है कला-कर्म को
उज्जैन के कला-मठों में बैठे लोग संभवतः ही कभी समझ पाएं कि कविता नहीं है ज्ञान का आतंक
ज्ञान ही नहीं अर्जित करना होता
बचानी होती है स्निग्धता और प्रांजलता भी
कला-कर्म की शुरुआत होती है सबसे पहले सहृदयता से
कवि न रचे एक भी मूल्यवान पंक्ति
लेकिन सहृदयता का त्याग कवि के स्वत्व का त्याग है
कोई नहीं जानता प्रसिद्धि गजराज पर चढ़कर आएगी या गर्दभ पर
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रचनात्मक जीवन समुच्चय है अंतर्विरोध का—
जितना सिमटता उतना ही फैलता
बिना किसी अपराध के अपराधबोध से संतप्त जीवन
कोई व्यक्तिगत स्वार्थ या भौतिक लालसा नहीं मात्र कलात्मक महत्वाकांक्षा
फिर भी देखते ही देखते जो है सबसे पास वही हो जाता है सबसे दूर
क्या अनूठा द्वैत है
सत्य को बरतना कभी भी नहीं रहा सहज
लेकिन काल की गति ऐसी है कि अब इसे देखना
दीठ में चमकते झीने तार की तरह दुर्लभ है
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नींद में आए व्यवधान का परिणाम है सृष्टि
बनाने वाले की चूक का अवदान है सृष्टि
इसलिए कहीं से भी देखो अपूर्ण है सृष्टि
इसी अपूर्णता का विस्तार है यह जीवन उज्जैन से कश्मीर तक
कालिदास केवल एक ईकाई भर है इस अपूर्णता की
महत्वाकांक्षाएं अंततः पूर्ण होती हैं शून्यता में
कालिदास ने अंततः अनुभवगत कर लिया था इसे पर रचा नहीं
तथागत ने अपने अनवरत अनुदर्शन से जान लिया था इसे पर मौन ही रहे
आनंद रूपक भर है इस शून्यता का
यह तो बहुत बाद की बात है जब नागार्जुन ने इसे कहा
और हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा ‘सब हवा है’
अपूर्णता दौड़ाती है सब कुछ पाने की ओर
फिर लौटाती है सब कुछ छोड़ने की ओर
अपूर्णता कारण और आदमी लोलक है
जो डोलता रहता है चाह और त्याग के बीच
यह दोलन ही जीवन का काव्य है
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बहुत दुष्कर है ढूंढ़ पाना
इस खंडित महाद्वीप के मानचित्र पर कालिदास का जन्मस्थल
क्या कोई पूछता भी है कालिदास की जाति
कोई नहीं जानता कहां से आता है कालिदास
कोई नहीं जानता कहां को चला जाता है कालिदास
हर कालिदास के जीवन में आता है एक उज्जैन
जहां पहुंच वह रचता है अपना सर्वश्रेष्ठ
वहीँ उतरती हैं पारिजात-सी सुगंधित
स्वर्ण पंखुड़ियों-सी चमकतीं
मेघदूत की पंक्तियां
उसके बाद केवल किंवदंतियां
जनश्रुतियां…
सुधांशु फ़िरदौस २ जनवरी १९८५ (सिंगाही – मुजफ्फरपुर, बिहार )जामिया मिलिया इस्लामिया के गणित विभाग में शोध छात्र हैंविभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित sudhansufirdaus@gmail.com |
यकीनन सुधांशु की कविताएं धैर्य की मांग करती हैं पर आज के समय में इसकी कमी होती जा रही है। एकबारगी अगर धंस गए तो कविताओं की आत्मीयता आपको अपना बना लेंगी। अपने संसार में ले जाते घुमाते हुए नदी नालों और पत्थर ढोंकों सबसे परिचय कराएंगी। कहने की जरूरत नहीं कि ‘समय का ताप’ तो वहां जगह जगह मिलेगा ही। बल्कि वही इन कविताओं को आज के धरातल से जोड़ देता है। खैर। अच्छी कविताएं पढवाने के लिए अरुण जी को धन्यवाद। – – हरिमोहन शर्मा
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सुधांशु फ़िरदौस की कविताओं को हमारे तक पहुँचाने का धन्यवाद । भूमिका में आपने यथोचित रूप में लिखा है कि आज की पीढ़ी में सुधांशु जैसे बेजोड़ कवि हैं । यह लिंक मीर के शेर से शुरू किया गया है । ‘मुल्क है या मक़तल’ वर्तमान यथार्थ पर उचित आख्यान है । विचारधारा का आधार पूँजीवाद हो या साम्यवाद; विश्व के किसी भी देश की स्थिति मक़तल से कम नहीं है ।
हर मुल्क की सत्ता का भूतकाल और वर्तमान ग़रीबों और अमीरों के बीच न बिठाये जा सकने वाले तालमेल से अटा पड़ा है । बेशक सुधांशु ने अपनी कविताओं की परिणति को कालिदास के सौंदर्य तक पहुँचाया है । जामिया में पढ़ते हुए उर्दू लफ़्ज़ों का इस्तेमाल करते हुए ये “फ़िरदौस” बन गये हैं । एक ग़ज़ल का शेर लिखकर मैं उनकी कविताओं पर टिप्पणी लिखने की कोशिश करूँगा ।
“ये हक़ीक़त सही फ़िरदौस में हूरों का वजूद
हुस्न-ए-इन्साँ से निपट लूँ तो उधर भी देखूँ”
मीर तक़ी मीर का शेर वर्तमान स्थिति का ख़ूबसूरती से वर्णन कर रहा है । बाग़ों में खिलने वाले फूलों से ग़रीबों को कुछ हासिल नहीं होता । अमीर अपने घरों में उद्यान लगा लेते हैं । मिलना और बिछड़ना हो या मोरों को बादलों के आने की लम्बी प्रतीक्षा; कारागार में बदल चुके देश में यह सब बेमानी है, अप्रासंगिक है । सचमुच मुल्क क़ैदख़ाने होते हैं । कुछ देशों के संविधान में चार या पाँच वर्षों के बाद चुनाव कराने के प्रावधान हैं । यह शुक्र है कि वहाँ चुनाव के बाद अलग-अलग राजनीतिक दलों का या मिलाजुली सरकारें बन जाती हैं । लेकिन मार्क्सवादी देशों में चुनाव के नाम पर ख़ानापूर्ति होती है । निश्चित रूप से हुक्काम नफ़ासत से चाबुक मारते है । नागरिकता संसोधन क़ानून इसका उल्लेखनीय नमूना है ।
दूसरी कविता भी महत्वपूर्ण है । मुसलमान होना अपराध हो गया है । फ़ेसबुक मेरे मित्र अनवर सुहैल ने लिखा था कि मुस्लिम परम्परागत पोशाक को पहनना छोड़ दिया है । फिर भी ख़तरा नहीं टलता ।
ध्यातव्य है कि शिया और सुन्नी आपस में लड़ते हैं । अहमदियों को अभी भी पाकिस्तान में दूसरे दर्जे का नागरिक माना जाता है । अफ़ग़ानिस्तान में चुनी हुई सरकार को तालिबानियों ने क़ब्ज़े में ले लिया है । मलाला युसफ़ज़ई को तालिबानियों ने अपना टार्गेट बनाया है । भारत की सरकार का छोटा फ़ैसला एक विशेष समुदाय के लिए ख़तरे की घंटी है ।
॥ शरदोपाख्यान ॥
मेरी भाभी (माँ) भी सर्दियों और गर्मियों में हड्डियों तक ठंड लगने की बात कहती थी । मृत्यु के बाद मनुष्य की चमड़ी किसी काम में नहीं आती । देहावसान के अपनी देह को मेडिकल कॉलेज को दान करने से हमारे आठ अंग रोगियों के काम आ सकते हैं । गाय की छाल मृदंग और तबले पर चमड़ी लगा देने से स्वर लहरियाँ उठती हैं । अला रखा और उनके पुत्र ज़ाकिर हुसैन ने तबले को सहायक वाद्य की पंक्ति से निकालकर मुख्य वाद्य में शामिल करा दिया । मोरवी में बनने वाले मर्तबानों को कवि ने अचार डालकर रखने का रूपक के रूप में प्रयोग किया ।
2 यह कविता खेतों और प्रकृति के सौंदर्य का वर्णन कर रही है ।
3 मेट्रो या घर के बाहर लगी हुईं बिजली की तारों पर कबूतर क़तार लगाकर बैठे हुए हैं । यह दृष्य सभी देखते हैं । सुधांशु जी ने इसका वर्णन अपनी कविता में किया । अनूठा है । कोरोना काल में प्रवासी भारतीयों का अपने गाँव टिकट, बिना टिकट रेल में सवार होना तथा पैदल रवाना होना की दारुण कथा और दृश्यों पढ़े और देखे गये हैं । कवि ने इन्हें अपनी कविता की विषय वस्तु बनायी । जागरुक समाज की ख़बर है ।
4 शरद पूर्णिमा के दिन मिथिला में लक्ष्मी की पूजा की जाती है । कवि वाल्मीकि की जयंती भी इस दिन होती है । मौसम मादकता भरा होता है ।
॥ कालिदास का अपूर्ण गीत ॥ को दूसरी टिप्पणी में लिखूँगा
“असंगत अंतराल पर गिरते हैं गूलर के फल”
अध्ययन, पर्यवेक्षण और कविता की निर्मिति तीनों उम्दा ।
सुधांसु फिरदौस को पुरख़ुलूस बधाई ।
सुधांशु निश्चित ही नई पीढ़ी के प्रतिभावान कवियों में एक हैं। अपने पुरस्कार के लिए सही पात्र का चयन किया है। टिप्पणी पढ़ कर फिर से लिखता हूँ।