12वीं फेल : कला और संदेश |
चंबल की मूल प्रवृत्ति स्वाभिमानी, विद्रोही और वचनबद्धता की रही है. विदेशी आक्रमण और पराधीनता के लंबे दौर में भी, इस अंचल के लोगों ने अपनी जीवटता से काम लिया, और कभी किसी आतताई शक्ति के आगे घुटने नहीं टेके. बीहड़ और बग़ावत जहाँ देश के अन्य हिस्सों में बसे जनमानस के लिए, भले ही भय और आतंक का पर्याय रहा हो, किंतु इस अंचल के लिये वह अपनी मिट्टी और पानी से तादात्म्य का एक गहन और आत्मीय ज़रिया है.
सिनेमा घरों में हालिया प्रदर्शित विधु विनोद चोपड़ा निर्देशित और विक्रांत मैसी द्वारा अभिनीत ‘12Th फेल’ मूवी का पात्र मनोज शर्मा, जब एक भ्रष्ट पुलिस अधिकारी को अपने जाति और धर्म से परे, “चंबल का हूँ” कहकर अपनी बात का वज़न बढ़ाता है, तब उसकी समझ में चम्बल की यही विशेष वृत्ति काम कर रही होती है. परिश्रमी; ईमानदार; दिये वचन और प्रदत्त कर्तव्य को जान जोख़िम में डालकर भी पूर्ण करने की अदम्य जिजीविषा.
यह जिजीविषा हम यहाँ के जीवन के हर क्षेत्र में देखते हैं. बात फ़िल्म से शुरू हुई है, तो उसे यदि फ़िल्मों तक ही सीमित रखकर देखा जाये, तो वह फिर ‘मुझे जीने दो’ (1963), ‘पुतलीबाई’ (1972), ‘डकैत’ (1987), ‘बैंडिट क्वीन’ (1994), ‘पान सिंह तोमर’ (2012) हो अथवा ‘12Th फेल’(2023), सब में एक बात उभयनिष्ठ है कि इस अंचल के किसी भी जाति, सम्प्रदाय और धार्मिक पृष्ठभूमि से आने वाले व्यक्ति में, अन्याय के प्रति अनादर और प्रतिकार की भावना का कूट-कूटकर भरा होना है.
अफ़सोस इसमें इतना कि उनकी इस बाग़ी और बीहड़ प्रवृत्ति को, कभी किसी ने ठीक-ठीक समझा ही नहीं. देश की सरहदों की सुरक्षा लिए अपने परिवार के हर तीसरे सदस्य को सेना में भेजने और देश हित में अपने घर के युवाओं की सर्वाधिक शहादतें देने का रिकॉर्ड क़ायम करने वाले इस अंचल को, शुरू से ही ग़ैर और अपनों द्वारा छला गया है. एक ओर इस अंचल की बाग़ी प्रवृत्ति को, चम्बल से इतर रहने वालों लोगों ने, डाकू और डकैतों का इलाक़ा कहकर बदनाम किया. सत्ता में विराजे देश के तथाकथित कर्णधारों ने, जानबूझकर इसके समुचित विकास की सर्वदा उपेक्षा की. उन्होंने सुधार का कोई ऐसा बड़ा अभियान इस अंचल के लिये नहीं चलाया, जो इसे स्वतंत्रता के बाद ही देश और समाज की मुख्य धारा से जोड़ता.
वहीं अपनी सीमित समझ के आधार पर यहाँ की भोली-भाली जानता ने, जो भी जन प्रतिनिधि राज्य विधायिकाओं और लोक सभाओं में भेजे, उन्होंने भी यहाँ के नागरिकों के साथ छल ही किया. उन्होंने अपनी विधायिकाओं और लोकसभा सदनों में, अंचल के विकास के लिए कभी कोई ठीक से डिटेल प्रॉजेक्ट और रोडमैप बनाकर प्रस्तुत नहीं किए; ना ही वे अपने गाँव-जवार, विधानसभा और लोकसभा क्षेत्र में, समृद्ध पुस्तकालय, मॉर्डन स्पोर्ट कॉम्प्लेक्स, नवोदय विद्यालय, केन्द्रीय विद्यालय, सैनिक स्कूल, मेडिकल कॉलेज बनवा पाये और न ही वे यहाँ कोई ढंग का औद्योगिक क्षेत्र विकसित कर सके कि जिससे यहाँ के युवाओं को शिक्षा और रोज़गार के लिए, ग्वालियर और देश के सुदूर हिस्सों की ओर पलायन न करना पड़ता. उलटे उन्होंने इस अंचल को प्राकृतिक संसाधनों की तस्करी; प्रशासन में हद दर्ज़े की घूसखोरी; शिक्षा संस्थानों को नक़ल माफियाओं का अड्डा बनाकर रख छोड़ा है.
उस पर निजीकरण व उदारीकरण के दौर में, इन्हीं नव धनाढ्य पूंजीपतियों के द्वारा खड़े किए गये और अंचल में जगह-जगह कुकुरमुत्तों की तरह उग आये, निजी शिक्षण संस्थानों ने. रही सही इस अंचल के युवाओं की कमर तोड़ कर रख दी है. यहाँ का भोला-भाला युवा, अपनी और अपने बाप-दादों की खून-पसीने से कमाकर जोड़ी गई, जमा पूंजी. अपने क्षेत्र के इन मंत्रियों, सांसदों, विधायकों और उनकी शह पर पल रहे, अवैध हथियार, ड्रग्स, शराब, रेत व पत्थर माफियाओं द्वारा. विशुद्ध मुनाफ़े के लिये खोले गये, इन नक़ल आधारित स्कूलों और कॉलेजों में झोंककर, अपने को हरदम ठगा पाता है.
जैसे-तैसे वह वहाँ से, एक अदद मार्कशीट और डिग्री हासिल कर भी लेता है. लेकिन जब-जैसे उसका सामना बाहरी दुनिया से होता है, तब उसे यह समझते देर हो चुकी होती है. सरकार में अच्छी जॉब और ऊँचा ओहदा पाने के लिए, एक अदद डिग्री ही नहीं, स्पर्धात्मक बेहतरीन अध्ययन भी आवश्यक है. और बेहतर अध्ययन, बिना अच्छे स्कूल, कॉलेज, पुस्तकालय और स्टडी सेण्टर के बिना संभव नहीं. जो उसके घर-गाँव, क़स्बे, ज़िले और अंचल में, अब तक उपलब्ध नहीं.
‘12Th फेल’ की शुरुआत भी यहीं से होती है. चंबल स्थित मुरैना ज़िले का एक क़स्बा-जौरा. जहाँ एक विधायक जी का स्कूल है. स्कूल में प्रशासन की साँठगाँठ से वर्षों से नक़ल की जमी-जमाई व्यवस्था? है. उस व्यवस्था में अदृश्य रूप से पीसा जाता, चंबल का नौनिहाल भविष्य. इसी में से एक अपवाद कथा जन्म लेती है, एक आईपीएस कथा. जिसका नायक है, मनोज शर्मा. मनोज शर्मा यथार्थ में 2004 बैच के आईपीएस अधिकारी हैं. उन्हीं के सहपाठी अनुराग पाठक द्वारा, 2015 लिखा ‘12Th फेल’ उपन्यास इस मूवी का मज़बूत आधार है.
मोटे तौर पर यह फ़िल्म भी वॉलीवुड और लोक कथाओं की उन फ़ार्मूला कथाओं से बहुत अलग नहीं, जिनकी बहुधा शुरुआत ही यहाँ से होती है- “एक गाँव में एक गरीब ब्राह्मण रहता था.” आश्चर्य यहाँ भी है कि जिस मनोज शर्मा के दादा, आजीवन आर्मी में रहे और पिता सरकारी मुलाज़िम; तब भी वह परिवार इतना गरीब कैसे? पिता का निलंबन एक आधार दिखता है, लेकिन जब हुआ तब मनोज और उनके भाइयों की उम्र 16-17 है. संभव है पिता की नौकरी को भी इससे कम साल नहीं रहे होंगे. तब उपन्यास और फ़िल्म में, मनोज शर्मा की बेहद ग़रीबी की महिमा, समझ से परे है?
घर से प्रतियोगी परीक्षा के लिये निकलते, दादी से अपने दिवंगत आर्मीमैन दादा की पेंशन से जोड़ी रक़म मिलना. संयोगवश घर से ग्वालियर के बीच बस यात्रा में, बक्सा सहित उन रुपयों का चोरी हो जाना. भूख और निराशा की स्थिति में, ग्वालियर स्टेशन पर एक सजातीय मित्र प्रीतम पांडेय (वी. अनंत जोशी) का सहयोग मिलना. प्रीतम के साथ दिल्ली मुखर्जी नगर पहुँचने पर हिन्दी माध्यम से गरीब और ग्रामीण युवाओं के फ़्री कंप्टिशन कोचिंग ट्यूटर, पिछड़ा गौरी भैया (अंशुमान पुष्कर); सजातीय ही प्रसिद्ध शिक्षाविद् डॉ. विकास दिव्य कीर्ति और प्रेमिका से पत्नी बनीं श्रद्धा जोशी (मेधा शंकर) का अभूतपूर्व सहयोग भी दर्शाता है कि आईपीएस मनोज शर्मा का संघर्ष, एक दलित-आदिवासी युवा के निचाट अभाव, असहयोग और अपमान से भरे दुर्धर्ष संघर्ष के सामने, उन्नीस ही ठहरता है.
हाँ, शिक्षा और विकास से दूर चंबल की अराजक स्थितियों से निकलकर, कम संसाधनों में अपनी अटूट मेहनत, स्वाभिमान और अदम्य जिजीविषा के साथ, मनोज शर्मा का एक प्रशासनिक अधिकारी बनाना स्तुत्य है. उस पर चंबल से प्रशासनिक सेवा में जाने वाले वे पहले और अंतिम व्यक्ति नहीं हैं. उनसे पहले और बाद में इस क्षेत्र से- डॉ. भगीरथ प्रसाद जाटव, डॉ. राजीव शर्मा, रमन मेहता, डॉ. आर.डी. मौर्य, सुश्री सिमाला प्रसाद भी इस क्षेत्र में आ-जा चुके हैं.
तब भी ‘12th फेल’ बतौर एक फ़िल्म विधु विनोद चोपड़ा की एक शानदार ही नहीं, उनकी अब तक की श्रेष्ठ और महान मूवी है. विक्रांत मैसी मेरे प्रिय अभिनेता रहे हैं. उन्होंने ‘बालिका वधू’ में एक विधवा लड़की के प्रेमी और पुनर्विवाह उपरांत पति की भूमिका जिस विश्वसनीयता से निभाई है; ‘क्रमिनल जस्टिस’ में रेप और हत्या का छद्म मुक़दमा और सज़ा का दंश झेलते संभ्रांत युवक की भूमिका हो; ‘बाबा ऐसो वार ढूँढ़ों’ में एक ठिगने क़द की लड़की के पति की विश्वसनीय भूमिका हो अथवा ‘छपाक’ मूवी में एसिड सर्वाइव लड़की के प्रेमी-पति और एनजीओ कार्यकर्ता की भूमिका, विक्रांत ने सब में ही दिल छूने वाला मर्मस्पर्शी अभिनय किया है.
‘12th फेल’ मूवी भी आप, अकेले विक्रांत मैसी के अपूर्व और जानदार अभिनय के लिए देख सकते हैं. निराश न होंगे.
विक्रांत मैसी ने कैसे चंबल के संघर्षों की धूप में तपे, ताँबई रंग के अभावग्रस्त लड़के की भूमिका के लिये. चंबल के गाँवों में जाकर और रहकर, बांसुरी की तरह जल-भुनकर जिस प्रकार ‘12th फेल’ मूवी के नायक मनोज शर्मा की भूमिका के लिए अपने को अनुकूल सुरीला किया है, वह विक्रांत मैसी की अभिनय के प्रति अटूट आस्था और समर्पण को दर्शाता है. विक्रांत इस फ़िल्म में भी, निश्चय ही एक बेहतरीन अभिनेता बनकर उभरे हैं. जीवनी आधारित फ़िल्मों में विक्रांत इस मूवी के बहाने वहाँ तक पहुँचे हैं, जहाँ तक रणदीप हुड्डा फ़िल्म ‘सरबजीत’ में असली सरबजीत की भूमिका तक पहुँचे गये थे.
चूंकि फ़िल्म अभी सिनेमा हॉल से उतरी नहीं है, सो उसकी पूरी कहानी बताना मैं यहाँ ज़रूरी नहीं समझता. विधु विनोद चोपड़ा ने अपने निर्देशकीय कमाल को, ‘12Th फेल’ में पूरे उरूज़ पर पहुँचाया है. फ़िल्म बनाते समय एक औपन्यासिक साहित्य कृति के साथ जितना न्याय करना चाहिये, विधू जी ने उससे ज़्यादा ही किया है. वे इसमें बहुत छोटे-छोटे दृश्यों के माध्यम से, कई बड़ी बातें कह गये हैं. कई जगह उन्होंने बिना संवाद, बड़े ही मार्मिक और अभूतपूर्व दृश्य रचे हैं. उनमें एक दृश्य तो हिंदी सिनेमा का मास्टरपीस दृश्य है. वह है; अपनी तमाम विफलताओं के बीच मनोज शर्मा बने विक्रांत मैसी, कोई तीन साल बाद बिना आईपीएस परीक्षा क्लियर किए, गाँव लौटे हैं. गाँव में तब तक उनकी दादी (सरिता जोशी) नहीं रहतीं. पिता (हरीश खन्ना) की नौकरी छूट गई और वे अपना केस लड़ते, घर छोड़ ग्वालियर पड़े हैं. घर में एक मात्र पशुधन गाय थी, वह भी बिक गई. माँ (गीता अग्रवाल शर्मा) अब वही गाय चराकर; गाय मालिक से जो मज़दूरी पाती हैं, उसी से जैसे तैसे उनके घर की गुज़र-बसर हो रही है. बड़ा भाई पास के क़स्बे में अलग रहकर मज़दूरी करता है. घर में अनब्याही एक छोटी बहन भी है.
इन परिस्थितियों में माँ-बेटे के बीच, भाव पूर्ण संवाद की बहुत कई सारी गुंज़ाइश थीं, किंतु विधु विनोद चोपड़ा ने वहाँ आपसी संवाद के स्थान पर, माँ-बेटे की सिसकियाँ और रुदन को एक विस्तृत मौन संवाद की तरह प्रस्तुत किया है! दृश्य में बेटा अपने लिए रो रहा है कि वह हाड़तोड़ मेहनत-मज़दूरी और पढ़ाई के उपरांत भी, अब तक आईपीएस की परीक्षा में सफल नहीं हो सका है. वह लौटा है, किंतु बिना माँ और परिवार को सहूलियत और सहारे का कोई आश्वासन साथ लिये!! वहीं माँ का रोना इसलिए है कि इस बीच उसने घर चलाने के लिए बड़ी हाड़तोड़ मेहनत की; घनघोर अभाव सहे, किंतु वह चाहकर भी अपने बेटे की पढ़ाई में कोई मदद नहीं कर सकी हैं. दुःख और बीमारी में चल बसी अपनी सास और उसकी दादी को बचा नहीं पाई !
विकट अभाव और असफलताओं के बीच भी माँ-बेटे का तादात्म्य और दुखों में साथ रोने और सुख में आह्लादित होने के जो एकाधिक दृश्य इस मूवी में हैं, वह आपको भाव-विभोर करके छोड़ते हैं. इन दृश्यों में विक्रांत मैसी के साथ-साथ माँ की भूमिका में गीता अग्रवाल शर्मा ने भी कमाल किया है. ‘भाग मिल्खा भाग’, ‘छपाक’, ‘रेढ़’ और ‘ओएमजी-2’ के बाद, ‘12th फेल’ गीता अग्रवाल शर्मा की संभवतः यह पाँचवीं मूवी है, लेकिन उस पर उन्होंने इसमें भी अपना सबसे सर्वोत्तम दिया है. मनोज के पिता और दादी की भूमिका में हरीश खन्ना और सरिता जोशी ने भी, चंबल की तंवरघारी बोली की, अच्छी टोन पकड़ी है और वे उसमें लगते भी परिवेश के ख़ूब अनुकूल हैं.
विधु विनोद चोपड़ा एक सुलझे हुये निर्देशक हैं. उन्होंने अपने अपने अब तक के लेखक, निर्माता और निर्देशकीय जीवन में, विविध विषयों पर साहसिक और ईमानदार फ़िल्में बनाई हैं. विषय के साथ न्याय करना उनकी खूबी. फिर वह उनकी, ‘मंकी हिल पर हत्या (1976), चेहरों के साथ मुठभेड़ (1978) सज़ा-ए-मौत, (1981), जाने भी दो यारों (1983), ‘ख़ामोश (1985), परिंदा (1989), 1942 एक प्रेमकथा (1994), क़रीब (1998), मिशन कश्मीर (2000), मुन्ना भाई एमबीबीएस (2003) परिणीता (2005) लगे रहो मुन्ना भाई (2006) एकलव्य : द रॉयल गार्ड (2007), थ्री ईडियट्स (2009), फ़ेरारी की सवारी (2012), पीके (2014), ब्रॉकेन हॉर्श (2015), वज़ीर (2016), संजू (2018), एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा (2019) शिकारा (2020) और अब 12Th फेल (2023).
एक उदाहरण मैं उनकी 2006 में आई ‘एकलव्य : द रॉयल गार्ड’ का दूँगा. यह एक अपने समय से आगे की फ़िल्म है. विमर्शों में मिथकीय एकलव्य अभी भी अपने अँगूठा कटने का रोना लिये बैठा है. इस फ़िल्म का एकलव्य समझदार है और अपने लक्ष्य को लेकर कटिबद्ध. उसका स्पष्ट मानना है कि मेरा अँगूठा कट गया यह छल या भूल जो भी रहा हो, लेकिन मैं अपनी अगली पीढ़ी का अँगूठा हरगिज़ नहीं कटने दूँगा. फ़िल्म का यह मैसेज इतना प्रेरक और पावरफ़ुल है कि देखकर मुझे निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा के प्रति सम्मान से भर गया था.
‘12Th फेल’ में उनकी बहुजन दृष्टि दो स्थानों पर स्पष्ट दिखती है. एक कि उन्होंने पिछड़ा वर्गीय बहुजन गौरी भैया (अंशुमान पुष्कर) के चरित्र को एक अकुंठ व्यक्ति के रूप में दर्शाया है, जो अपनी तमाम असफलताओं को गरीब और साधनहीन सभी वर्गों के प्रतियोगी छात्र-छात्राओं को यूपीएससी की तैयारी करवाते हैं. वह देश के दूरदराज़ से मुखर्ज़ी नगर आकर, हिन्दी माध्यम से यूपीएससी की तैयारी करने वाले हर प्रतियोगी छात्र की मदद करते हैं. ख़ुद असफल रहकर भी अपने पढ़ाये छात्र-छात्राओं की सफलता को सहज पचा लेना और उनकी मुक्त कंठ से प्रशंसा करना. उनमें अपना अक़्स देखना. यह एक महान व्यक्तित्व की पहचान है. जो अपने आप में बहुजन दृष्टि भी है. विधु विनोद चोपड़ा ने इस चरित्र को ऊँचाई देने में निश्चय ही अपनी कमाल की निर्देशकीय क्षमता और ईमानदारी का परिचय दिया है. यह स्तुत्य है.
गरीब ब्राह्मण भी दलित है. यह एक लोकप्रिय सवर्णीय भ्रम विस्तार है. इसे साहित्य, अख़बार, फ़िल्में और सोशल मीडिया के द्वारा खूब प्रचारित किया जाता रहा है. इस प्रॉपेगेंडा के पीछे सवर्णों की आरक्षण में दलित कोटे की भाँति अपनी एक कोटि बनाना मुख्य उद्देश्य रहा है. EWS के रूप में विगत वर्षों में उन्हें, यह सफलता मिल भी चुकी है. लेकिन इस विसंगति पूर्ण हिस्सेदारी ने ग़रीबी रेखा की सीमा को तो हास्यास्पद बनाया ही है, छुआछूत और ग़ैर बराबरी आधारित देश में, सामाजिक समानता के मुद्दे को काफ़ी पीछे धकेल दिया है.
इस रूप में ‘12Th फेल’ भी उसी एजेंडे को जाने-अनजाने सेट करती दिखती है. जब इंटरव्यू में मनोज शर्मा (विक्रांत मैसी), एक्सपर्ट कमेटी के सामने, अपने जवाब में यह कहते हैं-
“गरीब यदि अनपढ़ रहेगा, तभी तो इन नेताओं के इशारे पर भेड़-बकरियों की तरह चलता रहेगा. और सभी जानते हैं कि यही अनपढ़ लोग इनका वोट बैंक हैं. जो धर्म और जाति के नाम पर इन्हें वोट देते आए हैं. इसलिए डॉक्टर अंबेडकर ने 1942 में कहा था-“एज्यूकेट, एजिटेड एंड ऑर्गनाइज़.”
ऊपरी तौर पर यह बेहद सुंदर सी लगती लुभावनी बात है. संपूर्ण राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिए, देश के सभी गरीब और शोषित तबकों का एक होना अत्यंत आवश्यक है. यह होना ही चाहिए, लेकिन ‘12Th फेल’ उपन्यास और मूवी इस बात का कहीं ज़िक्र तक नहीं करते कि ग़रीबों के पास वैसी शिक्षा आयेगी कहाँ से? सबको समान और मुफ़्त शिक्षा का अधिकार कौन दिलायेगा? क्या विकास दिव्यकीर्ति और ख़ान सर जैसे निज़ी कोचिंग संस्थान? जिनके यहाँ सभी गरीब, दलित, आदिवासी और पिछड़े छात्रों की पहुँच और मुफ़्त पढ़ाई कभी संभव ही नहीं हो सकती.
दरअसल चाहें प्रकाश झा की ‘आरक्षण’ हो; नील माधव पाण्डा की ‘आई एम कलाम’; राजकुमार हिरानी की ‘थ्री इडिअट्स’, अश्विन अय्यर तिवारी की ‘निल बटे सन्नाटा; साकेत चौधरी की ‘हिन्दी मीडियम’; उमेश शुक्ला की ‘OMG-2’ हो अथवा विधु विनोद चोपड़ा की ‘12Th फेल’. यह फ़िल्में शिक्षा के क्षेत्र में व्यक्तिगत सहयोग, सफलता और संघर्ष की कहानियाँ तो कहती हैं, लेकिन यह राज्य की मुफ़्त शिक्षा गारंटी योजना और शिक्षा के निजीकरण पर बहुत बड़े सवाल खड़ा नहीं करतीं. वे मलयाली फ़िल्म, ‘सॉल्ट मैंगों ट्री’ की तरह सरकारी स्कूलों में व्याप्त पर्याप्त भ्रष्टाचार और ग़ैर बराबरी पर भी उँगली नहीं उठातीं. ग़ैर सरकारी संस्थानों के बरक़क्स निजी ग़ैर सरकारी संस्थान (गुरुकुल और कोचिंग क्लास), तो कभी व्यक्तिगत प्रयासों का ही यशोगान करतीं हैं. जबकि ज़्यादा ज़रूरी हैं, शिक्षा को लेकर सरकारी प्रयास और शैक्षिक योजनाओं का सफल क्रियान्वयन. शिक्षा और उसके संपूर्ण ढाँचे के लिये, अधिकतम सरकारी बज़ट का प्रावधान. देश के व्यवस्थापकों की दृष्टि में शिक्षा के माध्यम से संपूर्ण समाज में, मानवीय संवेदना, तार्किक दृष्टि और वैज्ञानिक चेतना का विकास करना.
‘12Th फेल’ जैसी मँजी हुई फ़िल्में भी, अपनी सम्पूर्णता में सकारात्मक होने पर, इस तरह के मुद्दों से, एक तरह से दिग्भ्रमित ही करती हैं. इनमें से कुछ व्यक्तिगत श्रम की गरिमा और उसके दम पर अर्जित उपलब्धियों का यशगान तो सफलता पूर्वक करती हैं. साथ ही कुछ ढाँचागत प्रश्न भी खड़े कर दें, लेकिन व्यवस्था परिवर्तन और उसके उपरांत प्राप्त सुफल का, इनके पास अभी भी कोई बड़ा विजन नहीं है.
यूँ जीवनी परक अधिकांश फ़िल्मों की यह एक सीमा भी है कि उनकी सीमा पहले से बँधी हुई होती है. मूवी यदि पहले से चर्चित, किसी व्यक्ति, चरित्र अथवा साहित्यिक कृति पर हो, तब तो निर्देशक के सामने एक बड़ा संकट यह होता कि कथा और कथा नायक की गतिविधियों का अधिकांश कच्चा चिट्ठा, पहले से सबके सामने खुला पड़ा है. फ़िल्मकार और उसकी संपूर्ण टीम को, उसके इर्दगिर्द ही चक्कर काटना होता है. ‘12Th फेल’ इसी नाम के उपन्यास और व्यक्ति (मनोज शर्मा) के उपन्यास गिर्द में चक्कर काटकर सफलता पूर्वक समाप्त हो जाती है. यह उसका सौंदर्य है, तो शिक्षा व्यवस्था के संपूर्ण ढाँचागत बदलाव में अपना कोई लक्ष्य ना दे पाना उसका, दैन्य और दारुण्य. ‘12Th फेल’ का समाहार इसी में है.
जितेन्द्र विसारिया
कुछ कहानियाँ और समीक्षाएँ प्रकाशित हैं. jitendra.visariya@gmail.com
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निर्देशक-अभिनेताओं के तमाम कामों के उल्लेख करती बिसारियाजी की समीक्षा बहुत समृद्ध है…। जैसे इन्हें नायक की ग़रीबी समझ में नहीं आयी, मुझे उसके इतने लंबे समय तक चक्की चलाने का काम करते हुए उस कठिन परीक्षा में पास होना भी समझ में न आया!! किसी हाड़ – मांस के इंसान के लिए असंभव है – वह रोबोट ही कर सकता है…ऐसे हल पचते नहीं!! बिसारियाजी के और भी सवाल मौजूँ हैं…उन्हें साधुवाद
फ़िल्म अच्छी लगी लेकिन बहुत सी बातें असहज करती हैं। इस पर मैंने लिखा भी है। संघर्ष है ये सही बात है लेकिन संघर्ष के साथ साथ जो उनको प्रेम और हर तरह का साथ मिला है वो एक तैयारी करते लड़कों में शायद ही किसी को मिलता हो। संघर्ष के दिनों को याद करता हूँ तो मैं और मेरे कई मित्र डॉक्टर बनने के लिए प्रयाग में कोचिंग करने निकले थे। क्या क्या नहीं सहा हम सभी ने, मकान मालिक के ऊपर के कमरे में तपती गर्मी में पंखा बंद होते हुए , पसीना पोंछते फिजिक्स के सवालों से दिन भर जूझते थे। एक घटिया होटल में खाना खाते, बीमार पड़ते किस तरह उस मुक़ाम तक पहुँचे इसको कहना बड़ा पीड़ादायी है। और ये मेरे जैसे तमाम साथियों की कहानी थी जो सर्वस्व झोंकने में लगे थे डॉक्टर बनने के लिए। मैं तो निश्चित तौर पर गरीब नहीं था, मेरे पिता बैंक के ऊँचे पद पर थे, पृष्ठभूमि ज़मींदार परिवार की थी फिर इस संघर्ष की क्या आवश्यकता थी? जी बिलकुल थी, उस समय डॉक्टर बनना एक बहुत बड़ा सपना था, लाखों करोड़ों विद्यार्थियों का, और ये बात हमें मालूम थी कि पिता की कमाई के पैसों को हमें पूरी कड़ाई के साथ उपयोग करने थे। यही हमारे शिक्षक भी बताते थे। प्रेम संबंध या किसी भी तरह की रूमानियत को उस दौरान अपराध समझा जाता था, क्योंकि कुछ लोग उसी में बर्बाद हो जाते थे। ये सब बातें कुछ बन जाने के बाद के उपहार स्वरूप रखी जातीं थीं।
ख़ैर सबके संघर्ष अलग होते होंगे ये इस फ़िल्म को देखकर समझ आया। अच्छी समीक्षा है। फ़िल्म aspirant वेब सिरीज़ से पूरी तरह प्रभावित और उसी का एक हिस्सा लगती है।
अच्छा लिखा है । अब व्यावसायिक लोग अव्यावसायिक सी दिखती फिल्मे क्यों बनाने लगे हैं ? अब वे क्यों स्टार्स के पीछे भागना छोड़ अभिनेताओं की ओर मुंह कर रहे हैं । समानांतर में इन विषयों को अगर स्पर्श किया जाता तो यह समीक्षा ज़्यादा बेहतर ढंग से प्रस्तुत होती । दरअसल निर्माताओं पर अब यह दबाव काम करने लगा है कि ओछी कल्पनाएं अब दर्शको को नहीं बाँधतीं , वे यथार्थ को यथार्थ की तरह देखने का आग्रह करने लगे हैं , जो कि बहुत सुखद है । जीवन की तमाम जटिलताओं से रूबरू होने की यह इच्छा दरअसल दर्शक की दृष्टि के बदल जाने को उजागर करती है । व्यावसायिक सिनेमा ने गहरी ऊब पैदा कर दी है । जो भी हो इस बदलाव का स्वागत और उत्साहवर्धन होना ही चाहिए । बहुत पहले चम्बल जैसी भूमि पर राधू करमामर ने “जिस देश मे गंगा बहती है” का निर्देशन किया था जिसके नग़्मे भी विषय को गहरा बनाते थे । वे आज भी लोकप्रिय हैं ।
१२ वीं फेल,देखी थी, अभिनय छोड़ कर फिल्म औसत से कुछ कम, स्टीरियोटाइप है। वर्तमान सत्ता विचारधारा की नीतियों के अनुरूप बॉलीवुड फिल्मों की लोकप्रियता को सांस्कृतिक,राजनीतिक दृष्टि से सॉफ्ट स्किल,टूल किट के रूप में उपयोग करना।
सुचिंतित, पठनीय समीक्षा।
बहुत विस्तार से यह समीक्षा की लेखक ने। खासकर उस भावभूमि को समझने का प्रयास किया है जिससे होकर नायक का चरित्र निर्मित होता है। जो कि बहुत जरूर पहलू है। जो कि फेसबुक में आई तमाम समीक्षाओं में छूटा हुआ है। फ़िल्म कला की सीमाओं को समझते हुए लेखक ने जरूरी सवाल खड़े किए हैं।
चम्बल वाला point ठीक है। पहले भी लिखा था। संस्कृति के किरदार को आपने ठीक पकड़ा है। लेकिन यह सब कोई उपलब्धि नहीं होती कि फलाने ने संघर्ष से नौकरी पाई। नौकरी ही तो है कोई दार्शनिक या वैज्ञानिक सत्य नहीं पाया है। दूसरी बात कि जिन लोगों के मनोज की ज़िंदगी खराब की है, उसके पिता की ज़िंदगी खराब की है, शादी में सबसे आगे उन्हें ही लेकर जाता है। अगर अति पाठ करें तो कह सकते हैं कि पहले दिन से ही करप्शन! हालाँकि इसे भी लोक के नाम पर लोग जस्टिफ़ाई कर सकते हैं। दूसरे फिल्म बड़ी बोझिल बना दिया है।
बहुत झोल है बारवीं फेल में!
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रासबिहारी पाण्डेय
बुद्धिजीवियों के बीच12वीं फेल मूवी ट्रेंड कर रही है,सो हमने भी फिल्म नेटफ्लिक्स पर देख ही डाली।दावा है कि फिल्म सत्य कथा पर आधारित है लेकिन फिल्म देखते हुए कई झूठ सीधे-सीधे पकड़ में आ गए।फिल्म और राजनीति में ‘यथास्थितिवाद’ और ‘नो एक्सपेरिमेंट’ का बना बनाया फार्मूला चलता है,वह यहां भी साक्षात दिखता है। जैसे काबुल में सिर्फ ऊंट ही नहीं गधे भी पाए जाते हैं, वैसे ही चंबल में सिर्फ डकैत और बाहुबली ही नहीं रहते, वहां भी सामान्य जन रहते हैं।निर्देशक पहले तो यहीं चूक गया है कि वह चंबल के हर व्यक्ति को बागी बताना चाहता है। मनोज शर्मा का पिता जो एक मामूली नौकरी कर रहा है, अपने सीनियर अफसर को दो चप्पल मार कर सस्पेंशन करवा बैठता है,फिर घर से अटैची लेकर निकलता है तो कहां और क्यों चला जाता है और फिर कहानी के आखिरी दृश्य में अचानक कैसे प्रकट हो जाता है,यह समझ से बाहर है।मनोज शर्मा की प्रेमिका चक्की पीसते हुए देखकर भी उसे एरोनाटिकल इंजीनियर समझ लेती है।यह झूठ पकड़े जाने पर भी सत्य का पुजारी मनोज शर्मा उससे कहता है कि मैंने डर के मारे तुमसे यह बात नहीं कही।एक दृश्य के वायस ओवर में यह बताया जाता है कि मनोज चक्की पीसते हुए और पढ़ाई करते हुए सिर्फ 1 घंटे सोने लगा,क्या कोई व्यक्ति सिर्फ 1 घंटे सोकर स्वस्थ रह सकता है?क्या निर्देशक यह बताना चाहता है कि आइएएस की तैयारी के लिए सिर्फ किताबी कीड़ा होना पर्याप्त है।ग्रुप डिस्कसन,पर्सनालिटी डेवलपमेंट,वक्तृत्व कला और सामाजिक विषयों पर गंभीर मौलिक चिंतन की कोई जरूरत नहीं है?राजनीति,सिनेमा और आइएएस में सफल होने वालों की प्रतिशतता 0.1 है।राजनीति और सिनेमा में तो तीसरी चौथी श्रेणी के लोग खप भी जाते हैं, आइएएस में असफल होने वाले उम्र निकल जाने के बाद बहुत बेबस और लाचार होकर सामान्य जीवन जीने के लिए विवश हो जाते हैं।पिछले 25-30 सालों में रामदेव बाबा, वेद प्रताप वैदिक और हिंदी के अन्य आंदोलनकर्ताओं की चीख पुकार का परिणाम है कि अब इसके इंटरव्यू बोर्ड ने अंग्रेजी के समक्ष हिंदी के अभ्यर्थियों को भी गंभीरता से परखना शुरू किया है और पहली बार पिछले साल हिंदी माध्यम से पचीस से अधिक अभ्यर्थी चयनित हुए।नौ सौ चयनित अभ्यर्थियों में पचीस का हिंदी माध्यम से आना क्या दर्शाता है?
फिल्म बनाकर नई पीढ़ी को यह बताना कि 12वीं फेल भी आइएएसस की लाइन में लग सकता है, किसी लूजर से भी कोई लड़की सच्चा इश्क कर सकती है, गरीबी पर तरस खाकर दोस्त खर्च उठा सकते हैं, हिंदी माध्यम चुन लेने में कोई हर्ज नहीं है; यह दिवा स्वप्न और अपवाद की तरह है। अपवाद को उदाहरण नहीं बनाया जा सकता। सच्चाई यह है कि अपने देश में अंग्रेजी आज भी पटरानी बनी हुई है।आइएएस में अंग्रेजी का वर्चस्व खत्म हुए बगैर और इससे भी ऊपर हिंदी के राष्ट्रभाषा बने बगैर मध्यमवर्गीय परिवारों के बच्चे अंग्रेजी के ब्रेकर के कारण दुर्घटनाग्रस्त होते रहेंगे और विधु विनोद चोपड़ा जैसे फिल्मकार एक अधिकारी की सफलता को सिनेमा के माध्यम से भुनाते रहेंगे।
Cinema director se “Jan jagran Karta” ki ummeed rakhna bhi anapekshit hai..
12 वीं फेल : फिल्म की कई तरह की समीक्षांए पढ़ने के बाद मन में बहुत से विचार आये साथ ही मित्र जितेन्द्र विसारिया के द्वारा लिखी इस समीक्षा में चंबल की पृष्ठभूंमि में जो मनोवृत्ति कार्य करती है उसके लिए जितेन्द्र जी ने जो अभिव्यक्ति के स्वर इस समीक्षा में डाले हैं जिसे पढ़कर ऐसा लगा कि ये तो मेरे विचार हैं। इसके अलावा भी विसारिया जी ने जिन सवालों को रेखांकित किया है उन पर सीधा विमर्श किया जाना चाहिए ताकि साहित्य और सिनेमा के उद्देश्य में कला कहीं सीमित ना हो जाए ।
समाज को व्यक्तिगत मेहनत और बेगार के कार्यों से सुधार पाना सायद संभव नहीं है इस के लिए एक वैज्ञानिक समाजवादी चिंतन की आवश्यकता है एवं हर उस विमर्श को व्यवहार में लाया जाना चाहिए जो समाज को बेहतर बनाने की मुहिम के लिए जरूरी है।