नाना जी: कुछ अनकहे क़िस्सेउर्वशी कुमारी
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आज मैं जे.एन.यू. जैसे संस्थान से हिन्दी साहित्य में मास्टर कर चुकी हूँ और आगे का शोधकार्य दिल्ली विश्वविद्यालय में जारी है. लेकिन नाना जी से जुड़े यादगार लम्हों की जब भी शिनाख्त करती हूँ तो मेरे हिस्से आने वाली यादें, मेरे बचपन से जुड़ती हैं. घर-परिवार, यार-दोस्तों के बीच वे यादें इतनी बार साझा की गई हैं कि अब वे अतीत का हिस्सा न होकर दादी-नानी द्वारा सुनाए गए पिछली रात के किस्से जैसी लगती हैं. वे इतनी चंचल हैं कि बाल हाथों से तितलियों को पकड़ने की असफल कोशिश देख, बालक की भागदौड़ से माँ-बाप को जो स्नेह उमड़ता है, वही स्नेह अपने बचपन के लिए संजो लेती हूँ. तितलियों को पकड़ न पाने की वे गलतियाँ बचपन में भले निराश करती हों लेकिन बड़े होने पर माँ-बाप को लेकर एक खूबसूरत याद के रूप में दर्ज हो जाती हैं. नाना जी से जुड़ा बचपन ठीक वैसा ही है.
नाना जी गाँव कम ही आते थे और माई (नानी) बच्चों के साथ गाँव में रहती थी इसलिए उन्हें अपने किसी भी बच्चों के साथ खेलना ठीक से याद नहीं. उनका गाँव न आने का सबसे बड़ा कारण था पहले अध्ययन और बाद में अध्यापन. यही कारण है कि हम भाई-बहनों के जन्म के बाद नानाजी जब भी गांव आते घरवालों की कोशिश रहती कि वे हम बच्चों के साथ वक्त बिताएं. इसी संदर्भ में नाना जी का दोपहर में भोजन करने का एक प्रसंग माँ बताती हैं. उस समय मेरी उम्र दो-ढाई साल थी. मैं दौड़ते हुए नाना जी के कमरे में चली गई जहाँ वे भोजन कर रहे थे. उन्होंने मुझसे खाने को पूछा तो मैंने हाँ में सिर हिला दिया. फिर वे बड़ी तल्लीनता से मुझे अपने हाथ से खिलाने लगे. इसका नतीजा यह निकला कि मैं उनके हिस्से की एक रोटी खा गई. नाना जी का खिलाना अभी जारी ही था कि माँ की नज़र पड़ी. ऐसी घटना शायद ही पहले कभी हुई हो इसलिए उन्होंने इशारे में बाकी घरवालों को भी बुला लिया और वे छिपकर देखने लगे. उन्हें जितनी खुशी मेरी बाल चंचलता को लेकर हो रही थी उतना ही असमंजस नाना जी की थाली जूठी हो जाने को लेकर हो रहा था. नाना जी को दूसरी थाली दी जाए या उसी में खायेंगे ? मुझे खिलाने के बाद घरवालों ने उनसे दूसरी थाली के लिए पूछा. इसके जवाब में नाना जी ने हँसकर बोला- कौन सा अपने हाथ से खायी है ? फिर नाना जी उसी थाली में खाए. ये छोटी सी घटना घरवालों के लिए एक यादगार के रूप में दर्ज है.
नाना जी को नींद में दखल बिल्कुल बर्दाश्त नहीं. इसलिए वे जब भी गांव आते उनके सुबह जगने से पहले और दोपहर में भोजन करके सोते वक्त, किसी भी तरह के शोरगुल को लेकर घरवाले सचेत रहते थे. सुबह तो बच्चे उनके जगने के बाद ही जगते लेकिन धमा-चौकड़ी मचाने वाले हम जैसों को नींद कहाँ आती ? इसलिए घरवालों द्वारा दोपहर में नाना जी के जगने तक के लिए हमें जबरन सुला दिया जाता या उस वक्त हमें बथान में खेलने के लिए भेज दिया जाता. उनके जगने के बाद ही हम वापस घर आते थे. वे दोपहर में सोते तो कई बार घरवालों को स्वयं पहरेदारी करनी पड़ती कि उनसे मिलने के लिए कोई व्यक्ति ऊँची आवाज में पुकारने न लगे.
नाना जी जैसे विद्वान के घर के बच्चे ‘पढ़ाकू’ न हों ये भला घर के बाकी लोगों को कैसे मंजूर होता ? इसलिए हम बच्चों को पढ़ाकू दिखाने की जैसे तरकीब निकाल ली गई थी. शाम में हमें खेल से बुलाकर पढ़ने बैठा दिया जाता. घरवाले इस बात की तसदीक पहले ही कर लिए थे कि घर के किस हिस्से में बैठकर पढ़ने से नाना जी को हमारी आवाजें स्पष्ट सुनाई पड़ती रहेगी. हम लोग कविताएँ जोर-जोर से रटते- शुद्धि-अशुद्धि का ख्याल किए बिना. जैसे हम भाई-बहनों में होड़ लगी हो सबसे ज्यादा देर तक नाना जी को अपनी आवाज सुनाते रहने की. कविता की पंक्तियों में ज्यों ही अशुद्धि होती उनकी स्नेहिल आवाज कानों में पड़ जाती. हमारी ऊँची आवाज के कारण किसी काम में व्यस्त होने के बाद भी उनका ध्यान कविता की अशुद्धि पर चला जाता. वे रटे जा रहे शब्दों का अर्थ भी बताने लगते. हालाँकि अर्थ तो पल्ले नहीं पड़ता लेकिन बीच-बीच में उनकी चुहल से पढ़ाई को लेकर बच्चे जो नाक-भौं सिकोड़ते हैं बाल मन पर वैसा तनाव कभी नहीं रहा. अशुद्धि तो लज्जा का विषय उस उम्र में भी थी इसलिए हम भाई-बहन तपाक से एक-दूसरे का नाम ले लेते कि नाना जी मैंने नहीं इसने गलत पढ़ा है. नाना जी का ‘हाँ, जो भी पढ़ा हो !’ वाला भाव रहता जैसे किसी का भी पक्ष अनसुना न रह जाए.
हम थोड़ा और बड़े हुए. अब पढ़ाकू बनने की बात कविताएँ देखकर पढ़ने भर से नहीं बननी थी. उसके लिए तो कविताओं की एक-एक पंक्तियाँ कंठस्थ होना जरूरी था. गर्मी की छुट्टियाँ आने से पहले ही स्कूल में 15 अगस्त और 26 जनवरी के अवसर पर रटायी गई कविताएँ फिर से कंठस्थ की जाने लगतीं. लेकिन अशुद्धि या कविता संबंधी जो कमियाँ थी वे बाद के दिनों में भी बनी रहीं. नाना जी जब भी घर आते हम सब को बुलाकर पढ़ाई की बातें जरूर करते थे. वे हमें जब भी पढ़ाई की बातें करने के लिए बुलाते, मैं दिमाग पर जोर डालकर रटी गई कविताओं को मन-ही-मन खंगालती कि किस कविता को सुनाने से शाबाशी मिलेगी? उनके सामने हम भाई-बहन सावधान की मुद्रा में खड़े होकर-स्पष्ट नहीं कि स्कूल में उसी मुद्रा में कविता सुनाने की आदत से या उनके प्रति आदर भाव दिखाने के लिए; आदि से अंत तक कविता सुना डालतें. हम सब मन-ही-मन खुश होते कि इस बार पूरी पंक्तियाँ याद रह गईं. तभी नाना जी पूछते, इसका कवि कौन है ? ‘हें! कवि ! कवि भी होता है !’ तत्काल मन में यही भाव आता. तब तक लेखक, कवि कौन होता है इसकी समझ नहीं बनी थी. तब तक तो यही लगता था कि जो भी रट ले कविता उसी की होकर रह गई. लेकिन कविरूपी एक नये प्राणी के आ जाने से कविता का कंठस्थ भर होना उतनी खुशी नहीं दे पाती थी, कविता के कवि को जानने संबंधी अज्ञानता एक नया संकट बनकर खड़ी हो गई. हम भाई-बहन मुँह लटकाए उनके कमरे से बाहर आते थे जैसे पढ़ाकू होने के प्रिविलेज को धक्का लगा हो.
मैं बचपन से सुनती आ रही थी कि नाना जी बहुत बड़े आदमी हैं. लेकिन बचपन में कभी नहीं सुनी कि बहुत बड़े लेखक हैं क्योंकि उस उम्र में बड़े आदमी होने का मतलब समझना आसान था लेकिन बड़ा लेखक का मतलब समझना टेढ़ी खीर. जिन दिनों मैं बिहार बोर्ड में इंटरमीडिएट की छात्रा थी उन्हीं दिनों से बिहार में सरकारी विद्यालयों की दयनीय हालत अपनी चरम पर है. इसका नतीजा यह निकला कि मैं हिन्दी के पेपर में भी नाना जी के लेखकीय व्यक्तित्व के बारे में कुछ नहीं जान पाई. जब मैं बी.ए में हिन्दी साहित्य पढ़ी तब जाकर नाना जी के लेखकीय व्यक्तित्व से मेरा परिचय हुआ. मेरे स्नातक के शिक्षक को जब पता चला कि मैं उनकी नातिन हूँ तो वे नाना जी के लेखकीय व्यक्तित्व के बारे में कुछ-कुछ बताने लगे. स्नातक में एक सुखद संयोग और भी हुआ जिससे नाना जी के बड़े आदमी और बड़े लेखक दोनों होने की परिभाषा पूरी तरह से स्पष्ट हो गई.
मेरे पापा की दिली ख्वाहिश थी कि नाना जी के साहित्यिक परंपरा को उनके परिवार का कोई आदमी आगे बढ़ाए. यही सोचकर उन्होंने लोहटी में नाना जी के 70वें जन्मदिन के उपलक्ष्य में ‘साहित्य संकुल’ नामक संस्था की स्थापना की ताकि गाँव में साहित्यिक समारोह होता रहे. उसके बाद भी नाना जी के जन्मदिन के अवसर पर इस संस्था ने तीन-चार सालों तक बड़े स्तर पर और बाद में छोटे स्तर पर समारोह आयोजित किया. 2011 में इस संस्था ने जब पहली बार नाना जी की उपस्थिति में उनका जन्मोत्सव मनाया तो उसमें देश के कोने-कोने से साहित्यकार शामिल हुए थे. उसी साल मैं उनके व्यक्तित्व के विभिन्न आयामों को समझ पायी. वैसे तो मैं वकील बनना चाहती थी लेकिन संयोगवश पापा के कारण हिन्दी साहित्य में दाखिला हो गया. लेकिन साहित्य संकुल के साहित्यिक महोत्सव में शामिल होकर मैं इतनी रोमांचित हुई कि नाना जी की पुस्तकें कुछ खरीदी तो कुछ उनसे फोन करके मंगाने लगी. ये अलग बात है कि उस समय उनकी किताबें कम ही समझ में आती थीं.
गांव में नाना जी जब भी होते, वे अकेले कमरे में ज्यादा देर तक नहीं रह पाते क्योंकि लोग बीच-बीच में उनसे मिलने आते रहते थे. वे उन लोगों से रूम से बाहर, असोरा (बैठका) में मिलते थे. कभी-कभी जब लोगों से मिलकर अंदर आते और हमलोगों की आहट नहीं मिलती तो हमलोगों की खबर लेने के लिए कमरे या किचेन की तरफ आ जाते थे. अगर खाते वक्त वे अचानक से आ जाते तो सभी खाने की थाली छिपाने लगते क्योंकि उनकी खुराक घर में सबसे कम है. इस कारण से सभी को लगता था कि कहीं वे ये न सोचें कि सब कितना खाते हैं ! हमलोग आपस में हँसी-मजाक करके जल्दी से उनका ध्यान भोजन से हटाने की कोशिश करने लगते.
मैंने बचपन से उनकी ऐसी छवि देखी थी जिसमें घरवाले उनसे अमूमन गंभीर बातें ही करते थे. वे कभी-कभी हम बच्चों के बहाने, हमारी कुछ शरारतों को नाना जी के सामने रखते ताकि उनसे हल्की-फुल्की हँसी-मजाक हो सके. जब कभी घरवाले आपस में हंसी-मजाक करते और नाना जी बगल से गुजर रहे होते तो हँसी के कारण जानने की उनकी इच्छा होती. लेकिन घरवालों को उनसे हल्की बातें बताने में शर्म आती जिससे वे सभी असमंजस में पड़ जाते कि नाना जी को आखिर क्या बताएं ? लेकिन वहीं घर की स्त्रियाँ निजी बातों को लेकर हँसी-ठिठोली कर रही हों तब वे और हँसने लगती थीं कि नाना जी से कैसे बताएँ ? उस वक्त हँसी-ठिठोली की कोई पुरानी बातें बताकर दोबारा से सभी हँसने लगते थे. उनके जाने के बाद निजी बातों को छिपाए जाने की चतुराई पर सभी देर तक हँसते थे.
उनके सामने परिवार के किसी सदस्य के पास किसी का कॉल आ जाए तो वे उसके तरफ इस भाव से देखेगें कि सामने वाला खुद से ही फोन की बातों का सारांश बताए. उन्हें आशंका रहती हैं कि कहीं कोई अशुभ समाचार सुनने को न मिल जाए. अगर बताने में देर हुई तो वे खुद ही थोड़ी ऊँची आवाज में पूछ लेते हैं- अरे क्या हुआ ? किसका फोन था ? ऐसा लगता है जैसे फोन की घंटी उनकी स्मृतियों में एक दर्दनाक हादसे की तरह दर्ज हो गई हो. मामा जी की हत्या की मनहूस खबर उन्हें टेलीफोन की कानफोड़ू घंटी से ही मिली थी. शायद तभी से वे फोन की घंटी सुनकर सचेत हो जाते हैं. अगर उनका फोन कोई रिसीव न करे या किसी का नम्बर डायल करने पर बंद बताए तो भी वे चिंतित होने लगते हैं. मुझे सफर से एलर्जी है. सफर के बाद नींद ही है जिससे मेरा सिरदर्द ठीक हो पाता है. भले नींद टूट जाए लेकिन मैं कई बार मोबाईल ऑफ नहीं करती कि कहीं नाना जी का फोन न आ जाए. अमूमन वे शाम को ही फोन करते हैं. दूसरे का फोन भले मैं काट दूँ लेकिन नाना जी का फोन काटने का मतलब है उन्हें तरह-तरह की चिंता में डालना. इसलिए सिरदर्द के बाद भी उनका फोन रिसीव करना पड़ता है.
मैं और दीदी दोनों स्नातक में क्लासमेट थे. तभी दीदी की शादी की बात चलने लगी. पापा जी ने नाना जी को समझा दिया था कि भले शादी कुछ सालों बाद होगी लेकिन अभी से शादी लगा देना ठीक रहेगा. इस बात पर नाना जी ने हाँ बोल दिया था. दीदी अभी शादी के लिए तैयार नहीं थी लेकिन समस्या ये थी कि पापा जी की बात को लड़-झगड़ के काटी जा सकती है लेकिन नाना जी की बात कौन काटे? दोनों बहन कई घंटे तक राय-मशविरा करते रहे. फिर तय हुआ कि मैं ही नाना जी से बात करूँ. कैसे बात करनी है, क्या-क्या बात करनी है; ये तय करने में भी कुछ समय और लग गया था. आमतौर पर भारतीय परिवारों में शादी-ब्याह की बात घर के बड़े-बुजुर्ग ही करते हैं इस लिहाज से मैं काफी छोटी थी. फिर भी मैंने उनसे बात की और उनसे बोली- दीदी अभी शादी नहीं करना चाहती, वो पढ़ना चाहती है. ‘तो पढ़े, कौन मना कर रहा?’ नाना जी ने ऐसे बोला जैसे पहले से ही जवाब तैयार हो. बात खत्म होते-होते उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि जब तक तुम लोग तैयार नहीं हो तब तक शादी नहीं होगी. फिर उन्होंने पापा को शादी की बात चलाने से मना कर दिया. मैंने उस दिन महसूस किया कि उनके सामने अपना पक्ष बेझिझक रखा जा सकता है.
मैंने नाना जी से डांट खाते बहुत से लोगों को देखा और सुना है. लेकिन यह संयोग ही कहा जायेगा कि जितने भी लोग डांट खाए हैं सभी दूसरी पीढ़ी (यदि मान लिया जाए कि नाना जी पहली पीढ़ी, उनके बच्चे और विद्यार्थी दूसरी तथा मैं और मेरे भाई बहन तीसरी पीढ़ी) के लोग हैं. तीसरी पीढ़ी को मैंने डांट खाते कभी नहीं देखा. ऐसा नहीं है कि इस पीढ़ी ने उन्हें कभी नाराज नहीं किया. वे इस पीढ़ी से जब भी नाराज होते उन्हें डांटने के बजाए उनकी हर बातों पर एक ठंडी प्रतिक्रिया देने लगते हैं. अगर गर्मजोशी से बात न करें तो मैं समझ जाती हूँ कि वे मुझसे नाराज हो चुके हैं. लेकिन मेरा पक्ष जानने के बाद थोड़ी ही देर में उनकी बातों में सहजता आ जाती है. उनकी नाराजगी का ज्यादातर कारण यही रहता कि मेरा जे.एन.यू के हॉस्टल में रहने के बाद भी मुनिरका में रह रहे नाना जी से मिले कई-कई महीने हो जाते. लेकिन एम.ए के टर्म-पेपर, सेमिनार पेपर और क्लास टेस्ट की व्यस्तता के कारण महीनों का यों बीत जाना आम बात हो जाती. मैं हॉस्टल से जब भी नाना जी के यहाँ जाती, वापसी में वे मुझे मेनरोड तक छोड़ने आते थे. हॉस्टल पहुँचने की जब तक सूचना नहीं पा लेते थे कई-कई बार फोन करते रहते थे. एक तो मैं गाँव से सीधे जे.एन.यू. आयी थी और दूसरा, निर्भया वाला हादसा हमेशा के लिए दिल्ली के जेहन में दर्ज हो चुका था इसलिए आते-जाते वक्त वे मेरे लिए चिंतित रहते थे.
मैं उस दौर में जे.एन.यू. की विद्यार्थी थी जब यहाँ की छोटी-छोटी घटनाएँ, आए दिन के धरना-प्रदर्शन भी राष्ट्रीय मीडिया में बड़े-बड़े टाइटल के साथ सुर्खियाँ पाने लगे थे. कैमरे के फ्लैशबैक से जे.एन.यू की अनगिनत आँखें चौंधियाने लगी थीं. मीडिया की कुछ खबरें छनकर नाना जी के पास भी पहुँच जाती थीं. मैं जब भी उनसे मिलने जाती उन खबरों को लेकर वे दुखी होते थे. वे मेरे लिए चिंता करते थे लेकिन किसी भी आन्दोलन में शामिल होने से न तो उन्होंने कभी मना किया और न ही प्रेरित किया. वर्षों तक जे.एन.यू. में अध्यापन कार्य करने के कारण वे यहाँ के आंदोलनधर्मी चरित्र को बेहतर समझते थे जिसके कारण आन्दोलन में शामिल होने या न होने का अधिकार मेरे ऊपर छोड़ दिए थे.
नाना जी काल्पनिक किरदारों में भी सच्चाई ढूँढकर उसके प्रति निंदा-प्रशंसा का भाव रखने लगते हैं. शाम को वे मनोरंजन या मन बहलाने के लिए रोज दो घंटे सीरियल देखते हैं. मैं उनके पास होती तो मुझे भी साथ में सीरियल दिखाते हैं. वे जब ‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ देखते हैं तो बहुत हँसते हैं लेकिन ज्यों ही ऐसे सीरियल देखते जिनमें कारूणिक दृश्य हो तो उनकी प्रतिक्रिया में एक अजीब तरह का तनाव देखने को मिलता है. ऐसा लगता है कि वे खल पात्रों के प्रति अपने जीवन भर के संचित आक्रोश को उड़ेल देना चाहते हों. उस वक़्त उनके पूरे व्यक्तित्व पर आलोचकीय विवेक की जगह कविहृदय की भावुकता हावी हो जाती है. अम्बेडकर की जीवनी का सीरियल देखकर वे उनपर जुल्म करने वाली द्विज जातियों को कोसने लगते हैं. एक सीरियल में मृत्यु का भावुक दृश्य था. उसे देखकर वे इतने भावुक हुए कि उनकी आँखें भर आयी. वे कारूणिक स्वर में मुझसे बोले कि सारा दृश्य वैसा ही है जैसा आनंद (मामा जी) की मृत्यु पर था. फिर जैसे देर तक अतीत को कुरेदने लगे हों. स्मृतियों के तंतुओं को जोड़ते हुए उन्होंने कहा- तुम्हारी दीदी को पता चला कि आनंद को किसी ने मार दिया है तो उसके बाल मन को लगा कि आनंद की हत्या नहीं हुई सिर्फ पिटाई हुई है. उसने रोते हुए बोला था कि जिसने मामा जी को मारा है मैं भी मामा जी को बोलूंगी कि उसे भी वे मारें.
नाना जी समय के बहुत पाबंद हैं. अगर उनसे कोई मिलने का बोलकर नियत समय से मिनट भर की भी देरी करे तो वे तनाव में आ जाते हैं. फोन-पर-फोन करने लगते हैं. ‘अभी तक नहीं आया, अभी तक नहीं आया’ की रट लगाते हुए वे पाइप पीने लगते हैं. ऐसा भी नहीं कि सिर्फ सामने वाले की देरी से वे तनाव में आते हों. अगर गलती से खुद से भी देरी हो जाये तो वे तनाव में आ जाते हैं. एक बार मैं उनके पास थी. किसी पत्रिका के लिए कोई साक्षात्कार लेने आने वाला था. नाना जी नाश्ता करने के बाद ही साक्षात्कार दे सकते थे क्योंकि नाश्ता करके उन्हें दवा खानी होती है. नियत समय सुबह दस बजे का था. लेकिन नाश्ता तैयार होने में विलम्ब के कारण मुश्किल से दस-पन्द्रह मिनट की देरी हुई होगी. साक्षात्कार लेने वाला समय से आकर इंतजार कर रहा था. नाना जी की नजर बार-बार घड़ी की तरफ जा रही थी. उन्हें समय से साक्षात्कार नहीं दे पाने के कारण ऐसा अपराधबोध हुआ कि उनकी आँखें भर आयीं. समय को लेकर उनकी ऐसी प्रतिबद्धता मैंने पहली बार देखी थी.
उर्वशी कुमारी |
वाह, उर्वशी ने बहुत आत्मीय और मनभावन संस्मरण लिखा है, बचपन की मोहक स्मृतियों को अपनी बयानगी में सजीव कर दिया। साथ ही यह जानकर अच्छा लगा कि वह जेएनयू से हिन्दी में एम ए करने के बाद दिल्ली वि वि से पीएचडी कर रही है। उर्वशी निश्चय ही मैनेजर जी की विरासत को बेहतर ढंग से सम्हालने के लिए तैयार हो गई है। हमारी शुभकामनाएं ।
उर्वशी जी ने अपने नाना पर अच्छा लिखा है। मैनेजर पांडेय का एक पारिवारिक छवि इसमें बखूबी झलकता है। इस छवि को भी जानना जरूरी है । आप ’समालोचन’ को जिस तरह से एक नया रूपाकर और धार देने में लगे हैं ,उसकी प्रशंसा तो अब चारों ओर होने लगी है ।गजब का काम है यह। बधाई । बहुत बहुत बधाई अरुण देव जी ।
इस संस्मरण में उर्वशी ने कई अनछुवे पहलुओं को समेटा है. कहने का तरीका भी बांध कर रखने वाला है.आमतौर पर हिन्दी समाज अपने लेखकों के पारिवारिक जीवन से अनजान ही बना रहता है. उर्वशी के संस्मरण से लगता है कि वे आगे भी मैनेजर पाण्डेय जी के अनछुवे पहलुओं से हिन्दी समाज को परिचित कराएंगी.
समालोचन संपादक अरुण देव ने प्रोफेसर मैनेजर पांडेय पर लोगों से जितने आलेख लिखवाकर प्रकाशित किया है वह काबिले तारीफ है।
यह संस्मरण अब तक प्रकाशित निबंधों से भिन्न एवं विशिष्ट है।यह हमारी भाषा के एक बड़े विचारक-आलोचक के घरेलू जीवन की एक झांकी प्रस्तुत करता है।
उर्वशी को साधुवाद।
नाना जी के लिए उर्वशी का आत्मीय संस्मरण काफी रोचक और हृदयस्पर्शी है। उनके स्वभाव के बहुत से अछूते प्रसंगों से सराबोर। बेटे की असमय मृत्यु का इतना बड़ा आघात झेलना कितना पीड़ादायक होता है एक पिता के लिए,इसे शब्दों में बयान करना कठिन है।पर जो जीवन को उदात्त विचारों से जीता है और अपने समय और समाज के मूल सरोकारों से प्रतिबद्ध होता है,उसे कोई भी आघात तोड़ नहीं सकता। हमें पांडेय जी के जीवन से सबसे बड़ी सीख यही मिलती है। उर्वशी को स्नेहपूर्ण शुभकामनाएँ एवं बधाई !
उर्वशी ने संस्मरण अच्छा लिखा है। लेखक के किसी परिवार के सदस्य की तरफ़ से संस्मरण लिखना पाठक वर्ग को अनेक नयी जनजातियों से अवगत कराता है। उर्वशी ने आदरणीय मैनेजर पांडेय सर की यादों को अच्छे से शब्दबद्ध किया है। बहुत बधाई।
Well. Written urvashi.
बढ़िया है। उर्वशी को हमारे पूरब की ‘ने”- मुक्त हिन्दी छोड़नी होगी।
हौसला बढ़ाने के लिए आप सभी का आभार. उम्मीद करती हूँ कि आगे भी नाना जी के जीवन से जुड़े विभिन्न प्रसंगों को बयान करती रहूंगी