विवेक
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रात के आखिरी पहर में मणिमाला की नब्ज डूबने लगी. सिरहाने घनश्याम जगा बैठा था. स्त्री के मुंह में जरा-सा मकरध्वज देकर उसने बड़े बेटे को पुकारा.
‘डॉक्टर साहब को बुला ला संतू. निखिल डॉक्टर न आयें तो मोड़ वाले घर में जो नये डॉक्टर आये हैं उन्हें बुला लाना, बुलाते ही आएंगे.‘
घर में बस कुछ आने पैसे हैं, पूरा एक रुपया नहीं है. विजिट की फीस डॉक्टर को नकद तो दी नहीं जा सकेगी. चलन यह है कि जब डॉक्टर को विदा करने का समय आए तब एकदम अंत में फीस दी जाती है. घनश्याम को इसी बात का आसरा है. डॉक्टर को घुसते ही उसकी हैसियत पता चल जाएगी इसमें संदेह नहीं, पर उसके पल्ले एक रुपया भी नहीं है यह अनुमान करना उसके लिए कतई संभव न होगा. डॉक्टर मणिमाला की अच्छी तरह जांच करेगा, मृत्यु को ठगने की चेष्टा में कोई कमी न होगी. रोगी की जीवन-रक्षा के लिए आवश्यक हिदायतें भी डॉक्टर दे ही जाएगा. उसके बाद, केवल उसके बाद, घनश्याम डॉक्टर के सामने दोनों हाथ जोड़कर कहेगा, ‘आपकी फीस कल सुबह भेज दूंगा डॉक्टर साहब…’
अद्भुत मुद्रा में मणिमाला के सामने हाथ जोड़कर वह ये बातें बुदबुदा रहा है. निद्रालु, रुआंसी आँखों से बड़ी लड़की उसकी ओर ताक रही है. उंगली से उठाकर थोड़ा और मकरध्वज उसने मणिमाला के मुंह में डाल दिया. लगता नहीं कि मणिमाला के अंदर दवा निगलने भर की शक्ति या चेष्टा बची है. उससे शायद हिसाब बैठाने में भूल हुई है, और पहले डॉक्टर को बुला भेजना था. वह डॉक्टर को ठगना नहीं चाहता, उनका पावना दो-चार दिन में भेज देगा. मणिमाला बची तब भी, न बची तब भी. फिर भी डॉक्टर को पहले से इस बारे में बिना बताए रोगी को दिखाकर उसके लिए नुस्खा लिखवा लेना ठगी तो है ही. इस तरह के गणित में त्रुटि रह ही जाती है.
लेकिन रास्ता क्या है? डॉक्टर को बिना दिखाये मणिमाला को मरने भी तो नहीं दिया जा सकता.
‘आग जलाकर हाथ-पाँव पर सेंक दे, लता. रो मत, हरामजादी, बाकी सब ने भी उठकर रोना शुरू कर दिया तो मार डालूँगा तुझे.’
मणिमाला का एक हाथ उठाकर उसने नाड़ी जाँचने की कोशिश की. दोनों हाथों में चूड़ियाँ अब भी हैं. होश में रहते उसने ये चूड़ियाँ कभी निकालने नहीं दीं. कल शाम लगभग बेहोशी की हालत में थी, तब घनश्याम ने निकालने की कोशिश की थी. दर्द से टेढ़ा हो गया था मणिमाला का मुंह और आंखें बाहर निकाल आयी थीं. जब उसका दम सा घुटने लगा तो घनश्याम को आगे साहस नहीं हुआ. इस समय आसानी से निकाल ले सकते हैं. मणिमाला को पता भी नहीं चलेगा. सुबह डॉक्टर की फीस दी जाएगी, दावा-दारू का इंतजाम होगा. लेकिन आखिर लाभ क्या होगा? यही सोचने की बात है. चूड़ियाँ बेचकर लाये पैसों से खरीदी दवा खा होश में आने के बाद खाली कलाइयाँ देखकर यदि मणिमाला का हार्ट फ़ेल हो जाये!
संतू के लौटते-लौटते अंधेरा छटने लगा था. मणिमाला की तबीयत तब तक कुछ सम्हल चुकी थी. नाड़ी मिल रही थी और साँसें सामान्य हो रही थीं. डॉक्टर नहीं आया, यह सुनकर घनश्याम को चैन मिला.
निखिल डॉक्टर ने कहा है दस बजे आएंगे. मोड़ के घर वाले नए डॉक्टर बोलने के साथ-साथ कपड़े पहन, बैग हाथ में लेकर आने को तैयार हो गए थे; फिर सहसा जाने क्या सोचकर संतू से पूछा, ‘तुम रो क्यों रहे हो बाबू?’
‘माँ मर जाएगी, डॉक्टर साहब.‘
आखिरी समय है शायद, डॉक्टर का उत्साह जाता रहा. उसके बाद सोच-विचारकर संतू को घर से चार रुपया लेकर आने को कहा. पास ही तो है घर. वे तैयार रहेंगे, पैसा लेकर आते ही चल देंगे. संतू को उन्होंने यह भी कह दिया कि पूरे चार रुपए घर में न भी हों तो तीन या कम से कम दो रुपये लाने से भी चलेगा. बाकी बाद में दे सकते हैं.
‘तू रोने क्यों गया अभागे?’
यह डॉक्टर बुरा न होता. डॉक्टर का डॉक्टर, कमीना का कमीना. फीस चाहे जितने दिन उधार रख लेते. न देने में भी कोई हर्ज नहीं था. इन सब धनलोलुप ओछे लोगों के लिए घनश्याम के मन में तीव्र घृणा है. इनमें से एक उसे झूठे फरेबी के रूप में जानता है इससे घनश्याम को बहुत परेशानी नहीं होने वाली. न दिल का चैन खो जायेगा.
घर के दूसरे कोने में, मणिमाला के बिस्तर से कोई तीन हाथ दूर पड़े अपने बिछौने पर जाकर घनश्याम लेट गया. बिछौना भीगा-भीगा मालूम हुआ. छोटी बेटी चरखी की तरह रात भर बिस्तर पर घूमती रहती है, कब आकर इधर उसके हिस्से का बिछौना गीला करके अब उस तरफ लड़के के गले पर पैर रखकर आराम से सो रही है. लगा दे एक झापड़? गलत तो नहीं होगा. ज़ोर से पीठ, बगल या नींद में ढीले पड़े, रुई-जैसे नर्म गालों पर एक झापड़ धर दिया जाये. आधे घंटे तक चिल्लायेगी फिर. मणिमाला के अलावा और किसी के लिए उसे चुप कराना संभव नहीं होता है.
आधे घंटे तक मृतप्राय पड़े रहने के बाद घनश्याम उठ बैठा. अश्विनी से ही एक बार फिर कुछ पैसे उधार माँगेगा, उसके बाद जो किस्मत में हो. इस बार शायद वह गुस्सा ही करे. मुंह फेर कर कह दे पैसे नहीं हैं. शायद मिलने को ही मना कर दे. फिर भी उसे अश्विनी के आगे ही हाथ फैलाना होगा. और कोई रास्ता नहीं है.
काफी पुराना कीड़ा-खाया रेशमी कुर्ता तीनेक दिन पहले निकाला गया था. पहनकर घनश्याम को पसीना होने लगता, परंतु और कोई कुर्ता न होने के कारण यही वाला पहनना पड़ रहा है. बाजार-हाट तक इसी को पहनकर हो रहा है. किन्तु अश्विनी को यह अंदाजा नहीं होगा. सोचेगा, बड़ी हैसियत वाले दोस्त से मिलने के लिए बक्सा-झाँपी टटोलकर मांधाता के युग का यह कीड़ा-खाया, दाग-भरा रेशमी कुर्ता घनश्याम ने निकाला है. मन ही मन हँसेगा अश्विनी.
इससे तो मैली, फटी कमीज पहनकर जाना ही अच्छा है. कमीज जहां से फटी है उसकी सिलाई नहीं हुई है, यह देखकर घनश्याम के मन में अद्भुत संतोष उपजा. कल लता को सिलाई करने के लिए कहा था- दो दो बार. वह भूल गई. न्याय्य कारण हो तो लड़की की पिटाई करने में दोष नहीं है. वह बड़ी हो चुकी है, रोना- पीटना नहीं करेगी. रोने से भी मुंह बंद कर निःशब्द रोयेगी.
‘लता, इधर आ, हरामजादी लड़की!’
थप्पड़ खाकर घनश्याम के अनुमान के अनुसार निःशब्द रोते हुए लता ने कमीज की सिलाई की. इस बीच बीड़ी जलाकर कश खींचते हुए घनश्याम नजर बचाकर उसे देखता रहा. दया आई पर पछतावा नहीं हुआ. अकारण मारने से पछतावे और अफसोस की बात उठती.
अश्विनी के विशाल भवन का गेट पार करते समय विनय के अतिरेक से घनश्याम का मन मानो विगलित हो उठा. अपने आप को दासानुदास, कीड़े-मकोड़े जैसा समझने की भावना मन में उदय हुई. उस समय अंतरतम में यह भास हुआ की निर्धनता से बड़ा कोई पाप नहीं. ड्राइववे पर आकर बहुत देर तक इस पापबोध के भार से झुककर वह लगभग कुबड़े जैसा रूप बनाये रहा.
कोई आठ बजा होगा. सदर बैठक को पार करके अश्विनी के बैठने का कमरा है. बीच के दरवाजे पर भारी, दुर्भेद्य एक पर्दा पड़ा रहता है. इतने सवेरे भी तीन अनजान सज्जन बैठक में धरना दिये बैठे हैं. घनश्याम ठिठका,फिर कुछ आगा-पीछा करने के बाद हिम्मत करके पर्दा हटाकर अश्विनी के बैठने के कमरे में प्रविष्ट हुआ. बाहर निकलते हुए अश्विनी पहले इस कमरे में आएगा.
कमरे में घुसते ही घनश्याम ने देख लिया की वहाँ कोई नहीं है. सोने की घड़ी पर नजर पड़ने के बाद एक बार और उसे कमरे के खालीपन का खास एहसास हुआ. चूल्हे पर चढ़ी केतली जैसे पहले सों सों आवाज करती है, फिर थोड़ी देर में यह आवाज हल्की हो जाती है और उसका पानी उबलने लगता है, वैसे ही घनश्याम की खोपड़ी में भी थोड़ी तक एक आवाज हुई, फिर धीरे-धीरे असम्बद्ध, अशृंखल विचार खदकने लगे. दिल की धड़कनें तेज हो गईं. गला सूखने लगा. हाथ-पैर काँपने लगे. खाली कमरे में टेबल से एक घड़ी उठाकर जेब में डाल लेना इतना कठिन है! लेकिन देर करने में खतरा है. घड़ी उसे उठानी ही हो तो देर करने में कोई बुद्धिमानी नहीं है.
इस तरह देर करके जब तक वह घड़ी उठायेगा, तब तक कौन जाने कोई कमरे में आ जाये और ठीक घड़ी को पॉकेट में रखते समय उसे देख ले. किसी ने देखा नहीं तो घनश्याम के लिए भय का कारण नहीं है. वह अच्छे कुल का शिक्षित व्यक्ति है. भले परिवार की संतान है. सभी उसे सीधे-सादे भलेमानुस के रूप जानते हैं. जैसा भी हो, अश्विनी उसका मित्र है. उसके ऊपर संदेह करने का विचार भी किसे आयेगा? घड़ियाँ खोती रहती हैं. नौकर-रसोइये चोरी करते हैं, फकीर-मंगते चोरी करते हैं. आखिरी बार घड़ी खोलकर कहाँ रखी थी याद आते-आते भी याद नहीं आता आदमी को. अश्विनी की सोने की घड़ी कहाँ रखी थी, किसने ली, किसे मालूम?
अंततः घड़ी घनश्याम की जेब में पहुँच ही गई. दिल की धड़कन सामान्य होने और हाथ-पाँव का काँपना बंद होने के अनंतर अब उसे कमजोरी लग रह रही थी और तबीयत खराब. घुटने जैसे जाम हो गए हैं और पेट के भीतरी भाग को न जाने किस चीज ने इस कठोरता से जकड़ रखा है कि मुंह की त्वचा तक सिहर उठी है. बैठक में वापस पैर रखते ही घनश्याम थम गया. अश्विनी का पुराना नौकर पशुपति मेहमानों को चाय दे रहा है. घड़ी को उठाकर जेब में रखने में इतनी देर तक हिचकिचाता रहा,यह घनश्याम को पता नहीं था. हिसाब में भूल हो गई. पशुपति को याद रहेगा. कमरे से निकलकर उसका बैठक में आना, ठिठकना, चौंकना, सूखा चेहरा – कुछ भी नहीं भूलेगा वह.
‘कैसे हैं घोनोस्श्याम बाबू? चाय दूँ?’
‘दो जरा सा’.
ताजा धुली चमकती धोती और कमीज, पाँवों में चप्पल. पशुपति उसकी तुलना में बहुत ज्यादा बाबू साहब दिख रहा है. घनश्याम को बस यही संतोष है कि उसे मालूम है कि असल में पशुपति चोर है. अश्विनी ने खुद बताया है कि पशुपति एक नंबर का चोर है. किन्तु बड़े आदमी के इस चोर चाकर की क्या तो कदर है! एक कप चाय के साथ सम्पन्न मित्र का यह नौकर कितना अपमान परोस सकता है इसका ख्याल करके घनश्याम के बदन में आग लग गई. आज पहली बार नहीं है किन्तु. पशुपति उसको कभी तवज्जोह नहीं देता, केवल एक अद्भुत शिष्ट अवहेला के साथ उसे बस बर्दाश्त करता है. इस घर में आने पर घनश्याम को अश्विनी के व्यवहार से ही मरने को जी चाहता है; पशुपति के व्यवहार पर ध्यान देने का अवसर ही नहीं मिलता.
चाय की चुस्की लेते जीभ जलाकर और पशुपति की वक्र मुस्कान को लक्ष्य करके आज सब याद आ रहा है. अश्विनी के प्रति एक तीव्र सालता हुआ अभियोग घनश्याम के मन में घूर्णिवत् उठने लगा. असह्य अमर्ष से आँसू आँखों की बाधा तोड़ने लगे. मित्र ने एक घड़ी चुरा ली है यह पता चलने पर अश्विनी चाहे पुलिस न बुलाये, पर जीवन में फिर उसका मुंह नहीं देखेगा, इसमें संदेह नहीं. फिर भी बदस्तूर, रोज-ब-रोज जो चोरी करता है उस नौकर के लिए उसके मन में कितना प्रेम है! अश्विनी की सोने की घड़ी चुराने में कोई बुराई नहीं. ऐसे लोगों की कीमती चीज चुराना बिलकुल जायज है.
एक घंटे बाद पाँच मिनट के लिए अश्विनी से मुलाक़ात हुई. हमेशा की तरह आज भी वह बड़ी जल्दबाजी में दिखा. बड़ी सी कुर्सी में अपनी मोटी काया को स्थापित करके अति व्यस्त भाव से वह गुरु गंभीर मुद्रा में मुटापे के कारण कुछ देर हाँफता-सा रहा. घनश्याम की बात वह सुन भी रहा है या नहीं यह पता नहीं चला. सदा इसी भाव से वह घनश्याम की बात सुनता है. कुछ दूर बैठाकर आधा घंटा तक घनश्याम से अपनी दुख-दुर्दशा की कहानी कहलवाता है. खुद अखबार पढ़ता रहता है या दूसरे लोगों से बात करता रहता है; कभी-कभी बीच में अचानक कुछ देर के लिए उठ कर चला भी जाता है. घनश्याम के रुकने के बाद उसकी ओर ऐसे देखता है जैसे मजिस्ट्रेट कटघरे में खड़े शातिर चोर को देखता है. पूछता है, क्या कहा?
घनश्याम को फिर से बताना होता है.
आज पाँच मिनट भी नहीं बीते कि बिना कुछ बोले उसने दराज खोलकर पाँच रुपये का नोट निकाला और घनश्याम की ओर फेंक दिया. फिर आवाज दी, पशु!
पशुपति आकर खड़ा हुआ तो पूछा, ‘कपड़ा धोने का साबुन है?’
‘है, बाबू. ‘
इन साहब को एक बट्टी साबुन ला दो. घर जाकर कपड़े-वपड़े जरा खुद ही तकलीफ करके धो लेना, घनश्याम. कोई गरीब हो तो उसका मैला रहना जरूरी है? पचीस रुपया उधार मांगने पर अश्विनी ने अब तक सबसे कम पंद्रह रुपया दिया है. इसके नीचे कभी नहीं उतरा. यह अपमान ही घनश्याम को असहनीय लगा- मणिमाला की जान बचाने के लिए पाँच रुपये! अश्विनी ने यह कैसी फूहड़ असभ्यता दिखाई है! ऐसा दु:साहस! ट्राम पकड़ने के लिए जाते हुए रास्ते में घनश्याम को पहली बार पता चला की वह क्रोधित है. ट्राम में बैठकर आधा रास्ता पार करने के बाद उसे समझ में आया कि अश्विनी के प्रति प्रबल विद्वेष से उसका अंतर जल रहा है. यह विद्वेष घनश्याम बहुत समय तक मन में जीवित रखेगा. शायद आज सारे दिन, शायद कल तक भी.
घनश्याम के घर में एक बैठका है. कुछ सीलन भरा और अंधेरा. तख्त पर बिछी फटी-सी शतरंजी पर कुछ देर बैठकर देह-मन को ठंडक मिलती है, आँखें जलनी बंद हो जाती हैं, श्वास कि गति धीमी हो जाती है. यहीं पंद्रह मिनट घनश्याम की प्रतीक्षा करने के बाद उसका मित्र श्रीनिवास चित लेटकर आँख मूंद सो गया था. और आधा घंटा शायद ऐसे ही पड़ा रहता, पर जाने का तकाजा मन में इतना प्रबल था कि घनश्याम के घर में घुसते ही वह उठ बैठा. परेशान-सा बोला, ‘अच्छा हुआ तू आ गया. और एक मिनट रुककर चला जाता, भाई. डॉक्टर को नहीं लाया?’
‘डॉक्टर बुलाने नहीं गया था. पैसों के जुगाड़ में निकला था’.
श्रीनिवास क्लांत भाव से जरा सा हंसा– दोनों लोगों की एक ही हालत है. मैं भी पैसों के जुगाड़ में ही निकला था, उनके दोनों कंगन गिरवी रख आया हूँ. रात के चौथे पहर बेटे की ऐसी हालत हुई कि अब गया तब गया. ऑक्सिजन देना पड़ा. थोड़ी तक चुप रहकर श्रीनिवास धीरे-धीरे सीधा हुआ– ‘अच्छा बताओ हम दोनों का यह सब एक साथ ही कैसे शुरू हो गया. एक माह आगे-पीछे नौकरी गई,एक साथ बीमारी-हमारी शुरू हुई, कल रात एक ही समय यहाँ संतू कि माँ, वहाँ मेरा बेटा…’
दुर्भाग्य के इस अद्भुत संयोग से दोनों ही विस्मित हुए. वे पुराने मित्र है, सबसे घनिष्ठ. आज सहसा एक दूसरे को और भी अधिक करीब पाने लगे.
‘पैसे नहीं मिले’?
घनश्याम ने सिर हिलाया.
‘ये दस रुपये रख ले. निखिल डॉक्टर को एक बार बुला लेना’.
जेब से चमड़े का पुराना बटुआ निकाल कुछ मोड़कर रखे नोटों में से सावधानी के साथ एक नोट बाहर करके उसने घनश्याम के हाथ में थमाया. कुछ भावावेश, कुछ एक अनाम उत्तेजना के चलते श्रीनिवास नर्वस अनुभव करने लगा. उसकी पत्नी के कंगन बंधक रखकर मिला पैसा, उसके मरणासन्न बेटे की चिकित्सा का पैसा! आवेग और आवेश के वशीभूत हो, झोंक में न देता तो क्या वह मित्र को एक साथ दस रुपए दे पाता? ‘चलूँ भाई. बैठने का समय नहीं है. अभी डॉक्टर को ले जाना है’.
कुछ अतिरिक्त तेजी के साथ वह निकल गया, मानो अपनी उदारता के लिए संकुचित और असहज अनुभव कर रहा हो. दो मिनट में कुछ अधिक तेजी के साथ वह लौट भी आया; डर के कारण अस्वाभाविक हो गए स्वर में बोला, ‘बटुआ छोड़ गया हूँ’.
‘यहाँ? जेब में रखा तो था तूने’.
‘जेब में रखते हुए गिर गया शायद’.
ऐसा हो तो तख्त पर गिरा होगा. घनश्याम को पैसे देते समय श्रीनिवास बैठा हुआ था. कमरे में इतना अंधेरा नहीं है कि चमड़े का बटुआ दिखाई न पड़े. लेकिन तख्त के नीचे काफी अंधेरा है. रोशनी जलाकर उसे आईने के द्वारा तख्त के नीचे पहुँचाकर ढूंढा गया. फर्श पर नजर गड़ाए श्रीनिवास ने न जाने कितनी बार पूरे कमरे का चक्कर लगाया. घनश्याम को साथ लेकर पान-बीड़ी की दुकान तक का रास्ता पड़ताल कर आया. अंतत: तख्त पर धम्म से बैठकर मरी आवाज में बोला, ‘गिरा कहाँ फिर? कुल इतनी ही दूर गया था, बीड़ी की दुकान तक. एक पैसे की बीड़ी खरीदने का विचार करके जैसे ही जेब में हाथ डाला, देखता हूँ बटुआ नहीं है’.
घनश्याम और भी मरी आवाज में बोला, ‘लगता है रास्ते में गिर गया और साथ-साथ कोई उठा ले गया’.
‘वही हुआ होगा. लेकिन इतने से समय में रास्ते में गिरा, और किसी ने उठा भी लिया! जेब से गिरेगा ही कैसे, यह सोच रहा हूँ’.
‘जब जाना होता है ऐसे ही जाता है. शनि की दृष्टि पड़ी हो तो पकी मछली भी भाग जाय’.
‘वही लगता है. अब शायद दवा के बिना ही बेटा मर जाएगा.‘
घनश्याम के मुंह की त्वचा खिंच रही है, उसमें सिहरन सी हो रही है. अश्विनी की सोने की घड़ी जेब में डालते हुए ऐसा ही हुआ था. अब भी बटुआ लौटाया जा सकता है. लापरवाह दोस्त के साथ इतना मज़ाक चलता है. उसमे कोई बुराई नहीं होती. लेकिन दस रुपया पास में हो तब भी वह लड़के को डॉक्टर को दिखा सकता है. दस रुपये में मणिमाला की चिकित्सा हो सकती है तो श्रीनिवास के बेटे की क्यों नहीं?
श्रीनिवास ने चुपचाप नोट ले लिया. जेब में नहीं रखा, मुट्ठी में लेकर बैठा रहा. समान रूप से दरिद्र मित्र को कुछ देर पहले खुद कहकर जो पैसे दिये थे उसे वापस लेने के औचित्य-अनौचित्य का विचार का रहा था संभवतः विवशता का दुख- बटुआ खोने का दुख नहीं- ये दस रुपए वापस लेने की विवशता का दुख! शायद श्रीनिवास को रुलाई आ रही है – उसके लिए कोई बड़ी बात नहीं. घनश्याम को दया आई. सोचने लगा व्यर्थ उसका दिल दुखाना ठीक नहीं है.
‘पचीसेक रुपया जुगाड़ कर लूँगा, श्रीनिवास’.
‘कर लेगा? गनीमत हुई. मैं वही सोच रहा था. संतू की माँ की चिकित्सा भी तो करनी ही पड़ेगी.‘
श्रीनिवास के जाने के जरा बाद ही सहसा, बिना भूमिका के घनश्याम के बदन के रोएँ खड़े हो गए, कंपकपी सी लग गई. श्रीनिवास यदि किसी वजह से उससे सटकर खड़ा हो जाता, किसी तरह उसके शरीर का कोई हिस्सा घनश्याम के पेट से छू जाता अगर! जल्दीबाजी में पर्स को कमीज के नीचे धोती में खोंस दिया था, श्रीनिवास के साथ यहाँ-वहाँ घूमकर खोजाई करते वक्त कहीं निकलकर गिर जाता तो? पेट फुलाकर बटुए को रोक रखने में भी डर था, ज्यादा ऊंचा होकर कहीं नजर में पड जाय! अश्विनी की सोने की घड़ी धोती के खूंट में लपेट बगली में डालकर कितनी देर तक चाय पी, लोगों से बातें कीं, अश्विनी से मुलाक़ात की, लेकिन ऐसा भयंकर आतंक तो एक बार भी नहीं हुआ! ज्यादा डर हालांकि वहीं था.
उसके बटुआ छुपाने को श्रीनिवास सिर्फ मज़ाक के अलावा कुछ नहीं समझता. अब भी यदि पर्स मिल जाए तो श्रीनिवास वही समझेगा. उसे चोरी करते यदि देख भी लेता तो श्रीनिवास विश्वास न करता कि वह चोरी कर सकता है. किन्तु किसी तरह उसकी जेब में घड़ी होने की खबर लग जाती तो अश्विनी ऐसा कुछ भी न करता . सीधे, असंशय उसे चोर मान लेता. सोचने से अब उसे डर लगता है. वहाँ कितना निश्चिंत था! पतली कमीज की जेब घड़ी के भार से लटक गई थी. तब उसने ध्यान भी नहीं दिया था. अश्विनी यदि पूछ लेता, ‘पॉकेट में क्या है, घनश्याम?’
कमरे की सीलन की ठंडक में घनश्याम की और सब दुश्चिंताएं सख्त चमड़ा भीगने पर जैसा ढीला पड़ जाता है वैसी ही ढीली पड़ गईं . मन पर बोझ की तरह एक ही असह्य दुश्चिंता बनी हुई थी. अश्विनी को संदेह होगा. पशुपति ने उसे अश्विनी के कमरे से निकलते देखा था. पशुपति वह बात बताए– बताएगा ही– तो अश्विनी को ऐसा नहीं लगेगा कि उठाने को घनश्याम भी घड़ी उठा सकता है?
यह चिंता ही अनवरत मन में घूमने लगी. घनश्याम के शरीर में एक अजीब बेचैनी सी होने लगी. अश्विनी को संदेह हो भी तो अस्पष्ट, आधारहीन और काल्पनिक किस्म का संदेह ही रहेगा. उससे क्या आना-जाना है यह घनश्याम को समझ में नहीं आता. इतने दिन तक जो उसने अश्विनी की घड़ी नहीं चुराई, उसके विषय में किसी प्रकार का संदेह भी अश्विनी के मन में नहीं उपजा, ऐसा कौन सा उपकार अश्विनी ने उस पर कर दिया है? चार पहर रात गए मणिमाला कि नाड़ी डूबने लगी थी यह सुनकर पाँच रुपये का एक नोट फेंक दिया. और दिया एक कपड़ा धोने का साबुन! वह भी नौकर से मंगाकर. संदेह बड़ी बात नहीं है. अश्विनी उसे चोर समझ ही ले तो उसका क्या जाता है?
घर के सामने गाड़ी रुकने की आवाज हुई तो वह एकदम चौंक गया. जरूर अश्विनी आया है. साथ में पुलिस तो नहीं? अश्विनी का विश्वास नहीं है. घड़ी खो गई है यह पता चलते ही पशुपति से सूचना पाकर वह शायद सीधा पुलिस बुलाकर उसके घर कि तलाशी लेने आया है. अश्विनी कुछ भी कर सकता है.
ना, अश्विनी नहीं, डॉक्टर आया है – मणिमाला को देखने.
किन्तु इस तरह घड़ी को अपने पास रखना ठीक नहीं है. घर में रखना भी ठीक नहीं है. डॉक्टर के जाने के बाद घड़ी बेच आयेगा वह. जहां भी हो, जिस दाम में हो. निखिल डॉक्टर मणिमाला की जांच कर रहे हैं, घनश्याम अन्यमनस्क ढंग से उनके सवालों के जवाब दे रहा है. सोने की घड़ी आसानी से कहाँ बेची जा सकती है, कोई ऐसी जगह जहां भय न हो– यही सब वह सोच रहा है लगातार. बाहर के कमरे में जाकर कुछ देर की अर्थपूर्ण चुप्पी के बाद निखिल डॉक्टर ने गंभीर मुद्रा में जो कहा घनश्याम उसे पहले तो समझ ही न पाया.
मणिमाला बचेगी नहीं? क्यों नहीं बचेगी? अब तो पैसे की कमी नहीं है. चाहे जितनी बार डॉक्टर बुलाकर दवा कर सकते हैं. मणिमाला के न बचने का क्या कारण हो सकता है?
‘ठीक से देखा है अपने?’
बेवकूफी का सवाल! दिमाग में सब जैसे गोलमाल हो रहा है. इस दशा में बेवकूफी की बात न भी करें तो और किया क्या जा सकता है? शुरू में ही डॉक्टर बुलाकर समय से दो-चार इंजेक्शन लगा देने से मणिमाला बच जाती. तीन-चार दिन पहले से मणिमाला अचेत है. कंप्लिकेशन शुरू होते ही अगर चिकित्सा हुई होती तब भी बचाया जा सकता था. इसका मतलब तीन-चार दिन मणिमाला जो अपना सिर बार-बार इधर से उधर घुमाती रहती, उसकी आंखें जो चढ़ी रहतीं, वह सब मस्तिष्क रोग का लक्षण था. चूड़ी खोलने की कोशिश करने में बाधा वह होश में नहीं दे रही थी. हाथ खींचने पर अजाने मुख विकृत करके गले से अजीब, अर्थहीन आवाजें निकाल रही थी. स्थिर या गतिहीन हुए बिना भी मनुष्य अचेतन हो सकता है, ये सब क्या घनश्याम को मालूम था?
‘पूरी कोशिश करनी पड़ेगी, पर अब सब कुछ भगवान के हाथ में है’.
डॉक्टर भगवान की दुहाई दे रहा है! आज तक सब डॉक्टर के हाथ में था, आज भगवान के हाथ में चला गया. डॉक्टर के जाने के बाद बाहर के कमरे में बैठकर घनश्याम ने दुश्चिंताओं को दूर करने की कोशिश की. कल भी तो मणिमाला मरने ही वाली थी पर बच गई. डॉक्टर की बात पर वह किसी तरह भरोसा नहीं करना चाहता. रात बीतते नाड़ी डूबने के बाद लगभग मरी हुई मणिमाला बच कैसे गई फिर? उसी समय तो खतम हो सकती थी. मणिमाला की मृत्यु आज सुबह तय हुई है. डॉक्टर को समझ नहीं आया. अभी की हालत देखकर गलत अंदाजा लगा रहा है. घनश्याम ने जब अश्विनी की घड़ी चुराई– उसके जीवन की पहली चोरी– तभी मणिमाला चिकित्सा के परे पहुँच गई. उसकी चिकित्सा के लिए उसने पाप जो किया! इसलिए चिकित्सा निरर्थक हो गई. सुबह घर से निकलने के पहले डॉक्टर को बुलाकर दिखाया होता तो निश्चय ही डॉक्टर कुछ और कहता.
घड़ी लौटा दे?
बड़ी आसानी से ऐसा किया जा सकता है. अभी तक शायद घड़ी की बात पता भी न चली होगी. किसी बहाने अश्विनी के घर जाकर मौका देखकर घड़ी मेज पर रख देनी है,बस.
और कुछ हो या न हो, उसके मन पर भय और बेचैनी का जो आधिपत्य हो गया है, उससे मुक्ति मिलेगी. अपने मन में वह जो भी सोचे, अश्विनी उस पर मन ही मन संदेह करता है यह बात उसे सहन नहीं होगी. ये कुछ घंटे क्या कम यंत्रणा अनुभव की है उसने? पशुपति ने उसे अश्विनी के कमरे से निकलते देखा था, इसलिए अश्विनी के लिए उस पर संदेह करने का आधार होगा, इस दशा में घड़ी वापस रख आना ही ठीक होगा. वैसे ही अश्विनी उसे गरीब और नाकारा समझकर उसकी अवहेला करता है. उस पर यदि चोर होने का संदेह भी हो तो अश्विनी जाने कितनी घृणा करेगा उससे. उसकी मामूली सोने की घड़ी नहीं चाहिए भाई.
पैसे उसके पास हैं ही, पचीस रुपये.
अंदर मणिमाला को एक बार देख आया घनश्याम, फिर बाहर निकल गया. ट्राम रास्ता पकड़कर कुछ दूर जाकर उसने श्रीनिवास का बटुआ निकाला. पैसे निकालकर जेब में रखे. कुछ देर तक खाली बटुआ हाथ में लिए चलने के बाद उसे रास्ते पर ही एक जगह डाल दिया. कुछ दूर और जाकर उसने मुड़कर देखा, हाथ में छाता लिए एक कुर्ताधारी, अधेड़, मूंछ वाले सज्जन बटुए के ऊपर पैर रखकर मानो कितने उदासीन भाव से दूसरी दिशा में देख रहे थे.
घनश्याम को हंसी आई. थोड़ी देर बाद ही वह आदमी बटुए को उठाकर चल देगा. किसी पार्क की एकांत बेंच पर बैठकर उसे उत्सुकतापूर्वक खोलेगा. जब देखेगा की बटुआ पूरा खाली है, तब उसका मुंह देखने लायक होगा. फुटकर साढ़े सात आना पैसा तक उसने निकाल लिया है.
स्टापेज पर घनश्याम ट्राम पर सवार हो गया. फुटकर साढ़े सात आने पैसे होने से सुविधा हुई, अन्यथा ट्राम का टिकट खरीदने में मुश्किल होती. उसके पास केवल दस और पाँच रुपए के नोट होते.
अश्विनी की बैठक खाली थी. उसका बैठने का कमरा भी खाली था. मेज पर कुछ चिट्ठियों को दबाकर घड़ी पहले रखी थी. चिट्ठियाँ जैसी की तैसी पड़ी हैं. उनके ऊपर घड़ी को रखकर घनश्याम बैठक में आ बैठा.
घंटी बजने पर पशुपति बाहर निकला. – ‘फिर कैसे आना हुआ?’
‘तुम्हारे साहब से मिलना है.‘
भीतर जाकर पशुपति जल्दी ही लौट आया.
‘तीसरे पहर आने को बोल रहे हैं, घोनोस्श्याम बाबू– चार बजे.‘
घनश्याम कातर भाव से बोला, ‘मेरा अभी मिलना जरूरी है. तुम एक बार और बोलो पशुपति. बोलो डॉक्टर सेन के लिए एक चिट्ठी लिखने आया हूँ.‘
उसके बाद अश्विनी ने घनश्याम को अंदर बुला लिया, आधी फीस पर मणिमाला को एक बार देख लेने के लिए अपने मित्र डॉक्टर सेन के नाम एक पत्र भी लिख दिया. दौलत और ताकत के इस खेल को अश्विनी पसंद करता है, उसे गर्व होता है.
घनश्याम के हाथ में पत्र को थमाने के पहले लेकिन उसने पूछ लिया, ‘फीस का पैसा उधार नहीं रखना है किन्तु. पैसे हैं तो?’
घनश्याम बोला, ‘हैं. उनका गहना बेच दिया, क्या करता?’
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शिव किशोर तिवारी
२००७ में भारतीय प्रशासनिक सेवा से निवृत्त. |
बहुत अच्छी कहानी। अनुवाद भी उतना ही अच्छा।प्रस्तुत करने के लिए समालोचन का धन्यवाद।
Marmik kahani, saksham anuvad.
माणिक बंद्योपाध्याय द्वारा लिखी गयी कहानी का शीर्षक विकास विवेक कहानी के अनुरूप है । मेरी दृष्टि में घनश्याम मक्कार आदमी है । आस्तिक लोग मानते हैं कि पुण्य और पाप कर्म करने के फल मिलते हैं तो घनश्याम को ज़रूर मिलेंगे । कहानी के अनुसार घनश्याम ने पाप ही किये हैं । इसने अपनी पुत्रियों के साथ असभ्य तरीक़े से व्यवहार किया और फिर पुत्र के लिये मन में मृदुल भावना दिखायी । पत्नी मणिमाला की उपेक्षा की । पहले उपचार नहीं कराया । मरणासन्न हुई तो उसके हाथों में डाले हुए कंगन निकालने की कोशिश की । डॉक्टर के घर जाकर उसकी सोने की घड़ी चुरा ली । मित्र घर में आया । मित्र द्वारा पत्नी के लिये प्राप्त दस रुपये मिलने के बावजूद भी उसका नाम बटुआ चुरा लिया । मित्र के साथ बटुआ ढूँढने का नाटक किया । मनुष्य के नैसर्गिक स्वभाव के कारण अपनी धोती में खोंसे गये बटुए के गिरने का डर बना रहा । डॉक्टर के घर जाकर उसकी स्वर्णिम घड़ी रख आया । डॉक्टर का कंपाउंडर पशुपति भी चोर है । पता नहीं डॉक्टर उसे क्यों अपने पास नौकरी के लिये रखे हुए है । घनश्याम का भी पड़ोसी डॉक्टर लालची है । कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि मनुष्य समाज के जीवन में जितनी तरह की कमज़ोरियाँ है उसे माणिक बंदोपाध्याय ने इस कहानी में चित्रित किया है । मुझे बांग्ला भाषा नहीं आती । मैं यह तो नहीं लिख सकता कि ‘विवेक’ कहानी का अनुवाद कैसा बन पाया । परंतु कहानी का चयन अच्छा किया है । कहानी समाज को आईना दिखाती है । अच्छा मनुष्य बनना केवल आत्म बोध (self conscious) को दरकिरनार रखकर ही नहीं आता बल्कि साहित्य भी सिखा देता है ।
विवेक से पहले विकास शब्द दर्ज हो गया । और self consciousness लिखना था । एडिट करना नहीं आता । इस कारण यह टीप लिख दी है । सादर प्रोफ़ेसर अरुण देव जी ।
माणिक बंद्योपाध्याय की यह कहानी चकित करती है यह सोचकर कि एक गरीब दोस्त के बटुए की चोरी से कथा नायक को जरा भी अपराधबोध नहीं हुआ और वह भी तब जबकि उसने पत्नी के कंगन बेचकर अपने बीमार बाटे के इलाज के लिए पैसे जुटाये हों । यही नहीं बल्कि उन्हीं पैसों में से दस रूपये कथा नायक को पत्नी के इलाज के लिए भी दे दिए हों।उसे अपराधबोध होता भी है तो एक समृद्ध दोस्त की घड़ी चुरा लिए जाने से। ये कुछ विचित्र सी बात है।संभव है मुझसे ही कहीं चूक हुई हो समझने में। वैसे कहानी बहुत मार्मिक है।अनुवाद भी बढ़िया है।इस व्यवस्था में किसी के पास अगर पैसे न हों तो फिर उसे नरक भोगने के लिए तैयार रहना है।
इस बेहद मार्मिक कहानी और सुंदर अनुवाद के लिए आदरणीय तिवारी जी को साधुवाद और इसके प्रकाशन के लिए अरुण जी को धन्यवाद।
मर्मस्पर्शी कहानी । बेहतरीन अनुवाद ।
गहरे यथार्थ बोध से डूबी कहानी का सशक्त अनुवाद