येवगेनी येवतुशेंको की कविताएँ |
येवगेनी येव्तुशेन्को साल 1962 के सितंबर की एक शाम, अट्ठासी-वर्षीय रॉबर्ट फ्रॉस्ट और उन्तीस-वर्षीय येव्तुशेंको मस्क्वा (Moskva) के ‘कैफे़ एलीता’ में एक साथ जॉर्ज़िया की परम्परागत शराब पीते हुए अपनी कविताओं का पाठ कर रहे थे. उस उतरती रात में उन्होंने अपने समय की क्रूरता और कविता से लेकर भालुओं के शिकार तक की बातें की. बाद में येव्तुशेन्को के विषय में फ्रॉस्ट ने लिखा- ‘‘वह एक जीवंत युवक था और उसने मुझे बेहद प्रभावित किया. उन्मुक्त खयालों का, और क्यूबा तथा इस प्रकार की क्रान्ति को लेकर अति-उत्साहित.” उत्तर स्तालिन-काल के सबसे अधिक चर्चित रूसी कवि, येवगेनी येव्तुशेंको की प्रारम्भिक कविताओं पर मायकोवस्की का प्रभाव तथा साम्यवाद के प्रति पक्षधरता स्पष्ट है, मगर ‘द थर्ड स्नो’ (1955) जैसी रचनाओं के लेखन के साथ येव्तुशेंको स्तालिन-विरोधी विमर्श के मुख्य स्वर बने. साम्यवादी कट्टरवाद का प्रतिरोध उनकी रचनाओं की केन्द्रीय अंतर-वस्तु रही. येव्तुशेंको का जन्म इरकुस्त क्षेत्र के ज़ीमा शहर में जुलाई 1933 में, साइबेरिया में निर्वासन झेल रहे एक यूक्रेनी परिवार में हुआ. ग्यारह वर्ष की उम्र में वे मस्क्वा चले गये, जहाँ 1951 से 1954 के बीच गोर्की साहित्य संस्थान में शिक्षा ग्रहण की. उनकी पहली महत्त्वपूर्ण आख्यानात्मक कविता ‘ज़ीमा जंक्शन’ 1956 में प्रकाशित हुई, परंतु येव्तुशेंको को विश्व-परिदृश्य पर ख्याति 1961 में लिखी ‘बाबीय यार’ से मिली. ‘बाबीय यार’ प्रतिरोध की कविता है, जो सैमाइट लोगों के प्रति नाज़ी तथा रूसी नस्लवादी दृष्टिकोण को नकारती है. 1984 तक यह कविता सोवियत रूस की किसी पत्रिका में स्थान न पा सकी, यद्यपि इसका पाठ रूस तथा अन्य देशों में होता रहा. ‘द हेयर्स ऑफ स्तालिन’ (1961) तत्कालीन सोवियत प्रधान मंत्री, निकिता क्रूश्चेव के व्यक्तिगत हस्तक्षेप से ‘प्रावदा’ में प्रकाशित हुई. कविता स्तालिन की मृत्यु के बाद भी स्तालिनवाद की निरंतरता को एक भयावह दुश्चक्र के रूप में देखती है. लेखन तथा कला के क्षेत्र में अधिकाधिक अभिव्यक्ति-स्वतंत्रता के लिये येव्तुशेंको की पक्षधरता तथा स्तालिनवाद के निरंतर विरोध ने उन्हें सोवियत युवा वर्ग के बीच एक प्रवक्ता की तरह स्थापित किया. प्रशासन-तंत्र के विरुद्ध लगातार लिखते-बोलते रहने के बावजूद येव्तुशेंको को पश्चिमी यूरोपीय देशों में जाने का विशेषाधिकार मिला और 1963 तक उन्होंने अनेक देशों की विस्तृत यात्राएँ कीं. यात्रा के उपरांत अंग्रेज़ी में ‘ए प्रिकाशस ऑटोबायोग्राफी’ लिखी, जिसके कारण उनके विशेषाधिकार वापस ले लिये गये, हालाँकि दो वर्ष पश्चात वे सुविधाएँ पुनर्स्थापित कर दी गईं. उनका विरोधी स्वर दैनंदिन तीव्रतर होता गया. 1965 में जोसेफ़ ब्रॉडस्की के विरुद्ध चलाये जा रहे मुक़दमे के खिलाफ़ विरोध-पत्र पर हस्ताक्षर करनेवालों में अन्ना अखमातोवा, कोर्नेई चुकोवस्की तथा ज्याँ-पॉल सार्त्र के साथ येव्तुशेन्को भी थे. 1968 में जब वारसा संधि के अंतर्गत रूसी टैंकों ने चेकोस्लाविया में प्रवेश किया, उस समय भी विरोध-पत्र पर येव्तुशेन्को का नाम था. 1974 में नोबल पुरस्कार विजेता, अलेक्ज़ाण्दर सोल्ज़ेनित्सिन को जब गिरफ़्तार किया गया और निर्वासन की सज़ा दी गई, तो इसके प्रतिरोध में येव्तुशेंको की आवाज़ सबसे सशक्त थी. 1972 में लिखे नाटक ‘अंडर द स्किन ऑफ द स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी’ को अपार सफलता मिली. 1970 से येव्तुशेंको की रचनात्मकता लेखन की सीमा का अतिक्रमण कर अभिनय, फिल्म निर्देशन, छायांकन तथा अन्य कला-विधाओं में उत्तरोतर अभिव्यक्ति पाने लगी थी. 1989 में येव्तुशेंको जन-प्रतिनिधि कांग्रेस के सदस्य चुने गये, 1990 में वह रूसी साहित्य संस्थान (पेन) के अध्यक्ष मनोनीत हुए. 1987 में उनको अमरीकी कला एवं विज्ञान अकादमी की सदस्यता से प्रतिष्ठित किया गया. गोर्बाचोव के सत्ता में आने के बाद, ‘ओगोनेक’ जर्नल के माध्यम से येव्तुशेंको उन अनेक कवियों-लेखकों को पुनः साहित्य की मुख्य धारा में लेकर आये जो स्तालिन-काल में गुमनामी में लुप्त हो गये थे. सोवियत संघ के अवसान के पश्चात, येव्तुशेंको का एक महत्वपूर्ण प्रयास था स्तालिन के प्रशासन-तंत्र की कार्य-प्रणाली के शिकार हुए लोगों की स्मृति में एक स्मारक की स्थापना, जो, संकेतात्मक रूप से, पूर्वकालीन सोवियत गुप्तचर संस्थान के.जी.बी. के कार्यालय के बिलकुल समक्ष स्थित है. अपनी सृजनात्मकता अथवा लेखन से अधिक, रूढ़ साम्यवाद के अपने प्रखर प्रतिरोध, विशेषतः स्तालिनवाद के विरोध के कारण येव्तुशेंको समाचारों और चर्चाओं में रहे. रूसी साहित्य में उनकी उपस्थिति उस परंपरा के अंतर्गत रेखांकित की जाती है जिसमें बोरिस पास्तरनाक, वर्लम शालामोव, अलेक्ज़ाण्दर सोल्ज़ेनित्सिन तथा ज़ोसफ ब्रॉडस्की के नाम दर्ज़ होते हैं. चाहे कोई भी देश हो, कोई भी काल, दमन हमेशा एक ही रूप में मौज़ूद होता है. सामूहिक हत्याएँ, बंद कमरों में अमानवीय यंत्रणाएँ और अचानक हज़ारों लोगों का लापता हो जाना. मगर, ताज्जुब की बात है, कि दमन का प्रतिरोध भी सदैव एक ही रूप में उपस्थित रहता है. अपने ही रक्त में लिथड़ा, मृत्यु की बदहवासी में डूबता हुआ, मगर अंतिम साँस तक अपराजित, अदम्य. लालगढ़, छत्तीसगढ़ और झारखण्ड में दमन अपने ऐतिहासिक शक्ल में मौज़ूद है. और दमन का प्रतिरोध भी उसी ऐतिहासिक शक्ल में. असंख्य आदिवासी अपने जंगल और जमीन से विस्थापित किए जा चुके हैं, और यह विस्थापन जारी है. अपने ही देश की सेना द्वारा हज़ारों लोग जंगलों में सुनियोजित तरीके से क्रमशः खत्म किए जा रहे हैं. येव्तुशेंको की ये अनुदित कविताएँ जो सत्ता के हिंसा-तंत्र से जूझती हैं, लहूलुहान होती हैं, और सन्नाटे में अपनी चीख़ दर्ज़ कराती हैं, उन लोगों को समर्पित हैं जो सुरक्षा-बलों के स्वचालित हथियारों के सामने खड़े हैं. अपने जंगल, जीविका और जीवन की प्रतिरक्षा में. |
बाबीय यार
बाबीय यार के वीराने में कोई स्मारक नहीं.
केवल एक चट्टान है, किसी क़ब्र के खुरदरे पत्थर की तरह.
मैं डरा हुआ हूँ.
आज मैं अपनी उम्र में उतने बरस ढो रहा हूँ
जितने सारे यहूदियों की उम्र.
अब मैं महसूस कर रहा हूँ कि जैसे मैं स्वयं एक यहूदी हूँ.
यहाँ मैं प्राचीन मिस्र की ज़मीन से गुज़र रहा हूँ,
सलीब पर लटका मैं मर रहा हूँ यहाँ,
आज तक मेरे शरीर पर मौज़ूद हैं कीलों के निशान.
मैं महसूस कर रहा हूँ जैसे मैं हूँ ड्रिफ़स
फ़िलिस्तीनियों ने मुझे धोखा दिया- और अब न्याय का नाटक रच रहे है.
सलाख़ों के पीछे हूँ मैं, हर तरफ से धिरा
प्रताड़ित, कलंकित, जिसके ऊपर तिरस्कार में थूका गया बार-बार.
ब्रुसेल्स के जालीदार लेस में नाज़ुक औरतें, आपस में फुस्फुसतीं
मेरे मुँह में ठूँसती हैं अपनी छतरियाँ.
मैं महसूस करता हूँ बेलोस्तोक के एक युवक की तरह.
रक्त बह रहा है, फ़र्श पर फैल रहा,
बार-रूम में हुड़दंग करनेवालों से वोदका और प्याज की गंध आ रही.
जूते की एक ठोकर मुझे धकेलती है, मुझमें थोड़ी भी ताक़त बाकी नहीं.
हत्या के लिये व्यग्र उन युवकों से मैं याचना करता हूँ.
जिस वक़्त वे चिल्ला रहे हैं ‘‘यहूदियों को मारो! रूस को बचाओ!’’
उस वक़्त कोई राशन का दलाल पीट रहा है मेरी माँ को.
मेरे रूसी भाइयों! मुझे मालूम है
कि मूल रूप से विश्ववादी है आपकी सोच,
लेकिन कुछ लोग जिनके हाथ दाग़ से भरे हैं,
उन्होंने तुम्हारे पवित्र नाम को महज़ एक नारे में बदल दिया है.
मुझे अपनी मिट्टी की महानता का भास है,
मगर कैसे इन सैमाइट-विरोधी लोगों ने बगैर तनिक झिझक
स्वयं को घोषित किया है ‘समस्त रूसी जन का गणराज्य’!
मैं ऐन फ्रैंक की तरह महसूस करता हूँ,
अप्रिल माह की नई पत्ती की तरह पारदर्शी,
प्रेम में डूबा हूँ मैं, मुझे मुहावरों की आवश्यकता नहीं,
मैं बस चाहता हूँ कि एक-दूसरे की आँखों में देखते रहें.
कितना कम हम देख पाते हैं
या अपनी सांसों में महसूस कर पाते हैं!
हम वसंत की हरी कोपलों से वंचित हैं,
वंचित हैं हम आकाश के एक टुकड़े से.
फिर भी बहुत कुछ है जो हम कर सकते हैं,
जैसे नर्म पलों में अंधेरे कमरे में एक-दूसरे को बाँहों में बाँधना.
‘‘क्या वे यहां आ रहे हैं?’’
‘‘डरो मत! यह आहट है वसंत के पैरों की: वसंत आ रहा है.
ऐसे में, तुम मेरे पास आओ! लाओ अपने होंठ मेरे नज़दीक. ज़ल्दी!’’
‘‘क्या वे दरवाज़े तोड़ने लगे हैं?’’
‘‘नहीं, यह बर्फ़ के चटखने की आवाज़ है…’’
बाबीय यार की नीरवता में जंगली घास हवा में सरसरा रही है,
पेड़ भयावह दिख रहे हैं, मानो फैसला सुनाते न्यायाधीश.
यहाँ हर चीज़ बेआवाज़ चीत्कार करती है,
मुझे लग रहा है मेरे बाल सफेद हो रहें हैं, ऐसा महसूस हो रहा है.
और मैं खुद भी एक लम्बी, निःशब्द चीख हूँ
यहाँ हज़ारों-हज़ार दफ़न हुए लोगों के बीच फैलती हुई.
यहाँ जिसे गोली मारा गया, वह हर वृद्ध मैं हूँ,
हर वह बच्चा मैं हूँ जिसकी हत्या हुई यहाँ,
मेरे शरीर का कोई भी रेशा इसे कभी न भूल पाएगा!
‘विश्व-बंधुत्व’ के गीत को आकाश में गूँजने दो,
इस वक़्त जब पृथ्वी का अंतिम सैमाइट-विरोधी
दफ़न किया जा रहा है हमेशा के लिए.
मेरे रक्त में यहूदी रक्त नहीं,
मगर, अपने घृणाभरे आक्रोश में, समस्त सैमाइट-विरोधी
मुझे एक यहूदी की तरह घृणा करेंगे.
और इस अर्थ में मैं हूँ एक सच्चा रूसी.
संदर्भ: (1) बाबीय यार: यूक्रेन की राजधानी कीव के समीप पूर्ववर्ती सोवियत संघ का सबसे रक्त-रंजित स्थल जहाँ दो दिनों के सैन्य-अभियान में, सितम्बर 29-30, 1941 को 33,771 यहूदी स्त्री-पुरुष और बच्चों को मृत्यु के घाट उतारा गया. (2) अल्फ्रेड ड्रीफ़स (1859-1935): फ्राँसीसी सेना का एक यहूदी अफ़सर, जिसे राष्ट्रद्रोह के झूठे अभियोग में कारावास की सज़ा दी गई (1895) और ग्यारह वर्ष बाद मुक्त किया गया (1906). (3) बेलोस्तोक: यूक्रेन में एक स्थान जहाँ ‘प्रोग्रोम’ का सबसे हिंसक चेहरा उभरकर आया; यहूदी परिवारों पर सामूहिक हमले हुए और उनका नियोजित ढंग से विनाश किया गया. (4) एनेलिस मैरी ‘ऐन’ फ्रैंक (1929-1945): एम्स्टर्डम की एक यहूदी युवती जिसे उसके समूचे परिवार के साथ गिरफ़्तार कर बर्ज़न-बेल्सन यातना शिविर में डाल दिया गया, जहाँ टाइफस ज्वर से उसकी मृत्यु हुई; 1947 में उसकी डायरी प्रकाशित हुई जो नाज़ी यातना शिविरों की भयावहता का भोगा हुआ सच उद्घाटित करती है. (5) समाजवादी विचारधारा के अंतर्राष्ट्रीय गान का श़ीर्षक है ‘इंटरनेशनेल’, जिसका मुख्य विषयवस्तु है विश्व-बन्धुत्व; 1922 से 1944 के बीच यह सोवियत संघ का राष्ट्रगान रहा; ‘इन्टरनेशनेल’ का स्थायी टेक हैः ’यह निर्णायक संघर्ष है/हम आज एकजुट हों, (ताकि) कल/समूची मानव-जाति विश्व-बंधुत्व में बँधे’.
स्तालिन के उत्तराधिकारी
मौन था संगमरमर, मौन चमक रहा था काँच.
पहरे पर खड़ा संतरी मौन था,
सर्द हवा में जड़, जैसे कि काँसे की कोई मूर्ति.
लेकिन तभी ताबूत से धुएँ का एक प्रेत उठा.
दरारों से निकल बिखरी एक गर्म सांस,
जब मक़बरे के दरवाज़ों से बाहर उन्होंने निकाला उसका ताबूत.
ताबूत धीरे से हिला, संगीनों से रगड़ खाये उसके कोने.
वह भी मौन था- मगर उसके मौन में गूँज रही थी एक भयावहता,
अपनी लेप लगी मुट्ठियाँ भींचता
अंदर एक व्यक्ति दरारों से झाँक रहा था.
मरने का स्वाँग करता,
वह याद कराना चाहता था सबके चेहरे.
उन सबके जो उसे दफ़ना रहे थे:
रायज़ान तथा कुर्स्की के जवान लड़के, गँवई रंगरूट,
ताकि एक दिन, एक आकस्मिक आक्रमण के लिए
वह अपनी पूरी शक्ति इकट्ठा करें
और ज़मीन की परतों से निकल,
क़हर बन टूट पड़े उन मूढ़ गँवारों पर.
उसने सोच रखी है कोई चाल,
एक हल्की नींद ले, वह अपने को बस तरो ताज़ा कर रहा है.
और मैं अपनी सरकार से एक आग्रह करता हूँ, एक प्रार्थना
कि स्तालिन की क़ब्र पर प्रहरियों की संख्या
बढ़ाकर कर दी जाये दुगनी-तिगुनी,
ताकि स्तालिन कभी न बाहर आ सके अपनी क़ब्र से,
और न उसके साथ बाहर आ सके बीता हुआ काल.
जब मैं कहता हूँ ‘बीता हुआ काल’, तो मेरा अर्थ उस अध्याय से नहीं
जो शौर्य-गाथाओं से भरा है और जो विरासत है हमारी:
तुर्कसिब, माग्नीतका, बर्लिन के ऊपर लहराता पताका.
मेरा मतलब है एक बिलकुल भिन्न अतीत से,
जो रचा गया झूठे अभियोगों, निर्दोषों की जेल-यंत्रणा
और लोगों की उपेक्षा से.
हमने पूरी निष्ठा से बीज बोए,
पूरी निष्ठा से पिघलाया भट्ठियों में धातु,
और आगे क़दम बढ़ाते दायित्व के साथ निभाया सैनिक का कर्तव्य.
फिर भी वह हमसे सशंकित रहा.
एक विराट लक्ष्य में अपनी अटूट आस्था के साथ,
वह चूक गया इस तथ्य में
कि साध्य की महानता के ही अनुरूप अपेक्षित है साधन भी.
वह दूरद्रष्टा था, राजनीतिक संघर्ष में दक्ष.
उसने फैला रखे हैं पूरी पृथ्वी पर अपने उत्तराधिकारी.
मुझे ऐसा महसूस हो रहा है
कि ताबूत से जुड़ा है एक टेलीफोन:
अनवर होक्ज़ा जैसे लोग अभी भी पाते हैं स्तालिन के कार्यादेश.
इस ताबूत से कितनी दूर तक अभी भी फैला है टेलीफोन का तार?
नहीं, स्तालिन हारा नहीं है,
अनगिनत तरीके हैं मृत्यु से निबटने के, वह सोचता है.
मक़बरे से जिस शव को हमने बाहर निकाला,
क्या वह निस्संदेह स्तालिन न था?
मगर कैसे निकालें बाहर उस स्तालिन को
जो जीवित है अपने उत्तराधिकारियों के भीतर?
उसके कुछ अवकाश प्राप्त उत्तराधिकारी तराशते हैं गुलाबों की टहनियाँ,
मगर, उन्हें अंदर पूरा विश्वास है
कि यह अवकाश है महज़ कुछ समय के लिए.
दिन के वक़्त कुछ सबसे बढ़-चढ़कर देते हैं
माइक्रोफोन पर स्तालिन को गालियाँ,
मगर रात में उतरती है उनके भीतर
उन्हीं बीती क्रूर कथाओं के लिये लिप्सा.
यह महज़ संयोग की बात नहीं
कि स्तालिन के उत्तराधिकारियों को आने लगा है अब हृदयघात,
जो उसके आधार स्तंभ थे, उनके लिये सचमुच वे दिन भयानक हैं
जब श्रम-शिविर वीरान हों,
और वे क्षण इतिहास पर धब्बे,
जब सभागार भरा हो कविता के उत्सुक श्रोताओं से.
पार्टी ने मुझे समझाया है
कि मानसिक युद्ध से मैं कभी विलग न होऊँ.
यदि कोई दुहराता है कि ‘संघर्ष समाप्त हो गया’,
मैं नहीं समझ पाता कि अपनी बेचैनी से कैसे पाऊँ मुक्ति.
जब तक रात में सुनाई पड़ती है
स्तालिन के उत्तराधिकारियों के चलने की आहट,
मैं महसूस करता हूँ कि स्तालिन जीवित है
अपने मक़बरे में.
संदर्भ: (1) रायज़ान और कुर्स्की: रूस के दो प्रमुख शहर (2) तुर्कसिबः 1926-1931 के बीच निर्मित, 1,520 कि. मी. लम्बा तुर्कीस्तान-साइबेरिया रेलमार्ग जो मध्य-एशिया को साइबेरिया से जोड़ता है, स्तालिन-काल की एक महत्वपूर्ण परियोजना. (3) माग्नीतका: ब्लादिमीर इल्यिच लेनिन इस्पात संयंत्र, माग्नीतोगोर्स्क, जो आम तौर पर ‘माग्नीतका’ के नाम से जाना जाता है. (4) अनवर हलील होक्ज़ा (1908-1985): द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात उभरकर आये अल्बानिया के कम्युनिस्ट नेता, संशोधनवादी शक्तियों के विरुद्ध कठोरता की नीति उनके नेतृत्व की चारित्रिक विशिष्टता रही.
मुक्ति के प्रश्न पर
दकाव की राख मेरे पाँवों में है,
जलते मांस की गंध से बोझिल धुआं मेरे भीतर इकट्ठा हो रहा,
मिसाइल और बोनेट
चुभ रहे हैं मेरे नाखूनों में.
अपनी प्रेमिका की एक बिखरी लट मैं सहलाऊँगा
और खुद भी धुँए में लिपटा जलने लगूँगा,
जैसे सलीब पर बिंधा हुआ ईसा,
जब रात में बमवर्षक ईसा के संतानों को ख़त्म करने पर तत्पर हों.
एक आकस्मिक विस्फोट के साथ काँपता है मेरा शरीर,
मानो वियतनाम पर अभी-अभी कोई बम गिरा हो.
मेरी पीठ और पसलियों को चीरती
बर्लिन की दीवार गुज़रती है.
आप मुझसे मुक्ति की बात करते हैं?
बमों से आच्छादित आकाश के नीचे, यह एक खोखला प्रश्न है.
अपने समय के बंधनों से मुक्त होना शर्म की बात है,
समय का दास होने से सौ गुना अधिक शर्मनाक.
हाँ, मैं ताशकंद की स्त्रियों की नियति की बेड़ियों में जकड़ा हूँ,
और जकड़ा हूँ डलास की चीख़ों और पेकिंग के नारों के लोहे में!
बंधक हूँ मैं वियतनाम की उन विधवाओं और रूस की औरतों की स्थिति का,
जिनकी आंखों पर पट्टी और बगल में फावड़े हैं.
हाँ, मैं पुश्किन और ब्लॉक से मुक्त नहीं,
न मेरीलैण्ड राज्य या ज़ीमा स्टेशन से.
मुक्त नहीं मैं शैतान से, और न ईश्वर से.
न पृथ्वी के सौंदर्य से, न इसकी विष्ठा की गंध से.
मैं बँधा हूँ उस प्यास से जो चाहती है सोखकर लोप कर देना.
दुनिया के समस्त विवादियों और हत्यारों की सोच.
बँधा हूँ मैं उस सम्मान से जिसका लक्ष्य है करना
दुनिया के सारे हरामज़ादों का अंत.
और फिर संभव है कि लोग मुझे प्यार करें इस कारण
कि मैं सारी ज़िंदगी इस प्रयास में लगा रहा
(जिसके अनगिनत उदाहरण मौजूद हैं इस लौह युग में)
कि मुक्ति संघर्ष के संदर्भ में मिले
दासता को एक नया अर्थ.
संदर्भ: म्यूनिख के समीप नाज़ी यातना शिविर का स्थल जहाँ विभिन्न आँकड़ों के अनुसार लगभग दो लाख लोगों को तरह-तरह की शारीरिक यातनाएँ दी गईं और फिर नष्ट किया गया. 10 जनवरी 1960 के ‘सण्डे एक्सप्रेस’ में प्रकाशित स्टेव गार्डनर की रपट के मुताबिक यह संख्या 2,30,000 है; मार्टिन नीलोमर, जो स्वयं दखाव में बंदी था, द्वारा दिए गए 1945 के दखाव स्थित एक अभिलेख के संदर्भ के आधार पर 2,38,756 लोगों का संहार किया गया.
स्टेन्का राज़िन का मृत्युदण्ड
सफेद चारदीवारी से घिरे मस्क्वा शहर में,
हाथ में पोस्ते के दाने वाला पाव लिए एक चोर दौड़ रहा है,
उसे डर नहीं आज कि भीड़ पकड़कर मार डालेगी उसे.
पाव रोटी खाने का भी उसके पास वक़्त नहीं…
स्तेन्का रज़िन को वे ला रहे हैं!
ज़ार एक छोटी बोतल से मैमज़ी पीने में मग्न है,
स्वीडनी आईने के सामने वह अपने चेहरे के मुँहासे को दबाता है
और खिसकाता है उँगली में पन्ने की राजकीय मुद्रिका –
चौक में स्तेन्का रज़िन को वे ला रहे हैं!
बड़े पीपे के पीछे लुढ़कते छोटे पीपे की तरह
अपने सफ़ेद दाँतों के बीच टॉफी का टुकड़ा चबाते,
बोयार का एक नन्हा बच्चा अपनी माँ के पीछे दौड़ता आ रहा.
आज छुट्टी का दिन है! स्तेन्का रज़िन को वे ला रहे हैं!
मटर के सेवन से वात-पीड़ित एक व्यापारी धकियाते आगे निकलना चाहता है
भीड़ में आगे-आगे उछल रहे हैं दो मसख़रे
शराब के नशे में धुत लफंगे कुछ बड़बड़ाते चल रहे…
स्तेन्का रज़िन को वे ला रहे हैं!
खुजली से भरे बूढ़े, जिनकी पीठ झुक रही है और लटक रही गर्दन की चमड़ी,
रख रहे हैं डगमगाते पाँव, मन-ही-मन कुछ बुदबुदाते हुए,
उनींदी अवस्था में बिस्तरों से अचानक निकलकर आई
कुछ बेशर्म लड़कियाँ भी आ रही हैं उचकते हुए,
मले हुए खीरे के बारीक टुकड़े चिपके हैं उनके चेहरों पर,
एक उत्तेजना है उनकी जाँघों के बीच…
स्तेन्का रज़िन को वे ला रहे हैं!
और राजकीय सुरक्षा प्रहरियों की पत्नियों की चीख़
और घृणा में बरसते थूक के बीच
एक जर्जर, डगमगाती गाड़ी पर वह आ रहा है,
हवा में उड़ रही है उसकी सफेद कमीज़.
वह चुप है, भीड़ के थूक में लिथड़ा हुआ,
वह चेहरा पोंछता नहीं है, केवल हँसता है एक तिरछी हँसी,
अपने-आप पर मुस्कराता हैः ‘‘स्टेन्का, स्टेन्का राज़िन, तुम उस शाख की तरह हो
जिसने अपनी पत्तियाँ खो दी है.
कितना बेतरह तुम चाहते थे मस्क्वा में आना!
और अब तुम मस्क्वा में आ रहे हो किस तरह…
ठीक है, मुझ पर थूको, सब थूको!
आखिर यह मुफ़्त का तमाशा है.
भलेमानुस, तुम उन पर थूकते हो
जो तुम्हारे हित के लिये सोचते हैं.
मैंने तुम्हारे हित की कितनी चिंता की –
फारस के समुद्र तट से गुज़रते
मुझे क्या पता था? किसी की नज़र,
एक तलवार, एक पाल, और एक गद्दा…
मैं कोई विद्वान नहीं था…
क्या शायद यही कारण था कि मेरी यह गति हुई?
ज़ार के लेखपाल ने मेरे जबड़ों पर पूरी ताक़त से चोट की,
बार-बार, हर बार पहले से अधिक आवेश में:
हर वार के साथ गूँजते शब्द -‘तुमने लोगों के विरूद्ध काम किया! किया कि नहीं?
इसका नतीजा तुम्हें पता चलेगा!’
मैं अपनी बात पर टिका रहा, बिना आँखें झुकाए.
मुंह से खून के साथ फूटा मेरा उत्तर:
‘बोयारों के विरूद्ध, अवश्य! लोगों के विरूद्ध, नहीं!’
मुझे ग्लानि नहीं, न कोई अपराध का भाव,
मैंने अपनी नियति स्वयं चुनी थी.
आपके सामने, मेरे भाइयों, मैं पश्चाताप करता हूँ,
मगर उस अपराध के लिए नहीं जो ज़ार का लेखापाल मुझसे सुनना चाहता है.
सब मेरी सोच का दोष है,
और इसके लिए मैं स्वयं को सज़ा दे रहा हूँ:
मैंने अपना काम अधूरा किया,
जबकि मुझे उसे अंतिम मकाम तक पहुँचाना चाहिए था.
नहीं, मेरा अपराध यह नहीं, मेरे भाइयों,
कि मैंने बोयारों को टॉवर से लटका फाँसी दिया.
मेरी नज़र में मेरा अपराध यह है
कि मैंने बहुत कम बोयारों का अंत किया.
मेरा अपराध यह है कि खलता से भरी इस दुनिया में
मैं एक भला मूर्ख था,
मेरा अपराध यह है कि दासता का शत्रु होने के बावजूद
मैं खु़द ही एक दास की तरह था,
मेरा अपराध यह है कि एक कल्याणकारी ज़ार के लिए
मैंने लड़ने को सोचा.
कोई ज़ार कल्याणकारी नहीं होता. ऐसी अपेक्षा मूर्खता है…
स्टेन्का, तुम निरर्थक मर रहे हो!’’
घड़ियालों की गूँजती आवाज़ मस्क्वा की हवा में तिरने लगी है.
वे स्टेन्का को वधस्थल पर ले जा रहे हैं.
स्टेन्का के आगे डग भरते जल्लाद के चमड़े का एप्रन
तेज़ हवा में फड़फड़ाते बज रहा है,
भीड़ के ऊपर लहराते उसके हाथ में
एक नीली कुल्हाड़ी है, वोल्गा नदी की तरह नीली,
तीक्ष्ण धार पानी की तरह चमकता.
भीड़ में उचकते थूथनों, भद्दे थोबड़ों
और कर अधिकारियों, मुद्रा विनियम के दलालों और आढ़तियों के
खाए-अघाए अश्लील चेहरों की तरफ स्टेन्का एक दृष्टि डालता है-
अत्यंत क्षणिक दृष्टि, जैसे धुंध से गुज़रती किरण की रेख.
उन चेहरों में, और उनकी आँखों में दूरी थी, एक विस्तृत पृथकता.
जिस राह पर वह चला उसके लिए यह क्षण उसे स्वीकार्य है –
वधस्थल की काठी पर सिर रखना, आँखों में बिना नमी के,
जब तमाशाइयों के भयावह रूप से उत्सुक चेहरे
एक चेहरा विहीन भीड़ से झाँक रहे हों.
और बिना किसी उद्विग्नता के (ज़ाहिर है वह अकारण नहीं जीवित रहा)
स्टेन्का ने खाँचे में गर्दन डाली,
अपनी ठुड्ढी को लक्रड़ी के ठीहे पर स्थिर किया,
और सर के पीछे चिल्लाकर आदेश दिया – “कुल्हाड़े का वार…!’’
गर्म रक्त में लिथड़ा सिर गिरकर लुढ़कने लगा.
वधमंच से दण्डाधीश का स्वर उठा – “यह मृत्युदण्ड अतिआवश्यक था!’’
देशभक्त नागरिकों, आप लोग चुप क्यों खड़े हैं? खुशियाँ नहीं मना रहे, क्यों?
टोपियाँ हवा में उछालें और झूमें!
लेकिन रेड स्कवेयर में सन्नाटा है,
कुल्हाड़े हवा में नहीं लहरा रहे,
चुप हो गए हैं मसख़रे तक.
इस मृत्यु-सी निस्तब्धता में सिर्फ़ कुछ पिस्सुओं में हरकत है,
जो किसानों के कोटों से निकल घुस रहे हैं औरतों के चोगों में.
शायद कुछ मोटी बुद्धिवालों की समझ में आई है कोई बात,
वे अचानक अपनी टोपियाँ जोश में उछालने लगे हैं.
घंटे ने तीन बार कर्कश ध्वनि की है,
लेकिन ख़ून में सने बालों के लटों में लिपटा सिर
अभी भी थरथरा रहा था, अभी भी बाकी था रक्त प्रवाह का वेग.
रक्त से भीगे वधस्थल के सामने
जहाँ कुछ निम्नवर्गीय दर्शकों का समूह खड़ा था,
स्तेन्का की खुली आँखें सीधी देख रही थीं, जैसे कोई अज्ञात संदेश देती…
काँपता हुआ पुजारी घबराहट में उठा और भागा सिरमुण्ड की ओर,
कोशिश की स्तेन्का की पुतलियों को बंद करने की.
मगर जमकर कठोर हो गई पुतलियाँ खुली रहीं, उठी रहीं पलकें.
उन तीखी, घूरती आँखों की भयावहता के कारण
सरक कर गिरने लगा ज़ार का मोनोमाख का टोप,
और अपनी जीत के उस क्षण में, एक भीषण स्वर के साथ
स्टेन्का का सिर ज़ार की अशक्तता पर हँसने लगा था.
संदर्भ: (1) स्टीफन (स्तेन्का) तिमोफियेविच रज़िन (1630-1671): कज़ाक प्रजाति का एक इतिहास पुरुष जिसने ज़ार के आधिपत्य तथा कुलीन वर्ग के वर्चस्व को चुनौती दी; दास प्रथा का विरोधी, स्तेन्का ने शोषित और वंचित वर्गों की समानता के लिये एक वृहत सशस्त्र संघर्ष का नेतृत्व किया और रूस के लगभग सम्पूर्ण दक्षिणी क्षेत्र को ज़ार के शासन से मुक्त करा अपने प्रभुत्व में लिया; 1671 में उसे बंदी बना, 6 जून को सार्वजनिक रूप से मस्क्वा में शिरोच्छेद कर मृत्युदण्ड दिया गया. (2) मैमज़ी: रूस और स्पेन आदि देशों की एक तेज़, मीठी शराब. (3) बोयार: रूसी राजतंत्र के काल में उच्चतम सैन्य तथा प्रशासकीय पदों पर आसीन एक अतिप्रभावशाली कुलीन वर्ग; तत्कालीन रूस के सामाजिक-आर्थिक ढाँचे में, बोयार होने का अर्थ था विशाल भूखण्ड, अनगिनत दासों और विशिष्ट राज्याधिकारों का स्वामी होना. (4) मोनोमाख टोप: ज़ार ब्लादिमीर मोनोमाख (ई.1113-1125) के नाम से प्रसिद्ध, स्वर्ण-निर्मित, बहुमूल्य रत्नों से अलंकृत रूस के शासक का परम्परागत राजकीय मुकुट.
अनुवादक की टिप्पणी
चारों कविताएँ अंग्रेज़ी अनुवादों से भाषांतरित हैं. हर कविता एक से अधिक अंग्रेज़ी अनुवादों पर आधारित है, ताकि कविता की अंतर-वस्तु अपने मूल अर्थ और संदर्भ के अधिक से अधिक समीप रहे. दो भाषाओं की अलग चरित्र-विशिष्टता के कारण कहीं-कहीं काव्य-अभिव्यक्ति बदल दी गई हैं.
मदन केशरी पश्चिमी बिहार के एक छोटे-से कस्बे डुमराँव (जिला बक्सर) में मार्च, 1960 में जन्म और वहीं प्रारम्भिक शिक्षा. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से स्नातक और अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर. अमरीकी साहित्य में विशिष्टता. मार्क्सवाद से गहरे प्रभावित. दुनिया की बहुत-सारी चीजों में रुचि- साहित्य, सिनेमा, संगीत, प्राचीन भारतीय इतिहास और पुरातत्त्व, छायांकन, अभिनय, लोक-कलाएँ आदि.कविताएँ और राजनीतिक-सामाजिक घटनाचक्र पर आलेख और टिप्पणियाँ पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित. गुंटर ग्रास, बर्तोल्त ब्रेख्त, येवगेनी येव्तुशेंको, मिरोस्लाव होलुब तथा तदेउज रोजेविज की महत्त्वपूर्ण कविताओं का हिन्दी में अनुवाद. सम्पर्कः |
सशक्त कविताएँ, प्रभावी अनुवाद।
येवगेनी येव्तुशेन्को के नाम से संभवतः श्रीकांत वर्मा ने पहली दफा हिंदी संसार को परिचित कराया था। उनके द्वारा अनुदित पुस्तक –फैसले का दिन –येव्तुशेन्को की कविताओं का अद्भुत संचयन है जो लगभग 45 वर्ष पूर्व संभावना प्रकाशन ने प्रकाशित किया था। यह बात सिर्फ संदर्भ के लिए। मदन केशरी को प्रवाहपूर्ण और सुंदर अनुवाद के लिए बहुत-बहुत बधाई।
’फ़ैसले का दिन’ तो अन्द्रेय वज़निसेंस्की की कविताओं के अनुवादों की किताब है। अशोक जी, आप शायद भूल गए हैं।
येव्तुशेंको की कविता के फोर्स को अनुवाद में उतारना बहुत कठिन है किंतु मदन केशरी ने इसमें सफलता पाई है।
सशक्त और ओजपूर्ण कविताएं। मार्मिकता की चाशनी में डुबोया बिल्कुल यथार्थ अनुवाद सुंदर बहुत बहुत धन्यवाद।
यह पेशकश महत्वपूर्ण है। मदन केशरी जी को बधाई।
समालोचन का मंच अनुपेक्षणीय हो चुका है।
मेरा अध्ययन कम है । समालोचन के कई अंक मुझे अहसास करा जाते हैं । स्टालिन, निकिता क्रुश्चेव, सोल्ज़ेनित्ज़िन (वर्तनियाँ ग़लत हो सकती हैं) और मिखाइल गोरबाचेव सुने हुए नाम हैं । मदन केशरी मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित हैं । इसके बावजूद भी जनता पर ढाये गये ज़ुल्मों के विरोध में बोलते और लिखते हैं । येवगेनी येव्तुशेन्को के लिये लिखी गयी प्रस्तावना आगे आने वाली विषय वस्तु का आभास करा देती है । कविता में वृक्ष न्यायाधीश का काम करता है । हिटलर द्वारा यहूदियों पर ज़्यादतियों का ज़िक्र है । पीपा और थोबड़ा पढ़कर मुझे आश्चर्य हुआ । वियतनाम पर गिराये गये बम की चर्चा है ।
स्टालिन के अपनी रियाया के क़त्लेआम पर एक पंक्ति में साध्य को प्राप्त करने के लिये साधन की पवित्रता का उल्लेख किया गया है । कवि का जन्म साइबेरिया के कैंप में हुआ । वे 11 वर्ष की आयु में कैंप से बाहर निकलकर पढ़ सके । जिस समय इनकी कविताएँ रशिया में नहीं छप रही थीं तब दूसरे मुल्कों में छपी । मास्को की फ़ौजों ने चेकस्लोवाकिया को टैंकों से रौंदा था इसका उल्लेख करना कवि नहीं भूले । मदन केशरी और प्रोफ़ेसर अरुण देव जी को बधाई ।
इतिहास के बर्बर दौर की मर्मस्पर्शी कविताएँ।सचमुच सभ्यता का इतिहास बर्बरता का भी इतिहास है। अच्छा अनुवाद।
येवगेनी येव्तुशेन्को की कविताओं का अनुवाद प्रभावशाली लगा।
संदर्भ देने से कविता को समझने में आसानी होती है। बहरहाल, कविताओं में प्रतिरोध की भाषा सशक्त है।
हीरालाल नागर