• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » डॉ. स्वांते पैबो: 2022 का चिकित्सा/ शरीरक्रियाविज्ञान का नोबेल पुरस्कार: शरद कोकास

डॉ. स्वांते पैबो: 2022 का चिकित्सा/ शरीरक्रियाविज्ञान का नोबेल पुरस्कार: शरद कोकास

2022 का नोबेल पुरस्कार चिकित्सा के क्षेत्र में डॉ. स्वांते पैबो को दिए जाने की घोषणा हुई है. क्या है उनके ख़ोज का विषय और उसका क्या महत्व है, चर्चा कर रहें हैं लेखक शरद कोकास

by arun dev
October 5, 2022
in विज्ञान
A A
डॉ. स्वांते पैबो: 2022 का चिकित्सा/ शरीरक्रियाविज्ञान का नोबेल पुरस्कार:  शरद कोकास
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

डॉ. स्वांते पैबो
2022 का मेडिसिन/फिजियोलॉजी का नोबेल पुरस्कार

शरद कोकास

डॉ. स्वांते पैबो को मिले नोबल पुरस्कार के सन्दर्भ में आइये हम अपने आप से अपना परिचय प्राप्त करते हैं. लेकिन पहले डॉ. स्वांते पैबो का संक्षिप्त परिचय जानना उचित होगा.

डॉ. स्वांते पैबो उन्हीं स्वीडिश बायोकेमिस्ट कार्ल सुने डेटलोफ बर्गस्ट्रॉम के बेटे हैं, जिन्हें 1982 में फिजियोलॉजी या मेडिसिन में ‘प्रोस्टाग्लैंडिन’ नामक एक बायोकेमिकल पर शोधकार्य हेतु नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ था. स्वीडिश आनुवंशिकीविद डॉ. स्वांते पैबो वर्तमान में जर्मनी के लीपज़िग में मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फॉर इवोल्यूशनरी एंथ्रोपोलॉजी में निदेशक हैं.

उल्लेखनीय बात यह है कि विगत तीन अक्टूबर को वर्ष 2022 का मेडिसिन/फिजियोलॉजी का नोबेल पुरस्कार डॉ. स्वांते पैबो को प्रदान किये जाने की घोषणा की गई है. नोबेल समिति के अनुसार, डॉ. स्वांते पैबो को ‘विलुप्त होमिनिन और मानव विकास के जीनोम से संबंधित खोजों’ के लिए यह  पुरस्कार प्राप्त हुआ है.  डॉ. स्वांते पैबो की खोज हमें यह समझने में मदद करती हैं कि अपने विलुप्त पूर्वजों से आधुनिक मानव का विकास कैसे संभव हुआ. आइये उनकी खोज के आलोक में कुछ बातों पर विचार करते हैं.

मानव शब्द भले आपके लिए चिर परिचित हो लेकिन ‘मानव जीनोम’ यह शब्द आपके लिए नया हो सकता है. चलिए आपको बताता हूँ कि यह ‘जीनोम’ क्या है. यह तो हमें पता है कि हमारा शरीर कोशिकाओं से बना है. कोशिका के भीतर दो चीजें मुख्य रूप से होती हैं डी एन ए और प्रोटीन. डी एन ए का अर्थ है ‘डीआक्सीराइबो न्यूक्लीइक एसिड’ . डी एन ए वस्तुतः एक अणु होता है जिसकी संरचना घुमावदार सीढ़ी की तरह होती है.

हमारे शरीर में डी एन ए सामान्यतः गुणसूत्र या क्रोमोसोम के रूप में होता है. गुणसूत्र या क्रोमोसोम में भले ही प्रोटीन और डी एन ए दोनों हो लेकिन डी एन ए ही जीन कहलाता है. जीन का यह ख़ास सेट ‘मानव जीनोम’ कहलाता है. यह कोशिका के केन्द्रक में स्थित होता है. एक कोशिका में गुणसूत्रों का सेट जीनोम का निर्माण करता है. मानव जीनोम में इन 46 गुणसूत्रों की व्यवस्था में डी एन ए के आधार जोड़े लगभग 3 अरब हैं. इसी डी एन ए में अनुवांशिक कूट या जेनेटिक कोड निबद्ध रहता है.

सरल भाषा में कहा जाए तो इस तरह जीनोम किसी कोशिका के भीतर जींस की जानकारी वाले खास सेट होते हैं. जीनोम के भीतर स्थित डीएनए में उस जीव की सम्पूर्ण आनुवांशिक जानकारी रहती है. जीनोम कही जाने वाली ये इंफॉर्मेशन डीएनए मॉलिक्यूल्स से निर्मित होती है और  जब भी कोशिका विभाजित या कॉपी होती है तब यह सूचना भी साथ-साथ कॉपी होती है.

अब हम देखते हैं कि स्वीडिश आनुवंशिकीविद डॉ. स्वांते पैबो ने मानव विकास से सम्बंधित जीनोम और एक विलुप्त प्रजाति की खोज करते हुए आखिर खोजा क्या है?

आपको यह तो पता ही होगा कि अपनी प्रजाति में हम आधुनिक मानव यानि ‘होमो सेपियंस’ हैं. संभव है बहुत से लोगों ने ‘होमो’ शब्द अभी तक ‘होमो सेक्सुअल’ इस सन्दर्भ में ही सुना हो लेकिन इसका एक व्यापक अर्थ है. चलिए आपको ‘होमो’ शब्द का अर्थ बताता हूँ. ‘होमो’ लैटिन भाषा का एक शब्द है जिसका अर्थ होता है ‘मानव’. आप कहेंगे, ओह इतना सरल अर्थ है इसका ? चलिए ‘होमो’ के विस्तार में जाने से पूर्व एक शब्द और देखते हैं.

हम जानते हैं, संसार में जीव जंतुओं की अनेक प्रजातियाँ हैं. जिन प्रजातियों का विकास एक साझा पूर्वज से होता है उन्हें ‘जीनस’ कहते हैं और इनका बहुवचन ‘जीनेस’ होता है, जैसे शेर यानी लायन, बाघ यानी टाइगर, तेंदुआ यानी लेपर्ड, चीता यानी जैग्वार यह सब ‘पैन्थेरा’ जीनस में आते हैं. उसी तरह हम सब मनुष्य ‘होमो’ अर्थात ‘मानव जीनस’ में आते हैं और हमारी प्रजाति ‘सेपियंस’ यानी बुद्धिमान कहलाती है. इस तरह ‘होमो सेपियंस’ का अर्थ ऐसे मानव से है जो बुद्धिमान, प्रज्ञावान और चिंतनशील हैं.

ठीक उसी तरह विगत के मानव की अन्य प्रजातियों के भी नाम हैं जिनके साथ ‘होमो’ शब्द जुड़ा है जो उन्हें एक विशेष अर्थ प्रदान करता है.  जैसे विगत के तनकर खड़े होने वाले मनुष्य ‘होमो इरेक्टस’ कहलाते थे, ‘होमो सोलोएंसिस’ वे मनुष्य थे जिनके अवशेष इंडोनेशिया जावा में, सोलो नदी की सोलो घाटी में मिले हैं. उसी तरह कामकाजी मनुष्य ‘होमो एर्गास्टर’ तथा औजार बनाने वाले मनुष्य ‘होमो हैबिलिस’ कहलाते थे. ‘होमो डेनिसोवा’ यानी वे मनुष्य हैं जिनके अवशेष डॉ. स्वांते पैबो को साइबेरिया की डेनिसोवा गुफा में मिले थे.

उसी तरह ‘होमो नियंडरथल’ का अर्थ हुआ ऐसे मनुष्य जो योरोप और पश्चिम एशिया के होमो सेपियंस के मुकाबले अपेक्षाकृत स्थूलकाय एवं हृष्टपुष्ट थे. डॉ. स्वांते पैबो की खोज मुख्यतः इन्ही ‘होमो सेपियंस’ और ‘होमो नियंडरथल’ पर केन्द्रित है. फिलहाल हम पूरी तरह होमो सेपियंस ही पृथ्वी पर शेष बचे हैं. लेकिन हम बुद्धिसम्पन्न मनुष्य यहाँ आये कब थे ?

विभिन्न वैज्ञानिक, पुरातात्विक खोजों से ज्ञात हुआ है कि हम होमोसेपियंस इस धरती पर सबसे पहले अफ्रीका में लगभग तीन लाख साल पहले दिखाई दिए थे. लेकिन हमसे पहले भी जो मानव प्रजाति अफ्रीका से बाहर विचरण कर रही थी वह नियंडरथल मानवों की थी. नियंडरथल मानव लगभग चार लाख साल पहले धरती पर आये थे और यूरोप व एशिया के अधिकतर भूभागों में उनका अस्तित्व था.

वर्षों तक नियंडरथल और होमोसेपियंस पृथ्वी के विभिन्न भूभागों में सहअस्तित्व के साथ जीते रहे. आधुनिक मानव का विकास ‘होमो इरेक्टस’ यानी बिलकुल सीधे खड़े होकर चलने वाले मानवों की परंपरा में  हुआ है और हम होमो सेपियंस अर्थात बुद्धिसंपन्न आधुनिक मानव हैं. वैसे तो माना जाता है कि हम आधुनिक मानव  या क्रोमैगनन चालीस हजार वर्ष पुराने हैं लेकिन लगभग सत्तर हज़ार वर्ष पूर्व हमारे कुछ पूर्वज आधुनिक मानवों का अफ्रीका से एशिया की धरती पर आगमन हो चुका था. इधर हृष्टपुष्ट नियंडरथल मानव आज से लगभग तीस हज़ार वर्ष पूर्व पूरी तरह  विलुप्त हो चुके थे और केवल बुद्धिसम्पन्न होमोसेपियंस आधुनिक मानव ही शेष बचे थे.

इसका अर्थ यह हुआ कि सत्तर से तीस हज़ार साल के बीच लगभग चालीस हज़ार साल का ऐसा एक कालखंड अवश्य था जिसमे होमो सेपियंस मानव और नियंडरथल मानव दोनों एक साथ यूरोप और एशिया के कुछ भूभागों में सहअस्तित्व के साथ कहीं न कहीं उपस्थित थे.

यह 1990 का  दशक था जब वैज्ञानिकों ने मानव के जेनेटिक कोड का अध्ययन प्रारंभ किया. इस समय तक विज्ञान बहुत आगे बढ़ चुका था और मनुष्य के भविष्य के निर्माण के लिए ही नहीं उसका विगत जानने के लिए भी नई तकनीक का सहारा लिया जा रहा था. डॉ स्वांते पैबो  ने इन्हीं उपकरणों एवं नई तकनीक की मदद से नियंडरथल मानव के जेनेटिक कोड का अध्ययन प्रारंभ किया.

लेकिन उनके अध्ययन के लिए नियंडरथल मानव उपस्थित कहाँ था ? वह तो तीस हज़ार वर्ष पूर्व ही पूरी तरह विलुप्त हो चुका  था. अतः नियंडरथल मानव की अनुवांशिकता के बारे में पता लगाने के लिए उसका डीएनए पूर्ण अवस्था में मिलना बहुत कठिन था.

Photo courtesy: JESSICA SAMPLE FOR THE WALL STREET JOURNA

डॉ. पैबो को यह जीन कैसे मिला यह जानने से पूर्व माईटोकॉन्डरिया नामक जीन के बारे में जानना ज़रूरी है. माईटोकॉन्डरिया जीन हमारी कोशिकाओं में मौजूद डीएनए की एक विशेष संरचना होती है जिसे कोशिका का पावर हाउस भी कहा जाता है. म्युनिख विश्वविद्यालय में काम करते हुए डॉ. स्वांते पैबो ने माईटोकॉन्डरिया में उपस्थित इस विशेष डीएनए के अध्ययन पर ध्यान केंद्रित किया. यद्यपि माईटोकॉन्डरिया के डीएनए में कोशिका के अन्य डीएनए की अपेक्षा बहुत  अल्प जानकारी निबद्ध होती है लेकिन उन्हें नियंडरथल के जीन के अध्ययन में यह कोशिका के अन्य डीएनए की तुलना में बेहतर स्थिति में प्राप्त हो रहा था अतः सफलता की संभावना बढ़ गयी थी.

किन्तु अल्प अध्ययन और शोध के आधार पर कोई ठोस संभावना व्यक्त नहीं की जा सकती थी उसके लिए किसी होमो नियंडरथल मानव के डीएनए के अंश का प्राप्त होना अति आवश्यक था. अंततः उन्हें  2010 में दक्षिणी साइबेरिया की ‘डेनिसोवा’ नामक एक गुफा में 40000 वर्ष पूर्व के मनुष्य की उँगली की एक हड्डी प्राप्त  हुई. उन्होंने उस हड्डी की डीएनए सीक्वेन्सिंग प्रारंभ की.

जेनेटिक विश्लेषण द्वारा उन्हें ज्ञात हुआ कि उस हड्डी का डीएनए न तो नियंडरथल के डीएनए से मिलता था और न ही आधुनिक मानव के डीएनए से. यह मानव की एक सर्वथा नई प्रजाति थी. जिस जगह यह हड्डी मिली थी वह डेनिसोवा गुफा थी. इस आधार पर उन्होंने इस नई प्रजाति को ‘होमो डेनिसोवा’ नाम दिया. ‘होमो  डेनिसोवा’ और ‘नियंडरथल’ लगभग 600000 साल पहले एक दूसरे से अलग हुए थे.

अपनी नई तकनीक के द्वारा डॉ पेबो ने नियंडरथल मानव की इस चालीस हज़ार साल पुरानी हड्डी के माईटोकॉन्डरिया के डीएनए का सीक्वेन्स बनाने में सफलता हासिल कर ली. और यह पहला सबूत था जो यह बताता है कि आधुनिक मानव नियंडरथल से जेनेटिक तौर पर भिन्न है. अर्थात यह एक भिन्न प्रजाति है. इस आधार पर उन्होंने यह स्थापना दी कि आज से आठ लाख वर्ष पूर्व  हमारा अर्थात  होमो सेपियंस और नियंडरथल मानव का एक कॉमन पूर्वज इस धरती पर अवश्य रहा होगा.

इंसान की निएंडरथल नामक इस विलुप्त हो चुकी प्रजाति के जीनोम की खोज के दौरान उन्होंने एक ऐसी तकनीक विकसित कर ली जिससे किसी भी जीवाश्म के जीनोम तक पहुंचा जा सकता है. डॉ. पेबो ने ऐसी तकनीक विकसित की है जिससे जीवाश्म के रूप में मिलने वाली छोटी-छोटी  हड्डियों से भी उस प्राणी का जीनोम ज्ञात किया जा सकता है.

निरंतर अध्ययन करते हुए डॉ स्वांते पैबो और उनकी टीम को आधुनिक मानव के डीएनए में भी नियंडरथल मानव के डीएनए के अंश प्राप्त हुए जिसके द्वारा यह संभावना व्यक्त की गई कि आधुनिक मानव और नियंडरथल मानव के बीच अनेक वर्षों तक अंतर-प्रजनन की प्रक्रिया जारी रही होगी. यह माईटोकॉन्डरिया के डीएनए के अध्ययन माध्यम से परिलक्षित की जा सकती है.

पुरावैज्ञानिक, पुरातत्त्ववेत्ता, आनुवंशिकीविद, नृतत्वशास्त्री (anthropologist ) गोया हर तरह के वैज्ञानिक कभी एक बिंदु पर ठहरते नहीं हैं. डॉ स्वांते पैबो की खोज भी जारी रही. उन्होंने अपने अध्ययन में दक्षिण पूर्व एशिया के अनेक लोगों को शामिल किया. आश्चर्य यह कि उन्हें उस आबादी में से छह प्रतिशत लोगों में उसी डेनिसोवा मानव के डीएनए के अंश प्राप्त हुए. इस आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया कि इस प्रजाति का संपर्क यहाँ के निवासियों से भी हुआ होगा.

डॉ. पेबो विगत चालीस से भी अधिक वर्षों से शोधकार्य में लगे हैं. उन्होंने  ऐसी तकनीक विकसित की  है, जिससे लाखों वर्ष  पुराने जीनोम का भी सटीक विश्लेषण किया जा सकता है.  इस तकनीक के द्वारा  किसी भी डीएनए से, बैक्टीरिया, फंगस, धूल आदि का प्रभाव,  मौसमी परिवर्तन, जलवायु का प्रभाव और बाहरी रासायनिक परिवर्तन का प्रभाव जैसे कारकों के बारे में पता लगाया जा सकता है.

विगत बीस वर्षों से इस तकनीक में निरंतर वृद्धि हो रही है, यहाँ तक कि अब इसके माध्यम से एक साथ लाखों डीएनए का विश्लेषण किया जा सकता है.

वैज्ञानिक हमारे पूर्वजों के जीवन उनकी दैहिक संरचना, उनके डी एन ए का अध्ययन केवल इतिहास या संस्कृति की खोज के उद्देश्य से अथवा विज्ञान के सिद्धांतों की स्थापना हेतु नहीं करते हैं. उनके हर कार्य के पीछे व्यापक उद्देश्य होते हैं. इस तरह के शोध के आधार पर हम अपने शरीर और उसकी चिकित्सा के विषय में अपनी जानकारी का परिमार्जन करते हैं. यह अध्ययन हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता के विकास को समझने में, नई औषधियों के निर्माण में, और मनुष्य जाति को एक बेहतर भविष्य देने की दिशा में भी हमारी मदद करता है.

शरद कोकास

दुर्ग, छत्तीसगढ़

9425555160
Tags: 20222022 विज्ञानSvante Pääboडॉ. स्वांते पैबोशरद कोकास
ShareTweetSend
Previous Post

गांधी और तत्कालीन हिंदी पत्रिकाएँ: सुजीत कुमार सिंह

Next Post

सेवाग्राम में क्रिस्तान: सुरेन्द्र मनन

Related Posts

नारायण सुर्वे: शरद कोकास
आलेख

नारायण सुर्वे: शरद कोकास

शैलेन्द्र: ज़िंदगी की जीत पर यक़ीन करने वाला कवि: शरद कोकास
आलेख

शैलेन्द्र: ज़िंदगी की जीत पर यक़ीन करने वाला कवि: शरद कोकास

पुरुरवा उर्वशी की समय यात्रा:  शरद कोकास
कविता

पुरुरवा उर्वशी की समय यात्रा: शरद कोकास

Comments 18

  1. SHARAD KOKAS says:
    3 years ago

    उम्मीद करता हूं मित्रों को यह लेख पसंद आएगा

    Reply
    • Sheel Nigam says:
      3 years ago

      बहुत सुंदर व सटीक विवेचना

      Reply
  2. अनिता रश्मि says:
    3 years ago

    उत्तम आलेख

    Reply
  3. कौशलेंद्र says:
    3 years ago

    वाह! थोड़ी जानकारी तो थी पर समालोचन पर चिकित्सा जगत का लेख देखकर सुखद लग रहा है। आपके कारण इतनी विविध सामग्री पढ़ने को मिल रही है🙏

    Reply
  4. अरुण सातले, खण्डवा says:
    3 years ago

    महत्वपूर्ण,,,शोध परक आलेख।

    Reply
  5. Neetu Sumit Sharma says:
    3 years ago

    वाह! एग्जाम की तैयारी करने की वजह से फुरसत के क्षण कम थे, फिर भी सोचा कि यह लेख थोड़ा पढ़ा जाए। रुचिकर बात यह रही कि इसे पढ़ते हुए एक बार भी यह न सोचना कि कितना बड़ा लेख है और मेरे साहित्य से ‘फिलहाल’ इसका सम्बन्ध नहीं है…विज्ञान के शब्दों को बहुत ही आसान भाषा में समझाने और बढ़िया जानकारी के लिए आभार

    Reply
  6. Anonymous says:
    3 years ago

    Bdiya Article.

    Reply
  7. मधु सक्सेना says:
    3 years ago

    बहुत बढ़िया जानकारी सरल शब्दों में ।
    धन्यवाद शरद जी ……

    Reply
  8. Dr. Nutan Gairola says:
    3 years ago

    बहुत अच्छा लेख, डा. सवांते पैबो को समालोचन से ही बधाई, शरद कोकस जी के इस लेख को पढ़ते हुए बचपन की आदि मानव की किताब और चिकित्सीय विज्ञान के कई पन्नो में पहुंच गई। यह मेरा पसंदीदा विषय भी था। और बचपन के कुछ ऐसे निशान मस्तिष्क में है जो पीछा नहीं छोड़ते। गांव , यानी ऊंचे हिमालय में बसा हमारा गांव में , हमारे घर जिस चट्टान पर से चढ़ कर जाते थे उस पर गहरे चलने के पदचिन्ह और डेढ़ दो फीट लंबे पैर कुछ कदम , एकल यात्री था वह। यह येती मानव या नियेनडरथल मानव हो सकता था। सोचती थी इस पर कोई शोध करे। लेकिन एक बार गांव गई तो उस चट्टान पर सीडी बनाने के लिए वह चट्टान काट दी गई। सो मन में एक क्षोभ और गुस्सा भरा कि इस अति दुर्लभ चीज की भी किसी को परवाह नहीं।। वैसे ही इन दिनों किसी इंसानी खोपड़ी कीएक पत्थरनुमा आकृति मेरे पास है। शायद जीवाश्म हो नदी में मिली।उसका क्या करना है ज्ञात नही ।

    इस नोबल पुरस्कार की जानकारी तो थी पर शोध के बारे में पढ़ना रोचक लगा । धन्यवाद समालोचन इसे साझा किया।

    Reply
  9. Sushma Singh says:
    3 years ago

    शरद भाई,कमाल का लेख लिखा ।जिज्ञासावश पढ़ते ही चले गये ,ग़ज़ब की जानकारी दी है आपने ।आपका तरीक़ा ऐसा है,जैसे आपने पाठक को सम्मोहित कर लिया हो, कि वह इधर-उधर का कुछ सोच ही न सके,उसी में रमा रहे।एक कठिन विषय को आपने बहुत सरलता से समझा दिया ।बहुत-बहुत साधुवाद !

    Reply
  10. Khudeja Khan says:
    3 years ago

    महत्वपूर्ण जानकारी से लैस है लेख।
    ज्ञान में वृद्धि करता है।

    Reply
  11. Anonymous says:
    3 years ago

    Behtreen silsilevar jankari , dhanyvad ji

    Reply
  12. Anonymous says:
    3 years ago

    आजकल ऐसे ही विषयों पर हमलोग चर्चा में लगे हैं। यह लेख सहयोगी होगा।

    Reply
  13. Sanjeev buxy says:
    3 years ago

    वाह बहुत बढिय़ा लेख।बधाई

    Reply
  14. Aishwarya Mohan Gahrana says:
    3 years ago

    बहुत रोचक शैली से लिखी गई गंभीर जानकारी| रोचकता बनाए रखने के फेर में या जाने वाले हल्केपन को दूर रखने में सफलता साधने के लिए लेखक को बधाई|

    Reply
  15. Kartar Singh says:
    3 years ago

    यह खोज मानव विकास को समझने में बहुत ही ज्यादा कार्यगर साबित होगी

    Reply
  16. Tenkeshwar Meshram says:
    3 years ago

    बहुत ही सरल भाषा में मानव संरचना की जानकारी दी धन्यवाद

    Reply
  17. D B Kardekar says:
    3 years ago

    बहुत सुंदर लेख. वैज्ञानिक जानकारी बहुत गहन अभ्यास के साथ सरल हिंदी में प्रस्तुत की गयी. शरदजी का अभिनंदन एवं साधुवाद.

    Reply

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक