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Home » पुरुरवा उर्वशी की समय यात्रा: शरद कोकास

पुरुरवा उर्वशी की समय यात्रा: शरद कोकास

कविता कविता होती है या फिर नहीं होती, ‘गद्य कविता’ जैसी कोई चीज नहीं है. जिसे हम ‘गद्य कविता’ कहते हैं उसका सिर्फ़ यही संकेत है कि प्रचलित कविता संरचना से यह कुछ अलग दिखती है. एक समय में जिसे हम आज कविता कहते हैं कुछ लोग उसके आगे भी ‘गद्य’ लगा देते थे. शरद कोकास की लम्बी कविता ‘पुरुरवा उर्वशी की समय यात्रा’ पुरुरवा और उर्वशी की समकालीन व्यथा है. ऐतिहासिक और मिथकीय चरित्रों को कवि समकालीन बनाकर उनके अर्थ का विस्तार करते रहे हैं. इस कड़ी में यह कविता महत्वपूर्ण कही जाएगी. समकालीन होकर यह स्त्री-पुरुष के सहजीवन की त्रासद विवशता पर भी बहुत कुछ कहती है. कविता के सौन्दर्यबोध का यह नवीन अध्याय आपको रुचेगा ऐसी उम्मीद है. प्रस्तुत है

by arun dev
March 22, 2023
in कविता
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पुरुरवा उर्वशी की समय यात्रा:  शरद कोकास
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(लम्बी कविता)
पुरुरवा उर्वशी की समय यात्रा

शरद कोकास

 

स्वर्ग के कानन में खिले पारिजात के फूलों ने धरती पर झरकर ब्राह्मी लिपि में यह इबारत नहीं लिखी थी न यह बात बादलों ने अपने उतावलेपन में उर्वशी से कही थी कि पुरुरवा संसार के सबसे सुंदर पुरुष हैं, यद्यपि बादलों को ज्ञात नहीं था कि कभी उन्हें क्लाउड कहा जायेगा और राजा रवि वर्मा की बनाई पुरुरवा की तस्वीर डी पी और प्रोफाइल पिक अपलोड करने वाले प्रेमियों की तस्वीर के साथ क्लाउड पर वर्षों तक विद्यमान रहेगी.

प्राचीन आख्यान में नारद के मुखारविंद से प्रकट हुई थी यह बात जो उन्होंने इंद्र से कही थी और जिसे उर्वशी ने भवन की किसी दीवार से कान लगाकर सुना था कि धरती पर एक पराक्रमी राजा हैं जिनका नाम पुरुरवा है और जो बृहस्पति की पत्नी तारा के चन्द्रमा द्वारा उत्पन्न पुत्र बुध के पुत्र हैं और इला उनकी माता हैं, चन्द्रमा के जींस की वजह से इतने सुंदर कि संसार में उनसा सुंदर कोई और नहीं.

सनसनाती हवाओं ने बहुत कोशिश की, मृदंग और झर्झर ऐरावत की चिंघाड़ में स्वर मिलाकर डी जे के हाई डेसिबल साउंड में चीखने लगे लेकिन उर्वशी के मन को भाने वाले संवादों को वे कैसे रोक पाते, कि उनके कानों तक पहुँचते ही कानों की लवें गर्म होने लगीं और इस तरह लाल जैसे रक्त बस एक पग रखते ही बाहर आ जाएगा फिर उसका हेड फोन भी नया था और ब्रांडेड भी जो उसने ऑनलाइन मंगवाया था.

उसके स्वप्न में धरती पर सखियों के साथ विचरण के दृश्य थे  जिनमें केशी नामक दैत्य से छुड़ाने वाला सुन्दर राजकुमार पुरुरवा ही था जो भविष्य की हिंदी फिल्मों में विलेन से लड़कर नायिका को बचाने वाला आदिम नायक बनने वाला था, मगर सब कुछ गड्डमड्ड था साहित्य में, वेदों की ऋचाओं से लेकर कालिदास के काव्य पर लिखे आख्यानों में और अपने निहित स्वार्थ में आधुनिक काल में लिखी जा रही कविताओं के संकलनों की समीक्षाओं तक में.

इंद्र के दरबार में घटित भरत मुनि के नाटक में उर्वशी की जिह्वा पर सरस्वती विद्यमान थी और ‘संसार में सबसे सुंदर पुरुष कौन’ जैसे प्रश्न के उत्तर में लक्ष्मी बनी उर्वशी के मुख से पुरुषोत्तम यानी विष्णु के स्थान पर पुरुरवा निकलना अवश्यम्भावी था, नाट्य संस्थाओं में नायिका और निर्देशक स्क्रिप्ट से बाहर भी प्रेम संवादों की रिहर्सल कर रहे थे आभासी संसार के भास में अब भी आधुनिक ओरिजिनल पुरुरवा की खोज शेष थी इस तथ्य के आलोक में कि प्रेम में अपना प्रिय देवी देवताओं से भी अधिक सुन्दर लगता है.

लेकिन प्रेम में ईश्वर की अवमानना वह भी एक पुरुष के लिए ? सजग हो गए देवता कि उर्वशी के मुख से यह शब्द उच्चारित होने से पूर्व यह पृथ्वी क्यों नहीं डूब गई रसातल में, तीनों लोक अन्तरिक्ष में गुरुत्वाकर्षण के असंतुलन में धराशायी क्यों नहीं हो गए, चाँद  तारों ग्रह नक्षत्रों पर क्यों नहीं हो गए आर डी एक्स बम विस्फोट कि इंद्र की आकाशीय तड़ित अब भरत मुनि की जिह्वा पर थी और प्रेम को लव जेहाद मानने वाले कूढ़मगजों की हुंकार के विलोम में जिसके कड़कने में उर्वशी के लिए स्वर्ग से निष्कासन का आदेश था, जाओ धरती पर और रहो उसी कमज़ात मनुष्य पुरुरवा के साथ.

जॉन मिल्टन की ‘पैराडाइज़ लॉस्ट’ के पन्ने फड़फड़ाए, दिनकर की उर्वशी से कामुक पुरुरवा ने उर्वशी से सवाल किया “स्नेह का सौन्दर्य को उपहार रस चुम्बन नहीं तो और क्या है”, वहीं मैथिली के प्रोफ़ेसर मुक्तिनाथ झा के अनुवाद में ‘स्वर्गच्युति ओ पुनरपि लभ्यते स्वर्गम’ की नायिका ईव ने ग्रन्थ से बाहर आकर इस उर्वशी के कंधे पर हाथ रखा और कहा ‘स्त्रीगनक संग एनाहे भेल आयल अछि’ हम स्त्रियों के साथ हमेशा से ऐसा ही होता आया है सखि, जाओ स्वर्ग का सुख प्रिय के साथ के सुख से बड़ा नहीं है.

स्वर्ग से अप्सरा का निष्कासन सहस्राब्दी की महत्वपूर्ण घटना थी लेकिन न्यूज़ चैनल्स तक यह बात नहीं पहुँची थी वर्ना वे ‘शाप भी वरदान बन गया’ जैसी सुर्ख़ियों में चीख चीख कर भारत की जनता को विश्वास दिला देते कि ऐसा वास्तव में घटित हुआ है,  लेकिन यह नहीं बताते कि यह प्रेम के सर्वव्यापी संप्रत्यय का उर्वशी की निजता में प्रवेश था जिसके परिणाम में उसकी सखियों की सलाह थी पुरुरवा का जन्म तुम्हारे लिए ही हुआ है उर्वशी, जाओ उसे तलाश करो.

शिप्रा के कल कल बहते जल में कालिदास रचित  ‘विक्रमोर्वशीय’ की पंक्तियाँ सुनाई देती थीं और मुनि संदीपनी के आश्रम में कृष्ण ऋग्वेद पढ़ चुके थे इस बात पर संदेह करते हुए प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति और पुरातत्व अध्ययनशाला का एक मासूम बालक कब का घर लौट चुका था, वहीं आधुनिक काव्य के गवाक्ष में रामधारी सिंह दिनकर की उर्वशी अपने घुंघराले केश खोले बैठी पुरुरवा की राह तकती थी.

धरती पर गूगल महाराज के साम्राज्य में  सूचनाओं का जंगल था और सोशल मीडिया के झरनो में जाने क्या क्या कचरा बहकर चला आता था, बहुत मुश्किल था फोटोशॉप की हुई तस्वीरों में पुरुरवा की असली तस्वीर ढूंढ निकालना लेकिन चाहत असली नकली में भेद कर सकती है कि आख़िर कविताओं के संसार में उसे वह मिल ही गया, उफ इतना सुंदर भी कोई हो सकता है,  ऐसा चेहरा तो तीनों लोक में किसी का नहीं है और उसकी आँखों का रंग भी ऐसा जो किसी की आँखों से मिलता नहीं है.

उर्वशी ने पुरुरवा की तस्वीर देखी तो देखती रह गई, जाने कितने घण्टे बीत गए, नदियों में बहता जल जाने कबका बह गया, ऋतुएँ आ आ कर लौट गईं, कारखानों में रात पाली ख़त्म होकर दिन पाली आ गई, गीज़र के दिन बीत गए और एसी चलने लगे, मोबाइल की बैटरी ख़त्म होने से पहले फिर चार्ज कर ली गई और बिजली विभाग की कृपा से वाई फाई भी निर्बाध चलता रहा.

 

painting by Shreeharsha Kulkarni

पुरुरवा की दृष्टि हिरणों के पांवों के साथ दौड़ रही थी और धनुष की प्रत्यंचा पर चढ़ी उंगलियाँ अपने भविष्य काल में मोबाइल की स्क्रीन पर सोशल मीडिया के मेसेजेस पर लगातार स्क्रोल कर रही थी कि उसकी नज़र अटक गई एक मैसेज पर ‘हाय, आई ऍम उर्वशी, सुना था आपके बारे में और तस्वीर भी देखी थी आपके ब्लॉग पर’

चैट करते हुए दूध उफनकर गैस पर गिर गया, सात बत्तीस की लोकल अपने निर्धारित समय पर छूट गई, मेट्रो का डेबिट कार्ड भागदौड़ में पर्स से कहीं गिर गया, कबूतरी ने बालकनी के एक गमले में अंडे दिए और उड़ गई, ‘तुम्हारा आजकल काम में मन नहीं लगता’ कह कर बॉस अपने केबिन में चला गया और अंततः एक दिन उर्वशी ने चैट करते हुए पुरुरवा से कह ही दिया ‘नाऊ अ डेज़ आई एम इन लव विद यू’

एक आतिशबाज़ी आसमान में संपन्न हुई और जाने कितने रंग बिखर गए, पुराने ज्यूक बॉक्स में  जहाँ बरसों से लता मंगेशकर का गाया ‘आएगा आयेगा आयेगा आनेवाला’ बज रहा था नीति मोहन का गाया एक नया गीत बज उठा ‘नैनो वाले ने छेड़ा मन का प्याला छलकाई मधुशाला मेरा चैन  रैन नैन अपने साथ ले गया,’ पुरुरवा की  तंद्रा भंग हुई  अरे ! यह तो संसार की सबसे खूबसूरत स्त्री है जो उससे प्रेम निवेदन कर रही है.

उर्वशी के पृथ्वी निवास में शर्तों का होना अनिवार्य था जैसे कि अनिवार्य था दूध में जल का होना, हवा में ऑक्सीजन  का होना और आसमान में सूरज का होना भले ही हमारे टूथपेस्ट में नमक का होना अनिवार्य नहीं था, शर्त इसलिए भी ज़रूरी थी कि उसने अपने जन्म से पहले आई फिल्म ‘पूरब और पच्छिम’ में मुकेश का गाया ‘कोई शर्त होती नहीं प्यार में’ गीत नहीं सुना था.

पहली शर्त में उर्वशी के मेष से नर्म नाजुक दो बच्चों की संभाल थी, पुरुरवा के कानों में एक कोयल कूक गई तुममें एक प्रेमी की ही नहीं ज़िम्मेदार पति होने की संभावना भी है जिसके परिशिष्ट में एक अच्छे पिता के लक्षण हैं सो सहज मन से स्वीकार कर लो और लिव इन के लिए बने कानून का सम्मान करो.

दूसरी शर्त में भौतिकशास्त्र और रसायनशास्त्र का ज्ञान था जिसके पाठ्यक्रम में शामिल था प्रतिदिन शयनकक्ष के टटोले जा सकने वाले अन्धकार में, खश अगरु और कपूर की खुशबुओं को मात देती देहगंध के सानिध्य में अधरों का नम होना, उरोजों का खिलना और अमेजान से मंगाए नए ज़िपर रूम फ्रेशनर के अन्तरंग में बजना देह के पियानो का और मन के गिटार पर अमेरिकन रॉक बैंड जर्नी का प्रसिद्ध गीत ‘व्हेन यू लव अ वूमन’ छेड़ा जाना.

इस निजता में देह की पवित्रता थी और शर्त का अहम हिस्सा था कि उजाले में उसे कभी न उजागर किया जाए वर्ना उर्वशी के संग का और पृथ्वी पर रहने का वह अंतिम पल होगा, स्त्री जानती है प्रेम के अन्तरंग क्षणों के अलावा पुरुष की नग्न देह का प्रदर्शन जुगुप्सा उत्पन्न करता है , ज़ाहिर है पुरुरवा ने मान ली यह दोनों शर्तें कि इन शर्तों में प्रेम था और प्रेम की परिणति परिवार का सुख.

यह आभासी संसार की भी अनिवार्य शर्तें थी लेकिन अपनी भावनाओं में स्खलित हो चुके प्रेमी इन दिनों प्रेम को उपहास के कटघरे में खड़ा कर चुके थे, उनकी दुनिया इतनी स्वार्थी  हो गई थी कि उनकी हरकतों को प्रेम कहते भी शर्म आती थी, प्रेमिकाओं की लापरवाही थी कि वे इस तरह की शर्तें नहीं रख रही थीं और अपनी तस्वीरें वायरल कर दिए जाने की धमकी में ब्रेक अप और अवसाद के रूप में उसका नुकसान उठा रही थीं.

 

urvashi-pururawa by shreeharsha-kulkarni

पुरुरवा उर्वशी का प्रेम सूखे गुलाब की मानिंद किताब के पन्नों से फिसलकर इन आधुनिक प्रेमियों के बिस्तर पर आ गिरा था, इसलिए हर सुबह बिस्तर की चादरें अपनी सलवटें ख़ुद ठीक कर लेतीं, वस्त्र धारण संस्कार के संपन्न होते ही रोल अप परदे सुख की तरह खिली खिली धूप भीतर आने देते, रात के अंतिम पहर तक हवा में विद्यमान फुसफुसाहटों और शब्दों के उच्चारण में संलग्न आविष्ट स्वरों को चैट से डिलीट किया जाता और प्रेम अपने दिन और रात के श्येड्युल में अलग अलग संवादों में साँस लेता रहता.

इंद्र अप्सरा का स्वामी था प्रेमी नहीं और देह और प्रेम के समीकरण में उसे सिर्फ देह से सरोकार था इसलिए उसने उर्वशी को वापस लाने के लिए एक चाल चली और दो गन्धर्वों को भेजा जिन्होंने उर्वशी और पुरुरवा को संभोगरत देखकर उनके सोते हुए दोनों बच्चे उठा लिए जो दरअसल दो टेडी बीअर थे, वात्सल्य की पुकार में उर्वशी की चीख पर अन्यमनस्क असावधान पुरुरवा बिना वस्त्र धारण किये ही बच्चों को ढूँढने जंगल की ओर निकल गए और उर्वशी उनके पीछे पीछे कि कूटनीति ने करवट ली और उसके लॉन तक पहुँचते ही हाई मास्क लाइट जल उठने की तरह आकाश में बिजली चमका दी.

उफ़ यह क्या हो गया .. नक्षत्रों के मुँह खुले रह गए, चाँद डूबना भूल गया, पंछी आधी रात ही घोसलों से बाहर आकर चीखने लगे, श्मशान की ज्वालाएँ बुझ गईं, रातकीड़ों ने खुद्कुशी कर ली, कमल खिलते खिलते वापस पंखुड़ियों में सिमट गया, अख़बार के दफ्तरों के टेलीप्रिंटर खड़खड़ा कर बंद हो गए, अपहृत किये कुछ विधायक रिसोर्ट से भाग गए, सरकारें पलट गईं, बैंकों पर संकट मंडराने लगा और सेंसेक्स अचानक नीचे गिर गया.

शर्तें टूट चुकी थीं, उर्वशी पुरुरवा को छोड़कर कब की अपने स्वर्ग जा चुकी थी  उसका मोबाइल भी लगातार स्विच ऑफ़ बता रहा था हैक हो चुका था उसका फेसबुक अकाउंट इन्स्टा पहले ही वह डीएक्टिवेट कर चुकी थी और पुरुरवा का नंबर ब्लाक किया जा चुका था.

उर्वशी उर्वशी बस एक ही शब्द ज़बान पर और चक्के पाँवों में पुरुरवा के जो नापते रहे  भवन, खँडहर, बाज़ार, गलियाँ, सड़कें, राजमार्ग, जंगल, बीहड़, पेड़, नदी, नाले, तालाब, गड्ढे, कुँए, झरने, समंदर, गुफाएँ, घाटियाँ, उपत्यकाएँ, चट्टानें, एक्सप्रेस रोड्, मॉलों, सुपर मार्केट स्काई स्क्रेपर्स, लिफ्ट, तहखाने, सरकारी दफ्तर, बंगले, प्राइवेट कम्पनियाँ, पब्स, बार, सिनेमाघर, रेड लाइट एरिया के होटलों, जुआघर, केसिनो, ब्यूटी पार्लरों.

लेकिन अराइवल ऑफ़ उर्वशी के सीक्वल में अभी रिटर्न ऑफ़ उर्वशी फिल्म अपने निर्माण की प्रक्रिया में थी, प्रेम के हैंगोवर में किसी उनींदीं सुबह मिचमिचाती आँखों से स्क्रीन पर ‘हाय’ का एक मैसेज देखना शेष था, सो जैसे उनके दिन फिरे थे इनके भी दिन फिरे की तर्ज पर उर्वशी एक दिन लौट आई इस शर्त पर कि वह अपनी मर्जी से साल में किसी किसी दिन उसके साथ रहेगी कांट्रासेप्टिव पिल्स की सायास निरर्थकता में जन्म लेने वाले उसके बच्चे उर्वशी के बच्चे कहलाएंगे और पुरुरवा की उन पर कोई छाप नहीं होगी.

पितृसत्ता की मृत देह पर यह नए जीवन का प्रारम्भ था, पुरुरवा जीवन भर किसी सुडोको की तरह यह पहेली हल करता रहा और सोचता रहा कि आखिर उससे चूक कहाँ हुई थी. पुरुरवा उर्वशी की संतानें अब बड़ी हो रही हैं और प्रतीक्षा कर रही हैं कि फिर कभी कोई कवि भविष्य में उनकी कथा का तीसरा अध्याय लिखेगा.

शरद कोकास
दुर्ग छत्तीसगढ़  

चित्र साभार: अनुराग वत्स

‘पहल’ पत्रिका में प्रकाशित वैज्ञानिक दृष्टिकोण और इतिहास बोध को लेकर लिखी साठ पृष्ठों की लम्बी कविता ‘पुरातत्ववेत्ता‘  तथा लम्बी कविता ‘देह’ के लिए चर्चित कवि, लेखक,दर्शन एवं मनोविज्ञान के अध्येता  नवें दशक के कवि शरद कोकास के दो कविता संग्रह ‘गुनगुनी धूप में बैठकर’ और ‘हमसे तो बेहतर हैं रंग’ प्रकाशित हैं. विगत दिनों उनकी चयनित कविताओं का एक संकलन भी प्रकाशित हुआ है.

कविता के अलावा शरद कोकास की चिठ्ठियों की एक किताब ‘कोकास परिवार की  चिठ्ठियाँ’ और नवसाक्षर साहित्य के अंतर्गत तीन कहानी पुस्तिकाएं भी प्रकाशित हुई हैं.  

मोबाइल: 8871665060
ई मेल : sharadkokas.60@gmail.com

Tags: 20232023 कवितापुरुरवा उर्वशीशरद कोकास
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Comments 21

  1. ऐश्वर्य मोहन गहराना says:
    2 months ago

    क्या यह कविता है, नहीं नहीं कविता नहीं रही होगी। कवितायें तो मंत्र सरीखी होती हैं कि जब लगे समझ आई, समझ न आए। यहाँ तो और भी गड़बड़ है। जो समझ नहीं आ रहा वो भी समझ आने का भान दे रहा है मेघदूत से क्लाउड तक का नवकलेवर किसी कथा का पुनर्सृजन है या पुनर्पाठ। आज नया चाँद है, नया चन्द्र्वर्ष और आदिचंद्रवंशी का नया वर्णन। पठनीय है, सुंदर है।

    Reply
  2. alknanda sane says:
    2 months ago

    वाह! कविता के सौन्दर्यबोध का यह नवीन अध्याय एकदम अलग शैली में लिखा गया है।

    Reply
  3. Anonymous says:
    2 months ago

    दिलचस्प है यह नया प्रयोग, लेकिन इसे कविता कहना क्यों जरूरी है?

    Reply
  4. मीरा कुमार says:
    2 months ago

    कविता पढी, आधुनिकता के आवरण में पुरानी कहानी, कुछ अद्भुत, कुछ रहस्यमय होती आखिर में पुरुरवा के सामने एक प्रश्न रखती जो आज भी समाज में घूम रहा है __ आखिर गलती कहाँ हुई ( किससे हुई भी )

    Reply
  5. अनय अनासक्त says:
    2 months ago

    यह लंबी कविता शरद कोकास की पहल मे प्रकाशित पिछली दो कविताओं ‘पुरातत्त्ववेत्ता’ और ‘देह’ से बिलकुल अलग है । शरद कोकास अपनी लंबी कविता मे न केवल शिल्प तोड़ते हुए चलते हैं अपितु नए नए प्रयोग भी करते हैं । यह कविता अपने इसी नए प्रयोग के लिए याद रखी जाएगी कि इस मे किस तरह कवि एक ही पंक्ति मे एक काल से दूसरे काल मे संक्रमण करते हैं । इस कविता का वाचिक पक्ष तो अत्यंत प्रभावशाली है बशर्ते इसका सस्वर पाठ किया जाए । यह कविता स्त्री स्वतन्त्रता के पक्ष मे है , जो विगत दशकों मे किए जा रहे मुक्ति से बहुत आगे की बात है । यह लीव इन जैसे सम्बन्धों , स्त्री की संतान की चॉइस जैसे बहुत से मुद्दों पर बात करती है ।

    Reply
  6. अनय अनासक्त says:
    2 months ago

    अरुण जी को इस कविता की प्रस्तुति और संयोजन हेतु बधाई , राजा रवि वर्मा के उर्वशी और पुरुरवा के पारंपरिक चित्र की तुलना मे श्रीहर्ष कुलकर्णी का यह चित्र आधुनिक उर्वशी पुरुरवा के अधिक निकट है दूसरा चित्र बी बहुत खूबसूरत है ।

    Reply
  7. Pragya says:
    2 months ago

    बेहद दिलचस्प, यह सचमुच नई पीढ़ी को कविता के आर्ट से जोड़ता है और अध्ययन करने पर प्रेरित करता है

    Reply
  8. ममता कालिया says:
    2 months ago

    यह शरद ब्रांड शीर्षासन है गाथा का।दिलचस्प, मौलिक

    Reply
  9. डॉ. सुमीता says:
    2 months ago

    21वीं सदी की तकनीकी शब्दावली और आधुनिक जीवन की चुनौतियों के बीच प्राचीन प्रेमकथा का यह नवीन पाठ रोचक है। पाठ का लालित्य और प्रवाह ख़ास तौर पर ध्यान खींचते हैं। स्त्रियों से सम्बन्धित महत्वपूर्ण मुद्दों जैसे लिव इन, मातृत्व, बच्चों को माता का नाम मिले और सबसे ऊपर प्रेम में शर्त नहीं रखने के कारण अन्ततः अवसाद का शिकार हो जाना आदि की विचारपूर्ण चर्चा इसकी विशिष्टता है। शरद जी को साधुवाद है।
    हाँ, यह ज़रूर कहूँगी कि काव्यमयता के गुण होने के बावजूद एक गद्य को कविता कहना उचित नहीं होगा।

    Reply
  10. Akash Maurya says:
    2 months ago

    पढ़ने में बहुत ही रोचक,कही कही गतिरोध उत्पन्न हुआ कही एक शांत ठहराव , अपनी आवाज में इसे रिकॉर्ड भी किया

    Reply
    • रमाकांत शर्मा says:
      2 months ago

      पुरुरवा – उर्वशी के प्राचीन आख्यान को समकालीन लिबास में देख कर चकित हूँ ।
      अद्भुत – अपूर्व – अनूठा रचाव।

      Reply
  11. केशव तिवारी says:
    2 months ago

    शरद लम्बी कविता लिखने में परांगत हैँ l बहुत मनोयोग से लिखी है ये कविता l कविता में मिथ साधना इतना आसान भी नहीं कभी कभी वो कविता पर ही चढ़ बैठता है l उन्हें बधाई एक अच्छी कविता के लिए l

    Reply
  12. Madan Keshari says:
    2 months ago

    सृजनात्मकता किसी नितांत नई कथा अथवा चरित्र के आविष्कार में नहीं है, बल्कि जो हमारी सामूहिक स्मृति में सहस्रों वर्षों से विद्यमान है, उसका नए परिप्रेक्ष्य में उद्घाटन में है। अपने प्रसिद्ध गीतात्मक नाटक ‘प्रोमेथियस अनबाउण्ड’ में शेली ग्रीक पौराणिक चरित्र प्रोमेथियस की कथा के गिर्द अपना कथ्य बुनता है। प्रोमेथियस मानवीय अधिकार के लिए संघर्ष के प्रतीक के रूप में उपस्थित होता है। इक्कीसवीं सदी के इस तीसरे दशक में शरद कोकास स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी और मर्त्यलोक के पुरुरवा के प्रेम को केन्द्रिक अन्तर्वस्तु बना, उसे बिल्कुल नया अर्थ और आयाम देते है – हमारे समय के मुहावरे और संदर्भ में।

    Reply
  13. Naresh says:
    2 months ago

    शरद की सजनात्मकता में गजब ही गजब ढाने की शक्ति है । वह कहां से किस कथ्य को उठाएगा और कैसे अपनी ज्ञानात्मक संवेदना से उसे बदले हुए रूप रस गंध और प्रकिया में सरापा बदल देगा, अनुमान लगाना बेहद कठिन है।

    एक अति प्राचीन प्रेम कथा ,उसके मिथकीय पात्र के आख्यान को लेकर शरद ने पहले तो कविता लिखने का खतरे को उठाया है और दूसरे जहां इस मिथकीय आख्यान में पहले से मौजूद संस्कृत काव्य से लेकर दिनकर जैसे सक्षम कवि कलम चल चुकी हैं उस धरा पर कदम रखने का साहसनुमा खतरा भी उठा लिया है।

    ऐसे में शरद की तारीफ नही करें तो दूसरा और क्या करें।

    शरद ने उर्वशी पुरुरवा के अति प्राचीन आख्यान में नई जान फूंकने का ऐसा कार्य इतनी बखूबी से इस कविता में किया है कि उर्वशी को आज के सोशियाल मीडिया के समय में उतार कर ऐसे रखा है कि इसमें मुबई की लोकल ट्रेन भी है एरिया के होटले, जुआघर, केसिनो, ब्यूटी पार्लर, अराइवल ऑफ़ उर्वशी के सीक्वल में रिटर्न ऑफ़ उर्वशी फिल्म अपने निर्माण की प्रक्रिया पर सशक्त टिप्पणी भी आ गई है। और यहां तक के प्रसंग खींच लाने की जगह कविता में ऐसी बना दी है कि उर्वशी कह सकती है कि वह पुरुरवा के साथ यह शर्त रख कर जीएगी कि वह कांट्रासेप्टिव पिल्स की सायास निरर्थकता में जन्म लेने वाले उसके बच्चे उर्वशी के बच्चे कहलाएंगे और पुरुरवा की उन पर कोई छाप नहीं होगी ।

    कविता में शरद ने उस समकालीन आवश्यक मर्यादा को प्रस्तुत भी किया हैं कि आज पितृसत्ता की मृत देह पर यह नए जीवन का प्रारम्भ हो सके ।

    इसीलिए मैंने आरंभ में लिखा था गजब की सृजनात्मकता शरद में है। और लंबी कविता होने पर भी शरद ने इसे बखूबी निभाया है । लंबी रचना लिखने में शरद उस्ताद बन गया है।

    यह कविता मिथकीय आख्यान को बेहद समकालीन नया अर्थ भी देती है।

    एक बार फिर इस कविता के लिए शरद को गलबहियां लेकर स्वयं एक कवि होने के नाते यही कहूंगा – वाह शरद तुमने फिर रचनात्मक कमाल कर दिया । अभिनंदन ।

    Reply
  14. Pallavi Mukherjee says:
    2 months ago

    बहुत ही शानदार,
    हार्दिक बधाई सर

    Reply
  15. Parul bansal says:
    2 months ago

    पुरातत्ववेत्ता के बाद अब यह सृजन अपने आप में अद्भुत है। बड़ी ही गहनता से आजकल के परिवेश को मिक्स करती हुई लिखी गई शानदार रचना। जिसके लिए आपको बहुत-बहुत बधाई हो।

    Reply
  16. Anonymous says:
    2 months ago

    उफ़्फ़फ़..
    कमाल..

    हमे तो इस रचना को पढ़ कर यही समझ नहीं आ रहा कि हमे अनुभूति किस प्रकार की हुई..गुदगुदाहट भी है , अचरज भी , थोड़ी टीस सी भी..
    पर ये इतना सुंदर प्रयोग है कि इसे फिर से पढ़ कर फिर से कॉमेंट करने आना होगा!

    इन कल्पनाओं का कितना सजीव चित्रण किया आपने और के कितना मार्मिक और यथार्थवादी लगता है एक ही समय मे!

    आभार इस रचना के लिए 🙏🏻

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  17. Vijay Singh says:
    2 months ago

    कवि, मित्र शरद कोकास खूब सुंदर चिट्ठी लिखते हैं उनकी चिट्ठियों को पढ़ते हुए कविता में डूबने जैसा अनुभव होता है…. वैसे कवि रूप में अनूठे कवि हैं शरद कोकास अपनी कविताओं की जीवन दृष्टि में पुरातत्ववेत्ता, देह जैसी कविताओं से समकालीन कविता संसार में रेखांकित किये गये हैं उसी काव्य गद्य शैली में ” पुरूरवा उर्वशी की समय यात्रा कविता को पढ़ने का सुख है.. एक प्राचीन, मिथकीय अवधारणा में पुरूरवा को जीवन की समग्रता में ले जाना अद्भुत है.. यह कविता है या नहीं… या कविता को गद्य रूप में पढ़ा जाना चाहिए ? यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है…. बहरहाल, कवि, मित्र शरद कोकास को बधाई |

    Vijay Singh

    Reply
  18. Anju sharma says:
    2 months ago

    बहुत ही उम्दा लगा उर्वशी का यह कलियुग अवतार और ये प्रेम गाथा। बहुत ही सजीव चित्रण, घटनाओं और पात्रों के रूपांतरण और भाषा शैली सभी कुछ प्रभावित करने वाले हैं। वैसे एक यही प्रश्न मेरा भी कि इसे कविता क्यों कहा जाना चाहिये, कहानी क्यों नहीं। बहरहाल शरद जी को हार्दिक बधाई और समालोचन को धन्यवाद।

    Reply
  19. डॉ डी एन शर्मा says:
    2 months ago

    कविता में इस नये प्रयोग से शरद अपनी अलग पहचान बना रहे हैं..!

    Reply
  20. डॉ.अर्चना श्रीवास्तव रायपुर says:
    1 month ago

    अद्भुत सृजन ।पौराणिक मिथकों पर आधुनिक बिम्बों का प्रत्यारोपण रोचक नवाचार है ।कविता की सरसता और गद्य की परिपक्वता का अद्भुत संयोजन है शरद जी की ‘पुरुरवा उर्वशी की समय यात्रा’ । बहुत बहुत बधाई और साधुवाद ।

    Reply

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