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Home » नारायण सुर्वे: शरद कोकास

नारायण सुर्वे: शरद कोकास

भारतीय साहित्य चोरों के प्रति सहृदय है. और चोरों ने भी समय-समय पर साहित्य के प्रति अपनी सहृदयता प्रकट करने में कोई कसर नहीं उठा रखी है. ‘मृच्छकटिकम्’ में वह तो लगभग कलाकार ही है, उसकी चौर्यवृत्ति ‘करणीय- अकरणीय के विवेक’ पर हमेशा टिकी रहती है. कवि केशवदास को वैसे तो ‘कठिन काव्य का प्रेत’ कहा जाता है. लेकिन उनकी परिहासप्रियता देखिए. कविकर्म और चौर्यकर्म में भी समानता तलाश लेते हैं. एक जगह तो ऐसी निकल ही आती है जहाँ दोनों एक हो जाते हैं. ‘सुबरण (सुवर्ण) को सोधत फिरत, कवि व्यभिचारी चोर.’ सुवर्ण का अर्थ यहाँ किसी कवि की पूरी कविता हरगिज नहीं है. इसे अक्षम्य ही समझा जाएगा. भूलवश एक चोर कवि के यहाँ चोरी करता है. तत्काल उसे अपने गलती का एहसास हो जाता है. मूल्यों के पतन के इस महादौर में भी सदियों से अर्जित उसका चौर्य-विवेक जग जाता है. और यह सब मराठी के जनकवि नारायण सुर्वे के घर घटित हुआ. वह सामान लौटाते हुए खेद-पत्र भी लिखता है. उस चोर की घनघोर चर्चा और प्रशंसा हुई है. उस चोर को तो जानना अभी संभव नहीं हुआ है पर इस लेख के माध्यम से हिंदी के पाठक नारायण सुर्वे और उनके लेखन से परिचित हो सकते हैं. कोकास का यह आलेख प्रस्तुत है.

by arun dev
July 20, 2024
in आलेख
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नारायण सुर्वे: शरद कोकास
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‘मैं कामगार हूँ, तळपती तलवार हूँ’
नारायण सुर्वे

शरद कोकास

मराठी भाषा इस अर्थ में हिंदी के करीब है की दोनों की लिपि देवनागरी है और दोनों भाषाओं  को यह गौरव प्राप्त है कि यहाँ प्रचुर मात्रा में साहित्य उपलब्ध है. मराठी भाषा के साहित्य के इतिहास में हिंदी की भांति भक्ति साहित्य की परंपरा विद्यमान रही है. ‘विवेक सिन्धु‘ और ‘परमामृत‘ ग्रंथों के रचयिता मुकुंदराज को मराठी का आदि कवि माना जाता है किन्तु भक्ति साहित्य के कवियों में ‘ज्ञानेश्वरी ‘ के रूप में गीता का भाष्य प्रस्तुत करने वाले कवि ज्ञानदेव और उनके समकालीन कवि  संत नामदेव की महत्ता सर्वोपरि है. इसी परंपरा में श्रमिक वर्ग से आनेवाले जन कवि  चोखामेला, गोरा कुम्हार, और नरहरि सोनार का नाम भी श्रद्धापूर्वक लिया जाता है.

महाभारत के मिथकों को लेकर इस काल में महेंद्र भट ने ‘लीला चरित्र’ , नरेन्द्र ने ‘रुक्मिणी स्वयंवर’, भास्कर भट ने ‘शिशुपाल वध’ और ‘उद्भव गीता’ जैसे काव्य की रचना की.  यह सभी कवि  चक्रधर के शिष्य नागदेवाचार्य  द्वारा स्थापित महानुभाव पंथ के सदस्य थे. मुग़लों का राज्य स्थापित हो जाने के पश्चात् उसका प्रभाव मराठी साहित्य पर भी पड़ा. उस दौर में एकनाथ ने भक्ति साहित्य की परंपरा में काव्यरचना की और उनके पुत्र मुक्तेश्वर ने महाभारत के पाँच पर्वों को कविता का रूप दिया. सत्रहवीं शताब्दी में तुकाराम और रामदास जैसे कवि  हुए जिनमे रामदास को शिवाजी का गुरु होने का गौरव प्राप्त है.

मराठी कविता में आधुनिक काल का प्रारंभ सन 1885  में कवि  केशवसुत की रचनाओं से होता है. ब्रिटिश शासन प्रणाली ने शिक्षा और सामाजिक व्यवस्था में अनेक परिवर्तन किए. नए मानवमूल्यों की स्थापना हुई और मानवतावाद को नई काव्यभाषा में संवेदनात्मक ज्ञान के साथ प्रस्तुत किया गया. बीसवीं शताब्दी का पूर्वार्ध विश्वयुद्ध, सोवियत रूस की समाजवादी क्रांति जैसे अनेक राजनीतिक घटनाक्रमों से युक्त रहा. सम्पूर्ण विश्व के साहित्य पर इन घटनाओं का प्रभाव हुआ लेकिन भारत में प्राथमिकता देश को ब्रिटिश उपनिवेश के चंगुल से मुक्त करने की थी अतः यहाँ के साहित्य में देशभक्ति , राष्ट्र का गौरवगान जैसे विषयों का प्राधान्य रहा. वहीं साहित्य को विशुद्ध कला मानकर सौन्दर्य की अभिव्यक्ति करने वाले कवियों की भी बहुलता रही. इनमें मराठी साहित्य जगत में कुसुमाग्रज जैसे अग्रज कवि थे वहीं गद्य में अनेक लेखक प्रणय कथाओं और सामाजिक मूल्यों को लेकर भावनाप्रधान उपन्यास नाटक आदि की रचना कर रहे थे. मनोरंजन प्रधान रचनाओं का भी बाहुल्य था जिनमे प्र.के. अत्रे, पु. ल.देशपांडे, वि. स. खांडेकर आदि लेखक भी अपना योगदान दे  रहे थे.

महाराष्ट्र में मुंबई की स्थिति भारत के अन्य  प्रदेशों से भिन्न थी. मुम्बई इस समय तक एक औद्योगिक केंद्र बन चुका था और सूती कपड़ों की मिलों के लिए विश्व विख्यात हो चुका  था. औद्योगिकीकरण के साथ-साथ यहाँ पूंजीवाद अपने पांव पसार रहा था. कपड़ा मिलों और रेल लाइन की स्थापना के साथ मुम्बई एक श्रमिक बहुल प्रदेश बन चुका  था, मजदूरों का शोषण अपनी पराकाष्ठा  पर था और यह मजदूर वर्ग नारकीय जीवन जीने को विवश था. वहीं महाराष्ट्र के अन्य क्षेत्रों में  जातिवाद एक विष की तरह समाज की जड़ों में समा चुका  था. ऐसे दौर में सन १९२१ में मुंबई में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई , मार्क्सवाद का प्रचार प्रसार भी हुआ किन्तु विडम्बना यह रही की किसी सार्थक आन्दोलन के अभाव में यह आन्दोलन मराठी साहित्यकारों में वर्ग चेतना और प्रगतिशीलता के बीज आरोपित करने में असमर्थ रहा. उसका एक प्रमुख कारण  साहित्य और मार्क्सवादी विचारधारा का पोषण सवर्णों द्वारा किया जाना था. उस समय सामाजिक स्थितियां भिन्न थीं और जाति  व्यवस्था के अंतर्गत सवर्णों द्वारा दलितों का शोषण और सामाजिक बहिष्कार अपने चरम पर था. वर्ग चेतना का मुद्दा इस जाति समस्या के आगे गौण था.

दलित चेतना को स्वर देने के लिए बाबासाहेब आम्बेडकर जैसे जन नेता प्रयत्नशील थे किन्तु इसके विपरीत अधिकांश साहित्यकारों द्वारा उसी प्राचीन परंपरा में कलात्मक साहित्य रचा जा रहा था. यद्यपि महात्मा फुले जैसे प्रगतिशील विचारक समाज में ‘गुलामगीरी‘ जैसी पुस्तक द्वारा अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुके थे  किन्तु उन पर भी ब्रिटिश का हिमायती होने का आरोप लगाया जा रहा था.

ऐसे समय में मराठी कविता के क्षितिज पर मार्क्सवादी विचारधारा को लेकर जनभाषा और जनता की वास्तविक स्थितियों का चित्रण करने वाले कवि  नारायण सुर्वे का आगमन हुआ. आज भी जब मराठी कविता में मार्क्सवाद विचारधारा के प्रारंभिक कवियों का उल्लेख होता है तो केवल दो नाम सामने आते हैं उनमें एक हिन्दी के कवि गजानन माधव मुक्तिबोध के बड़े भाई शरद चन्द्र मुक्तिबोध और दूसरे  कवि नारायण सुर्वे हैं. शरद चन्द्र मुक्तिबोध की कविता ने मध्यवर्ग और बुद्धिजीवियों को अपनी और आकर्षित किया वहीं सुर्वे ने जनभाषा में अपनी कविता की रचना की और समाज के अंतिम व्यक्ति से लेकर साहित्य प्रेमियों और बुद्धिजीवियों तक को अपनी काव्यभाषा और विचारों से प्रेरित किया.

नारायण सुर्वे यह नाम हिन्दी साहित्य जगत के लिये अनजाना नहीं है. मध्यप्रदेश का कबीर सम्मान प्राप्त करने के बाद लोगों ने यह जाना कि मराठी का यह एक ऐसा कवि है जो लगातार दलित चेतना के लिये, मजदूर वर्ग के लिये, उत्पीड़ितों के लिये लिख रहा है और उसकी रचनायें भाषाई सीमाओं को पार कर शोषितों के संसार में एक मशाल की तरह रास्ता दिखाने का काम कर रही हैं.

‘अपनी अन्तिम साँस तक  विश्वास रखो’, कहने वाला यह कवि किस जाति का था किसी को नहीं पता  लेकिन वह इस युग का कबीर था जिसे उसके होश संभालने की उम्र से पूर्व मुम्बई के इंडिया वूलन मिल में काम करने वाले एक कपड़ा मिल मजदूर गंगाराम सुर्वे ने फ़ुटपाथ पर पाया था.

गंगाराम सुर्वे उसे परेल स्थित अपनी चाल में ले आये. उनकी पत्नी काशीबाई भी मुम्बई की उसी मिल में मजदूर थी. दोनों ने उसे अपना पुत्र माना और नाम दिया नारायण. लेकिन 1936 में नारायण  जब दस वर्ष के थे उनके पिता और माता दोनों मुम्बई की ज़िन्दगी से परेशान होकर उन्हें बेसहारा छोड़कर अपने गाँव चले गये. वे एक बार  फिर अनाथ हो गये.

यह वे दिन थे जब अच्छे घरों  के बच्चे खिलौनों से खेला करते थे. उन दिनों  नारायण सुर्वे एक चाल में सीढ़ियों के नीचे सोते थे और किसी घर या होटल में बर्तन धोते थे, कहीं झाड़ू लगाते थे और किसी अमीर के बच्चों को स्कूल से लाने- ले जाने और कुत्तों की देखरेख का काम करते  थे. कुछ बड़े हुए तो टाटा आयल मिल में हमाली का काम मिला. दादर की कोहिनूर मिल नम्बर तीन में रातपाली की चौकीदारी भी की. मुम्बई में उस समय तक कम्युनिस्ट पार्टी अस्तित्व में आ चुकी थी और मजदूर आन्दोलन का वातावरण बनाने लगा था. एक मजदूर के रूप में उन्होंने यूनियन की सदस्यता ली और फिर यूनियन दफ़्तर में झाड़ू लगाने व पर्चियाँ काटने का काम करने लगे. यहाँ उन्होंने मार्क्सवाद की शिक्षा प्राप्त की  और वे मजदूर आंदोलन और स्वतन्त्रता आन्दोलन से जुड़े. यहीं कॉमरेड  श्रीपाद अमृत डांगे , मिरजकर और एस व्ही देशपांडे से उनका परिचय हुआ.

कामरेड मिरजकर जब मुम्बई के मेयर बने उनके प्रयासों से नारायण सुर्वे को महानगर पालिका के एक स्कूल में चपरासी की नौकरी मिल गयी. 1957 में इकतीस वर्ष की उम्र में उन्होंने वर्नाक्यूलर की परीक्षा पास की जिसे आज सातवीं कक्षा के समतुल्य माना जाता है. 1961 में वे चपरासी से शिक्षक बने. जो लोग कम्यूनिस्टों पर यह आरोप लगते हैं की स्वतंत्रता आन्दोलन में उनकी भागीदारी कम थी उनके लिए यह जानकारी है कि  नारायण सुर्वे ने सोलह वर्ष की उम्र में भारत छोड़ो आन्दोलन में भाग लिया था. 1946   के आर्मी विद्रोह में भी उनकी हिस्सेदारी थी.

‘न घर था कोई
न कोई गोत्र
चलने लायक ज़मीन थी पैरों तले
आड़ थी दुकानों की
और मुफ़्त थे नगरपालिका के फुटपाथ.’

इन पंक्तियों के रचयिता नारायण सुर्वे मजदूरों के बीच मजदूरों की तरह रहते हुए मुम्बई की ज़िन्दगी को वे जीते रहे और इस बीच उनके भीतर एक कवि ने जन्म लिया ।1956 में जब उनकी पहली कविता प्रकाशित हुई वे परेल की बोगदा चाल में रहते थे. अनुभव और जीवन के कटु यथार्थ से उपजी उनकी कविताएँ युगांतर, मराठा, नवयुग जैसे समाचार पत्रों मे प्रकाशित होने लगीं.

1962 में उनका पहला कविता संग्रह ‘ऐसा गा मी बृह्म’ प्रकाशित हुआ जिसमें उन्होंने स्वातंत्रोत्तर भारत में मजदूर वर्ग की वास्तविक स्थिति पर अपनी कलम चलाई और समाज में विचारधारा तथा कविता की ज़रूरत को रेखांकित किया. अपने अनुभव और बेचैनी को शब्द देने वाली इन कविताओं पर अपनी प्रतिक्रिया प्रकट करते हुए मराठी के वरिष्ठ कवि कुसुमाग्रज ने कहा कि

“यह कवितायें लड़ाकू प्रवृत्ति की और सामाजिक क्रान्ति की उपासना करने वाली कवितायें हैं.“

1966 में उनका दूसरा कविता संग्रह ‘माझे विद्यापीठ’ आया. इस संग्रह में तमाम कविताएँ उनके लिये थीं जो मुम्बई में भयावह परिस्थितियों में जीने के लिये विवश थे …मिल  कामगार, छोटे मोटे काम करने वाले मजदूर, पोस्टर चिपकाने वाले बच्चे , रेहड़ी लगाने वाले और फुटपाथ पर सामान बेचने वाले दुकानदार , वेश्याएँ आदि.

‘एक हड़ताल में
मार्क्स मुझे मिला’

कहने वाले नारायण सुर्वे जीवन भर वंचितों और शोषितों के लिये लिखते रहे.

अपने समय के कवि शरदचन्द मुक्तिबोध और विन्दा करंदीकर से उनका स्वर अलग था. इन कवियों की शास्त्रीय भाषा के बरअक्स वे लोक भाषा को अपनी कविता में स्थान दे रहे थे. मराठी कविता को अभिजात्य के सौंदर्यवाद से बाहर  निकालकर स्थानीय बोलचाल की भाषा के प्रचलित शब्दों को उन्होंने  अपनी कविता में स्थान दिया.  उनकी भाषा में मालवण  और दक्षिण कोंकण के शब्द  अपनी ग्राह्यता के साथ  कविता को एक लय प्रदान करते हैं.

इसके पश्चात ‘जाहिरनामा‘ (1975 ) ‘सनद‘ ( सम्पादित कविताएँ, 1982 ) और ‘नव्या माणसाचे आगमन’ (1975 ) आदि संग्रह भी उनके काफ़ी चर्चित हुए.

उनके वैचारिक लेखों का संग्रह ‘माणूस कलावंत आणि समाज ‘ शीर्षक से प्रसिद्ध हुआ. हिंदी के लेखक प्रेमचंद,परसाई और यशपाल उनके प्रिय लेखक थे. हरिशंकर परसाई की अनेक रचनाओं का उन्होंने मराठी में अनुवाद किया. उन्होंने कुछ पुस्तकों के अनुवाद भी किये जिनमें कृश्नचंदर के मुंबई के भीख मांगने वाले बच्चों और मुंबई के अपराध जगत पर लिखे प्रसिद्ध उपन्यास  ‘दादर पुल के बच्चे’ का अनुवाद काफ़ी चर्चित है.

आज़ादी के बाद जहाँ मुंबई का सिनेमा जगत स्वतंत्रता प्राप्ति की ख़ुशी के रूमान में डूबी भारत की जनता को प्रेम कथाओं में पिरोकर मुंबई की खुशहाली और सम्पन्नता के  काल्पनिक चित्र दिखा रहा था वहीं  उर्दू में कृश्नचंदर और मराठी में नारायण सुर्वे जैसे वामपंथी लेखक भारत की औद्योगिक राजधानी मुंबई की झोपड़ पट्टियों में बजबजाती नालियों में कीड़ों के साथ रहने वाले, पूंजीवाद का अभिशाप झेल रहे मनुष्यों की विवशता को अपनी रचनाओं में उतार रहे थे. विडम्बना यह रही की विभिन्न प्रकाशकों और अनुवादकों के माध्यम से कृश्नचंदर के उपन्यास तो हिन्दी के पाठकों तक आसानी से पहुँच गए किन्तु यथार्थ को उसके वीभत्स रूप में प्रस्तुत करने वाली नारायण सुर्वे की कविताएँ उस दौर में हिन्दी पाठकों तक नहीं पहुँच पाईं.

नारायण सुर्वे का यह मानना था कि इस सामाजिक विषमता का और मनुष्य के दुखों का मूल कारण समाज की यह संरचना है जिसमें वंचितों के लिये कोई स्थान नहीं है. वे जीवन भर अपनी कविताओं के माध्यम से इस वंचित मनुष्य को उसकी जगह दिलवाने के लिये लड़ते रहे. उनकी कविताओं का मार्क्सवादी दृष्टिकोण भी केवल किताबी नहीं था, उन्होंने विदेशी और आज़ादी के बाद के देशी पूंजीवाद को करीब से देखा था, वे स्वयं उस जीवन को जी रहे थे और जीने की विषम परिस्थितियों के बावजूद मराठी साहित्य के मध्यवर्गीय सौन्दर्यबोध में दलित मार्क्सवादी मराठी कविता के लिये जगह तलाश कर रहे थे.

वे प्रचलित साहित्य की परम्परा को एक चुनौती भी दे रहे थे और साथ ही उसे अभिजात्यवर्गीय क़ैद से मुक्त कर रहे थे. कविता को जन-जन तक पहुँचाने के लिये वे गाँवों में जाते थे और वहाँ मजदूर और किसानों के बीच कविता पाठ करते थे. यद्यपि ऐसा कवि जिसे बचपन से ही भौतिक, सामाजिक, आर्थिक व पारिवारिक सुख न मिला हो और केवल दुख जिसने देखें हों केवल अपने ही दुखों का गुणगान करता है लेकिन नारायण सुर्वे ने अपने निजी दुखों को भी सामाजिक परिप्रेक्ष्य में एक विस्तृत फ़लक दिया जिसकी वजह से उनकी कविताओं में जहाँ एक ओर जुझारूपन और लड़ाकू प्रवृत्ति का समावेश हुआ वहीं करुणा भी अपने विलक्षण रूप में उपस्थित हुई. उनके इस संतुलन का प्रभाव यह रहा कि उन्होंने कभी भी भाववादियों की तरह, उन्हें जन्म देकर फुटपाथ पर छोड़ देने वाली अपनी अदेखी माता के लिये न गुस्सा व्यक्त किया न ही उसके लिये आँसू बहाये. ऐसा ही व्यवहार उनका अपने पालनकर्ता माँ-बाप के लिये भी रहा जबकि वे उन्हें  10-12 साल की उम्र में निराश्रित छोड़कर चले गये थे.

साहित्य में भी अपने विरोधियों और अपनी उपेक्षा करने वालों के साथ जीवन भर उनका यही व्यवहार रहा. यह बहुत कम लोगों के साथ होता है कि वे अपनी आत्मपरकता भूल कर समाज के सर्वव्यापी हित में अपनी कलम का उपयोग करें और अपनी आत्ममुग्धता से ऊपर उठकर स्वयं के या अन्य के प्रति बिना कोई दयाभाव या  अहं पाले मनुष्य जाति के लिये हर स्तर की लड़ाई लड़ें. ऐसी अपेक्षा नारायण सुर्वे जैसे किसी कवि से ही  की जा सकती है जो खुद मज़दूर हो और सड़क पर रहने वाले आम आदमी से जिसके सरोकार हों. इसलिये उन्हें जनता और साहित्यकारों द्वारा कामगार कवि का विशेषण प्रदान किया गया है.

नारायण सुर्वे मराठी साहित्य में विशेष रूप से अपनी कविताओं में आम आदमी की उपस्थिति को लेकर जाने गये हैं. उनकी कविता का यह आम आदमी, कारखाने में काम करनेवाला मज़दूर है. वह रात-रात भर मुम्बई की सड़कों पर पोस्टर चिपकाने वाला लड़का है, तार जोड़ने वाला  हमाल हैं, अपने बच्चे को स्कूल में दाखिले के लिये लेकर आने वाली वेश्या है, चौक पर माँस बेचता कसाई है.

इन बेज़ुबानों को ज़ुबान देते हैं नारायण सुर्वे अपनी कविता में…

“मैं कामगार हूँ
तळपती तलवार हूँ. “

(तळपती- जिस तलवार की धार महीन, चमकीली है. ऐसी तलवार जो सूरज के किरणों से और योद्धा के पराक्रम से चमचमाती हैं.)

वहीं वे इनका धर्म, जाति व आर्थिक आधार पर शोषण करने वालों के खिलाफ़ भी खुलकर खड़े होते हैं. अपमान, अवमानना व आत्मवंचना के एक लम्बे सिलसिले के बाद भी वे अपराध कहे जाने वाले किसी कार्य से नहीं जुड़ते लेकिन विरोध का हथियार वे अपने हाथ में रखते हैं और सभ्रांतों को ललकारते भी हैं …

‘अकेला नहीं आया हूँ  मैं
युग मेरे साथ है
सावधान यह तूफानों की शुरुआत है
कामगार हूँ मैं तड़पती तलवार हूँ.
सभ्रांतों कर रहा थोड़ा सा अपराध हूँ …“

 अपनी कविताओं के बारे में वे स्वयं कहते थे कि

“मेरी कविता उन मनुष्यों के लिए है जो अपने बेहतर जीवन के लिए संघर्ष करने और इस समाज को बदलने का हौसला रखते हैं.”

नारायण सुर्वे की कविताओं के तमाम पात्र हमारे इर्दगिर्द हैं, अंग्रेज़ों के खिलाफ़ अपनी लाल कमीज़ को परचम की तरह लहराने वाला अफ़गानी चाचा, दंगे में मारा गया याकूब नालवाला, कसाई शीगवाला, अपने गाँव मनीआर्डर भेजने वाली वेश्या और वह वारांगना जो मास्टर से आग्रह करती है की उसके बेटे के बाप के नाम की जगह किसी भगवान का नहीं बल्कि किसी इंसान का नाम लिखा जाए. उनकी कविताओं में बोगदा चाल में रहने वाले मजदूर हैं, घोड़ों के पांव में नाल ठोकने वाले लोग हैं, सह्याद्री की पर्वत श्रेणी पार  कर सुदूर ग्रामीण  अंचल से कामधंधे की तलाश में मुंबई आनेवाला वह पिता है जो समुद्र की रेत  पर दम तोड़ रहा है  और इस मेहनतकश सर्वहारा वर्ग के लिए जीवन दर्शन रचने वाले मार्क्स भी हैं.

यह सब पात्र उनकी कविता में अपनी भाषा अपनी बोली में बात करते हैं अपने अनगढ़ संवादों को जस का तस रखते हैं इसीलिये सुर्वे की कविता की भाषा शास्त्रीय नहीं है अपितु  वह जन भाषा ही  है, उसमें हिन्दी और मुम्बई की प्रचलित भाषा के शब्द हैं, वह गाँव देहात की भाषा है.

इस तरह से उन्होंने प्रचलित मराठी काव्य परम्परा की भाषा से विद्रोह कर  अपनी एक विशिष्ट भाषा और शैली का निर्माण किया जो बाद में आने वाले बहुत से दलित व मार्क्सवादी कवियों के लिये प्रेरणास्त्रोत बनी और मराठी साहित्य को एक नई दिशा प्राप्त हुई. उनके लिए कविता में अलंकारिकता आवश्यक नहीं थी, वे अनुभवजनित भाषा को अपनी कविता में स्थान देते थे और कविता के जन्म को एक कष्टसाध्य प्रक्रिया मानते थे. एक ईमानदार, स्वाभिमानी, सर्वहारा कवि की बेचैनी उनकी कविताओं में झलकती है.

अगर कोई कवि मार्क्सवादी है तो उससे यह अपेक्षा भी की जाती है की जन आन्दोलनों के नेतृत्वकर्ता और एक संगठन कर्ता के रूप में उसकी कोई भूमिका अवश्य होनी चाहिए. संगठन कर्ता के रूप में नारायण सुर्वे ने मुंबई के विविध मजदूर आंदोलनों में अपनी सक्रिय  भूमिका का निर्वाह किया. उन्होंने  केवल कविताएँ ही नहीं लिखीं बल्कि एक संगठनकर्ता के रूप में मजदूर बस्तियों में बैठकें की, आन्दोलन किये और नारे भी लगाये. विचारों के सम्प्रेषण हेतु उन्होंने कुछ व्यावहारिक सुझाव भी दिए जैसे कि कविता की भाषा सरल हो,  कवि लोगों के बीच जाएँ और सार्वजनिक स्थानों पर, संस्थाओं, महाविद्यालयों, कारखानों, पुस्तकालयों आदि में बिना किसी मानदेय अथवा बहुत कम मानदेय में कविता पाठ करें.

कवि अपनी रचनाओं का प्रकाशन अख़बारों, साहित्यिक व गैर साहित्यिक पत्रिकाओं में करें,  उस पर बातचीत हो, समीक्षाएं हों.  पत्र-पत्रिकाओं से उनका आग्रह था कि कविता पर केन्द्रित अंक का वर्ष में एक बार प्रकाशन अवश्य करें. उन्होंने साहित्यिक संस्थाओं और प्रकाशकों से भी अपील की कि कम मूल्य पर कविता संग्रह छापें और कवि सम्मेलनों और साहित्यिक कार्यक्रमों में स्टाल लगाकर उनकी बिक्री करें.

महाराष्ट्र में टिकट लेकर नाटक देखने और कवि सम्मलेन में कविता सुनने की परंपरा रही है. सुर्वे जी का कवि  सम्मलेन के आयोजकों से अनुरोध था कि  कवि सम्मलेन की टिकट कम से कम रखी जाए ताकि निर्धन और विपन्न लोग भी कविता सुन सकें. उनकी एक बुक ट्रस्ट की भी परिकल्पना थी. साहित्यिक जगत के अलावा गली कूचों, ग्रामीण क्षेत्रों और झोपड़ पट्टी में भी लोकप्रिय नारायण सुर्वे अब केवल मराठी साहित्य जगत के कवि नही रहे हैं. हिन्दी और अन्य भाषाओं में उनकी कविताओं के अनुवाद की शुरुआत हो चुकी है. भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री प्रदान की है , मध्यप्रदेश ने कबीर सम्मान ,महाराष्ट्र के साहित्य सम्मान व पुरस्कार तो अनेक हैं ही अनेक राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार भी उन्हें प्राप्त हो चुके हैं. वे मराठी साहित्य की देशव्यापी संस्था ‘अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन ‘ के अध्यक्ष भी रह चुके हैं. उन पर अनेक शोधकार्य हुए है और वृत्तचित्रों का निर्माण हुआ है.

नारायण सुर्वे अपनी आर्थिक विपन्नता के बावज़ूद अंत तक शोषण के खिलाफ़ लड़ते रहे. मुम्बई  को और इस देश को आज़ादी के पहले से लेकर बाद तक उन्होंने  देखा, औद्योगिक क्रान्ति को बाज़ारवाद में बदलते उन्होंने देखा, अपनी बस्ती गिरणगाँव की मिलों को टूटते हुए और उनकी जगह पूंजीपतियों के मॉल को बनते हुए देखा.

अंतत: जिस मुम्बई शहर को वे अपना विश्वविद्यालय कहते  थे उसे छोड़कर पास के एक गाँव नेरळ में जाकर बस गये. यद्यपि यह उनका पलायन नहीं था लेकिन कहीं न कहीं वे अपने आप को इस वैश्विक राजनीति और मनुष्य के खिलाफ़ होने वाले नये-नये षड़यंत्रों के बीच चुकता हुआ देख रहे थे. फिर भी अपनी कविताओं के माध्यम से आम आदमी के बीच उनका आना जाना जारी रहा और साथ ही जारी रही वह लड़ाई जिसके लिये वे बार-बार मृत्यु से मुठभेड़ करते रहे.

दुनिया में परिवर्तन करने वाले मनुष्य की ताकत और क्षमता पर उन्हें  हमेशा विश्वास रहा. मुम्बई के कामगारों की ज़िन्दगी और वहाँ के मनुष्य की जिजीविषा को स्वर देने के लिये उन्हें सदा याद किया जायेगा. उनके जाने के बाद भी उम्मीद है उनकी कविताओं के विपन्न, दलित ,दमित और शोषित  पात्र और उनकी विचारधारा में विश्वास रखने वाले भविष्य के कवि किसी न किसी तरह उनकी इस लड़ाई को  जारी रखेंगे.

शरद कोकास
दुर्ग छत्तीसगढ़  

चित्र साभार: अनुराग वत्स

‘पहल’ पत्रिका में प्रकाशित वैज्ञानिक दृष्टिकोण और इतिहास बोध को लेकर लिखी साठ पृष्ठों की लम्बी कविता ‘पुरातत्ववेत्ता‘  तथा लम्बी कविता ‘देह’ के लिए चर्चित कवि, लेखक,दर्शन एवं मनोविज्ञान के अध्येता  नवें दशक के कवि शरद कोकास के दो कविता संग्रह ‘गुनगुनी धूप में बैठकर’ और ‘हमसे तो बेहतर हैं रंग’ प्रकाशित हैं. विगत दिनों उनकी चयनित कविताओं का एक संकलन भी प्रकाशित हुआ है.

कविता के अलावा शरद कोकास की चिठ्ठियों की एक किताब ‘कोकास परिवार की  चिठ्ठियाँ’ और नवसाक्षर साहित्य के अंतर्गत तीन कहानी पुस्तिकाएं भी प्रकाशित हुई हैं.  

मोबाइल: 8871665060
ई मेल : sharadkokas.60@gmail.com

Tags: 20242024 आलेखचोर और नारारायण सुर्वेनारायण सुर्वेशरद कोकास
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Comments 11

  1. अशोक अग्रवाल says:
    10 months ago

    बांग्ला के प्रसिद्ध उपन्यासकार मनोज बसु का एक अत्यंत दिलचस्प उपन्यास ‘रात के मेहमान’ चोरों की दुनिया पर लिखा गया है। किस घर में चोरी करनी चाहिए और किस घर में नहीं और भी सूक्ष्म आयामों को उद्घाटित करने वाला उपन्यास।

    Reply
  2. सुदीप सोहनी says:
    10 months ago

    दक्षिण कोरिया के अद्भुत फ़िल्मकार किम की डुक ने लगभग संवादहीन फ़िल्म ‘थ्री आइरन’ में ऐसी दुनिया दिखाई है जिसमें चोर अपनी प्रेमिका के साथ एकांत की तलाश में ऐसे घरों में चोरी से प्रवेश करता है जो ख़ाली हैं। ये दोनों ही चोरी के रूप में इन घरों में रहते हुए विलास का उपभोग करते हैं। अगले दिन अगला घर। हाल ही में आई जैकी श्रॉफ़-नीना गुप्ता अभिनीत हिन्दी फ़िल्म ‘मस्त में रहने का’ में भी ऐसी ही कथा देखने को मिलती है।

    Reply
  3. विनय कुमार says:
    10 months ago

    नारायण सुर्वे के कुछ अनुवाद पढ़े थे, और तेवर की ख़बर थी, मगर उनके बारे में इतना कुछ पता नहीं था। शुक्रिया शरद जी और आपका।

    Reply
  4. लल्लन चतुर्वेदी says:
    10 months ago

    नारायण सुर्वे जी को विस्तार से जानने का सुअवसर प्रदान करने के लिए आपका और शरद कोकास जी का बहुत आभार! हम सब ने कविताओं की ताकत देखी है और महसूस भी किया है। सत्ताएं हिलने लगतीं हैं।

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  5. शरद कोकास says:
    10 months ago

    समालोचन के प्रबुद्ध पाठकों हेतु इस लेख को प्रस्तुत करने के लिए आपका बहुत-बहुत आभार । मुझे आशा है इस लेख के माध्यम से हिंदी के लेखकों एवं पाठकों को मराठी के कवि एक्टिविस्ट नारायण सुर्वे को निकट से जानने का अवसर प्राप्त होगा ।

    Reply
  6. अनय अनासक्त says:
    10 months ago

    शरद कोकास का यह लेख मराठी साहित्य के इतिहास एवं विशेषताओं पर दृष्टि डालता है साथ ही मार्क्सवादी एक्टिविस्ट कवि नारायण सुर्वे के न केवल जीवन बल्कि उनके द्वारा दलित शोषित पीड़ित मानवता के लिए किए गए कार्यों का विस्तार से वर्णन करता है। यह लेख एक महत्वपूर्ण शोध कार्य है जिससे लेखक स्वयं जुड़े हुए प्रतीत होते हैं । मराठी साहित्य की दो धाराएं हैं एक प्रगतिशील जनवादी धारा और दूसरी कलावादी धारा । नारायण सुर्वे प्रगतिशील जनवादी धारा के कवि रहे हैं । उनकी इन विशेषताओं को इस लेख में बहुत सूक्ष्म रूप में रेखांकित किया गया है । इसे प्रस्तुत करने के लिए आपका बहुत-बहुत आभार । यह भले ही एक चोर के कर्म के समय प्रस्तुत हुआ हो लेकिन यह एक हमेशा पढ़ा जाने वाला और संग्रहित किया जाने वाला लेख है जो अनेक लेखकों को भविष्य में अनेक संदर्भों में उपयोगी सिद्ध होगा । ‘समालोचन’ पत्रिका का यह एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है।

    Reply
  7. Naresh Chandrkar says:
    10 months ago

    एक जुझारू कवि पर महत्वपूर्ण और विचारशील लिख कवि शरद कोकास ने यहां ऐसे लिखा है जैसे उसने कोई लंबी कविता लिखी हो। अभिनंदन कवि शरद।

    Reply
  8. Rajendra upadhyaya says:
    10 months ago

    बहुत बढ़िया जानकारी दी है

    Reply
  9. कुमार विजय गुप्त says:
    10 months ago

    जनकवि नारायण सुर्वे पर वरिष्ठ कवि शरद कोकास जी ने ज्ञानवर्धक लेख लिखा है । बेशक , कवि सुर्वे आमजन के कवि रहे और साधारण बोलचाल की भाषा में कविताएं लिखीं , इसलिए सर्वसाधारण में स्वीकृत हुए । सोच कर खुशी होती है कि आम जन तो उनके श्रोता पाठक हैं ही , एक चोर के दिल में भी उनके प्रति सम्मान का भाव है । जबकि चोर और हत्यारा कम से कम यह सब नहीं देखता । एक बेहतरीन आलेख को हम पाठकों तक पहुंचाने के लिए #समालोचन का शुक्रिया 💐

    Reply
  10. Shashibhushan Badoni says:
    10 months ago

    वंचितों और शोषितों के कवि सुर्वे जी के बारे में आपने जो विस्तार पूर्वक लिखा है, उसके लिए साधुवाद।आपकी रचनाएं भी पढ़ता रहता हूं।पर अब आपकी पुस्तकें मन मशीन जो इधर चर्चा में है, और गुनगुनी धूप में बैठकर अमेजन से मंगाउंगा।आपका आभार।

    Reply
  11. Kumar Arun says:
    4 months ago

    बहुत शुक्रिया शरद कोकास जी !

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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