ख़ालिद जावेद
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महसूस होता है कि ख़ालिद जावेद से मेरा नाता न जाने कितना पुराना है. यहाँ पुराने का आशय इस नाते की गहराई से लगाया जाये, इसे सालों में नापना फ़िजूल है. इस दोस्ती का आनन्द यह है कि हमें लगता है कि हम एक-दूसरे को बरसों से जानते रहे हैं. शायद इसलिए भी हम एक-दूसरे को हमज़ाद कहते हैं. मानो हम साथ-साथ ही पृथ्वी पर आये हों.
ख़ालिद को मैंने हमेशा ही ख़ुशगवार शख़्स पाया है. हमेशा ही अपने को गुरु गम्भीरता के बोझ से बचाता हुआ शख़्स. अपनी शख़्सियत को फूल की तरह उठाये हुए शख़्स. हम मिलते ही दुनिया-ज़माने की लेकिन ख़ासकर किताबों की चर्चा में लग जाते हैं. मैं मन-ही-मन अपने को बेहद पढ़ा-लिखा मानता हूँ, पर ख़ालिद से मिलने पर हर बार यह पता चलता है कि और भी है दुनिया में बहुत पढ़ने वाले.
ख़ालिद का रूसी, फ्राँसीसी, जर्मन, फ़ारसी, लातीन अमरीकी, आयरिश आदि उपन्यासों का अध्ययन कमाल का है. कई उपन्यास हैं जो मैंने ख़ालिद के कहने से ही पढ़े हैं, जैसे युआन रूल्फ़ो का ‘पेट्रो परामो’ हार्ता मूलर का ‘पोस्टमेन’ आदि.
कई लेखक हैं जिनका लेखन हम दोनों को बराबर से पसन्द हैं. इनमें चेक लेखक मिलान कुन्देरा, आयरिश उपन्यासकार जेम्स ज्वॉयस तो हैं ही, इनमें सबसे पहले हैं निर्मल वर्मा.
ख़ालिद ने निर्मल जी से बहुत सीखा है. अपने लेखकीय स्वभाव के अनुरूप सीखा है कि संवेदनाओं का सूक्ष्मतम वर्णन किस तरह किया जाए जिससे उन्हें बुनने वाले बारीक धागे कहीं टूट न जाएँ. निर्मल जी ने मुझे तो बाकायदा सिखाया है. पर यहाँ बाकायदा का मतलब केवल इतना है कि उन्होंने समय-समय पर मुझे कुछ ऐसे इशारे किये जिन्हें बूझकर मुझे लेखन की बारीकियों का व्यवहार करना अपने स्वभाव के अनुरूप किसी हद तक आ गया. अगर मैं दरअसल ऐसा कर सका होऊँ.
पाठक लक्ष्य करेंगे कि ख़ालिद के किसी भी उपन्यास में संवेदनाओं या मानसिक अवस्थाओं का इतना बारीक वर्णन होता है कि हम उसे पढ़कर हतप्रभ रह जाते हैं और सोचने लगते हैं कि मानो हमारे सामने ही कोई काँपता हुआ इन्द्रजाल बुना जा रहा है. ज़रूरी नहीं कि पन्नों पर बुनी जा रही संवेदनाएँ या मानसिक अवस्थाएँ आकर्षक ही हों, अगर वे जुगुप्साजनक भी हैं, ख़ालिद उन्हें पूरी शिद्दत से धागा-दर-धागा बुनते हैं और उनके अनेक आयाम खुद-ब-खुद उभरते चले आते हैं. इसीलिए ख़ालिद के उपन्यासों को पढ़ते वक़्त यह एहसास लगातार होता रहता है कि हर भावना अनेक भावनाओं के मिलने से बनती है.
घृणा में प्रेम के धागे तैरते हैं और प्रेम में जुगुप्सा छिपी बैठी रहती है. नाट्यशास्त्र में यह माना गया है कि हर भाव के कई संचारी भाव होते हैं जो भाव के विभिन्न पहलुओं को अलग-अलग रंग देते हैं. ‘नेमतख़ाना’ के ये कुछ अंश देखिये:
“कुछ चेहरे, कुछ रूप ऐसे होते हैं जो आँखों की पकड़ में नहीं आते. वो आँखों से होकर निकल जाते हैं. और फिर खुश्बू बनकर रूह में उतर जाते हैं, यह और बात है कि हर खुश्बू आपको केवल आनन्द ही नहीं प्रदान करती, वह कभी-कभी बेहद दुःखी भी कर देती है.”
(नेमतख़ाना, पृ.85)
“मुझे कोई पहल नहीं करनी पड़ी, वह तो आते ही मुझसे बुरी तरह लिपट गयी और मुझे पागलों की तरह चूमने लगी. उसकी साँसों से अचार की महक आ रही थी.”
(नेमतख़ाना, पृ.94)
“और-मैं, मैं खुद एक ज़हरीले दूध की चाय का किया धरा भुगत रहा हूँ. मैं खुद ज़हरीला हो चुका हूँ- मेरे अन्दर वह ख़तरनाक प्रतिभा है जिसके बारे में अंजुम कुछ नहीं जानती. मैं इन खानों के ख़तरनाक संकेत जानता हूँ. अंजुम कुछ नहीं जानती. वह नहीं जानती कि मेरे अन्दर राम गंगा की खादर में छिपे बदमाशों और उनके घोड़ों से कहीं ज़्यादा ताक़त है. मैं अंजुम के साथ एक ऐसा सम्भोग भी कर सकता हूँ जिससे उसका सर चूर-चूर होकर, पत्थर की एक सिल पर बिखर जाए. अंजुम कुछ नहीं जानती वह केवल अपनी इच्छा के अधीन है और मैं पुराने कालिख लगे बावर्चीख़ाने में रहने वाले एक कॉकरोच के.”
(नेमतख़ाना, पृ.257)
2.
हम भले ही दो हफ़्तों बाद क्यों न मिले हों, मिलते ही हमारी बातें इस जोशोख़रोश से शुरू हो जाती हैं मानो हम कई बरसों के बाद बमुश्किल मिल पा रहे हों. उनकी खुशगवार तबीयत से यह अन्दाज़ लगाना नामुमकिन है कि उनके उपन्यासों में किस कदर कोहरा छाया रहता है, मानवीय स्थिति का कोहरा, इंसान के कहीं भीतर छिपे जुर्म या उसकी चाहत का कोहरा.
ख़ालिद ने ‘नेमतख़ाना’ में लिखा भी है, ‘इंसान का जुर्म और उसकी सज़ा दोनों ही उसकी रचना (या अपनी बुनावट) में पोशीदा हैं.’ इतना ज़रूर है कि इस कोहरे से समय-समय पर अगर सिसकना और रोना रिसता रहता है तो कभी-कभार उसी कोहरे में अट्टहास भी काँच के टुकड़ों की तरह बिखरता रहता है. नुकीले और चमकदार काँच के टुकड़ों की तरह. मैंने जानबूझकर यहाँ काँच के टुकड़ों को हँसी की उपमा की तरह बिखरा रहने दिया है. ख़ालिद के लेखन में अट्टहास या हास्य भरपूर है, पर वह चुभता हुआ हास्य है. वह ऐसा हास्य है जो हमारे चेहरे पर खून की लकीर छोड़ जाता है, पर साथ ही जो हमारे मन को कुछ और विस्तृत कर जाता है.
ऐसे बहुत कम, लगभग नहीं के बराबर उपन्यास होते हैं जिन्हें पढ़ते हुए आप अपने संसार के अंधेरों को अपनी चेतना की उजास में सिहरते हुए अनुभव कर पाते हैं. ये अंधेरे हमारे अस्तित्व से उसी तरह जुड़े हुए हैं जैसे सूर्य की रोशनी में हमसे हमारी परछाई. मानो वह हमारे दिन में हमारी रात के भी होने की याद दिला रही हो. हमारी परछाईं, जैसे कि हमारे जीवन के अँधेरे भले ही हमें दिखायी न दें पर वे होते ज़रूर हैं, किसी भी पल हमें पूरी तरह ढँक लेने को तैयार.
‘नेमतख़ाना’ अपने पाठकों को उनके संसार और अस्तित्व को देखने की ऐसी नज़र प्रदान करता है जिससे उन्हें वे काली सच्चाइयाँ दिखायी देने लगती हैं जिनके होने के विषय में उन्होंने दूर-दूर तक कल्पना तक नहीं की थी.
ख़ालिद का शुमार भारत के बड़े उपन्यासकारों में यूँ ही नहीं है. उनके लेखन में- वे कहानियाँ हो या उपन्यास- उसी तरह का आकर्षण है जैसे परिकथा के राजकुमार को उस कमरे का हुआ था जिसमें जाने से उसे मना किया गया था. यह इसलिए कि ये उपन्यास अपने पाठक के चारों ओर से गुज़रती उन चीखों को सुनने के दायरे में ले आते हैं जिनमें बहते इंसानी वजूद के अनेक दुःखते आयाम अनसुने ही रहे आते हैं.
3
ख़ालिद के अब तक चार उपन्यास प्रकाशित हुए हैं. चारों अपनी तरह के विलक्षण उपन्यास हैं. ‘मौत की किताब’, ‘नेमतख़ाना’, ‘एक ख़ंजर पानी में’ और ‘अर्सलान और बहज़ाद’.
इन सभी उपन्यासों में अगर है तो सिर्फ़ एक चीज़ सामान्य है: ये सभी अस्तित्व के अनछुए, अनदेखे, अनसुने आयामों को एक साथ शल्य चिकित्सक की निर्ममता और कवि की संवेदनशीलता के साथ उद्घाटित करते हैं.
ये उपन्यास मनुष्य के मानसिक भूगोल के ऐसे-ऐसे हिस्सों में हमें ले जाते हैं जिनमें गन्दे पानी का नाला बहता है, बारिश के पानी से काई जम गयी ईंटों पर मेंढ़क उछलते हैं, जहाँ पर उसके पापों का कोहरा छाया रहता है, जहाँ उसके किये-अनकिये गुनाह वनैले जानवरों की तरह दाँत भींचते हुए भटकते रहते हैं. वे उन लेखकों में हैं जो अपने हर उपन्यास में उपन्यास लेखन के नये मार्ग खोजते हैं और इस तरह अपनी तकनीक और छवि को हर बार दाँव पर लगाते हैं. यह बहुत मुश्किल काम है. इसे करने में उपन्यासकार को न सिर्फ़ अपने लिखने के पुराने रास्तों को छोड़ना पड़ता है बल्कि ऐसे नये रास्तों पर चलने का प्रयास करना पड़ता है जिसके विषय में उसे कोई पूर्व ज्ञान नहीं होता, और जिसे वह चलते-चलते ही बना पाता है.
ऐसा लेखन अपने लिखे जाने की प्रक्रिया में हर बार खुद अपने लेखक को हैरत में डालता है लेकिन साथ ही उसे पल भर के लिए भी आश्वस्त नहीं होने देता. शायद यही कारण है कि इन उपन्यासों के वाक्यों की उजास में, जैसा कि संस्कृत काव्यशास्त्री दण्डी ने शब्दों के बारे में कहा था, हमें अपने मन और संसार के उन अँधेरों का विस्तार साफ़ नज़र आने लगता है जो हमें हर ओर से हर वक़्त घेरे रहते हैं. पर इस उजास में हमारे अँधेरे इलाके हमें डराते नहीं, वे हमें खुद को देखने-समझने और अपना नैतिक दायित्व स्वीकार करने की ओर मोड़ देते हैं. अँधेरे केवल तभी तक डरावने होते हैं जब तक उन पर ख़ालिद जैसे उपन्यासकार की क़लम की उजास न पड़ जाए. यह ख़याल रहे कि इस उजास का स्रोत इन उपन्यासों की भाषा के अन्तस में काँपता अनूठा लेखकीय विवेक है.
4
कई वर्ष हुए जब हमारे उर्दू लेखक मित्र रिज़वानुल हक़ से मैंने उर्दू के कुछ बेहतर कथा लेखकों की जानकारी माँगी थी. मुझे ठीक से याद है कि रिज़वान ने सबसे पहला नाम और वह भी पूरे उत्साह से ख़ालिद जावेद का लिया था. यह संयोग ही है कि उनके दूसरे उपन्यास यानी ‘नेमतख़ाना’ का एक अंश रिज़वान ने हिन्दी में अनुवाद कर मुझे पढ़ने दिया. उन कुछ पन्नों को पढ़ने पर चमत्कृत हो गया था.
मैं कुछ ऐसा पढ़ रहा था, जिसमें संसार को एक ऐसी जगह से देखा जा रहा था जहाँ से उसके भीतर की उदासी, दुःख, अनिश्चितता और असहायता साफ़-साफ़ नज़र आ रही थी. इस लेखन में संसार की क्षुद्रता और घिनौनेपन का सीधे-सीधे सामना किया जा रहा था, और यह सब स्पन्दनशील, दार्शनिक और काव्यात्मक भाषा में किया जा रहा था. यहाँ उम्मीद का लेशमात्र भी कहीं नज़र नहीं आता था.
ख़ालिद जानते हैं- उनके उपन्यास इसकी गवाही देते हैं कि उम्मीद का स्रोत उपन्यास के चरित्रों में नहीं, सहृदय पाठकों के मन में होता है. उपन्यास- अगर प्रूस्त की धारणा को थोड़ा-सा बदल कर कहें- ऐसा लैन्स होता है जिससे पाठक अपने भीतर उम्मीद और नैतिकता के जीवन्त स्रोत को महसूस करने लगता है.
वह ‘मौत की किताब’ की उजास में अमरता का स्वाद चखने लगता है. कुछ-कुछ ग़ालिब की शायरी की तरह इन उपन्यासों में अस्तित्व के फँसाव, उलझाव और रहस्यमय होने का ऐसा आख्यान रचा गया है जो शायद ही कभी भारतीय उपन्यासों में हुआ हो. अब जब मैं ख़ालिद का लगभग सारा लेखन पढ़ चुका हूँ, मैं थोड़े अधिक भरोसे से कह सकता हूँ कि उनका समूचा लेखन मानवीय अस्तित्व के तहख़ानों की शिनाख़्त में लगी भाषा के ऐसे आत्मसंघर्ष की दास्तान है जो अपनी उपमाओं और दूसरे अलंकारों के सहारे खुद अपने को लाँघने की कोशिश में अनोखी चमक पा लेती है.
यह लेखन हमारे सामने हमारे अपने नैतिक पतन को कुछ इस तरह खोल कर रख देता है मानो वह हमें हमारी ज़िन्दगी की फ़िल्म को दोबारा दिखा रहा हो पर इस बार कुछ इस तरह की हमें वे सारे अपराध साफ़-साफ़ नज़र आ जाएँ, छोटे-बड़े जिन्हें हमने अपने अतीत की धूल-धक्कड़ में खुद अपने से ओट कर रखा था.
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‘मौत की किताब’ ख़ालिद का पहला उपन्यास है. यह एक कस्बे में रह रहे ऐसे आदमी की कहानी है जो लगातार खुदकुशी करने पर विचार करता रहता है. उपन्यास में खुदकुशी का व्यक्ति-करण (पर्सोनिफिकेशन) किया गया है. वह उपन्यास में एक चरित्र बनकर आती है जो हमेशा ‘मौत की किताब’ के नायक के पास बनी रहती हैं. वह कहता है:
“मैं खुशकुशी को अक्सर अपने सामने बैठी मुस्कुराती हुई भी देखता हूँ. ये बड़ी मेहरबान मुस्कुराहट है, शाज-ओ-नादिर ही कभी इस मुस्कुराहट में तेज पैदा होता है…”
यह अपने शिकार को आराम से ताकती हुई खुदकुशी है: निष्ठुर और धीर. मानो उसे पता हो कि उसका शिकार आज नहीं तो कल उसके जाल में फँसकर ही रहेगा. लेकिन उसकी इस चाहना के बीच उसके शिकार के जीवन में बिखरी ऐसी कई पीड़ाएँ हैं, अपमान हैं जिन्हें सहने की ताक़त किसी भी इंसान को नहीं मिली है. नतीजतन खुदकुशी का सम्भावित शिकार और उपन्यास का नायक पागलख़ाने की ओर ढकेला जाने लगता है मानो पागलख़ाना ज़िन्दगी और मौत के बीच स्थित कोई सराय हो जहाँ रुक कर इंसान ऐसी भयानक पीड़ा सहता है कि उसमें पीड़ा के पार जाने का हुनर आ जाता है.
चेखव ने क़रीब डेढ़ सदी पहले पागलख़ाने के एक चिकित्सक के पागलों के प्रति संवेदनशील होने पर खुद पागल करार दिये जाने की कहानी लिखी थी (वार्ड नम्बर 6). अगर वह चिकित्सक ‘मौत की किताब’ पढ़ सका होता तो उसे पता चलता कि कैसे कोई शख़्स कितने दुखते हुए अपमान-भरे रास्तों से पागलख़ाने की ओर ढकेला जाता है. हमारा समाज ऐसा रहा ही नहीं जिसमें ऐसे लोगों का गुज़ारा हो सके जिनकी जेबों में उनकी खुदकुशी कुलबुलाया करती है.
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‘मौत की किताब’ से जुड़ा हुआ पर उससे बिलकुल ही अलग ‘नेमतख़ाना’ का रास्ता है. यह एक कस्बे और संयुक्त परिवार में रह रहे बिना माता-पिता के उस बच्चे का आख्यान है जिसके प्यार की भूख उसे ऐसी स्थितियों में ला खड़ा करती है जिनमें अचानक ही उसके हाथों जघन्य अपराध हो जाते हैं. इन अपराधों के बोझ तले उसकी समूची ज़िन्दगी खुद उसके लिए असह्य हो जाती है. यहाँ ‘नेमतख़ाना’ महान रूसी उपन्यासकार दोस्तोएवस्की के ‘अपराध और दण्ड’ से संवाद करता है.
‘अपराध और दण्ड’ का नायक रोस्कोलनिकोव जहाँ सचेत रूप से की गयी हत्या के बोझ को सह नहीं पाता और अपने अपराध का सार्वजनिक स्वीकार करता है, वहीं नेमतख़ाना का हफ़ीजुद्दीन बाबर बचपन में उसके हाथों अचानक ही हुए अपराधों की गठरी को सिर पर उठाये खुद ही ऐसे समय और ऐसी जगह में प्रवेश करता है, जहाँ वह अपनी मौत- जिसे वह अपने अपराधों की सजा मानता है- का पूरी हिम्मत से सामना कर सके.
इंसान के अपराध भले ही औरों की नज़र से छिपे रहे आएँ, अपराधी का मन और शरीर उसके बोझ को सह नहीं सकते. ‘नेमतख़ाना’ के नायक बाबर के हाथों जैसे ही कत्ल होता है, वह उसके शरीर और आत्मा को झकझोर कर रख देता है:
“थोड़ी देर बाद मुझे बहुत ज़ोर की ठंड लगने लगी. मेरे दाँत बजने लगे. मेरे ऊपर लिहाफ़ डाल दिया गया. मैंने किसी को कहते सुना. ‘बच्चा है- बुरी तरह डर गया है, उसे बुख़ार आ रहा है.’
और वास्तव में वह आ रहा था. मैंने बुख़ार के क़दमों की धमक को अपने कानों के ठीक क़रीब सुना. मेरी कनपटियाँ तपती हुई सलाख़ों जैसी हो गयीं.”
(नेमतख़ाना, पृ.123)
अपराध उसे चुपचाप और धीरे-धीरे ऐसी स्थिति में ले आते हैं जहाँ उसको उनकी सज़ा मिल सकें. मानो हर अपराध अपनी सज़ा को पाने में ही अपनी पूर्णता देखता हो. वह उसे पाकर ही रहता है फिर भले ही इस प्रक्रिया में उसे करने वाले अपराधी की जान ही क्यों न चली जाए. मैं इसी अर्थ में ‘नेमतख़ाना’ और ख़ालिद के दूसरे उपन्यासों को नैतिक दायित्वों का अहसास जगाने वाली कृतियाँ कह सकता हूँ.
अंधेरे का, गन्दगी का, अपमान का और प्रेम के अभाव का वर्णन यहाँ शायद इसलिए किया गया है कि उन्हें गहराई से समझा जा सके, कि उनके प्रति अधिक संवेदनशील रुख अपनाया जा सके, कि यह बताया जा सके कि किसी भी जुर्म के होने में सिर्फ़ अपराधी ही नहीं उसके आसपास का समाज भी अदृश्य रूप से शामिल रहता है खासकर तब जब वह खुद ही धीरे-धीरे सड़ाँध और छोटेपन की ओर चलता जा रहा हो, कि जुर्म की कहानी अपराधी को सज़ा देने भर से ख़त्म नहीं हो जाती क्योंकि उसके बीज हर इंसान अपने भीतर छिपाये घूमता-फिरता है कि उन्हें जैसे ही उपेक्षा, अपमान, हिंसा, ईर्ष्या, स्पर्धा आदि की उपजाऊ ज़मीन मिल जाती है, वे घटना शुरू हो जाते हैं और फिर कोई भी कुछ नहीं कर पाता.
‘नेमतख़ाना’ आधुनिक संस्कृति के पतन की गाथा है. ऊपर से देखने पर हाफिज़ुद्दीन बाबर भले ही उसका नायक जान पड़े पर सांस्कृतिक पतन की इस गाथा का असली नायक ‘अपराध’ है जो इस पतन के फलस्वरूप उत्पन्न होकर संस्कृति मात्र के मरने का उद्घोष करता है. ‘नेमतख़ाना’ पढ़कर यह एहसास गहराता है कि डूबती हुई संस्कृति अपने साथ धर्म का मर्म और अलौकिक की उजास को भी ले जाती है. सारे शब्द निष्प्रभावी होने लगते हैं, उनकी अनुगूँज कहीं नहीं जाती. वे स्मृति को जगाने की जगह सिर्फ़ आत्म-ग्लानि को पुनर्नवा करते हैं. ज़िन्दगी में उतार-चढ़ाव ख़त्म हो जाते हैं, इंसान सिर्फ़ साँस लेता पुतला हो जाता है:
“अब मुझे मालूम हो गया है कि दरअसल ज़िन्दगी उतनी ही सपाट वस्तु का नाम है. ये सब रोज़मर्रा है. भूत, वर्तमान, भविष्य सब एक-दूसरे के ऊपर लदे हुए हैं. सब एक-दूसरे की सवारी करते हैं. केवल खाना खाना और पेट भर कर खाना ही इंसान का उद्देश्य है. केवल उसकी आँते ही है जो इंसान को एक विकृत या टूटा-फूटा विज़न प्रदान करती हैं.” (नेमतख़ाना, पृ.173)
7
‘अर्सलान और बहज़ाद’ ख़ालिद का अकेला उपन्यास है जो अब तक हिन्दी में प्रकाशित नहीं हुआ है. मेरी खुशकिस्मती है कि ख़ालिद उसे मुझे सुनाने खुद दिल्ली से भोपाल आये थे. हमने एक दोपहर मेडिकल कॉलेज में, एक शाम होटल में और एक सुबह रेस्तराँ में वह लम्बा और बेहद रोचक उपन्यास ख़ालिद के मुँह से सुना था.
इस उपन्यास का फलक काफ़ी बड़ा है और इसका हर चरित्र चाहे वह ‘अर्सलान और बहज़ाद’ विचित्र ढंग से पैदा होकर समूचे मानवीय अस्तित्व को संदिग्ध बना देता है. यह उपन्यास तरह-तरह के ऋणों पर बिलकुल अनूठे तरीकों से रोशनी डालता हुआ शेक्सपियर के नाटकों की तरह जटिल आख्यान मार्गों पर चलते हुए हमें जीवन के उन आयामों के बारे में दोबारा सोचने पर मजबूर करता है जिन्हें हमने एक तयशुदा ‘सोच’ में गिरफ़्तार कर रखा था.
मैं ‘अर्सलान और बहज़ाद’ पर से अधिक पर्दा नहीं उठाऊँगा पर इतना ज़रूर कहूँगा कि यह उपन्यास भी ख़ालिद के दूसरे उपन्यासों की तरह ही सांस्कृतिक पतन के दौर में मानवीय नैतिकता की खोज का उपन्यास है. यहाँ यह याद कर लेना बेहतर होगा कि उपन्यास का जन्म आधुनिकता में अकेले और कमज़ोर पड़ गये इंसान की नैतिक दृष्टि की खोज के लिए ही हुआ था, यह पड़ताल करने कि धर्म के प्रभावहीन होते जाने से अकेला पड़ गया आधुनिक मनुष्य अपनी नैतिकता को कैसे पहचाने.
हम भारत में जिस अधिकांश झूठी सामूहिकता की ओट में वैयक्तिक नैतिक दायित्व को भुलाये रखते हैं, उस कायर आलस्य से हमें बाहर खींच लाने का काम भारतीय उपन्यास को करना था. उसने वह किया ज़रूर पर कभी-कभार ही.
ख़ालिद जावेद के ‘नेमतख़ाना’ समेत सारे उपन्यास वैयक्तिक नैतिक दृष्टि को चिन्तन के, संवेदन के केन्द्र में लाकर खड़ा कर देते हैं. अब यह हम पाठकों पर निर्भर करेगा कि हम उस चिन्तन को कितना विस्तार और गहराई अपने जीने के ढंग में देते हैं.
8
उपन्यास का जन्म कविता और इतिहास के बीच फैले बीहड़ थरथराते प्रदेश में हुआ है. यह वह प्रदेश है जिसमें मनुष्य का प्रवेश हुए चार-पाँच सदियाँ ही हुई हैं. यहाँ मिथक-पुराणों के सान्त्वनादायी समय से बाहर फेंक दिये गये ईश्वरविहीन और आश्वासनहीन मनुष्य का वास है, उस मनुष्य का जिसके धर्म अपनी ही छायाओं में तब्दील हो चुके हैं और जिसके दायित्व-बोध पर कुहासा घिर आया है.
इसे न कविता की सान्त्वना प्राप्त हुई है, न इतिहास का सूखा नियतिवाद ही इसे जज़्ब कर पाया है.
उपन्यास इसी प्रदेश में निःसहाय भटकते मनुष्यों का आख्यान रचता है. अगर उपन्यास इतिहास की ओर अधिक झुक जाता है, उसमें नियतिवाद के सूक्ष्म रूप अधिक प्रभावी होने लगते हैं और नैतिक विवेक फीका पड़ता जाता है, वह होता ज़रूर है पर नियति की अनिवार्यता के कहीं पीछे झिझकता हुआ सा. अगर उसका झुकाव कविता की ओर होता है, उपन्यास अपने पाठक में गहरा वैयक्तिक विवेक जगाने की ओर बढ़ता है. यह उन्हीं उपन्यासों में होता है जिनकी भाषा कविता की पाठशाला में दीक्षित होती है. यानी जहाँ भाषा की सारी शक्तियों (अभिधा, लक्षणा और व्यंजना) को प्रकट होने का अवसर मिलता है.
‘नेमतख़ाना’ कविता की ओर झुका हुआ उपन्यास है, इसीलिए इसकी आत्म-सजग भाषा में बहते पानी की-सी, परिन्दों की उड़ान की-सी लय है. इस लय के सहारे ही ‘नेमतख़ाना’ इतिहास की बंजर ज़मीन से उठकर कविता की ओर जाते हुए अपने पाठक के मन को इतिहास के नियतिवाद पर विचार करने प्रेरित करता है. यह चिन्तन करता हुआ बेहद रोचक उपन्यास मानवीय पीड़ा के उन इलाकों में हमें ले जाता है जहाँ हम अनायास ही अपने विशिष्ट नैतिक बोध की उजास में डूब जाते हैं.
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उदयन वाजपेयी
जन्म : 4 जनवरी, 1960; सागर, मध्य प्रदेश प्रकाशित पुस्तकें : ‘कुछ वाक्य’, ‘पागल गणितज्ञ की कविताएँ’, ‘केवल कुछ वाक्य’ (कविता-संग्रह); ‘सुदेशना’, ‘दूर देश की गन्ध’, ‘सातवाँ बटन’, ‘घुड़सवार’ (कहानी-संग्रह); ‘चरखे पर बढ़त’, ‘जनगढ़ क़लम’, ‘पतझर के पाँव की मेंहदी’ (निबन्ध और यात्रा वृत्तान्त); ‘अभेद आकाश’ ( फ़िल्मकार मणि कौल); ‘मति, स्मृति और प्रज्ञा’ (इतिहासकार धर्मपाल), ‘उपन्यास का सफ़रनामा’ (शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी), ‘विचरण(दार्शनिक नवज्योत सिंह), ‘कवि का मार्ग’ (कवि कमलेश), ‘भव्यता का रंग-कर्म’ (रंग-निर्देशक रतन थियाम), ‘प्रवास और प्रवास’ (उपन्यासकार कृष्ण बलदेव वैद); का.ना. पणिक्कर पर ‘थियेटर ऑफ़ रस’ और रतन थियाम पर ‘थियेटर ऑफ ग्रेंजर’; वी आँविजि़ब्ल (फ्रांसीसी में कविताओं के अनुवाद की पुस्तक); ‘मटमैली स्मृति में प्रशान्त समुद्र’ (जापानी कवि शुन्तारो तानीकावा के हिन्दी में अनुवाद); कविताओं, कहानियों और निबन्धों के अनुवाद तमिल, बांग्ला, ओड़िया, मलयालम, मराठी, अंग्रेज़ी, फ्राँसीसी, स्वीडिश, पोलिश, इतालवी, बुल्गारियन आदि भाषाओं में ‘समास’ का सम्पादन कुमार शहानी की फ़िल्म ‘चार अध्याय’ और ‘विरह भर्यो घर-आँगन कोने में’ का लेखन कावालम नारायण पणिक्कर की रंगमंडली ‘सोपानम्’ के लिए ‘उत्तररामचरितम्’, ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ की हिन्दी में पुनर्रचना, पणिक्कर के साथ कालिदास के तीनों नाटकों के आधार पर ‘संगमणियम्’ नाटक का लेखन 2000 में लेविनी (स्वीट्ज़रलैंड) में और 2002 से पेरिस (फ्रांस) में ‘राइटर इन रेसिडेंस’, 2011 में नान्त (फ्रांस) में अध्येता के रूप आमंत्रित मई 2003 में फ्रांस के राष्ट्रीय पुस्तकालय में भारतीय कवि की हैसियत से व्याख्यान वाराणसी, भुवनेश्वर, पटना, मुम्बई, दिल्ली, पेरिस, मॉस्को, जिनिवा, काठमांडू आदि स्थानों पर कला, साहित्य, सिनेमा, लोकतंत्र आदि विषयों पर व्याख्यान ‘रज़ा फ़ाउंडेशन’, ‘कृष्ण बलदेव वैद पुरस्कार’ और ‘स्पंदन कृति सम्मान’ से सम्मानित गाँधी चिकित्सा महाविद्यालय, भोपाल में अध्यापन |
कमाल है अरुण जी. सच में आप बहुत गहरे गोते लगाते हैँ. खालिद साहब पर मुझे समलोचन से ही उम्मीद दी. धन्यवाद.
हौले हौले Udayan Vajpeyi जी ने चारों उपन्यास को छुआ । संस्मरणात्मक शैली में शुरुआत करते हुए यह समीक्षा उपन्यास के हृदय तक जाती है । शुक्रिया इस पोस्ट के लिए ख़ालिद साहब को और पढ़ने की चाह जगा गई यह लेखनी।
यह लेख हिंदी पाठकों को ख़ालिद जावेद को पढने का दरवाज़ा खोलता है, यह काम उदयन जी के वश का ही था जो उन्होंने किया. मैंने दोनों को निर्मल वर्मा पर बोलते सुना था. मैं इतना अभिभूत हुआ कि उसे ट्रांसक्राइब किया. समास में वह प्रकाशित है. हिंदी-ऊर्दू के cultural milieu को समझने के लिए ख़ालिद जावेद से आज के समय में एक बातचीत बेहद ज़रूरी है. वो उदयनजी ही करें तो बेहतर होगा, यह मेरा उनसे सार्वजनिक अनुरोध है….
ख़ालिद जावेद को लेकर विस्तृत विलक्षण अद्भुत झकझोर लेख पढ़ा, रूह में बहुत गहरे उतरकर जो लाये हो वह अनोखा है इस अनोखेपन की बानगी नैरन्तर्य मिलती रहे, जावेद जी के साथ धरती पर साथ आये, तब मैं पृथ्वी पर मौजूद था और आप दोनों के लिये ज़मीन बना रहा था अपनी ज़मीन से बेदख़ल होकर.
जावेद जी ने निर्मल जी से सीखा तुमने निर्मल जी से अब तुमसे कई-कई सीख रहे हैं इस प्राथमिक पाठशाला में कई उत्तीर्ण हुये और कुछ अनुत्तीर्ण ( फिसड्डीपन भी तो कोई मायने रखता है)
सीख परम्परा तभी संभव होती है जब सोच-विचार,चित्त निर्मल हो, अब इस परम्परा में सेंध लग रही है य,जो विदित ( सर्व ) है.
‘ हर भाव में कई संचारी भाव होते हैं ‘.
आप अपने संसार के अंधेरों को अपनी चेतना की उजास में सिहरते हुए अनुभव कर पाते हैं. ये उपन्यास को पढ़ते हुये शायद कई रचनाओं से भी हम रू-ब-रू होते हैं.
“इन सभी ( चारों )उपन्यासों में अगर है तो सिर्फ़ एक चीज़ सामान्य है: ये सभी अस्तित्व के अनछुए, अनदेखे, अनसुने आयामों को एक साथ शल्य चिकित्सक की निर्ममता और कवि की संवेदनशीलता के साथ उद्घाटित करते हैं.”
उदयन की शल्य चिकित्सक सहित कवि ( मूलत: ) दृष्टि के साथ जो पारखी पैनापन है वह अन्तर्निहित भावों की गझिनता को अत्यंत सूक्ष्मता के साथ वैसे ही बारीक ( पतला ) धागों को टूटने से बचाकर लाते हैं वह उनके लेखों में, साक्षात्कारों में, आलोचनाओं में, कविताओं के साथ समग्र कलाओं में बिखरी पड़ी है,आप देख सकते हैं, देख रहे हैं,और खोज सकते हैं.
उदयन के इन आठों पहर की विपुलता इन उपन्यासों के साथ-साथ इतर कई यात्राओं में यात्रियों को बियावान में नहीं छोड़ती,
खोजती हैं कई आयामों को जो अनछुये छूट गये हैं ( या छोड़ दिये गये हैं ).
ये लेख जमी धूल को झटकारते हुये धूल-धूसित नहीं करता बल्कि धूल पोंछकर पारदर्शी
होकर रचनाकाश को और अधिक संश्लिष्ट करता है.
उदयन और अरूण जी के प्रति आभार.
यहाँ उल्लेख की गईं किताबों में से मैंने एक भी नहीं पढ़ी । परंतु इस लेख की भाषा ने चकाचौंध कर दिया है । मन के अँधेरे में उजास भर दिया है । उदयन वाजपेयी के निबंध ‘चरखे पर बढ़त और अन्य निबंध’, मणि कौल पर पुस्तक तथा पतझर के पाँव में मेहंदी पढ़ी हुई हैं ।
ज़ाहिर है कि ख़ालिद जावेद की रचनाओं का फ़लक व्यापक है ।
इनका, आपका और उदयन वाजपेयी का धन्यवाद ।
अभी शमोएल अहमद को मंगवाया ही था कि आज एक अन्य बड़े लेखक के विषय में समालोचन से पता चला। समालोचन पुस्तक प्रेमियों को जीने नहीं देगा😂😂 एक के बाद एक बेहतरीन अंक आ रहे हैं। मुझे तो हाई स्कूल में बोर्ड की तैयारियों की याद आ रही है। लग रहा है कितना कोर्स बक़ाया है और समय कम😊
बहुत बढ़िया अंक, बधाई अरुण सर🙏🙏
जावेद साहब जैसे महत्वपूर्ण लेखक को अभी तक मैंने पढ़ा नहीं है। यह पहली बार है कि उदयन जी के इस आलेख से इनके चारों उपन्यासों से परिचित होने का अवसर मिला और इन्हें जल्द से जल्द पढ़ लेने की प्रेरणा भी मिली। उदयन जी और अरुण जी, आप दोनों को बहुत धन्यवाद।
अत्यन्त अन्तरंग, आत्मीय और अन्तर्दृष्टिपूर्ण पाठ।
I read and many things went above my head.Will read again.Thank you for sharing.Happy New Year !
यह आलेख पढ़ना शुरू करने से पहले मैं नहीं जानती थी कि एक बार शुरू करके मैं इसे शब्द – शब्द पढूँगी। इसे ऐसी शैली में लिखा गया है जो लिखते हुए श्रमसाध्य हुई हो सकती है, लेकिन पढ़ते हुए अपनी सघन वैचारिकता के साथ भी दिल में ऐसे उतरती है जैसे मक्खन में गर्म चाकू। मैं ख़ालिद जावेद के लेखन से लगभग अपरिचित थी पर इस समय लग रहा है जैसे उनके लेखन को ही नहीं व्यक्तित्व को भी पुराने परिचित की तरह जान गयी हूँ और और उनके अंतिम (अब तक) उपन्यास को सुनने की बैठक में चुपचाप एक अंधेरे कोने में बैठी हूँ।
कविताएँ लिखते समय (जैसी भी लिखती हूँ) मेरी एक चिंता यह भी होती है कि अब किसी कवि पर उस गहराई व विस्तार से भी नहीं लिखा जाता जितनी न्यूनतम आवश्यकता है, किसी ने कितनी भी शिद्दत से कितना भी काम किया हो। किन्तु उदयन वाजपेयीजी का यह आलेख पढ़कर कुछ उजाला मेरे आसपास ज़रूर हुआ है कि जैसे उपन्यास पर लिखने के लिए भी इतिहास और कविता के बीच खड़ा एक व्यसनी पाठक होना चाहिए कविताओं पर लिखने के लिए दर्शन और प्रेम के बीच से उगा एक आदमी ज़रूरी है, जो उस कवि के साथ- साथ जीने, हँसने -रोने लगे। बस तब तक कविताएँ लिखी और पढ़ी जायें वह भी बहुत है। तब तक कवियों को ही दूसरे कवियों से यह संबंध रखना होगा।
आलेख में अनेक जगह गद्य, कविताओं में तब्दील हो गया है और कविताएँ प्रेमपत्रों में, ऐसे कि मुझे बार – बार याद आता रहा कि यह एक कवि का गद्य है।
यह जावेद जी के काम पर हिंदी में पहला औपचारिक और विस्तृत लेख है। इसका बहुत स्वागत है।
उदयन जी की बात से मुत्तफ़िक़ हूं कि जावेद जी से मिलकर कभी नहीं लगेगा कि यह “मौत की किताब” का लेखक है। दशक से भी पहले पहल पत्रिका में उनकी कहानी पढ़ी थी और जामिया में छुटपुट बातें हुई थीं।
जावेद जी पर प्रभावों के ज़िक्र में निर्मल वर्मा का उद्धरण रोचक है।
“यहाँ मिथक-पुराणों के सान्त्वनादायी समय से बाहर फेंक दिये गये ईश्वरविहीन और आश्वासनहीन मनुष्य का वास है, उस मनुष्य का जिसके धर्म अपनी ही छायाओं में तब्दील हो चुके हैं और जिसके दायित्व-बोध पर कुहासा घिर आया है.”
इतना दृष्टिसम्पन्न आलेख है यह और उपन्यास को लेकर इतना गम्भीर चिन्तन … कि इसे बार बार पढ़ना पड़ेगा। ख़ालिद जावेद और उदयन वाजपेयी ने वैसे ही एक दूसरे की ओर यात्रा शुरू की होगी जैसे मसलन कुमार शहानी और मणि कौल और उदयन के बीच एक साफ़ पगडंडी का उद्दीपन हुआ होगा।
उदयन की यह विलक्षण यात्रा और संवाद क्षमता उनकी हस्ती का मर्म है। इस तरह की यात्राएँ बहुत कम हिन्दी लेखकों ने की हैं। ऐसे संवाद तो हिन्दी की भीतरी दुनिया में दुर्लभ हैं ही।
ख़ालिद जावेद को यदि हिन्दी में गंभीरता से पढ़ा जाएगा तो हिन्दी का सौभाग्य होगा।