इन दिनों दिल्ली में चल रहे विश्व पुस्तक मेले में विनोद कुमार शुक्ल का साहित्य नए कलेवर में पाठकों के लिए उपस्थित हैं. साथ ही मेले के दौरान इकतारा ट्रस्ट से छपी उनकी बच्चों के लिए लिखी किताबों- ‘एक चुप्पी जगह’ , ‘गोदाम’, ‘एक कहानी’, ‘घोड़ा और अन्य कहानियाँ’ तथा ‘बना बनाया देखा आकाश: बनते कहाँ दिखा आकाश’ (कविता संग्रह) दिखाई देता है. इन सब के बीच उनके बाल साहित्यकार रूप में उनकी चर्चा छूट जाती है, जबकि हाल के वर्षों में विनोद कुमार शुक्ल बच्चों के लिए साहित्य रचने पर जोर दे रहे हैं.
पिछले कुछ सालों में पुस्तक मेले में बाल साहित्य में बच्चों और वयस्कों की दिलचस्पी काफी दिखाई देती रही है, लेकिन हिंदी के प्रतिष्ठित साहित्यकारों का लेखन यहाँ नहीं दिखता. सच तो यह है कि हिंदी में साहित्यकारों ने बच्चों को ध्यान में रख कर बहुत कम लिखा है. प्रकाशकों ने भी इस वर्ग के पाठकों में रुचि नहीं दिखाई. इसके क्या कारण है? जहाँ हिंदी के प्रतिष्ठित प्रकाशक बच्चों के लिए किताबें छापने से बचते रहे हैं, वहीं हाल के दशकों में एकलव्य, इकतारा, कथा, प्रथम जैसी संस्थाओं में हिंदी में रचनात्मक और सुरुचिपूर्ण किताबें छापी हैं. नेशनल बुक ट्रस्ट बच्चों के लिए किताबें छापता रहा है, पर बदलते समय के अनुसार विषय-वैविध्य और गुणवत्ता का अभाव है यहाँ. ऐसे में विनोद कुमार शुक्ल का बाल साहित्यकार रूप अलग से रेखांकित करने की मांग करता है.
अरविंद दास
विनोद कुमार शुक्ल से अरविंद दास की बातचीत |
आपने वयस्क पाठकों के लिए ‘नौकर की कमीज’, ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’, ‘खिलेगा तो देखेंगे’ जैसी औपन्यासिक कृतियाँ रची हैं, ‘महाविद्यालय’ और ‘पेड़ पर कमरा’ जैसे कहानी संग्रह. ‘वहीं लगभग जय हिंद’, ‘सब कुछ बचा रहेगा’ जैसा कविता संग्रह भी उपलब्ध है. पिछले करीब एक दशक से आप बच्चों के लिए लिख रहे हैं. उम्र के इस पड़ाव पर बच्चों के लिए साहित्य लिखने का आपने कैसे सोचा?
बच्चों के बारे में मैं लिखता नहीं था, पर साइकिल पत्रिका (इकतारा) के संपादक सुशील शुक्ल ने मुझे बच्चों के बारे में लिखने को कहा. मैंने कभी बच्चों के लिए लिखा नहीं था. मैंने अपने लेखन में कभी नहीं सोचा कि इसका पाठक कौन होगा. मैंने कहा कि अब मुझे सोच करके लिखना पड़ेगा कि मेरे पाठक बच्चे हैं. कितनी उम्र के बच्चे पढ़ेंगे और कैसे पढ़ेंगे. फिर उन्होंने कहा कि किसी भी विषय पर लिखिए-हाथी पर, घोड़े पर, चींटी पर, मछली पर …इसी तरह की उन्होंने बात की.
जब मैं बच्चों के लिए लिखने बैठा तब सबसे पहले यही सोचा कि एक पाठक के रूप में अभी तक मैंने बच्चों के बारे में जो पढ़ा है, ऐसा लगता है कि यह बहुत छोटे बच्चे के लिए लिखा गया है. संभवतः जिसे खुद बच्चे नहीं पढ़ते होंगे कोई दूसरा पढ़ कर सुनाता होगा. मुझे लगा कि बच्चों को स्वयं का एक पाठक वर्ग तैयार होना चाहिए. मैंने मान लिया कि मैं बच्चों के लिए लिखूंगा यह सोच करके कि संभवत: शायद इसे पाँच साल या छह साल या आठ साल के बच्चे समझेंगे. मैं उनसे कहीं ज्यादा उम्र के बच्चों की समझ के अनुसार लिखूंगा. यदि कहीं इसका पाठक कई दस साल का लड़का है जो मैं लिखूंगा वह संभवत: 15 साल के किशोर के उम्र तक की पहुँच का होना चाहिए. इकतारा से दो पत्रिका प्रकाशित होती थी जैसा कि सुशील ने बताया था. मैं ‘प्लूटो’ पत्रिका के लिए लिखता था, बाद में ‘साइकिल’ पत्रिका के लिए लिखा (सुशील साइकिल में चले गए और उनसे एक संपर्क बन गया). ‘प्लूटो’ के लिए मैं छोटे बच्चों के लिए लिखता था पर तब भी यह सोच कर लिखता था कि इनकी समझ कुछ बड़ी होगी.
मैंने फिर बाद में बड़े बच्चों के लिए साइकिल में लिखा. मैंने इस तरह से लिखा कि इसे बड़े लोग या किशोर लोग भी पढ़े तो उनको लगना चाहिए कि उन्होंने भी कुछ पढ़ा और बच्चे तो पढ़ेंगे ही. यही मेरी सोच का हिस्सा रहा.
मैंने अपनी नौ साल की बेटी-कैथी के लिए ‘गोदाम’ किताब खरीदी, पर जब मैंने इसे पढ़ा तो मुझे इस कहानी का कथ्य और संवेदना ने प्रभावित किया. इसमें पेड़-पौधे के प्रति जो लेखक का लगाव है, वहीं मकान मालिक की जो समझ है वह आज के समय को प्रतिबिंबित करता है. आप लिखते है: ‘पेड़ वाले घर मुझे अच्छे लगते है.’ कहानी के आखिर में मकान मालिक पेड़ कटवा कर कहता है: ‘आपका अब यह एक पेड़ वाला घर नहीं है.’ ऐसा लगता है आधुनिक सभ्यता में क्या हम गोदाम में रहने को अभिशप्त है, वहीं दूसरी तरफ यह आपके जीवनानुभवों से पाठकों को जोड़ता है.
जी, मैंने जो कुछ लिखा है अपने अनुभव से लिखा है. मेरा लिखा हुआ मेरी आत्मकथा ही है. मेरा सारा कुछ मेरा जाना-पहचाना रहा है. मैंने जो अनुभव किया- आस-पास के लोगों से, मिलने-जुलने वालों से, जो किताबें मैंने पढ़ी थी, उन किताबों के अनुभव से जो मैंने पाया और जो अनुभव बनाया वही मेरा अनुभव रहा है. वही मेरे लेखन में रहा है.
बड़ों के लिए लेखन और बच्चों के लिए लेखन की भाषा-शैली के बारे में आप क्या सोचते हैं? आप किस रूप में बच्चों के लिए लेखन की तैयारी करते हैं?
जब मैं बड़ों के लिए लिखता हूँ तब बिलकुल नहीं सोचता हूँ कि कितने बड़ों के लिए लिख रहा हूँ. उसमें ऐसा कोई कारण नहीं है. एक स्थिति में आकर के पुस्तक से, अपने अनुभव के अनुसार से… अपना अनुभव बनाने की उम्र तो कभी भी हासिल हो सकती है. आदमी जब 18-19 या 20 साल का हुआ तो वह किताबों की समझ को अपने में चाहे वह किसी के लिए लिख रहा हो, एक पाठक के रूप में अपनी समझ में एक स्थिति तो बना ही लेता है.
‘तीसरा दोस्त’ कहानी पढ़ते हुए मैं अपने बचपन में लौटा. आप लिखते हैं: ‘उसी की चप्पल पहनकर मैं उसे ढूंढने निकला. मैं अपने मन से और चप्पल के मन से चल रहा था कि चप्पल मुझे वहाँ तक पहुँचा देगी जहाँ वह जाता है.’ क्या लिखते हुए आप अपने बचपन में लौट रहे हैं इन दिनों?
हां, इसके अलावा कोई चारा भी नहीं है. मैं अपने बचपने को याद करता हूँ जो भूला हुआ सा है. इसलिए पास-पड़ोस के जो बच्चे हैं, सड़क पर जो मेरे घर के सामने खेलते हैं जिन्हें आता-जाता मैं देखता है. बच्चों को देख कर मैं अपने बचपने को याद करता हूँ. इस उम्र में वो क्या सोचते हैं? मनुष्य रूप में एक बच्चे का जन्म होता है जिसके पास सोचने समझने की शक्ति होती है. जो नवजात शिशु होता है वह इस संसार का अनुभवहीन एक जीव होता है. उस बच्चा की दुनिया के बारे में कोई खबर नहीं है. लेकिन मैंने देखा कि उनमें एक प्रतिक्रिया का अनुभव जन्म लेते ही बन जाता है. चिड़िया चहचहाती है तो नवजात शिशु की आँख उस ओर मुड़ जाती है, ऐसा मैंने अपने बच्चों के जन्म में महसूस किया था अस्पताल में.
बचपन में पढ़ने-लिखने का कैसा अनुभव रहा है आपका?
घर में एक साहित्यिक वातावरण था, मैं पढ़ता था. मैं नाँदगाँव का हूँ, पदुमलाल बख्शी नाँदगाँव के ही थे. मेरी माँ जो थी उसके बचपन का काफी समय बांग्लादेश के जमालपुर में बीता, वहां क्या स्थिति थी मुझे ठीक से मालूम नहीं. मेरे नाना लोगों का परिवार कानपुर का था, मेरे बाबा भी उत्तर प्रदेश के थे जो नाँदगाँव में बसने आ गए थे. मेरी अम्मा के घर में हम बच्चों पर एक अच्छा प्रभाव पड़ा था, खासकर अपने साथ वह बंगाल के साहित्य का संस्कार भी लेकर आ गई थी. दूसरे भाई-बहन भी लिखने की कोशिश करते थे, पर उनका लिखता रस्ते में ही छूट गया, बढ़ती उम्र के साथ . लेकिन मैंने लिखना जारी रखा.
आपके प्रिय रचनाकार कौन हैं, जिन्हें आप अभी याद करते हैं?
नाम लेकर के तो बताना नहीं है लेकिन बहुत सी किताब के लेखक मेरे प्रिय रचनाकार रहे हैं. मैं बहुत से बड़े लेखकों के संपर्क में रहा. मेरे लिखने की याद के शुरुआत दिनों में जैनेंद्र भी कुछ सालों तक रहे, मेरी उनसे मुलाकात नहीं हुई. अज्ञेय से मेरी मुलाकात रही. अशोक वाजपेयी से मेरी मुलाकात रही, लंबे समय तक संबंध बना रहा. केदारनाथ सिंह, नामवर सिंह से भी मेरा लंबे समय तक संबंध बना रहा. तो बड़े लेखकों के संपर्क में एक साधारण छोटे लेखक के रूप में मैं हमेशा उपस्थित रहता रहा.
गद्य के अलावे आपने कविता की पुस्तक भी बच्चों के लिए लिखी है-‘बना बनाया देखा आकाश, ‘बनते कहां दिखा आकाश’ आदि
हां, जैसा मैं बच्चों के पाठक के रूप में अभी देख रहा हूँ, मैंने सोचा कि बच्चे भी इस तरह अपने देखने को सुधारें. उनका देखना भी सुधरना चाहिए और यह महसूस होना चाहिए आकाश कितना अनंत होता है और हम कितना थोड़ा सा देख पाता हैं. यह आकाश है जिसको दूसरों ने जमाने से देखा. इसे ऋषि-महर्षियों ने देखा. उन्होंने सितारों-तारों की गणना की, पंचांग बनाया. जिससे उन्हें नक्षत्रों की क्या स्थिति थी, इस बात की जानकारी मिली. उन्होंने पंचांग को वैज्ञानिकों की मेल खाती स्थिति के रूप में बनाया है, यह बड़ी अद्भुत सी बात है. ये सारी चीजें उस जमाने में कैसे सोचते होंगे. उस सोच का दायरा कितना संपूर्ण था. मनुष्यों की उपस्थिति कितनी कम थी. ऐसी उपस्थिति मनुष्य की नहीं थी, जैसी आज की दिखती है. आज मनुष्य तो केवल भीड़ में ही दिखता है. चाहे वह घर की भीड़ हो या बाहर की भीड़ हो. या चाहे जैसी स्थितियाँ हों.
क्या लिख रहे हैं बच्चों के लिए अभी आप?
अभी मेरी सोच में बच्चों के लिए लिखने का अधिक रहता है. क्योंकि मैं इस उम्र में छोटा लिखता हूँ और कम लिखता हूँ क्योंकि ज्यादा देर तक किसी एक चीज पर कायम रहना बहुत कठिन है, लेखन में भी. ज्यादा देर तक खड़े नहीं रह सकता, बैठ भी नहीं सकता (हंसते हैं)…मेरी शारीरिक और मानसिक स्थिति अब वैसे नहीं है, लेकिन तब भी मैं बच्चों के लिए लिख रहा हूँ. आज ही मैंने बच्चों के लिए एक-डेढ़ पेज की कहानी के रूप में भाजी वाले को सोचा. उस भाजी वाले के संबंध में, कुछ अपनी ही स्थिति के अनुसार एक कहानी पढ़ने का कारण बन जाए ऐसा कुछ लिखूं. एक कहानी जो सात-आठ पेज की हो, ऐसा सोच रहा हूँ.
अरविंद दास लेखक-पत्रकार. ‘बेखुदी में खोया शहर: एक पत्रकार के नोट्स’ और ‘हिंदी में समाचार’ ‘मीडिया का मानचित्र’ किताबें प्रकाशित. रिलिजन, पॉलिटिक्स एंड मीडिया: जर्मन एंड इंडियन पर्सपेक्टिव्स के संयुक्त संपादक. डीयू, आईआईएमसी और जेएनयू से अर्थशास्त्र, पत्रकारिता और साहित्य की मिली-जुली पढ़ाई. एफटीआईआई से फिल्म एप्रीसिएशन का कोर्स. जेएनयू से पत्रकारिता में पीएचडी और जर्मनी से पोस्ट-डॉक्टरल शोध. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और वेबसाइट के लिए नियमित लेखन.arvindkdas@gmail.com |
आज के बच्चे ही कल के एक जिम्मेदार नागरिक बनेंगे। मगर कल का एक अच्छा नागरिक होना आज के उन संस्कारों पर निर्भर है जो हम बच्चों में डाल रहे हैं।मुझे याद है उस जमाने की तीन बाल पत्रिकाओं की जिन्हें मैं हर महीनें के प्रारंभ में प्रतीक्षा करता था बुक स्टाॅल पर।वे थीं-चंदा मामा,बालक और चंपक।मेरे व्यक्तित्व के बनने में इनकी भी भूमिका रही है।पता नहीं वे पत्रिकाएँ अभी अस्तित्व में हैं कि नहीं।
विनोद जी का बात-साहित्य बच्चों के साथ-साथ हमारे साथ चलता है, प्रकृति के रंग-रूप
संवेदना में घुलकर हमें हीनता से बचाती है जैसे ही उसके बाहर होते हैं ‘ढाँक के तीन पात ‘ हो जाते हैं.( बच्चे तो संवेदनशील गुणी, विश्वास से भरे होते ही हैं) विनोद जी का बाल साहित्य बहुत कम ही पढ़ा है.
इसके नेपथ्य में उनकी मंशा- विचार को अरविंद जी ने बाहर लाने की महती भूमिका निभाई है.
आज झूठ-लूट के उत्सवों में कृत्रिम रंगो की छँटा – फ़िज़ा में व्याप्त है.
घुप्प अंधेरे में जुगनुओं की उड़ान भी थक गई है.
विनोद जी जब ये कहते हैं —
‘ एक साधारण छोटे लेखक के रूप में मैं हमेशा उपस्थित रहता रहा.’
उनकी विनम्रता की ये वीणा रागमय होती हमारे अन्त: करण में ध्वनित-प्रतिध्वनित होती सदा झंकृत करती रही और करती रहेगी.
महान कवि के संकोच से अभिभूत होते हुए उनका ये अरविंद साक्षात्कार नि: संदेह ‘खिलेगा तो देखेंगे ‘ .
वंशी माहेश्वरी
अभी पढ़ा।देर तक गुणता रहता हूँ। खुशी होती है की बिनोद कुमार शुक्ल जी हमारे देश के कवि-लेखक हैं। उनको पढ़ते हुए हमेशा महसूस किया कि उनसे बातचीत कर रहा हूँ। मेरे बच्चे तो उनपर फिदा हैं। मेरे घर में हमेशा उनकी चर्चा होती रहती है। मैं इतना ही कहूँगा कि उनकी कलम में कैमरा लगा हुआ है।
ललन चतुर्वेदी