पद्मिनी प्रसंग |
विजय बहादुर सिंह और माधव हाड़ा |
-
अपने विनिबंध में आप जिसे बार-बार कथा-बीजक कह रहे हैं, वह क्या है? क्या हमारे यहाँ इसकी कोई परंपरा है?
राजस्थान ही नहीं, हमारे देश के अधिकांश भागों में कथा बीजक की परंपरा रही है. ऐतिहासिक व्यक्तित्व और ख्यात घटनाएँ लोक स्मृति में पीढ़ी-दर-पीढ़ी यात्रा करती थीं और धीरे-धीरे समयानुसार ये संक्षिप्त और सरल होती जाती थीं. स्मृति में रहने वाली इन घटनाओं-प्रकरणों और व्यक्तियों को कथा बीजक कहा जाता था. लोग अपनी प्रतिभा और ज्ञान के आधार पर इन बीजकों का पल्लवन और विस्तार करते थे. यह पल्लवन और विस्तार कभी मौखिक होता था, तो कभी कोई कवि-कथाकार अपनी प्रतिभा और विवेक से इनको लिखित रूप भी देता था.
एक ही बीजक एकाधिक व्यक्तियों के यहाँ अलग-अलग तरह से पल्लवित और विकसित होता था. यह भारतीय परंपरा के अनुसार था- ऋग्वेद के कई कथा बीजक बाद के ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद ग्रंथों और परवर्ती साहित्य में विस्तारपूर्वक पल्लवित हुए हैं. भारतीय ऐतिहासिक कथा-काव्य परंपरा में विक्रमादित्य, भोज, सातवाहन, शूद्रक आदि कई ऐतिहासिक व्यक्तित्व कथा बीजक की तरह रहे हैं. जैन कथाकारों ने कथा बीजकों को आधार बनाकर कई रचनाएँ लिखीं. सतियों-साध्वियों के कथा बीजकों के आधार पर जैन यतियों-मुनियों की कई कथा रचनाएँ मिलती हैं. सती नर्मदा सुंदरी का कथा बीजक जैन यतियों-मुनियों में बहुत लोकप्रिय हुआ और इस पर कई रचनाएँ हुईं. पद्मिनी-रत्नसेन प्रकरण राजस्थान लोक जीवन में बहुत पहले से कथा बीजक या कथा ज्ञापक के रूप में विद्यमान था. इस प्रकरण पर लिखे गए ऐतिहासिक कथा-काव्य इसी बीजक-ज्ञापक पर आधारित हैं.
पद्मिनी प्रसंग |
विजय बहादुर सिंह और माधव हाड़ा |
-
प्राचीन पदावलियों में गाथा और इतिहास जैसे पारिभाषिक पद मिलते हैं, जिन्हें भावपूर्ण मानकर, उपाख्यान कह कर अलग कर दिया जाता है. तथापि लोकस्मृति के अहम सत्य के रूप में ये उसे आन्दोलित और प्रेरित करते रहते हैं. पद्मिनी अगर हमारी अमिट लोकस्मृति है तो पुराने अर्थों में उसे हम जातीय गाथा या उपाख्यान कहें?
हमारी परंपरा का दायरा बहुत विस्तृत और दीर्घकालीन है. इतिहास, आख्यान, उपाख्यान आदि पदों का कोई एक निश्चित अर्थ नहीं है. हमारी परंपरा में इस संबंध में कई पारिभाषिक पद और शब्द मिलते हैं. इनका अवधारणात्मक विकास धीरे-धीरे हुआ और ऐतिहासिक ज़रूरतों के बदलता भी रहा. हमारे यहाँ सांस्कृतिक वैविध्य बहुत है, इसलिए एक ही पद या शब्द की कई अर्थ छवियाँ मिलती हैं, इसलिए किसी भी रचना के लिए किसी एक संज्ञा का प्रयोग निरंतर नहीं मिलता. आप जिसको गाथा, उपाख्यान और इतिहास कह रहे हैं, हमारी परंपरा में उनके साथ इतिहास के लिए ऐतिह्य, पुराकल्प, परक्रिया, अवदान, आख्यान, आख्यायिका, अन्वाख्यान, चरित, अनुचरित, कथा, परिकथा, अनुवंश श्लोक, नाराशंसी, राजशासन और पुराण जैसे शब्द सदियों से चलन में हैं.
यह सही है कि इनमें से कुछ रूप इतिहास के अनुशासन के रूप में अच्छी तरह से विकसित हैं, जबकि कुछ ऐसे हैं, जिनमें इतिहास अविकसित रूप में है, जबकि कुछ ऐसे हैं, जिनमें कथा-कल्पना का तत्त्व बहुत वर्चस्वकारी है, लेकिन यह तय है कि इन सभी में कमोबेश ऐतिहासिक सामग्री किसी-न-किसी रूप में मौजूद है. नाराशंसी, गाथा, आख्यान और पुराण, इतिहास के समानार्थक शब्दों के रूप में यहाँ सदियों से प्रयुक्त हो रहे हैं. इतिहास शब्द का व्यवहार भी वैदिक संहिताओं, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् ग्रंथों सहित परवर्ती साहित्य में कई जगह मिलता है.
पद्मिनी प्रसंग |
विजय बहादुर सिंह और माधव हाड़ा |
-
अभिप्रायों और कथा रूढियों के इस्तेमाल के कारण ये रचनाएँ अतिरंजित और मनमानी लगती हैं. आप इसको किस तरह देखते हैं?
अभिप्रायों और कथा रूढ़ियों के आधार पर पद्मिनी-रत्नसेन प्रकरण पर निर्भर कथा-काव्यों को अनैतिहासिक मानना ग़लत है और इनके युक्तिकरण का भी कोई औचित्य नही है. दरअसल यह भारतीय ऐतिहासिक कथा-काव्यों की अपनी विशेषता है, ऐसा सदियों से होता आया है और यह पारंपरिक भारतीय कवि शिक्षा में भी सम्मिलित है, इसलिए इन कथा-काव्यों में विन्यस्त इतिहास को इन अभिप्रायों और रूढ़ियों के साथ ही अच्छी तरह समझा जा सकता है. अकसर भारतीय परंपरा में इतिहास कथा-कविता में विन्यस्त होकर आता है, इसलिए इतिहासकार विश्वंभरशरण पाठक ने साफ़ लिखा है कि
“आधुनिक इतिहासकार यह भूलने लगते हैं कि ये इतिहास-महाकाव्य जानबूझकर कलात्मक बनाए गये हैं और इसलिए इनके आधार पर इतिहास का पुनर्निर्माण करने के लिए इन ग्रंथों से लिए गये तथ्यों को अपने संदर्भ से बाहर निकालकर विवेकहीन तरीके से उपयोग नहीं किया जा सकता.”
पद्मिनी-रत्नसेन प्रकरण पर निर्भर कथा-काव्यों में मुख्यतः भोजन पर राजा की नाराज़गी और रानी का ताना, राजा का सिंघल द्वीप जाकर पद्मिनी से विवाह, सिद्ध योगी द्वारा इस कार्य में सहयोग, राजकुमारी या राजा द्वारा विवाह के लिए रखी गई शर्त और ऋतु और युद्ध वर्णन संबंधी कवि-कथा रूढ़ियों का प्रयोग हुआ है.
पद्मिनी प्रसंग |
विजय बहादुर सिंह और माधव हाड़ा |
-
आपने कहा है कि विनिबंध के विवेच्य कथा-काव्यों की कथा का प्रस्थान जायसी की पद्मिनी कथा से अलग है? यह क्या है?
विवेच्य कथा काव्यों का प्रस्थान अलग है. यह प्रस्थान भोजन के स्वादहीन होने पर राजा की नारज़गी की कथा रूढि है, लेकिन इस कथा रूढि के प्रस्थान में कुछ हद तक यथार्थ है. भोजन के स्वादहीन होने पर या किसी अन्य कारण से राजा की नाराज़गी और इस पर उसका कोई संकल्प लेना भारतीय कथा-काव्यों में रूढ़ि की तरह प्रायः इस्तेमाल हुआ है. यह कथानक रूढ़ि कुछ इधर-उधर के साथ संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और परवर्ती देश भाषाओं की कथा-काव्य परंपरा में भी मिलती है. भोजन के स्वादहीन या अरुचिकर होने पर दंपती में कलह-क्लेश के प्रकरण ने संस्कृत कविता में जगह बना ली थी. अज्ञात कविकर्तृक सुभाषितावली के एक श्लोक में यह प्रकरण इस तरह आया है-
क्षारं राद्धमिदं किमद्य दयिते राध्नोषि किं न स्वयमाः पापे प्रतिजल्पसे प्रतिदिनं पास्तवदीयः पिता I
धिक्वां क्रोधमुखीखीमलीकमुखरसरस्त्वत्तोsपि कः क्रोधनो दंपत्योरिति नित्य दत्त कलह क्लेशांतयोः किं सुखम्?॥
अर्थात् हे घरवाली! यह आज कैसा खारा भोजन राँध दिया है. (घरवाली) पका नहीं तो, ख़ुद क्यों नहीं पका लेते? अरी पापिनी, रोज-रोज मुँह पर जवाब देती हो. (घरवाली) पापी होंगे पिता तुम्हारे.. धिक्कार है तुझ क्रोधमुखी को. तुम जैसा है कोई क्रोधी और झुठेला. इसी तरह प्रतिदिन दंपती कलह के क्लेश में नष्ट होते हैं और उनको कोई सुख नहीं है.
नरपतिनाल्ह कृत बीसलदेवरास (1343 ई.) में विग्रहराज (तृतीय) विवाह के पहले दिन ही रानी के यह कहने पर कि-
गरब म करि हो संइभरवाल था सरीषा अवर घणा रे भुआल
(अर्थात् हे सांभर! नरेश गर्व मत करिए, आप जैसे और कई राजा हैं) नाराज़ हो जाता है और संकल्प लेकर बारह वर्ष के लिए उळगाने (चाकरी) पर उड़ीसा चला जाता है. यह कथा रूढ़ि गोरा-बादल कवित्त, गोरा-बादल पदमिणी चउपई, गोरा-बादल चरित्र चौपई, खुम्माणरासो और चित्तौड़-उदयपुर पाटनामा में प्रयुक्त हुई है. अज्ञात कविकर्तृक गोरा-बादल कवित्त में इसका उल्लेख सांकेतिक है, लेकिन परवर्ती रचनाओं में इसका पल्लवन और विस्तार हुआ है. अपनी रुचि के अनुसार इन कवि-कथाकारों ने इस रूढ़ि का पल्लवन और विस्तार किया है. इसका सर्वाधिक विस्तृत पल्लवन चित्तौड़-उदयपुर पाटनामा में है.
कथानक रूढ़ि का प्रस्थान अकसर यथार्थ से होता है. पद्मिनी-रत्नसेन प्रकरण पर निर्भर कथा-काव्यों के मोड़-पड़ावों में विन्यस्त कथानक रूढ़ियों को इसी तरह समझा जाना चाहिए. भोजन के स्वादहीन होने पर राजा की नाराज़गी और रानी के इस निमित्त पद्मिनी से विवाह कर लेने के ताने की रूढ़ि का प्रस्थान तो कमोबेश यथार्थ है. राजा और रानी के बीच नाराज़गी और राजा के दूसरे विवाह के लिए संकल्पबद्ध होने में कुछ भी असाधारण या मनगढंत नहीं है.
राजा एकाधिक विवाह करते ही थे और ऐसा नाराज़गी के कारण भी होता था. रानी से नाराज़गी या किसी अन्य कारण से दूसरा विवाह राजाओं के लिए मध्यकाल और उससे पहले भी आम बात थी. लोक कथाओं में इसको ‘दुहाग’ कहा गया है. राजस्थान की एक वात (कथा) ‘डाकण रा चाळा’ में राजा एक अप्सरा पर मुग्ध होकर अपनी गर्भवती छह रानियों को दुहाग दे देता है. रानी द्वारा राजा की अवमानना पर राजा उससे नाराज़ होकर दुहाग दे देते थे- मतलब दूसरा विवाह कर लेते थे.
पद्मिनी प्रसंग |
विजय बहादुर सिंह और माधव हाड़ा |
-
क्या मध्यकाल में रत्नसेन का सिंघल द्वीप जाकर विवाह करना युक्तिसंगत है?
सिंघल द्वीप जाकर पद्मिनी से विवाह की कथा रूढ़ि इन सभी रचनाओं में है, यह भारतीय कथा-काव्यों में बहु प्रयुकत कथा रूढि है. इसका युक्तिकरण आपको गलत निष्कर्षों तक ले जाएगा. कुछ विद्वान् इसके लिए भूगोल में चले गए हैं- वे देश में देश से बाहर यहाँ-वहाँ सिंघल द्वीप और उसका मार्ग खोजने में लगे हुए हैं. संकल्पबद्ध होकर पद्मिनी से विवाह के लिए सिंघल प्रस्थान, समुद्र के मध्य सिंघल द्वीप, वहाँ पद्मिनी स्त्रियाँ की मौजूदगी, पद्मिनी स्त्री से कमल की गंध आना और इस कारण उस पर भँवरों का मँडराना यह सब इस कथा रूढ़ि के विभिन्न आयाम हैं. रचनाकारों ने अपनी सुविधा के अनुसार इनका उपयोग अपनी तरह से किया है- कहीं यह रूढ़ि सांकेतिक है, तो कहीं इसका पल्लवन और विस्तार हुआ है.
पाटनामा में यह सबसे अधिक विस्तृत है और यहाँ इस कथारूढ़ि का विकास भी हुआ है. सिंघल द्वीप जाकर वहाँ की स्त्री से विवाह करना भारतीय चरित और प्रबंध कथा-काव्यों में प्रयुक्त लोकप्रिय कथा रूढ़ि है. हर्षदेव की संस्कृत नाटिका रत्नावली (7वीं सदी) की नायिका रत्नावली (सागरिका) भी सिंहलनरेश विक्रमबाहु की बेटी थी, जिससे कोशाम्बी के राजा उदयन ने विवाह किया. प्राकृत-अपभ्रंश में कोऊहल कृत लीलावई (8वीं सदी) धनपाल कृत भविसयत्तकहा (10वीं सदी), मुनि कनकामर कृत करकंडचरिउ (11वीं सदी) और राजसिंह जिणदत्त चरित (13वीं सदी) में इस रूढ़ि का प्रयोग हुआ है. जिनहर्ष सूरि की 1430 ई. चित्तौड़ में ही लिखी गयी रयणसेहरनिवकहा में भी नायक सिंघल द्वीप जाकर विवाह करता है.
पद्मिनी प्रसंग |
विजय बहादुर सिंह और माधव हाड़ा |
-
कुछ वंशावली और शिला अभिलेखों में रत्नसेन का नामोल्लेख ही नहीं है. आप फिर भी इस चरित्र को ऐतिहासिक मान रहे हैं?
आपकी बात सही है कि कुछ वंशावली और शिला अभिलेखों में रत्नसेन का नाम नहीं और इस कारण कुछ आधुनिक भारतीय इतिहासकारों ने पद्मिनी के साथ उसकी ऐतिहासिकता पर भी संदेह किया है. विचित्र यह है वे इसके कारणों में नहीं गये. समकालीन इस्लामी वृत्तांतकार अमीर ख़ुसरो और अब्दुल मालिक एसामी ने चित्तौड़ के राजा के लिए ‘राय‘ शब्द का इस्तेमाल किया है. ज़ियाउद्दीन बरनी का चित्तौड़ आक्रमण का वर्णन ही दो पंक्तियों में है और वह चित्तौड़ के किसी राजा या राय का उल्लेख ही नहीं करता. ज़ियाउद्दीन बरनी ने तारीख़-ए-फ़िरोजशाही में केवल इतना लिखा कि
“सुल्तान अलाउद्दीन ने पुनः शहरे देहली से सेना लेकर चित्तौड़ पर चढाई कर दी. चित्तौड़ को घेर लिया और शीघ्रातिशीघ्र किले पर विजय प्राप्त करके शहर लौट आया.”
अबुल मलिक एसामी का वर्णन भी बहुत संक्षिप्त है, लेकिन वह चित्तौड़ के राजा को ‘राय’ लिखता है. उसके शब्दो में
“इसके उपरांत सुल्तान ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया. राय 8 मास तक युद्ध करता रहा, किंतु 8 मास के उपरांत राय ने क्षमा याचना की और सुल्तान ने ख़िलअत देकर सम्मानित किया.”
अमीर ख़ुसरो का घटना का वर्णन अपेक्षाकृत विस्तृत है, लेकिन उसने भी चित्तौड़ के शासक के रूप रत्नसिंह का नामोल्लेख नहीं किया. अलाउद्दीन के समय चित्तौड़ में सत्तारूढ़ शासक के संबंध में पारंपरिक वंशावली अभिलेखों में से कुछ में रत्नसिंह का उल्लेख है, जबकि कुछ में नहीं है. दरअसल अधिकांश वंशावली अभिलेख महाराणा कुंभा (1433-1468 ई.) के समय के हैं और घटना के सदियों बाद पारंपरिक कथा-काव्यों और लोक स्मृति के आधार पर तैयार किए गये हैं.
कुंभा हम्मीर का वंशज था और हम्मीर गुहिलवंश की राणा शाखा से संबंधित था. गुहिलवंश की रावल शाखा रत्नसिंह की मृत्यु के साथ समाप्त हो गई. मेवाड़ के वंशानुक्रम से संबंधित अधिकांश शिलालेख और कथा-काव्य कुंभा के समय और उसके बाद बने, इसलिए इनमें हम्मीर के राणा शाखा के पूर्वजों के भी नामोल्लेख हैं, लेकिन इनमें से कोई सत्तारूढ़ नहीं हुआ. ये सभी मेवाड़ की एक जागीर सिसोदा के सामंत थे. हम्मीर और उसके परवर्ती सभी शासक सिसोदा की राणा शाखा से संबंधित थे, इसलिए सिसोदिया कहलाए. रणकपुर (1439 ई.), जगदीश मंदिर (1651 ई.) और एकलिंगजी (1652 ई.) के शिलालेखों में रत्नसिंह का उल्लेख नहीं है, जबकि राजसिंहकालीन राजप्रशस्तिमहाकाव्य (1675 ई.) में रत्नसिंह का नामोल्लेख सत्तारूढ़ लक्ष्मसिंह के छोटे भाई के रूप में है, जिसने पद्मिनी से विवाह किया.
यह सही है कि इस्लामी स्रोतों और कुछ पारंपरिक वंश रचनाओं और शिलालेखों में रत्नसिंह का नामोल्लेख नहीं है, लेकिन केवल इस आधार पर रत्नसिंह की ऐतिहासिकता संदिग्ध नहीं हो जाती. दरअसल इस्लामी इतिहासकारों में नामोल्लेख करने की कोई एकरूप परंपरा नहीं मिलती. वे कभी बहुत ज़रूरी और महत्त्वपूर्ण नाम नहीं लिखते और कभी-कभी बहुत ग़ैरज़रूरी और मामूली नामों की चर्चा करते हैं. परवर्ती इस्लामी इतिहासकार अबुल फ़ज़ल ने ‘राय रतनसी’ और मोहम्मद कासिम फ़रिश्ता ने ‘राय रत्नसेन’ के रूप में रत्नसिंह का नामोल्लेख किया है. कुछ शिलालेखों और वंश रचनाओं में रत्नसिंह नामोल्लेख नहीं होने का कारण उसके साथ ही उससे संबंधित रावल शाखा समाप्त हो जाना है. उसके बाद चित्तौड़ पर फिर अधिपत्य कायम करनेवाला हम्मीर गुहिलवंश की सिसोदा राणा शाखा से संबंधित था, इसलिए वंशावलियों में हम्मीर के पूर्वजों में रत्नसिंह का नामोल्लेख सब जगह नहीं है.
पद्मिनी प्रसंग |
विजय बहादुर सिंह और माधव हाड़ा |
-
पद्मिनी- रत्नसेन प्रकरण पर अधिकांश समकालीन इस्लामी इतिहासकार मौन हैं. ऐसा क्यों है ?
पद्मिनी प्रकरण को मिथ्या ठहरानेवाले अधिकांश आधुनिक विद्वानों की इस धारणा का आधार इस प्रकरण के संबंध में अलाउद्दीन के समकालीन तीन वृत्तांतकारों का मौन है. अधिक इतिहासकारों ने इस मौन को ही पद्मिनी के नहीं होने का प्रमाण मान लिया. इस मौन पर ठीक से विचार नहीं हुआ. अलाउद्दीन के समकालीन चारों इस्लामी वृत्तांतों-
अमीर ख़ुसरो कृत ख़जाइन-उल-फ़ुतूह (1311-12 ई.),
दिबलरानी तथा ख़िज़्र ख़ाँ (1318-19 ई.),
ज़ियाउद्दीन बरनी कृत तारीख़-ए-फ़िरोजशाही (1357 ई.) तथा
अब्दुल मलिक एसामी कृत फ़ुतूह-उस-सलातीन (1350 ई.) में अलाउद्दीन के चित्तौड़ पर आक्रमण और उसकी विजय का उल्लेख तो है, लेकिन इनमें पद्मिनी प्रकरण और गोरा-बादल का उल्लेख नहीं है.
ये तीनों वृत्तांतकार अपने समय के बड़े कवि या इतिहासकार और ओहदेदार थे. मध्यकालीन, परवर्ती और आधुनिक इतिहासकारों ने इनकी सराहना की है, लेकिन पद्मिनी प्रकरण पर इनके मौन को समझने के लिए उस समय के कवि-इतिहासकारों के पूर्वाग्रहों और सुल्तानों की उनसे अपेक्षा पर विचार करना ज़रूरी है. विडंबना यह है कि अधिकांश आधुनिक इतिहासकार, जिनका साक्ष्य देकर पद्मिनी के ऐतिहासिक अस्तित्व को संदिग्ध मानते हैं, उन इतिहासकारों के अपने पूर्वाग्रह हैं और उनका वर्णन आग्रहपूर्वक अपने आश्रयदाता सुल्तान की अपेक्षाओं के अनुसार है, इसलिए संदिग्ध है.
अमीर ख़ुसरो इतिहासकार नहीं, मूलतः कवि था. उसके मित्र समकालीन ज़ियाउद्दीन बरनी के अनुसार “अमीर ख़ुसरो की मिसाल नहीं, वह तो शायरों का सुल्तान था.” उसने आगे और लिखा कि “ख़ुदा की कसम, शायद ही इस नीले आकाश के नीचे उसकी बराबरी का कोई हुआ होगा.” अमीर ख़ुसरो की इतिहास से संबंधित किताब ख़जाइन-उल-फ़ुतूह को एच.एम. इलियट ने इतिहास कम, कविता अधिक कहा है. पी. हार्डी का निष्कर्ष भी यही है कि “अमीर ख़ुसरो ने इतिहास नहीं लिखा, उसने कविता लिखी है.” अल्लाउद्दीन का दरबारी तवारीख़कार तो कबीरूद्दीन ताजुद्दीन इराकी था. ख़ुसरो के रग-रग में कला थी, लेकिन दुनियावी मामलों में बहुत चतुर व्यक्ति था. ख़ुसरो का अपने संरक्षक के साथ शुद्ध व्यावहारिक रिश्ता था और वह अपने संरक्षक के राजनीतिक मंसूबों से अपने को अलग रखता था.
मोहम्मद हबीब ने उसके संबंध में लिखा है कि
“वह उनकी प्रशंसा के गीत गाता था, क्योंकि इसके लिए उसको बहुत पैसा मिलता था. पूरे पचास साल तक रंग-बिरंगे फूल उसके सामने से गुज़र गए, जिनकी प्रशंसा में वह अत्युक्ति करता था. लेकिन ज्यों ही बबूला फूटता, वह उसे भूल जाता था. क्षितिज पर कोई नया नक्षत्र उठता कवि उसके पास चला जाता. कोई मर्त्य पूरी तरह ख़ुश हो ही नहीं सकता. लेकिन अमीर ख़ुसरो का कैरियर ऐसा था, जिस पर किसी तितली को रश्क होता.”
अमीर ख़ुसरो विद्वान् था, पर दरबारी भी था और दरबारी अपने वक़्त का ग़ुलाम होता है.
कबीरूद्दीन और उसके पूर्ववर्तियों ने इस फ़ैशन की शुरुआत कर दी थी. ख़ुसरो ने आँख मूँदकर उसको अपना लिया. मोहम्मद हबीब ने उसकी चार ख़ूबियाँ गिनवाईं, जो इस प्रकार हैं–
(i) अलंकारों से कृत्रिम बोझिल शैली,
(ii) सिर्फ़ युद्धों और विजयों तक सीमित रहना,
(iii) उन सभी तथ्यों की अनदेखी कर देना, जिससे अलाउद्दीन की छवि प्रभावित होती हो और
(iv) सुल्तान की अत्यधिक चापलूसी.”
सराहना ख़ुसरो का स्वभाव और मजबूरी, दोनों थे. उसकी व्यावहारिक बुद्धि उसको उस सच को छिपा लेने पर मजबूर कर देती थी, जिससे सुल्तान नाराज़ हो जाएँ. उसके दो संरक्षकों- मलिक छज्जू और हातिम ख़ान का बग़ावत के कारण अलाउद्दीन ने सर क़लम कर दिया, लेकिन ख़ुसरो ने सुल्तान को इसके लिए बधाई दी. अपने चाचा जलालुद्दीन की अलाउद्दीन ने हत्या कर दी, लेकिन उसकी ज़बान से अपने इस संरक्षक और चाहने वाले की हत्या के विरोध में एक भी शब्द नहीं निकला. मोहम्मद हबीब ने लिखा है कि कि
“यदि अमीर ख़ुसरो पुराणों के युग में लिखते होते, तो वे अल्लाउद्दीन को विष्णु का अवतार बताते और उनके विरोधियों को राक्षस.” मोहम्मद हबीब के अनुसार इसीलिए ख़जाइन-उल-फ़ुतूह के “विवरण को सही मानना ख़तरनाक होगा.”
अलाउद्दीन का दूसरा समकालीन इतिहासकार ज़ियाउद्दीन बरनी इतिहास को ‘साइंस’ मानता था. उसका मानना था कि इतिहसकर सुल्तानों की ‘अच्छी बातों’ का उल्लेख करे, लेकिन उसे उसकी ‘बुराई-शठता’ की भी अनदेखी नहीं करनी चाहिए. विडंबना यह है कि तारीख़-ए-फ़िरोजशाही उसने उस दौर में लिखी, जब उसका सर्वस्व छिन गया था, उसकी याददाश्त कमज़ोर हो गयी थी और अन्वेषण और अनुसंधान उसके बूते से बाहर की बात थी. इस्लाम के इतिहास और भारतीय इतिहास की जो मशहूर पुस्तकें थीं, वे भी उसे सुलभ नहीं थीं. किसी तारीख़ या घटना की पुष्टि करने के लिए भी साधन उसे प्राप्त न थे. मोहम्म्द हबीब के अनुसार
“हम शक को दिमाग़ में रखकर तारीख़-ए-फ़िरोजशाही का अध्ययन करते हैं, तो शक की पुष्टि हो जाती है. बहुत से वाक़यात उसकी याददाश्त से बाहर छूट गए हैं. कुछ को ग़लत ढंग से पेश किया गया है और कुछ मामले तो ऐसे हैं, जिनमें अपनी बद्धमूल धारणाओं की वजह से बरनी की याददाश्त ने कहर बरफ़ा दिया है.”
अब्दुल मलिक एसामी (1311 ई.) मुहम्मद बिन तुग़लक़ का समकालीन था, लेकिन उसका ग्रंथ फ़ुतूह-उस-सलातीन, जिसमें से 999 से 1350 ई. तक का वर्णन है, मुहम्मद बिन तुग़लक़ की बजाय बहमनी वंश (1347 ई.) का संस्थापक अलाउद्दीन बहमनशाह को समर्पित है. एसामी 1327 ई. मुहम्मद बिन तुग़लक के समय दौलताबाद आया और फिर वह कभी दिल्ली नहीं गया. उसने फ़ुतूह-उस-सलातीन दौलताबाद में ही लिखी, इसलिए दक्षिण का उसका विवरण अधिक आनुभविक और प्रामाणिक है. वह उत्तर के संबंध में बहुत विस्तार में नहीं जाता. वैसे एसामी की महत्वाकांक्षा भी इतिहासकार के बजाय साहित्यकार बनने की थी. वह भी ख़ुसरो और बरनी से अलग नहीं था. सुल्तानों की महिमा के विरुद्ध जानेवाली सभी बातों की सजग अनदेखी इस्लामी वृत्तांतकारों का स्वभाव है, इसलिए पद्मिनी प्रकरण के संबंध में इन वृत्तांतकारों का मौन बहुत स्वाभाविक है.
पद्मिनी प्रसंग |
विजय बहादुर सिंह और माधव हाड़ा |
-
राजपूतों की उत्पत्ति के संबंध में आपके विनिबंध की धारणा प्रचारित से अलग है? क्या इस संबंध में कोई साक्ष्य उपलब्ध हैं?
यह धारणा प्रचारित अलग है, लेकिन सर्वथा नयी नहीं है. गौरीशंकर ओझा, सी.वी. वैद्य आदि ने ये बातें पहले भी कही थीं, लेकिन इन पर भरोसा कम लोगों को हुआ. अधिकांश उपनिवेशकालीन और परवर्ती अधिक भारतीय इतिहासकारों ने ‘क्षत्रिय’ और ‘राजपूत’ दो अलग जातियाँ ठहराकर राजपूतों की उत्पत्ति विदेशी मानी है, लेकिन यह धारणा सही नहीं है. दरअसल ‘राजपूत’ प्राचीन भारतीय क्षत्रिय परंपरा का ही मध्यकालीन विस्तार है. यह धारणा आधारहीन है कि राजपूत ‘क्षत्रिय’ से भिन्न जातीय समूह है, जो बाहर से आकर यहाँ के क्षत्रिय जातीय समूहों में घुल-मिल गया.
‘राजपूत’ शब्द का व्यापक व्यवहार मुग़लकाल में शुरू हुआ, लेकिन इससे पहले भी यह शब्द क्षत्रिय जातीय समूह के लिए लगभग समानार्थी शब्द की तरह चलन में था. उल्लेखनीय तथ्य यह है कि पदमिनी-रत्नसेन प्रकरण पर निर्भर कथा-काव्यों में सर्वत्र ‘खित्रिवट’ (क्षत्रियत्व) शब्द का व्यवहार हुआ है. केवल दो-तीन स्थानों पर ही इनमें ‘राजपूत’ शब्द का उल्लेख मिलता है. महाभारत सहित और कई प्राचीन ग्रंथों, शिलालेखों और दानपत्रों में ‘राजपुत्र’ शब्द का व्यवहार हुआ है. महाभारत में एकाधिक स्थानों पर इस शब्द का शासक राजा के उत्तराधिकारी के रूप में उल्लेख मिलता है. कौटिल्य के अर्थशास्त्र सहित सभी प्राचीन अभिलेखों और साहित्य में ‘क्षत्रिय’ के साथ ‘राजपुत्र’ शब्द भी हमेशा व्यवहार में रहा है.
राजपूत क्षत्रिय परंपरा में ही थे, लेकिन आरंभिक यूरोपीय और उनके अनुवर्ती भारतीय विद्वानों ने अपुष्ट प्रमाणों के आधार पर राजपूतों को विदेशी मूल का मानकर इस विषय को इतना विवादास्पद और जटिल बना दिया है कि अब भी कुछ विद्वान् इसको अनिर्णीत छोड़कर ही आगे बढ़ जाते हैं. जेम्स टॉड, वी.ए. स्मिथ, डी.आर. भंडारकर, सी.वी. वैद्य, आर.सी. मजूमदार, गौरीशंकर ओझा, रामशरण शर्मा, रोमिला थापर आदि कई विद्वानों ने इस विषय पर विचार किया और इन सबकी राय इस संबंध में अलग-अलग है. उपलब्ध अभिलेखीय और साहित्यिक साक्ष्य भी एक-दूसरे से मेल नहीं खाते. पृथ्वीराजरासो में वर्णित अग्निकुंड से चार प्रमुख राजपूत समूहों की उत्पत्ति के मिथ और बाद में सूर्यमल्ल मिश्रण के वंशभास्कर में इसके विस्तृत रूपांतर को आधार बनाकर कुछ यूरोपीय और भारतीय विद्वानों ने यह मान लिया कि ये सभी जातीय समूह प्राचीन भारतीय क्षत्रिय परंपरा से असंबद्ध और विदेशी मूल के हैं और ब्राह्मणों के सहयोग से इन्होंने अपने को प्राचीन भारतीय क्षत्रिय परंपरा से संबद्ध कर लिया.
राजपूतों की विदेशी उत्पत्ति से संबंधित मत सर्वप्रथम कर्नल जेम्स टॉड ने इतिहास ग्रंथ एनल्स एंड एंटिक्विटीज़ ऑफ़ राजस्थान में दिया. यज्ञों के चलन, रथों द्वारा युद्ध, मांसाहार, रहन-सहन तथा वेश-भूषा की समानता आदि के आधार पर टॉड ने राजपूतों को विदेशी सीथियन मतलब शक जाति का वंशज माना. इस मत का समर्थन विलियम क्रूक ने भी किया है. बाद में वि.ए. स्मिथ ने भी कहा कि उत्तर-पश्चिम की राजपूत जातियों- प्रतिहार, चौहान, परमार, चालुक्य आदि की उत्पत्ति भारत में बाहर से आने वाली मध्य एशियायी शक, हूण आदि जनजातियों से हुई. इसी तरह उसके अनुसार गाहड़वाल, चंदेल, राष्ट्रकूट आदि मध्य तथा दक्षिणी क्षेत्र की जातियाँ गोंड, भर जैसी देशी आदिम जातियों की वंशज हैं.
आगे चलकर भारतीय विद्वानों- डी.आर. भंडारकर, रोमिला थापर आदि ने भी इस मत का समर्थन किया. रोमिला थापर के अनुसार
“इनकी उत्पत्ति विदेशी थी. इसका पता इस बात से चलता है कि ब्राहमणों ने उन्हें राजीय वंश परंपरा का बताने और उन्हें ‘क्षत्रिय’ का स्थान दिलाने का पूरा प्रयत्न किया, और राजपूतों ने भी इस बात का आग्रह आवश्यकता से अधिक बल देकर किया.”
यह धारणा कमोबेश मान्य हो गई. यह मान लिया गया कि गुप्त साम्राज्य से पहले और बाद में हूण, शक, पहलवी आदि कई जातियाँ बाहर से यहाँ आईं और यहाँ पहले से मौजूद क्षत्रियों के रीति-रिवाज़ और जीवन शैली में रच-बस कर यहाँ के उत्तरी-पश्चिमी इलाकों में बस गईं.
बाद में ब्राह्मणों के सहयोग से इनमें से कुछ जातियों ने अपने अग्नि, सूर्य और चन्द्रवंशी होने के दावे किए. आरम्भ में माउंट आबू के अग्निकुंड से उत्पत्ति के मिथ से संबंधित प्रतिहार, परमार, चालुक्य और चौहान जातियों ने प्रादेशिक राज्य क़ायम किए. अपने सूर्य एवं चन्द्रवंशी होने का दावा करने वाली गुहिल, चंदेल, गहड़वाल, राठौड़, कछवाहा, तोमर आदि अन्य जातियाँ उतरी-पश्चिमी भारत में क्षेत्रीय शासकों के रूप में स्थापित हो गईं.
सी.वी. वैद्य की स्पष्ट मान्यता है कि राजपूत वैदिक आर्यों के उत्तराधिकारी थे और उनकी अपनी परंपराएँ यह घोषित करती हैं कि वे सूर्य और चंद्रवंशी प्राचीन क्षत्रिय प्रजातियों से संबंधित हैं. गौरीशंकर ओझा की भी धारणा है कि नवीं सदी में एकाएक उभरकर प्रमुख हो जानेवाली राजपूत जातियाँ प्राचीन सूर्य और चंद्रवंशी क्षत्रिय जातियों की वंशज हैं और जिन विदेशी प्रजातियों से उनकी उत्पत्ति मानी गई है, उनमें से अधिकांश प्राचीन भारतीय क्षत्रिय राजवंशों में शामिल हैं. उनका यह भी मानना है कि जहाँ से उनका भारत आगमन माना जाता है, वहाँ छठी-सातवीं सदी में भारतीय सभ्यता और संस्कृति की मौजूदगी के प्रमाण मिलते हैं. सुल्तान महमूद की चढ़ाई के समय अल्बेरुनी उसके साथ था और उसने अपनी प्रसिद्ध किताब किताबुल हिंद (1017-31 ई.) में सभी जगह ‘क्षत्रिय’ शब्द का ही व्यवहार किया है.
पद्मिनी प्रसंग |
विजय बहादुर सिंह और माधव हाड़ा |
-
माना यह जाता है बाहर से आयी हुई राजपूत जातियों ने अपने क्षत्रियत्वकरण के लिए ब्राह्मणों का सहारा लिया. यह कितना सही है?
यह धारणा मान्य तो है, लेकिन इस पर अब पुनर्विचार होना चाहिए. यूरोपीय और उनके अनुवर्ती भारतीय विद्वानों की यह धारणा कि इन जातियों ने अपने हिंदूकरण और शुद्धता के लिए ब्राह्मणों का सहारा लिया और उनका यह सहयोग व्यापक जनसाधारण में मान्य भी हो गया, यह तत्काल गले उतरने वाली बात नहीं है. स्वयं वी.ए. स्मिथ भी इस संबंध में आश्वस्त नहीं था. उसने लिखा कि
“निस्संदेह शक और कुषाणवंशी राजाओं ने जब हिन्दू धर्म स्वीकार कर लिया, तब वे हिंदू जाति की प्रथा के अनुसार क्षत्रियों में मिला लिए गए होंगे, किंतु इस कथन के लिए हमारे पास कोई प्रमाण नहीं हैं.”
इन आरंभिक विद्वानों ने इनके विदेशी मूल की होने की धारणा माउंट आबू के अग्निकुंड से इनके उत्पन्न होने के मिथ के आधार पर बनाई, लेकिन इस मिथ के भी एकाधिक रूपांतरण हैं और इनमें से कुछ बहुत बाद में अस्तित्व में आए हैं. इन राजपूत समूहों की प्रजातीय विशेषताएँ और जीवन शैली भी इनके भारतीय मूल के होने की पुष्टि करती है. टॉड ने राजपूत तथा सीथियन, मतलब शक जातियों में जिन समान प्रथाओं का संकेत किया है, वे सभी प्रथायें भारत की प्राचीन क्षत्रिय जातियों में भी देखी जा सकती हैं.
विलियम क्रूक का ‘खजर’ और ‘गुर्जर’ शब्द में साम्य का विचार युक्तिसंगत नहीं है. इस तरह की जबरन समानता को प्रमाणों के अभाव में बहुत दूर तक नहीं खींचा जा सकता. दरअसल खजर जनजाति ने कभी भी भारत पर आक्रमण नहीं किया, जिसका संबंध कुछ उत्तर भारतीय राजपूत समूहों से जोड़ा जाता है और यह जाति स्वभाव से घुमक्कड़ भी नहीं है.
पद्मिनी प्रसंग |
विजय बहादुर सिंह और माधव हाड़ा |
-
‘पृथ्वीराजरासो’ में वर्णित माउंट आबू में अग्निकुलीन राजपूतों की उत्त्पत्ति के मिथ में क्या सच्चाई है?
पृथ्वीराजरासो में वर्णित अग्निकुल की उत्पत्ति की मिथ कथा में कोई ऐतिहासिक सच्चाई नहीं है और इस कथा का उल्लेख रासो की कुछ प्राचीन पांडुलिपियों में नहीं मिलता है. इस संबंध में सी.वी. वैद्य की धारणा यह है कि
“यह एक कवि के मस्तिष्क में उत्पन्न हुआ, दूसरे ने इसका ग़लत अर्थ लगाया और फिर यह इस तरह प्रभावकारी हुआ कि स्वयं राजपूत इस पर मुग्ध हो गए.”
पृथ्वीराजरासो में वर्णित अग्निकुंड से उत्पत्ति के जिस मिथ के आधार पर प्रतिहार, परमार, चालुक्य और चौहान जातियों को अग्निवंशी माना गया, वे स्वयं अपने को उपलब्ध शिला और ताम्र अभिलेखों में पाँचवीं सदी से पूर्व तक अग्निवंशी मानती ही नहीं थी. ग्वालियर (सगर ताल) के भोज के प्रशस्ति अभिलेख में कन्नौज के प्रतिहारों को सूर्यवंशी राम के भाई लक्ष्मण का वंशज लिखा गया है. राजशेखर ने भी अपने आश्रयदाता चौहानवंशी महेंद्रपाल को ‘रघुवंश का आभूषण’ और ‘रघुकुल तिलक’ कहा है. जहाँ तक ‘प्रतिहार’ के साथ ‘गुर्जर’ शब्द के प्रयोग का प्रश्न है, तो यह केवल राजोर शिलालेख में ही प्रयुक्त हुआ है, लेकिन यह यहाँ भौगोलिक अर्थ में नहीं है. इसी तरह हर्ष के शिलालेख और हम्मीरमहाकाव्य में भी चौहानों को स्पष्टतया सूर्यवंशी कहा गया है. अणहिलवाड़ा के चालुक्यों के शिलालेखीय प्रमाण भी उनको चंद्रवंशी कहते हैं. राजा मुंज के समय तक परमार भी अपने को अग्निवंशी की जगह ‘ब्रह्मक्षत्र’ कहते थे. वाक्पति द्वितीय के राजकवि हलायुध ने अपने आश्रयदाता नरेश को ‘ब्रह्मक्षत्र’ कहा है.
हरसोला के ताम्रपत्रों में चालुक्यों को कहीं भी अग्निवंशी नहीं माना गया है. इतिहासकार डी.सी. गांगुली ने तो परमारों को हरसोला के ताम्रपत्रों के आधार पर राष्ट्रकूटों की संतान सिद्ध किया है. स्वयं चंद बरदाई का आशय भी इस वृत्तांत के आधार पर इन जातीय समूहों को अग्निवंशी सिद्ध करना नहीं था. रासो में 36 राजपूत वंशों का उल्लेख है. उसने लिखा है कि-
रवि ससि जाधव वंस. ककुस्थ परमार सदावर. चहुआन चालुक्क.
छंदक सिलार अभियर. स्पष्ट है कि चंद 36 राजपूत जातीय समूहों में परमार, चालुक्य, चहुआन और यादव राजवंशों में सम्मिलित मानता है. सी.वी. वैद्य के अनुसार यह उल्लेख परवर्ती नहीं, पृथ्वीराज चौहान के समय का ही है. डी.आर. भंडारकर का यह कहना कि प्रतिहार अपने कुछ अभिलेखों में अपने को गुर्जर कहते हैं, इसलिए शेष परमार, चालुक्य और चौहान भी गुर्जर होने चाहिए, यह धारणा युक्तिसंगत नहीं है. दरअसल शक आदि जातियों का भारत में आना और यहाँ के क्षत्रिय जातीय समूहों में घुलमिल जाना यहाँ की बहुत मजबूत जातीय व्यवस्था में संभव ही नहीं था. 300 ई. पू. के आसपास यहाँ आए मेगास्थनीज का स्पष्ट कथन है कि
“यहाँ किसी दूसरी जाति में विवाह करने और अपना व्यवसाय बदलने की अनुमति नहीं है.”
600 ई. के आसपास भारत आए चीनी यात्री ह्वेनत्सांग का भी यही मानना है. वह लिखता है कि
“यहाँ के लोग अपनी ही जाति में विवाह करते हैं.”
दरअसल सही यह है कि जिन विदेशी जातीय समूहों से राजपूतों की उत्पत्ति मानी गई है, वे विदेशी नहीं थे. मध्य एशिया, जहाँ से ये समूह आए, वहाँ इस्लाम के प्रसार से पूर्व भारतीय सभ्यता और आर्यों की मौजूदगी के प्रमाण मिलते हैं. विदेशी मूल की जिन जातियों से राजपूतों की उत्पत्ति मानी गई है, उनका उल्लेख बहुत पहले से भारतीय क्षत्रिय जातियों में होता आया है. मनुस्मृति में उल्लेख है कि
“पौंड्रक, चोड, द्रविड, कांबोज, यवन, शक, पारद, पल्हव, चीन, किरात, दरद और खश ये सब क्षत्रिय जातियाँ थीं, परंतु शनैः शनैः क्रियालोप होने से वृषल (विधर्मी, धर्मभ्रष्ट) हो गईं.”
गौरीशंकर ओझा के अनुसार
“इसका अभिप्राय यह है कि वैदिक धर्म को छोड़कर अन्य (बौद्ध आदि) धर्मों के अनुयायी हो जाने के कारण वैदिक धर्म के आचार्यों ने उनकी गणना विधर्मियों (धर्म भ्रष्टों) में की.”
पुराणों में शक आदि जातियों के क्षत्रिय होने के वृत्तांत मिलता है.
कुमारपालप्रबंध में भी हूणों की गणना 36 राजवंशों में की गई है. हूणों के साथ राजपूत वंशों के वैवाहिक संबंध भी इस बात पुष्टि करते हैं कि यह जाति विदेशी नहीं थी. चीनी यात्री फाहियान के विवरणों से भी यह स्पष्ट है कि ईसा की तीसरी-चौथी सदी में मध्य एशिया में भारतीय सभ्यता विस्तार था. चीनी तुर्कीस्तान में मिले लौकिक भाषा मिश्रित प्राकृत के दस्तावेज़ों में महाराजा, प्रियदर्शन, देवपुत्र, भट्टारक आदि शब्द मिले हैं. इसी तरह इनमें भारतीय समय सूचक संवत्सर, मास, दिवस आदि भी दिए हुए हैं.
पद्मिनी प्रसंग |
विजय बहादुर सिंह और माधव हाड़ा |
-
पद्मिनी-रत्नसेन प्रकरण के समय राजस्थान सामंती व्यवस्था क्या रूप रहा होगा? क्या यह व्यवस्था यूरोपीय और शेष भारतीय सामंत व्यवस्था अलग है?
विनिबंध में विवेच्य कथा-काव्यों और दूसरे उपलब्ध साक्ष्यों से लगता है कि रत्नसेन-पद्मिनी प्रकरणकालीन मेवाड़ में अपने ढंग की सामंती प्रशासनिक व्यवस्था थी. यह व्यवस्था यूरोपीय और शेष भारत की सामंतवादी व्यवस्था से कुछ हद तक अलग और ख़ास प्रकार की थी. कुछ विद्वानों की ‘भारतीय फ़्यूडलिज़्म’ की अवधारणा के साथ इसका कोई मेल नहीं है. ‘भारतीय फ़्यूडलिज़्म की परिकल्पना’ वास्तव में यूरोप में विकसित और पतित फ़्यूडलिज़्म की हेनरी पिरेन द्वारा प्रतिपादित परिकल्पना के अनुरूप थी, जिसे रामशरण शर्मा ने कार्बन कॉपी की तरह भारतीय तथ्यों और साक्षियों पर चस्पा कर दिया. मेवाड़ में राजनीतिक-प्रशासनिक सत्ता का विकेन्द्रीकरण ब्राह्मणों को भूमिदान से नहीं हुआ.
यह सही है कि यहाँ बहुत शुरू से ब्राह्मणों और मंदिरों को भूमिदान दिया जाता रहा है और इस तरह अभिलेख भी निरंतर मिलते हैं, लेकिन यह उनको आजीविका के लिए दिया जाता था और इस पर उनका स्वामित्व स्थायी नहीं था. यहाँ भूमि सैन्य सेवा के बदले अपने कुटुम्बियों और अन्य बाहरी क्षत्रिय योद्धाओं की दी गयी और सत्ता का विकेंद्रीकरण भी इसी आधार पर हुआ. राजाज्ञा यहाँ सर्वोपरि थी और उसकी अनुपालना भी आवश्यक थी, लेकिन अधीनस्थ सामंतों का युद्ध आदि मसलों में परामर्श भी आवश्यक था और कुछ मामलों में वे स्वायत्त और ताक़तवर भी थे. मेवाड़ की यह व्यवस्था शेष राजस्थान की रियासतों से भी अलग थी- अन्य रियासतों में अधीनस्थ सामंतों को मेवाड़ जितने अधिकार नहीं थे. दरअसल मेवाड़ राजस्थान के दूसरे राज्यों की तुलना में बहुत पुराना राज्य था.
टॉड के शब्दों में
“यह वंश ऐसे प्राचीन समय स्थापित हो चुका था, जबकि अन्य पुनर्जीवित या अभी गर्भावस्था में ही थे. इस कारण मेवाड़ की रीति-नीति और विधि-विधान अन्य राज्यों से स्पष्ट रूप से भिन्न हैं.”
यहाँ के सामंत और उपसामंत केवल सैन्य सेवा के लिए उपलब्ध व्यक्ति नहीं थे, उनके कुछ पारम्परिक अधिकार थे और राज्य की रीति-नीति के निर्धारण में उनकी निर्णायक भूमिका थी. कई बार वे राजा के चयन और अयोग्य शासक की पदच्युति में प्रभावी भूमिका निभाते थे. राजा उनसे परामर्श और सहयोग लेने के लिए लगभग बाध्य था. काश्तकार उत्पादन और आर्थिक मामले में लगभग स्वतंत्र थे और इसके अलावा कुछ हद तक उनका अपनी काश्तभूमि भूमि पर विधिक अधिकार भी था. उनसे आमतौर पर उत्पादन का 1/3 या 1/4 बतौर राजस्व लिया जाता था और कृषि दासता जैसी स्थिति यहाँ कभी नहीं रही.
पद्मिनी प्रसंग |
विजय बहादुर सिंह और माधव हाड़ा |
-
पद्मिनी-रत्नसेन संबंधी कथा-काव्यों पर तत्कालीन कवि-शिक्षा ग्रंथों कितना प्रभाव है? क्या ये कवि शिक्षा ग्रंथ प्राचीन भारतीय परंपरा में हैं?
भारत में प्रचीन काल से कवि शिक्षा ग्रंथों की परंपरा रही है. संस्कृत के समानांतर जब देश भाषाओं की प्रतिष्ठा हो गयी, तो इनमें भी कवि शिक्षा ग्रंथों की रचना आरंभ हुई. काव्य प्रतिभा यद्यपि प्राचीन काल से जन्मजात मानी जाती रही है, फिर भी संस्कृत काव्यशास्त्र के लगभग सभी प्रमुख आचार्यों ने कवि के लिए सुशिक्षित एवं बहुश्रुत होना आवश्यक बताया है. भामह, दंडी आदि आचार्यों के अनुसार कवि होने की अर्हताओं में कवि शिक्षा ज़रूरी है. राजशेखर (900 ई.) का काव्य मीमांसा ग्रंथ इस संबंध में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है. यह ग्रंथ परवर्ती कवियश प्रार्थी विद्वानों के लिए मार्गदर्शक सिद्ध हुआ.
काव्य मीमांसा के 18 अध्यायों में शास्त्र परिचय, पदवाक्य विवेक, पाठ प्रतिष्ठा, काव्य के स्रोत, अर्थव्याप्ति, कविचर्या, राजचर्या, काव्यहरण, कविसमय, देशविभाग, कालविभाग आदि कविशिक्षोपयोगी विषयों पर प्रकाश डाला गया है. क्षेमेंद्र ने भी अपने ग्रंथ कविकंठाभरण (1050 ई) में काव्यरचना में रुचि रखनेवाले व्यक्तियों के लिए कुछ दिशा-निर्देश तय किए हैं. बारहवीं सदी के पूर्वार्ध में वाग्भट की वाग्भटालंकारः का योगदान भी इस दिशा में महत्त्वपूर्ण है. अमरचंद्र (बारहवीं सदी) की काव्यकल्पलतावृत्ति, तथा केशव मिश्र (सोलहवीं सदी) की अलंकारशेखर आदि रचनाएँ कवि शिक्षामूलक रचनाएँ हैं. संस्कृत के समानांतर प्राकृत-अपभ्रंश में भी जब कवि कर्म ज़ोर पकड़ने लगा, तो कवि शिक्षा- छंद, अलंकार आदि से संबंधित ग्रंथ संस्कृत के साथ प्राकृत और अपभ्रंश में भी होने लगे.
इन भाषाओं में नये विकसित छंद और अलंकरण को भी शास्त्रबद्ध किया जाने लगा. स्वयंभू की स्वंभूछंद नवीं-दसवीं सदी में कभी हुई संस्कृत-प्राकृत छंदों के साथ अपभ्रंश छंदों का स्वरूप निरूपण करने वाली बहुत महत्त्वपूर्ण और प्राचीन रचना है. विरहांक का समय भी कमोबेश यही रहा होगा. विरहांक ने अपभ्रंश की दो शैलियाँ- आभीरी और मरुवाणी करते हुए वृत्तजातिसमुच्च्य में इसके छंदों का स्वरूप विवेचन किया है. हेमचंद्र (1088-1172 ई.) का छंदोनुशासन, अज्ञातकर्तृक प्राकृतपैंगलम्, श्रीनंदिताढ्यकृत गाथालक्षणम् आदि भी इसी तरह की रचनाएँ हैं. ग्यारहवीं सदी के उत्तरार्ध में राजस्थान और गुजरात में नये मात्रिक छंदों का विकास हुआ और इनकी पहचान के लिए कई रचनाएँ हुईं. कविदर्पण (चौदहवीं सदी) में नये विकसित मात्रिक छंदों का सोदाहरण स्वरूप निरूपण है.
संदेशरासक में प्रयुक्त सभी छंद इसमें आ गए हैं. श्रीकृष्ण भट्ट कृत वृत्तमुक्तावली (1699-1743 ई.), चंद्रशेखर भट्ट कृत वृत्तमौक्तिक (सोलहवीं सदी) भी इसी तरह की रचनाएँ हैं. वृत्तमुक्तावली में दोहा, चौपाई, कवित्त, सवैया, छप्पय आदि का भी संस्कृत में निरूपण है. वृत्तमौक्तिक छंदशास्त्र की दृष्टि से एक परिपूर्ण रचना है और इसमें सर्वाधिक छंदों का निरूपण हुआ है. चारण कवि किशनाजी आढ़ा के रघुवरजसप्रकास की रचना 1823-24 ई. में हुई. यह मरुधर भाख़ा (राजस्थानी) छंदशास्त्र विषयक सबसे अधिक विस्तृत और वैविध्यपूर्ण ग्रंथ है. इन रचनाओं के रचनाकार जैन और चारण, दोनों थे. स्पष्ट है कि पदमिनी-रत्नसेन प्रकरण पर निर्भर ऐतिहासिक कथा-काव्यों के रचनाकारों को छंद और अलंकरण का शास्त्र ज्ञान संस्कृत, प्राकृत-अपभ्रंश और देश भाषाओं में उपलब्ध था और ज़ाहिर है, यह ज्ञान चारण कवियों को वंशानुगत और जैन यति-मुनियों को गुरु परंपरा से मिलता था. चंद बरदाई ने पृथ्वीराजरासो में एक जगह लिखा है कि
छंद प्रबंध कवित्त जति. साटक गाह दुहत्थ॥
लघु गुरु मंडित खंडि यह, पिंगल अमर भरत्थ॥
अर्थात् (मेरे प्रबंध काव्य रासो में) कवित्त (षट्पदी), साटक (शार्दूलविक्रीडित), गाहा (गाथा) और दोहा नामक वृत्त प्रयुक्त हुए हैं, जिनमें मात्रादि नियम पिंगलाचार्य के अनुसार और संस्कृत (अमरवाणी) के छंद भरत के मतानुकूल हैं.
पद्मिनी प्रसंग |
विजय बहादुर सिंह और माधव हाड़ा |
-
सूत, बंदी, मागध और चारणों की प्राचीन साहित्य में चर्चा मिलती है. यह परंपरा मध्यकाल में किस तरह विद्यमान है?
सूत बंदी, चारण आदि परंपराएँ बहुत प्राचीन है. विख्यात इतिहासकार वी.एस. पाठक इन पर विस्तार से विचार किया है. मध्यकालीन इतिहास, कथा-काव्य और आख्यान की ब्राहमण, चारण आदि परंपराओं के उत्स प्राचीन भृग्वंगिरस समूह में है. इतिहास की प्राचीन भारतीय परंपरा के निर्माण और विस्तार में भृग्वंगिरसों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है और यह परंपरा बहुत बाद तक जारी रही. ऋग्वेद में ऋषि-कवि का कारु तथा कारिन् के रूप में उल्लेख मिलता है, जो अपने आश्रयदाताओं की प्रशस्ति में रचनाएँ करते थे. वैदिककाल में ऐसे तीन परिवार मिलते हैं- वशिष्ठ और विश्वामित्र भरत राजाओं, कण्व यदुओं, पराश्वों और पुरुओं और भारद्वाज दिवादोस से संबद्ध थे. यह संबंध इस दौर में बदलता भी रहा.
उत्तर वैदिककाल में आंगिरस, अथर्वन और भृगु वंश का एकीकरण और सक्रियता बहुत महत्त्वपूर्ण है. इन तीनों के समूह को ‘भृग्वंगिरस’ कहा जाता है. ऋग्वेद में इनका एक साथ उल्लेख मिलता है. एकीकरण की यह प्रक्रिया अथर्ववेद में अपने विकसित रूप में है. अथर्ववेद को भृग्वंगिरस या अथर्वांगिरस वेद भी कहा जाता है.
इतिहास-पुराण परंपरा का विस्तार और पल्लवन भी इस परिवार समूह ने किया. छान्दोग्य उपनिषद् के अनुसार जिस प्रकार ऋक् का ऋग्वेद से, यजुस् का यजुर्वेद से और साम का सामवेद से संबंध है, उसी प्रकार इतिहास-पुराण का संबंध भृग्वंगिरस से है. महाभारत और रामायण का विकास भी इस समूह की देन है. पुराणों के विकास में भी इस समूह ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई. इतिहास-पुराण के अलावा इतिहास परंपरा के दूसरे अनुशासन-आख्यान और आख्यायिका पर भी भृग्वंगिरस समूह का प्रभाव है.
मध्यकाल में यह राज्याश्रित ब्राहमणों, चारणों आदि के रूप में मौजूद रही हैं. मध्यकालीन कई राजवंशों ने ब्राह्मणों को अपने यहाँ बाहर से बुलाकर वंश आदि रचनाएँ करने के लिए राज्याश्रय दिय. उत्तरी-पश्चिमी मध्यकालीन राज्यों ये कई जातियाँ काशी और दक्षिण भारत से आयीं.
पद्मिनी प्रसंग |
विजय बहादुर सिंह और माधव हाड़ा |
-
मध्यकालीन समाज में विकसित जीवन मूल्य क्या अलग हैं? उनमें क्या ख़ास और अलग है?
विवेच्य रचनाओं और दूसरे साक्ष्यों से यह भी लगता है बाहय आक्रमणों और निरंतर होनेवाले युद्धों के कारण यहाँ कुछ खास प्रकार के सांस्कृतिक मूल्यों का विकास हुआ, जिनकी जड़ें हमारे प्राचीन शास्त्रों और स्मृतियों में थीं. सांस्कृतिक मूल्यों का विकास और उनमें परिवर्तन ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में होता है. उनका मूल्यांकन हम अपने समय की ज़रूरतों के आधार पर करने लगते हैं, जो ग़लत हैं. समता, स्वाधीनता, न्याय और इन पर निर्भर विचारधाराएँ और विमर्श मनुष्य की विकास यात्रा की हमारे समय की उपलब्धियाँ हैं. हमारे समय के सांस्कृतिक मूल्यों और व्यवहार की कसौटी पर इसलिए मध्यकालीन सांस्कृतिक व्यवहार और मूल्यों के महत्त्व का आकलन नहीं हो सकता. अलग और ख़ास प्रकार के मध्यकालीन ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में ही इनको समझा जाना चाहिए.
शौर्य, पराक्रम, युद्ध, शरणागति और प्रजा की रक्षा आदि मूल्य क्षत्रियत्व की प्रमुख अभिलक्षणाओं में हमेशा से थे, लेकिन मध्यकाल में इनका आग्रह बढ़ गया. मध्यकाल में युद्ध की एक संस्कृति बन गयी, जिसमें मरना-मारना और पीठ नहीं दिखाना योद्धा के ज़रूरी गुण मान लिए गए. “युद्द्ध उन दिनों के राजपूत राजाओं के लिए आवश्यक कर्त्तव्य हो गया था. लड़नेवाली जातियों के लिए सचमुच ही चैन से रहना असंभव हो गया था. क्योंकि उत्तर, पूरब, दक्षिण, पश्चिम सब ओर से ओर आक्रमण की संभावना थी. निरंतर युद्ध के लिए प्रोत्साहित करने का भी एक वर्ग आवश्यक हो गया था.
चारण इसी श्रेणी के लोग थे. उनका कार्य ही था- हर प्रसंग में आश्रयदाता के युद्धोन्माद को उत्पन्न कर देने वाली घटना योजना का आविष्कार.” विवेच्य रचनाओं में ‘खित्रिवट’ (क्षत्रियत्व) ‘रिणवट’ (युद्ध की रीत) की ख़ूब सराहना हुई है.
कर्मफल और नियतिवाद मध्यकालीन आचरण में सम्मिलित था, लेकिन धीरे-धीरे यह युद्ध संस्कृति के साथ भी जुड़ गए. विवेच्य रचनाओं में इस धारणा को पुष्ट किया गया है कि युद्ध में मृत्यु से यश के साथ स्वर्ग भी मिलता है. स्वामिधर्म भी इन रचनाओं में केद्रीय सरोकार है. गोरा-बादल के चरित्रों की योजना इस मूल्य को चरितार्थ करने के लिए ही हुई है.
निरंतर बाह्य आक्रमणों और आक्राताओं के स्त्रीलोलुप आचरण और स्वभाव के कारण मध्यकाल में स्त्रियों की शील की रक्षा और यौन शुचिता का आग्रह और चिंता में भी वृद्धि हुई. विवेच्य रचनाओं में इसका आग्रह बहुत है. यहाँ पद्मिनी अपने शील और यौन शुचिता की रक्षा के निमित्त मर जाने के लिए संकल्पित है और उसके परिजन भी इसके लिए मरने और मारने के लिए तत्पर हैं.
पद्मिनी प्रसंग |
विजय बहादुर सिंह और माधव हाड़ा |
-
मध्यकालीन साहित्यिक परंपराओं का उत्स कहाँ है? क्या ये प्राचीन भारतीय परंपराओं की निरंतरता में हैं?
मध्यकालीन साहित्यिक परंपराए हमारी प्राचीन सहित्यिक परंपराओं की निरंतरता में में हैं. चरित, गाथा, आख्यान आदि कथा-काव्य रूपों ने अपभ्रंश और परवर्ती देश भाषाओं में कई रूप धारण किए. अज्ञात कविकृत गोरा-बादल कवित का काव्य रूप कथा बीजक काव्य रूप है. छप्पय (कवित्त) में होने के कारण इसको ‘कवित्त’ कहा गया है. डिंगल और राजस्थानी में इस तरह का काव्य रूप मिलता है. दयालदास कृत राणारासो और दलपति विजय कृत खुम्माणरासो ‘रास-रासो’ काव्य रूप में हैं. ‘रास’ जैन परंपरा और ‘रासो’ चारण काव्य परंपरा के लोकप्रिय काव्य रूप हैं. हेमरतन कृत गोरा-बादल पदमिणी चउपई और लब्धोदय कृत गोरा-बादल चरित्र चौपाई में कथा विस्तार के लिए चौपाई छंद का प्रयोग हुआ है, इसलिए इनको ‘चउपई’ या ‘चौपाई’ कहा गया है.
दरअसल ये दोनों ही ‘चरित’ काव्य रूप में हैं. पदमिनीसमिओ को ‘समिओ’ कहा गया, जो खंड या अध्याय का पर्याय है. यह रास-रासो का संक्षिप्त काव्य रूप प्रतीत होता है. चित्तौड़-उदयपुर पाटनामा वंश और ख्यात का मिलाजुला रूप है. ‘ख्यात’ राजस्थानी भाषा का लोकप्रिय साहित्य रूप है, जो आख्यान का देशज रूपांतरण है. चित्तौड़-उदयपुर पाटनामा अपनी तरह की अकेली वंश और ख्यात रचना है. जटमल नाहर कृत गोरा-बादल कथा भी दरअसल चरित काव्य रूप में है. चरित काव्य के लिए प्राकृत-अपभ्रंश और परवर्ती देश भाषाओं में ‘कथा’ या ‘कहा’ शब्द का प्रयोग चलन में रहा है.
पद्मिनी प्रसंग |
विजय बहादुर सिंह और माधव हाड़ा |
-
आपके विनिबंध की विवेच्य रचनाओं की भाषा क्या है? क्या जैन और चारण कवि अलग भाषा इस्तेमाल कर रहे थे?
भाषा इन रचनाओं की सोलहवीं से लगाकर उन्नीसवीं सदी के विस्तार में बनने-बदलनेवाली उत्तरी-पश्चिमी भारत के कुछ क्षेत्रों में प्रयुक्त देशभाषा है, जिसमें प्राकृत-अपभंश और डिंगल की कई प्रवृत्तियाँ अवशेष रूप में मौजूद हैं. जैन रचनाओं में स्थानीय बोलियों का भी मुखर प्रभाव दिखता है. शब्दों में तत्सम, अधर्तत्सम और देशज के साथ फ़ारसी-अरबी शब्दों का भी प्रयोग हुआ है. छंदों का प्रयोग इनमें पारंपरिक है और इनका महत्त्व भी बहुत है. इनमें से कई रचनाओं के नामकरण उनमें प्रयुक्त प्रमुख छंद के आधार पर कवित्त, चउपई और चौपाई किए गए हैं. मध्यकाल में कथा के छंद चौपाई और दोहा थे, इसलिए इनमें इनका सबसे अधिक इस्तेमाल हुआ है. वस्तु वर्णन, ख़ासतौर पर युद्ध वर्णन के लिए छप्पय आदि छंद इस्तेमाल किए गए हैं.
अलंकरण में आनुप्रासिकता इनके कवि स्वभाव में है. उपमा, उत्प्रेक्षा और उदाहरण अलंकारों का प्रयोग इनके यहाँ ख़ूब है. ऐसा लगता है जैसे इनका प्रयोग कर ये रचनाकार अपना कवि होना प्रमाणित कर रहे हैं. वस्तु वर्णन की गुंजाइश इन सभी रचनाकारों ने निकाली है, क्योंकि रचनात्मकता के लिए जगह इसी में निकलती है. अवसर आने पर दुर्ग, नगर, ऋतु वर्णन इनके यहाँ है. युद्ध वर्णन इन सभी के यहाँ ख़ूब है. परंपरा आग्रही होने के कारण इन्होंने कथा रूढ़ियों और अभिप्रायों का प्रयोग आग्रहपूर्वक किया है. भोजन के स्वादहीन होने के कारण राजा की नाराज़गी और रानी के इस निमित्त पद्मिनी ले लाने का ताना देने की लोक प्रचलित कथा रूढ़ि इनमें से अधिकांश में है. लोक व्यवहार में ये सभी कुशल लगते हैं- अवसर आते ही मुहावरों और लोकोक्तियों का प्रयोग इनके कवि स्वभाव में शामिल हैं. यथावश्यकता इन्होंने शास्त्र और लोक के प्रसिद्ध कथन या कवि सूक्तियों को भी यथास्थान उद्धृत किया है.
पद्मिनी प्रसंग |
विजय बहादुर सिंह और माधव हाड़ा |
-
क्या पद्मिनी-रत्नसेन प्रकरण पर निर्भर ऐतिहासिक कथा-काव्य संबंधी इस्लामी विजय की हिंदवी-फारसी साहित्यिक प्रवृत्ति की प्रतिक्रिया में लिखी गयीं?
यह धारणा निराधार है. पद्मिनी-रत्नसेन प्रकरण पर निर्भर ऐतिहासिक कथा-काव्य इस्लामी विजय की हिंदवी-फारसी साहित्यिक प्रवृत्ति का प्रतिरोध नहीं है, जैसा कि कुछ विद्वान् मानते हैं. अज़ीज़ अहमद सहित कुछ विद्वान् रासो आदि रचनाओं को इस्लामी विजय की साहित्यिक रचनाओं- ख़जाइन-उल-फूतूह आदि का प्रतिरोध मानते हैं. अज़ीज़ अहमद ने इस इस संबंध में लिखा कि
“मुस्लिम प्रभाव और शासन ने दो साहित्यिक प्रवृत्तियों को जन्म दिया: विजय का एक मुस्लिम महाकाव्य, और प्रतिरोध और मनोवैज्ञानिक अस्वीकृति का एक हिंदू महाकाव्य. दो साहित्यिक प्रवृत्तियाँ दो अलग-अलग संस्कृतियों; दो अलग-अलग भाषाओं- फ़ारसी और हिंदी और दो समान रूप ख़ास धार्मिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक दृष्टिकोणों द्वारा अपनपायी गयी. ये दोनों प्रवृत्तियाँ आक्रामक शत्रुता के साथ एक-दूसरे का सामना करती हैं.”
यह धारणा सही नहीं है- ये रचनाएँ सदियों पुरानी ऐतिहासिक प्रबंध-चरित कथा-काव्य की परंपरा में है और ये किसी प्रवृत्ति का प्रतिरोध नहीं हैं. इन रचनाओं में कहीं भी कोई हिंदू धार्मिक आग्रह नहीं है. यहाँ तक कि जैन यतियों, मुनियों और श्रावकों की रचनाएँ भी कहीं भी धार्मिक नहीं है. अधिकांश आधुनिक इतिहासकार इस प्रकरण के लिए जिन इस्लामी वृत्तांतकारों पर निर्भर करते हैं वे सभी आग्रहपूर्वक धार्मिक हैं. वे समकालीन अवश्य थे, लेकिन अपने समय के शासकों के सभी कृत्यों और उनके परिणामों का मूल्यांकन धार्मिक नज़रिये से करते थे.
“ये सभी इतिहासकार उलेमा थे. ये प्रत्येक घटना का इस्लामी धर्मशास्त्र के आधार पर आकलन करते थे. वे सल्तनत को धर्मतंत्र का आधार मानते थे……ये लेखक ग़ैर मुसलमानों के साथ युद्ध को ज़िहाद कहते हैं.”
इनके विपरीत चारण या जैन वृत्तांतकार ऐसा नहीं करते. अलाउद्दीन ख़लजी की विजय इस्लामी वृत्तांतकारों लिए इस्लाम की विजय है और युद्ध में हिंदुओं की मौत काफ़िरों की मौत की तरह है, लेकिन चारण-जैन वृत्तांतकार इसमें धर्म को बीच में नहीं लाते. चित्तौड़ की विजय के बाद वहाँ से अलाउद्दीन के प्रस्थान का वर्णन करते हुए अमीर ख़ुसरो लिखता है कि
“10 वीं मुहरर्म के बाद पैगंबर के ख़लीफ़ा के झंडे को (अल्लाह उसे ऊँचे से ऊंचे ले जाए) आश्चर्यजनक रीति से हिंदुओं के सिर पर फहराने के बाद इस्लाम के शहर दिल्ली की तरफ़ चलने का हुक्म हुआ. उसने सभी हिंदुओं को जो इस्लाम की पहुँच के बाहर हों, वध करना अपनी जुल्फ़कार (काफ़िर को मारनेवाली तलवार) का ऐसा कर्तव्य बनाया कि अग्र मुसलमान राफ़िज़ी (सांप्रदायिक भेद मानने वाले) नाम मात्र को अपना हक़ माँगे तो ख़ालिस सुन्नी इस अल्लाह की क़सम खा लेंगे.”
जैन और चारण वृत्तांतकारों का नज़रिया इससे अलग है. उनके लिए यह धर्म युद्ध नहीं है. यह केवल रत्नसेन और अलाउद्दीन, दो शासकों की सेनाओं के बीच का युद्ध है. हेमरतन लिखता है कि-
पदमिणी राखी राजा लीउ, गढनउ भार घणौ झीलीउ I
रिणवट करीनइ राखी रेह नमो नमो बादिल गुणगेह॥
अर्थात् (बादल ने) पद्मिनी की रक्षा करते हुए राजा को मुक्त करवा लिया. उसने दुर्ग की रक्षा का दायित्व निभाया. उसने यद्ध करके मर्यादा की रक्षा की. गुणों के घर बादल को नमन है. पाटनामा का समापन भी कमोबेश इसी तरह होता है. पाटनामाकार लिखता है कि-
“पछै पातशाही फ़ौज भागी अर अठीने गढ़ चीतोड़ भागो.”
अर्थात् फिर बादशाह की फ़ौज भागी और और चित्तौड़ गढ़ ध्वस्त हुआ. अलाउद्दीन के समकालीन अन्य इस्लामी वृत्तांतकारों- ज़ियाउद्दीन बरनी और अब्दुल मलिक एसामी का नज़रिया भी अमीर ख़ुसरो से अलग नहीं था. ज़ियाउद्दीन बरनी के लिए इतिहास धर्मशास्त्र का एक अंग है और अतीत उसके अनुसार अच्छाई और बुराई का संघर्ष है. वह कट्टर सुन्नी मुसलमान था और उसका दृष्टिकोण बड़ा ही संकीर्ण था. एसामी की फुतूहस्सलातीन (1350 ई.) भी एक सांप्रादायिक और संकीर्ण दृष्टिकोणवाली रचना है.
पद्मिनी प्रसंग |
विजय बहादुर सिंह और माधव हाड़ा |
-
जैन परंपराएँ धार्मिक हैं और चारण परंपराएँ राज्याश्रय में विकसित हुईं. क्या इनकी विश्वसनीयता संदिग्ध नहीं हैं?
यह एक प्रकार का सरलीकरण है. विद्वानों ने इन परंपराओं को धार्मिक और राज्याश्रयी मानकर इनको अतिरंजित और मनमाना लिया है, जो ठीक नहीं है. इस संबंध में लोगों को अभी पूरी जानकारियाँ नहीं हैं. ये हमारी परंपरा और समाज को समझने के आधारभूत स्रोत हैं. अधिकांश जैन यति जैन धार्मिक कर्मकांड के साथ प्राचीन साहित्य का संरक्षण और नए साहित्य की रचना भी करते थे. वे कथाओं का उपयोग अपने धार्मिक प्रवचनों और उपदेशों को रोचक बनाने के लिए करते थे. इन रचनाओं के संबंध में ख़ास बात यह है कि इनमें कथा का जैन धार्मिक रूपांतरण नहीं है. यहाँ रचनाकारों का उद्देश्य स्वामिधर्म और सतीत्व का आदर्श प्रस्तुत करने के साथ मनोरंजन है.
हेमरतन और लब्धोदय तो सीधे मेवाड़ राजवंश से संबंधित प्रभावशाली जैन श्रावकों के आग्रह पर इनकी रचना में प्रवृत्त हुए. हेमरतन ने चउपई की रचना राजस्थान के गोड़वाड़ क्षेत्र के सादड़ी (जिला-पाली, राजस्थान) क़स्बे के तत्कालीन अधिकारी ताराचंद के आग्रह पर की. ताराचंद मेवाड़ के तत्कालीन शासक महाराणा प्रताप के विश्वस्त सहयोगी भामाशाह का भाई था. लब्धोदय ने चौपई की रचना महाराणा जगतसिंह की माता जंबुवती के कार्यवाहक प्रधान हंसराज और उसके छोटे भाई भागचंद के अनुरोध पर की. जटमल नाहर जैन श्रावक था और उसने राजस्थान से दूर पंजाब में अपनी रचना की, इसलिए उसकी कथा उक्त तीनों से कुछ हद तक अलग है. शेष तीनों रचनाएँ- पद्मिनीसमिओ, राणारासो और चित्तौड़-उदयपुर पाटनामा चारण रचनाएँ हैं और इनका प्रयोजन वंश और उससे संबंधित विख्यात घटनाओं का वर्णन है.
पाटनामा बहुत लोकप्रिय साहित्य रूप नहीं था. चित्तौड़-उदयपुर पाटनामा अब तक उपलब्ध ऐसी अपनी तरह की अकेली रचना है. इसमें कथागत नवाचार और रोचकता सबसे अधिक है और इसका गद्य भी बहुत असरदार है. ये सभी देशज कथा-काव्य अपने चरित्र में ग़ैर धार्मिक हैं. अमीर ख़ुसरो सहित सभी मुस्लिम आख्यानकार और जायसी, अलाउद्दीन ख़लजी की विजय को इस्लाम की विजय कहते हैं- जायसी कहता है कि- पातसाहि गढ चूरा, चितउर भा इस्लाम, लेकिन इन रचनाओं के रचनाकारों के लिए यह केवल शासक अलाउद्दीन ख़लजी या रत्नसेन की विजय है. कई जैन रचनाओं के धार्मिक आग्रह है. लेकिन इअन रचनाओं में ऐसा नहीं है. चारण रचनाओं में आग्रह कुल-वंश प्रशस्ति है लेकिन इनमें तथ्यों की सर्वथा अनदेखी नहीं है. मुनि जिन विजय ने माना है हेमरतन पद्मिनी-रत्नसेन प्रकरण की कथा जायसी की तुलना में अधिक यथार्थ के समीप है.
चारण अपनी रचनाओं में सच कहने के लिए विख्यात थे. शासक उनके इस स्वभाव से परिचित और इस उनसे कारण भयभीत भी रहते थे. चारणों के सच कहने-बोलने के और इस कारण शासकों की उनसे नाराज़ग़ी के कई प्रकरण हैं. चंदबरदाई से लगाकर कविराजा श्यामलदास तक सच कहने वाले चारण कवि-लेखकों की परंपरा है. चारण रचनाओं में अपने समय के कवि समयों और काव्य रूढियों के इस्तेमाल बहुत है. सच अकसर के इन कवि समयों और रूढियों के पीछे या इनके बीच में है, जिसको समझने की ज़रूरत है. अपवाद सभी परंपराओं में होते हैं, लेकिन केवल इनको आधार बनाकर कोई निष्कर्ष नहीं निकाला जाना चाहिए.
पद्मिनी प्रसंग |
विजय बहादुर सिंह और माधव हाड़ा |
-
पद्मिनी को लेकर भले ही पेशेवर इतिहास लेखक संदेहशील हों, वे उसकी ऐतिहासिक उपस्थिति को न मानते हों, पर वह तो लोकचेतना और लोकस्मृति का अविच्छिन्न अंग बन चुकी है. क्या हम लेखकों का समाज ऐसी गहरी लोकस्मृति को पेशेवर इतिहासकारों के निरीह तर्कों के आधार पर भुला कर लोक स्मृति के साथ अपनी संवेदना के साथ न्याय कर सकेंगे?
आप का कहना सही है. यदि पेशेवर इतिहासकार से आशय अठराहवीं सदी मे विकसित यूरोपीय ढंग के इतिहास में दीक्षित इतिहासकार है, तो मध्यकालीन इतिहास को जानने-समझने की उसकी कसौटी अपर्याप्त है. मध्यकालीन भारतीय इतिहास को जानने-समझने के लिए लोक स्मृति प्रमुख और आधारभूत स्रोत है. हमारे समाज की प्रकृति ऐसी है कि उसकी निर्भरता स्मृति पर ज़्यादा है. स्मृति जीवंत रहती है, यह ठहरती नहीं है और इसका यह इसका स्वभाव है.
लोक स्मृति की अनदेखी करके भारतीय समाज का कोई इतिहास लिखा जा सकता है, इसमें मुझे संदेह है. हमारी प्राचीन और मध्यकालीन साहित्यिक रचनाएँ लोक स्मृति की जीवंत दस्तावेज़ भी हैं. लोक स्मृति कथित पेशेवर इतिहास में भले नहीं हो, लोक में यह हमेशा बदल-बदलकर मौजूद रहती है. विद्वान् अकसर इसकी सजग अनदेखी करते हैं, लेकिन यह बार-बार दृश्य पर मुखर होकर, हाथ उठाकर अपनी मौजूदगी का अहसास करवाती हैं.
पद्मिनी प्रसंग |
विजय बहादुर सिंह और माधव हाड़ा |
-
‘कामायनी’ के आमुख में जयशंकर प्रसाद ने लिखा है कि “आज के मनुष्य के समीप तो उसकी वर्तमान संस्कृति का क्रमपूर्ण इतिहास ही होता है; परंतु उसके इतिहास की सीमा जहाँ से प्रारंभ होती है, ठीक उसी के पहले सामूहिक चेतना की दृढ़ और गहरे रंगों की रेखाओं से, बीती हुई और भी पहले की बातों का उल्लेख स्मृति-पट पर अमिट रहता है, परंतु कुछ अतिरंजित सा. वे घटनाएँ आज विचित्रता से पूर्ण जान पड़ती हैं.”…किन्तु उनमें भी कुछ सत्यांश घटना से संबद्ध है, ऐसा तो मानना ही पड़ेगा.” पद्मिनी एक ऐतिहासिक चरित्र है अथवा नहीं है- यह हमारे लिए कोई बड़ा सवाल नहीं है. भारत के लोग रानियों और राजाओं की याद अगर रखते, तो अब तक उनका स्मृति कोष एक भरा-पूरा संग्रहालय बन चुका होता. भारतीय जन साधारण की स्मृति तो केवल ऐसी घटनाओं और चरित्रों को संरक्षित करती है, जिनसे समूची जातीय मूल्य परम्परा अथवा हमारे जीवन विश्वास- आप चाहें तो कहें जीवन आदर्श-अपनी गरिमा पाते हैं. पद्मिनी की स्मृति वस्तुतः हमें उस आत्म सम्मान और आत्म गौरव की याद दिलाती है जो इनकी रक्षा के लिए प्रतिरोध करना और प्राणोत्सर्ग करने की कला जानती है. यह वह स्वाभिमान बोध है, जिसके विस्मरण से हम अपनी मनुष्यता से ही वंचित हो उठते हैं.
आपकी बात पूरी तरह सही है. तिथियों, नामों और विजय-पराजय वाले इतिहास से जीवंत भारतीय समाज अपने को कम संबद्ध पाता है. हमारी परंपरा में हम अतीत से स्मृति में वे चरित्र और घटनाएँ ले जाते हैं, जो हमारे वर्तमान को समृद्ध करती हैं. यह स्मृति हमारे आचार-विचार के लिए आदर्श बनकर उपस्थित होती है. अतीत का सब हमारी स्मृति का हिस्सा नहीं है, जैसा कि आपने कहा है. अतीत का केवल वो हिस्सा जो हमारे समय की हमारी सामाजिक और सांस्कतिक ज़रूरतें पूरी करता है, केवल वही हमारी स्मृति में कथा, काव्य, कहावत, जनश्रुति आदि के रूप में यात्रा करता है.
हमारे देश में दुर्भाग्य से इतिहास की यूरोपीय शिक्षा और संस्कार के कारण लोक का इतिहास और इतिहासकारों का इतिहास जैसा विभाजन हो गया है. हमारे लोक का अपना इतिहास और स्मृति है, जिसको हमारे कथित पेशेवर इतिहासकार इतिहास नहीं मानते. उनका अपना अलग इतिहास है, जिसका हमारे लोक से कोई सीधा संबंध नहीं है. यह विडंबना है. यह खाई बन गयी है. कैसे पटेगी, अभी कुछ नहीं कहा जा सकता.
पद्मिनी प्रसंग |
विजय बहादुर सिंह और माधव हाड़ा |
-
‘आदिपुरुष’ शीर्षक अपने चर्चित निबंध- जिसे कवि प्रसाद ने ‘कामायनी’ के आमुख के रूप में भी ले लिया है, उसमें वे लिखते है कि “आज के मनुष्य के समीप तो उसकी वर्तमान संस्कृति का क्रमपूर्ण इतिहास ही होता है, परंतु उसके इतिहास की सीमा जहाँ से प्रारंभ होती है, ठीक उसी के पहले सामूहिक चेतना की दृढ़ और गहरे रंगों की रेखाओं से बीती हुई और भी पहले की बीती हुई और भी पहले की बातोँ का उल्लेख स्मृति-पट पर अमिट रहता है .परंतु कुछ अतिरंजित सा.”प्रसाद जी के इस कथन के साथ ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ जैसे आख्यानक काव्यों को भी जातीय इतिहास का स्रोत माना जाता है. इसी रूप में इन्हें कभी गाथा और पुराण भी कह दिया गया है. वासुदेवशरण अग्रवाल तो ‘महाभारत’ को पुराण ही कहते और मानते हैं. मेरा कहना यह यह है कि जायसी और और उनसे पहले के राजस्थानी के कविगण या चारण पद्मिनी की जिस गाथा को बार-बार दुहराते चल रहे हैं, क्या यह वही लोकस्मृति और सामूहिक चेतना है, जिसे यह देश कैसे भी भूलना नहीं चाहता. आप भी अगर इस श्रमसाध्य शोध की ओर गए, तो क्या उसी जातीय चेतना के इतिहास की याद दिलाने गए?
आरंभ में जब इस कार्य में प्रवृत्त हुआ, तो यह आग्रह नहीं था, लेकिन धीर-धीरे जैसे-जैसे आगे बढ़ना हुआ, तो लगा कि लोक में इस प्रकरण की स्मृति सदियों से है और यह इसमें कई रूपों में निरंतर पल्लवित होता रहा है. आप सही कह रहे हैं कि यह हमारी जातीय चेतना का इतिहास है. यह ऐसा इतिहास है, जिसको स्मरण नहीं दिलाना पड़ता, यह हमारे लोक की स्मृति में निरंतर है. स्मृति संरक्षण के जितने रूप पश्चिमी भारत में हैं, यह प्रकरण उन सबमें मौजूद है. जायसी तो अवध के थे- यह उनके यहाँ भी है. बाद में अराकान के वज़ीर मगन ठाकुर ने पद्मावत का बँगला में अनुवाद करवाया. फ़ारसी में इस प्रकरण पर एकाधिक रचनाएँ हैं.
विजय बहादुर सिंह विजय बहादुर सिंह (जन्म: 1940) कवि-आलोचक और संपादक हैं, और कई लेखकों की रचनावलियों के संपादक रहें हैं. ‘मौसम की चिट्ठी’, ‘पतझर की बाँसुरी’, ‘शब्द जिन्हें भूल गई भाषा’, ‘भीम बैठका’ आदि उनके कविता-संग्रह हैं. ‘प्रसाद’, ‘निराला और पंत’, ‘नागार्जुन का रचना संसार’, ‘नागार्जुन संवाद’, ‘उपन्यास समय और संवेदना’, ‘महादेवी के काव्य का नेपथ्य’ आदि उनकी चर्चित आलोचनात्मक पुस्तकें हैं. |
माधव हाड़ा
आलोचक और शिक्षाविद् माधव हाड़ा (जन्म: 1958) की चर्चित कृति ‘पचरंग चोल पहर सखी री’ (2015) है, जिसका अंग्रेज़ी अनुवाद ‘मीरां वर्सेज़ मीरां’ 2020 में प्रकाशित हुआ. हाल ही में उन्होंने ‘कालजयी कवि और उनकी कविता’ नामक एक पुस्तक शृंखला का संपादन किया है, जिसमें कबीर, रैदास, मीरां, तुलसीदास, अमीर ख़ुसरो, सूरदास, बुल्लेशाह, गुरु नानक, रहीम और जायसी शामिल हैं. उनकी अन्य प्रकाशित मौलिक कृतियों में ‘वैदहि ओखद जाणै’ ( 2023) ‘देहरी पर दीपक’ (2021), ‘सीढ़ियाँ चढ़ता मीडिया’ (2012), ‘मीडिया, साहित्य और संस्कृति’ (2006), ‘कविता का पूरा दृश्य’ (1992) और ‘तनी हुई रस्सी पर’ (1987) प्रमुख हैं. |
चित्रा सिंह
कवि और शिक्षाविद् चित्रा सिंह (जन्म: 1974) रसायन शास्त्र में पीएच. डी. हैं. उनके दो कविता संकलन हैं और पत्र-पत्रिकाओं में कई रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं. ‘रेत में उगाए हैं फूल’ भारतीय भाषा परिषद् कोलकाता प्रकाशित उनका कविता संकलन है. संप्रति, वे क्षेत्रीय शिक्षा संस्थान, भोपाल में रसायनशास्त्र की प्रोफ़ेसर हैं. |
आभार! समालोचन ने इस काम को मंच और पहचान दी
साहित्य और इतिहास का ज्ञानवर्धन करती स्तरीय वार्ता। साहित्य के विद्यार्थियों के लिए बहुत लाभप्रद रहेगी।
इतिहास, विचार और साहित्य की अद्भुत संपृक्ति। इतना इंटेंस और इंगेजिंग साक्षात्कार हिंदी में विरले ही पढ़ने को मिलता है। आदरणीय माधव हाड़ा को अधिक नहीं पढ़ा है, लेकिन जितना ही पढ़ा है, प्रभावित हुआ हूँ। यह पुस्तक अविलम्ब मंगानी है। दोनों वरिष्ठ साहित्यकार को बधाई।
बहुत ही मौलिक और प्रासंगिक प्रश्न पूछे गए हैं साथ ही उनका उतना ही विस्तृत और शोध परक जवाब इस बातचीत को ऐतिहासिक लेख के रूप में सामने लाता है। दोनों ही विभूतियों को प्रणाम।