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Home » चन्द्रकान्त देवताले: स्मरण: राजेश सक्सेना          

चन्द्रकान्त देवताले: स्मरण: राजेश सक्सेना          

राजेश सक्सेना के पास संवाद और स्वाद के रसिक चन्द्रकान्त देवताले (7 नवम्बर,1936-14 अगस्त, 2013) की विनोदप्रियता और प्रगल्भता के कुछ रोचक संस्मरण हैं जिनमें से कुछ यहाँ अंकित हुए हैं. कवि अपने जीवन और उसकी चर्या से भी बहुत कुछ कहता है. उसकी दैनंदिनी में कविता की तैयारी रहती है. प्रस्तुत है यह स्मरण अंक.

by arun dev
November 5, 2023
in संस्मरण
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चन्द्रकान्त देवताले: स्मरण: राजेश सक्सेना          
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स्मरण
चन्द्रकान्त देवताले
राजेश सक्सेना

‘हैलो सक्सेना साहेब मैं ग़र्जुद्दीन बोल रहा हूँ, मुझे आपसे आज एक ग़रज़ है’
मैंने कहा बताइये. उधर से फिर वही स्वर.
‘अरे राजेश मेरी दवाई ख़त्म हो गई है क्या तुम फ्रीगंज तक चल सकते हो?’

इस तरह की आत्मीय बातें करके सम्मोहित करने वाले चन्द्रकान्त देवताले जी को याद करते ही उनकी सहज और अपनेपन की संवाद शैली याद आ जाती है.

उनके न रहने पर उनके घर जाकर उसी जगह बैठकर उन्हें याद  करते हुए उनकी कविताओं की अनुगूँज और महक ज़र्रे-ज़र्रे में महसूस होती है.

“ऐसे जिंदा रहने से नफरत है मुझे
जिसमें हर कोई आए और मुझे अच्छा कहे
मैं हर किसी की तारीफ करके भटकता रहूँ
मेरे दुश्मन न हों
और इसे मैं अपने हक में बड़ी बात मानूँ ”
(चन्द्रकान्त देवताले)

विनोदप्रियता उनके  स्वभाव का मूल स्वर रहा है. मसलन लगभग हर परिचित कवि को आवाज़ बदलकर फोन करके वह कहते थे ‘मैं हिन्दी साहित्य का एक छात्र बोल रहा हूँ. आपकी कविताओं पर पीएच.डी करना चाहता हूँ.’

एक बार हमारे कवि मित्र बहादुर पटेल ने फोन पर उनसे कहा-
‘सर मैं देवास से बहादुर बोल रहा हूँ’.
देवताले जी ने जवाब दिया ‘मैं उज्जैन से डरपोक बोल रहा हूँ.’

उनके जीवन में संवेदनशीलता, अनुराग और विनोद का‌ अद्भुत समन्वय था.
को‌ई यदि उनसे उनकी तबीयत के बारे में पूछता कि ‘आपकी तबियत कैसी है’. वे कहते ‘देश की तबीयत से अच्छी है.’ यही उनका अंदाज़ था, किसी भी कार्यक्रम में जब वह बोलते थे तो विनोद में ही गंभीर बात कह देते और लोग चमत्कृत हो जाते.

एक दिन मेरे घर में पत्नी ने मनी प्लांट लगाने के लिए अच्छे आकार की बोतलें लाने के लिए कहा,  साथ ही उन्हें यह भी मालूम था कि शराब की बोतलें सबसे अच्छे आकार में आती हैं. तय किया कि चूंकि देवताले जी बराबर विह्स्की लेते हैं इसलिए उनके यहाँ से खाली बोतलें लानी चाहिए. मैंने देवताले जी के घर जाकर उन्हें यह बताया. उन्होंने तीन खाली बोतलें निकलवाईं, बोले जो अच्छी लगे वह ले जाओ. मैंने कहा तीनों ले जाता हूँ, तीनों में मनी प्लांट लगा लेंगे. वह बोले ‘तीनों नहीं ले जाने दूँगा. मीना (मेरी पत्नी) मुझे दारुकुट्टा समझेगी.’

यह उनके संवाद में हँसी मजाक के अद्भुत सौंधेपन का तड़का ही था कि हर कोई उनके पास खिंचा चला आता था.
इसी तरह शराब को लेकर एक और किस्सा है. उनके पास खत्म  हो गई थी तो उन्होंने मुझे फोन किया कि ‘तू मेरे साथ एक जगह चल सकता है क्या? मैंने कहाँ?  ‘चलना है तो वह बोले वाईन शाप पर,  लेकिन तू पीता नहीं है’. मैंने कहा कि मैं चल सकता हूं कोई दिक्कत नहीं. वह फिर बोले तेरा धरम तो भ्रष्ट नहीं हो जाएगा? मैंने कहा कुछ नहीं होगा सर.  मैं उनके घर गया स्कूटर पर उन्हें वाईन शाप तक ले गया फिर हम लेकर घर आ गए.  ठिठोली के अनेक किस्से उनके साथ जुड़े हुए हैं.

यहाँ उज्जैन में एक कार्यक्रम में एक विद्वान वक्ता आए थे. थोड़े मोटे थे. उन्होंने सूट पहना था और टाई लगा रखी थी. कार्यक्रम खत्म होने के बाद देवताले जी मुझसे कहने लगे साहित्यकार को सूट टाई में देखकर मुझे तो अजीब लगता है, फिर अपने स्वभाव के मुताबिक विनोद में बोले, वह ऐसे लग रहे थे जैसे होलडाल हों और टाई उनपर कसे हुए बेल्ट की तरह. पेट भी उसी तरह जैसे होलडाल से थोड़ा बहुत हिस्सा अनियंत्रित होकर बाहर  आ जाता है. अब ऐसी कल्पना की  बात सुनकर कौन होगा जिसे हँसी न आए.

स्वाद और संवाद की अद्भुत कला के रसज्ञ के रूप में भी उनकी अलग छवि थी.
उज्जैन में प्रेमचंद सृजन पीठ के पहले निदेशक रहे शमशेर जी. शमशेर जी की जयंती पर स्थानीय मॉडल स्कूल में उन्हें याद करने के बहाने डॉ. जय श्रीवास्तव ने एक कार्यक्रम रखा था जिसमें डॉ. धनंजय वर्मा मुख्य अतिथि थे और देवताले जी अध्यक्षता कर रहे थे. संचालन श्री अशोक ‘वक्त’ कर रहे थे. कार्यक्रम का समय कुछ ऐसा था कि मैं कार्यालय से निपटकर, निर्धारित समय से बहुत विलंब से पहुँचा. धनंजय जी का आधा वक्तव्य सुना लेकिन देवताले जी का पूरा. कार्यक्रम खत्म होने पर वह मंच से नीचे आए जब सब लोग चाय और समोसे ले रहे थे. उन्होंने मुझे देखा और कहा कि ‘तुम्हारा अच्छा काम है राजेश कि तुम चाय और समोसे के टाइम पर आ ही जाते हो. यह  सुनकर सब खूब हँसे और मैं झेंप गया, यह अलग बात है कि मैं कहता रहा गया कि सर मैं समोसे नहीं खाता.

स्वादप्रिय होने का वैशिष्ट्य उनके भीतर अपने अंदाज में था, लेमन-टी, दही-जलेबी, भुट्टे की कचोरी, काठियावाड़ी खमण, भाखरबडी, मेथी मठरी आदि उन्हें बेहद पसंद थे. स्वाद की प्रयोगशीलता में सत्तू के लड्डू भी थे जिसमें वे मिठास के लिए गुड़ का इस्तेमाल करते थे. कोई यदि उनसे मिलने गया तो बिना कुछ खिलाए उसे जाने नहीं देते थे. उनकी यह आदत अतिथि सत्कार की संस्कृति का स्मरण कराती थी.

एक बार वह मेरे घर प्रमोद त्रिवेदी जी के साथ आए थे. मेरी पत्नी चीले बना रही थी उन्हें भी दिए गए, खाने के बाद उन्होंने चीले की बनावट, रंग, टेक्सचर, स्वाद, और नमक मिर्च आदि के संयोजन की खूब तारीफ की. ऐसे ही एक बार डॉ. अरुण वर्मा जी के यहाँ पाठक मंच की गोष्ठी थी. श्रीमती वर्मा ने खमण बनाया था, वहाँ उन्होंने खमण के लोच, गठाव, नमी आदि की तारीफ की. ऐसे कई किस्से हैं जिनकी एक लंबी श्रृंखला हर किसी के पास हो‌ सकती है. स्वाद और संवाद के प्रति बेहद संवेदनशील और कृतज्ञता का भाव उनमें रहता था.

रतलाम कालेज में नियुक्ति के दौरान एक बार किसी कार्यक्रम में नामवर जी वहाँ आए थे,  देवताले जी ने उन्हें अपने घर पर चाय नाश्ते के लिए बुलाया. कमल भाभी ने बोनचायना के कप प्लेट में चाय सर्व की तो देवताले जी एकदम कौतूहल के साथ बोले ‘अरे कमा तू इतने सुंदर कप किसके यहाँ से मांग कर लाई. अपने घर में तो हैं नहीं’ भाभी जी ने सर पकड़ लिया, वह सच में किसी के यहाँ से मांगकर ही लाई थीं. यह देवताले जी की सादगी, सच्चाई और सहजता थी. उन्हें लाग-लपेट, कृत्रिमता पसंद नहीं थी. ऐसा मेरे साथ क‌ई बार हुआ है कि मैं उनके घर गया और वह मुठ्ठी में थोड़ा सा नमकीन या सेव लाकर मेरे हाथ में रख देते. यह देखकर कनु दी कहती ‘पापा प्लेट में देना चाहिए’. ‘कुछ नहीं होता उससे’. वह कहते.

एक बार मुझे देवताले जी ने खाने के लिए घर बुलाया. उनके यहाँ एक मराठी आई कुक थी. बहुत ही अच्छा खाना बनाती थी.  देवताले जी हँसी मज़ाक़ की आदत से कभी बाज नहीं आते थे. आई ने साबूत प्याज की बहुत स्वादिष्ट सब्जी बनाई थी. मैंने बहुत अच्छे से खाना खाया लेकिन देवताले जी बार-बार आग्रह कर रहे थे, एक रोटी और खाना पड़ेगी, मैंने कहा अब नहीं खा सकूंगा. देवताले जी ने आई से कहा ‘आई माझी बंदूक आंण’.

ऐसे ही एक बार और हुआ था. मैं देवताले जी के यहाँ था. उन्होंने आई से कुछ खाने के लिए लाने को कहा. आई ने कहा, कचौरी है. मैंने कहा, ‘मैं कचौरी नहीं खाऊंगा’. ‘आई सक्सेना साहेब ला मटन आंण’’. देवताले जी बोले. आई और मैं खूब हँसे, यह उनके आग्रह और प्यार के साथ खिलाने का अंदाज़ था.

दिल्ली से उनकी छोटी बेटी अनुप्रिया आई हुई थी, देवताले जी ने उन दिनों फ्रेंचकट दाढ़ी रखी हुई थी. यूँ उन पर वह अच्छी लग रही थी, पर अनुप्रिया जी ने उनसे कहा ‘पापा यह  दाढ़ी कटवा लो अच्छी नहीं लगती’ मैं भी वहीं पर था. देवताले जी ने तुरंत जवाब दिया ‘यह राजेश नहीं कटवाने दे रहा है, मुझे बढ़ाने के लिए रोज दस रुपए देता है.’ मैं एकदम अवाक रह गया.

हर जगह विनोद और हँसी के लिए क्षण ढूंढने में उनकी क्षमता अद्भुत थी. वह सब्जी खरीदने के बेहद शौकीन थे. एक दिन हम दोनों सब्जी खरीदने गए. संजोग से देवताले जी के पास कुछ कम पैसे थे सो सत्तर रुपए मैंने दे दिए. बात आई गई हो गई, एक दिन मुझे दरवाज़े पर रुकने के लिए  कह वह अंदर गए. सत्तर रुपए ला कर मुझे दिए. मैंने कहा इतनी क्या जल्दी है. देवताले जी ने कहा मान लो कल मेरी नीयत में खोट आ आये तो?

प्रेमचंद सृजन पीठ पर रहते हुए उन्होंने सुदीप बनर्जी का कविता पाठ करवाया था. आमंत्रण पत्र के अलावा मैं और देवताले जी फोन से भी सबको सूचना दे रहे थे, मोबाइल का जमाना नहीं था. हिंदी अध्ययन-शाला के डॉ. शैलेन्द्र शर्मा के घर फोन लगाया गया तो उधर से श्रीमती शर्मा ने बताया कि ‘शर्मा जो तो हैं नहीं, बाज़ार गए हैं’. मैं उन्हें कार्यक्रम की सूचना दे ही रहा था कि देवताले जी ने मुझसे फोन लेकर कहा ‘यह शैलेन्द्र को बता देना. भूलना मत. याद रहेगा न! कि स्मृति सुधा शंखपुष्पी भेजूं’

उन्हें मोबाइल में मैसेज देखना नहीं आता था, इसलिए वह कवि नीलोत्पल से मैसेज पढ़वा कर सुनते थे और जब कोई अन्य व्यक्ति मिलता तो कहते कि नीलोत्पल मुझसे दस रुपए प्रति मैसेज पढ़कर सुनाने का चार्ज लेता है.

यहाँ उज्जैन में एक कार्यक्रम में किताब का लोकार्पण था. देवताले जी अध्यक्षता कर रहे थे. कालिदास अकादमी का अभिरंग सभागार भरा हुआ था.  इस कार्यक्रम में ख़ास बात यह हुई कि संचालक वहाँ उपस्थित हर श्रोता का नाम बोलकर बता रहे थे कि फलां-फलां उपस्थित हैं और यदि बीच कार्यक्रम में आ कर कोई बैठ रहा हो तो फिर उसका भी नाम ले रहे थे. आखिर जब देवताले जी बोलने के लिए उठे तो उन्होंने कहा- ‘सबसे पहले तो आज के कार्यक्रम की बड़ी बात यही है कि संचालक महोदय ने यहाँ जितने नाम बार-बार लिए हैं वे हमें जीवन भर कंठस्थ रहेंगे’. पूरा हाल ठहाकों से गूंज उठा.

यह अथक यात्री हमारे बीच से चला गया, जाने के तीन चार दिन पहले ११ अगस्त २०१७ को उनसे बात की थी कनु दी के फोन पर. उन्होंने कुछ अस्पष्ट बुदबुदाते हुए पूछा- ‘कैसे हो राजेश? मैंने कहा. ठीक हूँ.

उस  वक्त भी उन्हें अपने दोस्तों की चिंता थी.

‌’पानी के पेड़ पर जब
बसेरा करेंगे आग के परिंदे
उनकी चहचहाहट के अनंत में
थोड़ी-सी जगह होगी जहाँ मैं मरूँगा

मैं मरूँगा जहाँ वहाँ उगेगा पेड़ आग का
उस पर बसेरा करेंगे पानी के परिंदे
परिंदों की प्यास के आसमान में
जहाँ थोड़ा-सा सूर्योदय होगा
वहाँ छायाविहीन एक सफ़ेद काया
मेरा पता पूछते मिलेगी.’
(चन्द्रकान्त देवताले)

राजेश सक्सेना
48-हरिओम विहार
तारामंडल के पास.
उज्जैन(म.प्र.)
9425108734

Tags: 20232023 संस्मरणचंद्रकांत देवतालेचन्द्रकान्त देवतालेचन्द्रकान्त देवताले के संस्मरणराजेश सक्सेना
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Comments 7

  1. नीलोत्पल says:
    2 years ago

    देवताले जी की ज़िंदगी आसपास के सूनेपन में उजास की तरह रही. बहुत दूर का उन्हें रीझाता नहीं था, नज़दीक ही रिश्ते और अपनी दुनिया को गुंथते. राजेश भाई ने उन्हें इसी तरह याद किया.

    देवताले जी मनोविनोदी और आशु कवि की तरह रहे, लेकिन गांभीर्य भी इतना कि एक सजग जासूस की तरह पैनी निगाहों से आसपास की निगेहबानी करते.

    यह महत्वपूर्ण संस्मरण समालोचन पर प्रकाशित करने के लिए धन्यवाद.

    Reply
  2. Sanjeev buxy says:
    2 years ago

    मुझे भी कहा था मैं छात्र बोल रहा हूँ आपके उपन्यास भूलन कांदा पर PHDकरना चाहता हूँ बाद में मैं उनसे उज्जैन में मिला तो धूप में बाहर बैठकर काफ़ी बातें हुई लौटते समय वे नमकीन की दुकान में ले गए और नमकीन ख़रीद कर मुझे दिया और कहा कि घर के लिए ले जाओ। पसंदीदा कॉफी हाउस ले गए और काफ़ी पिलाया कहा कि पैसा मैं ही ही दूँगा। साथ में सब लोग थे मित्रगण ।

    Reply
  3. प्रकाश मनु says:
    2 years ago

    बड़े सीधे-सरल और निश्छल भाव से लिखा गया देवताले जी का बड़ा जीवंत संस्मरण है यह। पढ़ते हुए उनकी प्रसन्न छवि बार-बार आंखों के आगे आती रही। मैं देवताले जी से कभी मिला नहीं, पर पढ़ता बराबर रहा। विष्णु जी ने उनके कविता संकलन दिए थे, जिन्हें पढ़कर उन्हें भीतर से जाना। देवताले जी का जिक्र उनकी बातों में बराबर आता। उनकी कविताओं के वे जबरदस्त प्रशंसक थे, और बड़े खुले, अनौपचारिक और दोस्ताना ढंग से उनका जिक्र करते थे। एक दिन हंसते-हंसते बोले, “प्रकाश जी, देखने में वह बिल्कुल आप जैसे लगते हैं।‌ आप मिलेंगे तो हैरान रह जाएंगे।”

    यों उनसे मिलना तो नहीं हुआ, पर एक बार विष्णु जी ने ही उनसे खूब लंबी बात करवाई थी। असल में ‘पहल’ में विष्णु जी से लिया गया मेरा लंबा और बड़ा विलक्षण इंटरव्यू छपा तो देवताले जी ने इसकी खूब प्रशंसा विष्णु जी से की थी।‌ इसके थोड़ी ही देर बाद मैं संयोगवश विष्णु जी के पास पहुंचा तो वे बोले, “देवताले आपकी बहुत प्रशंसा कर रहे थे।” फिर उन्होंने देवताले जी को फ़ोन मिलाया और कहा, “लीजिए, प्रकाश जी आ गए हैं।‌ आप इनसे बात कर लीजिए।”

    उनसे हुई उस लंबी, अनौपचारिक बतकही की सुवास अब भी दिल में है।

    भाई राजेश जी ने अनायास ही इस संस्मरण के जरिए विष्णु जी और देवताले जी से जुड़ी बहुत सी पुरानी स्मृतियों को ताजा कर दिया। इसलिए उनका आभार। और इतना सीधा, सच्चा, जीवंत संस्मरण पढ़वाने के लिए भाई अरुण जी और ‘समालोचन’ को साधुवाद!

    स्नेह,
    प्रकाश मनु

    Reply
  4. अजामिल व्यास says:
    2 years ago

    वाह। चंद्रकांत देवताले मेरे प्रिय कवि हैं। सौभाग्य है कि मेरी कविताएँ पत्रिकाओं में उनके साथ प्रकाशित हुई हैं। आपने अच्छी सामग्री साझा की है। समालोचन का हर अंक सहेजने योग्य होता है। बधाई। आप बहुत परिश्रम कर रहे हैं।

    Reply
  5. कुमार अम्बुज says:
    2 years ago

    राजेश ने कुछ स्मृतियाँ साझा करके
    अनेकानेक स्मृतियों को जीवंत कर दिया।

    Reply
  6. Ganesh Visputay says:
    2 years ago

    इस संस्मरण ने कितनी यादों को ज़िन्दा किया। आशय चित्रे उन्हें बाबा कहकर बुलाता था, सो मैं भी बाबा कहने लगा। उनसे बात करना मानो इस प्रदुषित वातावरण में प्राणवायू भर लेने जैसा था।

    Reply
  7. Prafull Shiledar says:
    1 year ago

    बहुत जीवंत यादें. देवताले जी का पूरा व्यक्तित्व मन में उभर आया. धन्यवाद!

    Reply

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