साइकिल से दुनिया भास्कर उप्रेती |
इस बीच साइक्लिंग को लेकर तीन किताबें पढ़ गया. टॉम क्रैब की ‘दि राइडर’ और मैक्स लियोनार्ड की ‘हायर कॉलिंग’. यही सोचकर शायद इस जोनार में गया कि मुझे साइकिल के पहियों पर जो आनंद आता है क्या कोई और भी इस तरह से महसूस करता है? क्या ऐसे अनुभवों की कोई क्रोनोलॉजी है? साइक्लिंग से पहले मिल गए मुराकामी बिल्कुल अलहदा विषय रनिंग पर किताब लेकर. ‘व्हाट आई टॉक अबाउट, व्हेन आई टॉक अबाउट रनिंग’. खैर, यह बात कभी और.
तीसरी और अंतिम किताब बड़ी ख़ास है. कोलकाता के मशहूर साइक्लिस्ट बिमल दे की लिखी ‘साइकिल से दुनिया की सैर’ इतनी पठनीय है कि मैं दो सिटिंग में 270 पेज की यह किताब गटक गया. अनुभव में साइक्लिंग बैकग्राउंड में है बल्कि दुनिया देखने का रोमांच बड़े जहाज के पालों-सा फड़फड़ाता है. सरस हिंदी और पसंदीदा विषय होने से इसे पढ़ना कम कहिए, पीना-गटकना ज्यादा कहिये.
बिमल तीन-गियर की साधारण साइकिल के साथ 1967 में विश्व-भ्रमण को निकले और उनका यह भ्रमण थमा 1972 में. चीन और उसके आस-पास के मुल्कों को छोड़ दें तो बिमल एक साँस में दुनिया छू आए. 139 जगहों पर घूमने के लिए उनकी साइकिल नाव या पानी के जहाज पर चढ़ी. द्वीपों और महाद्वीपों को पार करने के लिए 17 स्थानों पर हवाई जहाज पर. रेगिस्तान में ऊँट और जीप पर. मगर, जहाँ सड़क होती वहाँ साइकिल होती.
बिमल दे पक्के घुम्मकड़ हैं. घुमक्कड़ जैसा कि राहुल वकालत करते हैं, वह बहुत कम संसाधनों में दुनिया के भूगोल और समाजों का बेहतरीन अपने समाज के लिए लेकर आते हैं. यह व्यक्तिगत रूप से संपृक्त होने का मसला नहीं, यह दूसरों को जगाने का मसला है.
पिछले सालों में मैंने जो चंद अच्छी किताबें पढ़ीं हैं, उनमें से इसे एक मानने में मुझे कोई गुरेज नहीं.
एक प्रसंग में बिमल लिखते हैं,
“कहीं जाकर यदि हर समय स्वयं को विदेशी देखा तो देश देखना नहीं होगा. उस देश के जनसाधारण में, समाज और रीति-नीति में स्वयं को विलीन कर उन्हीं में से एक हो जाना ही देश देखने का वास्तविक आनंद है. सिर्फ देखने से ही तो नहीं होगा, साथ ही साथ उसका अनुभव करना होगा. और जब यह महसूस होगा कि मैं एक देश का ही एक व्यक्ति हूँ, तभी भ्रमण में परिपूर्णता आएगी.”
बिमल जब कोलकाता से निकले तो उनके पास 16 रुपए थे. कल्पना करके देखें, आप अपने पड़ोसी प्रदेश के लिए ऐसे ही निकल जाएँ तो! 1967 में बिमल दे 27 साल के थे. उनका जज्बा किस तरह का होगा आप इस एक घटना से समझ सकते हैं. कोलकाता से दिल्ली वह साइकिल पर आए. यहाँ दूतावासों में उनके दुनिया के विभिन्न देशों में भ्रमण के लिए वीजा मिलने की प्रक्रिया चल रही थी. मुख्य दिक्कत तो दुनिया में पैर रखने के लिए पाकिस्तान से आ रही थी. इस सब में समय लगता देखकर व्यग्र बिमल ऋषिकेश पहुँच गए ताकि थोड़े से पहाड़ी रास्तों पर चलने की जोर-आजमाइश कर आएँ. यहाँ से वह जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क के अंदर से होते हुए पहुंचे काठगोदाम और वहाँ से वापस दिल्ली.
उन दिनों संचार और नेविगेशन तकनीक आज की तरह नहीं थी. बिमल को साइकिल पर दुनिया देखनी थी और सामने थे अनिश्चितताओं के समन्दर. किसी देश की सीमा तक पहुँचने का समय निकल जाए और वीजा मिलना लटक जाए? यह हुआ भी उनके साथ जब उज्बेकिस्तान (उस दिनों सोवियत रूस का हिस्सा) की सीमा तक पहुँचने में उन्हें देरी हो गई, परिणाम था उन्हें कानून के उल्लंघन पर 15 दिन की जेल हो गई. जेल में उन्होंने इतना श्रम किया कि जेलर उनका मुरीद हो गया. रिहाई के दिन वह खुद उन्हें छोड़ने सीमा तक आया. यह सब होगा, उन्हें पता था और वह असीम मानसिक तैयारी के साथ ही निकले थे.
खैर, दिल्ली में उन्हें पाकिस्तान का वीजा नहीं मिल पाया. इसलिए उन्हें मुंबई से जहाज के रास्ते ईरान के खुर्रम शहर बंदरगाह पहुंचना पड़ा, जहाँ से उनके पैर पैडल पर आ सके. यहाँ से उन्होंने राजधानी तेहरान की ओर रुख किया. वह मरुस्थलीय रास्ते से गुजर रहे थे, रास्ते में डाकुओं के हाथ पड़ गए. उन्हें देने के लिए उनके पास कुछ नहीं था, उन्होंने रविंद्रनाथ टैगोर की पुस्तक ‘बाउंडलेस स्काई’ पकड़ा दी. डकैत समझ नहीं पाए कि यह किस तरह का टूरिस्ट है और वह खुद चिंतित हो गए कि इस तरह यह अपनी यात्रा कैसे करेगा. परिणामतः वे उसे न सिर्फ तेहरान की सीमा तक छोड़ गए बल्कि हाथ में 20 तुमान (ईरानी मुद्रा) पकड़ा गए.
तेहरान में उन्हें अच्छा सत्कार मिला. जैसा कि वह चाहते भी थे वहाँ के दूतावासों में, विश्वविद्यालयों में और अन्य जगह मिलने और बात करने जाएँ. इससे उनका परिचय वहाँ की भाषा, संस्कृति और बुद्धिजीवियों से होता. वह खुद अपनी यात्रा और देश के बारे में बता पाते. साथ ही साथ, ऐसे आयोजनों से उनकी यात्रा के लिए कुछ चंदा वे जुटा पाते. एक ऐसे ही कार्यक्रम में उनकी दोस्ती हुई जहाँगीर इरमेन से जो वहाँ ‘ईरान वेजीटेरियन सोसाइटी’ के अध्यक्ष थे. इरमेन एक बड़े चित्रकार और मुग़ल इतिहास के जानकर भी थे. वे बिमल को अपने साथ ले गए, जहाँ कई दिन उनकी मेजबानी चलती रही. इस दौरान तेहरान के अखबारों ने विश्व भ्रमण पर निकले साइकिल यात्री के बारे में जमकर छापा. अख़बारों की कतरनें बिमल जरूर साथ रखते ताकि मुसीबत के समय यह वीजा अधिकारियों को दिखाने के काम आ सकें. ईरान के खोरासन में उन दिनों भूकंप से तबाही मची थी, ऐसे में बिमल जुट गए राहत और पुनर्वास कार्य में. उस समय अमेरिका का ईराक और ईरान से युद्ध नहीं हुआ था. बिमल वर्णन करते हैं कि तब का तेहरान उनका अब तक देखा हुआ दुनिया का सबसे सुंदर और सभ्य शहर था.
सऊदी अरब के रेगिस्तान के बीच से चलते हुए वह रेतीली आँधी का शिकार हुए, आँधी में उनकी साइकिल में दफ्न हो गई और कई दिन वह बेरास्ता भटकते रहे. अंतत: एक गुजरते कारवाँ से किसी की नजर उन पर पड़ी. वह उन्हें अपने साथ अपने तंबू में ले गए और वहाँ लोगों को जब बताया कि हिंदुस्तान से साइकिल पर चलकर यह आदमी रेगिस्तान में उकड़ू हो अल्लाहू अकबर कह रहा था तो लोगों ने जमकर उनकी सेवा की और दुबारा चलने लायक बना दिया.
तुर्कमेनिस्तान की यात्रा के दौरान उन्हें मालूम पड़ा कि वहाँ कवि मेवलाना की याद में एक बड़ा महोत्सव हो रहा है. वह महोत्सव में शामिल होकर वहाँ की साहित्य-संस्कृति को समझना चाहते थे लेकिन इसके लिए पास मिल पाना मुश्किल था. किसी तरह जुगत कर जब वह महोत्सव में दाखिल हुए तो उन्हें राजकीय मेहमान का दर्जा मिला और विशाल समूह को बताया गया कि हिंदुस्तान से साइकिल पर चलकर एक व्यक्ति उनके साहित्योत्सव में शामिल होने आया है. इसके बाद यात्री का भाषण भी कराया गया जिसका अनुवाद वहाँ की भाषा में किया गया.
तुर्कमेनिस्तान के डंगू-बायाजीत को पार कर जब वे कैस्पियन सागर की ओर बढ़ रहे थे तो भारी बारिश और तेज हवाओं के कारण उन्हें एक ऐसे व्यक्ति के साथ शरणागत होना पड़ा जो कुख्यात अपराधी था. अपराधी मोहम्मद से दोस्ती बहुत मुश्किल से हो पाई मगर जब हुई तो यह अटूट थी. बाद में मोहम्मद उन्हें अपने एक पुराने शिक्षक से मिलाने अपने गाँव भी ले गया.
ग्रीस के उत्तरी हिस्से में स्थित मेसिडोनिया के एथोस पर्वत के ऑर्थोडॉक्स संयासियों के बीच उन्होंने कई दिन बिताए ताकि ईसाइयत का मर्म जान सकें. उनकी दिलचस्पी इस बात में थी कि विश्वविजेता सिकंदर की मातृभूमि में ऐसा क्या था जो वह बड़े-बड़े साम्राज्यों को कुचलता चला गया. हालाँकि, एथोस के पवित्र मंदिर में उन्हें घुसने की इजाज़त इसलिए नहीं मिली क्योंकि वहाँ बड़े बालों के साथ आना वर्जित था. बिमल को कहाँ बाल कटाने की फुर्सत थी. खैर, वह कुछ और समय लेकर ग्रीस के तीर्थ स्थलों में गए. वहाँ की पौराणिक कथाओं की ख़ाक छानी. परंपरा के अनुरूप उन्होंने एक मोनेस्ट्री से दूसरे मोनेस्ट्री जाने के लिए गधे की सवारी भी की. वह ढाई महीने ग्रीस में रहे.
रूस में वे राजकीय मेहमान बने. उन्हें साइकिल से घूमने की इजाज़त तो नहीं मिली, हवाई जहाज से उन्हें लेनिनग्राद दिखाया गया. वे जल्द वहाँ से लौट आए.
इटली, फ़्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन, बेल्जियम, नॉर्वे, हौलैंड, स्विट्जर्लैंड आदि में उन्हें साइक्लिंग करने और मेज़बान मिलने में दिक्कत नहीं हुई. विभिन्न साइक्लिंग क्लब से न सिर्फ उन्हें विश्व-यात्रा के अनुभव बताने के मौके मिले बल्कि उनके आगे के इंतजाम भी किए जाते. यूरोप के लगभग हर विश्वविद्यालय में उनके व्याख्यान हुए. हालाँकि, यूरोप में शुरुआत इतनी आसान नहीं थी. वेनिस में उन्होंने लंबा समय धनोपार्जन में लगाया. उन्हें पहले कूड़ा उठाने वाली नाव चलाने का काम मिला, फिर एक होटल में टेबल साफ़ करने की नौकरी. एक यात्री के रूप में यह उनके लिए उस भूमि में आत्मसात होने का मौका ही था. महंगा वेनिस शहर, जिसमें हर कदम के पैसे लगते थे उन्होंने उसे बिना पैसे के अंदर तक जान और जज़्ब कर लिया. कोई गली हो वेनिस की जिसमें लेखक का चप्पू न चला हो. सैकड़ों पुलों और सीढ़ियों वाला शहर साइकिल से कम मुफीद था.
मध्य एशिया, यूरोप, अमेरिका की उनकी यात्राओं में बहुत विविधता है, परिस्थितियाँ भी अलग-अलग हैं. मगर, असल यात्री का जो रूप दिखा वह है एस्किमो लोगों के बीच. पहले आइस्लैण्ड और फिर वहाँ से ग्रीनलैंड. ग्रीनलैंड में वे ऐसे एस्किमो समुदाय के बीच महीनों रहे जो उनकी भाषा नहीं जानते थे. सब कुछ इशारों में ही होना था, बल्कि पहले इशारे तय करने थे. यह समाज अंग्रेजी ज्ञान दूर था ही स्वीडिश उपनिवेश होने के बावजूद उनसे बहुत भिन्न था. वैसे दुनिया की तमाम सभ्यताओं से ही दूर. जहाँ छह महीने का सूरज हो, जहाँ जब मन करे खा लेने और सो जाने का रिवाज हो, ऐसे घुमंतू समुदाय के बीच वे एक सच्चे परिव्राजक की तरह रहे. उनके शिकार अभियानों का हिस्सा बने. खुद भी स्लेज और कयाक चलानी सीखी. नीले सियार और हिरन (रेनडीयर) की खाल से बने कपड़े पहने. इग्लू में भेदभाव न पहचानने वाले नर-नारियों के बीच सोए. उन्हें मिला हस्की पिल्लों की देखभाल का काम, जो उन्होंने जी-लगाकर किया. जरूर इस बीच जो संसार और अस्तित्व के बारे में लिखा, वह लाजवाब है. लेखक, अपनी सभ्यताओं पर इतराने वाले समाजों को ललकारते हुए कहते हैं; कहाँ है तुम्हारे पास इतना धैर्य, इतना समय, इतनी उन्मुक्त हँसी.
अमेरिका महाद्वीप के लिए पानी या हवाई जहाज से ही पहुँचा जा सकता था, सो कुछ महीने जेनेवा में इंटरनेशनल लेबर आर्गेनाइजेशन में नौकरी की. अमेरिका में जब वे न्यूयॉर्क एयरपोर्ट पर उतरे और अपनी साइकिल उठाकर हाईवे पर चलने लगे तो दनादन कारों के हॉर्न बजने लगे. सबने चेताया कि जान प्यारी है तो हाईवे छोड़ दो. समझ आ गया अमेरिका कैसा है. तब शुरू हुआ आम रास्तों और गलियों से आम अमेरिका को देखने और समझने का सफ़र. मोंट्रियल के वाल मरीन द्वीप में उनकी मुलाकात मशहूर संगीतकार पंडित रविशंकर से हुई.
अमेरिका को देखने-छानने में दो वर्ष लगा दिए. फिर सैंट लुईस, रैपिड सिटी, ब्लैक हिल, सैनफ्रांसिस्को, लॉस एंजल्स, लॉस बेगास आदि में पहिए घुमाते हुए पहुँच गए मैक्सिको. यहाँ से शुरू हुआ साउथ अमेरिका को जानने, वहाँ की हवाओं से गुजरने का सिलसिला. बीस दिन मैक्सिको सिटी के आस-पास की गुजार दिए. चिचेन पार कर ग्वाटेमाला पहुँचे और यहीं बना लिए बाकी देशों के वीजा. वीजा तो मिल गए लेकिन पेरू, चिली, बोलीविया, अर्जेंटीना के उस मशहूर रास्ते साइकिल चलाने की इजाज़त न मिली, जहाँ कुछ ही समय पहले चे-ग्वारा मशहूर मोटर साइकिल यात्रा कर चुके थे. अब तक पैसे भी ख़त्म हो चुके थे सो एक फ्रेंच शिप में नौकरी कर ली. जहाँ खाने-पीने, सेहत दुरुस्त करने के साथ रोज नए-नए द्वीपों में घूमने की इफरात थी. चार महीनों की इस नौकरी में कारतागेना, काराकास सैंट लुईस, त्रिनिनाद, पनामा, फ्रेंच पोलिनेसिया, गालापागोस, ताहिती की ख़ाक छान डाली. जहाँ जहाज रुकता वहाँ निकल पड़ती साइकिल.
दक्षिण अमेरिका में छह महीना गुजारने के बाद पहुँचे न्यूजीलैंड की राजधानी ऑकलैंड. यहाँ ऐसे पर्वतारोही समूहों से मित्रता हो गई जो हिमालय के दीवाने थे. यूरोप की तरह विभिन्न साइक्लिस्ट एसोशिएशनों ने यहाँ उत्साह से आवाभगत की.
ऑस्ट्रेलिया में स्काउट्स को साथ लेकर ब्रिसबेन और केप यॉर्क आदि की सैर की. अंततः ऑस्ट्रेलिया से क्वान्तातास एयरवेज लेकर सिंगापुर होते हुए पहुंचे मद्रास. यहाँ से वापस पहुँचे अपने कोलकाता. कोलकाता अपने इस लाल के कारनामों को सुनने के लिए पहले से पलक-पाँवड़े बिछाए बैठा था. जब बिमल के डाक-पत्र आते तो कोलकाता चिहुँक उठता और कहता देखो, बिमल घूम ही रहा है अभी. जब कभी पत्र आने बंद होते तो कयास लगते, पता नहीं बिमल होगा भी कि नहीं. और आज बिमल सिकंदर बनकर लौट आया था. कोलकाता में उन्हें लेकर कई दिन जलसे चलते रहे.
बिमल दे अपनी यात्रा में साधारण से साधारण लोगों से मिले तो दुनिया के शक्तिशाली लोगों से भी उनका सामना हुआ. ईरान की महारानी, वेटिकन सिटी में पोप, अमेरिका के राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन, संयुक्त राष्ट्र महासचिव यू. थांट कुछ ऐसे नाम हैं. तेहरान में मयूर सिंहासन को उन्होंने छूकर देखा. शान्तिनिकेतन से चलते हुए इंदिरा गांधी से मिले थे. दिल्ली में जनरल करिअप्पा और एयर मार्शल अर्जुन सिंह से. ‘आनंद बाजार पत्रिका’ ने 21 दिसंबर 1967 को मुख्यमंत्री प्रफुल्ल सेन और उप-मुख्यमंत्री प्रफुल्ल घोष के साथ, विश्व साइकिल यात्रा को निकलते का चित्र छापा.
अपनी किताब की शुरुआत करते हुए वे कहते हैं;
“अनुभव स्थान, काल और पात्र-भेद पर निर्भर करता है. हालाँकि, हम सभी मनुष्य हैं, किन्तु फिर भी वे अपने इर्दगिर्द की आबोहवा, वातावरण, शिक्षा व कर्मफल के अनुरूप हम सभी अलग-अलग हैं, इसलिए हमारे अनुभव भी भिन्न हैं.”
मशहूर किस्सागो रसूल हमजातोव कई वर्ष पहले भारत-भ्रमण के दौरान कोलकाता आए थे. वह कोलकाता के पास के किसी गाँव के बारे में लिखते हैं:
“बड़े-बड़े और कोलाहलपूर्ण भारतीय नगरों के बाद मुझे कलकत्ता के नज़दीक एक छोटे से गाँव में ले जाया गया. बड़े-से खलिहान में अनाज मांड़ा जा रहा था, बैल गेहूं के सुनहरे पूलों के ऊपर चक्कर काट रहे थे. दुनिया के एक भी संग्रहालय, एक भी थियेटर से मुझे ऐसे प्रेरणा नहीं मिली, जितनी अपने खुरों से गेहूं के सुनहरे पूलों को धीमी चाल से मांडने वाले इन बैलों को देखकर. मुझे लगा मानो मैं अपने बचपन के प्यारे से गाँव लौट आया हूँ…यात्री जितने देशों की यात्रा करते हैं, उनके गीत स्वदेश लेकर आते हैं. मगर मेरी मुसीबत यह है कि कहीं भी क्यों न जाऊं, हर जगह से दागिस्तान के बारे में ही गीत लेकर लौटता हूँ.”
(मेरा दागिस्तान- भाग 1).
कोलकाता के बिमल के पास भी दुनिया के तमाम मुल्कों की खूबियों, सुगंधों, रिवाजों और भंगिमाओं के बारे में बताने के लिए बहुत कुछ है. उनकी यात्रा डायरी जो बाद में किताब बनी ऐसे विवरणों से भरी पड़ी है. रसूल की तरह ही वह भी हर जगह अपने आत्म यानी कि हमारे राष्ट्र-मन से टकराते हैं. यही तो यात्रा का सबसे बड़ा हासिल है.
बिमल दे
जन्म 1940 कोलकाता. बचपन में घर से भागकर हिमालय की यात्राएँ. 1956 में नेपाली तीर्थयात्री दल में शामिल होकर मानसरोवर (तिब्बत) की यात्रा. 1967 से 1972 तक निरंतर पाँच साल साइकिल से विश्व भ्रमण. 1972 से 1980 के बीच कई देशों की यात्राएँ. 1981 से 1998 के बीच तीन बार उत्तरी, दो बार दक्षिणी ध्रुवों की यात्राएँ. प्रमुख पुस्तकें हैं, ‘मैं हूँ कोलकाता का फोरेन रिटर्न भिखारी’, ‘महातीर्थ के अंतिम यात्री’, ‘महातीर्थ के कैलासबाबा’, ‘सूर्य प्रणाम’, ‘साइकिल से दुनिया की सैर’. वह अमेरिकी पोलर सोसाइटी के आजीवन सदस्य और ब्रिटिश पोलर सोसाइटी के परामर्शदाता हैं. नेशनल जियोग्राफिक सोसाइटी, वाशिंगटन ने कई बार सम्मानित किया है. |
भास्कर उप्रेती
पर्वतारोही, साइकिलिस्ट, फोटोग्राफर और अनुवादक भास्कर उप्रेती विभिन्न मीडिया संस्थानों में एक दशक तक सेवा दे चुकने के बाद 2013 से अजीम प्रेमजी फाउं देशन से जुड़े हैं. हाल निवास: ‘दि फूटहिल्स’, हल्द्वानी, नैनीताल.
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बहुत ही शानदार और दिलचस्प आलेख, जज्बा और इच्छा शक्ति बहुत कुछ करा देती है।👌👌🌹
आपकी टिप्पणी की भाषा कितनी काबिल-ए-तारीफ होती है। सहेजने लायक। शब्द बिलकुल डिफरेंट। स्टोरी को पढ़वा लेने का सविनय निवेदन करते हुए। समालोचन का समकालीन हिंदी साहित्य के निर्माण में इतना योगदान है कि कहना पडे़गा कि यह ‘समालोचन स्कूल’ है।
इसे कहते है दीवानगी जिसे बिमल दा ने सायकिल से दुनिया भर की सैर की. किताब मंगवा रहा हूँ.. Utpreti जी को साधुवाद..
भास्कर जी को बहुत धन्यवाद।
इसे पढ़ते हुए बहुत अच्छा लग रहा। मुझे भी साइकिल पसंद।
जब सब गाड़ियों और गैजेट्स की बात कर रहे होते तो मैं बहुत बोर फील करती हूँ। यातायात के साधन भर। लेकिन साइकिल तो एकदम अलग है । ज्ञानेंद्रपति जी की एक कविता है जिसमें कि लड़कियां साइकिल चलाती हैं तो उनके दुपट्टे उड़ते हैं। स्त्री के आज़ाद ख़यालात का बहुत सुंदर बिम्ब उभरता है । मैंने बीए सेकंड ईयर में सुनी थी । काशी हिंदू विश्वविद्यालय के महिला महाविद्यालय में ज्ञानेंद्रपति जी आए थे। इस कविता को सुनकर मुझे साइकिल से एक नया लगाव हुआ। इतना सांद्र कि आज भी साइकिल प्रिय है।
विमल दा के अनूदित पुस्तक की जानकारी पाकर प्रसन्न हूँ। मंगवाती हूँ ।