सारा आकाश कथा-पटकथा शीतांशु |
यद्यपि ‘सारा आकाश’ उपन्यास के पूर्वार्द्ध के प्रति ईमानदारी बरतते हुए ही सारा आकाश फिल्म बनाई गई थी, लेकिन अपने अंतिम रूप में दोनों अलग-अलग कृतियाँ ही हैं- विधा के स्तर पर ही नहीं, बल्कि संवेदना के स्तर पर भी. अब इसका कारण उपन्यास और सिनेमा के विधागत स्वरूप का अंतर हो या फिर राजेन्द्र यादव और बासु चटर्जी के यथार्थबोध का फर्क, अंततः उपन्यास मानस पर अलग प्रभाव छोड़ता है और फिल्म अलग.
इस उपन्यास और फिल्म के संवेदनात्मक अलगाव को समझने की पहली कुंजी लेखक और निर्देशक के प्रस्थान बिन्दुओं में है. उपन्यास एक पूरे शरीर की तरह होता है जिसके सारे तंतु, कोशिकाएँ एक अंतर्जाल की तरह करीने और पूरी क्षमता से उसे थामे रहती हैं. इसलिए उसका कुछ अर्थ किसी गद्यांश से भर्सक हासिल हो जाए लेकिन उसकी अभिव्यंजनाओं का विस्तार नहीं पाया जा सकता. सारा आकाश फिल्म की स्थिति कुछ ऐसी ही है. उसके पास उपन्यास का एक अंश है लेकिन उसका पूरा शरीर नहीं, इसलिए उसके पास संवेदनाएँ तो हैं लेकिन वह संवेदनात्मक विस्तार नहीं जो उपन्यास में है. चूँकि हर संवेदना की अपनी भूमिका और महत्व है, एक लिहाज से बेशक फिल्म अपने गठन में पूरी है, लेकिन वहाँ वह गहराई नहीं मिल सकती जो उपन्यास में है. असल में वहाँ जीवन के वे पहलू भी उतने नहीं हैं जो उपन्यास में हैं.
यहाँ एक वाजिब सवाल यह हो सकता है कि बासु चटर्जी ने जब सारा आकाश उपन्यास के पूर्वार्द्ध पर ही फिल्म बनाई थी तो उनसे ऐसी कोई उम्मीद ही क्यों! असल में, समस्या यह नहीं है कि बासु चटर्जी ने उपन्यास के पूर्वार्द्ध पर ही फिल्म बनाई थी, समस्या यह है कि उत्तरार्द्ध से उनका परिचय ही नहीं था (कारण चाहे जो हो) और वस्तुतः उपन्यास में पूर्वार्द्ध एक तरह से उत्तरार्द्ध की पृष्ठभूमि है. उपन्यासकार जिस विस्तार तक जाना चाह रहा था उसकी भूमिका उसने पूर्वाद्ध में रखी है. और इस विस्तार को समझकर ही पूर्वाद्ध के गूढ़ आयामों को समझा जा सकता है. बासु चटर्जी ने स्वीकार किया है कि-
‘‘एक फिल्म के रूप में सारा आकाश के पूरे हो जाने के काफी बाद मैं जान पाया कि मैंने कहानी का पहला भाग ही पढ़ा था, दूसरा भाग पढ़ा ही नहीं था. इसे फिल्म पूरी हो जाने के बहुत बाद पढ़ा.’’1
जबकि, पूर्वार्द्ध की संरचना को, गठन को, चरित्रों के व्यवहार को, परिवार के स्वरूप को, सामाजिक रूढ़ियों को, दक्षिणपंथी मानसिकता को, निम्न मध्य वर्ग को जिस रूप में रचा गया है, उसके पीछे के उद्देश्यों की समझ उपन्यास के उत्तरार्द्ध के पाठ के बगैर संभव ही नहीं. तात्पर्य यह कि सिर्फ पूर्वार्द्ध का पाठ कर पूर्वार्द्ध का पूरा अर्थ निकाला ही नहीं जा सकता. इसलिए यह फिल्म गूढ़ सामाजिक परिस्थितियों की कहानी उतनी नहीं कह पाती जितना कि संयुक्त परिवार में दांपत्य संबंधों की.
पटकथा में समर और प्रभा के आपस में ‘न बोलने’ से ‘बोलने’ के बीच की कहानी है. बासु चटर्जी इसी दायरे में केन्द्रित रहना चाहते थे, इसलिए उपन्यास के उन हिस्सों और संवेदनाओं की ओर उनका झुकाव ज्यादा था जिससे उनकी कहानी का प्रवाह बेहतर हो. निर्देशक की यह आवश्यकता उपन्यास के कुछ संकेतों, अंतर्गुंफनों, अभिव्यक्तियों, संवेदनाओं, चरित्रों को दो कदम पीछे ले जाती है जो उपन्यासकार के लिए महत्वपूर्ण हो सकते थे. राजेन्द्र यादव की कहानी ‘न बोलने’ से ‘बोलने’ के बीच की कहानी नहीं थी. उनके मानस में उपन्यास की जो संरचना थी वह उक्त स्थितियों के बाहर विद्यमान सामाजिक-आर्थिक जीवन की दूसरी स्थितियों से भी संचालित थी. जो विस्तार वह चाह रहे थे वह इससे बहुत अधिक था. वहाँ ढेर सारे प्रश्न हैं, आर्थिक परिवेश है, गरीबी का दर्शन है, सामंती पारिवारिक संरचना और उसमें पूँजी के महत्व की पहचान है, परिवार की संरचना और आधुनिक एवं तार्किक शिक्षा के बीच का विरोध है, स्त्रियों की मनोकांक्षाओं का विस्तार और उसका टूटना है, युवाओं की पीड़ा है, लेकिन पटकथा में इसमें से काफी कुछ उभर नहीं पाता. जिस कथा का चुनाव केन्द्रीय धारा के रूप में निर्देशक ने किया था, उसने अन्य संवेदनाओं को सीमित करने का काम किया. वस्तुतः पटकथा के उद्देश्य अलग थे और उपन्यास के अलग. यह अकारण नहीं कि इस पटकथा में अभिव्यक्त संवेदना को यथार्थपरक मानते हुए भी राजेन्द्र यादव इसे अपनी रचना नहीं कह पाते. राजेन्द्र यादव लिखते हैं-
‘‘सारा आकाश आज एक प्रयोगवादी न्यूवेव फिल्म है, काफी प्रसिद्ध और प्रशंसित….उपन्यास के यथार्थ और कथ्य के प्रति बेहद ईमानदारी के बावजूद वह बासू चटर्जी की अपनी रचना है, मैं अपने को सारा आकाश उपन्यास के लेखक के रूप में रखना पसंद करूंगा.’’2
राजेन्द्र यादव को स्पष्टतः यह बोध था कि उपन्यास में जिन द्वंद्वों को उन्होंने पैदा करने का प्रयास किया उससे कुछ अलग किस्म की अनुभूतियाँ और द्वंद्व फिल्म में पैदा हुई हैं. वे निस्संदेह अपने चयनित स्वरूप में पूरी हो सकती हैं और यथार्थपरक भी लेकिन वे उपन्यास से अलग हैं.
उपन्यास में चरित्रों की निर्मिति, विकास, व्यवहार और हाव-भाव की पहचान के लिए दूसरा खंड बहुत महत्वपूर्ण है. दूसरे खंड में चरित्रों के विकास का रास्ता तैयार करता है प्रथम खंड. असल में, सारा आकाश मात्र दो व्यक्तियों के बीच के संबंध का उपन्यास है ही नहीं. दूसरे खंड के संवाद बयान करते हैं कि यह भारतीयता, आध्यात्मिकता, परंपरा और आधुनिकता, इतिहास और वर्तमान, रूढ़ियाँ और तार्किकता, अस्मिता का संघर्ष आदि, जैसे प्रश्नों से टकराने वाला उपन्यास है. यह अकारण नहीं है कि संघ की विचारधारा और दक्षिणपंथ जिन उत्पादों पर अपनी राजनीति की फसल बोता और काटता है उस पर गहरा प्रहार है इस उपन्यास में. ऐसे में क्या प्रथम खंड में या फिल्म में समर का जो चरित्र है उसे सिर्फ एक पुरुष के अहम के रूप में देखा जा सकता है?
समर की दृष्टि का निर्माण दक्षिणपंथी ‘बौद्धिकों’ और रूढ़िवादी सामंती ढांचे से ग्रस्त संयुक्त परिवार के बीच हो रहा था. उसका चरित्र जितना घर में निर्मित हो रहा था उतना ही बाहर भी. इसी संपर्क ने स्त्रियों के संदर्भ में उसकी दृष्टि को निर्मित किया था. मान-मर्यादा, आचरण आदि के संदर्भ में उपन्यास में अभिव्यक्त उसकी प्रारंभिक उक्तियाँ, आध्यात्मिकता और परंपरा के नाम पर पलने वाली पितृसत्तात्मकता से ग्रस्त दक्षिणपंथी सोच से पनपी हुई थीं जिससे वह दूसरे खंड में शिरीष के संपर्क में आने के बाद मुक्त होने लगता है. समर की मानसिक संरचना की इस गूढ़ता के लिए फिल्म में अवकाश ही नहीं था. और यह सिर्फ फिल्म के विधागत स्वरूप के कारण नहीं था बल्कि दूसरे खंड से निर्देशक के अछूता रह जाने के कारण भी था.
उपन्यास एक तरह से इस प्रस्थापना पर केन्द्रित है कि जब तक संयुक्त परिवारों की सामंती संरचना बनी रहेगी तब तक उस संरचना में दबे और फँसे हुए व्यक्तित्व का विकास संभव नहीं है. वस्तुतः मान-मर्यादाओं, सामाजिक प्रतिष्ठा आदि के नाम पर आर्थिक परिस्थितियों की गिरफ्त में पलने वाले ढकोसले इस संरचना में समर और प्रभा जैसे व्यक्तियों को पूरी तरह तोड़ देते हैं. समर का बड़ा भाई एक ऐसा ही जिम्मेदार पर मशीन के पुर्जे जैसा व्यक्तित्व है. एक व्यक्ति के रूप में आधुनिकताबोध जिन आकांक्षाओं का जन्म देता है उन पर ये सामंती वृत्तियाँ बुरी तरह हावी हो जाती हैं और सपने चूर-चूर हो जाते हैं. ध्यान देना होगा कि इन सपनों का उद्देश्य सिर्फ आर्थिक आत्मनिर्भरता से पूरा नहीं होता बल्कि सुखद ढंग से आत्मसम्मान के साथ स्वयं लिए गए निर्णय भी जरूरी हैं. सारा आकाश फिल्म का अंतिम दृश्य उपन्यास के इस महत उद्देश्य से राबता नहीं रखता.
अस्तित्ववादी मान्यता है कि मनुष्य स्वतंत्र होना भी चाहता है लेकिन स्वतंत्रता का भार वहन करने से डरता भी है. यह उपन्यास जिस तरह से रचा गया है वह इस अस्तित्ववादी मान्यता से एक कदम आगे बढ़कर हमें समझाता है कि मानवीय व्यक्तित्व की स्वतंत्रता के लिए जिस आर्थिक आधार की जरूरत होती है वह कितने ही निम्न मध्यवर्गीय परिवारों में पलने वाले समरों और प्रभाओं के लिए बिल्कुल असंभव है. जिनके जीवन का स्तर उनसे भी नीचे है उनके बारे में क्या ही कहना. घर की आर्थिक दुरावस्था से ग्रस्त समर के लिए मुक्ति का कोई रास्ता नहीं है. इस आर्थिक चरमराहट की आवाज उपन्यास में बहुत प्रबल है लेकिन फिल्मकार के लिए यह उतना महत्वपूर्ण नहीं हो पाया है. प्रभा का लगातार एक ही फटी हुई साड़ी पहनते जाना उपन्यासकार के लिए एक महत्वपूर्ण मुद्दा था. नौकरी का न मिलना और उसकी चिन्ता से ग्रस्त रहना, पिताजी और परिवार के अन्य सदस्यों का कड़वा व्यवहार, पढ़ाई पूरी कर पाने के मार्ग में बाधाएँ, बढ़े भाई का कोल्हू के बैल की तरह पिसते जाना, उपन्यासकार के लिए बहुत जरूरी मुद्दे थे जिस पर वह अपना ढांचा तैयार कर रहा था. ऐसे प्रसंग पूरे उपन्यास में समय-समय पर उभरते रहते हैं लेकिन फिल्म इस आर्थिक आयाम में उस गहराई तक नहीं जाती क्योंकि उसे जो विरेचन या सुखांत हासिल करना था, उसके लिए ऐसे दृश्य बहुत जरूरी नहीं थे.
राजेन्द्र यादव और बासु चटर्जी फिल्म की पटकथा पर विचार के दौरान इस मुद्दे पर कि कहानी का समय क्या रखा जाए, एकमत नहीं थे. राजेन्द्र यादव चाहते थे कि समय को न बदला जाए और बासु उसे अपने काल की कहानी बनाना चाहते थे. अंत में दोनों फिल्म के संदर्भ में इस नतीजे पर सहमति से पहुँच गए कि
‘‘सारा आकाश की ट्रेजडी किसी सन्, समय या व्यक्ति विशेष की ट्रेजडी नहीं, खुद चुनाव न कर सकने की, दो अपरिचित व्यक्तियों को एक स्थिति में झोंककर भाग्य को सराहने या कोसने की ट्रेजडी है. संयुक्त परिवार में जब तक यह चुनाव नहीं है, संकरी और गंदी गलियों की खिड़कियों के पीछे लड़कियाँ सारा आकाश देखती रहेंगी, लड़के दफ्तरों, पार्कों और सड़कों पर भटकते रहेंगे, एकान्त आसमान को गवाह बनाकर अपने आपसे लड़ते रहेंगे, दो नितान्त अकेलों की यह कहानी तब तक सच है, जब तक उनके बीच का समय रुक गया है.’’3
लेकिन आज सत्तर साल बाद जब संयुक्त परिवारों का यथार्थ पहले से काफी बदल गया है, फिल्म हमारे समय से उतने करीब नहीं रह गई जितना कि उपन्यास. सारा आकाश लिखा भले ही सत्तर साल पहले गया है, पर आज भी ‘समकालीन’ बना हुआ है. ऐसा इसलिए क्योंकि यथार्थ पर उसकी पकड़ कहीं मजबूत थी. आज जब संयुक्त परिवारों के पर्याप्त टूटने के बाद भी मानवीय व्यक्तित्व के विकास के अवसर कम दिखाई दे रहे हैं तो यह साफ समझ आता है कि जिन आर्थिक परिस्थितियों के कारण परिवार चरमराते हैं, पूँजीवादी समाज के विकास के साथ वह चरमराना बढ़ता ही जाता है. विश्व के अतिऔद्योगिक समाजों में आज जब लोगों को ढंग से प्रेम करने का अवसर भी नहीं मिल पा रहा है तब यह समझ आता है कि परिस्थितियों को सिर्फ सामंतवाद के कोण से नहीं देखना चाहिए बल्कि इस कोण से भी देखना होगा कि पूँजीवादी समाज में सभी संबंधों पर पूँजी हावी होती जाती है, मनुष्य के आचरण-व्यवहार पर पूँजी हावी होती जाती है, और जो मूल्य पनपते हैं उसमें व्यक्तित्व का विकास तो दूर की बात वह व्यवस्था और मुनाफे के चक्र में पिसता चला जाता है. सारा आकाश उपन्यास की कथा को सिर्फ सामंती मूल्यों और संयुक्त परिवारों के संदर्भ में देखना राजेन्द्र यादव के चिंतन फलक के साथ अन्याय होगा. उस आर्थिक ढाँचे को पूरे उपन्यास में उन्होंने गूँथा है जो बाद के समाज में और भी विस्तृत होते चला जाता है. फिल्म इतने विस्तार में जाने का न तो प्रयास करती है न ही उसके गठन में ही इसके लिए बहुत अवकाश दिखाई देता है.
अब विधागत चुनौतियों से उपजे अंतर पर कुछ नजर डालते हैं. निस्संदेह, यह उपन्यास जिस ढंग से लिखा गया है उसे दृश्यों में बाँधना एक गंभीर चुनौती थी. उपन्यास में परिवेश के निर्माण के लिए विवरणों का प्रयोग किया गया है. बासु चटर्जी लिखते हैं कि
‘‘सारा आकाश एक जटिल कथा के रूप में लिखा गया था. लेखक ने सपाट रास्ता नहीं चुना था, इसीलिए इसने मुझे ज्यादा आकर्षित किया था. दृश्यों को मैंने यथासंभव वर्णन के निकट रखा है. चूँकि लेखक ने कहानी फिल्म के लिए नहीं लिखी थी, अतः उसमें बहुत-सी बातों का विवरण दिया गया है, जिनको दृश्यों में रूपांतरित करना एक चुनौती थी.’’4
इन विवरणों को निस्संदेह प्रभावशाली ढंग से, अपनी चेतना के अनुरूप बासु चटर्जी फिल्म के पर्दे पर उतारने में सफल रहे हैं. एक महत्वपूर्ण उदाहरण है घर का. अधिकांश फिल्म इसी घर के भीतर चलती है और इस संदर्भ में बासु चटर्जी ने कोई समझौता नहीं किया. बासु ने फिल्म का सेट वहीं तैयार किया जिस जगह पर केन्द्रित कर राजेन्द्र यादव ने अपनी कथा लिखी थी. एक निम्न मध्यवर्गीय संयुक्त परिवार के जीवन में अन्य सदस्यों की तरह घर भी एक सदस्य होता है. बासु चटर्जी ने घर को ऐसे ढाला है कि परिवार की स्थिति की जितनी कहानी उपन्यास में समर कहता है, फिल्म में वैसा ही काफी कुछ घर कहता है. ऐसे में चयनित यथार्थ की अभिव्यक्ति प्रभावशाली ढंग से हो पाई. असल में, घर कैसा दिखे, इस पर काफी कुछ निर्भर कर रहा था कि मनःस्थितियाँ, मानसिक द्वंद्व किस तरह उभरेंगे. यहाँ विधा का फर्क काफी महत्वपूर्ण है. उपन्यासकार की तुलना में फिल्मकार के लिए यह कहीं ज्यादा मायने रख रहा था. जब नायक के मानसिक द्वंद्व को बाँधने के लिए उपन्यासकार शब्द तलाश रहा होता है, तब पटकथा लेखक उस परिवेश का सृजन कर रहा होता है, वह सेट तैयार कर रहा होता है, जिस पर वैसा मानसिक द्वंद्व आँखों को सहज लगे. इसीलिए फिल्म निर्माण से पहले बासु चटर्जी ने राजेन्द्र यादव से यह जानना चाहा था कि ‘जिस समय आपने यह उपन्यास लिखा, उस समय किस तरह के घर की कल्पना की थी?’ फिर इस कल्पना का उन्होंने बखूबी रूपायन किया.
विधागत फर्क ने एक बड़ी समस्या यह उत्पन्न की कि आत्मकथात्मक ढंग से लिखा गया होने के कारण पूरा उपन्यास जिन आत्मालोचनों और आत्मसंवादों से भरा पड़ा है उन्हें पर्दे पर कैसे ढाला जाए! बहुत अधिक मात्रा में होने के बावजूद ये आत्मसंवाद और आत्मालोचन उपन्यास में इतने सुंदर ढंग से पिरोए हुए हैं कि कहीं कुछ भी थोपा हुआ नहीं लगता. पढ़ते हुए इनका कोई भी हिस्सा छोड़ कर आगे नहीं बढ़ा जा सकता. फिल्मकार के लिए निस्संदेह यह बहुत ही कठिन था. एक तो इन्हें रूपांतरित करना भी कठिन था और दूसरे अगर बासु चटर्जी इन आत्मसंवादों को फिल्म में अत्यधिक ढालने लगते तो शायद वह उस ऑडिएंस के लिए नहीं रह जाती जिनके लिए वह बनाई जा रही थी. उपन्यास में रमने वालों को फिल्म पसंद आती, मगर फिल्मों में रमने वालों को उसकी गति नहीं रुचती. और अगर आगे बढ़कर बहुत गंभीर प्रयोग किए जाते तो वह सिनेमा के व्यापारिक महत्व के लिए भी बहुत घातक हो सकता था. यहीं साहित्यिक कृति और फिल्म जैसे अलग हो जाते हैं.
बासु चटर्जी इस समस्या के प्रति सतर्क होकर किस रूप में समाधान ढूंढ रहे थे, इसके बारे में उन्होंने लिखा है-
‘‘उदाहरण के लिए नायक का एक मित्र फुटबॉल के एक खेल का वर्णन करता है जिसमें वह उत्कृष्ट खिलाड़ी था, उस समय नायक अपनी विमुख पत्नी की याद में खोया हुआ था. इन दोनों को सम्मिलित कैसे किया जाए, वह भी दृश्यों के माध्यम से इसका रास्ता मुझे खोजना था. ऐसे ही कई स्थान हैं जहाँ नायक अतीत और भविष्य के बारे में बहुत कुछ सोच रहा है. छठे दशक के मध्य में मैंने अनेक यूरोपीय और रूसी फिल्में देखी थीं. वे अपने विवरण में अद्भुत थीं. मुझे ऐसे दृश्य लिखने में इनसे सहायता मिली.’’5
इस उद्धरण से स्पष्ट है कि बासु चटर्जी सचेत थे लेकिन इसके बाद भी इस संदर्भ में वह प्रभाव वे पैदा नहीं कर सके जो उपन्यास करता है. इसमें बासु चटर्जी की कलात्मक क्षमता पर सवाल नहीं है. हो सकता है कि वह अपने समय से बहुत आगे हो. यह विधा के फर्क से, विधाओं की सामाजिक-आर्थिक अवस्थिति से, सिनेमा और उपन्यास की गति के फर्क से, पाठक और दर्शक की इच्छाओं के फर्क से, कलाओं पर पूँजी और संवेदना के दबाव से उपजी स्थिति है. फिल्म देखते हुए ही मुझे भी एहसास हुआ कि समर की मनःस्थिति को, आत्मसंवादों को, उसके द्वंद्व को दृश्य माध्यम में बाँधना कितना कठिन हो सकता है. बासु चटर्जी ने पंखे को घुमा कर, कैमरे को क्लोज अप में ले जाकर, कैमरे को किसी चक्र की तरह घूमाकर, जल्दी जल्दी दृश्यों को पलट कर या बल्ब की रोशनी को चेहरे के अत्यधिक नजदीक लेजाकर जिन मानसिक गुंफनों को प्रकट करने की कोशिश की है वे उपन्यास में अभिव्यक्त समर के मानस का कम ही रूपायन कर पाती हैं. लेकिन इसके लिए बासु की कलात्मक क्षमता से अधिक विधाओं के फर्क, फिल्म के लिए प्राप्त वित्तीय राशि और फिल्म निर्माण की दिशा में हुए तकनीकी विकास के सीमित दायरे पर ज्यादा विचार करना चाहिए.
यही वजह है कि कुछ ऐसे दृश्यों को रचने में बासु का मन अधिक रमा है जो उनकी विधा के अनुकूल हों, परिणामस्वरूप समर के अंतर्मन से जुड़े कई गद्यांशों को छोड़ दिया गया है. जैसे, उपन्यास में प्रथम खंड का चौथा अंक आत्मसंवाद की दृष्टि से महत्वपूर्ण है जो फिल्म में कुछ पलों में सिमट जाता है. उपन्यास में पहले दो अंक ही समर के अंतर्द्वंद्व और पुरुषवादी अहम को पकड़ लेते हैं, विधागत आवश्यकताओं के कारण पटकथा इस रूप में आगे बढ़ ही नहीं पाती. उपन्यास से पटकथा में रूपांतरित होने के क्रम में जो कुछ छूट गया उसके बाद फिल्म के अदाकारों से भी यह उम्मीद नहीं की जा सकती थी कि फिल्म के लिए लिखी गई पटकथा मात्र को पढ़कर वे उस चेतना को निर्मित कर लें जो उपन्यासकार ने परिकल्पित की थी. अदाकार चाहे कितना भी मँझा हो, परिस्थितियों की पकड़ डूबे बगैर संभव नहीं. हालांकि इसमें दो राय नहीं कि प्रदत्त स्थितियों में अदाकारों ने गंभीर प्रभाव पैदा किया है और अपने निर्देशक की माँग पर वे काफी हद तक खरे उतरे हैं.
उक्त सीमाग्रस्तता के कारण ही, जहाँ उपन्यास में समर के झुंझलाहट उसके आंतरिक उद्वेलनों से विस्तार पाते हैं वहीं फिल्म में उन्हें बाह्य दृश्यों के माध्यम से कैद करने की कोशिश की गई है. समर लगातार ऐसी बातें सोचता रहता है जो पर्दे पर आनी कठिन थीं. जैसे कि चौथे अंक में उसका यह सोचना कि
‘‘पहले जैसी एक अल्हड़ निश्चिंतता से मन ओत प्रोत रहता था, उज्जवल और उन्नत भविष्य के सपने मन प्राण में झिलमिलाया करते थे, वे सब बुझते चले जा रहे हैं.’’ आगे वह कहता है कि ‘‘समझ नहीं आता मेरे भीतर क्या था जो खो गया. मैं एक और बात को भी समझने लगा हूँ कि लोग मुझे बिल्कुल बेकार का ऐसा आदमी मानने लगे हैं जिसे कोई काम धाम नहीं, दिन भर बस मन भर का मुँह बनाए घूमता रहता हो.’’6
इस अंक में समर का लड़कपन जैसे कमजोर पड़ता जाता है. सामाजिक पारिवारिक दबावों और अर्थ की चिन्ता उसके भीतर की उत्तेजना को दबाते जाती है. उसे एक व्यर्थताबोध घेरता रहता है. उसे लगता है कि
‘‘शादी के बाद अब जाने क्यों लगता जैसे घर की वास्तविक हालत मुझे जान बूझकर दिखाई जाने लगी है. लगता ही नहीं कि मेरी शादी भी हुई थी… अब तो बहू की बात भी घर में कोई नहीं करता.’’7
घर की ओर आते हुए भी एक विचित्र आतंक से उसका मन धड़कता रहता है. कहना न होगा कि समर का चरित्र जिस रूप में उपन्यास में विकसित हो रहा था, उसकी झुंझलाहटें जिस रूप में आकार ले रही थीं, वे फिल्म में उसी तरह नहीं रूपायित हो रही थीं जैसे उपन्यास में. उनका स्वरूप अलग था. जिन प्रतीकों का प्रयोग एक गद्यात्मक विधा से जुड़े होने के कारण राजेन्द्र यादव कर पा रहे थे, उन्हीं प्रतीकों का अनुसृजन कर पाना फिल्मकार के लिए संभव नहीं था. इसलिए फिल्मकार अपने रास्ते तलाशता है. भाभी का पान खाकर मुस्कुराना, प्रोफेसर के बोलते वक्त काँव-काँव की आवाज, हेयरपिन का फेंकना और संभालकर रखना- इस तरह के प्रतीक रचकर बासु चटर्जी फिल्म को दिशा देते हैं. प्रतीकों के संदर्भ में राजेन्द्र यादव की यह कलात्मक विशिष्टता पर्दे पर आती भी तो कैसे! जैसे कि ये पंक्तियाँ देखिए,
क. ‘मन में ऐसी उदासी छाई थी जैसे अभी अभी लाश फूँककर आया हूँ.’
ख.‘धुआँ, अंगारों और भाप की भट्टी पर मैं रात भर भुनता और उबलता रहा.’
ग.‘लगता था जैसे आगे एक महाशून्य का अंधा सागर ठांठे मार रहा हो.’
अब इन विशिष्ट पंक्तियों का निर्देशक या पटकथाकार कर ही क्या सकता है! वैसे भी, उपन्यास में जो स्थितियाँ धीरे-धीरे बनती हैं, संवाद के साथ वह दृश्य माध्यम में तेजी से बनती रहती हैं. उपन्यास की गति से पटकथा और सिनेमा की गति का फर्क काफी अधिक है. उपन्यास की चुप्पी, खामोशी और अंतर्द्वंद्वों की निर्मिति में जितना समय लगता है वह फिल्म में संभव कर पाना आसान नहीं. इसलिए लंबी खामोशियों और आत्मसंवादों का जो प्रभाव उपन्यास पढ़ने पर पड़ता है वह फिल्म से नहीं.
दूसरी ओर, पटकथा-लेखक और फिल्मकार के लिए दर्शक की चिन्ता बहुत बड़ी चिन्ता बन जाती है. इसे उपन्यास लेखक इतना महत्व नहीं देता, अगर वह बाजार के हिसाब से लिखने में व्यस्त न हो. वास्तविक जीवन में जिस नायक-नायिका ने एक ही कमरे में रहते हुए नौ साल तक बात नहीं की थी उसे उपन्यास में राजेन्द्र यादव ने एक साल कर दिया था. और जब यही पटकथा में रूपांतरित होता है तो उसे बासु चटर्जी छः महीने कर देते हैं. इस तरह वास्तविक यथार्थ से काफी कम ही उपन्यास में कैद हो पाता है और उससे भी बहुत कम फिल्म में. न बोलने से बोलने के बीच की दूरी को कम कर निर्देशक ने दृश्य को अधिकांश दर्शकों के लिए स्वीकार्य तो बना दिया, लेकिन दूसरी ओर निस्संदेह यथार्थ के एक संभावित गूढ़ आयाम को बहुत ही संकुचित कर दिया. इसके लिए निर्देशक को कटघरे में खड़ा भी नहीं किया जा सकता क्योंकि सिनेमा विधा का एक अनिवार्य पक्ष दर्शक और पूँजी है.
साहित्यकार आज भी इस समस्या से इतना ज्यादा नहीं जूझता. पटकथा में रूपान्तरण की प्रक्रिया का समाजशास्त्रीय अध्ययन यहाँ अनिवार्य हो जाता है. इस प्रक्रिया का संबंध सिर्फ गद्य लिखने की शैली में परिवर्तन से संलग्न नहीं है. इसके पीछे गूढ़ आर्थिक-सामाजिक प्रक्रियाएँ सक्रिय हैं. यहाँ यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि यह तब है जब बासु चटर्जी पैसे के पीछे भागनेवाले निर्देशक नहीं थे. जिन लोगों ने सिनेमा को पैसे का माध्यम बना दिया है वहाँ यह संवादहीनता छः दिन भी टिक जाए तो बड़ी बात है! इतनी संवादहीनता उत्तेजना में बाधा है और आजकल उत्तेजना ही पूँजी की पहली शर्त है!
इन विभिन्न दबावों, आवश्यकताओं, अवबोधों की वजह से फिल्म में जो कुछ अलग था या जो कुछ एक जैसा था, उसकी ओर राजेन्द्र यादव की भी दृष्टि गई. उन्होंने स्वीकार भी किया कि फिल्म में जो यथार्थ उद्घाटित हुआ है उसकी सराहना की गई है. लेकिन इस स्वीकारोक्ति के बाद जब एक उपन्यासकार की नज़र से वे फिल्म की ओर मुड़ते हैं तो उन्हें कुछ बातें खटकती हैं. वे लिखते हैं,
‘‘लेकिन कुछ बातें मुझे खटकती रही हैं, द्वाराचार के समय नंगे हाथोंवाली महिला का कलश लिए खड़ा होना, नई शादी के समय का घर, नई बहू के हाथों बनाए गए खाने का स्तर (खासतौर पर बाजार से मँगाई गई मोटी मोटी रोटियाँ) शादी के समय की नहीं, बल्कि लड़की के होने के समय की दावत, बहू को लाने-छोड़ने किसी का भी स्टेशन तक न जाना, गली मुहल्ले की टिपिकल दुनिया का न होना- ये कुछ बातें थीं, जिन्हें बहुत आसानी से दूर किया जा सकता था और उससे यथार्थ की प्रामाणिकता और बढ़ती. हो सकता है औरों का ध्यान उधार जाता भी न हो, मगर मुझे हर बार ये बातें परेशान करती हैं. कुछ स्थानीय रीति-रिवाज, बोलियाँ और आवाजें और भी डाले जा सकते थे.’’8
कहना न होगा कि यह दृष्टि एक उपन्यासकार की दृष्टि है लेकिन इसे सिर्फ विधा के फर्क से नहीं आँका जा सकता, बल्कि विधागत फर्क के साथ-साथ अन्य कई कारणों से दोनों के यथार्थबोध और उसकी अभिव्यक्ति की प्रक्रिया में कुछ अलगाव हैं. अगर ऐसा ही कोई पाठ बासु चटर्जी की ओर से हमें उपलब्ध होता जिसमें वे उन कारकों को रख पाते जिसकी वजह से उन्होंने पाठांतरण किया तो यथार्थ को ग्रहण करने की प्रक्रिया को हम और बेहतर समझ पाते.
एक दूसरा बड़ा अंतर है मुन्नी के चरित्र-चित्रण में. राजेन्द्र यादव फिल्म के संदर्भ में लिखते हैं कि
‘‘कुछ मुन्नी भी अपनी ससुराल में उसी यातना से गुजरती रही है, जिससे यहाँ प्रभा गुजर रही है- बेटी और बहू के लिए हमारे घरों में कितने दुहरे मापदंड हैं- यह बात भी शायद ज्यादा उजागर नहीं हो पाई है.’’9
उपन्यास में एक हिस्सा है जहाँ समर सोचता है मुन्नी की स्थिति के संदर्भ में. पंक्तियाँ कुछ यूँ हैं-
‘‘इच्छा होती है, उसके पति को पकड़कर भरे बाजार में ठोकरों और कोड़ों से खूब पीटूँ….मुन्नी तो पता नहीं कुछ सोचती भी है या नहीं. अधिक से अधिक चुप और तटस्थ रहना उसका स्वभाव हो गया है….जाने क्या उलटा सीधा सोचा करती है, भीतर जैसे उसे कोई चीज पीसे डाल रही हो…. हाँ अगर नहीं भूली है तो वह स्वयं कि घर के ऊपर वह बोझ है.’’10
यह वही समर है जिसे अपनी पत्नी की चुप्पी नहीं समझ आती. दूसरे घर से लाकर एक अजनबी परिवेश में पटक दी गई अपनी पत्नी के बारे में ऐसे विचार उपन्यास के आरंभ में उसके मस्तिष्क में नहीं आते. उसके व्यवहार में कितनी क्रूरता और अहम है यह उसके खयाल में भी नहीं है. भारतीय पारिवारिक संरचना की कलई खोलती पंक्तियाँ हैं ये. उपन्यास के पहले ही अंक में समर दक्षिणपंथी मानसिकता के आदर्श से ग्रस्त एक ऐसे युवक के रूप में चित्रित है जो राष्ट्र की सोच पाता है पर स्त्री की नहीं. जैनेन्द्र ने पत्नी शीर्षक से ऐसी ही कहानी लिखी थी. लेकिन इस दोहरे व्यवहार को भी आर्थिक अवस्था की दृष्टि से समझने की जरूरत है क्योंकि यह वही परिवार है जो इस बात का अंदाजा होते हुए भी कि अगर दोबारा मुन्नी ससुराल गई तो फिर उसकी लाश ही आएगी, उसे उसके हिंसक पति के पास भेज देता है. यानी बेटी और बहू के फर्क से तो पारिवारिक संरचना को देखना ही होगा लेकिन अंततः स्त्री की इस संरचना में क्या स्थिति होती है, उस पर और गहराई से विचार की जरूरत है. ये दोहरे मानदंड उपन्यास में तो बेहतरीन ढंग से उभर कर आए हैं लेकिन फिल्म में नहीं.
इसके अतिरिक्त जो बातें उपन्यास के यथार्थ की तुलना में सिकुड़ी हुई दिखाई देती हैं, उसमें समर की संघवादी मानसिकता भी है. वह खुद को एक साधक की तरह बनाने की कोशिश में ऐसा बन चुका है जहाँ थोथे आदर्श हैं और यथार्थ की मूढ़तापरक समझ. जहाँ कई बार मार्ग में बाधाएँ जबर्दस्ती ढूँढी जाती है और कुछ न मिल पाए तो स्त्रियों और अल्पसंख्यकों को ही बाधापरक मान कर काम चला लिया जाता है. समर एक ऐसा व्यक्ति बनना चाहता है जिसकी जिसकी
‘‘एक-एक बात देश के लिए आज्ञा हो, जो भारत माता को इन विदेशी म्लेच्छों के चंगुल से मुक्त कर सके.’’11
वह मध्यकालीन ढंग से स्त्रियों को झंझट के रूप में देखता है और एक ऐसे व्यक्ति के रूप में उभरता है जिसे जैसे स्त्री के अलग व्यक्तित्व का कोई बोध न हो, पितृसत्तात्मक पारिवारिक ढाँचे का ऐसा पुरुष हो जो उसके बनने की प्रक्रिया से बिल्कुल अंजान हो. उपन्यास में स्त्री को दोयम पायदान पर रखकर देखने और पुरुष को देवता बना देने वाली ढेरों पंक्तियाँ यादवजी ने डाली हैं. यह छवि भी फिल्म में उभर कर नहीं आ पाती.
इसी तरह फिल्म में कुछ और दृश्यों को शामिल न करने के पीछे के निर्णय को जानने की आकांक्षा होती है. उपन्यास में शादी के उपरान्त एक ऐसा वक्त आता है जब समर पिता के सामने फफक कर रो देता है. लेकिन पटकथा में पिता के सामने फफक कर रो देने का दृश्य नहीं है, फिल्म में भी नहीं है. जबकि वह दृश्य लगातार भय और आदर्शों के बीच झूल रहे आदमी के चरित्रांकन के लिए बहुत जरूरी था. जो आदमी देश को झुकाना चाहता है वह पिता से इतना पिटा हुआ है कि कितना भी चाह ले, उनके कहे को टाल नहीं पाता. उसका रोना एक ऐसे व्यक्ति की चारित्रिक सीमाओं को दर्शाता है, जो अहम् से भरा हुआ है. इसी तरह जोड़े जाने वाले दृश्यों में सिनेमा जाने का दृश्य महत्वपूर्ण है, क्योंकि जो व्यक्ति आजीवन बात नहीं करने के गंभीर निर्णय पर झूल रहा हो, भोजन को इस रूप में ठुकरा रहा हो, उसका सिनेमा जाने के लिए तैयार हो जाना, वह भी अकेले, उस अंतर्द्वंद्व को कुछ कम कर देता है जो उपन्यास में रचा गया है. बासु को इस दृश्य की जरूरत शायद इसलिए आन पड़ी क्योंकि उन्हें ऐसे दृश्य रचने थे जिससे वे समर की झुंझलाहट को सांसारिक और व्यावहारिक स्तर पर दिखा सकें. उपन्यास बाह्य और अंतर में जो संतुलन बनाता है पटकथा में वह संतुलन एक तरफ झुक जाता है. अंतर्मन के संवाद से ज्यादा बाह्य स्थितियों के बीच संगुफन की निर्मिति फिल्म को उपन्यास से अलग दिशा में ले जाती है.
कहना न होगा कि पटकथा की तुलना में उपन्यास में यथार्थ कहीं सूक्ष्म रूप में अभिव्यक्त हुआ है. आर्थिक दुरावस्था का संदर्भ हो, पिता की मानसिक निर्मिति का पक्ष हो, संयुक्त परिवारों में स्त्रियों का स्त्रियों के प्रति रवैया हो, मुन्नी के चरित्र के विकास का और उसकी स्थिति का संदर्भ हो, पितृसत्ता के स्वरूप का प्रश्न हो, संघवादी विचारधारा के दुष्प्रभाव की चिन्ता हो, उपन्यास पटकथा की तुलना में जटिल संवेदनात्मक गहराई से ओतप्रोत है. यह अकारण नहीं है कि उपन्यास के दूसरे खंड का अंत मुन्नी की मृत्यु के साथ होता है.
पटकथा मूलतः संयुक्त परिवार में दांपत्य जीवन की एक केंद्रीय कथा को लेकर आगे बढ़ता है जबकि उपन्यास में उस दंपति के साथ पूरा सामाजिक जीवन भी, घर हो या बाहर, उद्घाटित होता चला जाता है. उपन्यास में सुखान्त की फिक्र नहीं है, लेकिन पटकथा जहाँ खत्म होती है वहाँ जैसे एक क्लोज़र की तलाश है. हिन्दी फिल्में इससे दशकों से ग्रस्त हैं, आज भी हैं. तीसरी कसम के निर्माण के वक्त शैलेन्द्र के सामने राज कपूर ने भी कुछ ऐसी ही दिक्कतें खड़ी की थीं. यह अकारण नहीं कि फिल्म के अंत में बहुत सी अनकही बातें संवादों के रूप में कह दी गई हैं, जबकि उपन्यास उसे अनकहा रहने देता है. जीवन जब ऐसा हो तो कितना ही बयान किया जाए! हर एक दिन जब एक कहानी की ही तरह गुजर रहा हो, तो उसे यथार्थ में कितना ही बाँधा जा सकता है!
संदर्भ-
1.राजेन्द्र यादव, बासु चटर्जी, सारा आकाशः पटकथा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2007, पृ.7
2.वही, पृ.18
3.वही, पृ.15
4.वही, पृ.7
5.वही, पृ.8
6.राजेन्द्र यादव, सारा आकाश, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, पैतीसवां संस्करण, 1999, पृ.25
7.वही, पृ.24
8.राजेन्द्र यादव, बासु चटर्जी, सारा आकाशः पटकथा, वही, पृ.16
9.वही, पृ.16
10.राजेन्द्र यादव, सारा आकाश, राधाकृष्ण प्रकाशन, वही, पृ.23
11.वही, पृ.6
शीतांशु आलोचना में विशेष रुचि रखते हैं. फिलहाल हिंदी विभाग, असम विश्वविद्यालय, दीफू परिसर में प्रोफेसर एवं अध्यक्ष के रूप में कार्यरत हैं. कंपनी राज और हिन्दी शीर्षक से उनकी एक पुस्तक राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित है. प्रकाशन संस्थान से उनकी दो संपादित पुस्तकें (प्रो.ओमप्रकाश सिंह के साथ संयुक्त रूप से संपादित) प्रकाशित हैं- पाठ और पाठ्यक्रम, उपन्यास का वर्तमान. आलोचना, समालोचन, वायर, वनमाली, वागर्थ, बया, वसुधा, समयांतर, गवेषणा, सापेक्ष, कृति ओर, हिन्दी समय आदि पत्रिकाओं-वेब पोर्टलों पर उनके आलेख प्रकाशित हैं. संपर्कः sheetanshukumar@gmail.com |
सूक्ष्मता से विश्लेषण करने वाला, एक साफ-सुथरा लेख। बधाई!
डॉ शीतांशु की साहित्यिक रचनात्मक समझ और सिनेमाई दृष्टि और समकालीन बोध तीनों ही उर्वर है । खूब बधाई
आलेख में दोनों माध्यमों की क्रिया प्रक्रिया का बारीक निरीक्षण प्रस्तुत है । प्रस्तुतकर्ता शीतांशु को बधाई। ।
प्रो शीतांशु की कला – साहित्य संबंधी दृष्टि , सामाजिक – सांस्कृतिक संरचनाओं की उनकी गहन समझ और दो भिन्न माध्यमों के बीच के अन्तर और सम्बन्ध के एक सतर्क विवेक का बिल्कुल अलग तरह का उदाहरण है यह लेख । यह लेख रचना और अभिव्यक्ति के दो पृथक माध्यमों के बीच उपस्थित जीवन के एक उलझे हुए कथ्य की भीतरी संरचना के सवालों और उनके द्वंद्वों को तो पकड़ने की कोशिश करता ही है , रचना और पुनर्रचना के बीच की शास्त्रीय समस्याओं को भी समझने के बहुत सारे तर्क और आधार प्रस्तावित करता है ।
इस विचारपूर्ण लेख के लिए प्रो शीतांशु को बधाई !