शहर जो खो गया अनुराधा सिंह |
इस बस्ती में आख़िर हम क्या हैं ? अंततः केवल कुछ दृश्य खंडों के रचयिता? एक लक्ष्मण- रेखा है जिसे हम कभी लाँघ नहीं पाते. फिर अपनी- अपनी सुरक्षित दुनियाओं में लौट जाते हैं. लेकिन जिन्होंने पूरी उम्र यहाँ बिता दी उनका जीवन केवल ‘दृश्य’ नहीं है. वे निर्धनता के टापुओं पर खड़े सूनी-सूनी आँखों से हमें देखते रहते हैं. यह मुक्तिबोधियन त्रासदी है . यह भी अकारण नहीं कि ‘स्लमडॉग मिलेनियर’ जैसी फिल्मों के बाद धारावी जैसी बस्ती में विदेशी सैलानियों के लिए ‘पावर्टी टूरिज्म’ ख़ूब फला फूला है. 35 डॉलर प्रति व्यक्ति तीन घंटे का ‘धारावी स्लम टूर’.
विजय कुमार (शहर जो खो गया )
मुंबई के इस बार के दस साल मैंने प्रायः सड़कों पर भटकते हुए गुज़ारे, और यह भटकना जैसे मन और आत्मा के निस्तार की तरह घटता था तो कागज़ पर कम ही दर्ज़ किया गया. कई इलाकों के तो नाम भी नहीं जानने चाहे बस फुटपाथ- फुटपाथ चलती रही, जैसे देखना भर काफ़ी था. वे घने पुराने बाज़ार, उनके ऊपर बने पिंजरेनुमा बहुत पुराने घर, चौड़ी पारसी नामों वाली सड़कों पर बने गौथिक शैली के भवन, चालों और झुग्गियों की जीवंत दुनिया, हर जगह, रमने वाले दृश्यों की अविराम लड़ियाँ. मेरे देखे हुए शहरों में मुंबई ऐसा इकलौता है जिसका बाना अर्द्धपारदर्शी है, जिसके हर दृश्य के पीछे से एक विहंगम इतिहास अपने दोनों हाथों से बुलाकर ख़ुद ओट में छिपता जान पड़ता है, जिसे देखते हुए एक तृष्णा सी गले में चटकती है कुछ अदृष्ट जान लेने और पा लेने की. फिर एक किताब पढ़ी तो यह जाना कि एक आधुनिक शहर में नाकामो-नासाज़ा भटकने की यह आवारगी दरअसल बॉदलेयर, वाल्टर बेंजामिन और मज़ाज से होते हुए हम और हमारे जैसे लोगों तक आ पहुँची है.
और वह किताब है, साल 2023 में प्रकाशित महत्वपूर्ण पुस्तकों में मुझे सबसे पहले याद आने वाली सुपरिचित कवि व आलोचक विजय कुमार जी द्वारा रचित पुस्तक ‘शहर जो खो गया’. इसके बनने की कहानी कुछ यह है कि प्रतिष्ठित समाचारपत्र ‘नवभारत टाइम्स मुंबई’ ने 2017 से अगले तीन वर्षों तक ‘रहगुज़र’ के नाम से एक शोधपरक शहरनामे को एक पाक्षिक कॉलम के रूप में अबाधित प्रकाशित किया था और पिछले वर्ष सेतु प्रकाशन ने इन्हीं आलेखों को पुस्तक के रूप में संकलित किया है. इस तरह उनके ख़ज़ाने में एक ऐसी स्थायी महत्व की किताब शामिल हुई जिसे भारत ही नहीं दुनिया के सबसे जीवंत स्थानों में से एक यानी मुंबई शहर से प्रेम करनेवाले पाठक वर्षों बाद भी खोज- खोजकर पढ़ते रहेंगे. एक कवि, जिसने अपना अब तक का समूचा जीवन इस महानगर को सौंप दिया, जिसने एक पूरे युग को उलट–पुलट होते, बदलते देखा और जिसके पास सशक्त कविता ही नहीं इस शहर की अविराम ताल पर धड़कता हृदय भी है, जब वह वर्षों शोध करके कुछ लिखता है तो ऐसी ही संग्रहणीय रचना बनती है. किसी रचनाकार के सम्पूर्ण रचनाकाल को सार्थक करने के लिए ऐसी एक ही कृति पर्याप्त है.
चूँकि आलेखों को मूलतः एक बड़े समाचार पत्र के पाक्षिक कॉलम के लिए लिखा गया था तो इस बात का प्रभाव पुस्तक की संरचना व प्रकृति पर भी पड़ा. पहला तो लेखक के सम्पूर्ण रचनात्मक- कौशल, अनुभव व सूचना संसार को एक समाचार पत्र के कॉलम की निश्चित शब्द सीमा में समेटने की पूर्वापेक्षा के कारण हर आलेख अपनी संरचना में संतृप्त, गझिन व सुगठित है. अभिव्यक्ति की इस मितव्ययता ने इसे हर आयु, रुचि व व्यवसाय के पाठक के लिए आकर्षक बना दिया है. दूसरे, हर आलेख की तैयारी व लेखन के लिए एक समान यानी एक पक्ष का समय मिलने और पिछले आलेख की सफलता से उत्तरोत्तर अधिक शोध व बेहतर संबद्धता की प्रेरणा मिलते रहने से पुस्तक निरंतर पठनीय बनी रहती है. किसी भी आलेख की सामग्री उबाऊ, अनावश्यक रूप से बढ़ाई गयी या एकाएक समाप्त कर दी गयी प्रतीत नहीं होती जैसा अमूमन शोध आधारित पुस्तकों में देखा जाता है. नवभारत टाइम्स जैसे समाचारपत्र के लिए लिखने का अर्थ एक बड़े, प्रबुद्ध पाठक वर्ग को संबोधित करना भी था, और वहाँ जो स्वीकार्यता मिली उसका आधार आलेखों की समृद्ध सामग्री व सुंदर परिष्कृत गद्य को माना जा सकता है.
कुछ आलेखों में शहर के विभिन्न स्थानों से सम्बद्ध निजी संस्मरण हैं पर यह पूरी तरह एक संस्मरणात्मक पुस्तक नहीं क्योंकि इसकी समय सीमा लेखक का अतीत या जीवन भर नहीं, यह पाठक को बहुत पीछे, जैसे पहली प्रिंटिंग प्रेस के समय तक, यानी सत्रहवीं सदी की मुंबई तक और कहीं- कहीं उससे भी पीछे ले जाती है. सो इसमें इतिहास है पर यह इतिहास की तरह क्रमबद्ध, योजनाबद्ध, औपचारिक भी नहीं. यह तो एक सिद्ध सिटीस्केप है यानी भाषा में शहरी भूदृश्य चित्रण, जहाँ मन चाहा भटक लिए. मैं इसी बिंदु से अपनी बात आगे बढ़ाऊँगी, पर पहले एक छोटे से विरोधाभास का उल्लेख करती हूँ जिससे आपको इस किताब के लेखक, इसकी निर्मिति के पीछे छिपी उनकी आकुलता और जुनून का कुछ परिचय मिलेगा.
किताब के आरंभ में एक छोटा सा चैप्टर है, ‘मंटो की बम्बई’. बकौल विजय कुमार जी, मंटो ने अपने अफ़सानों में बम्बई शहर के एक ख़ास ‘नैरेटिव’ को अमर कर दिया है. (इस आलेख की शुरुआत वे जेम्स जॉयस की एक उक्ति से करते हैं. इस दौरान जेम्स जॉयस मुझे भी निरंतर याद आये, क्योंकि उनके लेखन में भी शहरी भूदृश्य किसी कथानक की पृष्ठभूमि की तरह नहीं बल्कि एक जीवंत व सक्रिय पात्र की तरह शामिल होता है. उनके प्रसिद्ध उपन्यास ‘यूलिसिस’ और ‘डबलिनर्स’ में डबलिन के समाज, संस्कृति और राजनीति की गहरी समझ प्रमुख रूप से उभर कर आती है. ठीक वही जादू मैं यहाँ घटता देखती हूँ. )
तो मंटो, जो अपनी कहानियों में धड़कते शहर से जेम्स जॉयस की याद दिलाते हैं, के बम्बई छोडने के लगभग तीन चौथाई सदी बाद इस पुस्तक के लेखक यानी विजय कुमार जी ने ग्रांट रोड (जहाँ मंटो रहा करते थे) के कुछ मोहल्लों में उन्हें तलाश करने की ठानी. पहले वे ग्रांट रोड में अल्फ्रेड थिएटर के सामने की अरब गली में जाते हैं, कोई कुछ न बता पाता है, चूँकि उस दौर के सब लोग गुज़र चुके हैं. फिर वे भायखला पुल के पास क्लेयर रोड पर साप्ताहिक पत्रिका ‘मुसव्विर’ के ऑफिस को देखने जाते हैं. वे ढूँढ़ते ही रह जाते हैं और वह जगह नहीं मिलती. फिर वे क्लेयर रोड पर ही उस अडेल्फी बिल्डिंग को देखना चाहते हैं जहाँ मंटो अपनी शादी के बाद रहे थे पर वह पुरानी दो मंज़िला लकड़ी की इमारत कब की गायब हो चुकी है और वहाँ ‘खोजा- कंपाउंड’ नाम से एक अभिजात इमारत बन चुकी है. वे जगहें नहीं मिलीं किन्तु वहाँ जाकर उन्हें उन जगहों से जुड़े मंटो के जीवन के प्रकरण व उनके वृत्तान्त याद आते रहे. अंततः वे नागपाड़ा चौराहे पर उस पुराने और मैले ईरानी होटल सारवी रेस्तराँ में कुछ देर के लिए बैठ जाते हैं जहाँ बैठकर मंटो अपने दोस्तों के साथ गपशप किया करते थे. होटल के काउंटर पर बैठे अधेड़ व्यक्ति को भी नहीं पता कि मंटो कौन थे और क्या करते थे. और सहसा तभी वे सोचते हैं कि इस स्मृतिहीन समय में मैं मंटो नामक उस विलक्षण लेखक को कुछ स्थूल क़िस्म की इमारतों, सड़कों और सिंबल तक सीमित किये दे रहा हूँ, जबकि एक लेखक की वास्तविक दुनिया तो उसका बुना हुआ संसार है.
और यही विरोधाभास इस पुस्तक का प्रस्थान बिन्दु है कि एक सिटीस्केप लिखा जा रहा है और शहर के मूर्त, स्थूल स्ट्रक्चर को पीछे छोड़ना है, यानी बात उसकी सड़कों, चौराहों, इमारतों और स्मारकों से कहीं आगे की की जानी है. एक स्थान पर जो है उससे ज़्यादा जो वहाँ था और जो हो सकता था उसकी बात है. यहीं यह तय होता है कि शहर की इमारतें, सड़कें और प्रतीक नष्ट हो सकते हैं, ज़रूरी लोग मर सकते हैं लेकिन उनका गढ़ा, रचा हुआ यह शहर अब भी वही है. इसे लिखा जायेगा. इसी बिन्दु पर इस पुस्तक का भावी स्वरूप तय होता है.
वे कहते हैं, “मंटो कहीं गये नहीं हैं. चालीस के दशक की उनकी उस बम्बई और आज की मुंबई में क्या कोई फ़र्क़ आया है ? यही मंटो की दुनिया है. यही उनका अनूठा ‘सिटीस्केप’ है.” मुझे इस पुस्तक में ये क़िस्से दिखते हैं, ये विवरण दिखते हैं पर इसके अलावा मुझे अतीत का दूर और दूर उड़ता आँचल पकड़ने के लिए किसी का भटकना भी दिखता है, छटपटाहट दिखती है, अपने प्रिय लेखक के जीवन के धुंधले निशान ढूँढ़ते सैकड़ों बेचैन दिन, रातें, हताशा और उदासी दिखती है. और फिर यही प्रश्न, आज साहित्य में कितनी चीज़ें ऐसी जेनुइन व्याकुलता और भटकन से जन्म ले रही हैं?
सिटीस्केप्स की वैश्विक परम्परा में जो सबसे बड़ा नाम सामने आता है वह पिछली सदी के महानतम प्रगतिशील दर्शनिकों में से एक वाल्टर बेंजामिन का है. उनकी प्रमुख कृतियों में से एक ‘द आर्केड्स प्रोजेक्ट’ पेरिस शहर और उसके भूदृश्य की गहन परीक्षा करती है. उनका अपना जन्म और पालन पोषण लगभग 1900 के बर्लिन के धनाढ्य व अभिजात्यपूर्ण माहौल में हुआ था जिसे वे ‘सोशली ज़ोन्ड घेट्टोइज़्ड बर्लिन’ कहते हैं और जिन शहरों ने उन्हें सबसे अधिक आकर्षित किया यानी मार्से, नेपल्स और मॉस्को को वे बर्लिन के एकरस अभिजात का एंटिडोट कहते हैं. बेंजामिन में प्राचीन और कुख्यात शहरों के पुरानेपन, अस्तव्यस्तता, विविधता, विवरणों, गंदगी, बाहरी रोशनी और भीतरी अँधेरों, गरीबी के प्रति अजब आसक्ति थी. वे यह मानते थे कि पूंजीवाद शहरों के नवनिर्माण के वायदे की ओट में उनसे उनका वास्तविक, अस्तव्यस्त किन्तु अधिक जीवंत स्वरूप छीन लेता है. बेंजामिन हमेशा पुराने यूटोपियाओं की ओर आकर्षित होते थे- राज्य कला की पुरानी तकनीक, प्रगति के खंडहर……
मार्से को 1929 में बेसिल वून ने दुनिया का सबसे बुरा बन्दरगाह कहा था. चोरों, हत्यारों, नशेड़ियों और खतरनाक वेश्याओं से भरा वीभत्स शहर कहा था और उसी के लिए बेंजामिन ने कहा , “मार्से फ्रांस नहीं है, मार्से प्रोवेंस नहीं है मार्से दुनिया है.”
मुंबई को जानने वाले हर व्यक्ति के भीतर भी उसका अपना एक मुंबई बसता है, जिसका अपना ही एक शेड है, अपनी ही एक दृश्यावली और यह बात हर शहर पर लागू नहीं होती. यह मायानगरी है, आबोहवा ही कुछ ऐसी है कि जब तक रहिये चारों ओर कुछ अधिक ही भीड़भाड़ महसूस होती है, एक बेचैनी, एक विश्रांति, लेकिन कभी यहाँ कुछ बरस बस कर बाहर निकलना पड़े तो रह- रह कर याद आती है. कहने को शोरोगुल और असह्य भीड़भाड़, उमस, संकरी रिहायशों का पर्याय है यह महानगर तो भी फुटपाथों और ख़स्ता चालों में रहने वाले प्रवासी तक नहीं छोडना चाहते अपने इन छोटे- छोटे जहन्नुमों को. पूछिए तो गर्व से बताएँगे,
“हमारे पिताजी आये थे यहाँ, हम दूसरी पीढ़ी हैं.” कहते न हैं अली सरदार ज़ाफरी , “न जाने क्या कशिश है बंबई तेरी शबिस्तां में कि हम शामे-अवध, सुबहे– बनारस छोड़ आए हैं.”
‘शहर जो खो गया’ पढ़ते हुए यह तो तय होता जाता है, मुंबई भारत नहीं है, मुंबई महाराष्ट्र नहीं है, मुंबई दुनिया है.
विजय कुमार जी कहते हैं इन लोगों ने हमें हमारे शहरों को देखना सिखाया है. यह बड़ी बात है और इसे कार्यान्वित करना दुष्कर. इसीलिए जब- जब हिन्दी साहित्य के सिटीस्केप्स की बात होगी, एक दुर्लभ जगमगाते रत्न की तरह इस पुस्तक को देखा जायेगा.
‘19वीं सदी: एक दृश्यालेख’ नामक आलेख में मुंबई के नगरीकरण के इतिहास को किस्सागोई अंदाज़ में सोपान दर सोपान बताया गया है. एक मामूली बन्दरगाह के ब्रिटिश हुकूमत के दिनों के व्यस्ततम बन्दरगाह बनने और फिर देश की आर्थिक राजधानी और सबसे अधिक जनसंख्या वाले महानगर में तब्दील होने की कहानी बहुत रोचक है. इसे लिखते हुए वे प्रसिद्ध समाज विज्ञानी डॉ मीरा कोसाम्बी को याद करना नहीं भूलते, जिन्होंने मुंबई के नगरीकरण के इतिहास को अपने अध्ययन का विषय बनाया, आजीवन शहरी विकास विषय में शोध- अनुसंधान किया, अपनी गृहस्थी तक न बसाई. ऐसी कितनी ही विदुषी व प्रतिभावान महिलाओं का पुण्य स्मरण बारम्बार इस किताब में किया गया है जिन्होंने इस शहर की विलक्षणता में अपने श्रम व तेज से इजाफा किया है. जैसे शारदा द्विवेदी जिन्हें इस शहर की पहली इतिहासकार कहा जा सकता है और जिन्होंने ‘बॉम्बे: दि सिटी विदिन’ जैसी एक असाधारण पुस्तक लिखी है.
यह वृहत्ताकार पुस्तक चार खंडों में लिखी गयी हैं. ऐसे ‘शहर जो खो गया’ केवल इस महानगर के इतिहास को ही नहीं महानगर को लिखने वाले लोगों को भी लगातार खोजती, पढ़ती और दर्ज़ करती चलती है. उदाहरणस्वरूप इन दोनों के अतिरिक्त सुकेतु मेहता की 2005 में प्रकाशित पुस्तक ‘मेक्सिमम सिटी : बॉम्बे लॉस्ट एंड फाउंड’ को पुस्तक का एक पूरा अध्याय समर्पित किया गया है. बचपन व किशोरावस्था में मुंबई में रह चुके सुकेतु मेहता अब न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी में पत्रकारिता के प्रोफेसर हैं. इसके अतिरिक्त विजय जी जे वी नायक, कैवान मेहता, नीरा अडारकर, राहुल महरोत्रा, ज्ञान प्रकाश इत्यादि को भी उनके मुंबई पर शोधपरक लेखन के लिए रेखांकित करते हैं. वे उन सभी साहित्यकारों को याद करते हैं जिन्होंने अपनी उपस्थिति से इस महानगर को समृद्ध किया है या जिनके लेखन में यह शहर एक चरित्र बनकर रहा. अरुण कोलटकर, ख़्वाज़ा अहमद अब्बास, किरण नगरकर, कृश्न चंदर, राजेंद्र सिंह बेदी, कुर्तलुन एन हैदर, इस्मत चुग़ताई जैसे विश्वस्तर के मुंबईकर साहित्यकारों के ज़िक्र के साथ वे ‘खेतवाड़ी कम्यून’ के दिनों का बहुत रोचक विवरण प्रस्तुत करते हैं. 1943 के लगभग कलाकारों व लेखकों के सह- जीवन की यह अवधारणा कार्यान्वित की गयी. उद्देश्य था कि वामपंथी लेखक – कलाकार एकजुट होकर जनमानस में एक सामाजिक यथार्थ की चेतना फैलायें .
बंबई शहर के हिन्दी परिदृश्य में साठ के दशक के उत्तरार्ध को उन्होंने विशेष तौर पर रेखांकित किया है. एक आलेख में जगदंबा प्रसाद दीक्षित, देवेश ठाकुर, जितेंद्र भाटिया, सुदीप, निरूपमा सेवती, राम अरोड़ा, वेद राही, सतीश वर्मा, सुधा अरोड़ा, साजिद रशीद, कुंतल कुमार जैन, विश्वनाथ सचदेव और अक्षय जैन जैसे लोग एक खास तरह की संवादधर्मिता, एक खास ऊष्मा और जीवंतता से भरे प्रस्तुत होते हैं.
बर्टन पाइक (1981) साहित्य में प्रस्तुत शहरी भूदृश्यचित्रण (सिटीस्केप) को ‘शब्द– नगर’ भी कहते हैं, एक ऐसा शब्द- नगर जो न केवल छवियों के माध्यम से उस शहर के स्थानिक महत्व को उजागर करता है बल्कि उसके निवासियों के सामाजिक मनोविज्ञान को भी व्यक्त करता है . 99 आलेखों से समृद्ध इस शहरनामे में मुंबई महानगर का रंगीन इतिहास ही नहीं समेटा गया है, विशुद्ध शोधपरक रीति से इतिहास के मलबे में दब चुके स्थानों की, संस्थाओं की, संस्थानों की, उद्योगों की, कम्यूनिटीज़ की लोमहर्षक व सजीव गाथाएँ भी प्रस्तुत की गयी हैं. इसे पढ़ना यह जानना भी है कि मुंबई यूँ ही भारत का पहला आधुनिक और सर्वाधिक नवोन्मेषिक शहर नहीं कहा गया है, कि दुनिया इतने- इतने पहले भी इसको रश्क़ से निहारा करती थी. यानी उन सब विस्मृत चीज़ों को दर्ज़ किया गया है जिन्होंने मुंबई को मुंबई बनाया. भले ही वे यहूदी फिल्म कलाकार हों, पारसी उद्योगपति, गुजरात और कच्छ से आ बसे खोजा शिया या तालाबंद कपड़ा मिलें. कथेतर गद्य श्रेणी की होते हुए भी यह पुस्तक किसी रोमांचकारी फिक्शन से कम पठनीय नहीं है. ये आलेख कंक्रीट और इस्पात से बने शहर के गौरवशाली विगत के मार्मिक आख्यान ही नहीं हैं, इनमें हाड़ माँस के लोग हैं, उनका उत्साह है, विषाद है, हताशा है, निर्माण है, विनाश है और दमन से जन्मा प्रतिरोध भी है. उदाहरणस्वरूप, पृष्ठ 59 पर ‘घिरे हुए लोग’ शीर्षक से आलेख में वे सन् 1896 में फैली प्लेग महामारी के त्रासद वृत्तान्त ( जनता की दुर्दशा, लाखों की संख्या में मृत्यु, ब्रितानी राज की ज़्यादतियाँ और फिर जनता के प्रतिरोध) को लिखते हुए आलेख के उपसंहार में कहते हैं,
“यह सब शहर में सिर्फ एक महामारी के फैलने का ‘नैरेटिव’ ही नहीं यह इतिहास की किसी ख़ास परिस्थिति में एक सभ्यता के जातीय संस्कारों और जीवन विश्वासों का अपने ऊपर थोपे गये एक बाहरी और निर्वैयक्तिक क़िस्म के प्रशासनिक ढाँचे से टकराव का आख्यान है. यह आख्यान वर्चस्व की मानसिकता से जन्मी हिकारत, दमन, बेरुख़ी और ‘अन्य’ की अवधारणा से घिरे हुए ‘नेटिव’ लोगों के आत्मसम्मान के टकराव का भी है. और यह उपनिवेश में आधुनिक संरचना, लाभ व मुनाफ़े की दुनिया से सस्ते श्रम, विस्थापन, अँधेरे तलघरों, नियतिवाद और सामुदायिक जीवन के नरक के टकराव का आख्यान भी है.”
यानी यहाँ उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में प्रकोप फैलाने वाली महामारी का ऐसा राजनीतिक, सामाजिक, कूटनीतिक विश्लेषण किया गया है जो इसे वर्तमान परिदृश्य में भी प्रासंगिक व अर्थपूर्ण बनाता है. ऐसा बहुपरतीय ट्रीटमेंट वे अपने लगभग हर आलेख की विषयवस्तु को देते हैं. यह किताब शहर के हर स्थान को कम से कम तीन या उससे अधिक तरह से खोलती चलती है, प्रथमतः, उसके बाहरी स्वरूप और वर्तमान स्थिति का और फिर उसके इतिहास और इतिहास से जुड़े लोगों का बखान करती है और अंत में एक विश्वसनीय व काव्यात्मक मार्मिकता से पाठकों को बाँध लेती है. उदाहरणस्वरूप, कुर्ला उपनगर में स्थित ‘कसाईबाड़ा’ के बहाने वे अभी हाल ही में स्वर्गवासी हुए उर्दू के प्रतिष्ठित कथाकार सलाम बिन रज़ाक के विशद साहित्यिक जीवन को प्रस्तुत करते हैं. यहाँ कसाईबाड़ा जैसे एक अनदेखे संसार के अवरोधों, विवशताओं और संकीर्णताओं का मेटाफर हो गया है. 1980 के बाद हवाओं में घुली फ़िरकापरस्ती और 1990 के बाद अल्पसंख्यक आबादियों के ‘घेट्टो’ में बदलते चले जाने की विडम्बनाएँ इस आलेख को और भी महत्वपूर्ण बना देती हैं. यह किताब अपने हृदय में विलुप्त संस्थाओं, युगों और संस्कृतियों की ऐसी अनगिनत शोकांतिकाएँ समेटे हुए है.
एक ही किताब में एक महानगर का पूरा तिलिस्म, इतिहास, वैभव और गलाज़त, संघर्ष, उद्भव और पराभव समेटना आसान नहीं रहा होगा. यहाँ चर्चगेट की छोटी सी सादा इमारत के खो जाने की उदासी है, ब्यूक और ऑस्टिन मॉडेल की टैक्सियों, ट्रामों, नीली वर्दी और हाफ पैंट पहने हुए हवलदारों और विक्टोरिया की सवारी के चलन से बाहर हो जाने, स्वर्णिम जादुई अतीत के मंदिर सिनेमाघरों और सिनेमा स्टुडियो, एशियाटिक ईरानी रेस्तराँ और लोअर परेल की फीनिक्स मिल के बंद हो जाने पर ठगे से रह जाने का भाव है, सड़कों पर पैदल चलने की जगह व परम्परा के क्षय का शोक है. यह नीरस अकादमिक विवरणों से सजा एक शोधग्रंथ नहीं, एक किताब भर नहीं, एक कवि का टूटता सपना है .
सपने का टूटना बार- बार कई शक्लों में घटता दिखता है. ‘चप्पे- चप्पे पर इतिहास’ में वे अलग- अलग समयों में ख्याति के शिखर पर बैठी तीन स्त्रियों के जीवन के माध्यम से ख्याति के नेपथ्य का अद्भुत मेटाफर रचते हैं. चाहे वह तीन शताब्दी पहले अपने से बीस साल बड़े पति के नीरस व संतप्त दाम्पत्य से भाग निकलने वाली बंबई की ईस्ट इंडिया कंपनी के सबसे वरिष्ठ अफसर डेनियल ड्रेपर की पत्नी एलीज़ाबेथ हो या बड़ी बहन की असामयिक मृत्यु के बाद उसके बच्चों की ख़ातिर जीजा से बेमेल विवाह कर घुट- घुट कर नष्ट हो जाने वाली एक समय की मशहूर अभिनेत्री कामिनी कौशल या विवाह और प्रेम के नाम पर ठगी गयी व अंततः शराब के लावे में झुलस मरने वाली अप्रतिम मीना . मज़गांव के चप्पे- चप्पे पर अपने समय से बहुत आगे चल रही इन स्त्रियों के उत्कर्ष व निजी जीवन में पराभव का इतिहास बिखरा पड़ा है. पुस्तक का यह हिस्सा पढ़ते हुए महसूस होता है जैसे, बारिश बस अभी रुकी है और हम खोजा शिया अंसारी क़ब्रिस्तान में मीना कुमारी की मज़ार पर ज़रा देर को रुके हैं.
एक और सपने का टूटना; यानी ‘बंद होना शहर के एक पुराने सिनेमाघर का’ (पृष्ठ 344) में वे लिखते हैं,
“यह मल्टीप्लेक्स का समय है. और सिंगल स्क्रीन थिएटर हॉल जैसे कि सभ्यता के इतिहास में विलुप्त होती कुछ प्रजातियों की तरह हैं ……शहर वह शहर नहीं अब. बदलाव सिर्फ़ सड़कों, इमारतों, भूदृश्यों, नागरिक जीवन, समाज शास्त्र, टेक्नोलॉजी, संचार, आजीविका, रहन- सहन, पहरावे, खान -पान और अवकाश के ढांचों में ही घटित नहीं हो रहा वह और भी महीन स्तरों पर गया है. उसने सामूहिक मनोरंजन के हमारे स्पेस को बदला है.”
इन सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों के एक- एक कर बंद होते जाने से ‘बॉम्बेवासियों’ के अतीत का एक बहुत उजला और रंगीन पक्ष विस्मृति के ब्लैकहोल में समा गया. इनके साथ दृश्यों और स्मृतियों कि एक समूची दुनिया समाप्त हो गयी. किन्तु यह दुनिया जो अपने नदियों, पहाड़ों और पेड़ों को नष्ट करके भी लज्जित नहीं होती संस्कृति, स्मृतियों और परम्पराओं का नष्ट होना उसके लिए भला कितना मायने रख सकता है?
तो यह दुनिया ही नहीं बदल रही है, हमारी प्रत्येक कोशिका तक कुछ -कुछ अंतराल पर नयी होती जाती है लेकिन पिछली एक सदी में मुंबई में जो बहुस्तरीय बदलाव हुए वे अतुलनीय हैं. यह भी कह सकते हैं कि इस शहर के पास खोने के लिए इतना अधिक था कि खोना लाज़मी था. देश की सबसे अमीर महानगरपालिका वाला यह शहर दरिद्र तो कभी किसी मायने में न था किन्तु इसके जैसा जुनून, इसके जैसी सांस्कृतिक और कलात्मक समृद्धि, इसके जैसा इतिहास और स्थापत्य, इसके जैसा संघर्ष और आरोह और कहाँ था?
मुंबई की स्थानीय राजनीति सदा से वेगवान व जीवंत रही है, रक्तरंजित भी. इस महानगर के मुद्दे अनन्यतः इसके ही रहे, देश भर से भिन्न. जैसे पिछली सदी के दौरान यह शहर अपनी तमाम कपड़ा मिलों पर ताला लगने की त्रासदी का मूक साक्षी रहा है. विभिन्न राजनीतिक पार्टियों से समर्थित ट्रेड यूनियनों की आपसी उठा पटक, हड़तालों, मिल मालिकों के अड़ियल रवैये के चलते लाखों श्रमिक बेरोजगार व बेघरबार हो गए. इस पुस्तक के एक पूरे आलेख में उस त्रासद समय का मार्मिक आख्यान है. दक्षिण मुंबई में पुरानी मिलों के ढाँचे अतीत के प्रेतों की तरह अब भी खड़े हैं किन्तु आधुनिक मॉल, बाज़ारों और रिहायशी इमारतों के बीचोबीच, अवांछित से. वे लिखते हैं,
“हमारे इस स्मृतिविहीन समय का मूल चरित्र है कि चीजों को उनके मूल अर्थ से विच्छिन्न कर उन्हें एक तमाशे में बदल दिया जाता है.”
जैसे इन बंद मिलों की इमारतों के अवशेष और अटपटे स्थानों पर लगी इनकी चिमनियाँ इस समय का विद्रूप रचती प्रतीत होती हैं. पुस्तक में ऐसे सभी विषय पर्याप्त राजनीतिक विवेक व संवेदनशीलता के साथ बरते गए हैं.
ये कपड़ा मिलें जब 19वीं और 20वीं सदी में स्थापित हो रही थीं तो श्रमिकों की रिहायश के लिए उन्हीं के आसपास सरकारी व निजी ज़मीनों पर ‘चालें’ खड़ी की गईं. मुंबई अपनी इन ‘चालों’ और ‘खोलियों’ के उल्लेख के बिना अधूरी है. ये चालें मुंबई की सांस्कृतिक पहचान का एक महत्वपूर्ण अंग हैं. ‘चाल में जीवन की महागाथा’ (पृष्ठ 110) आलेख में वे सिनेमा में इनकी उपस्थिति से लेकर इनके स्थापत्य, इनकी इकोनॉमी और शहर में इनके इतिहास जैसे तमाम पक्षों पर प्रकाश डालते हैं. वे लिखते हैं कि ये चालें औद्योगीकरण और शहरीकरण का ‘बाई प्रॉडक्ट’ थीं. इन्हीं चालों के सामुदायिक जीवन में मजदूर चेतना विकसित हुई, इन्हीं में एक समय का स्वप्न था और राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आंदोलन की सरगर्मी ग्रास रूट तक गयी. आलेख क्या है जैसे तमाम चालों का जीवन, भीतरी दृश्य, साज- सामान, निजता और सामाजिकता को एक बड़े कैनवस पर उतार दिया है. यहाँ मैं यह जोड़ना चाहूंगी कि लगभग पूरी पुस्तक ही ऐसी विवरण -प्रधान शैली में लिखी गयी है कि पाठक का ध्यान व रुचि भंग नहीं होता.
2014 से 2020 तक मैं सप्ताह में तीन बार प्रबंधन कक्षाओं में पढ़ाने के लिए अंधेरी ईस्ट (जेवीएलआर) से चूनाभट्टी आया- जाया करती थी. बीकेसी पार करते ही एक बड़े नाले के पुल से गुजरना होता था. चालक महोदय उस पुल के आने से बहुत पहले से एहतियातन गाड़ी के शीशे बंद कर रखते फिर भी दुर्गंध भीतर घुस ही आती. नीचे देखने पर बहुत बड़ा गहरा काला नाला दिखता. एक दिन मैंने कहीं पढ़ा कि इस शहर में एक ‘मीठी नदी’ भी है. पूछने पर उन्होंने बताया, “यही है!” एक क्षण को सन्न रह गयी, मीठी कहाँ, काली नदी! जब विजय कुमार जी, पृष्ठ 92 पर लिखते हैं,
“बांद्रा -कुर्ला कॉम्प्लेक्स की शानदार, भव्य, आक्रामक, अति आधुनिक इमारतों के वैभव के पिछवाड़े यह नदी किसी शोकगीत की तरह बह रही है – क्लांत, घिरी हुई, खामोश, रुग्ण, जर्जर और बिसूरती हुई. लगता है जैसे एक शापग्रस्त नदी अपने स्याह जल में आधुनिक सभ्यता के अक्षम्य अपराधों की भुतैली परछाइयों को ढो रही है.”
(एक नदी की मौत, पृष्ठ 92)
तो मुझे अनायास वह उदास सुबह याद आ जाती है जब मैंने एक मीठी नदी को काली कह दिया था.
इस आलेख में वे विस्तार से मीठी नदी के साथ उद्योगपतियों, सत्ता व जनता द्वारा किए गए अनाचार का उल्लेख करते हैं, “लेकिन इन बस्तियों के पिछवाड़े इस नदी में 43 बड़े–बड़े गटरों की गंदगी गिरती रही .” फिर 2005 में नदी का हत्यारा प्रतिशोध, इसके पुनरुद्धार के संकल्प किन्तु आज भी यथास्थिति. यह बस एक उदाहरण है कि कैसे यह किताब हम जैसे नये नगरवासियों की अव्यक्त जिज्ञासाओं के प्रामाणिक उत्तर उपलब्ध कराती है.
वे एक जगह लिखते हैं
“हम पर्यटक नहीं हैं, इस विराट सामूहिकता के इन लीलास्थलों में खुद को खो देना चाहते हैं.”
वे वाल्टर बेंजामिन की इस बात को भी कुछ एक बार दोहराते हैं कि कोई चेहरा इतना अतियथार्थवादी नहीं होता जितना कि एक शहर का चेहरा. दोनों बातों को एक साथ पढ़ें तो भाषा में एक निर्दोष सिटीस्केप आकार लेता है. वह भी कुछ दिनों के लिए घूमने आये पर्यटक की तूलिका से नहीं एक स्थायी निवासी की जीवन दृष्टि से उकेरा गया. ऐसा सिटीस्केप जिसमें सब यथार्थ और खरा है, जिसे रूमानियत के फूहड़ रंगों से चमका नहीं दिया गया है. .पृष्ठ 19 (एक ग़रीब बस्ती में घुमक्कड़ी) का यह दृश्यचित्र लौट-लौट कर पढ़ने जैसा विलक्षण है, ‘मैं धारावी के नाइक नगर, संगम गली, कुंची कोरवे नगर, धोबी घाट, माकड़ा बाज़ार, टेकड़ा मस्जिद, लेबर कैंप, चमड़ा बाज़ार और कुम्भारवाड़ा की गलियों में नाशाद-ओ- नाक़ारा भटक रहा हूँ. ये पतली–पतली गलियाँ आपको बुलाती हैं. हर जगह दृश्य अबूझ रहस्यों की तरह खुलते हैं. अतिसाधरण दैनिक जीवन का एक आश्चर्यलोक. बकरियाँ, मुर्गियाँ, आवारा कुत्ते, स्कूटर , साइकिलें, ठेलेवाले, मोबाइल और स्टोव रिपेयरिंग शॉप, कल- पुर्जों के वर्कशॉप, किराने और गोश्त की दुकानें. छोटे छोटे कुटीर उद्योग. हर कोई किसी गतिविधि में मुब्तिला है.
मैं कामराज नाडार मेमोरियल इंगलिश हाईस्कूल के सामने खड़ा हूँ. तंग गलियों से छोटे- छोटे हँसते- खेलते बच्चे बस्ता लटकाये स्कूल जाने के लिए निकल रहे हैं . सुबह की सुहानी धूप के बावजूद इन तंग गलियों में एक सलेटी सा अँधेरा है . हर जगह पलस्तर उखड़ी दीवारों से झाँकती ईंटों और टिन की छतों वाले एकमंज़िला या दुमंज़िला मकान हैं. आँगन में रखे हुए पानी के पीपे और तार पर सूखते हुए कपड़े . लोहे के बहुत सँकरे ज़ीने और दीवारों से लटकते हुए केबल नेटवर्क के तार. हर घर में रेडियो पर कोई फ़िल्मी गाना बज रहा है या टीवी पर कोई मधुर दृश्य चल रहा है. दरवाजों पर गेहूँ बीनती हुई स्त्रियाँ हैं.
किसी स्लम बस्ती को महज कीचड़, खुले गटर, बदबू और कूड़े का पर्याय मानने वालों को देखना होगा कि इस गंदगी के बीच भी स्पंदित एक सामूहिक मानव जीवन की अनोखी लय है.” यह शब्द नगर पढ़ते हुए मुझे शौकिया फ़ाइन आर्ट की क्लास में मेरे साथ चित्रकारी सीखने वाला हमउम्र आईआईटी का छात्र याद आता है . वह पेंटिंग बनाने के लिए बारीक विवरण वाले चित्र चुनता, घने बाज़ारों, गलियों, मुहल्लों के चित्र. फिर कैनवस के एक कोने से ज़ीरो नंबर के ब्रश से उन्हें उकेरना शुरू करता और धीरे धीरे पूरा कैनवस भर देता. छोटा से छोटा विवरण उसकी आँख से न चूकता, बिलकुल वही माइन्यूट डीटेलिंग मैं ऊपर दिये शब्दचित्र में और इस किताब में जगह- जगह देखती हूँ . खण्डहर होती एक दीवार पर उगते छोटे से पीपल में भी जो जीवट और जिजीविषा देख ले उस कवि का लिखा पढ़ रहे हैं हम .
उनके ये विवरण, जैसे 35 एमएम सेल्यूलाइड पर्दे पर देव आनंद, अमोल पालेकर या नसीरुद्दीन शाह द्वारा अभिनीत कोई फिल्म. यह एक दृश्य को केवल साक्षी भाव से जस का तस उतार देने का हुनर भर नहीं, एक विशेष मानसिक प्रोसेसिंग के बाद प्रस्तुत करने की बारीकी है, पाठक को शब्द- शब्द से बांधे रखती है. तो जैसे वे जगह- जगह मुंबई के बहुत पुराने और सुपरिचित लोकेल के जीवंत दृश्यचित्र खींचते चलते हैं, वैसा ही उन्होंने पुस्तक का आवरण चित्र चुना है. यह चित्र मुंबई के प्रख्यात चित्रकार सुधीर पटवर्धन की एक पेंटिंग है.
जैसा पहले भी कहा है कि यह किताब मुझे जेम्स जॉयस की विश्वविख्यात कृति ‘डबलिनर्स’ की याद दिलाती है. हालाँकि वह एक कहानी संग्रह है परंतु जीवंत सिटीस्केप दोनों किताबों की संयुक्त विशेषता है. ‘डबलिनर्स’ की कहानियों में आयरलैंड की राजधानी डबलिन मात्र एक सेटिंग के रूप में ही उपस्थित नहीं है बल्कि वह उन कहानियों का केन्द्रीय तत्व भी है और संग्रह की मुख्य छवि भी . यहाँ भी एक शहर के बहाने धारावी के आसन्न विलोपन की ख़बर, सड़कों पर पैदल चलने की सभ्यता का अंत, विद्याधर दाते और विष्णु खरे के बाद उनकी रीत पर लिखनेवाले युग की समाप्ति का अंदेशा, मंटो के जाने से कहीं अधिक उनके सिसकते हुए तलघर जैसे शहर के चले जाने का दुःख, पचास के दशक के मराठी नाटक की याद, ख्वाजा अहमद अब्बास का समय , किंग्ज सर्किल पर पुरानी किताबों के विक्रेता धर्मेश भाई के यहाँ ‘सेज़ायर पावैज़े के आत्महत्या से ठीक पहले लिखे गए पत्रों की दुर्लभ किताब का मिलना और उसके बहाने एक कवि के अकेलेपन और अवसाद, मानसिक निर्वासन, मुसोलिनी के फासीवाद और असफल प्रेम पर अनोखी चर्चा जैसे कितने ही वृत्तान्त हैं जो मुंबई ही नहीं समूचे देश के राजनीतिक व सामाजिक बदलाव के साक्षी हैं. हर पृष्ठ पर एक रोमांचकारी दुनिया, अनचीन्हा संसार बिखरा है. जैसे एक अविस्मरणीय यशस्वी अतीत से समृद्ध शहर का अनौपचारिक एनसाइक्लोपीडिया.
किताब की भाषा और शैली में एक विलक्षण युवा ऊर्जा अनुभूत होती है. भले ही यह एक शहर की अनुपम विरासत के नष्ट होने पर खेद प्रकट करती जाती है, भले ही उसके बदलते जाने पर क्षुब्ध होती जाती है, कहीं भी निराश व हताश नहीं होती. वयोवृद्ध साहित्यकार डॉ रामदास भटकल को उद्धृत करते हुए वे लिखते हैं, “मुड़कर देखना हमेशा अतीतजीवी होना नहीं है, बल्कि अपनी उन जड़ों को पहचानना भी है जिन पर हमारी आज की अनेक उपलब्धियाँ खड़ी हैं.” और फिर रोचक तथ्यों के साथ, विवरणों के साथ, उद्धरणों के साथ स्थापित करते हैं कि शहरों की विरासत व आधारभूत प्रकृति से छेड़छाड़ अधिक हो तो वे बसने योग्य नहीं रह जाते, पर उनसे प्रेम कम नहीं होता.
भाषा एक बहुत समर्थ कवि की है और यह बात बराबर याद आती रहती है. समृद्ध करने वाली चढ़ी नदी सी वेगवान, भरीपूरी भाषा. यह उनकी निजी शैली है कि वे एक अनुभूति को अभिव्यक्त करने के लिए अनेक शब्दों, विशेषणों और शब्द समुच्चयों का प्रयोग करते हैं. कुछ प्रयोग तो इतने नवोन्मेषी हैं कि पढ़कर एक विस्मय भरा सुख होता है. पृष्ठ 281 पर ‘प्रेत बोलते हैं’ नामक आलेख में वे पचास व साठ के दशकों में भायखला के पास अवामी इदारा के कम्पाउण्ड में होने वाले जलसों और असफल कामगार आंदोलनों का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं,
“इतिहास की किताबें हमेशा विजेताओं ने लिखी हैं. खंडित और अधूरे सपनों का क्या होता है कोई नहीं बताता. पीछे मुड़कर देखो तो जैसे अधूरी क्रांतियाँ और टूटे हुए सपने चारों तरफ़ बिखरे हुए नज़र आते हैं. क्या अतीत का कोई देश होता है? या वह सिर्फ़ हमारी स्मृतियों में बसा होता है.”
उनकी भाषा जैसे काँच की वह मजबूत परत है जो अपने भीतर के भाव सी ही दिखती है उसका अपने जैसे बने रहने का कोई हठ, कोई आग्रह नहीं है .
470 पृष्ठों की इस हृष्टपुष्ट किताब को मात्र इसकी अभिव्यक्ति की कसावट और सफ़ाई के लिए भी पढ़ा जा सकता है. अभिव्यक्ति ऐसी कि आधुनिकीकरण और वैश्वीकरण के नाम पर बदलती अपनी दुनिया के झन्न’ से टूट कर बिखरने की पूरी आवाज़ आप इसकी मार्मिकता में सुन लेंगे. फोर्ट इलाक़े में गौथिक शैली की डेढ़ सौ वर्ष पुरानी विशालकाय इमारतों के अस्तित्व पर मेट्रो परियोजना से उत्पन्न ख़तरे को वे ‘एक इलाक़ा हज़ार रंगों में’ बहुत अच्छे से दर्ज़ करते हैं. किताब के इन आलेखों को पढ़ना अपने आसपास की साधारण चीजों के खोते जाने के शोक को समझना है. इसे पढ़ना वयोवृद्ध मुंबई के मुख से उसके निर्माण, उत्थान और ध्वंस की गाथा को सुनना है. किन्तु बहुत अभ्यास से साधी गयी है असंपृक्त रहकर क्षति के ब्यौरे लिखने की एक कला, बिलकुल उस पानी की तरह, जो जानता है हाथ छोड़कर आँख में बने रहने की रीत.
‘रायबा का अकेलापन ‘(पृष्ठ 114) नामक आलेख में वे मुंबई के इस प्रख्यात चित्रकार के बहाने ऊपर से गंभीर व सरल दिखती प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप की दुनिया की जोड़-तोड़ व चपलता की बखिया उधेड़ते हैं और इस बहाने शहर की कीर्ति में चार चंद लगानेवाले मक़बूल फ़िदा हुसैन, सैयद हैदर रज़ा, फ्रांसिस न्यूटन सूजा, अकबर पदमसी, तैयब मेहता का उल्लेख भी किया गया है. इस आलेख में यदि उन्होंने रायबा की जीवनी भर लिखी होती या मुंबई के होने में रायबा के अवदान की चर्चा भर की होती तो यह किसी भी और इतिहासपरक शहरनामे जैसा हो जाता लेकिन जब वे लिखते हैं कि
“रायबा जैसे सीधे-सरल और अंतर्मुखी स्वभाव के आदमी के लिए उस दुनिया से अपना तालमेल बैठा पाना कठिन था……वे निरंतर एकाकी होते गये और गुमनामी के अँधेरे में खो गये”
तो यह एक सांस्कृतिक शहर, जो अपने साहित्यिक और कला रुझान के लिए ख्यात है के निर्मम हृदय को अनावृत्त करने जैसा है. तो यह इस महानगर की प्रशस्ति नहीं उसकी प्रकृति को कहना है.
‘अफ़ीम का धंधा और शहर की रौनक’ (पृष्ठ 54) में वे लिखते हैं,
“शहर किस तरह से जन्म लेते हैं, और कैसे विकसित होते जाते हैं इसकी कोई जन्मकुंडली कभी लिखी नहीं जाती. सिर्फ़ एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में उनके ख़ास अंतर्विरोधों और विडंबनाओं की शिनाख़्त हो सकती है.”
वे लिखते हैं कि आधुनिक मुंबई शहर की नींव दरअसल 19वीं सदी के आरंभ में, पारसी, मारवाड़ी, गुजराती और मुसलमानों द्वारा अफ़ीम के अनैतिक धंधे में कमाई गयी अकूत सम्पदा से रखी गयी. दक्षिण मुंबई में जगह -जगह बने पारसियों के बुतों को देखते हुए उन्हें स्वार्थ, उद्यमशीलता और परोपकार के आपस में उलझे हुए इतिहास के कुछ सबसे दिलचस्प सूत्र मिलते हैं. विडम्बना यह है कि मुंबई के सबसे बड़े दानवीर जैसे जमशेदजी जीजीभौय, कावसजी जहांगीर, जमशेदजी नौसेरवान टाटा सबने अफीम के धंधे में अकूत सम्पदा कमाई और उसी से इस शहर का विकास व नगरीकरण किया गया. देश भर में ख्यात कॉलेज, यूनिवर्सिटी, अस्पताल, गौथिक शैली की इमारतें व सभागार, शिक्षण संस्थान व बड़े उद्योग समूह इसी धन से स्थापित किए गए.
मुंबई जितना पारसियों का है उतना ही पारसी थिएटर का भी है. 1846 में जगन्नाथ शंकरशेठ ने ग्रांट रोड थिएटर निर्मित कराया था जिसमें 1853 में पहली पारसी थिएटर कंपनी का जन्म हुआ. इस लगभग पौने पाँच पृष्ठ के आलेख यानी ‘ग्रांट रोड में पारसी थिएटर’ में वे पारसी थिएटर के सुदीर्घ समृद्ध इतिहास के ब्यौरे देने के बहाने आज से 137 साल पहले के स्थानीय माहौल का सजीव चित्रण करते हैं और उस ज़माने में भी राष्ट्र -प्रेम, विधवा -विवाह, स्त्री शिक्षा, बहुविवाह, छुआछूत, मदिरा की लत जैसी विषय- वस्तु पर नाटक किए जाने जैसे क्रांतिकारी कदम को रेखांकित करते हैं. यह आलेख इतिहास के बहाने उस समय के शहर की आबोहवा की बहुसांस्कृतिक व धर्मनिरपेक्ष बुनावट को भी बताता जाता है. पुस्तक की सर्वाधिक रेखांकित करने योग्य विशेषता यह है कि यह पुस्तक एक स्कूली किशोर को भी उतना ही आनंदित व समृद्ध करेगी जितना किसी प्रबुद्ध साहित्यकार को.
मुझे लगता है, कुछ किताबें ऐसी होती हैं जिन्हें तमाम संदर्भ सामग्री उपलब्ध होने पर भी उस तरह बस एक ही व्यक्ति लिख सकता है, ‘शहर जो खो गया ‘ ऐसी ही एक किताब है. हालाँकि, यह बात लिखते- लिखते मुझे अपवादस्वरूप स्वर्गीय विष्णु खरे याद आये, उनका मुंबई प्रेम और उनके नियमित स्तम्भ याद आये, पर नहीं, वे भी नहीं. यह किताब लिखने के लिए, इस शहर में बचपन, किशोरावस्था और युवावस्था बिताना एक अनिवार्य शर्त थी, वह व्यक्ति होना भी जो अंधाधुंध विकास के नाम पर यहाँ की अतुलनीय सांस्कृतिक विरासत से खिलवाड़ व इसके अप्रतिम दृश्यों को रौंदते जाने के पागलपन का निरंतर साक्षी रहा हो, और वह, जिसकी रगों में इस समुद्री शहर की नमकीन हवा बहती हो.
हम मझोले शहरों में पले-बढ़े लोग एक ठेठ मुंबई के छोरे की दृष्टि से उसे नहीं देख सकते हैं, जो कुछ भी हमारे लिए आकर्षक व रूमानी है उसके लिए वह सब क्षति और लोप के चिन्ह . हम रीगल सिनेमा के बंद होने की खबर पर बस उसाँस भरेंगे पर उसे याद आयेगा कि इस सिनेमा ने उसे पहली बार हॉलीवुड से परिचित कराया था. जिस नौस्टेल्जिया, हाथ से फिसलती रेत से अवसाद को एक मीठी ख़लिश के साथ इस किताब की हर पंक्ति में पढ़ा जा सकता है, वैसा खुद लिखना असंभव है. मसलन, आज तेज़ाब, रसायन, लोहा–लंगर, जैविक उच्छिष्ट, कचरे की सड़ान्ध से पटी हुई ‘मीठी नदी’ के विषय में लिखी हुई उनकी एक मार्मिक पंक्ति है ,
“मैंने इस नदी को बचपन से देखा है. उस नदी के एक पुराने अल्हड़ रूप की कुछ स्मृतियाँ अब भी मेरे भीतर बची हुई हैं.”
(एक नदी की मौत, पृष्ठ 92)
जैसे जेम्स जॉयस और वाल्टर बेंजामिन के अतिरिक्त, चार्ल्स डिकेंस ने ओलिवर ट्विस्ट, ब्लेक हाउस, और ए टेल ऑफ टू सिटीज़ में विक्टोरियन लंदन को; प्रूस्त ने इन सर्च ऑफ लॉस्ट टाइम में पेरिस को; वर्जीनिया वूल्फ़ ने टू द लाइटहाउस और मिसेज़ डैलोवे में लंदन को; दोस्तोयेवस्की ने क्राइम एंड पनिशमेंट में सेंट पीटर्सबर्ग को और पॉल ऑस्टर ने द न्यूयॉर्क ट्रिलॉजी में न्यूयॉर्क को अविस्मरणीय बना दिया था , ‘शहर जो खो गया’ ने भी मुंबई शहर के लगातार विलुप्त होते विविधवर्णी अतीत को अभिलेखित कर अविस्मरणीय कर दिया है. लगता है जब तक यह किताब है मुंबई भी बना रहेगा.
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अनुराधा सिंह
‘ईश्वर नहीं नींद चाहिए’ और उत्सव का पुष्प नहीं हूँ (कविता संग्रह) तथा ल्हासा का लहू और बचा रहे स्पर्श आदि पुस्तकें प्रकाशित. |
leeladharmandloi@gmail.com
किताब को पढ़ने और लिखने से अधिक जीने की जिजीविषा जैसी अनुभूति वाली समीक्षा का उदाहरण।
एक शहर में सभ्यता से गुफ़्तगू।एक परवाज़ को सुर में
पकड़ने का तसव्वुर । कुछ रोयें ,कुछ रेशों की नमी।दृश्यों
के अदृश्य में उतरने की सलाहियत।एक कविता को गद्य में
देखने की बैचेनी।किताब के दरवाज़े को खोलने की ललक।
एक सीमा में बुनने की प्रविधि।रुढ़िगत कहन से अलग कुछ।
किताब का कमाल है।कई शेड्स में मुंबई किताब से पुकारती रहेगी।मैंने भी एक अलग सी कोशिश की थी।
जितनी सुंदर यह पुस्तक है अनुराधा जी ने उसकी समीक्षा को भी उसी स्तर पर जाकर रचा है ,उसकी आत्मा के रेशों के साथ।
वाकई एक विरल आलेख।
अनुराधा जी को सलाम
अनुराधा जी, आपने पुस्तक पर जिस गहरी सलंग्नता और विस्तार से लिखा है वह मेरी खुशकिस्मती है। आभार कहना बहुत औपचारिकता हो जायेगी । यही कहूंगा कि सदैव प्रसन्न रहें और खूब आगे बढ़ें।
नवभारत टाइम्स में प्रकाशित वे अनेक आलेख पढ़े हैं जो विजय कुमार जी की इस पुस्तक में होंगे। वे जिस उत्कट लगाव और स्मृतिमयता के साथ व्यतीत हो चुकी मुंबई की खोज करते हैं और इस प्रक्रिया में जैसा आवेगमय और मर्मस्पर्शी गद्य सम्भव करते हैं वह एक अनुभव है। पुस्तक के मर्म को अनुराधा जी ने बहुत सुन्दरता से लिखा है।
पिछले कुछ वर्षो में पढ़ी सबसे अच्छी और बार बार पढ़ने के लिए उकसाती किताब को प्यार से परत दर परत उधेड़ता यह आलेख लंबे समय तक मन और चेतना को सहलाता रहेगा। किसी महानगर को इसके बासिंदों की मार्फत इतनी आत्मीयता के साथ बहुत कम देखा गया है, हिंदी में। वैसे यह किताब सिर्फ़ मुंबई की बात नहीं करती, बदलने भारत की बात करती है। अनुराधा जी का गद्य मैं अन्य कवियों के गद्य की तरह ढूंढ ढूंढ कर पढ़ता हूं… और कभी निराश नहीं होता… वे अपनी कविताओं की तरह अपने गद्य में गहरे उतर कर बडे़ इत्मीनान से सब कुछ छू छू कर देखती महसूस करती हैं। किसी शास्त्रीय गायक की तरह भावों को पकने देती हैं, कोई हड़बड़ी नहीं दिखातीं। विजय जी और अनुराधा जी के साथ समालोचन भी सलाम का पात्र है।
यादवेन्द्र
कई बार यह होता है कि कोई महत्वपूर्ण किताब समयाभाव, लापरवाही या ग़ैर-ज़रूरी मान लिए जाने के कारण अक्सर पढ़ने से रह जाती हैं। ऐसी ही छूट गई लेकिन ज़रूरी किताबों को पढ़ने के लिए उकसाने की दृष्टि से देखें तो विजय कुमार जी की किताब ‘शहर जो छूट गया’ पर लिखा गया यह आलेख बहुत शानदार, सुंदर और वस्तुनिष्ठ है। सजग दृष्टि की पैनापन और वैचारिक सातत्य हमेशा से अनुराधा जी की काव्यभाषा की यूएसपी रहा है। लेकिन उनकी गद्य में इन विशेषताओं का समावेशन हालिया ही है, जिसे उन्होंने विगत पांचेक सालों में बड़े श्रम से अर्जित किया है। यह प्राप्ति निश्चय ही चमत्कृत करने वाली है।
एथोलॉजिस्ट डेसमंड मॉरिस ने लिखते हैं – ‘A city is not concrete jungle, it’s a human zoo.’ मुंबई शहर और उज़की जीवनशैली इस कथन की जीती-जागती मिसाल है।
आलेख में प्रवेश करते हुए अनुराधा सिंह जी ने जिस तरह मुंबई के मिज़ाज को पकड़ा है, और शहर के रोज़नामचे, मूड और स्थापत्य, उसकी स्थानिकता, उसके बनने, बदलने, मिटने और नए सिरे से दोबारा बनने का जो चाक्षुष और जीवंत ब्यौरा दिया है, वह बेजोड़ है। एक अच्छा टीजर एक फ़िल्म के ‘आफ्टर-रिलीज़’ नियति में जो रोल प्ले करता है, वैसा ही महत्व एक किताब के संदर्भ में ऐसे आलेखों या समीक्षाओं का भी होता है। बेशक बहुत अच्छा लिखा है अनुराधा जी। आपको बहुत बधाई।
अनुरधा जी ने जिस शैली में मुंबई का परिचय कराया इस किताब को पढ़ने की लालसा बढ़ गई। अनुराधा जी की पद्य के साथ गद्य में बहुत गहरी पकड़ है। विजय कुमार जी ने मुंबई को एक अलग दृष्टि से देखा और यह दृष्टिकोण ही इस किताब को बेहद खास बनाता है। अभी पिछले दिनों मैंने ज्ञानप्रकाश विवेक की दिल्ली दरवाजा पढ़ी । दिल्ली के बारे में इस तरह मैंने कभी नहीं सोचा लेकिन लेखक का अलग दृष्टिकोण ने इसे इतना रोचक बनाया कि यह बहुत लंबे समय तक याद रखी जाने वाली किताब है। अब मुंबई को जानना है तो विजय जी की यह किताब पढ़नी ही होगी। अनुराधा जी को बेहद धन्यवाद इतनी खूबसूरत किताब से परिचय कराने के लिए।
किसी भी महानगर पर हिंदी में इतनी मेहनत और लगाव से लिखी गई दूसरी कोई पुस्तक नहीं है।इस पुस्तक का महत्व इसमें भी है कि विजय कुमार हमारी पीढ़ी के शायद अकेले ऐसे लेखक हैं, जिसने अपना लगभग पूरा जीवन मुंबई में बिताया- एक -दो छोटे अंतरालों को छोड़कर। वह सच्चे अर्थों में महानगरीय लेखक हैं,जबकि अधिकतर लेखक जीवन के एक खास मोड़ पर आ पाए और इस महानगर को उसकी आंतरिकता के साथ पकड़ नहीं पाए।
अनुराधा जी आपने इस पुस्तक के लगभग हर पहलू को पूरी संलग्नता से इस विस्तृत आलेख में पकड़ा है और इसके साथ सच्चा न्याय किया है। बधाई।